हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 133 – “तूफानों से घिरी जिंदगी” – श्री हरि जोशी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री हरि जोशी जी की आत्मकथा “तूफानों से घिरी जिंदगी” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 133 ☆

“तूफानों से घिरी जिंदगी” – श्री हरि जोशी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

तूफानों से घिरी जिंदगी, आत्म कथा

हरि जोशी

प्रकाशक इंडिया नेट बुक्स, नोएडा दिल्ली

पृष्ठ २१८, मूल्य ४०० रु

चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

मेरी समझ में हम सब की जिंदगी एक उपन्यास ही होती है. आत्मकथा खुद का लिखा वही उपन्यास होता है. वे लोग जो बड़े ओहदों से रिटायर होते हैं उनके सेवाकाल में अनेक ऐसी घटनायें होती हैं जिनका ऐतिहासिक महत्व होता है, उनके लिये गये तात्कालिक निर्णय पदेन गोपनीयता की शपथ के चलते भले ही तब उजागर न किये गये हों किंतु जब भी वे सारी बातें आत्मकथाओ में बाहर आती हैं देश की राजनीति प्रभावित होती है. ये संदर्भ बार बार कोट किये जाते हैं. बहु पठित साहित्यकारों, लोकप्रिय कलाकारों की जिंदगी भी सार्वजनिक रुचि का केंद्र होती है. पाठक इन लोगों की आत्मकथाओ से प्रेरणा लेते हैं. युवा इन्हें अपना अनुकरणीय पाथेय बनाते हैं.

हिन्दी साहित्य में पहली आत्मकथा के रूप में बनारसी दास जैन की सन १६४१ में रचित पद्य में लिखी गई ” अर्ध कथानक ” को स्वीकार किया गया है. यह ब्रज भाषा में है. बच्चन जी की आत्मकथा क्या भूलूं क्या याद करूं, नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर और दशद्वार से सोपान तक ४ खण्डों में है. कमलेश्वर ने भी ३ किताबों के रूप में आत्मकथा लिखी है. महात्मा गांधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग,बहुचर्चित है.  हिन्दी व्यंग्यकारों में भारतेंदु हरीशचंद्र की कुछ आप बीती कुछ जगबीती, परसाई जी ने हम इक उम्र से वाकिफ हैं, तो रवीन्द्र त्यागी की आत्मकथा वसंत से पतझड़ तक पठनीय पुस्तकें हैं. ये आत्मकथायें लेखकों के संघर्ष की दास्तान भी हैं और जिंदगी का निचोड़ भी.

सफल व्यक्तियों की जिंदगी की सफलता के राज समझना मेरी अभिरुचि रही है. उनकी जिंदगी के टर्निंग पाइंट खोजने की मेरी प्रवृति मुझे रुचि लेकर आत्मकथायें पढ़ने को प्रेरित करती है. इसी क्रम में मेरे वरिष्ठ हरि जोशी जी की सद्यः प्रकाशित आत्मकथा तूफानों से घिरी जिंदगी,पढ़ने का सुयोग बना तो मैं उस पर लिखे बिना रह न सका. मेरी ही तरह हरि जोशी जी भी  इंजीनियर हैं, उन्होंने मेरी किताब “कौआ कान ले गया” की भूमिका लिखी थी. फोन पर ही सही पर उनसे जब तब व्यंग्य जगत के परिदृश्य पर आत्मीय चर्चा भी हो जाती हैं.

यह आत्मकथा तूफानों से घिरी जिंदगी  दादा पोता संवाद के रूप में अमेरिका में बनी है. हरि जोशी जी का बेटा अमेरिका में है, वे जब भी अमेरिका जाते हैं छह महिनो के लम्बे प्रवास पर वहां रहते हैं. जब उनसे ६५ वर्ष छोटे उनके पोते सिद्धांत ने उनसे उनकी जिंदगी के विषय में जानना चाहा तो उसके सहज प्रश्नो के सच्चे उत्तर पूरी ईमानदारी से वे देते चले गये और कुछ दिनो तक चला यह संवाद उनकी जिंदगी की दास्तान बन गया. एक अमेरिका में जन्मा वहां के परिवेश में पला पढ़ा बढ़ा किशोर उनके माध्यम से भारत को, अपने परिवार पूर्वजों को, और अपने लेखक व्यंग्यकार दादा को जिस तरह समझना चाहता था वैसे कौतुहल भरे सवालों के जबाब जोशी जी ने देकर सिद्धांत की कितनी उत्सुकता शांत की और उसे कितने साहित्यिक संस्कार संप्रेषित कर सके यह तो वही बता सकता है, पर जिन चैप्टर्स में यह चर्चा समाहित की गई है वे कुछ इस तरह हैं, आत्मकथा का प्रारंभ खंड हरि जोशी जी का जन्म ठेठ जंगल के बीच बसे आदिवासी बहुल गांव खूदिया, जिला हरदा में हुआ था, शिशुपन की कुछ और स्मृतियाँ सुनो, कीचड़ के खेल बहुत खेले,  हरदा,  भोपाल, दुष्यंत जी की प्रथम पुण्यतिथि पर धर्मयुग में जोशी जी की ग़ज़ल का प्रकाशन,  इंदौर,  उज्जैन, दिल्ली  जहां जहां वे रहे वहां के अनुभवों पर प्रश्नोत्तरों को उसी शहर के नाम पर समाहित किया गया है. रचनात्मक योगदान और लेखक व्यंग्यकार हरि जोशी को समझने के लिये हिंदी लेखक खंड, सहित्यकारों से भेंट, विश्व हिंदी सम्मेलन में मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्व, गोपाल चतुर्वेदी जी के व्यंग्य में नैरन्तर्य और उत्कृष्टता, मुम्बइया बोली के प्रथम लेखक यज्ञ शर्मा, अज्ञेय जी की वह अविस्मरणीय मुद्रा, वृद्धावस्था और गिरता हुआ स्वास्थ्य, बाबूजी मोजे ठंड दूर नहीं करते, ठिठुराते भी हैं, कोरोना काल “मेरी प्रतिनिधि रचनायें”, वृद्धावस्था के निकट, परिजन संगीत और साहित्य, लंदन, अमेरिका, पिछले दिनों फिर एक तूफानी समस्या,और अंत में  अमेरिका में मृत्यु पर ऐसा रोना धोना नहीं होता जैसे चैप्टर्स अपने नाम से ही कंटेंट का किंचित परिचय देते हैं. इस बातचीत में साफगोई, ईमानदारी और सरलता से जीवन की यथावत प्रस्तुति परिलक्षित होती है.

कभी कभी लगता है कि आम आदमी के हित चिंतन का बहाना करते राजनेता जो जनता के वोट से ही नेता चुने जाते हैं, पर किसी पद पर पहुंचते ही कितने स्वार्थी और बौने हो जाते हैं, जोशी जी ने 1982 में अपने निलंबन का वृतांत लिखते हुए तत्कालीन मुख्य मंत्री जी का नाम उजागर करते हुए लिखा है कि तब उन्हे सरकारी आवास आवंटित था, उस आवास पर एक विधायक कब्जा चाहते थे, इसलिए जोशी जी की रचना “रिहर्सल जारी है” को आधार बनाकर उन्होंने मुख्य मंत्री जी से उनका स्थानांतरण करवाना चाहा, उस रचना में किसी का कोई नाम नहीं था, और पूर्व आधार पर जोशी जी के पास कोर्ट का स्थगन था फिर भी विधायक जी पीछे लगे रहे, और अंततोगत्वा जोशी जी का निलंबन मुख्य मंत्री जी ने कर दिया । पुनः उनकी रचना दांव पर लगी रोटी छपी, विधान सभा में जोशी जी के प्रकरण पर स्थगन प्रस्ताव आया  ।

1997 में जब जबलपुर में भूकंप आया तो उनकी रचना नव भारत टाइम्स के दिल्ली, मुंबई संस्करण में छपी ” श्मशान और हाउसिंग बोर्ड का मकान ” इसपर तत्कालीन  राज्य मंत्री जी ने शासन की ओर से उनके विरुद्ध मानहानि का  दावा शुरू कर दिया था ।

वे बेबाक व्यंग्य लेखन के खतरे झेलने वाले रचनाकार हैं। अस्तु, अंततोगत्वा जोशी जी की कलम जीती, आज वे सुखी सेवानिवृत जीवन जी रहे हैं। पर उनकी जिंदगी सचमुच बार बार तूफानों से घिरी रही । आत्मकथा के संदर्भ में

 लिखना चाहता हूं कि यदि इसमें  शहरों, देश,  स्थानों के नाम से चैप्टर्स के विभाजन की अपेक्षा बेहतर साहित्यिक शीर्षक दिये जाते तो आत्मकथा के साहित्यिक स्वरूप में श्रीवृद्धि ही होती. आज के ग्लोबल विलेज युग में हरदा के एक छोटे से गांव से निकले हरि जोशी अपनी  प्रतिभा के बल पर इंजीनियर बने, जीवन में साहित्य लेखन को अपना प्रयोजन बनाया, व्यंग्य के कारण ही उनहें जिंदगी में तूफानों, झंझावातों, थपेड़ों से जूझना पड़ा पर वे बिना हारे अकेले ईमानदारी के बल पर आगे बढ़ते रहे, तीन कविता संग्रह, सोलह व्यंग्य संग्रह, तेरह उपन्यास आज उनके नाम पर हैं ।

उन्हें व्यंग्य लेखन के कारण जो समस्याएं आईं वे व्यंग्यकार की परीक्षा होती हैं, स्वयं मुझे नौकरी में तो व्यंग्य इतना बाधक नहीं बन सका क्योंकि मैंने कार्यालय और लेखन को हमेशा बिलकुल पृथक रखने का यत्न किया, जब प्रारंभ में कुछ पत्राचार मेरे अधिकारियों ने किया तो मैंने अभिव्यक्ति की आजादी के संवैधानिक प्रावधान तथा फंडामेंटल सर्विस रूल्स में लिटररी वर्क संबंधी नियम बताकर कानूनी जानकारी अपने जबाब में दे दी। पर अनेक संगठनों समय समय पर मेरे लेखन से आहत होते रहे और मैं इसे अपनी लेखकीय सफलता मान और अधिक प्रहार कारी लेखन करता रहा । इससे मेरी अपनी कार्यप्रणाली स्पष्ट और नियमानुसार कार्य करने की बनी तथा मेरी छबि स्वच्छ बनती गई,  मैने कभी अपने पास किसी फाइल को  लटकाया नही । लोग मुझसे अव्यक्त रूप से डरने भी लगे कि कहीं उन पर कुछ लिख न दूं । खैर ।

 हिन्दी व्यंग्य जगत की ओर से मेरी मंगलभावना है कि जोशी जी की किताबो की  यह सूची अनवरत बढ़ती रहे. इन दिनों वे मजे में अपनी सुबहें धार्मिक गीत संगीत से प्रारंभ करते हैं. मैं अक्सर कहा करता हूं कि यदि प्रत्येक दम्पति सुसभ्य संवेदनशील बच्चे ही समाज को दे सके तो यह उसका बड़ा योगदान होता है,हरि जोशी जी ने सुसंस्कारित सिद्धांत सी तीसरी नई पीढ़ी और अपना ढ़ेर सारा पठनीय साहित्य समाज को  दिया है, वे अनवरत लिखते रहें यही शुभ कामना है. यह आत्मकथा अंतरराष्ट्रीय संदर्भ बने.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 154 – आशा की किरण ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श  और भ्रूण हत्या जैसे विषय पर आधारित एक सुखांत एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “आशा की किरण”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 154 ☆

🌹 लघुकथा 🌹 आशा की किरण ❤️

बड़े बड़े अक्षरों पर लिख था – – – ” भ्रूण का पता लगाना कानूनी अपराध है।”

मेडिकल साइंस की देन गर्भ में भ्रूण का पता लगा लेना।

आशा भी इस बीमारी का शिकार बनी। उसे लगा कि भ्रूण पता करके यदि शिशु बालक है तो गर्भ में रखेगी अन्यथा वह गर्भ गिरा झंझट से मुक्त हो जाएगी।

क्योंकि गरीबी परिस्थिति के चलते अपने घर में बहनों के साथ होते अन्याय को वह बचपन से देखते आ रही थी।

सुंदर सुशील पढ़ी-लिखी होने के कारण उसका विवाह बिना दहेज के एक सुंदर नौजवान पवन के साथ तय हुआ। विवाह के बाद पता चला कि वह माँ बनने वाली है।

किसी प्रकार पैसों का इंतजाम कर अपने पति पवन को मना वह भ्रूण जांच कराने चली गई। रिपोर्ट आई कि होने वाली संतान बालक है खुशी का ठिकाना ना रहा। दुर्गा माता की नवरात्र का समय था। वह अपनी प्रसन्नता जल्दी से जल्दी बताना चाहती थी परंतु यह सोच कर कि लोग क्या कहेंगे समय आने पर पता चलेगा।

आज प्रातः स्नान कर वह खुशी-खुशी अस्पताल पहुंच गई। मन में संतुष्टि थी कि होने वाला बच्चा बेटा ही होगा। वह भी नवरात्र के पहला दिन। निश्चित समय पर ऑपरेशन से  बच्चा बाहर आया। आशा को  होश नहीं था। होश आने पर उसने देखा… उसका पति एक हाथ में शिशु और दूसरे हाथ में मिठाई का डिब्बा ले, सभी को मिठाइयाँ बाँट रहा है वह प्रसन्नता से भर उठी। उसकी आशा जो पूरी हो गई।

पास आकर पवन ने कहा… “बधाई हो मेरी ग्रहलक्ष्मी हमारे घर आशा की किरण आ गई। अब हमारे दिन सुधर जाएंगे।”

“साधु संतो के मुख से सुना है कि अश्वमेध यज्ञ करने के बाद भी आदमी को संतान की प्राप्ति नहीं होती, परंतु जिसके घर स्वयं भगवान चाहते हैं वहाँ बिटिया का जन्म होता है। स्वयं माँ भगवती पधारती है।”

आशा अपने पति को इतना खुश देख कर थोड़ी हतप्रभ थी क्योंकि, इतनी बड़ी बात उन्होंने छुपा कर रखा था और उसे एक महापाप से बचा लिया।

 आँखों से बहते आंसुओं की धार से बेटे और बेटी का फर्क मिट चुका था। आशा अपने किरण को पाकर बहुत खुश हो गई और पति देव का बार-बार धन्यवाद करने लगी।

शुभ नव वर्ष और नवरात्र की कामना करते वह भाव विभोर होने लगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 26 – छविगृह व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 26 – छविगृह व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे देश में बॉलीवुड शब्द अमेरिका के हॉलीवुड की नकल है। हमारी फिल्में, संगीत आदि भी बहुत कुछ यहां की कॉपी है ऐसा लोग कहते हैं। कभी कभी अनुमति अवश्य ले ली जाती है, जिसका शुल्क भी अदा किया जाता हैं।

विदेश में पास के एक छोटे से कस्बे में रीगल नामक छविगृह हैं। जिसमें दो हिंदी फिल्में चल रही थी, पहला दिन और पहला शो, तीन सौ सीट के हाल में हमारे सहित कुल दस लोग थे। सत्तर के दशक में कॉलेज के दिन याद आ गए। परिचित कर्मचारी से एक दिन पूर्व मिल कर टिकट की व्यवस्था या छविगृह में साईकिल स्टैंड वाले से अतिरिक्त राशि देकर टिकट प्राप्त की जाती थी।

यहां छविगृह में वाहन पार्किंग निशुल्क थी। हमारे समय में तो  साइकिल की पार्किंग के लिए दस पैसे बचाने के लिए दो मित्र एक ही साइकिल पर चल देते थे।

यहां टिकट प्राप्ति के लिए कियोस्क से अपनी पसंद की पिक्चर चुनकर कार्ड से या नगद राशि से भुगतान कर मशीन से  टिकट प्राप्त की जा सकती हैं। छविगृह में चौदह अलग स्क्रीन हैं। प्रवेश के लिए कोई टॉर्च लिया हुआ गेटकीपर भी नहीं है।

छविगृह में सीजन पास की भी व्यवस्था है। पूरे अमेरिका में स्थित दो सौ रीगल में कहीं भी अनगिनत पिक्चर्स देखी जा सकती है। कार्ड धारक को मद्यपान छोड़ कर सभी खानपान में विशेष छूट का प्रावधान है। पॉपकॉर्न का बड़ा डिब्बा या ठंडे पेय की बोतल को कितनी बार दुबारा मुफ्त में भरने की सुविधा सब के लिए उपलब्ध है।

पिक्चर में मध्यांतर नहीं होता है। सबसे अच्छी बात हमारे जैसे उम्र दराज दर्शकों को टिकट में विशेष छूट की व्यवस्था भी है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 15 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 15 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

संकट तें हनुमान छुड़ावै।

मन क्रम बचन ध्यान जो लावै।।

सब पर राम तपस्वी राजा।

तिन के काज सकल तुम साजा।

अर्थ:– जो भी मन, क्रम और वचन से हनुमान जी का ध्यान करता है वो संकटों से बच जाता है। जो राम स्वयं भगवान हैं उनके भी समस्त कार्यों का संपादन आपके ही द्वारा किया गया।

भावार्थ:- श्री हनुमान जी से संकट के समय में मदद लेने के लिए आवश्यक है कि आपका मन निर्मल हो। आप जो मन में सोचते हों, वही वाणी से बोलते हों और वही कर्म करते हों तब आप निश्चल कहे जाएंगे और संकट के समय हनुमान जी आपकी मदद करेंगे।

श्री रामचंद्र वन में हैं परंतु अयोध्या के राजा भी हैं। वन के सभी लोग उनको राजा ही मानते हैं इसलिए वे तपस्वी राजा हैं। वे एक ऐसे राजा है जो सभी के ऊपर हैं। तपस्वी राजा के समस्त कार्य जैसे सीता मां का पता करना लक्ष्मण जी के मूर्छित होने पर संजीवनी बूटी को लाना अहिरावण द्वारा अपहरण किए जाने पर सबको मुक्त कराकर लाना आदि को आपने संपन्न किया है।

संदेश:- स्थिति कैसी भी हो मन के भाव, कर्म का साथ और वचन को टूटने न दें। यदि आप ऐसा करते हैं तो हर काम में आपको सफलता जरूर मिलेगी और श्री हनुमान जी का आशीर्वाद भी मिलेगा।

इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ:-

संकट तें हनुमान छुड़ावै। मन क्रम बचन ध्यान जो लावै।।

इस चौपाई का बार बार पाठ करने से जातक सभी प्रकार के संकटों से मुक्त रहता है।

सब पर राम तपस्वी राजा। तिन के काज सकल तुम साजा।

राजकीय कार्यों मे सफलता के लिए इस चौपाई का बार-बार पाठ करना चाहिए।

विवेचना:- सबसे पहले हम संकट शब्द पर विचार करते हैं शब्दकोश के अनुसार संकट शब्द का अर्थ होता है विपत्ति या खतरा। विपत्ति आपके दुर्भाग्य के कारण हो सकती है। सामूहिक विपत्ति प्रकृति द्वारा दी हो सकती है। खतरा एक मानसिक दशा है क्योंकि यह आपके मस्तिष्क द्वारा महसूस किया जाता है। जैसे कि आप रात में सुनसान रास्ते पर जाने पर चोरों या डकैतों का खतरा महसूस कर सकते हैं।

संकट का एक अर्थ होता है मुश्किल या कठिन समय। संकट शब्द का तात्पर्य है मुसीबत। संकट एक कष्टकारक स्थिति है जिसकी आशा नहीं की जाती और जिसका निदान पीड़ा (शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, अथवा सामाजिक) से मुक्ती के लिये अनिवार्य है। संकट का एक उदाहरण है यूक्रेन के लोग इस समय भारी संकट में है। दूसरा महत्वपूर्ण वाक्यांश मन क्रम वचन है।

रामचरितमानस के उत्तरकांड में लिखा हुआ है :-

मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई॥

तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई॥

अर्थ :- जो कान और मन लगाकर इस कथा को सुनते हैं, उनके मन, वचन और कर्म (शरीर) से उत्पन्न सब पाप नष्ट हो जाते हैं। तीर्थ यात्रा आदि बहुत से साधन, उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसे लोगों को योग, वैराग्य और ज्ञान में निपुणता अपने आप प्राप्त हो जाती है।

मन क्रम वचन का दूसरा उदाहरण भी रामचरितमानस से ही है :-

मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।

मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव॥33॥

भावार्थ :- मन, वचन और कर्म से और कपट छोड़कर जो भूदेव ब्राह्मणों की सेवा करता है, मुझ समेत ब्रह्मा, शिव आदि सब देवता उसके वश में हो जाते हैं॥

इस प्रकार स्पष्ट है कि मन क्रम वचन का अर्थ पूरी तन्मयता और एकाग्रता से कोई कार्य करना है। किसी कार्य को करते समय बाकी पूरे संसार को भूल जाना ही मन क्रम वचन से कार्य करना कहलाता है। इस प्रकार इस चौपाई में तुलसी दास जी कहना चाहते हैं कि आप सभी विपत्तियों से और सभी खतरों से बच सकते हो अगर आप हनुमान जी में अपना हृदय पूरी एकाग्रता के साथ लगाएं। उनका जाप करते समय आपको बाकी सब कुछ भूल जाना चाहिए। आपका ध्यान सिर्फ और सिर्फ हनुमान जी पर ही हो। ईश्वर की भक्ति 2 तरह से की जाती है। एक अंतर भक्ति और दूसरा बाह्य भक्ति। चित्त एकाग्र कर हनुमान जी की मूर्ति के सामने बैठकर, या बगैर मूर्ति के सामान बैठ कर जब हम हनुमान जी को याद करते हैं तो अंतर भक्ति कहलाती है। इस समय आप जो जाप करते हैं उसमें आवाज आपके अंतर्मन की होती है। बाह्य भक्ति का अर्थ यह है कि आप मूर्ति के सामने बैठे हुए हैं। शांत दिख रहे हैं और यह भी बाहर से समझ में आ रहा है कि आपका ध्यान इस समय जप में ही है।

इस चौपाई में अगला महत्वपूर्ण शब्द है “ध्यान”। ध्यान शब्द का अर्थ होता है एक ऐसी क्रिया जिसमें मन, कर्म और वाणी तीनों ही एकाग्र होकर किसी बिंदु विशेष पर केंद्रित हो जाए। ध्यान दो प्रकार का होता है पहला यौगिक ध्यान और दूसरा धार्मिक ध्यान। यौगिक  ध्यान का उदाहरण है योगियों द्वारा या योग क्रियाओं के समय किया जाने वाला ध्यान। इस प्रकार के ध्यान को महर्षि पतंजलि के योग सूत्र में विशेष रूप से बताया गया है। इसमें चित्त को एकाग्र करके किसी वस्तु विशेष पर केंद्रित किया जाता है। पुराने समय में विशेष रुप से ऋषि गण भगवान का ध्यान करते थे। ध्यान की अवस्था में ध्यान मग्न व्यक्ति अपने आसपास के वातावरण को और स्वयं को भी भूल जाता है। ध्यान करने से आत्मिक और मानसिक शक्तियों का विकास होता है। अगर कोई व्यक्ति ध्यान मग्न अवस्था में है तो उसे आसपास के वातावरण में होने वाले किसी भी प्रकार के परिवर्तन का असर महसूस नहीं होता है।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अगर आप पूर्णतया ध्यान मग्न होकर हनुमान जी को बुलाते हैं तो आपके हर संकट को महावीर हनुमान जी दूर करेंगे। यह बात केवल हनुमान जी के लिए नहीं है। यह बात समस्त महान उर्जा स्रोतो के लिए है जैसे कि अगर आप देवी जी की भक्त हैं और देवी जी को ध्यान मग्न होकर बुलाएंगे तो वह अवश्य आकर आपके संकटों को दूर करेंगी।

धार्मिक ध्यान का संदर्भ विशेष रुप से बौद्ध धर्म से है। बौद्ध धर्म गुरुओं द्वारा इसे एक विशेष तकनीक द्वारा विकसित किया गया था। बौद्ध मठ के नियम यह कहते हैं इंद्रियों को वश में किया जाए और मस्तिष्क के अंदर घुस कर आंतरिक ध्यान लगाया जाए। हम ऐसा भगवान चाहते हैं जो कि देखता और सुनता हो। जो हमारी परवाह करें। बौद्ध धर्म में भी बोधिसत्व का सिद्धांत कार्य करता है। बौद्ध धर्म में भगवान बुद्ध स्वयं को और दूसरों को आंखें बंद करके मस्तिष्क को सत्य पर केंद्रित करके ध्यान करना सिखाते हैं। जबकि बोधिसत्व स्वयं की आंख और कान खुले रखते हैं और लोगों को मदद देने के लिए अपने हाथों को आगे बढ़ाते हैं। इस कारण जनमानस शिक्षक बुद्ध के बजाय रक्षक बोधिसत्व पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करता है।

हिंदू धर्म में हनुमान एक ऐसा स्वरूप बन गए हैं जिनके द्वारा एक परेशान भक्त उम्मीद और ताकत को वापस पा सकता है। हनुमान जी की आराधना करना उनका ध्यान लगाना भक्तों के अंदर शक्ति प्रदान करता है। विपत्ति और संकटों से लड़ने की शक्ति यहीं पर प्रारंभ होती है। ध्यान लगाकर हनुमान जी को बुलाने से हनुमान जी द्वारा सभी संकटों का हरण कर लिया जाता है।

अगली पंक्ति है:-

 “सब पर राम तपस्वी राजा, तिन के काज सकल तुम साजा”।

 इसमें महत्वपूर्ण शब्द है श्रीराम, तपस्वी, राजा, तिनके काज और साजा। सबसे पहले हम तपस्वी शब्द पर ध्यान देते हैं।

तपस्या करने वाले को तपस्वी कहते हैं। अब प्रश्न उठता है कि तपस्या क्या है। तपस् या तप का मूल अर्थ है प्रकाश अथवा प्रज्वलन जो सूर्य या अग्नि में स्पष्ट होता है। किंतु धीरे-धीरे उसका एक रूढ़ार्थ विकसित हो गया। किसी उद्देश्य विशेष की प्राप्ति अथवा आत्मिक और शारीरिक अनुशासन के लिए उठाए जाने वाले दैहिक कष्ट को तप कहा जाने लगा। वर्तमान में हम तपस्या के इसी स्वरूप को मानते हैं। वर्तमान में तपस्या का यही स्वरूप है। साधारण तपस्वी जमीन पर सोता है, पीले रंग के कपड़े पहनता हैं, कम खाना खाता है, सर पर जटा जूट धारण करता है, नाखून नहीं काटता है। साधारण तपस्वी को वेद पाठ करने वाला और दयालु भी होना चाहिए।

उग्र तपस्वी को ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि, बरसात की रात में आसमान के नीचे रहना, जाड़े में जल निवास, तीन समय स्नान, कंदमूल खाना भिक्षाटन, बस्ती से दूर निवास तथा समस्त प्रकार के सुखों को त्याग करना पड़ता है।

तीसरे हठ योगी होते हैं। जो कि उग्र तपस्वी की सभी क्रियाओं को करते हैं। उसके अलावा कोई एक विशेष मुद्रा में जैसे हाथ को उठाए रखना या एक पैर पर खड़े रहना आदि क्रिया भी करते हैं।

मनु स्मृति कहता है की आपका कर्म ही आपकी तपस्या है। जैसे कि अगर आपका कार्य पढ़ना है तो पढ़ना ही आपके लिए तपस्या है। अगर आप सैनिक हैं तो शत्रुओं से देश की रक्षा करना आपके लिए तपस्या है।

भगवत गीता के अनुसार:- श्रीमद् भागवत गीता में तपस्या के बारे में बहुत अच्छी विवेचना उसके 17 अध्याय में श्लोक क्रमांक 14 से 22 तक किया गया है। इसमें उन्होंने तप के कई प्रकार बताए हैं। श्रीमद् भगवत गीता के अनुसार निष्काम कर्म ही सबसे बड़ा तप है।

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌।

ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते৷৷17.14৷৷

भावार्थ : देवता, ब्राह्मण, गुरु (यहाँ ‘गुरु’ शब्द से माता, पिता, आचार्य और वृद्ध एवं अपने से जो किसी प्रकार भी बड़े हों, उन सबको समझना चाहिए।) और ज्ञानी जनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा- यह शरीर- सम्बन्धी तप कहा जाता है ৷৷17.14॥

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।

अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते৷৷17.17৷৷

भावार्थ :- फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं ৷৷17.17॥

श्री रामचंद्र जी वन में हैं। एक स्थान पर दूसरे स्थान पर भ्रमण कर रहे हैं। सन्यासी का वस्त्र पहने हुए हैं तथा अपने पिताजी द्वारा दिए गए आदेश का पालन कर रहे हैं। संतो की रक्षा कर रहे हैं तथा उन्हें आवश्यक सुविधाएं भी प्रदान कर रहे हैं। इस प्रकार श्री रामचंद्र जी वन में तपस्वी का सभी कार्य कर रहे हैं। श्री रामचंद्र राजतिलक के तत्काल पहले राज्य छोड़ कर के वन को चल दिए। परंतु उनके बाद भरत जी ने अपना राजतिलक नहीं करवाया। श्री भरत जी ने भी पूर्ण तपस्वी का आचरण किया। वल्कल वस्त्र पहने,जटा जूट बढ़ाया आदि। श्री भरत जी ने रामचंद्र जी के खड़ाऊ को रख कर के अयोध्या के शासन को संचालित किया। इस प्रकार अगर तकनीकी रूप से कहा जाए तो अयोध्या के राजा उस समय भी श्री रामचंद्र जी ही थे। अतः तुलसी दास जी ने उनको तपस्वी राजा कहा है।

रामचंद्र जी भगवान विष्णु के अवतार थे। भगवान विष्णु का स्थान देव त्रयी मैं सबसे ऊपर है। इसलिए श्री रामचंद्र जी सब के ऊपर हैं। अतः यह कहना कि सब पर राम तपस्वी राजा पूर्णतया उचित है।

जो सबसे ऊपर है, सबसे शक्तिमान है और सबसे ऊर्जावान है उन श्री राम जी का कार्य हनुमान जी ने किया है। अगर हम रामायण को पढ़ें तो पाते हैं कि श्री हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के अधिकांश कार्यों को संपन्न किया है। जैसे सीता माता का पता लगाना, सुषेण वैद्य को लाना, जब श्री लक्ष्मण जी को शक्ति लग गई तो श्री लक्ष्मण जी को मेघनाथ से बचाकर शिविर में लाना, संजीवनी बूटी लाना, गरुड़ जी को लाना, अहिरावण का वध करना और अहिरावण के यहां से श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को बचाकर लाना आदि। इस प्रकार आसानी से कहा जा सकता है कि श्री हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के सभी कार्यों को संपन्न किया है। श्री रामचंद्र जी ने जो भी आदेश दिए हैं उनको श्री हनुमान जी ने पूर्ण किया है।

इस प्रकार हनुमान जी ने तपस्वी राजा श्री रामचंद्र जी के समस्त कार्यों को संपन्न करके श्री रामचंद्र जी को प्रसन्न किया। जय श्री राम। जय हनुमान।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार – नेपाल से ☆ प्रस्तुति – डॉ निशा अग्रवाल ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार – नेपाल से  – डॉ निशा अग्रवाल🌹

🌹 चतुर्थ इंडो-नेपाल त्रिदिवसीय साहित्यिक महोत्सव आयोजित 🌹

नेपाल महानगरपालिका विराटनगर और क्रांतिधरा साहित्य अकादमी मेरठ भारत के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित चतुर्थ इंडो-नेपाल त्रिदिवसीय साहित्यिक महोत्सव में राव शिवराज पाल सिंह (इनायती) और डॉ निशा अग्रवाल का सम्मानित🌹

नेपाल विराटनगर महानगरपालिका और क्रांतिधरा साहित्य अकादमी मेरठ भारत के संयुक्त तत्वावधान में बिराटनगर नेपाल में त्रिदिवसीय साहित्यिक महोत्सव दिनांक 17, 18 और 19 मार्च 2023 को आयोजित किया गया जिसमें भारत और नेपाल के 350 से अधिक साहित्यकारों ने भाग लिया। कार्यक्रम के संयोजक विराटनगर निवासी डॉ देवी पंथी एवं आयोजक मेरठ निवासी डॉ विजय पंडित रहे। कार्यक्रम का उद्घाटन मुख्य अतिथि विराटनगर महानगरपालिका मेयर नागेश कोइराला , विशिष्ट अतिथि गंगा सुबेदी, दधिराज सुबेदी, कार्यक्रम अध्यक्ष विवश पोखरेल की मौजूदगी में हुआ। कार्यक्रम पांच सत्र में संपन्न हुआ। कार्यक्रम के द्वितीय सत्र का संचालन नेपाल के प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ देवी पंथी ने किया। समारोह के प्रथम दिवस को आयोजित कविता वाचन सत्र की अध्यक्षता नेपाल के प्रोफेसर तेजप्रकाश ने की जिसमें मुख्य अतिथि जयपुर के राव शिवराज पाल सिंह तथा विशिष्ट अतिथि डॉ निशा अग्रवाल एवं अन्य रहे। इस सत्र का मुख्य आकर्षण जयपुर की डॉ निशा अग्रवाल का प्रभावशाली कविता वाचन रहा। इस सत्र का उद्बोधन राव शिवराज पाल सिंह के शब्दों के साथ हुआ। राव शिवराज ने कहा कि-  “हिंदी और नेपाली भाषा संस्कृत से निकली भाषाएं है। एक भाषा, दूसरी भाषा का विकास करती है और हमें एक दूसरे के साहित्य को पढ़ते रहना चाहिए।”

साहित्य में अनुवाद की महत्ता विषय पर परिचर्चा और शोधपत्र वाचन सत्र का संचालन कार्यक्रम आयोजक और अच्छे साहित्यकारों में शुमार मेरठ के डा विजय पंडित ने कहा कि- “साहित्य समाज का दर्पण के साथ एक दीपक का भी काम करता है जो समाज को एक नई दिशा दिखलाता है और साहित्यिक महोत्सव के माध्यम से हम दोनों देशों के बीच एक मजबूत साहित्यिक सेतु का निर्माण करने का प्रयास कर रहे हैं।डॉ निशा ने अपने वक्तव्य में कहा कि- “साहित्य भावनाओं की वह त्रिवेणी है जो जनहित की धरा के साथ उच्चादर्शों की दिशा में प्रवाहित होती है।राव शिवराज ने कहा कि- “साहित्य के बिना समाज गूंगा है और समाज के बिना साहित्य मात्र कोरी कल्पना।” अतः साहित्य और समाज एक दूसरे के पूरक हैं। वक्ताओं ने कहा कि-  “भारत नेपाल के मध्य साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत करने हेतु यह सफल और शानदार वैश्विक मंच हैं। ” कार्यक्रम में नेपाल के वरिष्ठ एवं नवोदित साहित्यकार के साथ साथ भारत के विभिन्न राज्यों से आए गजलकार अशोक श्रीवास्तव प्रयागराज, कवि हरीश देहरादून, ओंकार कश्यप पटना, अंजनी सुमन भागलपुर, राजकुमार चित्तौड़गढ़, प्रीति सैनी जमशेदपुर , हेमलता शर्मा इंदौर, राधा पांडे सिक्किम , नूतन सिन्हा बिहार,रीमा दीवान चढ़ा नागपुर, डॉ त्रिलोकचंद फतेहपुरी, अर्चना तिर्की रांची एवं अन्य वरिष्ठ एवं नवोदित साहित्यकारों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। सभी कलमकारों की लघु कथाओं और बहुभाषी कवि सम्मेलन ने कार्यक्रम में शमां बांध दिया।

समारोह में राव शिवराज पाल सिंह और डॉ निशा अग्रवाल को सम्मान पत्र और ट्रॉफी भेंट कर सम्मानित किया गया।

साहित्यकारों के इस विशाल कुंभ के व्यवस्थित आयोजन और सफल संचालन के पीछे भारत से डॉ विजय पंडित और नेपाल से डॉ देवी पंथी की मुख्य भूमिका रही।

राव शिवराज और डॉ निशा ने कार्यक्रम के संयोजक,आयोजक, व्यवस्थापक टीम के साथ समस्त आगंतुक विद्वतजनों का आभार व्यक्त करते हुए कार्यक्रम के सफल संचालन के लिए सभी को बधाई दी।

साभार –  डॉ निशा अग्रवाल

जयपुर ,राजस्थान  

 ☆ (ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका)  ☆ एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री  ☆ 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वसंत वनी आला ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆

सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ वसंत वनी आला ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆ 

कुहू कुहूची तान ऐकता

निसर्गाचा सांगावा आला

पुन्हा नव्याने सृष्टी फुलविण्या

ऋतुराज वसंत आला ||

 

पानगळीने सरले जीवन

नवे कोंब फुलून आले

इवली नाजूक पाने पोपटी

झाड मोहरून डोलू लागले ||

 

रंगबिरंगी फुले डोलती

तरुवर अंगोपांगी फुलती

मकरंदला टिपण्यासाठी

फुलपाखरे भिरभिरती ||

 

पळस पांगारा बहव्याच्या

सवे फुलला गुलमोहर

निसर्गाच्या रंगपंचमीला

अवचित आला किती बहर ||

 

आमराई ती घमघमते

नवयौवना जणू अवनी

वसंताच्या आगमनाने

चैतन्य पसरते जीवनी ||

 

© सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #180 ☆ जन्मदर… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 180 ?

☆ जन्मदर… ☆

रावणांचा जन्मदर हा वाढलेला

भ्रूण स्त्रीचा उकिरड्यावर फेकलेला

 

लग्नसंस्थेचाच मुद्दा ऐरणीवर

अन् तरीही माणसा तू झोपलेला

 

साधु संताचे अता संस्कार नाही

वासनेचा डोंब आहे पेटलेला

 

पायवाटा नष्ट केल्या डांबराने

कृत्य काळे आणि रस्ता तापलेला

 

कोणताही पक्ष येथे राज्य करुदे

अन्नदाता दिसत आहे त्रासलेला

 

पाय मातीवर म्हणे आहेत त्याचे

गालिच्यावर तो फुलांच्या चाललेला

 

छान संस्कारात सारे वाढलेले

का तरीही एक आंबा नासलेला ?

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ अवती भवती… ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर ☆

प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर

? विविधा ?

☆ अवती भवती… ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर ☆

सांगलीत जुन्या स्टेशन रोडवरून आमराईकडे जाणाऱ्या रस्त्यावरच LIC ऑफिस लागतं. “जीवन के साथ भी जीवन के बाद भी ” या आशेवर लोकांच्या जीवन विमा पॉलिसीवरचा विश्वास जपणाऱ्या या इमारतीमध्ये दिवसभर लोकांची लाईफ लाईन धावपळ करीत असते.

बऱ्याच वेळा संध्याकाळी सात नंतर सांगलीतून घरी येताना याच LIC ऑफिसच्या गेटच्या बाजूच्या भिंतीवर सिग्नलकडे तोंड करून आरामात बसलेला हा अनामिक कुत्रा दिसायचा. त्याची ऐट मनाला भावून जायची. नकळत त्याची छबी टिपण्याचा मोह आवरायचा नाही.

” बचत भी और सुरक्षा भी – हे ब्रीद उराशी बाळगून ही पॉलिसी घराघरांशी नातं जोडून आहे. स्वतःचं जीवन समृद्ध करणारी माणसं रस्त्यात कुत्रं आडवं आलं की हाड हाड करतात. तोच हा कुत्रा याच माणसांच्या पैशाचं ईमानईतबारे रक्षण करत बसलाय असं याच क्षणी वाटून जायचं.

गेली कित्येक दिवस सायंकाळी हाच एकटा कुत्रा ऐटित, याच जागेवर बसायचा. येता जाता त्याची आणि माझी अशी वारंवार नजर भेट व्हायची….पण काही दिवस झालं तो आता तिथं दिसत नाही. येता जाता मनात हूरहूर वाटत रहायची.

ते ठिकाण आल्यानंतर आजही काही क्षण नजर त्या ठिकाणी जाते. त्याची रिकामी जागा अस्वस्थ करते . त्याचं काय झालं असेल ? त्याचं बरं वाईट तर झालं नसेल ना ?( पुन्हा भीती  रस्त्यावर त्याचं बेवारस चिरडण्याची ). झालं असेल बरं वाईट तर माणसासारखा त्याचा वीमा कोणी काढला असेल का ? असे अनेक प्रश्न घेऊन मी त्याच रस्त्यावरच्या गतिरोधकावरून हळू केलेली गाडी रोजच्याच स्पीडनं पुढं दामटवतो.

मनात मात्र तो कुत्रा, LIC ची ती  “जीवन के साथ भी जीवन के बाद भी ” ची टॅगलाईन आणि माझाच जीव मुठीत घेऊन मी तुमच्यासारखाच धावत असतो….!

© प्रा.अरुण कांबळे बनपुरीकर

मु.पो.बनपुरी ता.आटपाडी जि.सांगली

९४२११२५३५७…

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ शिवोsहम्… भाग 2 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? जीवनरंग ❤️

☆ शिवोsहम्… भाग १ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(मागच्या भागात प्रेम कथा लिहिणारी लेखिका, प्रेम कथा तिच्या पठडीतली कशी असावी हे सांगते…. आता पुढे)

३०—४० वर्षांपूर्वीची, सरू आणि विजयची प्रेम कहाणी माझ्या मनात अजून आहे. सरुने  हलकेच माळलेलं सोनचाफ्याचं पानासकट असलेलं फुल, चेहऱ्यावरचे लाजरे, बुजरे, काहीसे धुंद भाव आणि आतुरतेने त्या गावकुसाकडच्या पुलाखाली, खिशात हात घालून वाद घालणारा विजय. .या प्रेमात, लपून-छपून भेटी होत्या, चोरुन पाठवलेली पत्रं होती,चुंबने होती, धाकधूक होती, दु:खं होती,  घरच्यांनचा  विरोध होता,  वियोग ही होता!  पण तरीही ती  एक सफल प्रेम कथा होती. चारी अंगाने फुललेली  आणि विवाह बंधनात सुखरूप परिणती झालेली, सुरेख, गोजिरवाणी, स्वच्छ!

कल्पनांना एकसारखे धक्के बसत होते!  कधी कधी तर माझंच मला आतून ठकठकायचं.  हे सारे प्रवाह जुनाट, आऊटडेटेड वाटायला लागायचे.  माझे मलाच वाटायचे,  ज्या पिढीचं मी प्रतिनिधित्व करते, त्या पिढीच्या विचारांना, कल्पनांना, अनुभवांना आजच्या या नव्या बदलत चाललेल्या समाजाला खरोखरच काही महत्त्व आहे का? त्याहीपेक्षा काही उपयोग आहे का? आपण त्यांच्या पाठी की  पुढे आहोत? हा  एक गोंधळ वाढवणारा प्रश्न. पण मनाच्या एका अदृश्य पडद्यावर मला स्पष्ट दिसायची ती फक्त या नव्या समाजाची पाठच.  मीच आपली धावते त्यांच्या मागे.  माझ्याकडे जे काही थोडेफार आहे, त्याचं गाठोड घेऊन.  कधी कधी माझं मलाच ते जीर्ण, सुकलेलं, रसहीन, बेचव वाटते.  माझी प्रेम कथा तर अगदीच मुळमुळीत आहे असे वाटते. काही गरम मसाला नसलेलीच जाणवते.

प्रेमाचे रंग बदलत आहेत.  ते, अधिक उग्र, गडद डोळ्यांना सुखद वाटण्यापेक्षा, भयभीत,करणारे  रौद्र, भीषण, अचकट —विचकट झालेत. सूत्र प्रेमाचं आहे, गाभाही  प्रीतीचा आहे, पण ती मृदूता, तो मुलायमपणा कुठेतरी हरवलाय.

हे सगळं वाटायचं एक  कारण होतं.  अंतर्बाह्य ढवळून काढणारं,  हादरवणारं, धक्का देणारं, अगदी जवळच घडलेलं असं काही.  याच काळातली ती घटना.

त्याचं म्हणे तिच्यावर प्रेम होतं! वय वर्ष १९ . ती ही त्याच्याच वयाची. एकाच कॉलेजमधले, एकाच वर्गातले.  तिला तो आवडायचा म्हणे.  पण मित्र म्हणून.  तसे तिला मित्र खूपच होते.  ती होतीच छान!  आकर्षक,  गोरी, उंच,  सडपातळ, शिवाय हुशारही, पैसे वाली.  थोडक्यात अगदी सिनेमातल्या हिरोईन सारखी.  तशीच लांबलचक  गाडीतून यायची, शोफरने दार उघडल्याशिवाय गाडीतून उतरायची नाही. दिमाख, डौल होताच तिच्यात. 

त्याची नजर तिच्यावर गेली.  आणि त्याने ठरवलं,

” लग्न करायचं ते हिच्याशीच. नव्हे! ती आपली झालीच पाहिजे.”  तिच्या मनाचा विचार त्याच्या खिजगणतीतही  नव्हता.  ती दुसऱ्या कुणात गुंतली होती असेही काही म्हणता येणार नाही, पण त्याला मात्र ती सांगायची, अगदी विनवून विनवून,

” अरे मला तू आवडतोस! पण मित्र म्हणून.  मी काही तुझ्याशी लग्न वगैरे करणार नाही.”

त्याचे मित्रही त्याला चिडवायचे.  त्याची टिंगल करायचे.  त्याला आव्हान द्यायचे.  त्याच्या स्वप्नांना डिवचायचे.  तो तो त्याचा राग सळसळायचा.  अधिक चीड, अधिक संताप,  अधिक उद्रेक. टोकाची इर्षा. मनात अक्षरश: तांडव.

आणि एके दिवशी कॉलेजच्या आवारात ते घडलं. त्या कॉलेजच्या आवारातली जुनी वठलेली झाडंही थरथरली. किती युवा पिढ्या त्यांच्या छायेत वावरल्या  असतील! प्रेमाची कुंजनं, वियोगाचं कारुण्य, मनोभंगाची दुःखं, अश्रू सारं पाहिलं असेलच त्यांनी.  पिढ्या पिढ्यांच्या नात्यांचे, भावबंधांचे, अनुबंधांचे ते साक्षीदार होते. पण त्या दिवशी त्यांनी जे पाहिलं, अनुभवलं, त्यामुळे ते स्तब्ध झाले असतील.  मुळापासून कळवळले असतील.  त्यांची पानंफुलं मिटून गेली असतील. विदीर्ण झाली असतील.

तिचा आणि त्याचा बराच वेळ वाद झाला म्हणे! हिसका हिसकी झाली. तिने पाठ फिरवली  तरी त्याने तिचे हात खेचले.  तिने त्याला झटकलं. कडवट, कठोर तिरस्काराचे शब्द वापरले.  जळजळीत प्रतिकार केला तिने. त्याने डोळे विस्फारले.  छाती फुगवली. त्याच्यात बळ होतं.  शक्ती होती. त्याच्या नसानसात बेदरकारपणा  होता. संहार स्फुरत होता.  मग काही उरलं नाही. ना प्रेम ना ओलावा! ना दया ना करुणा. फक्त अहंकार, दुराभिमान, एक प्रचंड विकृत आत्मकेंद्रीतपणा.  सारं उपटून फेकून देण्याची वृत्ती.  एक विनाश.  एखाद्या प्रेमाचा फक्त एकच रंग.  लाल. लबलबीत, चिकट मनाची दुर्गंधी.

आता ती त्याचीही नव्हती आणि कुणाचीच नव्हती. सारं काही संपलं होतं.  उरल्या होत्या त्या फक्त चर्चा. सुरुवातीला दबक्या,  कळवळून केलेल्या आणि मग हळूहळू विरत जाणाऱ्या.  नव्हे! पुन्हा अशाच प्रकारच्या घटनांना बोथटपणे सामोऱ्या जायला लावणाऱ्या.

अशा साऱ्या पार्श्वभूमीवर, सामाजिक विकृतीच्या संदर्भात, माझी जन्माला येणारी प्रेमळ, लडिवाळ, हसरी रुसवी, राग —अनुरागाची प्रेम कथा एक सारखी हिंदकळत होती.  डळमळत होती. वास्तवतेच्या आणि अवास्तवतेच्या सूक्ष्म रेषेवर चक्क मरगळून गेलेली दिसत होती. 

एक दिवस सहज मनातलं कुणाजवळ तरी बोलावं म्हणून माझ्याच उमलत्या वयातल्या लेकीला मी म्हणाले,

” किती भयंकर घडलं नाही ग त्या कॉलेजमध्ये!”

तिच्या हातात भलं मोठं बर्गर होतं!  ते अख्खच्या अख्ख तोंडात घालतच तिने विचारलं,

” कशाबद्दल म्हणतेस मम्मी तू.?”

” अगं तुला माहित नाही? इतकं पेपरात रोज येत होतं ते! टीव्हीवरही तुम्हा कॉलेज तरुण— तरुणींच्या प्रतिक्रियांचाही कार्यक्रम झाला.  सूर हाच  होता, त्यानं तिची अशी हत्या करायला नको होतं. “नाही”म्हणायचा तिचा नैतिक अधिकारच होता.

” त्या दोन-तीन महिन्यापूर्वीच्या घटनेबद्दल बोलतेस का तू? काय मम्मी” अजुन तुझ्या डोक्यात तेच विचार आहेत? तू इतकी सेंटी होऊ नकोस. हे असं नेहमीच घडतं. एखादी घटना जरा जास्तच डिस्कस होते.  आजकाल हे काही नवीन नाही.  आधी प्रेमात पडायचं, फसवणूक झाली तर आत्महत्या करायची, नाहीतर तिचा किंवा त्याचा खून करायचा. सट्टॅक. फिनिश!  धिस इज लाईफ. आणि तू मला हेच का विचारतेस, त्याचाही मी अंदाज करू शकतेच. पण मी तुला सांगते, तू एवढा विचार नको करूस.  तुझी मुलं तशी नाहीयेत.  चांगली, विचारी, अभ्यासू, सरळ मार्गी सुसंस्कृत, आणि काय काय… तुला जशी हवी तशी आहेत. एवढं पुरे नाही का तुला?”

तिने ते भलं मोठं बर्गर संपवलं.  पाणी प्यायली आणि टीव्ही ऑन केला.  कुठला तरी इंग्लिश चॅनेल सेट करून त्यावरचं कार्टून पाहण्यात, ती पुढल्या काही सेकंदातच रमून गेली.

मी मात्र पहात राहिले तिचा कोरडेपणा. अलिप्तपणा. आपल्याच विश्वात मस्तपैकी रमायला लावणारा बिनधास्तपणा. 

सारं काही शांत झाल्यावर मी देव्ह्यारात  सांजवात केली. मंदपणे तेवणारी ज्योत, अन्  उदबत्तीचा संथ  सुगंध माझ्या डचमळणाऱ्या मनाला कुठेतरी आधार देत असल्यासारखं वाटलं. 

 मी पुन्हा घेऊन बसले, माझं अर्धवट राहिलेलं लिखाण. माझ्या कहाणीतल्या त्याला आणि तिला क्षणभर सुन्नपणे पाहिलं. मला त्यांच्याबाबतीत असं काही घडू द्यायचं नव्हतं पण  डोकं बधिर झालं होतं. शब्दसुद्धा सोडून गेलेत आपल्याला, असं वाटत होतं.  मी म्युझीअम मधल्या वस्तु जशा आपण कुतुहलाने पाहतो ना तशा सार्‍या घटनांना पाहत बसले.  माझ्या या कथेतल्या प्रेमिकांचा सारा अभिनिवेश जुनाट, मळका, गढूळ, धुळकट वाटला. त्यांच्या चेहऱ्यावर दिसत असलेले प्रेमाचे भावही अगदी शामळु वाटायला लागले.  एखाद्या कृष्णधवल चित्रपटातल्या नायक नायिके सारखे. केवळ गिमीक्स. वास्तवापासून दूर.अगदीच कृत्रीम. अनैसर्गिक.

पण का कोण जाणे! लिहूच नये  असेही वाटेना. या काळाचीच  प्रेमकथा मी  लिहावी का? वाचकांना तीच अधिक रुचेल. पण म्हणून, वास्तवाचा आग्रह धरुन समाजाला हे विकृत द्यायचं का? नाही.  हा  धुरळा जरा झटकता आला तर आतमध्ये अजूनही खूप काहीतरी शिल्लक आहे. जे मला जाणवत होतं. एक शांत, सुखावणारं, शीतल असं प्रेमरंगाचं मधुर मिश्रण!  तेच उलगडून दाखवायची गरज आहे. फक्त भडक, गर्द डोळ्यांना, केवळ रुद्रताच भासवणाऱ्या रंगात ते मिसळायला हवं, म्हणजे भीषणतेची, रौद्रतेची दाहकता कमी होईल. प्रेम म्हणजे नक्की काय असतं, याचा अविष्कार झाला पाहिजे. प्रेम म्हणजे हत्या नव्हे. प्रेम म्हणजे त्याग..

मी पुन्हा लेखणी हातात घेतली.  माझी प्रेम कथा सुंदर, स्वच्छ ,निर्मळ शब्दांची गुंफत गेले. मोगर्‍याच्या गजर्‍यासारखी. रुसणं, फुगण,! राग अनुरागात बांधलेली.  संहारापासून तर कितीतरी दूर. फक्त भावबंध जपणारी, गोड, मिठ्ठास. हातात हात गुंफणारी. जन्मोजन्मीची. साथसोबतीची.

मनाच्या गाभार्‍यात सहज एक ध्वनी घुमला.

कोहं? शिवोsहं!

शिव म्हणजे सुंदरही आणि संहारकही.

मला सुंदर लिहायचं होतं आणि संहारही करायचा होता.

विकृतीचा. अनैतिकतेचा, ओंगळतेच्या वास्तवाचा.

  – समाप्त –

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “मराठी …”… कवी – माणिक कौलगुड ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे  ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? मनमंजुषेतून ?

☆ “मराठी …”… कवी – माणिक कौलगुड ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे 

नवरसयुक्त सालंकृत मराठी माझी 

वैभवशाली शालीन मराठी माझी 

वसे हृदयसिंहासनी मराठी माझी 

माय मराठी माझी सखी साजणी ।।

 

ज्ञानियांनी कौतुके जी मिरविली 

शब्दकळा झळके गीतेची वैखरी 

सुरवंद्य गीर्वाण वाणी तव जननी 

माय मराठी माझी सखी साजणी ।।

 

कधी बोलते आर्त बोली तुकयाची 

कधी रोखठोक रामदासी स्वभावे 

भावव्याकूळ नामदेवाची गाऱ्हाणी  

माय मराठी माझी सखी साजणी ।।

 

लेखणीच होई खड्ग विनायकाचे 

धार केसरीची विलायतेस भिववी 

हळवी मृदुल काळजाची दिवाणी 

माय मराठी माझी सखी साजणी ।।

 

विश्व एक होता भेटती मातृभगिनी 

ज्ञानगुरू असो कोणी पूजनीय ती 

आपपर भाव नसे साऱ्या गुणखनी 

माय मराठी माझी सखी साजणी ।। 

 

कवी : माणिक कौलगुड.  

प्रस्तुती : सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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