हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #176 ☆ ज़िन्दगी का सफ़र ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़िन्दगी का सफ़र। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 176 ☆

☆ ज़िन्दगी का सफ़र 

‘पा लेने की बेचैनी/ और खो देने का डर / बस इतना ही है/ ज़िन्दगी का सफ़र’ यह वह भंवर है, जिसमें फंसा मानव लाख चाहने पर भी सुक़ून नहीं प्राप्त कर सकता। इंसान की फ़ितरत है कि वह किसी भी स्थिति में शांत नहीं रह सकता। यदि किसी कारण-वश उसे मनचाहा प्राप्त नहीं होता, तो वह आकुल-व्याकुल व क्लान्त हो जाता है। उसके हृदय की भाव-लहरियां उसे पल भर के लिए भी चैन से नहीं बैठने देतीं। वह हताश-निराश स्थिति में रहने लगता है और लंबे समय तक असामान्य वातावरण में रहने के कारण अवसाद-ग्रस्त हो जाता है, जिसकी परिणति अक्सर आत्महत्या के रूप में परिलक्षित होती है।

इतना ही नहीं, मनचाहा प्राप्त होने के पश्चात् उसे खो देने के प्रति मानव-मन आशंकित रहता है। इस स्थिति में बावरा मन भूल जाता है कि जो आज है, कल नहीं रहेगा, क्योंकि समय व प्रकृति परिवर्तनशील है और प्रकृति पल-पल रंग बदलती है, जिसका उदाहरण हैं…दिन-रात, अमावस-पूनम, ऋतु-परिवर्तन, फूलों का सूर्योदय होते खिलना व सूर्यास्त के समय मुरझा जाना… यह सिलसिला आजीवन अनवरत चलता रहता है और प्राकृतिक आपदाओं का समय-असमय दस्तक देना मानव-मन को आशंकित कर देता है। फलतः वह इसी ऊहापोह में फंसकर रह जाता है कि ‘कल क्या होगा? यदि स्थिति में परिवर्तन हुआ तो वह कैसे जी पाएगा और उन विषम परिस्थितियों से समझौता कैसे कर सकेगा? परंतु वह इस तथ्य को भुला देता है कि अगली सांस लेने के पहले मानव के लिए पहली सांस को बाहर निकाल फेंकना अनिवार्य होता है…और जब इस प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न होता है, तो वह हृदय-रोग अथवा मस्तिष्काघात का रूप धारण कर लेता है।

सो! मानव को सदैव हर परिस्थिति में सम रहना चाहिए। व्यर्थ की चिंता, व्यग्रता, आवेश व आक्रोश उसके जीवन के संतुलन को बिगाड़ देते हैं; जीवन-धारा को बदल देते हैं और उस स्थिति में वह स्व-पर, राग-द्वेष अर्थात् तेरा-मेरा के विषाक्त चक्र में फंसकर रह जाता है। संशय, अनिश्चय व अनिर्णय की स्थिति बहुत घातक होती है, जिसमें उसकी जीवन-नौका डूबती- उतराती रहती है। वैसे ज़िंदगी सुखों व दु:खों का झरोखा है, आईना है। उसमें कभी दु:ख दस्तक देते हैं, तो कभी सुखों का सहसा पदार्पण होता है; कभी मन प्रसन्न होता है, तो कभी ग़मों के सागर में अवग़ाहन करता है। इस मन:स्थिति में वह भूल जाता है कि सुख-दु:ख दोनों अतिथि हैं… एक मंच पर इकट्ठे नहीं दिखाई पड़ सकते। एक के जाने के पश्चात् दूसरा दस्तक देता है और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। अमावस के पश्चात् पूनम, गर्मी के पश्चात् सर्दी आदि विभिन्न ऋतुओं का आगमन क्रमशः निश्चित है, अवश्यंभावी है। सो! मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिये।

दुनिया एक मुसाफ़िरखाना है, जहां अतिथि आते हैं और कुछ समय ठहरने के पश्चात् लौट जाते हैं। इसलिए मानव को कभी भी, किसी से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। अपेक्षा व इच्छाएं दु:खों का मूल कारण हैं। दूसरे शब्दों में सुख का लालच व उनके खो जाने की आशंका में डूबा मानव सदैव संशय की स्थिति में रहता है, जिससे उबर पाना मानव के वश में नहीं होता। सो! ज़िंदगी एक सफ़र है, जहां हर दिन नए क़िरदारों से मुलाकात होती है, नए साथी मिलते हैं; जो कुछ समय साथ रहते हैं और उसके पश्चात् बीच राह छोड़ कर चल देते हैं। कई बार मोह-वश हम उनकी जुदाई की आशंका को महसूस कर हैरान- परेशान व उद्वेलित हो उठते हैं और निराशा के भंवर में डूबते-उतराते, हिचकोले खाते रह जाते हैं, जो सर्वथा अनुचित है।

इंसान मिट्टी का खिलौना है..पानी के बुलबुले के  समान उसका अस्तित्व क्षणिक है, जो पल-भर में नष्ट हो जाने वाला है। बुलबुला जल से उपजता है और पुन: जल में समा जाता है। उसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी पंच-तत्वों से निर्मित है, जो अंत में उनमें ही विलीन हो जाता है। अक्सर परिवार-जन व संबंधी हमारे जीवन में हलचल उत्पन्न करते हैं, उद्वेलित करते हैं और वास्तव में वे समय-समय पर आने वाले भूकंप की भांति हैं, जो ज्वालामुखी के लावे की भांति समय-समय पर फूटते रहते हैं और कुछ समय पश्चात् शांत हो जाते हैं। परंतु कई बार मानव इन विषम परिस्थितियों में विचलित हो जाता है और स्वयं को कोसने लगता है, जो अनुचित है, क्योंकि समय सदैव एक-सा नहीं रहता। समय के साथ-साथ प्रकृति में परिवर्तन होते रहते हैं। इसलिए हमें हर परिस्थिति को जीवन में सहर्ष स्वीकारना चाहिए।

आइए! इन असामान्य परिस्थितियों की विवेचना करें… यह तीन प्रकार की होती हैं। प्राकृतिक आपदाएं व जन्म-जात संबंध..जिन पर मानव का वश नहीं होता। उन्हें स्वीकारने में ही मानव का हित होता है, क्योंकि उन्हें बदलना संभव नहीं होता। दूसरी हैं– मानवीय आपदाएं, जो हमारे परिवार-जन व संबंधियों के रूप में हमारे जीवन में पदार्पण करती हैं, भले ही वे स्वयं को हमारा हितैषी कहते हैं। उन्हें हम सुधार सकते हैं, उनमें परिवर्तन ला सकते हैं… जैसे क्रोधित व्यक्ति से कन्नी काट लेना; प्रतिक्रिया देने की अपेक्षा उस स्थान को छोड़ देना; आक्षेप सत्य होने पर भी स्पष्टीकरण न देना आदि…क्योंकि क्षणिक आवेग, संचारी भावों की भांति पलक झपकते विलीन हो जाते हैं और निराशा रूपी बादल छँट जाते हैं। तीसरी आपदाओं के अंतर्गत सचेत रह कर उन परिस्थितियों व आपदाओं का सामना करना अर्थात् कोई अन्य समाधान निकाल कर दूसरों के अनुभव से सीख लेकर, उनका सहर्ष सामना करना। इस प्रकार हम अप्रत्याशित हादसों को रोक सकते हैं।

आइए! ज़िंदगी के सफ़र को सुहाना बनाने का प्रयास करें। ज़िंदगी की ऊहापोह से ऊपर उठ कर सुक़ून पाएं और हर परिस्थिति में सम रहें। सामंजस्यता ही जीवन है। परेशानियां आती हैं; जीवन में उथल-पुथल मचाती हैं और कुछ समय पश्चात् स्वयंमेव शांत हो जाती हैं; समाप्त हो जाती हैं। इसलिए इनसे भयभीत व त्रस्त होकर निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए। यदि हम में सामर्थ्य है, तो हमें उनका डट कर सामना करना चाहिए। यदि हम स्वयं को विषम परिस्थितियों का सामना करने में अक्षम पाते हैं, तो हमें अपना रास्ता बदल लेना चाहिए और उनसे अकारण सींग नहीं लड़ाने चाहियें।

आप सोते हुए मनुष्य को तो जगा सकते हैं, परंतु जागते हुए को जगाना सम्भव नहीं है। उसे सत्य से अवगत कराने का प्रयास, तो भैंस के सम्मुख बीन बजाने जैसा होगा। इस परिस्थिति में अपना रास्ता बदल लेना ही कारग़र उपाय है। सो! जो भी आपके पास है, उसे संजोकर रखिए। जो अपना नहीं है, कभी मिलेगा नहीं …यदि मिल भी गया, तो टिकेगा नहीं और जो भाग्य में है, वह अवश्य मिल कर रहेगा। इसलिए मानव को किसी वस्तु या प्रिय-जन के खो जाने की आशंका से स्वयं को विमुक्त कर अपना जीवन बसर करना चाहिए…’न किसी के मिलने की खुशी, न उससे बिछुड़ने अथवा खो जाने के भय व ग़म, अर्थात् हमें अपने मन को ग़ुलाम बना कर नहीं रखना चाहिए और न ही उसके अभाव में विचलित होना चाहिए।’ यह अलौकिक आनंद की स्थिति मानव को समरसता प्रदान करती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दो कविताएं ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण एवं विचारणीय कविताएं – दो कविताएं)

☆ कविता ☆ कविताएं ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

☆ – एक – लिपि और कविता

जहाँ लिपि नहीं होती

वहाँ भी कविता होती है

उस भाषा की कविता से

कहीं बेहतर, कहीं अर्थपूर्ण

जिसके पास समृद्ध लिपि है

कविता लिपि से नहीं

जीवन से संभव होती है।

☆ – दो – कविता की जगह  ☆

सभ्यता में जब नहीं रहती

कविता की कोई जगह

मौत प्रवेश कर जाती है

चुपके से

सभ्यता की देह में

प्रेत की तरह।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मैं ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – मैं ??

मैं जो हूँ,

मैं जो नहीं हूँ,

इस होने और

न होने के बीच ही

मैं कहीं हूँ..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी ।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “रामनवमी – एक आत्मीय पत्र…” ☆ डॉक्टर मीना श्रीवास्तव ☆

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

☆ आलेख ☆ “रामनवमी – एक आत्मीय पत्र…” ☆ डॉक्टर मीना श्रीवास्तव ☆

प्रिय पाठकगण,

आप सबको मेरा सादर प्रणिपात!

रामनवमी के इस मंगलमय पर्व के अवसर पर आप सबको अनेकानेक शुभकामनाएं!

‘चैत्र मास त्यात शुद्ध नवमी तिथी, गंधयुक्त तरीही वात उष्ण हे किती,

दोन प्रहरी कां ग शिरी सूर्य थांबला, राम जन्मला ग सखी राम जन्मला’

(अर्थात, चैत्र महीने की नवमी तिथी है, सुगन्धित परन्तु गर्म हवा बह रही है, ऐसे में दूसरे प्रहर को सूर्य माथेपर आकर क्यों रुका है? क्योंकि राम का जन्म हुआ है!)

प्रतिभासम्पन्न कवि ग दि माडगूळकर द्वारा रचे हुए और महान संगीतकार और गायक सुधीर फडके द्वारा गाये हुए ‘गीतरामायण’ के इस इस चिरंतन रामजन्म के गीत का एक एक शब्द चैत्र महीने के नवोल्लास को लेकर प्रकट हुआ है ऐसा लगता है| गुड़ीपाडवा को नववर्ष का जन्म हुआ, तथा पृथ्वी को प्रतीक्षा थी रामजन्म की| नूतन वासंतिक पल्लवी का गुलाबी महीन वस्त्र पहनकर तथा अभी अभी अंकुरित पीतवर्ण सुगन्धित आम्रमंजरी के गजरोंसे सजकर वह तैयार हुई| धुप में खेलकर बालकों के अंग जिस तरह लाल होते हैं वैसे ही उष्ण समीर के झोंके आज जाकर सूर्य का प्रदीप्त साथ पाकर तप्त हुए हैं| उनके कानों तक एक सुन्दर वार्ता पहुंची और वे तत्काल निकल पडे मनू द्वारा निर्मित अयोध्या नगरी को|

मोक्षदायिनी सप्तपुरियों में प्रथम पुरी (नगरी) यानि अयोध्या! सरयू नदी के किनारे पर बसी यह स्वर्ग से सुन्दर नगरी| अब यहाँ आनन्द की कोई सीमा नहीं है| सारे सुखों के आगार रही इस नगर में बस एक अभाव था, महाराज दशरथ पुत्रसुख से वंचित थे| परन्तु अब यह दुःख समाप्ति के मार्ग पर है| दशरथ की तीनों रानियां गर्भवती हैं और अब समय आ गया है उनकी अपत्य प्राप्ति का. यह उत्सुकता अब चरम सीमा पर पहुँच गयी है| प्रकृति भी इस उत्सुकता में शामिल हो गई है| पेडों पर कोमल कोंपल खिले हैं| बसंत ऋतु की बहार कोने कोने में दृष्टिगत हो रही है, तथा नदियोंका हृदय आनंद से अभिभूत हो रहा था| उनके पात्र प्रसन्नता से पूर्ण हो कर बह रहे थे| मर्यादापुरुषोत्तम का जन्म होगा, केवल इसी विचार से उन्होंने अपनी मर्यादा पार नहीं की थी| अयोध्या वासियोंके मानों पिछले सात जन्मों के पुण्य एकत्रित होने से उज्वल हो उठे थे| श्रीराम के मधुरतम बाल्यकाल का वे अनुभव करने वाले थे| राजमहल में भागदौड़ और गडबड देखते ही बनती थी| राजस्त्रियाँ, दास दासियाँ, दाइयां तो बस तीनों महलोंमें से यहाँ वहां दौड़ रही हैं| महाराज दशरथ, उनके परम मित्र महामंत्री सुमंत, मंत्रीगण, इनको तो चिंता ने व्याकुल कर दिया है| सूर्य माथेपर आने लगा है, तीनों रानियों की प्रसव वेदनाएं चरम सीमा पर पहुंची हैं|

अब यहाँ सबके साथ सूर्यदेव भी तनिक ठहर गए हैं, अयोध्या के माथेपर| ‘सूर्यवंश की नयी पीढी का जन्म होने में बस थोडा सा अवधि बाकी है, अब रुक ही जाऊँ क्षणके लिए|’ ऐसा सोचकर सूर्य आसमान के मध्य में थम गया है| ‘अब उसे कितनी देर तक प्रतीक्षा करवाऊं? ले ही लूँ जन्म इस ठीक मध्यान्ह समयपर, यहीं वह समय और यहीं वह घडी’ यह विचार करते हुए कौसल्या के बालक ने जन्म लिया। फिर कैकेयी के भरत को कैसे धीरज होगा? उसे भी पुत्र हुआ| सुमित्रा के गोद में तो जुड़वाँ बालक थे, एक को राम के सेवा में तो दूसरे को भरत की सेवा में उपस्थित होना था| दो बडे भैया तो पहले ही जगत में आ चुके थे| सो अब समय गँवाना ठीक नहीं था| सुमित्रा के दोनों बालकों ने भी जन्म लिया| इन बालकों के जन्म के अवसर पर ग्रह और नक्षत्र मानों आप ही अत्युच्च स्थान पर विराजमान हो गए थे| इक्ष्वाकुकुलभूषण श्रीराम का वर्ण नीलकमल के समान था, उसके नेत्रकमल किंचित आरक्तवर्णी थे, हाथ थे ‘आजानुबाहू’ और स्वर दुन्दुभिसमान था|

दिन ब दिन बालक बडे हो रहे थे| राजा दशरथ, उसकी तीनों रानियाँ, दास दासियाँ और अयोध्या के जन, ये समस्त लोग रामलला के लाड प्यार करने में मगन हैं| इस सांवले सलोने बालक ने पहला कदम रखा, तो उसे देखने का दैवी परमानंद जिसने अनुभव किया, उसे स्वर्गसुख की प्राप्ति हुई, यहीं समझ लें| इस दृश्य का वर्णन करते हुए चारों वेद मूक हो गए, सरस्वती को तनिक भी शब्द सूझ नहीं रहे थे, शेषनाग अपने सहस्त्र मुखों से यह वर्णन नहीं कर पाया, परन्तु, तुलसीदास तो हैं श्रीराम के परम भक्त, उन्होंने रामप्रभु के मनोरम शैशव का ऐसा रसमय वर्णन किया है कि, मानों हम दशरथ महाराज के राजमहल का दृश्य देख रहे हैं इतना पारदर्शी है मित्रों! यह वर्णन यानि शब्द तथा अर्थ का मधुशर्करा ऐसा मधुर योग! श्रीरामचंद्र के गिरते उठते शिशु चरण, उनके शरीर पर लगी धूल पोंछती रानियां, उनके पैंजनियों की झंकार और नासिका में हिलती डुलती लटकन! रामजी के इस शैशव रूप पर सब बलिहारी हैं|

“ठुमक चलत रामचंद्र, बाजत पैंजनियां,

किलकि-किलकि उठत धाय, गिरत भूमि लटपटाय,

धाय मात गोद लेत, दशरथ की रनियां |

अंचल रज अंग झारि, विविध भांति सो दुलारि,

तन मन धन वारि-वारि, कहत मृदु बचनियां |

विद्रुम से अरुण अधर, बोलत मुख मधुर-मधुर,

सुभग नासिका में चारु, लटकत लटकनियां |

तुलसीदास अति आनंद, देख के मुखारविंद,

रघुवर छबि के समान, रघुवर छबि बनियां |”

मित्रों, आइए, आज के परमपवित्र दिन रामजन्म का आनंद पूरी तरह मनाऐं! 

‘मंगल भवन अमंगल हारी, द्रबहु सु दसरथ अचर बिहारी

राम सिया राम सिया राम जय जय राम!’

पाठकों, अगली बार हमारी भेंट होगी परम पवित्र अयोध्या पुरी में!

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

दिनांक – ३० मार्च २०२३

फोन नंबर: ९९२०१६७२११

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #174 ☆ गीत – सिय राम लखन अभिनंदन… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

 

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण गीत  “सिय राम लखन अभिनंदन…।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 174 – साहित्य निकुंज ☆

☆ गीत – सिय राम लखन अभिनंदन… ☆

रस्ता देखूं दशरथ नंदन

सिय राम लखन अभिनंदन।

 

राम राम मैं गाता जाऊं

मन मन में मुस्काता जाऊं।

राह में तेरे फूल बिछाऊं

राह से शूल हटाता जाऊं।।

राम राम का करूं मैं वंदन

सिय राम लखन अभिनंदन।

 

दर्शन पाकर धन्य हुआ

झुककर चरणों को छुआ

अंतर्मन गदगद ही होता

रोम रोम पुलकित हुआ।

कृपा करना ही रघुनंदन।

सिय राम लखन अभिनंदन।

 

जब जब भटके मेरी नैया

प्रभु बन जाना मेरा खिवैया।

किरपा इतनी करना राम जी

रख लो मुझको अपने पैया।

राम राम माथे का चंदन।

सिय राम लखन अभिनंदन।

 

रस्ता देखूं दशरथ नंदन।

सिय राम लखन अभिनंदन।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #161 ☆ बाल गीत – “कहाँ गई नन्ही गौरैया…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर बाल गीत – “कहाँ गई नन्ही गौरैया”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 161 ☆

☆ बाल गीत – “कहाँ गई नन्ही गौरैया…” ☆ श्री संतोष नेमा ☆

कहाँ गई नन्ही गौरैया

पूछ रहा अब मुनमुन भैया

फुदक फुदक कर घर आँगन में

बसे सदा वह सब के मन में

करती थी वो ता ता थैया

कहाँ गई नन्ही गौरैया

पेड़ों की हो रही कटाई

जंगल सूखे गई पुरवाई

सूख गए सब ताल-तलैया

कहाँ गई नन्ही गौरैया

घर में रौनक तुम से आती

चुगने दाना जब तुम आती

खुश हो जाती घर की मैया

कहाँ गई नन्ही गौरैया

अब हमें अफसोस है भारी

सूनी है अब घर-फुलवारी

बापिस आ जा सोन चिरैया

कहाँ गई नन्ही गौरैया

तुम बिन अब “संतोष”नहीं है

माना हम में दोष कहीँ है

बदलेंगे हम स्वयं रवैया

घर आ जा मेरी गौरैया

रखी है पानी की परैया

बना रखी पिंजरे की छैयां

अब घर आ मेरी गौरैया

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ एका आईचं मनोगत… ☆ प्रा.डॉ.सतीश शिरसाठ उर्फ कवि भादिक ☆

प्रा.डॉ.सतीश शिरसाठ

? कवितेचा उत्सव ?

☆ एका आईचं मनोगत… ☆ प्रा.डॉ.सतीश शिरसाठ उर्फ कवि भादिक ☆ 

(श्रीराम यांच्यासह रामायणातील काही पात्रांवर सगळीकडे वेगवेगळ्या पध्दतीचं लिखाण होत आहे. अनेकजण विविध पोस्ट, व्हिडिओ पाठवतात.रामायणातील एक पात्र- माता कैकेयी. तिचं मनोगत एका कवितेतून मी मांडण्याचा प्रयत्न केलाय. – सतीश शिरसाठ) 

राज्याभिषेकाचा डाव मोडून,

श्रीरामांनी वनाचा रस्ता धरला

तेव्हा ;

लोकप्रेम आणि लोकक्षोभाच्या वणव्यात

मी होरपळले होते.

महाराजांची  तडफड पाहून

मी कळवळले होते.

पण क्षणभरच !

 

आठवले होते,

एका घनघोर युध्दात

महाराजांची मी

ढाल झाले होते.

रामलक्ष्मणांच्या बाळलिलांनी

मी सुखावत  होते.

आकाशातले तारे वेचून

त्यांना खेळायला मी देत होते.

उर्मिला आणि सीतेला

मी माहेर आणून दिले होते.

 

कसं सांगू ?

वासरासाठी गायही शिंगं उगारते;

आईपण जगताना,

राजधर्म मी विसरले होते.

 

श्रीरामाच्या वनगमनानं

नियतीनं मला खलनायिका केलं .

रामप्रासादात कुणाच्याही

डोळ्याला डोळा

मी भिडवू शकले नाही,

अगदी मंथरेच्याही !

तरीही,

नव्हता खेद त्याचा मला.

 

तू आलास,

तुझ्या बंधुप्रेमाच्या  तेजाने-

दिपून गेले मी;

बाळा,

गुन्हेगार मी आयोध्येची,

महाराजांची आणि

इतिहासाची;

पण हे भविष्या,

तू तरी मला समजून घेशील का ?

 

© प्रा.डाॅ.सतीश शिरसाठ उर्फ कवि भादिक

ईमेल- [email protected]

मो व वाटसॅप नं. – ९९७५४३५१५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #168 ☆ राम नाम मंत्र घोष… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 168 – विजय साहित्य ?

☆ राम नाम मंत्र घोष… ✒ ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

विष्णू अंश रामरूप,रघु कुलाचारी

राम नाम मंत्र घोष,संकटे निवारी..||धृ.||

अस्त्रशास्त्र कला विद्या,वेद पारंगत

गुरूगृही रामचंद्र,निती सुसंगत

युद्ध शास्त्र आत्मसात,पुत्र सदाचारी..||१.||

दाशरथी राम सवे,लक्षुमण भ्राता

यज्ञरक्षणार्थ राम, ऋषीमुनी त्राता

विश्वामित्र मागतसे,राम साह्यकारी..||२.||

क्रूरतेचे मूर्त रूप,त्राटिका भयाण

त्राटिकेस देई सजा,सिद्ध रामबाण,

मारीच नी सुबाहुचा,अंत मोक्षकारी..||३.||

वनवासी रामचंद्र,बंधुभाव गाथा

एक एक राम शौर्य,लीन होई माथा

रामलीला देई न्याय,भवभय हारी..||४.||

राम रावणाचे युद्ध,अंत दानवांचा

सुग्रीवादी हनुमान,मैत्र राघवांचा

सीता पती रामराय,जगता उद्धारी..|| ५.||

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वसंत पहाट… ☆ सौ.मंजुषा सुधीर आफळे ☆

सौ. मंजुषा सुधीर आफळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ वसंत पहाट… ☆ सौ.मंजुषा सुधीर आफळे ☆

वसंतातली पहाट

चैत्रांगण रेखाटले

आंबेमोहोर गंधाने

अंगण ते सुखावले

 

मोगरीच्या सुमनांना

अलगद हो वेचले

गुढीपाडवा, तो आज

झेंडुसह मी गुंफिले

 

आंबा फाटे कडुनिंब

साखरेच्या गोड गाठी

ब्रम्हध्वजाच्या साक्षीने

शुभेच्छा तुमच्या साठी

 

आनंदी, आरोग्य दायी

जीवन तुम्हा लाभावे.

समाधानी आयुष्यात

सेवाकार्यात रमावे.

© सौ.मंजुषा सुधीर आफळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “ळ…” ☆ श्री कौस्तुभ परांजपे ☆

श्री कौस्तुभ परांजपे

? विविधा ?

☆ “ळ…” ☆ श्री कौस्तुभ परांजपे ☆

ळ…

अगोदर   ‘क’   बद्दल देखील मी काही लिहीण्याचा प्रयत्न केला आहे. पण ‘ळ’ बद्दल लिहिण्यासारखे काही वाटले ते “जोगळेकर” या आडनावाच्या एका व्यक्तींमुळे.

यांनी एक ऑडीओ व्हिडिओ क्लिप केली आहे. आणि त्यात “जो ग ळे क र” असा उच्चार करतांना “ळ” वर खास जोर दिला आहे. कारण त्यांचे काही मित्र त्यांना “जोगलेकर” अशी हाक मारत असत. ल आणि ळ यातला फरक आणि ळ चे महत्व सांगण्यासाठी त्यांची क्लिप.

ही  क्लिप ऐकल्यावर मी पण या ळ च्या प्रेमळ विळख्यात अडकलो. विळखा घातल्यावर ळ समजतो.

ळ आणि ळ ची बाराखडी चा संबंध माझ्या जन्मापासून आहे, आणि शेवटपर्यंत तो राहणार आहे. अगदी जन्माला आल्यावर पहिला संबंध असतो तो नाळ शी. आणि मग सांगितले जाते ते असते बाळ.

माझ्या बालपणी छान, सुंदर, गुटगुटीत अशी विशेषणे मला नसली तरी मी काटकुळा देखील नव्हतो. घरच्यांना माझा लळा लागला होता.

बाळाच्या रंगावीषयी देखील बोलले जाते. मी गोरा नाही. त्यामुळे काळा, किंवा सावळा असाच आहे, किंवा उजळ नाही असेच म्हणतात. तिथेही ळ शी संबंध ठेवलाच.

नंतर टाळू भरणे, जाऊळ, पायात वाळा, खेळायला खुळखुळा, पांगुळ गाडा,   असा ळ शी संबंध वाढवला. गोंधळ घातला तो आंघोळीचा. मी एकदा मीचकावला तो डोळा. याचेही कौतुक झाले. (डोळा मीचकवण्याचे कौतुक लहानपणीच असते हे लक्षात घ्या.)

पुढे संबंध आला तो शाळा आणि फळा यांच्याशी. फळा सुध्दा काळा. शाळेत  मी अगदीच ढ गोळा नव्हतो हे नशीब. पण त्यामुळे एक (गो)ळा मात्र कमी झाला. शिकतांना सुध्दा कावळा, बगळा, हिवाळा, पावसाळा, उन्हाळा, चाफेकळी, करंगळी, तळ हात, मळ हात, न नळाचा, क कमळाचा, घ घड्याळाचा असेच शिकलो. यात ळ कशाचा हेच शिकायचे राहिले, पण ळ नकळत लक्षात आला. (तळहात, कमळ, घड्याळ यांचा आणि माझा संबंध किती काळापासून पासून आहे हे कळले.)

शाळा, महाविद्यालय असे करत धरली ती नोकरी. पण यातही कपाळावर कर्तृत्वाचा खास असा टिळा काही लागला नाही. पण कामात घोळ घातला नाही.

इतर कामात देखील मी नामानिराळा असतो. कामाचा कळवळा दाखवत नाही. किंवा काम करायला उतावळा देखील नसतो. म्हणूनच माझा उल्लेख कोणी(च) साधा भोळा असा करत नाही. पण मी आवळा देऊन कोहळा काढणारा नाही. किंवा खाण्यापिण्याच्या बाबतीत देखील मी सोवळा नाही. तसाच मी आगळा वेगळा देखील नाही.

मी देवळात जातो, तसेच सोहळ्यात देखील जातो. सकाळ आणि संध्याकाळ नजरेत साठवतो. काही काळ मित्रांसोबत घालवतो, तर काही वेळ घरासाठी.

येतांना नाळ तोडून आलो, आणि जातांना गोतावळा सोडून जाणार आहे. म्हणून वर म्हटले ळ माझ्या जन्मापासून आहे आणि शेवटपर्यंत राहील.

©  श्री कौस्तुभ परांजपे

मो 9579032601

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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