(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है आपकी कोरोना महामारी के समय की एक लघुकथा ‘‘असमंजस’।)
☆ लघुकथा – असमंजस☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल ☆
‘मम्मी, दादाजी की पार्सल आई है’ मुनिया आंगन से चिल्लाई.
‘कल ही तो एक किताब आई थी’ – 100 बरस तक कैसे जिएं.
आज फिर एक किताब—-पता नहीं क्यों बूढों को ज्यादा जीने की लालसा बनी रहती है?’
तब तक मुनिया दोबारा चिल्लाई – मम्मी पैसे निकालो ना जल्दी, पार्सल वाला जल्दी मचा रहा है.’
‘नहीं छुड़ाना है मुझे पार्सल – चूल्हा देखो या पार्सल छुड़ाती फिरूं. कोरोना में घर से बाहर निकलने की सख्त मुमानियत है ना, नास पीटा चिपक चिपकू गया तो, अभी बलाए लग जाएगी, ना रे बाबा ना.’
पार्सल वाला भुनभुनाता चला गया. उसी समय दादाजी आकर पोती से पूछने लगे – ‘बेटी पार्सल आई है क्या? मैंने तुम्हारे लिए एक अच्छी सी गणित की किताब मंगाई है. उससे जरूर तुम्हारी गणित सुधर जाएगी.’
असमंजस की स्थिति में अब मां बेटी एक दूसरे का मुंह ताक रही थी. वे दादाजी को कैसे बताती कि पार्सल वाले को तो उन्होंने 1-2-3 करा दिया है.
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
हम श्रावणपूर्व 15 दिवस की महादेव साधना करेंगे। महादेव साधना शनिवार दि. 4 फरवरी से महाशिवरात्रि तदनुसार 18 फरवरी तक सम्पन्न होगी।
💥 इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा “हृदय का नासूर…”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 167 – साहित्य निकुंज ☆
☆ लघुकथा – हृदय का नासूर… ☆
‘माँ क्या हुआ ? इतनी दुखी क्यों बैठी हो ।”
बेटा क्या बताये आजकल लोग कितनी जल्दी विश्वास कर लेते है ।सब जानते है अपनों पर विश्वास बहुत देर में होता है फिर भला ये कैसे कर बैठी अंजान पर विश्वास।
“माँ कौन ?”
“प्रिया और कौन ?”
ओह्ह ..”प्रिया आंटी सोहन अंकल की बेटी ।”
“हाँ हाँ वही …”
“क्या हुआ ?”
“अभी अभी फोन आया प्रिया का तो वह बोली ….दीदी बहुत गजब हो गया मैं कहे बिना नहीं रह पा रही हूँ पर आप किसी से मत कहना मन बहुत घबरा रहा है।”
“अरे तू बोलेगी अब कुछ या पहेलियाँ की बुझाती रहेगी ।”
“हाँ हाँ बताती हूँ…”
“एक दिन बस स्टेण्ड पर एक अजनबी मिला बस आने में देर हो रही थी और मैं ऑटो करने लगी तभी एक लड़का आया और बहुत नम्रता से बोला मुझे भी कुछ दूरी तक जाना है प्लीज मुझे भी बिठा लीजिये मैं शेयर दे दूंगा। मैं न जाने क्यूँ उसके अनुरोध को न टाल पाई और ठीक है कह कर बिठा लिया ।अब तो रोज की ही बात हो गई वह रोज उसी समय आने लगा और न जाने क्यों मैं भी उसका इन्तजार करने लगी ।हम रोज साथ आने लगे और एक अच्छे दोस्त बन गए ।उसने कहा “एक दिन माँ से मिलवाना है।”
हमने कहा…” हम दोस्त बन गए है अच्छे पर मेरी शादी होने वाली है हम ज्यादा कहीं आते जाते नहीं न ही किसी से बात करते है पता नही आपसे कैसे करने लगे।”
वह बोला …”कोई बात नहीं फिर कभी …”
कुछ दिन बीतने पर वह दिखाई नहीं दिया हमे चिंता हो गई तो हमने फोन किया तो उसकी मम्मी ने उठाया वह बोली ..”पापाजी बहुत बीमार है ऑपरेशन करवाना है अभि पैसों के इंतजाम में लगा है बेटा आते ही बात करवाती हूँ। “
थोड़ी देर बाद अभि का फोन आया वह बोला क्या बताये “पापा को अचानक हॉर्ट में दर्द हुआ और भर्ती कर दिया ।अब ऑपरेशन के लिए कुछ पैसों की जरुरत है 50 मेरे पास है 50 हजार की जरुरत है ।”
हमने कहा …”कोई बात नहीं हमसे ले लेना। “
वह बोला “नहीं..” हमने कहा “हम सोच रहे तुम्हारे पापा हमारे पापा।”और अगले दिन उसे पैसा दे दिया ।कुछ दिन बाद कुछ और पैसों से हमने मदद की ।वह बोला….” हम तुम्हारी पाई पाई लौटा देंगे ।मुझे नौकरी मिल गई है हमें कंपनी की ओर से बाहर जाना है दो माह बाद आकर या तुम्हारे अकाउंट में डाल देंगे ।कुछ दिन वो फोन करता रहा बातें होती रही एक दिन उसके फोन से किसी और दोस्त का फोन आया और वह बोला…
..”मैं बाथरूम में फिसल गया पैर टूट गया है चलते नही बन रहा मैं जल्दी आकर तुम्हारा क़र्ज़ चुकाना चाहता हूँ ।”
हमने कहा “कोई बात नहीं ..कुछ दिन बाद बैंक में डाल देना ।”
वह बोला “ओके ।”
दो चार दिन बाद हमने मैसेज किया प्लीज पैसा भेजो।
तब उसके दोस्त का फोन आता है …”एक दुखद सूचना देनी है गलती से अभि की गाड़ी के नीचे कोई आ गया और एक्सिडेंट हो गया तो उसे पुलिस ले गई है ।वह आपसे एस एम एस .से ही बात करेगा आज मैं यह फोन उसे दे दूंगा ।”
हमने कहा..”हे भगवन ये क्या हो गया बेचारे की कितनी परीक्षा लोगे ।”
कुछ समय बाद उसका मैसेज आया ..”मैं ठीक हूँ जल्द ही बाहर आ जाऊंगा ।”
तब हमने कहा ..”आप अपने दोस्त से कहकर मेरा पैसा डलवा दो मेरी शादी है मुझे जरुरत है ।”
वह बोला “ठीक है..”
फिर हमने कई बार मैसेज किया कोई जबाब नहीं आया ।
तब मैं बहुत परेशान हो गई और सोचने लगी एक साथ उसके साथ जो घटा वह वास्तव में था या सिर्फ एक नाटक था ।
तब मन में एक अविश्वास का बीज पनपा और हमने उसका नंबर ट्रेस किया तो वह नंबर भारत में ही दिखा रहा था। यह जानकर मन दहल गया और वह दिन याद आया जब वह बहुत अनुरोध कर रहा था होटल चलने और कुछ समय बिताने की लेकिन हमने कहा नही हमें घर जाना है यह सही नहीं है तुम्हारे साथ मेरा दोस्त रुपी पवित्र रिश्ता है ।
दीदी बोली….. “बेटा पैसा ही गया इज्जत तो है, बेटा अब पछताये होत क्या जब…।”
“अब अपने आप को कोसने के सिवा कोई चारा नहीं है दीदी ।यह तो अब हृदय का नासूर बन गया है ।”
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण रचना “प्रेम…”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
बरेचदा मनात विचार येतो, माणसाला नेमकं काय हवं असतं ? ह्या प्रश्नाचे उत्तर शोधायला जाणं म्हणजे ते समुद्रातील पाणबुडे वा गोताखोर लोकं समुद्राचा तळ ढुंढाळायचा प्रयत्न करतात, तसं काहीसं वाटलं. सुख, आनंद ह्या संकल्पना व्यक्तीसापेक्ष बदलत जातात. तरीही ढोबळमानाने सुखी होण्यासाठी काही बेसिक गोष्टींना अग्रक्रमाने स्थान मिळतं.
ह्या बेसिक गोष्टींपैकी पहिलं स्थान आपलं आणि कुटूंबियांच आरोग्य.”सर सलामत तो पगडी पचास” ह्या म्हणीनुसार आपलं निरामय आरोग्य आपल्याला खूपसारं मनस्वास्थ्य देतं. आपल्या वा आजुबाजुच्या अनुभवाने आपल्या लक्षात येतं आपला प्रत्येक अवयव हा तितकाच महत्त्वाचा असतो. आपल्याला जेव्हा एखाद्या अवयवाला ईजा होते तेव्हा नेमकं आपल्या मनात हटकून येतं,दुसरा कुठलाही अवयव एकवेळ परवडला पण ह्या अवयवाचं दुखणं नको रे बाबा.
दुसरं स्थान आपलं मानसिक आरोग्याचं. काही कारणाने आपली मनस्थिती जर ताळ्यावर नसेल तर त्याक्षणी प्रकर्षाने जाणवतं. एकवेळ शारिरीक आजारपण असलं तर दिसतं तरी पण काळजी,विवंचना ह्याने हरवलेलं मनस्वास्थ्य मात्र दाखवताही येत नाही अन लपवताही येत नाही.
तिसरी अवघडलेली अवस्था म्हणजे आर्थिक विवंचना. ह्या स्थितीतील व्यक्तींना वाटतं आरोग्यावर पैशाने इलाज तरी करता येतो. फक्त पैसा,सुबत्ता हवी मग काळजी आसपास ही फिरकतही नाही.
वस्तुस्थिती अशी असते की आपल्याला ह्या कुठल्याही प्रकारची चिंता नसली वा व्यक्ती जवळ जबरीची सहनशीलता असली तरी हा भवसागर तारुन जायला मदतच होते.
म्हणूनच संतांनी म्हंटलच आहे “सदा सर्व सुखी असा कोण आहे ?” . त्यामुळे सुखी होण्याची किल्ली ही आपलीच आपल्याजवळ असते हे खरं
☆ अनुवादित दीर्घकथा – द्वारकाधीश… भाग 1 – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆
गेटला कुलूप असलेलं पाहून माझी नजर आपोआपच मनगटावरच्या घड्याळाकडे गेली. अकरा वाजत आले होते. म्हणजे रत्ना ऑफिसला जायला निघालीही होती. मी बॅगेतून किल्ल्यांचा जुडगा काढला, आणि गेटचं कुलूप उघडलं. अंगणात गेल्यागेल्याच माझं लक्ष सहज त्या कोप-याकडे गेलं, जिथे रत्नाची कायनेटिक ठेवलेली असते. कोपरा रिकामा होता ते पाहून रत्ना घरातून निघाली असल्याची खात्रीच पटली. मी घराच्या दाराचं कुलूप काढून बैठकीच्या खोलीत गेलो. समोरच्या टी-पॉयवर एक चिठ्ठी ठेवलेली बघताच, मी झटकन् ती चिठ्ठी उचलली आणि वाचायला लागलो. रत्नाने लिहिलं होतं… ‘‘ तुम्ही लायब्ररीत गेल्यावर थोड्या वेळातच तुमचे बालमित्र ‘सुदामा’ घरी आले होते. याच महिन्यात अठ्ठावीस तारखेला त्यांच्या मुलीचं लग्न आहे. त्याचं आमंत्रण द्यायला आले आहेत. आज संध्याकाळच्या साडेपाचच्या बसचं परतीचं रिझर्व्हेशनही करून आले आहेत. मी तुमच्या दोघांचा स्वयंपाक करून ठेवला आहे. त्यांचे एक परिचित माझ्या ऑफिसजवळच राहतात. त्यांना आमंत्रण देण्यासाठी ते माझ्याबरोबरच आले आहेत. येतांना रिक्षाने येतील. दुपारी माझी एक महत्त्वाची मीटिंग आहे, त्यामुळे मला रजा घेणे शक्य नव्हते. तरीही ऑफिस सुटल्यावर थेट स्टँडवर येण्याचा प्रयत्न करते. मागे कधीतरी तुम्ही मला सांगितलं होतंत की तुमच्या या बालमित्राला खीर खूप आवडते म्हणून… मी खीर करून ठेवली आहे. दोघं मिळून सगळी संपवून टाका बरं का. मी माझ्यासाठी डब्यात घेऊन आले आहे.”
श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’
चिठ्ठी वाचून टी पॉयवर ठेवता ठेवता माझं लक्ष टी.व्ही. जवळ ठेवलेल्या हॅन्डबॅगकडे गेलं. मी सहजच जवळ जाऊन पाहिलं… ती बॅग एखाद्या घराची छोटी प्रतिकृती आहे असंच वाटून गेलं मला… भिंतीवरचं प्लॅस्टर कितीतरी ठिकाणी निखळल्यावर कसं दिसतं… तशीच दिसत होती ती बॅग. तिच्या एका कोप-यात एक कागद चिकटवलेला होता… ज्यावर लिहिलेलं होतं… राजाराम चिंधूजी निंबाळकर, नेहरू वॉर्ड, मु.पो.रामटेक, जि.नागपूर… तो कागदही बराच जीर्ण झालेला होता. पण तो त्या बॅगेला इतका घट्ट चिकटलेला होता की, तो त्या बॅगेचाच अंगभूत भाग आहे, असं वाटत होतं.
राजाराम आल्याचं कळल्यामुळे माझं मन आणि शरीरही रोमांचित झालं होतं. किती वर्षांनी भेटणार होतो आम्ही दोघे…पण… पण अजूनही त्याच्या एका मुलीचं लग्न व्हायचं आहे?… खरं तर त्याच्या मुलींची नावंही मला नीटशी आठवत नाहीयेत्. त्यातल्या दोघी तिघींची लग्नं तर नक्कीच झालेली होती. त्यांच्या निमंत्रण-पत्रिका आल्या होत्या की मला… पण कधी फक्त अभिनंदनाचा मेसेज पाठवून, तर कधी त्याच्याशी फोनवर बोलून, मी माझी ‘मैत्री’ निभावत राहिलो होतो. एक-दोनदा तर रत्नानेच पत्र पाठवली होती त्याच्या बायकोला… म्हणजे रेणुकाला. माझ्या घराची वास्तुशांत होती तेव्हा मीही आमंत्रण दिलं होतं त्याला… आणि माझ्या मुलीच्या लग्नालाही बोलावलं होतं. माझ्या मुलीचं लग्न आहे म्हटल्यावर, त्यासाठी तो नक्की येईल अशी आशा… नव्हे.. खात्रीच वाटली होती मला. भलेही त्याच्या मुलामुलींच्या लग्नाला मी जाऊ शकलो नसलो, तरी माझ्या मुलीच्या लग्नाला त्याने यायला नको होतं का?… एकच तर मुलगी आहे मला…मला जरा रागच आला होता त्याचा. पण रत्नाने त्यावेळी मला समजावलं होतं… ‘अहो, तुमचा बालमित्र गरीब आहे. मित्राच्या मुलीच्या लग्नाला ते रिकाम्या हाताने कसे येऊ शकले असते? शिवाय यायचं म्हणजे तीनेकशे रूपये तरी बस भाड्यासाठी खर्च करावेच लागले असते ना त्यांना…” आमच्या मित्र-प्रेमात तिने अढी पडू दिली नव्हती… पण आता इतक्या वर्षांनी तो आला आहे, म्हणजे नक्कीच काहीतरी वेगळं कारण असणार त्यामागे… किती वेळ मी असल्या शंकांच्या भोव-यात सापडलो होतो कोण जाणे… दारावर टकटक झाली, तसा मी भानावर आलो. माझा अंदाज खरा ठरला होता… राजारामच आला होता. दार उघडताक्षणी आम्ही एकमेकांना घट्ट मिठी मारली… नंतर कितीतरी वेळ त्या ड्रॉइंगरूममधल्या पंख्याची हवासुद्धा आमच्या स्पर्शाने जणू गहिवरली आहे असंच मला वाटत राहिलं होतं. जवळपास वीस वर्षांनी भेटत होतो आम्ही… वीस वर्ष हा काही थोडा-थोडका काळ नाही.
अत्यंत आपलेपणाने निमंत्रण पत्रिका माझ्या हातात ठेवून राजाराम आंघोळीला गेला. मी डायनिंग टेबलावर जेवणाची सगळी तयारी करून ठेवली. आणि मग ती पत्रिका वाचायला लागलो. तेवढ्यात राजाराम आवरून तयार होऊन आला. ‘चल जेवायला…’ मी त्याला म्हटलं…
‘‘तुला खीर आवडते हे मी रत्नाला कधी सांगितलं होतं कोण जाणे… पण आज खास तुझ्यासाठी ती खीर करून ठेवून गेली आहे बरं का ! मी गोड खूपच कमी खातो. आणि ‘दोघांनी मिळून खीर संपवून टाका’ असं रत्नाने चिठ्ठीत बजावलं आहे. त्यामुळे आता याची जबाबदारी पूर्णपणे तुझ्यावर आहे मित्रा…” खरंतर राजारामने लवकरात लवकर माझ्याशी मनमोकळेपणाने बोलावं… वागावं असं मला वाटत होतं.
‘‘ मनोहर, अरे माझं खीर खाणं तर कधीच बंद झालंय्. चार मुली आणि एक मुलगा… यांना वाढवता वाढवता, त्यांची लग्नं करून देता देता माझी कंबर पार मोडून गेली आहे. खीर सोड… आता चहाही बिनदुधाचा पिण्याची वेळ आलीये माझ्यावर. आज वहिनीने माझ्यासाठी खीर केली आहे, तर मी नक्कीच खाईन… पण इतकी सगळी नाही खाऊ शकणार बाबा… आता सवयच राहिली नाहीये, आणि आता अशी इतकी पौष्टिक खीर तर पचणारही नाही मला. आपण पूर्वी खायचो ती खीर कशी असायची ते आठवतंय् ना तुला? डबाभर भातात एक वाटी दूध… एक वाटी पाणी… आणि फक्त दोन चमचे साखर घालायची. खूप वेळ ते सगळं एकत्र घोटत रहायचं आणि घटाघट पिऊन टाकायचं… भाताचा तांदूळही रेशनचा असायचा … तो इतका सुवासिक कुठला असायला? ”… राजाराम इतक्या मोकळेपणाने बोलायला लागला, याचा खूप आनंद झाला मला. त्याने निदान जेवण होईपर्यंत तरी मनावर असणा-या ताण-तणावातून बाहेर यावं आणि मोकळा श्वास घ्यावा असं मला अगदी मनापासून वाटत होतं. म्हणून मी झटकन् विषय बदलला. आणि त्याच्या कौटुंबिक बाबतीत बोलायच्या ऐवजी, गावात काय परिस्थिती आहे, या विषयावर बोलायला लागलो.. पण बहुतेक राजारामला या विषयात मुळीच रस नव्हता. म्हणून त्याने अगदी थोडक्यात मला सांगितलं, की आता रामटेकला जाण्यासाठी फक्त सकाळी, संध्याकाळीच नाही, तर दुपारीही बस सुरू झाली आहे… बस स्टँड आता गावाबाहेर हलवला गेला आहे. विड्याच्या पानांच्या ज्या बागा होत्या, त्या जागी पानांच्या ऐवजी आता निवासी कॉलन्या उगवल्यात. आपल्या बरोबर तो एक ‘हा’ होता ना, त्याचे कॅन्सर झाल्याने निधन झाले. दुसरा एक होता तो क्षयरोगाने ग्रासलेला आहे. आणि तो आणखी एक होता ना… कबड्डी खूप छान खेळायचा तो… त्याने कर्जबाजारीपणाला वैतागून आत्महत्या केली… राजारामचं हे सगळं बोलणं ऐकून माझ्या लक्षात आलं की, माझ्या लहानपणीच्या ज्या एका छोट्याशा बागेची अतिशय मोहक अशी प्रतिमा माझ्या हृदयात मी सांभाळली होती, आणि मला कायम जी आशा वाटत होती की, माझ्यासारखीच आणखी आणखी प्रगती करत, त्या छोट्या बागेचं आता मोठं उद्यान झालं असेल, तसं काहीच झालं नव्हतं… त्यातल्या एकन् एक रोपट्यावर काळाची घातक कीड पडली होती. मी हळूच राजारामकडे पाहिलं… आणि… आणि मला वाटून गेलं की, जीवन मरणाच्या सततच्या संघर्षात, कसं तरी करून स्वत:ला जपण्यात यशस्वी होत राहिलेलं, त्याच बागेतलं एक झाड माझ्यासमोर उभं आहे… मी नकळत गप्प झालो. मग राजारामच बोलायला लागला…
– क्रमशः भाग पहिला
मूळ हिंदी कथा – ‘ द्वारकाधीश’ – कथाकार – श्री. भगवान वैद्य ‘प्रखर’
अनुवाद : सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे
९८२२८४६७६२.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
समस्त युवा पिढीस प्रातिनिधिक स्वरूपात, म्हणून प्रिय तरुणाई. या व्यासपीठावरून तुमच्याशी काही संवाद साधण्यापूर्वी मी तुमचे चेहरे न्याहाळत आहे. खूप त्रासलेले, कंटाळलेले, आणि आता काय डोस प्यायला मिळणार या विचाराने वैतागलेलेच दिसत आहेत मला. रीती-परंपरा, संस्कृती, आदर्श, इतिहास, हे शब्द ऐकून तुमचे कान किटलेले आहेत हे मला कळतंय. तेही साहजिकच आहे. माझ्यासारखे बुजुर्ग तुम्हाला सांगून सांगून काय सांगणार? असेच ना?
पण होल्ड ऑन —
मी मात्र अशी एक बुजुर्ग आहे की, ” काय हे, आमच्या वेळी नव्हतं बाई असं! ” हे न म्हणता तुमच्याशी संवाद साधू इच्छिणारी आहे. ” तुमच्यात मलाही घ्या की ” अशी विनंती करणार आहे.
एखादा ढग धरतीवर बसून जातो आणि संपतो. मात्र मागे हिरवळ ठेवून जातो. मी ना तो संपलेला ढग आहे आणि तुम्ही वर्तमानातील हिरवळ आहात. मी भूतकाळ आणि तुम्ही वर्तमान काळ आहात. गतकाळातच रमण्यापेक्षा मला वर्तमानकाळाबरोबर जोडायला आवडेल. एक साकव बांधायला आवडेल.
साक्षी भावाने जेव्हा मी तुमच्या जीवनाकडे पाहते, तेव्हा मला तुम्ही काळाच्या खूप पुढे गेलेले दिसत आहात. खूप प्रगत आणि विकसित भासता. आज याक्षणी मी शिक्षित असूनही तुमच्या तांत्रिक, यांत्रिक जीवनाकडे पाहताना मला फार निरक्षर असल्यासारखं वाटतं आहे. त्या क्षणी तुम्ही माझे गुरु बनता आणि मी शिष्य होते. हे बदललेलं नातं मला मनापासून आवडतं. आणि जेव्हा मी हे नातं स्वीकारते तेव्हा माझ्या वार्धक्यात तारुण्याचे दवबिंदू झिरपतात आणि मला जगण्याचा आनंद देतात.
बी पॉझिटिव्ह… से येस टू लाइफ… हा नवा मंत्र मला मिळतो.
हो युवकांनो ! भाषेचा खूप अभिमान आहे मला. पण तरीही तुमची टपोरी, व्हाट्सअप भाषा मला आवडूनच जाते. कूल. चिल, ड्युड, ब्रो, सिस.. चुकारपणे मीही हे शब्द हळूच उच्चारूनही बघते बरं का !
परवा संतापलेल्या माझ्या नवऱ्याला मी सहज म्हटलं, ” अरे! चील! ” त्या क्षणी त्याचा राग बटन बंद केल्यावर दिवे बंद व्हावेत तसा विझूनच गेला की !
तुमची धावपळ, पळापळ, स्पर्धा, इर्षा, ‘आय अॅम द बेस्ट’ व्हायची महत्त्वाकांक्षा, इतकंच नव्हे, तर तुमचे नैराश्य जीवनाविषयीचा पलायनवाद,आत्महत्या, स्वमग्नता हेही मी धडधडत्या काळजांनी बघतेच रे ! मनात येतेही..
” थांबवा रे यांना, वाचवा रे यांना !” .. एक झपकीच मारावीशी वाटते मला त्यावेळी तुम्हाला. पण मग थांबते क्षणभर. हा लोंढा आहे. उसळेल, आपटेल, फुटेल, पण येईल किनाऱ्यावर. आमच्या वेळचं, तुमच्या वेळचं ही तुलना येथे कामाची नाही. त्यामुळे दरी निर्माण होईल. अंतर वाढेल. त्यापेक्षा मला तुमचा फक्त हात धरायचाय् किंवा तुमच्या पाठीमागून यायचंय.
” जा ! पुढे पुढे जा ! आमच्यापेक्षा चार पावलं पुढेच राहा ! कारण तुम्ही पुढच्या पिढीचे प्रतिनिधी आहात. पण वाटलंच कधी तर पहा की मागे वळून. तुमच्यासाठी माझ्या हातातही एक मिणमिणती पणती आहे. दिलाच तर प्रकाशच देईल ती, हा विश्वास ठेवा. एवढेच. बाकी मस्त जगा. मस्त रहा. जीवनाचा चौफेर अनुभव घ्या.”