English Literature – Poetry ☆ ~ Dogged Perseverance ~ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present his awesome poem ‘Dogged Perseverance’ inspired and based on the poem ‘अनुभव’ written by Shri Sanjay Bhardwaj ji narrated in his article 👉‘संजय  उवाच – अनुभव’We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.  

? ~ Dogged Perseverance ~ ??

Had just walked a few steps only

but with the feet above the ground,

with a desire to grab the sky in my fist…

Suddenly-

The ground moved from below my feet

The height also started slipping rapidly,

The sky began to laugh at me

with an acrimonious sarcasm

I also began to feel embarrassed

being mocked at by the world,

But, here I am again-

With ‘Never say die’ attitude,

trying with all my indefatigable

strong willpower,

Such small is my fist,

and so big is the infinite sky…

But surprisingly-

This time the sky looks fearful,

Experience has opened up

myriad newer vistas of life,

Now I know victory is for sure

Because this time my steps

are not above the ground

but firmly grounded on it…!

~Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 173 ☆ “दास्ताने दर्द…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक विषय पर आधारित माइक्रो व्यंग्य – “दास्ताने दर्द)

☆ व्यंग्य # 173 ☆ “दास्ताने दर्द…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

दास्ताने दर्द…

डाक्टर, अस्पताल, दवाई और ठगी, लुटाई शब्दों के गठबंधन ने सांस लेना दूभर कर दिया है दूरदराज गांव के अपढ़ गरीब डाक्टर, अस्पताल और दवाओं से त्रस्त हैं। पेट खोलकर पैसे का तकाजा करना। लाश को कई दिनों तक वेंटिलेटर में रखकर बिल बढाना, बिल जमा होने पर ही लाश देना ऐसे अनगिनत कितने हादसों की लम्बी कतार है। एक गांव के गरीब मरीज के वेदनामय स्वर को हम इस व्यंग्यकथा के रुप में प्रस्तुत कर रहे हैं जो एक गांव के गरीब मरीज की दर्द भरी दास्तान है।

“गांव के गरीब मरीज के हंसते हुए वेदनामय स्वर”

दुनिया रंगमंच जैसी है, खूब अभिनय भी कराती है, रुलाती भी है…. खुद पर शाबासी भी दे देती है। किस पर विश्वास कर लें।

सूरज आज भी निकला है। हवाएं बह रहीं हैं तेज… बेशर्म के हजारों फूल खिलखिलाकर हंस रहे हैं। नदिया के किनारे काले पत्थर में बैठकर नहाने – धोने की बात सोचते – सोचते फिर पेट में दर्द का इतिहास उखड़ गया है। गांव के नाड़ी वैद्य को दिखाया था तो पेट पकड़ कर बोले थे – शीत वात पित्त का लफड़ा है तुम्हारे पेट में तीनों इकठ्ठे होकर राजनीति कर रहे हैं आपस में दलबदल कर रहे हैं जब पित्त दलबदल कर शीत बन जाता है तो वात पेट में मरोड़ लाता है। दो महीने चूर्ण खाना, दो जनेऊ पहन लेना फिर चुनाव के बाद देखते हैं। बड़ी गजब बात है कि गांव के लिए डॉक्टर बनाए जाते हैं और गांव में कोई पढ़ा लिखा डाक्टर आने तैयार नहीं होता। सुना है कि कहीं जुगाड़ नहीं बैठा तो एक कोटे वाली डाक्टरनी पिछले हफ्ते आयी है गांव। सो हम नहाए भी खूब और धोए भी खूब फिर डाक्टरनी बाई को दिखाने चल दिए, डाक्टरनी ने दो पाइप दोनों कान में डाले और चिटी धप्प जैसी चीज पेट में रख दी… गुदगुदी हुई तो डाक्टरनी बोली – “पांव भारी हैं…. जुड़वे लग रहे हैं। गांव भर में हवा फैल गई कि हमारे पांव भारी हैं, गांव की महिलाएं गर्म भजिया और खट्टी चटनी खिलाकर पुण्य कमाने के चक्कर में थीं। पड़ोसन ने खट्टे आम टोकनी भर भिजवा दिये। हम कहीं मुंह दिखाने काबिल नहीं रहे तुरंत जनेऊ उतार के फेंक दिया। घरवाली भी शक की निगाह से देखने लगी…. एक तो पेट में दर्द और ऊपर से लांछन पे लांछन…. ।तंग आ गये पैर तरफ नजर डाली तो पैरों में खूब सारी सूजन और अब सचमुच पैर भारी लगने लगे। पत्नी बोली – चलो पास के शहर में दिखा लेते हैं, हो सकता है कि डाक्टरनी झूठ बोल रही हो क्योंकि आजकल झूठ बोलने का फैशन बढ़ गया है, कुछ मालूम नहीं तो झूठ बोल कर टाल दो…. झूठ की अपनी महत्ता अपनी उपयोगिता और अपना इतिहास है यूं तो झूठ का ‘विकास’ मानव सभ्यता के साथ हुआ पर इन दिनों झूठ – झटका और विकास का बोलबाला है। वे “झूठ बोले कौआ काटे….” वाला गाना सुनकर खूब झूठ बोलते हैं झटके मारते हैं पर कौआ उनको नहीं काटता इसलिए वे फेंकू उस्ताद कहलाते हैं। झूठे अच्छे दिन आने वाले हैं। बड़ा गजब है झूठ बोलने वाला होशियारी और दिलेरी से सफेद झूठ बोलता है और सुनने वाला उसे पूरी सच्चाई से सुनकर मान लेता है…… पत्नी लगातार बड़बड़ाये जा रही है। पत्नी जब बड़बड़ा रही हो तो बीच में बोलने से फटाके जैसे फट पड़ती है इसलिए उस समय चुप रहने से सुरक्षा बनी रहती है सो हमने चुप रहना ज्यादा ठीक समझा, चुप रहने का भी इतिहास है जनेऊ कान में लगाने से चुप रहने की कला सीख सकते हैं।

चुपचाप कपड़े – लत्ते रखके बस में बैठ गए, शहर पहुंचे तो डॉक्टर बोला – पैर में सूजन मतलब किडनी में गड़बड़ी…… तुरत-फुरत डाक्टर ने कहीं फोन लगाया “किडनी आ गई है”। भर्ती किया सब टेस्ट कराए आपरेशन कर दिया हम का जाने कि आजकल किडनी की चोरी भी होत है। कुछ दिन में छुट्टी हुई बोला – दो महीने बाद दिखाना। दो महीने बाद गये तो पैरों की सूजन और बढ़ गई है डाक्टर बोला – दिल का मामला है हार्ट वाले को दिखाओ, हमने अपना काम कर लिया है।

हार्ट वाला डाक्टर बोला – ‘ब्लॉकेज ही ब्लॉकेज हैं’ तभी तो पैर भारी लग रहे हैं पैरों में भरपूर सूजन है, एंजियोगराफी, एंजियोप्लास्टी और न जाने क्या क्या करके पत्नी के गहने और घर बिकवा दिया, बोला – जी है तो जहान् है…… ।पत्नी फिर बड़बड़ाने लगी – ये सब झूठे हैं, ठगने के बहाने डराते हैं, साले सब परजीवी हैं, गरीबों पर दया नहीं करते, एक किडनी चुरा ली, अब दिल चुराने में लगे हैं, कोई पांव भारी हैं कहता है कोई दिल की नाली चोक की बात करता है,………. हमने फिर पत्नी को टोंका – भागवान थोड़ा चुप रहो डाक्टर सुन लेगा तो बिल बढ़ा देगा…… बिल बढ़ने के नाम पर पत्नी थोड़ा चुप हो गई।

आठ महीने बीत गए थे कुछ हो नहीं रहा था नौवें महीने की शुरुआत हो चुकी थी पेट में उथल-पुथल मची गई, पीड़ा का इतिहास पर्वत बन रहा था पेट और पांव की सूजन इतिहास बनाने के लिए दोंदरा मचा रही है।

कोई ने कहा – बराट को दिखाओ पुराना डाक्टर है मर्ज पकड़ लेता है, सो एक दिन बराट के दवाखाने चले गए। डाक्टर ने लिटाया और पूछा – कैसा लगता है ?

हमें गुस्सा आ गया हम बोले – “का कैसो लगत है” सब डाक्टर परजीवी जैसे लगते हैं, कभी पत्नी भी परजीवी लगती है बच्चे होते तो वे भी परजीवी लगते, सब कुछ परजीवी लगता है कभी पड़ोसी तो कभी मेहमान भी परजीवी लगते हैं। कभी कभी लगता है एक भारत माता है और उसकी आंतों में बड़े बड़े परजीवी मंत्री, नेता अफसर, डाक्टर सब चिपक कर खून चूस रहे हैं फिर कभी लगता है कि 140 करोड़ आबादी अच्छे दिन ले के आओ कह के चिल्ला रही है और उनकी आवाज दबाने हर क्षेत्र में नये-नये परजीवी पैदा हो रहे हैं जिन्होंने देश को भाषा धर्म और जाति के आधार पर बांट रखा है कुछ परजीवी बनकर कुर्सियों में चिपके हैं और भ्रष्टाचार फैला रहे हैं…….
ज्यादा मुंह चलता देख डाक्टर ने ऐसा पेट दबाया कि हमारा मुंह बंद हो गया……….

डाक्टर बोला – जिन परजीवियों की बात कर रहे हो सब तो तुम्हारे पेट में भरे हैं बहुत से जुड़वा भरे हैं। सुन के हम डर गये, बड़ी मुश्किल है कि हमने कुछ किया ही नहीं तो इतने सारे कहां से भर गये, घबराके भागने लगे तो डाक्टर ने पकड़ लिया…. ढाढस बंधाया बोला – “आपरेशन नहीं करुंगा…. गोली से निकाल दूंगा।

हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था सो हम अब हर बात पर हां… हां करते हुए बैठ गए।

डाक्टर ने तीन गोली एक साथ खिलाई। रात भर सोये, सुबह रेल पटरी के किनारे खुले में शौच करने बैठे तो भलभला के निकलने चालू हो गये….

पहले दो निकले आधे निकले और फंस गए तो हमने खींच के निकाला, फिर दो और निकल आए, दो – दो करते निकलते रहे, हम खींचतान करके निकालते रहे। लाईन लगा के निकलते रहे। इतिहास रच डाला। फिर हमने सबको धोया – पोंछा और पत्नी को दिखाया…. पत्नी की जीभ निकल आयी बोली – अरे…. ये तो पटार हैं पटार पेट में पाया जाने वाला एक्स्ट्रा लार्ज परजीवी कृमि है परजीवी बनके चूस डाला। पांव भारी करके बदनामी करायी, इनके चक्कर में किडनी चोरी हुई, दिल का दिवाला निकल गया।
जाओ नाली में फेंक दो इनको…….. ।

पेट से निकले पटारों को देख देख कर अंदर से बड़ी आत्मीयता और ममता फूट रही है क्यों न फूटे…. नौ महीने से पेट में पले बढ़े हैं नौ महीनों से इन्होंने भी भूख प्यास, सुख दुख सब कुछ मेरे साथ सहा है, और पेट में ही रहे आये इधर उधर भगे नहीं, इन्होंने नयी-नयी देशभक्ति जैसी निभाई चूसते भले रहे पर आधार को लिंक करने की मांग नहीं उठाई। जीव हत्या का पाप डाक्टर को लगेगा पर हमें इन पर दया आ रही है ये जो लम्बे लम्बे तंदुरुस्त से पड़े हैं। इन बेचारों ने डाक्टरों के इतिहास के काले पन्ने पढ़ने का मौका दे दिया। पटार महराज ने हमें इतिहास लिखना सिखा दिया।

गिला किसी से नहीं……. शिकायत किसी से नहीं…. दर्द अपनी जगह था पर अपना अपना इतिहास में हमारे पटार महराज का इतिहास निखालिस कहलाएगा, हालांकि इतिहास विवाद का विषय बनता जा रहा है इन दिनों, इतिहास से राजनीति गरमा जाती है, इतिहास से दंगा फसाद का डर हो गया इन दिनों। नाक कटने का डर….. गला काटने के फरमान। इतिहास पर फतवे……. राम… राम ।खेल खतरनाक हो रहा है पर गीता पर हाथ रखकर हम कह रहे हैं कि पटार प्रकरण इतिहास सत्य है और सत्य के अलावा कुछ नहीं है और न ही इस इतिहास में कोई खतरे हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ मराठी कहानी – सँदेसा… लेखक – श्री सचिन वसंत पाटील ☆ भावानुवाद – श्री अनिल विठ्ठल मकर ☆

श्री अनिल विठ्ठल मकर

☆ कथा कहानी ☆ 

? मराठी कहानी – सँदेसा… लेखक – श्री सचिन वसंत पाटील ☆ भावानुवाद – श्री अनिल विठ्ठल मकर–   ??

(श्री सचिन वसंत पाटील की मराठी कहानी ‘सांगावा’ का हिंदी में अनुवाद)

दिन ढलने लगा। पश्चिम का आकाश ललछौंह हो गया। सखू बूढ़िया ने अपना गोड़ाई का काम रोका और दिनभर के काम पर आखरी नजर दौड़ाई। गोड़ाई किया खेत हिस्सा उसे हरी गुदड़ी को काला टुकड़ा लगाए जैसा लग रहा था। गोड़ाई से निकले हुए घास की उसने छोटीसी गठरी बनाई और उसी में ही खुरपी ठूँस दी। उसने एक झटके में ही वो गठरी सिर पर ली। शाम के घरकामों की चिंता उसके चेहरे पर स्पष्ट रूप में झलकने लगी। पहले ही समय ब्याही भैंस को दुहने की चिंता से उसने घर का रास्ता पकड़ लिया। टेड़ा-मेड़ा रास्ता काटते हुए वह तेज गति से चलने लगी।

“अरी ओ बूढ़ियाऽ…कहाँ जा रही हों इतनी तेजी से? रूको ना, मैं भी आनेवाली हूँ…”

पीछे से किसी को तो आवाज आ गई। इसलिए वह पीछे मुड़ गई। पीछे मूड़ते समय गर्दन टेड़ी करते समय गठरी न गिरे इसलिए उसने उसे एक हाथ लगाया। शाम के वक्त इतनी देरी से आवाज देनेवाला कौन होगा? इस विचार से उसने पीछे मुड़ कर देखा तो वह चौंक ही गई। गन्ना कटाई के लिए गई येसाबाई सिजन खत्म होने से पहले ही आयी थी। वह ऐसे-कैसे आ गई, उसे देख बूढ़िया को अचरज ही हुआ।

“अरीऽ…येसाबाई, तू है क्या? कब आ गई?” ठोड़ी को हाथ लगाते हुए सखू बूढ़िया ने ताज्जुब से पूछा।

“यही तो, अभी आ गई, कुर्डूवाडी का मेरा छोटा भाई मर गया। इसलिए तो आयी थी तीसरे के लिए!” येसाबाई ने बताया।

येसाबाई के छोटे भाई के मौत की खबर सुनकर बूढ़िया को बहुत बूरा लगा। उसका संवेदनशील मन मौत की खबर सुनते ही बेचैन हो गया। पति की मौत के बाद उसे ऐसा ही होता। किसी के भी मौत की खबर सुनते ही उसकी आँखें भर आती। अपनी भावनाओं पर काबु करते हुए उसने दुखी मन से ही पूछा,

“कैसे मर गया अचानक?”

“कहते है कि उधर शहरों में कोई तो बीमारी आ गई है। जिसकी वजह से लोग छुहारे की तरह दुबले-पतले होकर मर जाते हैं।”

श्री सचिन वसंत पाटील

सखू बूढ़िया को यह थोड़ा आश्चर्यजनक ही लगा। ठोड़ी पर हाथ रखते हुए वह विचारचक्र में डूब गई। चिंता की रेखाएँ उसके चेहरे पर स्पष्ट रूप में झलकने लगी। शहर में गन्ना कटाई के लिए गए अपने नौजवान बेटे की चिंता उसे सताने लगी…। कैसी होगी यह बीमारी? अगर वह मेरे बेटे को हो गई तो सोने जैसा बेटा हाथ से गँवाना पड़ेगा। ‘ऐसी कैसी मौत होगी यह!’ वह खुद से ही बुदबुदाई। जैसे छठी की देवी (सटवी) को उसे यह सवाल पूछना था। उसे लगने लगा कि सोने जैसे बेटे को बिना वजह से परदेस भेज दिया। उसका मन भर आया। आँखों आँसू तैरने लगा। सिसकियाँ को रोकते हुए उसने आँखें पोंछ ली। मन थोड़ा कठोर कर कुछ पूछने के इरादे से उसने येसाबाई की ओर देखा। तब तक येसाबाई ही बोली,

“तेरे बेटे की जरा-भी फिक्र मत कर। वह बिल्कुल ठीक है।”

खबर सुनते ही सखूबाई खुश हो गई। पूछने के पहले ही उसे अपने सवाल का जवाब मिल गया था। उसकी निस्तेज आँखें चमक उठी। झुर्रियोंवाले चेहरे पर हास्यरेखाएँ छा गई। वह जी-जान एक कर अपने प्यारे बेटे की खुशहाली सुनने लगी। सुनते-सुनते उसके चेहरे पर चाँद खुल गया और अनायास ही पूछ बैठी,

“क्या सँदेसा भेजा है मेरे बेटे ने।”

अब वो दोनों भी साथ-साथ चलने लगी। दिनभर तपी बंजरभूमि काटती हुई दोनों आगे बढ़ने लगी। अब पैर के रफ्तार के साथ येसाबाई के मुँह की भी रफ्तार शुरू हो गई।

“आते समय मैं खुद उसे मिलकर आयी हूँ। मुझे पता ही था कि गाँव आने के बाद तू पूछेगी ही। इसलिए तो तेरे बेटे को आते समय ही पूछा था ‘तेरा कुछ सँदेसा है क्या माँ के लिए? और इसके बाद ही आयी। लेकिन यह भी सच है कि घर से आदमी दूर होने पर चिंता तो सताती ही रहती है। लेकिन तू उसकी फिक्र मत कर। तेरा बेटा बिल्कुल ठीक है। उसने तुझे अपनी तबियत का खयाल रखने के लिए कहा है। तेरी भी चिंता है ना उसे। उसका सबकुछ ठीक है। रहने के लिए जगह भी अच्छी मिल गई है। मुकादम भी अच्छा है। एक बार जोरदार बेमौसम बारिश होने दो, सीजन खत्म होगा और आएगा बेटा तुझे मिलने….”

येसाबाई बोल रही थी और सखू बूढ़िया ध्यान से सुन रही थी। बेटे की खुशहाली सुनकर उसे थोड़ा सुकून महसूस हुआ। उसके जान में जान आ गई। उसे लगने लगा कि मैं बिना वजह से चिंता कर रही थी। बूढ़िया के मन में उमड़े चिंता के बादल शांत हो गए। धीरे-धीरे अंधेरा घना होने लगा। येसाबाई ने समझाने के बावजूद बेटे की चिंता सखूबाई का पीछा नहीं छोड़ रही थी।

“दो जून की रोटी के लिए बेटे का काफी मशक्कत तो नहीं करनी पड़ती होगी?” बूढ़िया के मातृहृदय ने अपने मन की चिंता व्यक्त की।

“उसकी जरा भी फिक्र मत कर। हमारी टोली में सभी मिल-जुलकर रहते हैं। वह किसी के पास भी खाना खाता है।”

“ठीक है, लेकिन समय पर खाने को मिला तो ठीक। नही ंतो…” सखू बूढ़िया का दिल तिल-तिल टूटने लगा। उसे गन्ना कटाई के बेटे को बाहर भेजने का पछतावा होने लगा। उसे लगने लगा कि इतने लाड़-प्यार से बेटे किए बेटे को मैने बिना वजह से टोली में भेज दिया। जिसके लिए पूरी जिंदगी दाँव पर लगाई, जी तोड़ मेहनत की, वही बेटा आज ऐसे रोटियाँ माँग कर खा रहा है। दिन भर खाली पेट जी तोड़ मेहनत करता है। बेटे के शरीर की हालत पूरी खस्ता हो जाएगी। खाने-पीने की उसकी यह उमर। मैंने बिना वजह से उसे टोली में भेज दिया…। बाहर घने होते अँधेरे के साथ बूढ़िया के मन का अँधेरा भी घना होता गया।

“बाहर जाने के बाद सभी गाँव वाले मिल-जुलकर रहते हैं। सभी एक जगह पर रहते हैं, खाते हैं, पीते हैं।” येसाबाई ने ऊपर-ऊपर से औरचारिक रूप में बूढ़िया को समझाने का प्रयास किया।

“पीते है याने शरीब पीते हैं क्या?”

सखू बूढ़िया को मानो झटका-सा लग गया। कुछ दिन पहले शराब पी-पीकर पति भगवान का प्यारा हो गया। अब बेटा भी उसी राह पर चलने लगा है क्या? उसका मन बेचैन हो गया। पूछे गए सवाल का जवाब सुनने के लिए चकित होकर येसाबाई की ओर मुड़ गई।

“वैसा कुछ नहीं, लेकिन…. दिनभर काम कर थकान आने पर लेते हैं बीच-बीच में…।” येसाबाई ने शराबियों की वकालत की।

“वैसा नहीं येसाबाय, शराब की लत याने बहुत बूरी। किसी ने एक बार लेना शुरू किया तो उसकी पूरी जिंदगी लील लेती है।”

“देख बूढ़िया, शराब कोई जान-बूझकर पीता है क्या? दिन भर काम कर थकान आने पर ही… थोड़ी-सी शाम को लेते है दवा की तरह!”

येसाबाई ने फिर एक बार शराबियों का पक्ष लिया। काम कर-कर थक जाने पर टोली के सभी लोग थोड़ी-बहुत लेते हैं; यह सुन सखूबाई का दम घुटने लगा। बिना वजह से उसे अपने और बेटे के बीच अंतर दूर-दूर लगने लगा। शराब पी-पीकर पीले पड़े पति को उसे अपनी खुद की आँखों से देखा था। बेटे की भी वैसे ही हालत न हो, ऐसा उसे लगने लगा। पति की बीमारी के दौरान और उसके मृत्यु के बाद क्रियाकर्म के लिए कई लोगों से लिए पैसे और कर्ज के भुगतान के लिए उसने बेटे को गन्ना कटाई की टोली में भेज दिया था। नहीं तो वह अपने लाड़ले बेटे को ऐसा दूर नहीं भेजती। गाँव के गणपाभाई का शिवा, चमार का मारुती, लंबू किसना सभी ने उसके खयाल के बारे में आश्वस्त करने के कारण ही उसने बेटे को गन्ना कटाई मजदूरों की टोली में भेज दिया था।

रह-रहकर सखू बूढ़िया को बेटे की चिंता सताने लगी। ‘कैसा होगा मेरा बेटा क्या पता…?’ उसने मन-ही-मन किसी को तो सवाल किया। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। कुछ देर बाद उसने थोड़ा अपने मन को सँवारते हुए येसाबाई से पूछा,

“मेरा बेटा पीता तो नहीं है ना…?”

येसाबाई ने अपने दाएँ हाथ की थैली बाएँ हाथ में ली और दाएँ हाथ को नागफनी की तरह हिलाते हुए बोली,

“नहीं…नहीं… तेरा बेटा बहुत देवता के गुणों का है। उसे सुपारी के टुकड़े का भी लत नहीं। क्या अच्छा और क्या बुरा वह अच्छी तरह जानता है। कुछ भी हो थोड़ा बहुत क्यों न हो चार किताबें पढ़ा है। वह ऐसे नहीं बिगड़ेगा।”

येसाबाई ने दिखाए विश्वास से बूढ़िया का आत्मविश्वास बढ़ गया। उसकी चाल में भी दम आ गया। उसे लगा कि है ही मेरा बेटा अच्छा। न किसी का लेना-न-देना, न किसी के बीच। वह चाहे शराबियों में ही क्यों न रहे लेकिन विवेक से रहे। सिर्फ शराब नहीं पीनी चाहिए। ऐसा रहे तो कोई चिंता नहीं…।

बूढ़िया ने विचारों की कालिख को झटक दिया और सीधा अपने रास्ते से बिनधास्त रूप में चलने लगी। वैसे तो वह अपने ही रोब में चलते हुए थोड़ी ज्यादा ही दूर गई। येसाबाई पीछे ही रह गई। इसलिए येसा ने फिर से आवाज दी,

“अरी ओ बूढ़ियाऽ…तुझे कुछ मालूम है क्या?”

सखू बूढ़िया पीछे देखे बगैर ही रूक गई। पीछे से येसा आने की राह देखते हुए वह खड़ी हो गई।

“क्या हुआ येसाबाई?”

“वो ऊपर की गली में रहने वाला गणपाभाई का शिवा है ना, उसे परसो पुलिस पकड़ ले गई थी। कारखाने पर किसी की तो हत्या हो गई है और कुछ लोग कहते हैं कि वह इसने ही की है! क्या सच और क्या झूठ? भगवान ही जाने। कहते है कि वह बिना वजह से वह चाकू कमर को लगाकर घूमता है। ज्यादा आवारा ही लगता है। कहाँ वो गणपाभाई और कहाँ उनका बेटा। कैसा निकला है देख।”

बूढ़िया को यह सब आश्चर्यजनक ही लगा। कहाँ देवता के गुणों के गणपाभाई और उनके वंश में ऐसी विचित्र औलाद का जन्म। बूढ़िया को अपने बेटे की चिंता सताने लगी। क्या सही में हमारा बेटा गुंडागर्दी से दूर होगा?…नहीं तो वह भी ऐसे ही किसी के तो बुरी संगत में लगा होगा।…पुलिस उसके पीछे लगी होगी। नहीं तो चोर, गुंडे शिवा जैसे लोग चाकू लेकर उसके पीछे लगे होंगे। और मैं यहाँ आराम से बैठी हूँ। बूढ़िया को चिंता सताने लगी। उसे लगने लगा कि बिना वजह से बेटे को गन्ना कटाई की टोली में भेज दिया। कर्ज का भुगतान तो क्या आज न कल हो जाता धीरे-धीरे। पैसा ही नहीं होगा तो क्या साहुकार चमड़ी निकाल के ले जाएगा? जैसे-जैसे आता पैसा वैसे दे देती, नहीं तो थोड़ा-सा जमीन का टुकड़ा बेच देती! उधर कसाई की चंगुल फँसा मेरा बेटा जानवरों की तरह चिल्लाता होगा। और मैं यहाँ बैठी हूँ…परमेश्वरा, विठ्ठला, पांडुरंगा सँभालो रेऽऽ मेरे बच्चे को….। कहते हुए।

बूढ़िया फिर से चिंता में डूब गई। खुद ही आरोपी के पिंजड़े में खड़ी होकर खुद को ही दोषी साबित करने लगी। उसने चिंतामग्न चेहरे से येसाबाई की ओर देखा। लेकिन येसा की बकबक जारी बंद होने का नाम नहीं ले रही थी। वह आगे बोली,

“यह तो कुछ भी नहीं। वो चमार का मारुती है ना पिछले चार सालों से टोली में है। टोली में उसने काफी पैसा कमाया। नया घर बनाया, गिरवी जमीन छुड़वाई, बहन की शादी भी की। हमें लगा की लड़के ने अच्छा नाम कमाया! अरी लेकिन क्या बताऊँ, कहते हैं कि उसने वहाँ एक स्त्री (रखैल) रखी है। वह हमेशा उसके पीछे-पीछे दुम हिलाते घूमता रहता है।”

यह सुन सखू बूढ़िया के शरीर की रही-सही ताकद भी गायब हो गई। अब उसके सिर पर होने वाली गठरी उसे और भारी लगने लगी। इस बात पर उसका विश्वास ही नहीं बैठ रहा था। उसने येसाबाई से मारुती के संदर्भ में पूछ-पूछ कर उसके संदर्भ में सबकुछ जान लिया। तो पता चला कि सही में उसने एक रखैल रखी है। बूढ़िया को मारुती का गुस्सा आ गया। खुद खाई में गया तो गया लेकिन मेरे बेटे को भी लेकर गया। बेटे को बिना वजह से मारुती के साथ भेज दिया, ऐसा उसे बार-बार लगने लगा।

मारुती इतना सीधा-सरल आदमी ऐसे कैसे बिगड़ गया। क्या पता नाटक, सिनेमा देख बिगड़ गया होगा? घर से आदमी दूर रहेगा तो ऐसा ही होगा न…, न किसी का डर, न किसी का बंधन। बिना रस्सी के जानवर की तरह।…जहाँ चाहे उधर दौड़े…!

बेटे की चिंता से बूढ़िया का दिल तिलतिल टूटने लगा। उसके शरीर पर रोंगटे खड़े हो गए। रह-रहकर उसे उसे लगने लगा कि, जवानी के जोश में मेरा बछड़ा किसी सटवी (स्त्री) के चंगुल में फँस गया तो… फिर बैठो तालियाँ पीटते! ऐसी तैयार हुई फसल मैं बर्बाद नहीं होने दूँगी। (अब कुछ करने लायक बने मेरे बेटे को मैं बर्बाद नहीं होने दूँगी) इससे उसे बचाना होगा। उसके बगैर कौन है हमारा? बूढ़ापे की लाठी है वह हमारा, उसका खयाल रखना ही होगा। अब ये सिजन खत्म होते ही उसकी शादी ही कर होगी। असली सिक्का है वो मेरा। कभी भी बाजार में उतरो, हमखास पूरा का पूरा दाम मिलेगा। कतार लगेगी लड़कियों की कतार…। लड़कियों कतार लगेगी, वो तो ठीक है लेकिन लड़का ठीक से वापस आया तो न…। खुद का ही खुद पर भरोसा नहीं रहा तो बेटे का क्या देगी?

ऐसा ही विचारचक्र में डूबी बूढ़िया बंजरभूमि को पार कर गाँव तक पहुँच गई। उसकी आँखों के सामने वो येसाबाई का छोटा भाई तैरने लगा। जो असाध्य बीमारी से दुबला-पतला होकर मरा था। वो कौन-सी बीमारी है, क्या पता?

मेरे बेटा भी इसकी चपेट में आ गया तो एड़ियाँ घिस-घिस के मर जाएगा। मुझसे यह नहीं देखा जाएगा। और वो रहता भी है शराबियों में। अगर पीता होगा तो हो गया मामला तमाम…। शराब पी-पीकर छिपकली की तरह बना उसका पति उसे याद आ गया। पति के चेहरे की जगह उसे अपने बेटे का चेहरा दिखने लगा। वैसे उसके मन की बेचैनी और ही बढ़ गई। वह घबरा गई। हवा का एक झोंके से वह ऊपर से नीचे तक हिल गई। मानो उसके शरीर में कुछ ताकद ही नहीं बची हो।

उसके मन का संतुलन ढल गया। मानो ढहनेवाले बुर्ज की तरह बूढ़िया ढह गई। उसने अपने सिर की गठरी नीचे फेंक दी और झटके में नीचे बैठ गई। छोटे बच्चे की तरह वह घुटनों में सिर डालकर रोने लगी।

अब तक चूप येसा को यह सब देख विचित्र ही लग गया। चकित होकर वह बूढ़िया के पास जा बैठी और पूछने लगी,

“अरी क्या हुआ बूढ़िया? ऐसे रोने क्यों लगी!”

बूढ़िया ने सिर्फ गर्दन हिलाई और फिर से जोर-जोर से रोने लगी। तब येसाबाई समझाने के स्वर में बोली,

“तेरा बेटा ठीक है, कोई फिकर मत कर। कुछ सँदेसा हो तो बोल, कल जाकर बताऊँगी तुरंत।”

इसे सुनते ही बूढ़िया ने किसी तो निश्चय से गर्दन ऊपर उठाई और मन से बोली,

“तेरे पैर पकड़ती हूँऽ…येसाबाय। तुझे अगर मेरी सही में मेरी चिंता हो तो सिर्फ यही सँदेसा बता दो मेरे बेटे को…बोल उसे, ‘जैसा हो वैसा अब की अब तुरंत वापस निकाल आ…!’ सिर्फ यही सँदेसा है उसे बोलो… सिर्फ यही सँदेसा हैऽऽऽ…”

इतना ही बोलकर बूढ़िया झट से खड़ी हो गई। देखते ही देखते उसे गठरी सिर ली और चलने लगी। आखिर चारों ओर फैले घने अँधेरे में वह समा गई। लेकिन येसाबाई बूढ़िया गई दिशा की ओर ही अँधेरे में आँखे फाड़-फाड़ कर देखती रही।

***

(लेखक श्री सचिन वसंत पाटील लिखित मराठी कहानी ‘सांगावा’ का श्री अनिल विठ्ठल मकर द्वारा ‘सँदेसा’ नाम से हिंदी भावानुवाद)

मूळ मराठी कथा – ‘सांगावा’ – कथाकार – श्री सचिन वसंत पाटील – (मो.नं. : 8275377049)

अनुवाद – श्री अनिल विठ्ठल मकर

शोध-छात्र, हिंदी विभाग, शिवाजी विश्वविद्यालय, कोल्हापुर (महाराष्ट्र) मोबा.: 9673417920 ई-मेल : anilmakar70@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 115 ☆ # चलो इक बार… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# चलो इक बार…#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 115 ☆

☆ # चलो इक बार… # ☆ 

चलो इक बार तुमसे हम

फिर प्यार करते हैं

उम्र के इस पड़ाव पर

फिर इजहार करते हैं

 

पुरानी किताबों के पन्नों से

आज निकली तस्वीर तुम्हारी

कितनी खूबसूरत थी तुम

और तस्वीर तुम्हारी

उन बीते पलों को याद

फिर इक बार करते हैं

चलो इक बार —

वो कालेज की कॅन्टीन में

तुम्हारा छुप छुप के मिलना

मुझसे मिलकर तुम्हारा

वो फूलों सा खिलना

वो चाय की चुस्कियों में डूबी नजरें

फिर चार करते हैं

चलो इक बार —

वो छत पर तुम्हारी

जो कटती थी सुहानी रातें

वो पहलू में थी तुम और

तुम्हारी प्यारी बातें

उन बीते लम्हों को याद

फिर बार बार करते हैं

चलो इक बार —

वो तूफान से आए और

गुजर गए दिन

वो बादल से छाए और

बरसे हर दिन

उन रिमझिम फुहारों से खुद को

फिर सरोबार करते हैं

चलो इक बार —

इस उम्र में भी

तुम भी जवां और

हम भी जवां है

बुढ़ापे का आलम मेरी जान

अभी आया कहाँ है

आओ इन लम्हों को हम दोनों

फिर गुलज़ार करते हैं

चलो इक बार तुमसे हम

फिर प्यार करते हैं/

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ झेप क्षितीजापलिकडे… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ झेप क्षितीजापलिकडे ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

संसाराच्या खेळामधले

 राजा आणिक राणी

निराशेच्या अंधारातील

अशीच एक विराणी

 

घर  ते होते  हसरे सुंदर

स्वप्नांनी सजविलेले

तुटीचे अंदाजपत्रक

सदा भवती वसलेले

 

तरीही होती साथसंगत

अविरत  अशा कष्टांची

भाजी भाकरीस होती

अवीट चव पक्वान्नांची

 

अचानक आक्रीत घडले

दुष्काळाचे संकट आले

शेतातील पीक करपूनी

जगणेची मुश्किल जाहले

 

नव्हती काही जाणीव

चिमण्या त्या चोचींना

राजा राणी उदासले

बिलगूनीया पिल्लांना

 

 कभिन्न अंधाऱ्या रात्री

 दीप आशेचा तेवला

 उर्मीने मनात आता

प्रकाश कवडसा पडला

 

होती जिद्दीची तर राणी

राजाचा आधार झाली

बळ एकवटूनी तीच आता

दुःखावरी सवार झाली

 

झेप क्षितीजा पलिकडे

घेण्या,

बळ हो आत्मविश्वासाचे

राजाराणीच्या संसारी

 फुलले झाड सौख्याचे

 

© वृंदा (चित्रा) करमरकर

सांगली

मो. 9405555728

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 116 ☆ ऐक कृष्णा… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 116 ? 

☆ ऐक कृष्णा

(अष्टअक्षरी…)

हाक तुला अंतरीची

ऐक कृष्णा पामराची

नसे तुझ्याविना कोणी

आस तुझ्या चरणाची…!!

 

दाव तुझे रूप देवा

भावा आहे माझा भोळा

पावा वाजवी कृपाळा

नको अव्हेरू या वेळा…!!

 

दोषी आहे मीच खरा

तुला ओळखलेच नाही

आता करितो विनंती

स्नेह भावे मज पाही…!!

 

राज नम्र शुद्ध भावे

दास म्हणवितो तुझा

प्रेम अपेक्षित तुझे

स्वार्थ पुरवावा माझा…!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग – ५५ – मार्था ब्राऊन फिंके ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग – ५५ – मार्था ब्राऊन फिंके ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

शिकागो मध्ये मत्सराग्नि भडकलेला होता. मिशनरी तर विरोधात गेले होतेच पण बोस्टनला जेंव्हा स्वामीजी महाविद्यालयात व्याख्यान द्यायला गेले होते त्यावेळी च्या व्याख्यानाने विद्यार्थी भारावून गेले होते. इतके की,त्या दोन दिवसांच्या भेटीमुळे म्हणा किंवा स्वामींच्या दर्शनाने वा ऐकलेल्या विचाराने म्हणा, भविष्यात काहींचे जीवनच प्रभावित झाले होते. त्यातालीच एक विद्यार्थिनी होती, मार्था ब्राऊन फिंके. त्या दोन दिवसांच्या आठवणीवर मार्था तिचे आयुष्य बदलवू शकली.

मार्था ज्या कॉलेजमध्ये शिक्षण घेत होती ते स्मिथ कॉलेज म्हणून ओळखलं जात होतं.स्त्रियांच्या उच्च शिक्षणासाठी १८७५ मध्ये सोफाया स्मिथ यांनी हे महाविद्यालय स्थापन केले होते. हे कॉलेज एक वैचारिक केंद्र म्हणून प्रसिद्ध होतं. न्यू यॉर्क आणि बॉस्टन च्या बरोबर मध्यावर नॉर्थअॅम्प्टन हे मॅसॅच्युसेटस राज्यातले टुमदार गाव होतं. त्या गावात हे कॉलेज होतं. मार्थाचं घर थोडं जुन्या वळणाचं होतं. जुन्या संस्काराच होतं. प्रोटेस्टंट ख्रिश्चन होते ते. त्यामुळे कॉलेजला बाहेर पाठवताना तिच्या आईवडिलांना तिची काळजी वाटत होती.बाहेर पडलेल्या मुली मुक्त विचारांच्या होतात असा सर्वांचा समज होता. कॉलेजला गेलेल्या मुली धर्म वगैरे मानत नाहीत असा अनुभव काहींचा होता.तिथे वसतिगृहात मुली राहत असत. वसतिगृहात जागा शिल्लक नसल्याने मार्था कॉलेज परिसरातच भाड्याने राहत होती.

ज्यांच्या घरात राहत होती ती घरमालकिण स्वभावाने कडक होती. पण चांगली होती. त्या कॉलेजमध्ये अधून मधून विचारवंत भेटी देत असत. असेच एकदा स्वामी विवेकानंद यांची नोहेंबर मध्ये दोन व्याख्याने असल्याचे तिथल्या सूचना फलकावर लिहिले होते. ते एक हिंदू साधू आहेत एव्हढेच त्यांच्या बद्दल आम्हाला माहिती होते असे मार्थाने तिच्या आठवणीत म्हटले आहे.ते एव्हढे मोठे आहेत हे माहिती नव्हते. त्यांची सर्व धर्म परिषदेतील किर्ति यांच्या पर्यन्त पोहोचलेलीही नव्हती.पण कुठून तरी कानावर आल की हे हिंदू साधू, मार्था राहत असलेल्या घरमालकिणी कडेच उतरणार आहेत आणि त्यांच्या बरोबर या मुलींचे जेवण पण असणार आहे. त्यांच्या बरोबर आम्ही मुली चर्चा पण करू शकणार होतो याचे तिला फार अप्रूप वाटले होते.त्यामुळे सर्वजनि घरमालकिणीवर जाम खुश होत्या. त्यांनी आपल्या या मालकिणीला उदार मतवादी म्हटले आहे कारण आपल्याकडे एका काळ्या माणसाची राहण्याची सोय करायची म्हणजे त्याला काळी हिम्मतच असावी लागते असे त्यांना वाटत होते.बहुतेक गावातील हॉटेलांनी त्यांना प्रवेश नाकारला असेल असेही त्यांना वाटलं.

मार्था म्हणते, आम्ही लहानपणापासूनच भारताचे नाव ऐकतं होतो कारण माझी आईसुद्धा हिंदुस्थानात जाणार्‍या मिशनर्‍याशी लग्न करणार होती.आमच्या चर्चमधून दरवर्षी भारतीय स्त्रियांसाठी मदतीची एक भली मोठी पेटी पाठवली जात असे. शिवाय त्यान काळात भारतबद्दल इतर माहिती अशी होती की, भारत हा एक उष्ण देश आहे. तिथे सगळीकडे साप फिरत असतात. तिथले लोक इतके अडाणी आहेत की, दगडा समोर किंवा लाकडासमोर डोके टेकवतात.बापरे . मारथाचे वचन चांगले होते तरी सुद्धा तिला भरता बद्दल फारशी माहिती नव्हती. ख्रिश्चन धर्मियांच्या दृष्टीकोणातून लिहिलेली भारताची माहिती फक्त तिला माहिती होती. एखादा भारतीय भेटून त्याच्याशी बोलायला कधी संधी नव्हती मिळाली.

त्यामुळे मार्था च्या घरमालकिण बाईंकडे विवेकानंद हे हिंदू साधू उतरणार तो दिवस आला. त्या दिवशी पाहिलेले स्वामी विवेकानंद कसे होते याचं तिने वर्णन केलय की, ‘ते उतरणार ती खोली तयार करण्यात आली. भारदस्त व्यक्तिमत्व,एक कला प्रिन्स अल्बर्ट कोट,काली पॅंट ,डोक्यावर डौलदार फेटा घातलेला अलौकिक चेहर्‍याचा, डोळ्यात विलक्षण चमक असलेला,असा हिंदू साधू ! घरी आल्यावर सर्व जानी भारावून गेल्या. मार्था म्हणते, मला तर तोंडून काही शब्दच फुटत नव्हते.इतकी भक्तिभावाने ती हे व्यक्तिमत्व बघत होती. संध्याकाळी व्याख्यान झाले त्यानंतर प्रश्नोत्तरे.

घरी त्यांना भेटायाला तत्वज्ञानाची  प्राध्यापक मंडळी, चर्चचे धर्माधिकारी, प्रसिद्ध लेखक, आले होते. चर्चा सुरू होती. सर्व मुली एका कोपर्‍यात बसून ऐकत होत्या. विषय होता, ख्रिश्चन धर्म – खरा धर्म. हा विषय स्वामीजींनी नव्हता निवडला, आलेल्या विचारवंत मंडळींनी निवडला होता. ते सर्व स्वामीजींना आव्हान देत होते. त्यांच्या त्यांच्या धर्माची माहिती असलेले मर्मज्ञ विषय मांडित. मार्थाला वाटले होते की स्वामीजी तर हिंदू त्यांना काय इकडचे कळणार व त्यावर कसे तोंड देणार? पण उलटेच झाले होते. स्वामी विवेकानंद आपली बाजू मांडताना, प्रती उत्तर देताना बायबल, इंग्रजी तत्वज्ञान, धर्मज्ञान, वर्डस्वर्थ, व थॉमस ग्रे यांचे  काव्य संदर्भ देऊन बोलत होते. ठामपणे बोलत होते. स्वामीजींनी त्यांच्या बोलण्यातून धर्माच्या कक्षा अशा रुंद केल्या की त्यात सर्व मानवजात सामील झाली आणि वातावरण बदलून गेले. मुक्त विचारांनी  दिवाणखान्यातील वातावरण भारावून गेले.या हिंदू साधुनेच बाजी मारली. त्यामुळे मी पण उल्हसित झाले असे मार्था ने लिहून ठेवले आहे. मार्था म्हणते आमच्या कॉलेज मधली मंडळी धर्माच्या बाबतीत फार संकुचित विचारांची होती. स्वतालाच ती शहाणी समजत. या बौद्धिक पातळीवरील चर्चेत स्वामीजींचा झालेला विजय मार्था च्या कायम लक्षात राहिला होता.

मार्थाने आणखी एक विशेष आठवण सांगितली आहे. तिथल्या वास्तव्यात दुसर्‍या दिवशी सकाळी, बाथरूममधून पाण्याचा आवाज व त्याबरोबर अनोळखी भाषेतले स्तोत्रपठण ऐकू येत होते. ते ऐकण्यासाठी सर्व मुली घोळक्याने दाराबाहेर उभ्या राहिल्या. एकत्र ब्रेकफास्ट च्या वेळी मुलींनी या स्तोत्राचा अर्थ स्वामीजींना विचारला.त्यांनी उत्तर दिलं, “प्रथम मी डोक्यावर पाणी ओततो . नंतर अंगाखांद्यावर. प्रत्येक वेळी सर्व प्राणिमात्रांचे कल्याण व्हावे म्हणून मी ते स्तोत्र म्हणतो”. हे ऐकून मार्था आणि मुली भारावून गेल्या. मार्था म्हणते, “मीही प्रार्थना करत असे पण ती स्वतसाठी आणि नंतर कुटुंबासाठी. समस्त मानवजातीसाठी व प्राणिमात्रासाठी आपलेच कुटुंब आहे असे समजून प्रार्थना करावी असे कधीच मनात आले नव्हते आमच्या”. 

ब्रेक फास्ट नंतर स्वामीजी म्हणाले चला बाहेर फिरून येऊन थोडं, म्हणून आम्ही चार मुली त्यांच्या बरोबर गेलो . गप्पा मारत चाललो होतो, माला एव्हढेच आठवते की, ख्रिस्ताचे रक्त हा शब्दप्रयोग वारंवार केला जातो. हे शब्द मला कसेचेच वाटतात असे ते म्हणाले होते.यावर मीही विचार करू लागले. मलाही हे उल्लेख आवडत नव्हते. पण चर्चच्या तत्वांच्या विरुद्ध उघडपणे बोलायचे धैर्य हवे. पण इथेच माझ्यातील स्वच्छंद आत्म्याने मुक्त चिंतांनाचा स्त्रोत त्या क्षणी खुला केला आणि मी कायमची मुक्तचिंतक झाले. विषय बदलून मी त्यांना वेदांबद्दल विचारले कारण त्यांनी आपल्या भाषणात वेदांचा उल्लेख केला होता. मी वेद मुळातून वाचावेत असे त्यांनी माला सांगितले. मी त्याच क्षणी संस्कृत शिकण्याचे ठरविले . पण ते शक्य झाले नाही पुढे.

यावरून एक गोष्ट गमतीची आठवली. उन्हाळ्यात आमच्याकडे नवीन गुर्नसी पारडू पाळीव प्राण्यांमध्ये समाविष्ट झाले. माझ्या वडिलांनी तो माझ्याकडे सोपविला. त्याचे नाव मी वेद ठेवले. दुर्दैवाने ते वासरू लवकरच मेले. माझे वडील गमतीने म्हणाले की तू त्याचे नाव वेद ठेवले म्हणूनच ते गेले.

नंतर स्वामीजी परत एकदा अमेरिकेत येऊन गेले, ते कळले नाही. मग काहीच संबंध नाही आला. पण त्या दोन दिवसात स्वामीजींच्या विचाराने मार्था चे जीवनच उजळून गेले असे ती म्हणते. तिने वडिलांना पत्र लिहून हा वृत्तान्त कळवला तर ते घाबरून गेले. आपल्या घराण्याचा धर्म सोडून ही स्वामीजींबरोबर त्यांची शिष्या होऊन निघून जाते की काय अशी त्यांना भीती वाटली.

मार्था ने तिचे हे स्वतंत्र विचार तिच्यापुरतेच मर्यादित ठेवले. तिच्या मते मी लगेच हे अमलात आणले असते तर, जीवनात मला लगेच त्याचा उपयोग झाला असता. खूप वेळ वाया गेला. पण ती निराश नाही झाली. आतापर्यंत जरी चाचपडली असली तरी विचार पेरले गेले आहेत ते उगवणारच असा तिला विश्वास होता.  स्वामीजींनी सांगितलेला वैश्विक धर्म तिच्या अंतकरणात जाऊन बसला होता. ती १९३५ मध्ये जवळ जवळ ४२ वर्षानी, भारतात पहिल्यांदा कलकत्त्यात आली तेंव्हा, प्रथम ती एक प्रवासी म्हणून तिचा प्रवास सुरू झाला तर भारतात पोहोचल्यावर गंगेच्या काठावरील बेलुर मठात स्वामी विवेकानंदांच्या पवित्र स्मृतीचे, समाधीचे दर्शन घेतल्यावर आपण एक विश्वधर्माचे यात्रेकरू आहोत याची मनोमन खात्री झाली. तिथेच आत्मिक आणि मानसिक उन्नतीची ओढ असणार्‍या मार्था ने या आठवणी सगळ्यांच्या आग्रहाखातर सांगितल्या आहेत. मार्था जर दोन दिवसांच्या विचाराने एव्हढी प्रभावित झाली असेल तर आपल्याकडे हे तत्वज्ञान बारा महीने चोवीस तास उपलब्ध आहे विचार करण्याची गोष्ट आहे .

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ हॅपी रिटायर्ड लाईफ…!! – अज्ञात ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

? जीवनरंग ❤️

हॅपी रिटायर्ड लाईफ…!! – अज्ञात ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

– ४ वर्षांपूर्वी एका रविवारी अचानक माझा मित्र अनिल आणि त्याची पत्नी अदिती माझ्या घरी आले. एकदम आनंद ! खूप वर्षांनंतर भेट होत होती. 

अनिल रिझर्व्ह बँकेत नोकरी करून काही वर्ष आधी स्वेच्छानिवृत्ती घेतलेला.  बँकेत असताना सुद्धा काही शिकवण्या करून आपल्या income ला जोड दिलेली. 

अदितीने खूप धडपड करून एक छोटासा व्यवसाय उभा केला होता. तो तसा छान चालला. त्यामुळे निवृत्तीच्या वेळी आर्थिक बाजू भक्कम झाली होती.

एक मुलगा आणि एक मुलगी अशी पुलंच्या भाषेत ‘बेतशुद्ध संतती’ असलेला. दोघांची लग्न झालेली. पुन्हा पुलंच्या भाषेत ‘संसाराच्या शेवटी इष्ट स्थळी जाऊन पोचलेली’ अशी ही जोडी. दोघांचाही स्वभाव दिलखुलास ! त्यामुळे तो घरी येणे म्हणजे एक आनंद सोहळा !

थोड्या हवा पाण्याच्या गप्पा झाल्यावर मी त्याला विचारले, ” मग कसं काय चाललंय रिटायर्ड लाईफ? ” 

” एकदम मस्त “…. अनिल 

” काय करतोस? “.. मी 

” काहीही नाही. म्हणजे तसं ठरवलंच आहे. खूप कष्ट केले रे. आता मात्र आपण कमावलेलं आपण उपभोगायचं असं ठरवलं आहे! “

” वा.. मग वेळ कसा जातो ? “….मी 

” अरे इथे वेळ जाण्याचा प्रश्न आहेच कुणाला. आयुष्यभर एक – एक मिनिट धावत होतो. आता धावायचं नाही. परमेश्वराने आमच्या दोघांचे आयुष्य आरामात जाईल एवढं सगळं दिलं आहे. तेव्हा शांतपणे राहायचं. अगदी सकाळचा walk सुद्धा ७:०० वाजता. उगीच लवकर उठा वगैरे काही नाही. “…. अनिल 

” आणि मुलगा? ” …. मी 

” हे बघ. त्याला मी स्पष्ट सांगितलं. बाबारे, आपलं वडील – मुलाचं नातं वगैरे ठीक आहे. पण आता तुझं लग्न झालंय. तेव्हा तू आता स्वतंत्र राहा. माझं स्पष्ट मत आहे. मुलांनी वेगळं राहिल्याशिवाय त्यांना आयुष्य कळणार नाही.”…. अनिल 

” हं “….मी थोडं hesitantly म्हटलं. 

” अरे बघ ना. वेगळं राहिलं म्हणजे आपण गॅस बंद न केल्यामुळे दूध उतू जाऊन भांडं जळून काळं कसं होतं, किल्ली घरात विसरल्यावर कसा कल्लोळ होतो, भाजी आणायला गेल्यावर नाईलाजाने आपल्याला न आवडणारा भोपळा किंवा दुधी कशी ‘झक मारत’ घ्यावी लागते, आपली गाडी कितीही मोठी असली तरी त्यातून दळण कसे आणावे लागते वगैरे….” ….अनिल.   इथे सर्वांच्या हास्याचा धबधबा !

” मग आता तू कुठे राहतोस? ” ….मी

” मी ठाण्याला आणि मुलगा दादरला. त्याला चॉईस दिला होता. त्याच्या दृष्टीने दादर सोयीचं होतं. म्हणून तो दादरला. मला ठाण्याला राहायला काही प्रश्न नव्हता म्हणून मी ठाण्याला “…. अनिल. 

आयुष्य दादरच्या मध्यवस्तीत काढलेल्या माणसाला ठाण्याला राहायला जाणे सोपे नव्हते. म्हणून त्याच्या सहजपणे बदल करण्याच्या मानसिकतेचे कौतुक वाटले. 

” सगळा नवीन set-up ना? सगळ्या व्यवस्था लागल्या?” …. मी 

” हो. दूध, पेपर, भाजी मार्केट सगळं छान लागलं “….अनिल 

” कामवाली बाई मिळाली का? ” … माझी पत्नी. तिने महिला वर्गाच्या अगदी जिव्हाळ्याच्या प्रश्नाला हात घातला.

” आमच्याकडे तो काही प्रॉब्लेम नाही. तो सगळं विषय यांच्याकडे “…. अदिती (अगदी खूष होत सांगत होती)

” म्हणजे? ” …. माझी पत्नी 

” अगं म्हणजे कामवाल्या बाईचा interview  हे घेतात. विचार त्यांना “…. अदिती 

” अनिल तू घेतोस interview?”… मी 

” अरे it is a technique how to negotiate with her “… अनिल सांगत होता.. “ म्हणजे असं बघ. मी तिला विचारतो ‘ तू किती पैसे घेणार दर महिन्याचे ? ‘. मग ती म्हणते ‘ ७०० रुपये ‘….  त्यात केर – लादी, सिंकमधील छोटी भांडी घासणे आणि आठवड्यातून एकदा फर्निचर पुसणे. 

मग मी तिला म्हणतो “ बरं. आता मी काय सांगतो ते ऐक. कपड्यांच्या घड्या करून ठेवणे, खिडक्यांच्या कडा पुसणे, रोजची भाजी चिरून किंवा निवडून ठेवणे ही कामे पण करावी लागतील. या प्रत्येक कामाचे २५ रुपये याप्रमाणे एकूण ७५ रुपये मी जास्त देणार. मान्य? ‘ .. ती एकदम सहज मान्य करते “….. अनिल.  इथे आमचा जोरात हशा!

” कमाल आहे राव तुझी ” ….मी हसत हसतच म्हटले.

” खरी गम्मत पुढची..  ऐक. मी तिला विचारतो ‘ महिन्यात दांड्या किती मारणार? प्रामाणिकपणे सांग.’ यावर ती थोडसं अडखळत म्हणते ‘दोन होतातच साहेब. काय करनार कितीबी केलं तरी व्हतातच’.

मी म्हणतो ठीक आहे. ती पण माणूस आहे. अडचणी येणारच. मग तिला मी सांगतो ‘ हे बघ दोन दांड्या ठीक आहेत. तिसरी दांडी झाली नाही तर त्या महिन्यात २५ रुपये अजून जास्त ! ” आम्ही सर्व अवाक आणि हास्याचा मोठा फवारा !

” मानलं तुला. सुपर आयडिया आहे यार! ” ….मी 

” अरे तुला माहिताय… ती दुसरीकडे दांडी मारते. पण माझ्याकडे तिसरी दांडी मारत नाही “…. आम्ही हसून हसून फक्त पडायचे राहिलो होतो !

” म्हणजे ती मागत होती त्याच्यापेक्षा १०० रुपये जास्तच देतोस तिला “….मी 

” येस. अरे पैसा वाचवण्याचा प्रयत्न करायचा नाही. आवश्यक तिथे खर्च करायचा. मी माझ्या मुलांना सांगून ठेवलं आहे. माझ्यानंतर बँक बॅलन्स मधलं काही उरेल अशी अपेक्षा ठेऊ नका. Fixed Assets राहतील ते तुमचे ! उगीच सगळं मुलांसाठी म्हणून ठेवण्यात अर्थ नाही. त्यांना सुद्धा कमवायला काय लागतं ते कळू दे “…. अनिल 

” वा ….म्हणजे राजा – राणीचा संसारच म्हणायचं की तुझा “….मी 

” हो. जेवण रोज चांदीच्या ताटात. च्यायला, ती भांडी नुसती लॉकर मध्ये पडून राहतात. आपण कधी वापरायची? म्हणून मस्त राहायचं. दर आठवड्याला नवीन सिनेमा, नाटक, कार्यक्रम. आम्ही दोघंही जातो. 

…  पण आठवड्यातला गुरुवार हा स्वातंत्र्यदिन ! मला जे पाहिजे ते मी करणार आणि तिला जे पाहिजे ते ती. मग मित्र, नातेवाईक, फिरणं. आपापला चॉईस. मी तिला विचारत नाही, ती मला विचारत नाही “….अनिल. आम्ही सगळे गारद !

— अनिलच्या या गप्पांनंतर जणू एक नवी पहाट झाल्यासारखं वाटलं. बोलता बोलता आयुष्याचं तत्त्वज्ञानच जणू त्याने सांगितलं. 

लेखक : अज्ञात 

प्रस्तुती : सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

संपर्क – 1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “माडगुळ फाईल्स : – एक वावटळ …. ” लेखक – श्री.सुमित्र श्रीधर माडगूळकर ☆ प्रस्तुती – श्री सुनीत मुळे ☆

? मनमंजुषेतून ?

☆ “माडगुळ फाईल्स : – एक वावटळ …. ” लेखक – श्री.सुमित्र श्रीधर माडगूळकर ☆ प्रस्तुती – श्री सुनीत मुळे  

“आम्हा गरीबांचा संसार जाळून तुम्हाला काय रे मिळणार?”… ३०-३१ जानेवारी १९४८ च्या आसपासचा दिवस….गांधीहत्येनंतरचे उसळलेले जळीत माडगूळकरांच्या गावातल्या वाड्यापर्यंत पोहोचले होते,गदिमांची आई बनुताई मोठया धीराने त्यांना विरोध करत होती,त्यातलाच एक दांडगट “ह्या म्हातारीलाच उचलून आत टाकारे,म्हणजे तरी हीची वटवट बंद होईल !” असे खवळूनच म्हणाला. तितक्यात उमा रामोश्याने म्हातारीचा हात धरून तिला बाजूला ओढले म्हणून ती वाचली,नंतर बाका प्रसंगच उभा राहिला असता. 

ढोल ताशे वाजवीत ७०-८० दंगलखोर गावात शिरले होते,तात काठ्या,ऱ्हाडी.. जळते पलीते होते. वात शिरल्या शिरल्या त्यांनी गदिमांच्या धाकट्या भावाचीच चौकशी केली, भेदरलेल्या छोट्या पोरांनी त्यांना थेट आमच्याच घरापाशी आणून सोडले होते. गदिमांच्या धाकट्या भावाला दटावून गावातल्या ठराविक जातीच्या सर्व लोकांची घरे त्याला दाखवायला लावली.एका मागून एक घरातल्या माणसांना बाहेर ओढून घरे पेटवून देण्यात आली. सर्वात शेवटी परत माडगूळकरांच्या वाड्याजवळ आल्यावर गदिमांच्या भावाला स्वतःच्या वाड्यात रॉकेल शिंपडायला लावले व ‘गांधी नेहरू की जय!’ असे ओरडत आमचा वाडा पेटवून दिला. सारे संपले होते आमच्या वाड्याची राख रांगोळी झाली होती. गदिमांचे वडील गावातील मारुतीला साकडे लावून बसले होते,धाकटा भाऊ दिवसभर घाबरून रामोश्याच्या कणगीत लपून बसला होता. महाराष्ट्रातल्या अनेक घरात हीच परिस्थिती होती. शेकडो कुटुंबे रस्त्यावर आली होती.

याच वेळी ‘वंदे मातरम’ चित्रपटाचे मुख्य चित्रीकरण कोल्हापूरला तर काही पुण्यात पूर्ण झाले होते. चित्रीकरण पूर्ण झाल्यानंतर सर्व चित्रिकरण एकत्र असावे म्हणून दिग्दर्शक राम गबाले चित्रपटाच्या प्रिंट्स घेऊन रात्री कोल्हापुरातून रेल्वेत बसले. त्यांना माहित नव्हते की त्याच दिवशी महात्मा गांधी यांची हत्या झाली आहे व सगळीकडे दंगल सुरु आहे. गदिमा-पुल व सुधीर फडके यांनी साधारण तीन चित्रपटांकरिता एकत्र काम केले होते ते म्हणजे वंदे मातरम, ही वाट पंढरीची /संत चोखामेळा व पुढचे पाऊल. यातील वंदे मातरम हा स्वातंत्र लढ्यावर आधारित चित्रपट यात पु.ल व सुनीता बाईंनी मुख्य भूमिका केल्या होत्या तर दिग्दर्शन राम गबाले यांनी केले होते. गदिमांची गीते, कथा-पटकथा, संवाद तर फडक्यांनी संगीत दिले होते.

राम गबाल्यांच्याकडे चित्रपटाची मूळ प्रिंट एका मोठ्या ट्रंकेत भरलेली होती व रेल्वेत बसल्यावर चित्रपटाचे स्क्रिप्ट काढून ते चाळत बसले होते. तितक्यात ८-१० दंगलखोरांची एक टोळी रेल्वेत शिरली. प्रत्येक डब्यातल्या ठराविक जातीच्या लोकांची चौकशी करून त्यांच्या डोळ्यादेखत सामान रेल्वेच्या बाहेर फेकले जात होते. खूप गंभीर परिस्थिती होती,राम गबाले त्यांच्या तावडीत सापडले असते तर चित्रपटाचे अस्तित्व धोक्यात आले असते. चित्रपटाची प्रिंट व स्क्रिप्ट सर्व नष्ट झाले असते. सर्व कष्ट वाया गेले असते. गबाले स्क्रिप्ट व जीव दोन्ही हातात धरून बसले होते.

गदिमांना एक सवय होती कुठलेही साहित्य कविता, लेख पूर्ण झाला की फावल्या वेळेत ते बऱ्याचदा त्यावर चित्र/रेखाटने करून ठेवत असत. ज्याची अनेकदा दिग्दर्शकाला व अभिनेत्यांना मदत होत असे, असेच एक चित्र गदिमांनी त्या चित्रपटाच्या स्क्रिप्टच्या मुखपृष्ठावर काढून ठेवले होते. त्यात चित्रपटाची नायिका झेंडा हातात घेऊन त्यांनी रेखाटली होती.

८-१० जणांचा समूह राम गबाले यांच्यापाशी आला त्यातल्या एकाने त्यांच्या हातातले जाडजूड स्क्रिप्ट पाहिले व विचारले हे काय आहे. गबाले यांनी सांगितले की १९४२ च्या स्वातंत्र संग्रामावर चित्रपट काढत आहोत व त्याचे हे स्क्रिप्ट आहे. त्या माणसाने ते नीट निरखून पहिले.

वर काढलेले गदिमांचे नायिका झेंडा हातात धरलेले छायाचित्र त्यांनी पाहिले व एकदम म्हणाले ” हे बेणं आपल्यातलच दिसतं आहे… चला पुढे… “

गदिमांच्या एका चित्राने तो संपूर्ण चित्रपट गांधीहत्येच्या दंगलीतून वाचविला होता. पुढे हा चित्रपट प्रसिद्ध झाला यातील “वेद मंत्राहून आम्हा वंद्यवंदे मातरम !” सारखी राष्ट्रगीताच्या तोडीची गीते खूप गाजली. एका लेखणीत किती ताकद असते याचे हे उत्कृष्ट उदाहरण!. 

या सर्व घटनांनी माडगूळकर कुटुंबीय खूप व्यथित झाले होते. “या गावात राहण्यात काही अर्थ नाही… ” हाच विचार गदिमांच्या व भावंडांच्या मनात ठाम झाला होता. व्यथित माडगूळकर कुटुंबीय गाव सोडणार अशी बातमी गावात पसरली, गावकऱ्यांना या बातमीने अतीव दुःख झाले.गावातल्या जाणत्या लोकांनी गदिमांची भेट घेतली … “अण्णा,आम्ही तुमचा वाडा वाचवू शकलो नाही पण आम्ही तो तुम्हाला परत बांधून देऊ पण गाव सोडू नका … “,अशी अनेक वावटळे येत असतात पण वर्षानुवर्ष जपलेले ऋणानुबंध इतक्या सहज तुटत नाहीत. गावकऱ्यांनी आपला शब्द पाळला … माडगूळकरांचा वाडा त्यांनी परत उभारून दिला!. 

आज जातीच्या नावावर राजकारण करणाऱ्या लोकांची धडपड पाहून वाईट वाटते,लहान पणापासून सर्व जातींचे मित्र होते आमचे,जात-पात पाहून कधीच मैत्री केली नव्हती…..पण आज सर्वांच्या डोळ्यात या वावटळीची धूळ शिरली आहे, काहीच स्पष्ट दिसत नाही…. अधून मधून अश्या वावटळी येतच राहतील, आपल्याला मात्र हे माणुसकीच्या शत्रूसंगे चाललेले युद्ध असेच चालू ठेवावे लागेल……..

(ही पोस्ट केवळ गदिमा/वंदे मातरम चित्रपटाच्या आठवणी जागवण्यासाठी आहे,अनेक वर्षांपूर्वी घडून गेले ते सत्य होते,पण यातून आपण केवळ गदिमांच्या आठवणी जागवायच्या आहेत,इतर कुठलाही उद्देश नाही व त्याला कृपया इतर रंग देऊ नये ही विनंती )

लेखक – श्री.सुमित्र श्रीधर माडगूळकर

संग्राहक : श्री सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ मानिनी… सुश्री उन्नती गाडगीळ ☆ प्रस्तुती – सुश्री लीला ताम्हणकर ☆

? इंद्रधनुष्य ?

☆ मानिनीसुश्री उन्नती गाडगीळ ☆ प्रस्तुती – सुश्री लीला ताम्हणकर

बोरे शब्द उच्चारताच – वाकलेली, थकलेली, सुरकुतलेली,श्रीरामाच्या दर्शनासाठी व्याकूळ झालेली, डोळ्यात प्राण आणून प्रतीक्षा करणारी, विस्फारलेल्या पांढऱ्या केसांची, करुण जख्ख म्हातारी शबरी नजरेसमोर येते. …. पण त्या काळात ती मनस्वी मानिनी होती.

तिचे मूळ नाव श्रमणा. तिचा पिता भिल्लांचा सेनानी. पित्याने कन्येचा विवाह ठरवला. सर्व तयारी जय्यत झाली होती. श्रमणाच्या कानावर आले — त्यांच्या जमातीत कन्या-जीवन सुखी व्हावे म्हणून तिच्या विवाहापूर्वी शेकडो पशूंचा बळी देतात. ही प्रथा होती. अत्यंत चतुर, संवेदनशील शबरीला हे असह्य झाले. इतक्या जीवांचा बळी जाणार असेल, तर नकोच तो विवाह !!! ..असा विचार करून ती हळूच पळून गेली. दंडकारण्यात मातंग ऋषींची सेवा करून अनेक विद्या पारंगत केल्या. बळी/हत्या न करता घनघोर जंगलात पशुधन जतन केले. अनेक वनस्पतींचे संशोधन करून पशूंची भाषा -विद्या प्राप्त केली.

श्रीरामांचे पवित्र पदकमल तिच्या झोपडीला लागताच ती अनन्य भाविका हरखून गेली. 

काटेरी झुडुपात शिरून बोरे काढून आणली. आणि प्रत्येक बोरात शाबरी विद्या भरून ( शबरी मुखातून श्रीराममुखी) रामरायास उष्टी बोरे दिली हे भासविले.—- प्रत्यक्षात शाबर विद्यामार्फत सुग्रीवाची मदत घ्यायला सांगितले. शबरी ही अत्यंत ज्ञानी व तेजस्वी तपश्री होती. वनवासी जीवनात प्रत्यक्ष विद्या-ज्ञान संपादन करायचे नाही, असा कठोर आदेश श्रीरामांना होता. म्हणून शबरीने चतुराईने प्रत्येक बोरातून शाबरी विद्या रामाला दिली.ती ‘ गुरूणां गुरु: ‘ म्हणजे देवता झाली.—- सुग्रीव वानरांचा सेनापती होता.नर नाही तो वा-नर!!! श्रीरामांनी शाबरीविद्याधारे वा-नरांशी संवाद साधून इप्सित साध्य केले.

——या गोष्टीतून मला जाणवले ते असे —–

बोराचे झाड काटेरी असते. संक्रमण काळात अश्या काटेरी झाडांची टपोरी, बाणेरी बोरे काढणे, वेचणे, म्हणजे धीराने, चतुराईने संकटाशी, येणाऱ्या कडक उन्हाळ्याशी दोन हात करणे. जळाविना रहाणे, अभावातील भाव बघणे.  सामना करून यश मिळवणे, अशी धडाडी वृत्ती बाळात येवो या हेतूने बोरन्हाण करतात.

शिक्षणाचा एखादा मार्ग बंद झाला ,तर पर्याय शोधून परिपूर्ण शिक्षण घेणे . शबरी सम स्व -बळ स्थान ओळखणे.एकटीने निर्भिड पणे राहून संशोधक वृत्ती जागृत ठेवून सजग होणे.

अनेक गोष्टी शिकवतात एकेक प्रसंग..

आता विज्ञान युगात परत  बेरी स्नान इव्हेंट असतो. पण त्या बोरनहाणा मागील  तत्व लक्षात घेऊन चंगळवादास आवर घालुया.

साधेसुधे राहून गोड गोड बोलुया।

लेखिका — सुश्री उन्नती गाडगीळ

संग्रहिका : सुश्री लीला ताम्हणकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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