(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके यात्रा वृत्तांत“काशी काबा दोनो पूरब में हैं जहां से” – अमेरिका यात्रा की डायरीपर आत्मकथ्य।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 128 ☆
☆ “काशी काबा दोनो पूरब में हैं जहां से” – अमेरिका यात्रा की डायरी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆
यात्रा साहित्य की जननी होती है , संस्मरण और यात्रा वृतांत तो सीधे तौर पर यात्राओ का शब्द चित्रण ही हैं . जब पाठक प्रवाहमयी वर्णन शैली में यात्रा वृतांत पढ़ते हैं तो वे लेखक के साथ साथ उस स्थल की यात्रा का आनंद , बिना वहां गये ले सकते हैं जहां का वर्णन किया जाता है . यदि ट्रेवलाग से पाठक की जिज्ञासायें शांत होती हैं तो लेखन सार्थक होता है . यात्रा संस्मरण भौगोलिक दूरियों को कम कर देते हैं . यात्रा संस्मरण एक तरह से समय के ऐतिहासिक साक्ष्य दस्तावेज बन जाते हैं .
अमेरिका यात्रा के रोजमर्रा के ढ़ेर से अनछुये मुद्दों पर इस किताब मे लिखा गया है . आज जब युवा रोजगार और शिक्षा के लिये लगातार भारत से अमेरिका जा रहे हैं , तब यह किताब ऐसे युवाओ को और उनके पास जाते माता पिता रिश्तेदारों को अमेरिकन जीवन शैली को बेहतर तरीके से समझने में मदद करती है . इस डायरी से अमेरिका के संदर्भ में हिन्दी पाठको का किंचित कौतुहल शांत हो सकेगा ।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 22 – ☕ बोस्टन टी पार्टी ☕☆ श्री राकेश कुमार ☆
हमारे देश में तो चाय पार्टी साधारण सी बात है। घर,मित्र मंडली, कार्यालय, हमेशा चाय के नाम पर ही चर्चा/विचार विमर्श करते हैं। एक पुराना फिल्मी गीत” तेरी मम्मी ने चाय पर बुलाया है” वर वधु के वैवाहिक संबंध भी चाय पर ही तय होने की परंपरा विगत कुछ दशक से प्रचलित हैं। चाय तो एक बहाना है, “मित्र को कुछ देर और बैठने का” वैसे “ठंडी चाय” का सेवन करने वालों को किसी बहाने की आवश्यकता ही नहीं होती हैं।
करीब तीन सौ वर्ष पूर्व ईस्ट इंडिया कंपनी चाय को पूरे यूरोप के निवासियों को इसकी लत लगा चुकी थी। अमेरिका भी इंगलैंड का उपनिषद था। उन्होंने अमेरिका में भी चाय का प्रचार/ प्रसार कर लोगों को इसके सेवन की आदत डाल रही थी। चाय पर अतिरिक्त कर लगा कर ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी आय को दिन दोगुना रात चौगुना करने की जुगत में थी।
अढ़ाई सौ वर्ष पूर्व बोस्टन के समुद्री किनारे पर तीन जहाज़ ईस्ट इंडिया कंपनी की चाय लेकर पहुंच चुके थे। स्थानीय अमरीकी लोगों ने इसका विरोध करते हुए स्वतंत्रता की मशाल जला दी थी। इंग्लैंड के विरोध में तीनों जहाज़ पर लदी हुई चाय पत्ती को समुद्र में विसर्जित कर दिया गया था। हमारे देश में भी 1857 का विद्रोह स्वतंत्रता प्राप्ति का पहला कदम था। वैसा ही इस देश में भी हुआ और आगे चल कर अमरीका, इंग्लैंड के चंगुल से आज़ाद हो गया।
देश भक्त और पुराने अमरीकी हमेशा चाय के स्थान पर कॉफी को प्राथमिकता देते हैं। ये ही कारण है, कि यहां पर चाय का सेवन, कॉफी से बहुत कम हैं। एशियाई देश के प्रवासी जो अधिकतर चाय के शौकीन होते है, यहां आकर चाय की कमी महसूस करते हैं।
बोस्टन में इसकी याद में उसी स्थान पर “बोस्टन टी पार्टी शिप्स म्यूज़ियम” स्थापित किया गया है।
(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)
☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 8 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
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सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।।
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सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
नारद सारद सहित अहीसा।।
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अर्थ: –
हजार मुख वाले शेषनाग तुम्हारे यश का गान करें – ऐसा कहकर लक्ष्मीपति विष्णुस्वरूप भगवान श्रीरामने आपको अपने हृदयसे लगा लिया I
हे हनुमान जी आपके यशों का गान तो सनकादिक ऋषि, ब्रह्मा और अन्य मुनि गण, नारद, और सरस्वती सभी करते हैं।
भावार्थ:-
श्री रामचंद्र जी ने कहा कि हे हनुमान जी आप का यश पूरे ब्रह्मांड में फैल जाएगा। हर समय आप के यश का गान होगा। हजार मुख वाले शेषनाग जी भी आपके यश का गान करेंगे। ऐसा कहते हुए लक्ष्मण जी के मूर्छा से वापस आने पर प्रसन्न होकर लक्ष्मीपति विष्णु जी के अवतार श्री रामचंद्र जी ने श्री हनुमान जी को गले से लगाया।
गले से लगाते हुए श्री रामचंद्र जी ने पुनः कहा कि सनक आदि ऋषि गण ब्रह्मा आदि देवता गण और सभी मुनि तथा स्वयं सरस्वती देवी और नारद जी आप की पूर्ण प्रशंसा करने में असमर्थ हैं। कोई भी आपकी पूर्ण प्रशंसा नहीं कर सकता हैं।
संदेश:-
अच्छे कर्म करने पर ईश्वर भी अपने भक्त के भक्त बन जाते हैं। इसलिए ऐसे कर्म करें, जिससे सब का भला हो।
इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ :-
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।।
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा। नारद सारद सहित अहीसा।।
हनुमान चालीसा की इन चौपाइयों के बार-बार पाठ करने से यश, सम्मान, प्रसिद्धि और कीर्ति बढ़ती है। अगर आपको मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करना हो तो इन चौपाइयों का बार-बार पाठ करना चाहिए।
विवेचना:-
हम सभी जानते हैं कि हनुमान जी के द्वारा किए गए कार्यों से प्रसन्न होकर श्री रामचंद्र जी ने हनुमान जी की कई बार प्रशंसा की तथा गले से भी लगाया था।
हनुमान चालीसा में इस चौपाई से पहले की चौपाई में कहा गया है:-
“लाय सजीवन लखन जियाये”
इसी के बाद यह चौपाई आई है कि “सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा”। अतः हम कह सकते हैं की यह प्रशंसा संजीवनी बूटी लाने के लिए है। घटना इस प्रकार है:-
लक्ष्मण जी मेघनाथ द्वारा किए गए शक्ति प्रहार से मूर्छित हो गए थे। श्री लक्ष्मण जी को शीघ्र स्वास्थ्य करने के लिए हनुमान जी विभीषण की सलाह पर श्रीलंका से सुषेण वैद्य को लेकर आए। सुषेण वैद्य ने संजीवनी बूटी की आवश्यकता बताई। यह भी बताया कि संजीवनी बूटी द्रोणागिरी पर्वत पर मिलती है। हनुमान जी संजीवनी बूटी को लाने के लिए द्रोणागिरी पर्वत पर गए। वे द्रोणागिरी से संजीवनी बूटी लेकर वापस शिविर में पहुंचे उस समय का दृश्य विकट था। रामचरितमानस में इस प्रसंग को निम्नानुसार कहा गया है :-
प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस॥61॥
हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥
तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई॥1॥
( रामचरितमानस/लं कां /61 /1)
यहां पर भी यही कहा गया है रामचंद्र जी ने प्रसन्न होकर हनुमान जी को भेंटा अर्थात गले लगाया। गले लगाने के उपरांत श्री रामचंद्र जी ने क्या कहा यह इस चौपाई या दोहा में नहीं आया है। हनुमान चालीसा इस बात को स्पष्ट करता है। हनुमान चालीसा में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि गले लगाने के बाद श्री रामचंद्र जी ने हनुमान जी के लिए क्या कहा।
श्री रामचरितमानस में हनुमान जी जब सीता जी का पता लगा कर के श्री रामचंद्र जी के पास पहुंचे तब वहां पर पूरे आख्यान को जामवंत जी ने श्री रामचंद्र जी को बताया।
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥
जामवंत जी ने कहा कि हे नाथ! पवनपुत्र हनुमानजी ने जो काम किया है उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता हनुमानजी की प्रशंसा के वचन और कार्य जामवंत जी ने श्री रामचन्द्रजी को सुनाये।
सुनत कृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥
उन वचनों को सुनकर दयालु श्रीरामचंद्र जी ने उठकर हनुमानजी को अपनी छाती से लगाया और हनुमानजी से पूछा कि हे तात! कहो, सीता किस तरह रहती है? और अपने प्राणों की रक्षा वह किस तरह करती है?
यहां पर जामवंत जी ने कहा है कि हनुमान जी ने जो कुछ किया है उसकी प्रशंसा सहस्त्रों मुख से भी नहीं की जा सकती है। जबकि हनुमान चालीसा में यही बात श्री रामचंद्र जी ने स्वयं कहा है। श्री रामचंद्र ने कहा है कि सहस्त्र मुख वाले शेषनाग जी तुम्हारे यश का वर्णन करेंगे। यहां पर सहस बदन का अर्थ है सहस्त्र बदन। बदन शब्द का अर्थ संस्कृत में मुख से होता है। अतः सहसवदन का अर्थ हुआ सहस्त्र मुख वाले अर्थात शेषनाग जी।
यहां पर यह बताया गया है हनुमान जी की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। अगर शेषनाग जी अपने सभी सहस्त्र मुखों से भी हनुमान जी की प्रशंसा करना चाहे तो भी वह भी नहीं कर पाएंगे।।
कबीर दास जी की तरह से तुलसीदास जी भी लिख सकते थे कि :-
सब धरती कागद करूँ, लेखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय।
यह कबीर दास जी का दोहा है जो कि भक्ति काल के कवि थे। महात्मा तुलसीदास जी भी भक्ति काल के ही कवि थे। कबीर दास जी का समय तुलसीदास जी से थोड़ा पहले का है। अब
यहां प्रश्न यह उठता है की श्रीरामचंद्र जी ने हनुमान जी के यश के वर्णन के लिए शेषनाग जी को ही क्यों उपयुक्त माना। तुलसीदास जी ने संभवत शेषनाग जी का नाम श्री विष्णु के अवतार श्री रामचंद्र जी के संदर्भ में लिया गया है। धरती, जंगल,स मुद्र यह सब पार्थिव हैं। जबकि शेषनाग जी देवताओं की श्रेणी में आते हैं। श्री लक्ष्मण जी श्री शेषनाग जी के ही अवतार थे। एक देवता जिसके सहस्त्र मुख है वह भी जिसकी पूर्ण प्रशंसा न कर सके फिर तो उसकी पूर्ण प्रशंसा करना संभव ही नहीं है। संभवतः यही श्री रामचंद्र जी का हनुमान जी के प्रशंसा के लिए श्री शेषनाग का संदर्भ देने का कारण है।
इसी चौपाई में आगे श्री रामचंद्र जी को श्रीपति कहा गया है। हनुमान चालीसा में लिखा है “अस कहि श्रीपति कंठ लगावें “। आखिर यहां पर श्री रामचंद्र जी को श्री अर्थात लक्ष्मी जी से क्यों जोड़ा गया है। उनको श्रीपति अर्थात विष्णु जी क्यों कहा गया है। इस स्थान के अलावा हनुमान चालीसा के किसी अन्य स्थान पर भगवान श्रीराम को श्रीपति कहकर संबोधित नहीं किया गया है।
यहां पर भगवान श्रीराम को श्री रामचंद्र जी ने कह कर के श्रीपति कहने का विशेष आशय है। हम सभी जानते हैं कि श्री शब्द का अर्थ है देवी लक्ष्मी, शुभ, आलोक, समृद्धि, प्रथम, श्रेष्ठ, सौंदर्य, अनुग्रह, प्रतिभा, गरिमा शक्ति, सरस्वती, आदि।
श्री शब्द का सबसे पहले ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है। अनेक धर्म पुस्तकों में लिखा गया है कि ‘श्री’ शक्ति है। जिस व्यक्ति में विकास करने की और खोज की शक्ति होती है, वह श्री युक्त माना जाता है। राम को जब श्रीराम कहा जाता है, तब राम शब्द में ईश्वरत्व का बोध होता है। इसी तरह श्रीकृष्ण, श्री लक्ष्मी और श्री विष्णु तथा श्री हरी के नाम में ‘श्री’ शब्द उनके व्यक्तित्व, कार्य, महानता और अलौकिकता को प्रकट करता है। श्रीपति कहने से स्पष्ट होता है की रामचंद्र जी कोई साधारण पुरुष नहीं बल्कि अवतारी पुरुष हैं। अवतारी पुरुष द्वारा हनुमान जी को अपने गले से लगाना प्रतिष्ठा देने की उच्चतम पराकाष्ठा है। रामचंद्र जी वनवास में है परंतु अयोध्या के होने वाले राजा भी हैं। किष्किंधा के राजा सुग्रीव के मित्र भी हैं। इसके अलावा श्रीलंका के निर्वासित सरकार के मुखिया विभीषण जी को राज्य प्राप्त करने में सहायक भी हैं।
सनकादिक का अर्थ है सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार। सृष्टि के आरंभ में लोक पितामह ब्रह्मा ने अनेक लोकों की रचना करने की इच्छा से घोर तपस्या की। उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने तप अर्थ वाले सन नाम से युक्त होकर सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार नाम के चार मुनियों के रूप में अवतार लिया। ये चारों प्राकट्य काल से ही मोक्ष मार्ग परायण, ध्यान में तल्लीन रहने वाले, नित्यसिद्ध एवं नित्य विरक्त थे। ये भगवान विष्णु के सर्वप्रथम अवतार माने जाते हैं।
यह सभी सर्वदा पांच वर्ष आयु के ही रहे। न कभी जवान हुए ना बुढ़े। चार भाई एक साथ ही रहते हैं ब्रह्मांड में विचरण करते रहते हैं। ये चारों भाई जहां भी जाते हैं निरंतर भजन और कीर्तन में मग्न रहते हैं। एक प्रकार से हम कह सकते हैं कि यह निरंतर बोलते रहते हैं। या तो ये भजन को भजन के रूप में बोलते हैं या कीर्तन के रूप में बोलते हैं। इस चौपाई में इनके नाम लेने का आशय यह है कि अगर यह चारों मुनि जो कि विष्णु भगवान के अवतार हैं अगर बगैर रुके हनुमानजी की प्रशंसा करते रहे तो वे चारों मिलकर भी हनुमान जी की प्रशंसा पूर्णरूपेण नहीं कर पाएंगे।
दूसरा शब्द है ब्रह्मादि। इस शब्द का आशय बिल्कुल स्पष्ट है। ब्रह्मादि का अर्थ है देव त्रयी अर्थात ब्रह्मा जी, विष्णु जी और शिव जी। हिंदू धर्म में यह माना जाता है कि इनका स्थान सभी देवताओं से ऊपर है। परंतु उनके भक्तों में इस बात का युद्ध रहता है कि इनमें बड़ा कौन है। विष्णु पुराण के अनुसार विष्णु जी सबसे पहले ब्रह्मांड में आए फिर उसके बाद शिव जी और ब्रह्मा जी आए। शिव पुराण के अनुसार शिवजी सबसे बड़े हैं। अगर हम इनके चित्र देखें तो ब्रह्मा जी सबसे वृद्ध दिखाई देते हैं। ब्रह्मा जी के बाद शिवजी और उसके उपरांत विष्णु जी कम आयु के दिखाई पड़ते हैं। परंतु वास्तव में यह तीनों एक ही है। केवल अलग-अलग कार्यों के लिए ये अलग-अलग हो गए हैं। सृष्टि की रचना ब्रह्मा जी करते हैं। उनकी पत्नी सरस्वती जी ज्ञान की देवी हैं। वे इस कार्य में उनकी मदद करती है। इस पूरे जगत का पालनकर्ता भगवान विष्णु है। वह लक्ष्मी जी के साथ शेष शैया पर क्षीर सागर में निवास करते हैं। भगवान शिव विलीन कर्ता है। यह अपनी पत्नी और परिवार के साथ कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं। यह सभी अजन्मे है। सभी शक्ति युक्त है। अलग-अलग कार्यों के लिए विभिन्न नाम से पुकारे जाते हैं। इस चौपाई के अनुसार ये सभी शक्तिशाली देवता भी अगर मिलकर हनुमानजी की प्रशंसा करना चाहे तो नहीं कर सकते।
अगला शब्द मुनीसा है जिसका आशय है सभी मुनि गण। ये ऋषि और मुनि धरती पर निवास करने वाला बौद्धिक वर्ग हैं जो कि निरंतर यज्ञ -हवन कीर्तन-भजन आदि कर्मों में लगा रहता है। इनकी संख्या करोड़ों में है। इस चौपाई के अनुसार ये सभी भी मिलकर अगर हनुमान जी के कार्यों की प्रशंसा करना चाहे तो नहीं कर पाएंगे।
चौपाई के अगले खंड में “नारद सारद सहित अहीसा” कहा गया है।
नारद मुनि ब्रह्मा जी के छह पुत्रों में से छठे नंबर के हैं। उन्होंने कठिन तपस्या करने के उपरांत ब्रह्मर्षि पद को प्राप्त कर लिया है। नारद जी सदैव धर्म का प्रचार करते रहते हैं। वे पूरे ब्रह्मांड का भ्रमण करते रहते हैं। विष्णु जी के साथ इन का विशेष संपर्क है। ये सदा विष्णु जी की आराधना करते हैं। इनकी प्रशंसा में श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के २६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है – “देवर्षीणाम् च नारद:।“
देवर्षियों में मैं नारद हूं इनका कार्य सदैव बोलने का ही है।
मां शारदा या सरस्वती विद्या की देवी है पूरा ज्ञान इनसे ही है।
अहीसा का अर्थ है सांपों का देवता अर्थात शेषनाग जी। शेषनाग जी के एक सहस्त्र मुख हैं। यह भी माना जाता है इनसे ज्यादा मुख किसी और प्राणी के पास नहीं। इस प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र कहते हैं कि यह सभी मिलकर के भी हनुमान जी द्वारा किए गए कार्यों की पूर्ण प्रशंसा करने में असमर्थ हैं। इसका अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि हनुमान जी के कार्यों की पूर्ण प्रशंसा करना असंभव है। अगली दो चौपाइयां भी इन्हीं चौपाइयों उसके साथ जुड़ी हुई है। उन चौपाइयों का अर्थ अगले भाग में बताया जाएगा।
साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार – जयपुर से – डॉ निशा अग्रवाल
म्हारो तो वेलेंटाइन बस म्हारो भारत – किशोर पारीक
19 फरवरी 2023 को समरस साहित्य सृजन जयपुर इकाई एवं जकासा की मासिक काव्य गोष्ठी दुर्गापुरा स्थित स्टूडियों में जयपुर इकाई अध्यक्ष वरिष्ठ कवि श्री लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला एवं मुख्य अतिथि से. नि. प्रशासनिक अधिकारी श्री श्याम सिंह राजपुरोहित जी के द्वारा दीप प्रज्वलन एवं वैद्य भगवान सहाय पारीक द्वारा ढूंढाड़ी में सरस्वती वंदना के साथ प्रारंभ हुई।
कार्यक्रम में राष्ट्रीय कवि वरुण चतुर्ववेदी एवं वरिष्ठ साहित्यकार राव शिवराज पाल सिंह ने होली पर रचना सुना फाल्गुनी माहौल बना दिया, जकासा के संस्थापक ने “म्हारो वेलेंटाइन तो बस म्हारो भारत, कवि श्री सुशील पारीक ने महाभारत में कृष्ण-अर्जुन संवाद, डॉ निशा अग्रवाल, डॉ एन.एल. शर्मा, मशहूर शायर विजय मिश्र ‘दानिश, श्री सुबोध पारीक, अरुण ठाकर, एवं कई कवियों ने प्रकृति के अदभुत रंग, प्रेम रंग, श्रंगार एवं भक्ति रस से सराबोर कर देने वाली कविताएं रहीं।
अंत में अध्यक्षता कर रहे श्री लड़ीवाला की शिव वन्दना में खुशहाली की प्रार्थना के साथ गोष्ठी का समापन हुआ । कार्यक्रम का प्रभावी संचालन जयपुर इकाई की महासचिव डॉ निशा अग्रवाल के द्वारा किया गया।
साभार – डॉ निशा अग्रवाल
जयपुर ,राजस्थान
☆ (ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका) ☆ एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री ☆
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
एकदा का आपल्या मनाने आस्तिकता स्विकारली की आपली प्रत्येक देवदेवतांवर श्रद्धा ही बसतेच. कुठलीही मुर्ती, फोटो दिसला की आपण आपोआपच नमस्कार करतो. कुठलाही प्रसाद मिळाला की तो लगेच डोळे मिटून भक्तीभावाने ग्रहण करतो. कुठल्याही देवाचा अंगारा कपाळाला लावतो,पण जेव्हा कधी आणीबाणीची परिस्थिती येते, संकटाचा सामना करायचा असत़ो, काही निर्णायक प्रसंग समोर उभे ठाकले असतात, किंवा अतीव सुखाची अचानक अनुभूती झालेली असते तेव्हा मात्र हटकून आपल्या डोळ्यासमोर आपलं परम दैवतच येतं,कठीण प्रसंगी आपण जास्तीत जास्त त्याचाच धावा करतो वा अतीव सुखाचे क्षण उपभोगतांना क्षणोक्षणी त्या परम दैवताचीच आठवण करतो.
अर्थातच आपली प्रत्येकाची श्रद्धास्थान ही वेगवेगळी असू शकतात. कारण ह्या श्रद्धेचा संबंध थेट आपल्या मनाशी जोडल्या गेलेला असतो. आपलं परम दैवतं हे आपण अनुभवांनी घरात नित्य बघितल्याने, मनापासून निवडलेलं असतं. काल महाशिवरात्र झाली. माझंही परम दैवत शिवशंभो महादेव. त्यावरून ब-याच आठवणी जाग्या झाल्यात, गाठीशी आलेल्या अनुभवांच्या पुरचुंडीची गाठ जरा सैलसर झाली
महाशिवरात्री ला बँकेला सुट्टी असते त्यामुळे जरा निवांतपणा. ह्या दिवशी दोन्ही वेळी उपास असतो. त्यामुळे फराळाला लागणारी निम्मी तयारी ही अधल्या दिवशी करता येते, नव्हे ती तशी करुन ठेवणचं जास्त सोयीचं पडतं.
तसं तर नेहमीच देवळात वा मंदिरात सकारात्मक उर्जा तेवत असते. शांत व पवित्र वातावरणामुळे मन पण प्रसन्न राहातं. काही विशिष्ट दिवस हे त्या दैवताच्या पूजेसाठी खास असतात अशी आपल्या मनाची धारणा असते. हे दिवस सुखद भावनिकदृष्ट्या आपल्याला पाठबळं देतात. आपल्याला ज्या देवाची ओढ असते,ज्याच्यावर आपली मनापासून भक्ती असते,ज्याचा दर्शनासाठी आपल्याला नित्य जावसं वाटतं तेच आपलं परमं दैवतं असतं.
मागील महाशिवरात्रीला लिहीलेल्या पोस्ट मध्ये मी यवतमाळ व अमरावती मधील प्राचीन जागृत शिवमंदारांबद्दल लिहीले होते. माझे स्वतःचे परमदैवत शिवशंभू महादेव तर आमच्या “अहों”चे परमदैवत प्रभू श्रीरामचंद्र. ज्या नवराबायकोंच्या आवडीनिवडी ह्या विरुद्ध असतात ते “काँमन नवराबायको”. आणि विरुद्ध आवडीनिवडी असून सुद्धा जे परस्परांच्या आवडींचा मान ठेवतात, आदर करतात ते “स्पेशल नवराबायको”. त्यामुळे माझ्या शिवभक्तीचा आदर करीत आठ दहा वर्षांपूर्वी “अहोंनी” मला सरप्राईज ट्रीप म्हणून सोरटीसोमनाथ येथील महादेवाचे दर्शन घडविले तो क्षण माझ्यासाठी अमुल्य क्षणांपैकी एक होता. गुजरात मध्ये एका कौटुंबिक कार्यक्रम साठी जायचे असल्याने त्यांनी ह्या ट्रीप चे नियोजन केले होते.
बारा ज्योतिर्लिंगांपैकी एक ज्योतिर्लिंग म्हणजे सोरटीसोमनाथ. पुराणात या मंदिराच्या अनुषंगाने एक कथा आहे. चंद्राचे सोम असे नाव होते. तो दक्षाचा जावई होता. एकदा त्यांनी दक्षाची अवहेलना केली. त्यामुळे राग येऊन दक्षाने त्यांचा प्रकाश दिवसादिवसाने कमी होत जाईल असा शाप दिला. अन्य देवतांनी दक्षाला उःशाप देण्यास सांगितले. तेव्हा त्यांनी सरस्वती नदी समुद्राला जिथे मिळते, तेथे स्नान केल्यास या शापाचा परिणाम रहाणार नाही, असे सांगितले. त्यानंतर सोमाने सौराष्ट्रातील या ठिकाणी येऊन येथे स्नान केले आणि भगवान शिवाची आराधना केली. शंकर येथे प्रकट झाले आणि त्यांनी त्याचा उद्धार केला. त्यामुळे हे स्थान सोमनाथ या नावाने प्रसिद्ध झाले.
समुद्रकिनारी वसलेल्या ह्या मंदिरामध्ये खूप प्रमाणात सकारात्मक ऊर्जा, प्रसन्न वातावरण ,अद्भुत शांती आपल्याला अनुभवायला मिळते हा माझा स्वानुभव. तेथे देवळाच्या कंपाऊंड वाँलपर समुद्राच्या महाकाय लाटा आदळतात आणि जणू ह्या लाटांचे रुप बघून मनात,संसारात असलेल्या छोट्या छोट्या लाटा अवघ्या काही मिनिटात विरुनच जातात जणू.खूप जास्त माझ्या आवडीच्या ठिकाणां पैकी हे एक ठिकाण. तेथेच अहिल्याबाई होळकर ह्यांनी जिर्णोध्दार केलेलं अजून एक शिवमंदिराच्या दर्शनाचा अभूतपूर्व योग आला.
ह्या महाशिवरात्रीच्या पर्वावर जुनी आठवण परत एकदा जागी झाली. ह्यासाठीच कदाचित सणसमारंभ, उत्सव असावेत असं वाटतं.
शाळा सुटली ; पण नेहमीसारखी धमाल करावीशी वाटेना. कोणाबरोबर बोलावंसंही वाटेना. मग मी मित्रांना सोडून एकटाच निघालो.
तसं तर अधूनमधून आईचं आणि आजीचं भांडण होतच असतं. पण कालचं भांडण मात्र खूप मोठं होतं.
आता शनिवारी आजी-आजोबा गावच्या घरी राहायला जाणार.
मला आजी-आजोबा खूप आवडतात. आई-बाबांएवढेच.
आईबाबा रोज सकाळी ऑफिसात जातात, ते रात्री घरी येतात. दुपारी शाळेतून आल्यावर आजीआजोबांना बघितलं, की मला खूप बरं वाटतं. कितीही दमलो असलो, कंटाळलो असलो, तरीही मग मी शहाण्या मुलासारखे बूटमोजे काढून कोपऱ्यात ठेवतो, दप्तर जागेवर ठेवतो. कपडे बदलून युनिफॉर्म हँगरला लावतो. हातपायतोंड स्वच्छ धुतो. मग आम्ही तिघं जेवायला बसतो.
मला भेंडीची भाजी आवडत नाही, हे आजीला बरोब्बर ठाऊक आहे. म्हणून ती मला थोडीशीच भाजी वाढते. ती मी पटकन खाऊन टाकतो.
तर आता मला रडूच येतंय. सोमवारपासून मी घरी गेल्यावर आजीआजोबा नाही दिसणार.
कसं मिटणार त्यांचं भांडण? मी तर एवढुस्सा आहे. काहीच करू शकणार नाही मी. आईला सांगायला गेलं, तर ती मलाच ओरडणार आणि आजीशी बोलायला गेलं, तर ती म्हणणार, “बाळा, लहान मुलांनी मोठ्यांच्या मध्ये बोलू नये.”
ठीक आहे.आहे मी लहान. पण मला वाटलं – सगळ्यांनी एकत्र राहावं, तर चूक आहे का ते?
तेवढ्यात आठवण झाली. सकाळी आई चिडून बडबडत होती, “या भांडणांनी डोकं नसतं थाऱ्यावर. शिवाय ऑफिसमधून यायला उशीर झालेला. मग लक्षातच नाही राहिलं, त्यांची औषधं आणायचं. इथे आहेत, तोपर्यंत आपली जबाबदारी आहे. तिकडे गावाला गेल्यावर त्यांनाच उठून जायला लागणार, तेव्हा कळेल.”
मी दूध पित होतो. एकदम मला सुचलं, “आई, मी आणू आजीची औषधं?”
“आणशील तू? बरं झालं. म्हणजे त्यांच्या दुपारच्या गोळ्या चुकणार नाहीत. हे घे पैसे. आणि हे प्रिस्क्रिप्शन. आणि उरलेले पैसे….”
“आई, मी उरलेल्या पैशांतून सुतरफेणी आणू आजोबांसाठी?”
आई काहीच बोलली नाही. म्हणजे ती ‘नको’ म्हणाली नाही. म्हणजे सुतरफेणी घ्यायची.
तर मी औषधांच्या दुकानात गेलो. काकांनी दिलेली औषधं नीट बघून घेतली. आईने मागे सांगितलं होतं, तसं त्यावरच्या तारखापण बघितल्या. बिलावरची बेरीज, उरलेले पैसे… सगळं मोठ्या मुलासारखं बघून, तपासून घेतलं.
मग शेजारच्या मिठाईवाल्याकडे गेलो. तिथे सुतरफेणी घेतली.
आजोबांना फक्त मऊ पदार्थच खाता येतात. घट्ट पदार्थ खावेसे वाटले, तरी ते खाऊ शकत नाहीत. सुतरफेणी तर त्यांची एकदम आवडती.
मी कधीकधी आजोबांना विचारतो, “आजोबा, मी तुम्हाला आवडतो?”
ते म्हणतात,”होsss.”
मग मी विचारतो, “किती?”
मग ते सांगतात, “खूssप.”
मग मी म्हणतो, “असं नाही, आजोबा. खूप म्हणजे किती, ते सांगा.”
मग आजोबा मला जवळ घेतात, माझा पापा घेतात आणि म्हणतात, “तू मला खूप खूप आवडतोस. अगदी सुतरफेणीपेक्षाही जास्त.”
आज मी त्यांना सांगणार आहे, “मी तुम्हाला सुतरफेणीपेक्षा जास्त आवडतो, ना? मग मला सोडून जाऊ नका. तुम्ही दोघंही इथेच राहा.”
मी घरी गेल्यावर बघितलं, तर आजी जेवायला वाढत होती. माझ्या ताटात खूप भेंडीची भाजी घातली होती. अगदी बटाट्याच्या भाजीएवढी. मग मी ठरवलं, आज भेंडीची भाजी असली, तरी सगळी भाजी खायची. नाहीतर आजीला वाईट वाटेल.
तेवढ्यात औषधांची आठवण झाली.
“आजी, ही घे तुझी औषधं.”
“अरे, तू आणलीस?”
“हो गं. काल आईला ऑफिसात खूप काम होतं ना? म्हणून तिला उशीर झाला आणि ती दमलीही होती. त्यामुळे औषधं आणायची राहिली. आज दुपारच्या गोळ्या चुकतील ना, म्हणून तिने मला आणायला सांगितलं. आणि हे बघ. आजोबांना आवडते, म्हणून तिने सुतरफेणी आणायला सांगितली.”
आजीच्या डोळयांत पाणी आलं.
“तशी गुणी आहे रे तुझी आई. ऑफिसमध्ये खूप काम, जबाबदारी, जाण्यायेण्याची दगदग…. दमून आल्यावर चिडचिड होते माणसाची. खरं तर, मीच समजून घ्यायला पाहिजे. आता नाही हो भांडायची मी.”
“मग तू इथेच राहशील ना? गावाला नाही ना जाणार?”
आजी काहीच बोलली नाही.
“आजी ss,”मी तिचा दंड धरून तिला हलवलं.
तरीही ती गप्पच होती.
“आजी, नको ना जाऊस मला सोडून.”
“नाही रे सोन्या. तुला इथे सोडून गेले, तर माझं लक्ष तरी लागेल का तिकडे? शिवाय मी गावाला गेले, तर ऑफिसातून आल्यावर घरातलं काम, तुझा अभ्यास…. सगळं तुझ्या आईवर, एकटीवर पडणार. झेपणार नाही रे तिला. तुझ्या बाबांना तर अजिबातच वेळ नसतो…”
आजीआजोबा इथेच राहणार, म्हणून मला एवढा आनंद झाला, की मला भेंडीची भाजीसुद्धा आवडली. मी आणखी मागून घेतली.
जेवून झाल्यावर हाततोंड धुतलं, तेवढ्यात आईचा फोन आला.
मग मी आईला सांगून टाकलं, “आई, आई, आजी म्हणत होती, तू खूप गुणी आहेस म्हणून. ती मला सांगत होती, तुला ऑफिसात किती काम असतं, जबाबदारीचं….”
“हो रे. त्यांना जाणीव आहे त्याची. कौतुकही आहे. माझंच चुकतं. मी उगाचच भांडत बसते त्यांच्याशी. यापुढे लक्षात ठेवीन मी आणि भांडणार नाही अजिबात.”
“मग आजीआजोबा गावाला…..”
“नाही, नाही. मी सांगेन त्यांना – इथेच राहा, म्हणून.”
“माझी शहाणी शहाणी आई!” असं म्हणून मी फोनवरच तिला पापा दिला.
सौ. गौरी सुभाष गाडेकर
संपर्क – 1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.
फोन नं. 9820206306
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
☆ ऐसी कळवळ्याची जाती – भाग -3 ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆
(मागील भागात आपण पहिले, मुली आणि सुना यात त्यांनी कधी फरक केला नाही. मुलीही माहेरी आल्या आणि हात-पाय पसरून गप्पा मारत बसल्या असं कधी झालं नाही. आजी म्हणत, ‘कामावे ते सामावे.’ आता इथून पुढे)
आजी नि नातवंडे यांचे भावबंध मायेने थबथबलेले, सायीसारखे स्निग्ध, साखरेसारखे गोड, हे तर शाश्वत सत्य. माझ्या सासुबाईंचेही आपल्या नातवंडांवर- पतवंडांवर खूप प्रेम होते. त्यांना पतवंडेही होती. चांगली मोठी, जाणती होती. ही पतवंडे म्हणजे माझ्या पुतणीची, दादांची मुलगी माधुरी हिची दोन मुले. ती त्यांना पणजीबाईच म्हणत. खेळताना मुले पडली की त्या म्हणत, ‘पडो, झडो माल वाढो.’ आमच्या सुशीताईंची मुलगी सुनंदा भारी हळवी, म्हणून आजींचे तिच्या भावांना सांगणे असे, ‘उगीच तिला चिडवू नका. ती हरीण काळजाची आहे.’ त्यांच्या बोलण्यात अशा म्हणी, वाक्प्रचार नेहमी असायचे.
आजींना नातवंडांचं कौतुक होतंच. नातवंडांनाही या आपल्या आजीचं तितकंच अप्रूप होतं. नातवंडांना आजीचं कोणतं रूप भावलं? यमुताई ही त्यांची पहिली नात. धाकट्या मुलाच्या बरोबरीची. मोठी मुलगी आक्का, हिची मोठी मुलगी. तिचं आमच्याकडे येणं आणि रहाणं सर्व नातवंडात जास्त झालेलं. तिला आजीच्या गृहव्यवस्थापनातले कायदे आठवतात. सकाळी उठल्यावर प्रत्येकाने पाच घागरी पाणी ओढायचे. त्यावेळी सगळंच काम घरात असे. स्वयंपाक चुलीवर. जेवणं झालं की प्रत्येकाने आपापलं ताट, वाटी, भांडं याबरोबरच चुलीवरचं एक जळकं भांडं घासायचं. पुरुषांनीसुद्धा. शिळं काही उरलेलं असेल, तर सगळ्यांनी वाटून खायचं. पुरूषांना तेवढं ताजं आणि बायकांना शिळं, असा भेदभाव नव्हता. शिळं टाकायचं नाही, हे मात्र नक्की होतं. ‘अन्न हे पूर्णब्रम्ह.‘ त्या म्हणायच्या. आजीच्या व्यवस्थापनाबद्दल तिची धाकटी बहीण कमल सांगते, ‘ सुट्टी असली की आम्ही माधवनगरला जायचो. सांगलीहून माधवनगर फक्त दोन –तीन मैलांवर. त्या काळात शेंगा फोडून शेंगदाणे वापरायची पद्धत होती. मग आजी मुलांपुढे शेंगांची रास ओतायची आणि म्हणायची भांडंभर दाणे काढले की मी एक रुपया देईन. मग जत्रेतून काय हवं ते तुम्ही घ्या. जो जास्त दाणे काढेल, त्याला जास्त पैसे. ‘ दाणे काढल्यावर पैसे मिळणार, म्हटल्यावर आम्ही इरीशिरीनं दाणे काढायचो. मुलांना जत्रेसाठी पैसे मिळायचे. आजीचे काम व्हायचे.’ त्या काळात धुणं- भांडी याव्यतिरिक्त सगळी कामे घरात असत. शेंगदाणे नव्हे, वर्षाची शेंगांची पोती घेतली जात. त्या काळात माधवनगरला विठोबाची, हरीपूरला शंकराची जत्रा भरे. आजी हौसेने नातवंडांना घेऊन जत्रेला जात. टांग्याने हरिपूरला जाण्याचेही आकर्षण असे. मीदेखील तीन-चार वेळा त्यांच्याबरोबर जत्रेला गेले होते.
माझ्या लग्नाच्या वेळी घरी संपन्नता आली होती, पण सासूबाई कधी आपले जुने दिवस विसरल्या नाहीत आणि गरजावंताला मदत केल्याशिवाय कधी राहिल्या नाहीत. त्या काळात आणि एकूणच आयुष्यात ‘जिथे कमी, तिथे मी’ या वृत्तीने त्या जगल्या आणि हाच वसा त्यांनी आपल्या मुली – सुनांनाही दिला. नातेवाईकांमध्ये कुणाची अडचण आहे असं कळलं की त्या निघाल्याच आपली पिशवी घेऊन त्यांच्या मदतीला. गावात कुणाला गरज असेल, तर त्या धावायच्या. गरजवंताची गरज भागवणे, हीच त्यांची दान-धर्माची कल्पना होती. कुणासाठी काही केलं, मग ते नातेवाईक असोत वा परिचित वा आणि कुणी, ते बोलून दाखवायचा त्यांचा स्वभाव नव्हता.
माझ्या जाऊबाईंची बाळंतपणे सांगलीत झाली. डॉक्टर सहजपणे उपलब्ध होणं, हे त्याचं कारण. माझ्या जाऊबाईंची म्हणजे आमच्या वहिनींची माहेरची स्थिती त्या काळात हलाखीची होती. वडील गेलेले. चार भावंडे शिकणारी. आजींना परिस्थितीची कल्पना होती. त्या नातवंडांना बघायला गेल्या की सुनेच्या हातात पैसे ठेवून येत. त्यातही विहीणबाई जवळ नाहीत, असं बघून त्या पैसे देत. त्यांच्या सन्मानाला ठेच लागू न देता मदत करायची, असं धोरण. मला दहा वर्षांनी मुलगा झाला म्हणून त्याचं नाव अमोल ठेवलं. त्या काळात माझं माहेरी करण्यासारखं कुणीच नसल्यामुळे माझं बाळंतपण सासरीच झालं. माझ्या मुलाची मुंज आम्ही त्यांच्यासाठी आठव्या वर्षी केली. मुंज झाल्यावर त्या म्हणाल्या, ‘आता मी मरायला मोकळी झाले.’ अर्थात त्यानंतर, त्या नऊ वर्षे जगल्या. वयाच्या ९२ वर्षापर्यंत त्या जगल्या. शेवटची दोन वर्षे त्यांना भ्रम झाला होता. सारखं पोटात दुखतय म्हणायच्या. औषध म्हणून श्रीखंडाची गोळीही दिलेली चालायची. अगदी आजारी, हांतरूणावर पडून अशा त्या फक्त चार-सहा महिनेच होत्या. बाकी त्यांनी आपलं जीवन आनंदात, सुखा – समाधानात, तृप्तीत, इतरांच्या आनंदात आनंद मानत घालवलं.
आमच्या वहिनींच्या मावशी माधवनगरलाच रहात. त्यांच्या यजमानांना फारसं बरं नसे. त्या स्वत: फारशा शिकलेल्या नव्हत्या. शाळेत जाणार्या चार मुली आणि एक मुलगा. घराची शेती भाऊबंदांच्या वादात. त्यांना आजींनी मसाले, पापड, शेवया, तिखट , पुरणपोळ्या इ. करून विकायचा सल्ला दिला. त्या म्हणाल्या, ‘लोक काय म्हणतील, याचा विचार करू नकोस. लोक जेवायला घालणार आहेत का?’ मावशींचे पहिले ग्राहक आम्ही असू. आजी म्हणायच्या, ‘आपले चार पैसे जास्त गेले, तरी चालतील, पण ती आणि तिच्या घराचे अन्नाला लागले पाहिजेत. आजी त्यांना पोथी वाचून दाखवायला सांगत. त्यासाठी त्यांना पैसे देत. आजींचं हे रूप माझ्या डोळ्यापुढचं. इचलकरंजीला माझ्या दोन नंबरच्या वन्स सुशीताई रहात. त्यांच्यासमोर सौंदत्तीकर म्हणून जावा-जावा रहात. त्यांच्यापैकी धाकटीची स्थिती फारच हलाखीची होती. आजी एकदा त्यांना म्हणाल्या, ‘तुझ्या हातात कला आहे. लोकांचं शिवणकाम, भरतकाम करून दे. हलव्याचे दागिने कर आणि वीक. चार पैसे मिळतील. संसारात ते उपयोगी पडतील.’ त्यांनीही आजींचा सल्ला मानला. चार पैसे मिळू लागले. संसाराला मदत झाली.
सल्ले केवळ दुसर्यांनाच असत असं नाही. आम्हालाही असत. संक्रांतीच्या वेळी बायकांना हळदी-कुंकवाला बोलावून काही ना काही लुटायची पद्धत होती. त्या म्हणत, ‘रुपया – दोन रुपयाची वस्तू तुम्ही लुटणार. त्याचा घेणाराला फार काही फायदा असतो, असं नाही. त्यापेक्षा यासाठी जेवढे पैसे तुम्ही खर्च करणार, तेवढ्या पैशाची एखादी वस्तू, एखाद्या गरजावंताला द्या. साडी म्हणा, एखादा मोठं भांडं म्हणा, चादर वगैर म्हणा, किंवा आणखी काही…. तिला गरज असेल ते.’ गरजू स्त्री ब्राह्मणाचीच असावी, असा त्यांचा हट्ट नसे. दान-धर्म, त्यातून मिळणारं पुण्य यावर त्यांचा विश्वास होता, पण दान-धर्माच्या त्यांच्या कल्पना मात्र आधुनिक होत्या.
शिक्षणाचं महत्व त्यांना होतंच. लग्न झालं, तेव्हा मी फक्त पदवीधर होते. लग्नानंतर बी. एड., एम. ए., एम. एड. हे सारं शिक्षण आजींच्या मान्यतेनं आणि प्रोत्साहनानं झालं. घरचा राबता मोठा. मला नोकरी. त्यातही एम. ए., करायचं ठरवलं. याला होकार देताना आजींनी आणखी एक गोष्ट व्यवहाराच्या दृष्टीने केली. ‘तुझी नोकरी आणि अभ्यास, त्यामुळे तिच्यावर ( माझ्या जाऊबाईंवर ) कामाचा जास्त बोजा नको. तुम्ही वेगळे रहा. मी माझ्या डोळ्यांदेखत तुम्हाला घर मांडून देते. वेगळे रहा. गोडीत रहा. गरजेप्रमाणे एकमेकींना मदत करा.’ या व्यवस्थेमुळे, मला माझ्या सोयीप्रमाणे काम करता आलं आणि अभ्यासाठी वेळ काढता आला. आम्ही दोघांनीही त्यांच्या सांगण्याप्रमाणे वागायचा, आमच्याकडून शेवटपर्यंत प्रयत्न केला. आता आजीही नाहीत आणि त्यांचा वसा चालवणार्या जाऊबाईही नाहीत. मात्र त्यांनी आणि मी आजींचा वसा पुढच्या पिढीला देण्याचा प्रयत्न आमच्या परीने केला आहे.
मिरज तालुक्यातील गवळेवाडी गावातील घटना. शाळेच्या मैदानात खेळताना, मुलांना पाच फूट लांब आणि दोन इंच जाडीचा भला मोठा नाग दिसला. सदैव संरक्षणात तत्पर असलेल्या ‘ भालू ‘ या कुत्र्याला आणले गेले. नागाला पाहताच ‘भालू ‘ ने नागावर झडप घातली. आणि ‘ भालू ‘ आणि नागाची झुंज सुरू झाली . ‘भालूने ‘ नागाला आपल्या तोंडात धरून फेकून दिले .नागानेही आक्रमक होऊन ,भला मोठा फणा काढून, ‘ ‘भालू ‘ वर हल्ला करून त्याला दंश करण्यास सुरुवात केली. नाग फुसफुस आवाज करू लागला. दोन तासांच्या झुंजीनंतर ‘ भालू ‘ने नागाला जेरीस आणून ठार मारले. ‘भालू ‘ कोणालाही जवळ येऊ देईना. नाग मेल्याची खात्री झाली. आणि मगच तो घरी परतला. नागाच्या दंशाने ‘भालूच्या ‘ तोंडाचा चेंदामेंदा झाला होता. काही तासातच त्याचे अंग सुजायला लागले. तोंडाला फेस यायला लागला. तो बेचैन होऊन लोळायला लागला .काही वेळाने आपल्या मालकाकडे पहात एका जागी झोपून राहिला. कर्तव्यपूर्ती करून चिरनिद्रेत विलीन झाला. डफळ्या रंगाच्या ,उंच ,सडपातळ, मोठ्या दमाच्या, शिकारी आणि पराक्रमी भालूला आजही गावकरी विसरले नाहीत.
एखादा कुत्रा पराक्रमी असेलच असे नाही. पण दैवी म्हणावे असे सुंदर रूप आणि उत्तम अभिनय परमेश्वराने त्याला बहाल केलेले असते. त्यावर तो अलोट पैसा आणि जागतिक कीर्ती मिळवू शकतो आणि आपल्या मालकालाही मिळवून देतो १९४२ ते ४४ सालची गोष्ट. कॉलेजातीचा ‘कॉल ‘ त्याचे नाव. अत्यंत हूड असा कुत्रा. त्याच्या हूडपणाला कंटाळल्यामुळे मालकाला नकोसा झाला म्हणून त्याला त्यांनी विदर्भातल्या डॉक्टरला देऊन टाकला. खरंतर ही जात थोडी अर्धांग आणि भोजरी असून सुद्धा पाच-सहा महिन्यात तो अवघड कामही उत्तमरीत्या करू शकला. एके दिवशी पेपरमध्ये केली जातीचा कुत्रा पाहिजे अशी हॉलीवुडची जाहिरात आली. ३०० कुत्र्यांचा इंटरव्यू झाला आणि त्यामध्ये कॉल ची निवड झाली. ट्रेनरना खूप आनंद झाला. लसीकरण होम या चित्रपटासाठी त्याची निवड झाली चित्रपटाचा नायक एक कुत्रा असूनही तो चित्रपट खूपच गाजला. कितीतरी देशात तो चित्रपट दाखवला गेला आणि लोकांनी त्याला डोक्यावर घेतले. आणखी चित्रपटांसाठी अनेक देशातून पत्रे आली. अनेक करारही झाले. आता त्या
कॉल ची कमाई वार्षिक ५० हजार डॉलर झाली. लागोपाठ आणखी पाच सहा चित्रपट निघाले. काही वेळा तो प्रेक्षकात हास्याचे फवारे उडवायचा, तर कधी डोळ्यात अश्रूही उभे करायचा. लसीकरण होम चित्रपटानंतर तो लसी म्हणूनच प्रचलित झाला. लोकांनी त्याला डोक्यावर घेतले. त्याच्या रेखाचित्रांची मासिके निघाली. शाळेत शिक्षक त्याच्या निष्ठेच्या गोष्टी मुलांना सांगायला लागले. धर्मोपदेशक त्याच्या निष्ठेवर प्रवचने देऊ लागले. तो हॉलीवुडचा एक अमोल कुत्रा झाला. श्वान प्रदर्शनात फक्त उपस्थित राहण्यासाठी एक दिवसाचे एक हजार डॉलर्स मिळत असत. त्याचे सहा चित्रपट होईपर्यंत त्याने शूटिंग साठी वीस हजार मैलांचा प्रवास केला होता– कधी रेल्वेच्या वातानुकूलित खास डब्यातून, कधी खास बांधणीच्या स्टेशन वॅगनमधून, इतकच काय पण स्वतःच्या विमानातूनही तो प्रवास करीत असे. एकदा कॅनडामध्ये शूटिंगला गेलेला असताना सैनिकांच्या हॉस्पिटलमधून त्याला पाहण्यासाठी निमंत्रण आले. त्याला हॉस्पिटलमध्ये नेल्यानंतर सैनिकांचे चेहरे एकदम खुलले. त्याला प्रत्यक्ष पाहून सैनिकांना खूप आनंद झाला, कारण त्यांनी अनेक चित्रपटांमध्ये त्याला पाहिलेले होते. एक आश्चर्य म्हणजे एक दीर्घकाळ पडून असलेला सैनिक लसी ला पाहून ताडकन उठून बसला. त्याचा हात चाटून त्याला शेकहॅण्ड केले. डॉक्टरांनी आणि औषधांनी जे काम झाले नव्हते ते लसीने केले. किती कौतुक करावे त्याचे बरं.
आजकाल मेडिकल क्षेत्रात डॉग थेरपी म्हणून कुत्र्याचा वापर केला जातो. परदेशात ज्येष्ठ नागरिकांसाठी कंप्यानियन म्हणून कुत्रा पाळतात. आणि त्याला शिकवतात. ते ज्येष्ठांचे चोरापासून ,धोक्यापासून रक्षण करतात. एखाद्याला एपिलेप्सीचा त्रास असेल, आणि कुत्रा बरोबर असेल ,तर त्या व्यक्तीला चक्कर येण्यापूर्वी काही क्षण कुत्र्याला अगोदर जाणीव होते. आणि तो त्या व्यक्तीला त्याचे कपडे पकडून खाली बसवतो, आणि सावध करतो… जर्मनीतील म्युनिच शहरातील घटना. ‘आर्को ‘ हा एक म्हातारा कुत्रा. ५६ वर्षाच्या एकट्याच राहणाऱ्या वालडरमनने त्याला ठेवून घेतले .एके दिवशी वालडरमनला रस्त्यातच हार्ट अटॅक येऊन तो खाली पडला. ‘आर्को ‘ ५० मीटरवर पळत जाऊन पादचाऱ्यांवर भुंकायला लागला. आणि त्यांना घेऊन मालकाजवळ आला. लोकांनी त्याला हॉस्पिटलमध्ये नेले .बरे वाटून परत घरी आल्यानंतर मालकाची सेवा करण्यासाठी आणखी काही वर्षे तो जगला .” मी म्हातारा झालो तरी काय करू शकतो ” हे त्यांनी दाखवून दिले. मालकावरच्या निष्ठेला शब्दच अपुरे आहेत.
कधी कधी एखाद्याचे दैव कधी उजळेल सांगता येत नाही. आमच्या घरापासून ,रस्त्याच्या कडेला झुडुपात एका कुत्रीने चार पिल्लांना जन्म दिला. आठ दहा दिवसांनी पिलांची आई कुठे गायब झाली समजले नाही. पिले रात्रंदिवस आईसाठी भुकेने ओरडत होती. त्यांची आई आली तर चावेल, म्हणून कोणी पिलांना उचलण्याचे धाडस करत नव्हते. अखेर माझ्या मैत्रिणीने त्याना उचलून घरी आणले. दूध-खाणे सुरू केले. त्यांच्या बाललीलांनी सगळ्यांना लळा लावला. दोन पिलांना कोणीतरी सांभाळायला घेऊन गेले. उरलेल्या दोघांची नावे ‘ बंड्या’ आणि ‘ गुंडी ‘ अशी ठेवली गेली. काही कौटुंबिक अडचण आल्याने ‘ बंड्या ‘ आणि ‘ गुंडीला’ ” पीपल फॉर ॲनिमल” च्या संस्थेत पाठवले गेले. इतर प्राण्यांबरोबर दोघेही छान रुळले. संस्थेतील काही गाढवांना उटीला पाठवायचे होते. उटी , (मसिन गुडी) या ठिकाणी डॉक्टर मिसेस एलिना वोटर आणि डॉक्टर नायजेल वोटर (नॉर्वेचे भारतात स्थायिक झालेले व्हेटर्नरी डॉक्टर ) यांनी २० एकर जागेत “इंडिया प्रोजेक्ट फॉर नेचर” ही संस्था स्थापन केली आहे. तेथे गाढवांबरोबर गुंड्या आणि बंडी यांनाही पाठवले गेले. परदेशस्थ काही संस्था आणि व्यक्ती अशा प्राण्यांना दत्तक घेतात. बंड्या आणि गुंडीच्या फोटोची जाहिरात झाली. यु .के. मधील एका प्रसिद्ध बँड ग्रुपचे गायक पाँल प्राणीप्रेमी होते .त्यांनी फोटो, कागदपत्रे यांची पूर्तता केली .त्यांची नावे बदलून त्यांचे ‘ पॉल ‘म्हणजे (स्वतःचे) आणि नँन्सी (बायकोचे) असे नामकरण केले. दत्तक विधान झाले . ‘बंड्या’ आणि ‘गुंडी’ मराठी जोडी पाँल आणि नॅन्सी अशी इंग्लिश झाली. रस्त्याच्या कडेला झुडुपात जन्माला आलेली, रात्रंदिवस आईविना भुकेने व्याकुळ होऊन ओरडत राहिलेली ,’बंड्या ‘ आणि ‘ गुंडी ‘ म्हणजेच पाँल आणि नॅन्सी उटीला आनंदी आणि मुक्त जीवन जगायला लागले. कसं नशीब असतं ना एकेकाचं !