(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
मकर संक्रांति रविवार 15 जनवरी को है। इस दिन सूर्योपासना अवश्य करें। साथ ही यथासंभव दान भी करें।
💥 माँ सरस्वती साधना 💥
सोमवार 16 जनवरी से माँ सरस्वती साधना आरंभ होगी। इसका बीज मंत्र है,
।। ॐ सरस्वत्यै नम:।।
यह साधना गुरुवार 26 जनवरी तक चलेगी। इस साधना के साथ साधक प्रतिदिन कम से कम एक बार शारदा वंदना भी करें। यह इस प्रकार है,
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता। या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना। या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता। सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 18 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
परदेश: बेतार के तार
विगत दिन यहां विदेश में एक समुद्र तट पर जाना हुआ जिसका नाम “मारकोनी” हैं। मानस पटल पर पच्चास वर्ष पुरानी यादें ताज़ा हो गई।
बात सन अस्सी से पूर्व की है, भोपाल सर्कल में एक प्रोबेशनरी अधिकारी श्री विजय मोहन तिवारी जी ने बैंक की नौकरी से त्यागपत्र देकर कोचिंग कक्षा केंद्र आरंभ किया था।
प्रथम दिन उन्होंने बताया की किसी पुरानी बात को याद रखने के लिए उसको किसी अन्य वस्तु / स्थान आदि से जोड़ कर याद रखा जा सकता हैं। उद्धरण देते हुए उनका प्रश्न था कि “रेडियो” का अविष्कार किसने किया था? हमने उत्तर में “मारकोनी” बताने पर उनका अगला प्रश्न था, कि इसको कैसे लिंक करेंगें? जवाब में हमने बताया की घर में रेडियो अधिकतर “कोने” में रखे जाते है, जोकि मारकोनी से मिलता हुआ सा हैं।
बोस्टन शहर से करीब एक सौ मील की दूरी पर मारकोनी बीच (चौपाटी) के नामकरण के लिए भी एक महत्वपूर्ण कारण था। इसी स्थान से अटलांटिक महासागर पार यूरोप में पहला “बेतार का तार” भेजा गया था। जिसका अविष्कार मारकोनी द्वारा ही किया गया था। विश्व प्रसिद्ध टाइटैनिक समुद्री जहाज़ ने भी इसी प्रणाली का प्रयोग कर बहुत सारे यात्रियों की जान बचाई थी।
संचार क्रांति के पश्चात “तार” (टेलीग्राम) का युग अब अवश्य समाप्त हो गया हैं, परंतु मारकोनी के रेडियो का उपयोग अभी भी जारी हैं।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है जीवन में आनंद एवं सुमधुर आयोजन के महत्व को दर्शाती एक भावप्रवण लघुकथा “विशाल भंडारा”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 149 ☆
लघुकथा विशाल भंडारा
भंडारा कहते ही सभी का मन भोजन की ओर सोचने लगता है।
सभी प्रकार से सुरक्षित, साधन संपन्न, शहर के एक बहुत बड़े हाई स्कूल जहाँ पर छात्र-छात्राएं एक साथ (कोएड) पढ़ते थे।
हाई स्कूल का माहौल और बच्चों का प्ले स्कूल सभी के मन को भाता था। गणतंत्र दिवस की तैयारियां चल रही थी। सभी स्कूल के टीचर स्टाफ अपने अपने कामों में व्यस्त थे।
गीत – संगीत का अलग सेक्शन था वहाँ भी बैंड और राष्ट्रीय गान को अंतिम रूप से दिया जा रहा था।
स्कूल में एक कैंटीन थी, जहाँ पर बच्चे और टीचर /स्टाफ सभी को पर्याप्त रूप से नाश्ते में खरीद कर खाने का सामान मिल जाता था।
स्कूल का वातावरण बड़ा ही रोचक और मनोरम था। किसी टीचर का जन्मदिन या शादी की सालगिरह या कोई अन्य कार्यक्रम होता।उस दिन कैंटीन पर वह जाकर कह देते और पेमेंट कर सभी 150 से 200 टीचर / स्टाफ आकर अपना नाश्ता ले लेते और बदले में बधाईयों का ढेर लग जाता। शुभकामनाओं की बरसात होती। मौज मस्ती का माहौल बन जाता।
स्कूल में भंडारा कहने से बात हवा की तरह फैल गई। सभी खुश थे आज भंडारा खाने को मिलेगा। यही हुआ आज स्कूल स्टाफ के संगीत टीचर विशाल का जन्मदिन था।
विशाल शांत, सौम्य और संकोची स्वभाव का था। अपने काम के प्रति निष्ठा स्कूल के आयोजन को पूर्णता प्रदान करने में अग्रणी योगदान देता था।
विशाल का युवा मन कहीं कोई कुछ कह न दे या किसी को मेरे कारण किसी बात से ठेस न पहुँचे, इस भावना से वह चुपचाप जाकर कैंटीन पर धीरे से वहां की आंटी को बोला…. “ज्यादा बताने की जरूरत नहीं है, आज मेरा जन्मदिन है। सभी स्टाफ को मेरी तरफ से नाश्ता देना है।”
शांत, मधुर मुस्कान लिए विशाल ने जब यह बात कही। कैंटीन वाली आंटी ने पहले सोचा इसे सरप्राइज देना चाहिए। विशाल के वहाँ से निकलने के बाद वह सभी से कहने लगी भंडारा भंडारा भंडारा विशाल भंडारा सभी बड़े खुश हो गए।
किसी का ध्यान विशाल के जन्मदिन की ओर नहीं गया। बस यह था कि स्कूल से भरपूर भंडारा खाने का मजा आएगा। जो सुन रहा था वह खुशी से एक दूसरे को बता रहे थे।
पर कारण किसी को पता नहीं था। अपने कामों में व्यस्त विशाल के पास उसका अपना दोस्त दौड़ते आया और कहने लगा… “सुना तुमने आज विशाल भंडारा होने वाला है।” जैसे ही विशाल ने सुना पियानो पर हाथ रखे उंगलियां एक साथ बज उठी और तुरंत वहाँ से उठकर चल पड़ा। ‘चल चल चल’ दूसरी मंजिल से जल्दी-जल्दी सीढ़ियां उतरते विशाल ने देखा आंटी सभी को खुश होकर नाश्ता बांट रही थी, और कह रही थी विशाल का भंडारा है जन्मदिन की बधाइयाँ। सभी के हाथों पर नाश्ते की प्लेट और चेहरे पर मुस्कान थी।
अपने जन्मदिन का इतना सुंदर तोहफा, आयोजन पर विशाल गदगद हो गया। तभी बैंड धुन बजाने लगे हैप्पी बर्थडे टू यू। सारे स्टाफ के बीच विशाल अपना जन्मदिन मनाते सचमुच विशाल प्रतीत हो रहे थे। विशाल भंडारा सोच कर वह मुस्कुरा उठा। जन्मदिन की खुशियां दुगुनी हो उठी।
साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार – जयपुर से – डॉ निशा अग्रवाल
समरस संस्थान साहित्य सृजन भारत की प्रथम वर्चुअल आम सभा आयोजित
समरस संस्थान साहित्य सृजन भारत द्वारा दिनांक 22 जनवरी 2023 की शाम इस सत्र की प्रथम वर्चुअल आम सभा संरक्षक मंडल सदस्य श्री रघुनाथ मिश्र ‘सहज’ की अध्यक्षता में आयोजित हुई। देश की विभिन्न इकाइयों के समस्त पदाधिकारियों एवं कार्यकारिणी सदस्यों ने भाग लिया।
सभा का प्रारंभ डॉ उमा सिंह की मधुर आवाज के द्वारा मां सरस्वती की वंदना के साथ किया गया। सभा का संचालन राष्ट्रीय महामंत्री श्रीमती कामिनी व्यास ‘रावल’ द्वारा किया गया तथा परिचर्चा के मुख्य बिंदुओं पर प्रकाश डाला।
तथा परिचर्चा में निम्न एजेंडा प्रस्तुत किए गए –
पूर्व की तरह मासिक गोष्ठियों का आयोजन।
वर्ष भर के कार्यक्रमों का कैलेंडर बना कर सभी राज्यों की इकाइयों को भेजना।
बालकों के विकास और प्रोत्साहन हेतु कार्यक्रम बनाकर प्रोत्साहन करना।
26 जनवरी को राष्ट्रीय एवं इकाई स्तर पर गोष्ठी आयोजित करना।
सामाजिक, संस्कृतिक।और राष्ट्रीय विकास में प्रभावी योगदान हेतु न्यूज चैनल की स्थापना।
संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री मुकेश व्यास ‘स्नेहिल’ ने कहा कि- “महिलाओं के उत्थान, युवा पीढ़ी एवं बच्चों में हिंदी भाषा और साहित्य के प्रति अलख जगाया जाए।” परिचर्चा में वर्ष भर में होने वाली साहित्यिक गतिविधियों एवं कार्यक्रमों की रूपरेखा पर विचार विमर्श किए। कार्यशाला प्रभारी डॉ भावना सांवलिया ने बालकों के सृजनात्मक विकास हेतु लेखन एवं चित्र काव्य प्रतियोगिताओं का सुझाव दिया।
जयपुर इकाई अध्यक्ष श्री लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला ने संस्था के विस्तार एवं बाल विकास हेतु सुझाव प्रस्तुत किए। मीडिया प्रभारी शशि जैन ने बताया कि साहित्य जगत में महिलाओं का रुझान निरंतर बढ़ रहा है। ये हमारे देश के लिए बड़े ही गर्व की बात है। उपाध्यक्ष श्री राव शिवराज पाल सिंह ने कहा कि – “आज के बच्चों को हिंदी विषय और हिंदी भाषा के प्रति रुचि जागृत करने की आवश्यकता है। यह तभी संभव है जब हम माध्यमिक शिक्षा स्तर से पहले ही खासतौर से बच्चों के लिए संस्था के माध्यम से अनेकानेक कार्यक्रम करवाएं। इसके लिए उन्होंने अंग्रेजी कहावत “कैच देम यंग” का उदाहरण दिया।” कार्यक्रम में श्रीमती मधु सिंह ‘महक’, श्री कपिल खंडेलवाल, श्री बृज सुंदर एवं डॉ अनिल शर्मा रेनू ने भी अपने विचार व्यक्त किए। जयपुर इकाई महा सचिव डॉ निशा अग्रवाल को राष्ट्रीय न्यूज चैनल का प्रभारी नियुक्त किया गया। सभी ने उनको बधाइयां दी।
समरस द्वारा बसंत पंचमी के शुभ अवसर पर समरस बाल काव्यशाला आरम्भ करने की घोषणा भी की गई।
जो भी बच्चे इस काव्यशाला मे भाग।लेना चाहते है, संस्थान से जुड़ सकते है। सभा का समापन राष्ट्रीय महामंत्री श्रीमती कामिनी व्यास द्वारा आभार के साथ संपन्न हुआ।
साभार – डॉ निशा अग्रवाल
जयपुर ,राजस्थान
☆ (ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका) ☆ एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री ☆
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
दोन दिवसांपासून वातावरणात हलका बदल व्हायला सुरवात झालीयं. ही शिशिराची चाहूल . हे बदलते ऋतू आणतात आयुष्यात वैविध्य, रंगत आणि शिकवितात एक मोलाचा संदेश. आयुष्यात दिवस हे देखील ऋतुंप्रमाणे बदलत असतात. त्यामुळे कुठल्याही चांगल्या स्थितीत हुरळून जायचं नाही आणि कुठल्याही वाईट स्थितीत डगमगायचं नाही, कारण दिवस हे ऋतुंप्रमाणे बदलत असतात.
दिनदर्शिकेप्रमाणे मार्गशीर्ष आणि पौष ह्या मराठी महिन्यात शिशिर ऋतू असतो. ग्रेगरी दिनदर्शिकेप्रमाणे डिसेंबर, जानेवारी, फेब्रुवारी ह्या इंग्रजी महिन्यात शिशिर ऋतू असतो.
शिशिर ऋतूमध्ये झाडांची पाने पिवळी पडतात व गळतात. त्यानंतर त्या झाडांना नवीन पालवी फुटण्यास सुरुवात होते. या ऋतूत काही प्रमाणात गारवा व थंडी असते आणि काही प्रमाणात उन्हाळ्याची चाहूल देखील एकीकडे येणे सुरू होते. या ऋतूत फळे व फुले बहरलेली असतात .
या काळात उत्तरेकडून थंड वारे वाहत असतात. उन्हाळा सुरू झाला की पहिले दोन चार दिवस ती पानगळ,पिकली पानं गळतांना बघून मन हुरहुरतं,उदास होतं पण हे तर निसर्गचक्र. परत नवीन पालवी फुटतांना बघितली की परत मन हरखतं,प्रफुल्लित होतं.सगळे आपले मनाचे खेळ. आंब्याचा मोहोर,डवरलेला गुलमोहर आणि फुललेला पळस बघणं म्हणजे डोळ्यांचं पारणं फेडणारं सुख,आनंद.तो पळस आणि गुलमोहर डोळ्यात किती साठवून ठेवू असं होतं खरं.
ह्या शिशिराची आठवण होतांना हमखास आठवण होते वा.रा.कांत ह्यांच्या “शिशीरऋतूचे गान ” ह्या कवितेची.त्या कवितेतील शेवटचे कडवे आणि त्याचे माझ्या शब्दांत रसग्रहण पुढीलप्रमाणे
हलके हलके हसते,गळते तरुचे पान न पान
पानझडीत या ऐकुन घ्या गं शिशीर ऋतुचे गान
फुले जळाली, पाने गळली,
फळांत जरी रसधार गोठली,
सर्व स्रुष्टी जरी हिमे करपली,
पिवळ्या पानांच्या मनी फुलते वसंत स्वप्न महान
पानझडीत ह्या ऐकून घ्या गं शाशीरऋतुचे गान
खरंच हा ऋतु साक्षात वृक्षांच्या उदाहरणावरुन आपल्याला शिकवून जातो.अगदी हलके हलके सहजतेने वृक्षाची पानगळ झाली, फुलं जळाली, अगदी परिसीमा म्हणजे अवघी स्रुष्टी जरी हिमे करपली. तरी आपलं मनं मात्र कायम आशावादी सकारात्मक ठेवा कारण येणारा उद्या कायम आपल्यासाठी वसंत ऋतू म्हणजे भरभराट घेऊन येणारच आहे.त्यामुळे खचून न जाता उद्याची वाट बघत आशावादी सकारात्मक हसतमुख रहा. आपल्यातील कित्येक आदर्श पिकली पानं जरी गळून पडली तरी त्यांचा आदर्श आपल्याला कायम शिकवण देत राहील
त्यांच्या आठवणी,आदर्शवाद आपल्याकडे असलेला अनमोल ठेवा असेल,तो कायम स्मरणात ठेवा आणि आचरणात आणा.
☆ अप्पर हाफ – लेखक – श्री रविकिरण संत ☆ संग्राहिका – सुश्री सुप्रिया केळकर ☆
मी नुकताच NTC च्या एका काॅटन मिलमधे ‘सुपरवायझर’ ह्या पोझीशनवर लागलो होतो. गेटच्या आत कंपाऊंडमधे एका व्यक्तीचा अर्धपुतळा लावलेला होता.
खूप दिवसांनी मिलमधे माझ्यासारखा पंचविशीतला इंजिनीअर आला असावा. कारण बहूतेक जण अर्ध्या वयाचे दिसत होते. पहिल्याच दिवशी लंच अवरला मला तेथील सिनीअर्स कडून असे सांगण्यात आले की कामाचे टेन्शन घ्यायचे नाही. ही सरकारी कापड गिरणी आहे. इथे वेळेवर येवून पोहचणे हेच मुख्य काम. ‘ब्राइट करियर’ वगैरे गोड कल्पना तुझ्या डोक्यात असतील तर ही मिल तुझ्यासाठी नाही. आम्ही इथे जेवण झाल्यावर रोज तासभर डोळे मिटून आराम करतो.
मग त्यातील एक सिनीअर उत्साहाने सांगू लागले, ” तो गेट जवळचा पुतळा पाहिलास ना, ते काशीराम बंकाजी आहेत. त्यांचा मृत्यू १९४८ साली वयाच्या ५९ व्या वर्षी झाला. त्यांच्या पहिल्या पुण्यतिथीला आम्ही कामगारांनी पैसे गोळा करून सुप्रसिद्ध शिल्पकार व्ही.पी.करमरकर यांच्याकडून त्यांचा अर्धपुतळा त्यावेळी चाळीस हजार रुपयात बनवून घेतला आणि समारंभपूर्वक तो सिनेकलाकार अशोककुमार यांच्या हस्ते स्थापन केला.”
” पुतळ्यासाठी कामगारांनी पैसे ऊभे केले म्हणता, म्हणजे कामगारांसाठी त्यांनी खूप काही केले असणार!” मी म्हणालो.
” खूपच केले. माझे वय आज ५७ आहे. मी १९४१ साली मॅट्रिक होवून वयाच्या १८ व्या वर्षी इथे सुपरवायझर पोस्टवर नोकरीला लागलो. त्यावेळी ही कंपनी ‘बंका काॅटन मिल्स’ या नावाने प्रसिद्ध होती. मिलमधे २१०० कामगार होते. मालक काशीराम बंका ‘काॅटन किंग’ म्हणून हिंदुस्थानात प्रसिद्धी पावले होते.”
” सन १९०० च्या पहिल्या दशकात राजस्थानातून मुंबईत आले तेव्हा बंकाजी फक्त १६ वर्षांचे होते. ते अतिशय मेहनती, हुशार आणि मुत्सद्दी होते. त्यावेळी सर्व महत्वाचे व्यवसाय ब्रिटीश कंपन्यांच्या हातात होते. बंकाजींनी मुंबईत काॅटन ट्रेडिंगचा व्यवसाय सूरू केला. पुढच्या पाच वर्षांत त्यांच्या ‘काशीराम बंका काॅटन ट्रेडर्स’ कंपनीला ब्रिटीश सरकारच्या काॅटन काॅन्ट्रॅक्ट बोर्डाची मेंबरशीप मिळाली जो बोर्ड पुढे East India cotton association चा मेंबर झाला.”
” बंकाजी एवढ्यावर थांबले नाहीत. ते भपकेबाज रोल्स राॅइस गाडी वापरीत. पुढे ते Indian merchant’s chamber चे अध्यक्ष झाले. १९३५ साली त्यांना New York cotton exchange ची प्रेस्टीजीअस मेंबरशीप मिळाली, जी भारतीय माणसाला अपवादानेच मिळायची. ती त्यांच्या मृत्युपर्यंत कायम होती. मुंबईच्या स्टाॅक एक्सचेंजचे ते फाउंडर मेंबर होते. त्यावेळी ब्रिटन आणि अमेरिकेत काॅपर, शुगर, व्हीट एक्स्चेंजेस होती. त्या सर्व ठिकाणी बंकाजींनी आपल्या प्रेझन्सने दबदबा निर्माण केला.”
“बंकाजी हयात असेपर्यंत आमच्या मिलच्या लायब्ररीत New York Times येत असे. त्यात वाचलेल्या आर्टीकल्समधे त्यांच्या बिझनेस प्रोजेक्शन्सकडे पाश्चिमात्य पत्रकार भितीयुक्त आदराने पाहात असल्याचे जाणवायचे. ते कोणते शेअर्स विकत घेतात किंवा विकतात यावरून मार्केटमधे चलबिचल व्हायची.”
“१९२० साली बंकाजींनी टेक्स्टाईल मिल काढण्यासाठी ही तीनशे एकराची प्रशस्त जागा घेतली. मिलचे बांधकाम तीन वर्षांत पूर्ण झाले. त्यातील चाळीस एकरात निवासासाठी चाळी, शिक्षणासाठी शाळा आणि एक हाॅस्पिटल बांधण्यात आले. ह्या तिन्ही गोष्टी कामगारांसाठी विनामूल्य होत्या. मग ब्रिटनहून मशिनरी मागवण्यात आली आणि १९२५ साली ही मिल सूरू झाली.”
” फक्त आमचीच मिल तेव्हा वर्षांतून दोनदा बोनस द्यायची. एक दिवाळीत तर दूसरा जूनच्या १ तारखेला.”
“१ जूनच का?”
” कारण १३ जूनच्या आसपास शाळा सूरू व्हायच्या. तेव्हा मुलांची पुस्तके, वह्या, युनिफॉर्म, बूट, दप्तरे, छत्र्या ह्यासाठीच्या खर्चाची ती सोय असे. बंकाजी कामगारांच्या मुलांच्या शिक्षणासाठी खूप आग्रही होते. मॅट्रिक झालेल्या प्रत्येक मुलाला त्यांच्याकडे नोकरीची ऑफर असे. तसेच हवी असल्यास उच्चशिक्षणासाठी शिष्यवृत्ती मिळे.”
” बंकाजी खरोखर देवमाणूस होते.” मी भारावून म्हणालो.
” …आणि हा देवमाणूस अतिशय प्रामाणिक होता. त्यावेळचे श्रीमंत लोक गांजा, मदिरा आणि मदिराक्षी यांच्या सहाय्याने आपले शौक पूर्ण करायचे. पण बंकाजींना त्यांच्या आईने सोळाव्या वर्षी मुंबईला पाठवताना ‘गांजा आणि मदिरेपासून तू दूर रहाशील’ अशी शपथ घातली होती. मग त्या देवतूल्य आईच्या शपथेनुसार बंकाजी आयुष्यभर तसेच वागले.
मिलचा चार एकर भाग त्यांनी उंच भिंत घालून वेगळा केला. त्यात एक टूमदार हवेली बांधली. तळमजल्यावर पार्टी हाॅल, किचन व पहिल्या मजल्यावर चार प्रशस्त बेडरूम्स बनवल्या. हवेली समोर दोन एकरात छोटा कृत्रीम तलाव बांधला. त्यात खास काश्मीरहून आणलेला शिकारा ठेवला. दूपारी ते मिलच्या ऑफिसातून हवेलीत जेवायला जात. आवडीची भरीत- भाकरी खाल्ल्यावर ते शिकार्यात वामकुक्षी घेत. त्यावेळी त्यांच्यासोबत दोन युरोपीयन मुली नावेत असत.
” उंच भिंती पलिकडचे हे कसे काय तूम्हाला दिसायसे?” माझा प्रश्न.
“आमच्या स्पिनिंग डिपार्टमेंटच्या तिसर्या मजल्यावरच्या एका खिडकीतून आम्ही हे चोरून बघत असू. त्यातली एक मुलगी त्यांचे पाय चेपत असायची तर दुसरी नाव वल्हवत असे. दर शनिवार, रविवार हवेलीवर संध्याकाळी पार्टी असे. त्यांत मी त्या काळातल्या सर्व नटनट्यांना भेटलो.”
” ते कसे काय?” मला आश्चर्याचे धक्के बसत होते.
” त्याची गंमतच झाली. मी नाशिकच्या ‘न्यू इंग्लिश स्कूल’ मधून १९४१ ला मॅट्रिक झालो ज्याचे १९४३ ला पुढे नाव बदलून ‘जे.एस. रूंगठा’ हायस्कूल झाले. आठवी ते अकरावी आम्हाला इंग्रजी विषय शिकवायला थॉमस लेन नावाचे ब्रिटीश शिक्षक होते. ते अतिशय सुंदर शिकवत. तिथल्या चार वर्षांच्या अध्यापनानंतर सर्व मुले छान इंग्रजी बोलत असत.”
“त्यावेळेस बंका काॅटन मिल्स मधे केलेल्या नोकरीच्या अर्जात उत्तम बोलता येणार्या भाषेंत मी इंग्रजी, मराठी आणि हिंदी असा उल्लेख केला होता. म्हणून माझा इंटरव्हू घ्यायचे काम जेम्स स्टूअर्ट नावाच्या ब्रिटीश स्पिनिंग मास्तरना दिले गेले. त्यांनी मला नाशिकला कुणाकडे, किती वर्षे इंग्रजी शिकलो असे विचारले. तसेच इथे मुंबईत कुणाकडे राहिला आहेस असे विचारले.
मी सर्व प्रश्नांची उत्तरे सफाईदार इंग्रजीत दिली. त्यानंतर मला बंकाजींच्या केबिनमधे पाठवण्यात आले.
बंकाजी म्हणाले,” तुला मिलमधे सुपरवायझरची नोकरी देतो पण दर शनिवार आणि रविवार तुझी हवेलीत ड्यूटी असेल.
” सर तिथे मी काय करायचे?”
मी नम्रपणे विचारले.
” त्या दोन्ही दिवशी बर्याच विदेशी पाहुण्यांचा राबता असतो. त्यांना काय हवे नको ते बघायचे.”
अशा रितीने माझा हवेलीत प्रवेश झाला.
हवेलीतल्या पार्ट्यांना कधी हिंदी फिल्म इंडस्ट्रीतल्या नटनट्या यायच्या तर कधी ब्रिटीश पदाधिकारी! त्यांत गांजा, चरस, मदिरा, तर्हेतर्हेचे मांसाहार ह्यांची रेलचेल असे. बंकाजी स्वतः ह्यातील कशालाही स्पर्श करत नसत. कारण त्यांच्या आईच्या शपथेने त्यांना बांधलेले होते.
मात्र पार्टी पुर्ण भरात आल्यावर हळूच एखाद्या नटीबरोबर ते पहिल्या मजल्यावरच्या खोलीत काही काळासाठी गडप होत! राजस्थानच्या छोट्या गावात आयुष्य काढलेल्या त्यांच्या माऊलीला मदिराक्षी हा प्रकार ठाऊक नसावा, म्हणून तिच्या शपथेत हा एक मुद्दा राहून गेला!
मला ती १९४२ सालची बंकाजींची बर्थ डे पार्टी अजून आठवतेय. एकीकडे भारतात गांधीजींचे “छोडो भारत” अभियान गाजत होते तर दुसरीकडे बंकाजींचे “आवो भारत” अभियान!
” दुसर्या महायुद्धाच्या दरम्यान जगातल्या चित्रपट उद्योगावर मंदीचे सावट आले होते. बंकाजींनी त्यांच्या वाढदिवसाला हाॅलिवूडच्या ‘मर्ले ओबराॅन’ या नटीला आमंत्रित केले होते.”
” ही तिच का जी ‘द डार्क एन्जल’ या गाजलेल्या चित्रपटातील जबरदस्त भूमिकेबद्दल अकॅडेमी अवाॅर्डसाठी नाॅमिनेट झाली होती?”
मी विचारले.
” तिच ती! ती इथे चार दिवस होती. एके दिवशी पार्टी चालू असताना रात्री साडेअकराच्या सुमारास ‘प्लीज अलाऊ मी टू गेट फ्रेशन अप’ असे बंकाजींना सांगून ती वरच्या मजल्याचा जीना चढू लागली. मला तिने मागून येण्याची खूण केली. मी मागोमाग तिच्या बेडरूमच्या दारापर्यंत गेलो.
” प्लीज गेट मी अ पॅक ऑफ कंडोम !” तिने मला विनंती केली.
मी काहीच न उमगुन तिच्याकडे पहात राहिलो.
तिने तेच वाक्य परत एकदा म्हटले, तरी माझ्या डोक्यात प्रकाश पडेना. हा शब्द ना कधी लेन सरांनी सांगितला होता ना डिक्शनरीत पाहिला होता! मी तसाच बावळटासारखा उभा राहिलो.
” नो वंडर यू पिपल हॅव सो मेनी चिल्ड्रेन.” असे म्हणून तिने धाड्कन दरवाजा बंद केला.
“मग जिना उतरत असताना मला थोडाफार अंदाज आला की हे असे काहीतरी उपकरण असावे जे मुले रोखून धरते. पण ते भारतात मिळत नसणार ह्याची मला खात्री वाटली. असे वाटण्याचे कारण बंकाजींच्या सतत बदलत्या युरोपियन सेविका! जेव्हा एखाद्या सेविकेचे पोट थोडे वाढे तेव्हा तिची रवानगी मायदेशात होई!”
बंकाजींचा असा सर्व कामेतिहास त्यांच्याकडून ऐकल्यावर मला काय रिॲक्ट व्हावे हे सुचेना.
” मग अशा माणसाचा पुतळा गेटवर लावून कसली प्रेरणा मिळणार ?” मी थोडे चिडून विचारले.
” ह्या माणसाने डोके वापरून कसा जगात दबदबा निर्माण केला, डोळ्यांनी कसे कामगारांचे दैन्य पाहिले, कान वापरून कशी त्यांची गाऱ्हाणी ऐकली आणि मग दोन्ही हातांनी कसे भरभरून दान दिले हे आम्ही पाहिले. कामगारांच्या ह्रदयात त्यांनी कायमचे स्थान मिळवले त्या प्रीत्यर्थ त्यांचा हा अर्धपुतळा बसवला गेला. त्यांचा कमरेखालचा हिस्सा आमच्या खिजगणतीतच नाही. समर्थांनी म्हटलेच आहे,
जनी निंद्य ते सर्व सोडोनी द्यावे l
जनी वंद्य ते सर्व भावे करावे ll
मग मीही मनोमन त्यांना हात जोडले.
– समाप्त –
लेखक – श्री रविकिरण संत
साल १९७९
संग्राहिका – सुश्री सुप्रिया केळकर
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
फुंकर.. किती सुंदर अर्थवाही शब्द. नुसता शब्द वाचला तरी डोळ्यापुढे तरळतो तो ओठांचा चंबू, ते अर्धोन्मीलित प्रेमव्याकूळ नेत्र, ती माया, ती ममता, तो स्नेह, ती सहवेदना, ती संवेदनशीलता. आणि अस्फुट ऐकूही येतो, फू ऽऽऽ, तो अलगद सोडलेला हवेचा विसर्ग, एक लाघवी उच्छ्वास.
फुंकर.. एक सहजसुंदर, स्वाभाविक, हळूवार भावनाविष्कार.
☆ फुंकर… ☆
धनी निघाले शेतावरती
बांधून देण्या भाजी भाकर
चुलीत सारून चार लाकडे
निखार्यावर घाली फुंकर
माय जाणते दमले खेळून
बाळ भुकेले स्नानानंतर
बशी धरूनी दोन्ही हातानी
दुधावरती हळूच फुंकर।
कुसुम कोमल तान्हे बालक
चळवळ भारी करी निरंतर
ओठ मुडपुनी हसे, घालता
चेहर्यावरती हळूच फुंकर।
खेळ खेळता सहज अंगणी
डोळ्यात उडे धूळ कंकर
नाजूक हाते उघडून डोळा
सखी घालते हळूच फुंकर।
राधारमण मुरलीधर
धरूनी वेणु अधरावर
काढीतसे मधु मधूर सूर
अलगुजात मारून फुंकर।
किती दिसांचा वियोग साहे
रागेजली ती प्रिया नवथर
कशी लाजते पहा खरोखर
तिच्या बटांवर घालून फुंकर।
सीमेवरूनी घरधनी येता
अल्प मिळाला संग खरोखर
रात जाहली पुरेत गप्पा
दिवा मालवा मारून फुंकर।
संसारातील जखमा, चटके
सोसायाचे जगणे खडतर
सुसह्य होते कुणी घालता
सहानुभूतीची हळूच फुंकर।
अटल आहे भोग भोगणे
कुणी गेल्याचे दु:ख भयंकर
पाठीवरती हात फिरवूनi
दु:खावरती घाला फुंकर।
कितीक महिने गेले उलटून
मित्र भेटही नाही लवकर
मैत्रीवरची धूळ झटकुया
पुनर्भेटीची घालून फुंकर।
संग्राहिका – सौ. विद्या पराडकर
वारजे पुणे.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈