(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीयएवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण स्वतन्त्र कविता “अगला जनम…”।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
🕉️ मार्गशीष साधना🌻
आज का साधना मंत्र – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
संजय दृष्टि – लघुकथा – चाय
…पापा जी, ये चार-चार बार चाय पीना सेहत के लिए ठीक नहीं है। पता नहीं मम्मी ने कैसे आपकी यह आदत चलने दी? कल से एक बार सुबह और एक बार शाम को चाय मिलेगी। ठीक है…?
…हाँ बेटा ठीक है.., कहते-कहते मनोहर जी बेडसाइड टेबल पर फ्रेम में सजी गायत्री को निहारने लगे। गायत्री को भी उनका यों चार-पाँच बार चाय पीना कभी अच्छा नहीं लगता था। जब कभी उन्हें चाय की तलब उठती, उनके हाव-भाव और चेहरे से गायत्री समझ जाती। टोकती,..इतनी चाय मत पिया करो। मैं नहीं रहूँगी तो बहुत मुश्किल होगी। आज पी लो लेकिन कल से नहीं बनेगी दो से ज़्यादा बार चाय।
…पैंतालीस साल के साथ में कल कभी नहीं आया पर गायत्री को गये अभी पैंतालीस दिन भी नहीं हुए थे कि..! …तुम सच कहती थी गायत्री, देखो जो तुम नहीं कर सकी, तुम्हारी बहू ने कर दिखाया…, कहते-कहते मनोहर जी का गला भर आया। जाने क्यों उन्हें हाथ में थामी फ्रेम भी भीगी-भीगी सी लगी।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है बाल दिवस पर आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “टिप”)
☆ कथा-कहानी ☆ बाल दिवस विशेष – लघुकथा – “टिप” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆
(14 नवंबर को “बाल दिवस” था। इन जैसे “छोकरों” को भी बधाई।)
उन तीनों की होटल आज खूब चली। मालिकों को अच्छी कमाई हुई। देर रात तक होटल में काम करने वाले तीन छोकरे होटल से बाहर अपने घर की ओर निकले। आज की अतिरिक्त थकान को दिल की खुशी सहला रही थी। और दिल इसलिए खुश था, कि मालिकों का मूड आज अच्छा होने से इन्हें कुछ टिप् भी मिली।
पहला- “आज सेठ मूड में था, उसने दस रुपये मुझे टिप् के दिए।”
दूसरा- “मुझे रुपये तो नहीं, पर सेठ मूड में था, बोला- बचा हुआ खाना घर को ले जा।”
तीसरा- “मेरा सेठ भी आज मूड में था, जैसे ही गिलास मेरे हाथ से फूटा, वैसे ही उसने रोज की तरह चाँटा मारा। मगर आज जरा धोरे से।”
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कथा “कोविड और जीवनप्रकाश …“।)
☆ कथा कहानी # 57 – कोविड और जीवनप्रकाश ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
“जीवनप्रकाश” नाम था उनका घर में और स्कूल में ,पर उन्हें जीवन कहकर ही बुलाया जाता था. “जीवन” उन दिनों के प्रसिद्ध खलनायक थे तो उन्हें जीवन कहकर संबोधित किया जाना पसंद नहीं था पर उस उम्र में विरोध के कोई मायने नहीं होते. पर जब कॉलेज में गये तो अपने नाम का शार्ट फार्म “जेपी” पॉपुलर करने के लिये बहुत मेहनत की और ये हो भी गया. नौकरी बैंक में मिली तो यहां पर भी लोगों द्वारा पहले जेपी और बाद में जेपी सर कहकर संबोधित किये जाते रहे.जेपी अपनी कुछ अच्छी आदतों और सच्चे दोस्तों के मामले में बहुत धनी थे. जब भी कहीं जाना हो तो बाकायदा बोलकर और बैंक में तो अधिकतर लीव स्वीकृत होने पर ही जाते थे. यही नहीं बल्कि काम खत्म करने के बाद शाखा प्रबंधक को गुडनाईट सर कहकर जाने का अटूट सिलसिला उनके रिटायरमेंट तक अनवरत जारी रहा. जब कभी ब्रांचमेनेजर की कुर्सी खाली होती, तब भी खाली कक्ष को भी गुडनाईट सर कहकर ही जाने की उनकी आदत थी. लोग हंसते तो कहा करते थे कि व्यक्ति कोई भी हो, बैठे या न बैठे पर मेरी गुडनाईट बैंक को संबोधित रहती है. उनकी काम के प्रति लगन, कस्टमर्स को मदद करने की आदत और मधुर व्यवहार उन्हें नगर में लोकप्रिय बनाता गया. ब्रांचमेनेजर भी उन्हें पसंद करने लगे. जब कभी शाम को जाते वक्त जेपी, चैंबर के समीप आते तो शाखाप्रबंधक खुद ही पहल करके बोल देते “गुडनाईट जेपी”. जब उनके बॉस उनका अच्छा काम और कस्टमर्स के प्रति मधुर व्यवहार से प्रभावित होकर प्रमोशन के लिये प्रेरित करने की कोशिश करते तो उनका विनम्र जवाब यही होता “सर मैं अपने तीन दोस्तों के साथ शाम की चाय नहीं छोड़ सकता”. दरअसल बैंक से निकल कर घर पहुंचने से पहले अपने बचपन के मित्रों “हंसमुख, खुशवंत और इस्माइल ” के साथ शाम 6:30 की चाय पीना रोज का कार्यक्रम था, छुट्टियों के दिनों को को छोड़कर क्योंकि वे दिन तो पूरे या तो उन्हीं के साथ गुजरते थे या फिर परिवार के साथ.इनके अलावा उनकी दोस्ती तो किसी से नहीं थी पर पहचान सभी से थी , उनकी मदद करने की आदत और मधुर व्यवहार के कारण़.
एक ईश्वरीय चमत्कार इन चारों दोस्तों के साथ यह भी था कि इनके ब्लड ग्रुप एक ही थे AB Negative. बहुत दुर्लभ था तो जरूरत पड़ने पर रक्तदान के लिये ये लोग हमेशा तैयार रहते और जब एक रक्तदान करता तो बाकी दोस्त मज़ाक करते “अरे हमारे लिये भी बचाकर रख, हम किसको ढूंढ़ेगे “
जब कोरोना का संक्रमण काल और लॉकडाऊन शुरु हुआ तब भी बचते बचाते शाम की चाय ये किसी भी एक के यहां उसके घर पर ही पीते, कभी कभी पुलिसवाले इन्हें बाहर निकलते देखकर चमका भी देते और मज़ाक में कहते भी कि अंकल घर पर रहो वरना इस उम्र में पुलिस के डंडे बर्दाश्त नहीं कर पाओगे.
ये अक्सर आपस में भी मजाकिया लहजे में कहते रहते कि हम पॉज़िटिव नहीं हो सकते, नेगेटिविटी तो हमारे खून में ही है. हमें तो अपने दोस्तों के कंधे पर अंतिम यात्रा करनी है और जरूरत पड़ने पर इनका ब्लड और इनके कंधे ही हमारे काम आने वाले हैं. पर विधाता की मर्जी कुछ और ही थी, जीवनप्रकाश जी कोरोना से संक्रमित होकर हॉस्पिटलाईज हुये और बहुत चाहकर भी ये लोग मिलने जा नहीं सके क्योंकि मिलना पूरी तरह प्रतिबंधित था. एडमिट होने की दूसरी सुबह ही जेपी सर ने कोविड हॉस्पिटल में अंतिम सांस ली, इम्यूनिटी और दोस्तों का अटूट प्रेम भी उन्हें यारों से जुदा होने से नहीं रोक पाया. अंतिम संस्कार भी कोविड गाइडलाईन के अनुसार हुआ और नियमानुसार सिर्फ दो परिवार के सदस्य ही उपस्थित रहने के लिये अनुमत किये गये.
हंसमुख, इस्माइल और खुशवंत स्तब्ध थे, खामोश थे आंखे सूनी सूनी पर ऑंसुओं से खाली थीं. लोग इन्हें देखते और ये तीनों नज़रें झुकाकर चुपचाप आगे बढ़ जाते. लोग आश्चर्य चकित होकर रह जाते पर बोलते कुछ नहीं. अंतिम संस्कार के दूसरे दिन शाम को ठीक 6 बजे इस्माइल, खुशवंत और हंसमुख तीनों उस गार्डन की बैंच के पास पहुंचे जहां ये कभी कभी सुबह वॉक के बाद बैठकर गपशप किया करते थे, हल्का अंधेरा हो चुका था और कोरोना की दहशत के कारण पार्क खाली था. ये तीनों बैंच के सामने नीचे जमीन पर बैठ गये, इस्माइल ने बैग से फ्रेम की हुई चारों की ग्रुप फोटो निकाली, खुशवंत ने मोमबत्ती निकाल कर जलाई, हवा भी शायद संक्रमण की गंभीरता से डर कर शांत और स्थिर थी, पत्ते तक नहीं हिल पा रहे थे.हंसमुख ने अपने बैग से थर्मस और चार डिस्पोज़ेबल कप निकाले और चाय भरकर बैंच पर ऱख दी. इस्माइल ने धीमी आवाज़ में कहा “जीवन,लो चाय पी लो।”
खुशवंत :उसे जीवन नहीं जेपी कहो, ये नाम उसे कभी पसंद नहीं था.
अचानक न जाने कहां से हवा का तेज झोंका आया, कैंडल बुझ गई और चाय के कप लुड़क गये. तीनों ने मिलकर जेपी की फोटो गिरने से पहले ही उठा ली, तीनों को लगा जैसे हवा के झोंके के साथ जेपी ने भी अपने दिल की बात उनतक पहुंचा दी जिसे सिर्फ वही सुन और समझ सकते थे.
“माफ करना दोस्तों, तुमसे बिना कहे बिना मिले जाना पड़ा, हसरत तो थी कि तुम्हारे कंधों पर जाता पर मुमकिन नहीं हो सका. भगवान को भी पता चल गया था कि मुझे “जीवन” शब्द पसंद नहीं है तो बस छीन लिया. अब सिर्फ प्रकाश है जो प्रकाश पुंज से मिलने की यात्रा पर अकेले ही जा रहा है,अलविदा !!!
हंसमुख, इस्माइल और खुशवंत के रुके हुये आँसू सैलाब बनकर निकल पड़े और वो तीनों अनवरत फूटफूटकर रोने लगे. जेपी अपने साथ इस्माइल की Smile, खुशवंत की खुशी और हंसमुख की हंसी, दोस्तों की सच्ची श्रद्धांजलि के रूप में ले गये. शाम की चाय अनिश्चित काल के लिये बंद हो गई.
हल्लीच काही दिवसांपूर्वी “गंगुबाई काठियावाडी” चित्रपट प्रदर्शित झाला. त्यात गंगुबाईच्या तोंडी एक वाक्य आहे. ती म्हणते, “ वेश्यांशिवाय स्वर्गसुद्धा अधुरा आहे.” शाश्वत सत्यच तिच्या तोंडून सांगितले आहे असे मला वाटते. कारण वास्तविक ज्या वेश्यासमाजाला आपल्या संस्कृतीत एका वेगळ्या दृष्टीने पाहिले जाते त्या समाजमुळेच पांढरपेशा समाज सुदृढ आहे. त्यामुळे तो चित्रपट पाहताना मला ‛शुद्रक’ या संस्कृत नाटककाराने लिहिलेल्या ‛मृच्छकटिक’ या नाटकाची आठवण झाली.
या मृच्छकटिक नाटकाची नायिका ‛वसंतसेना’ हीसुद्धा एक गणिका असते आणि थोड्याफार फरकाने समाजाचा अशा स्त्रियांकडे बघण्याचा दृष्टीकोनही तोच आहे. फक्त त्या काळी गणिका आणि वेश्या यांच्यात किंचित फरक असा होता की गणिका केवळ नृत्य- संगीत या माध्यमातून पुरुषांचे मनोरंजन करत असत. आणि वेश्या शरीरविक्रय करत असत.
संतसेना आणि चारुदत्त यांच्या प्रेमाची ही कहाणी आहे. याशिवाय अनेक सामाजिक- राजकीय संदर्भ या नाटकात आहेतच. चारुदत्त हा एक अतिशय श्रीमंत ब्राह्मण असतो. पण आपल्या अति परोपकारी स्वभावाने आपली सर्व संपत्ती गमावून बसतो. याउलट वसंतसेना गणिका असूनही अतिशय श्रीमंत असते आणि सुखासीन आयुष्य जगत असते. चारुदत्ताच्या निर्व्याज स्वभावामुळे ती त्याच्याकडे आकर्षित होते आणि चारुदत्तही तिच्या प्रेमात पडतो. वास्तविक चारुदत्ताचे लग्नही झालेले असते आणि त्याला एक लहान मुलगाही असतो. परंतु त्या काळात पुरुषांनी असे गणिकांशी संबंध ठेवणे अयोग्य मानले जात नसावे. त्यामुळे चारुदत्ताची पत्नीही वसंतसेनेशी मित्रत्वाच्या नात्याने वागत असते.
एकदा काही गुंड मागे लागल्याने अचानक वसंतसेना चारुदत्ताच्या घरी येऊन लपते. तिला ते चारुदत्ताचे घर आहे हे माहीत नसते. पण त्याचवेळी अंगणात खेळणारा चारुदत्ताचा मुलगा आपल्या दासीकडे खेळण्यासाठी सोन्याची गाडी दे म्हणून हट्ट करत असतो. त्याच्या मित्राची तशी गाडी असते. म्हणून त्याला हवी असते. पण विपन्नावस्था प्राप्त झालेल्या चारुदत्ताकडे मुलाला द्यायला सोनेच नसते. त्यामुळे ती दासी त्या बालकाची समजूत काढत त्याला मातीची गाडी खेळायला देते. हा सर्व प्रसंग पाहणारी लपलेली वसंतसेना त्यावेळी लगेच बाहेर येते व आपले सर्व दागिने काढून त्या खेळण्याच्या गाडीत ठेवते. ते बघून तो बालक अतिशय खुश होतो. वसंतसेनेमध्ये असलेली सहृदयता यात दिसून येतेच. पण धनाविषयी असणारी तिची अनासक्तीही यातून दिसून येते. धनापेक्षाही एखाद्याच्या भावना श्रेष्ठ आहेत असे मानणारी वसंतसेना म्हणूनच अधिक भावून जाते.
वसंतसेना जरी गणिका असली तरी तिलाही स्त्रीसुलभ भावना होत्याच. कलेच्या माध्यमातून पुरुषांचे मनोरंजन करणे हा तिचा व्यवसाय असला तरी मनाने ती चारुदत्तावर प्रेम करत असते. आणि आपले हे प्रेम चारुदत्ताकडे व्यक्त करण्याचे धाडसही ती दाखवते. शिवाय एकदा ती आणि चारुदत्त भेटण्याचे ठरलेले असते. पण प्रचंड वादळ होत असतानाही केवळ चारुदत्तावरील प्रेमापोटी ती त्या वादळातही त्याला भेटायला बाहेर पडते. यातून तिची साहसी वृत्ती दिसून येते.
वसंतसेनेशी आई थोडी लोभी असते. त्यामुळे काही धनाच्या बदल्यात ती राजाच्या मेहुण्याला आपली मुलगी द्यायला तयार होते. हे वसंतसेनेला कळल्यावर ती त्यासाठी स्पष्ट नकार देते व आईला सांगते की “जर तू मला जिवंत पाहू इच्छित असशील तर पुन्हा कधीही असे काम करणार नाही.” यातून वसंतसेनेचा निग्रही स्वभाव दिसून येतो. त्याचबरोबर अन्यायाविरुद्ध लढण्याची वृत्तीही दिसून येते.
तिला नाईलाजाने हा व्यवसाय निवडावा लागलेला असतो. वास्तविक आपले घर, संसार, मुले यामध्ये रममाण होऊन सामान्य स्त्रियांप्रमाणे संसार करण्याची तिची इच्छा असते. तिची ही इच्छा कितपत पूर्ण होईल हे तिला माहीत नसते. पण जेव्हा तिची दासी एका तरुणावर प्रेम करते हे तिला समजते तेव्हा ती तात्काळ तिला दास्यत्वातून मुक्त करते आणि तिला आनंदाने सुखाचा संसार करण्यास मदत करते. आपल्याला असे सुख मिळेल की नाही याची शाश्वती नसतानाही दुसऱ्याच्या सुखात आपले सुख शोधणारी वसंतसेना त्यामुळे अधिक श्रेष्ठ ठरते.
अशाप्रकारे समाजातील एका वेगळ्या स्तरातील स्त्रीचे चित्रण शुद्रकाने या नाटकात केले आहे. अतिशय वेगळ्या संस्कारात वाढलेली असूनही तितकीच सुसंस्कृत, उत्तम नर्तिका, उत्तम गायिका आणि सौंदर्यवती असणारी वसंतसेना म्हणूनच नारीशक्तीचे एक वेगळेच रूप आहे.
आर्ट कॉलेजची मुलं, मुली नामवंत चित्रकार रेणूजी यांच्या घरातून रागारागानंच बाहेर पडली. त्या आपल्या गावात सेटल झाल्यात याचं त्यांना खरं तर मोठं कौतुक होतं. त्यांना भेटावं… आपली पेंटिंग्ज दाखवावीत… त्यांच्या मार्गदर्शनाचा लाभ घ्यावा ,म्हणून मोठ्या उत्साहाने त्यांनी त्यांची अपॉइंटमेंट घेऊन त्यांच्या बंगल्यात पाऊल टाकलं होतं.
पण एका तुसड्या, घमेंडी, माणूसघाण्या महिलेशी आपली गाठ पडेल असे त्यांना वाटलेच नव्हते.
” काय त्यांची अरेरावी… आपल्या पेंटिंग्जकडे बघून शंभर चुका काढणे…. त्याला टाकाऊ म्हणणे….छीऽऽ ती बाई माझ्या डोक्यात गेलीय यार.” एक जण म्हणाली. “कलाकार लहरी असतात असा एक समज आहे, आपण पण नवोदित कलाकारच आहोत .आपल्या रेषा पण बोलक्या आहेत. इतके टाकाऊ तर आपण निश्चितच नाही आहोत.”दुसरा एकजण पोट तिडकीने म्हणत होता. “आपण आहोत का असे लहरी ,बेछूट?” आणखी एक जण म्हणाली. तिच्यावर वेगवेगळ्या कॉमेंट पास करत सगळे युवा आपला राग व्यक्त करत तिच्या बंगल्यातून बाहेर पडले.
त्या विद्यार्थ्यांचे म्हणणे खरेच होते. खरेच रेणुने आजवर कधीच कोणाची पर्वा केली नव्हती. आपण किती महान आहोत हे दाखवायचा नेहमीच तिचा प्रयत्न असायचा.” ओ शिट्,” माझा किती टाइम वेस्ट केला या नवशिक्यांनी!” बडबडत ती आपल्या वरच्या मजल्यावरच्या स्टुडिओत गेली… आणि आपल्या कामात बुडून गेली.’थोड्या पेंटिंग्जवर काम करणं बाकी आहे. ते झालं की मुंबईत एक्झिबिशनला पेंटिंग्ज पाठवायला आपण मोकळ्या.’काम झाल्यावर आळोखे पिळोखे देत रेणू विचार करत होती. ‘चला आता उद्या तयार झालेले कॅनव्हास खाली.. ड्रॉईंगरूममध्ये आशा मावशीं कडून ठेवून घ्यावेत’ आपल्या कलाकृती न्याहाळत न्याहाळत ती खाली आली.
संध्याकाळची वेळ….हातात ड्रिंकचा ग्लास घेऊन… मनपसंत म्युझिक लावून त्याच्या तालावर ती थिरकू लागली.
फोन वाजला…चंदनचा तर सकाळीच येऊन गेला… ‘आता कोण?’मनात म्हणत तिने फोन उचलला.’ ओऽह,चंदनची आई!’….कपाळावर आठ्यांचं जाळं झालं, “हॉं ऑन्टी बोला…” सासूला उद्देशून ती म्हणाली. बोलणं संपलं तशी तिने फोन सोफ्यावर भिरकावून दिला. विचार चक्र चालूच होतं ‘ट्रेनमध्ये बसल्यावर फोन केलाय म्हातारीने ….उद्या सकाळी इथे येऊन धडकेल ती. चंदन इथं नाही हे माहीत असून सुद्धा येतेय. लग्न केलं तेव्हाच आपण हे सगळ्यांना सांगून टाकलतं की चंदन व्यतिरिक्त त्याच्या इतर कोणत्याही नातेवाईकांशी आपले कोणतेही नातं नसणार आहे…. तरीही येतेय… स्टुपिड!’ “छट्, माझा सगळा मूडच घालवून टाकला हिनं”पुटपुटत ती टीव्ही समोर बसून राहिली. बराच वेळ…. सकाळी सासूबाई समोर दिसल्या तशी त्यांच्याकडे दुर्लक्ष करून रेणू वरच्या मजल्यावर निघून गेली… त्या क्षणीच सासूबाईंचा चेहरा पडला. त्यांचा खूप विरस झाला होता. पण समोरूनच, सगळं घर पुढाकार घेऊन सांभाळणाऱ्या मेड्-आशा मावशींना- लगबगीने येताना पाहून त्या जरा सावरल्या. आशा मावशींनी त्यांच्या हातातली बॅग घेऊन, गेस्ट् रूमध्ये ठेवून, त्यांच्या चहा नाश्त्या बद्दल विचारणा केली. “नको, खरं तर आता एकदम जेवेनच. “सासूबाई म्हणाल्या.
आज जरा लवकरच त्या जेवायला बसल्या. रेणू रोजच्या वेळी खाली उतरली.अन् टेबलावर सज्ज असलेलं आपलं डाएट फूड खाऊ लागली. जशी ती पुन्हा वरच्या मजल्यावर जायला वळली तशी सासूबाई म्हणाल्या,” थांब रेणू, पुढच्या आठवड्यात मी युएस ला नंदूकडे जातेय.मुलाची मुंज करतोय ना तो तिकडे. तुला चंदनने सांगितलंच असेल. तो पण… त्या दिवसात ….तिकडेच असणारेय.तू पण आलीस तर सगळ्यांना छानच वाटेल. ह्या बघ तुम्हा दोघी जावांसाठी एक सारख्या साड्या घेतल्यात.त्यातली तुला कोणती आवडलीय ते सांग,अन् काढून घे . आठ आठ हजाराची एक साडी. बघ टेक्श्चरआणि कलर कॉम्बिनेशन चांगलंआहे ना. तुझी कलाकारची नजर.”… त्या आपलेपणानं बोलत त्याची किंमत पण सांगून गेल्या.
रेणूच्या कपाळावरील आठ्यांचं जाळं त्यांना दिसलंच नाही .तिने एक साडी उचलली तशी त्या खुश झाल्या. तोवर तिचे पुढचे शब्द त्यांच्या कानावर पडले,” मी साडी कुठे नेसते?… हॉं , कधीकधी खास प्रसंगी नेसते….ती पण पंचवीस तीस हजारांच्या खालची नसते. ही चिप साडी….ओऽह नो!..”
सासुबाईंना खूप अपमानित झाल्यासारखं वाटलं…. त्यांचे डोळे भरून आले. पण तोवर एकदम अंगात कसला तरी झटका आल्यागत रेणू मागे फिरली. स्वत: खाली फेकलेली साडी तिने उचलली. घडी मोडून त्याच्या नि-या करून तिने हाक मारली, “आशा मावशीऽ”त्यांना समोर बघून ती साडी तिनं त्यांच्या खांद्यावर टाकली,”ही घ्या आजीच्या नातवाच्या मुंजीची साडी”एवढे दात कटकट करत बोलून ती तेथून निघून गेली.