(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – सपना
बहुत छोटा था जब एक शाम माँ ने उसे फुटपाथ के एक साफ कोने पर बिठाकर उसके सामने एक कटोरा रख दिया था। फिर वह भीख माँगने चली गई। रात हो चली थी। माँ अब तक लौटी नहीं थी। भूख से बिलबिलाता भगवान से रोटी की गुहार लगाता वह सो गया। उसने सपना देखा। सपने में एक सुंदर चेहरा उसे रोटी खिला रहा था। नींद खुली तो पास में एक थैली रखी थी। थैली में रोटी, पाव, सब्जी और खाने की कुछ और चीज़ें थीं। सपना सच हो गया था।
उस रोज फिर ऐसा ही कुछ हुआ था। उस रोज पेट तो भरा हुआ था पर ठंड बहुत लग रही थी। ऊँघता हुआ वह घुटनों के बीच हाथ डालकर सो गया। ईश्वर से प्रार्थना की कि उसे ओढ़ने के लिए कुछ मिल जाए। सपने में देखा कि वही चेहरा उसे कंबल ओढ़ा रहा था। सुबह उठा तो सचमुच कंबल में लिपटा हुआ था वह। सपना सच हो गया था।
अब जवान हो चुका वह। नशा, आलस्य, दारू सबकी लत है। उसकी जवान देह के चलते अब उसे भीख नहीं के बराबर मिलती है। उसके पास फूटी कौड़ी भी नहीं बची है। एकाएक उसे बचपन का फॉर्मूला याद आया। उसने भगवान से रुपयों की याचना की। याचना करते-करते सो गया वह। सपने में देखा कि एक जाना-पहचाना चेहरे उसके साथ में कुछ रुपये रख रहा है। आधे सपने में ही उठकर बैठ गया वह। कहीं कुछ नहीं था। निराश हुआ वह।
अगली रात फिर वही प्रार्थना, फिर परिचित चेहरे का रुपये हाथ में देने का सपना, फिर हड़बड़ाहट में उठ बैठना, फिर निराशा।
तीसरी रात असफल सपने को झेलने के बाद भोर अँधेरे उठकर चल पड़ा वह शहर के उस चौराहे की तरफ जहाँ दिहाड़ी के लिए मज़दूर खड़े रहते हैं।
आज जीवन की पहली दिहाड़ी मिली थी उसे। रात को सपने में उसने पहली बार उस परिचित चेहरे में अपना चेहरा पहचान लिया था।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
writersanjay@gmail.com
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता – वसीयत ! ।)
(युवा साहित्यकार श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल जी लखनऊमें पले बढ़े और अब पुणे में सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। आपको बचपन से ही हिंदी और अंग्रेजी कविताएं लिखने का शौक है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता सवाल।)
☆ कविता ☆ सवाल ☆ श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल ☆
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
अहिंसा परमो धर्म: अर्थात् अहिंसा से बड़ा कोई धर्म नहीं है। भारत में उद्भूत सभी धर्मों ने चाहे वह सनातन धर्म हो, जैन धर्म हो या बौद्ध धर्म हो या उन के अनुयायी कोई भी मत सभी ने अहिंसा के पालन का प्रतिपालन किया है। सत्य, अहिंसा तप और त्याग भारतीय संस्कृति के मूलमंत्र है। सामाजिक शांति सुख और समृद्धि के विकास के लिये आवश्यक है जिस समाज में निश्चिंतता का वातावरण होता है वही समाज सही चिंतन, मनन, शोध और सत्नियोजन की दिशाओं में अग्रसर हो उन्नति कर सकता है। इतिहास साक्षी है कि जब समाज अनावश्यक चिंताओं से मुक्त रहा है तभी उसने आर्थिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और कलात्मक उन्नति की है और विपरीत परिस्थितियों में समस्याओं का सामना करने पर उसकी उन्नति में रुकावटें आई हैं।
परिवार किसी भी समाज की महत्वपूर्ण इकाई है और व्यक्ति उसका प्रमुख घटक। व्यक्ति के समुच्चय से ही समाज का निर्माण होता है और व्यक्ति तथा समाज के पारस्परिक समन्वय और सहयोग से विकास और समृद्धि संभव है। सुख तथा आनन्द प्रत्येक जीवन की कामना होती है जो सब प्रकार की निश्चिंतता, सम्पन्नता और शांतिप्रद वातावरण में ही प्राप्त कर सकना संभव है। परन्तु आज जब वैज्ञानिक खोजों ने अनेकों सुख साधन जुटा लिये हैं और समाज को अनेकों सुखद अवसर प्रदान किये हैं तब भी आपसी सद्भाव प्रेम और सत्य-अहिंसा, तप-त्याग के अनुकरणीय उपदेशों के विपरीत हिंसा और अनाचार का वातावरण पनप रहा है।
हर दिन प्रात: समाचार पत्रों, टीवी, रेडियो से मिलने वाले समाचारों में हिंसा अनैतिक आचरणों के ही समाचार अधिक पढऩे, देखने और सुनने में आते हैं। प्राय: प्रमुख समाचार यही होता है- अमुक घटना में इतने, मरे इतने घायल। कहीं कत्ल हुये, कहीं मारपीट। कहीं अनाचार, दुराचार अपहरण। कहीं धमकी भरे संदेशों के द्वारा फिरौती की मांग तो कहीं लूट और आगजनी।
इतने बढ़ते अनैतिक कृत्यों ने समाज में भारी भय, अनिश्चितता बढ़ा के अस्थिरता का माहौल बना रखा है और शासन के सामने इन से बलपूर्वक निपटने के लिये त्वरित कार्यवाही कर सुचारू व्यवस्था करने का चुनौतीपूर्ण सिरदर्द पैदा कर दिया है। ऐसा क्यों हो रहा है- इस पर गहन सोच विचार कर सही उपचार किये जाने की जरूरत है। विगत लगभग तीन दशकों से हमारे देश में आतंकवाद ने सिर उठाया है और अनेकों जघन्य हत्यायें कर निर्दोषों का खून बहाया है। इस आतंकवाद का विस्तार अब तो सम्पूर्ण विश्व में होता दिख रहा है। अभी हाल की विभिन्न देशों में हुई घटनायें में इसका प्रमाण है। आतंकवादी अनेकों तत्व स्वत: मरकर भी औरों को मार रहे हैं। इसका सही और वास्तविक कारण बताना तो कठिन है, क्योंकि मनोविज्ञान के अनुसार व्यक्ति को अपना जीवन सब से प्यारा होता है। पर इस सिद्धांत के विपरीत खेल चल रहा है। उसके कारण का अनुमान लगाना वास्तव में कठिन है। फिर भी मेरी दृष्टि से कुछ संभावित कारण ये हो सकते हैं- दूसरों के प्रति अंधश्रद्धा, बचपन से मानवीय संस्कारों के सही विकास में कमी, सही नैतिक धार्मिक व आध्यात्मिक दृष्टिकोण के विकास का अभाव, अशिक्षा। किन्हीं दिवा स्वप्नों के प्रभाव में बहाव अथवा किसी लालच में फंसने से अदूरदर्शिता।
कुछ अन्य कारण जो इनके अंतर्गत ही परिगणित हो सकते हैं- बेरोजगारी, मन पर नियंत्रण की कमी, असंतोष, बढ़ा हुआ विद्वेष या बैरभाव, तत्कालिक उद्देश्य की पूर्ति के लक्ष्य के प्रति समर्पण इत्यादि हैं। मनुष्य के विचारों का उद्गम मन से होता है। विचारों से ही कर्म की प्रवृत्ति होती है और कर्मों से भले या बुरे परिणाम प्राप्त होते हैं। जो न केवल व्यक्ति को वरन् परिवार और समाज ही क्या व्यापक अर्थ में पूरे विश्व समाज को भी प्रभावित करते हैं। इसलिये हमारे धर्मग्रंथों ने मन को सुशिक्षित और संयमित करने के उपदेश दिये हैं। बचपन से ही व्यक्ति को अपने मन पर नियंत्रण रखने की सलाह और प्रशिक्षण दिया जाना जरूरी है, तभी व्यक्ति वयस्कता प्राप्ति पर अपना और समाज का हित साधन करने में सहायक हो सकता है।
सही व्यक्ति तभी बनेगा जब उसे इसी दिशा में सही शिक्षा बचपन से माता-पिता, घर-परिवार, समाज-धार्मिक संस्थाओं से या स्कूल-कॉलेजों से प्राप्त हो। इसी दिशा में सबका और शासन का सामूहिक प्रयास होना आवश्यक है। जिस की आज विभिन्न कारणों से कमी होती जा रही है। मूलत: इसी सही शिक्षा के अभाव के कारण हिंसा और अपराध की प्रवृत्ति का विकास हुआ समझ में आता है। सभी संबंधितों का इसे कुलचने का हर संभव सहयोग आवश्यक है। हर छोटे का सहयोग भी सराहनीय होता है- ‘जिनको कहते छोटे लोग-बहुत बड़ा उनका सहयोग।’
ई-अभिव्यक्ती – संवाद ☆ २१ जुलै – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित – ई – अभिव्यक्ती (मराठी)
राजा राजवाडे
साहित्याच्या विविध प्रांतात लिलया वावर करून सुमारे ऐंशी पुस्तकांची निर्मिती करणा-या राजा राजवाडे यांचा जन्म रत्नागिरी जिल्ह्यातील. देवरूख येथे मॅट्रीकपर्यंत शिक्षण पूर्ण करून ते मुंबईला आले. तेथे खालसा महाविद्यालयात अर्थशास्त्र व राज्यशास्त्र या विषयांत बी.ए. केले. मुंबई महानगरपालिकेत काही वर्षे नोकरी केल्यानंतर निवृत्त होईपर्यंत त्यांनी सिडको त नोकरी केली.
त्यांची साहित्यिक कारकिर्द ही विविधांगी आहे. 1962 साली ‘स्त्री’ या मासिकात त्यांची ‘उन्हातलं घर’ ही पहिली कथा प्रसिद्ध झाली. 1980 साली ‘सायाची पाने’ हा पहिला कवितासंग्रह प्रकाशित झाला. आपला नोकरीचा व्याप सांभाळून त्यानी कथा, कादंबरी, ललित, विनोदी कथा व कादंबरी, व्यक्तिचात्रण, चित्रपट कथा लेखन असे विपुल लेखन केले आहे. याशिवाय सलग 35 वर्षे ते विविध नियतकालिकांमधून व मासिकांतून लेखन करत होते. दैनिक ‘तरूण भारत’ मध्ये त्यांनी संपूर्ण वर्षभर ‘उतरती उन्हे’ हे सदर चालवले होते.ललित मधील ‘उदंड झाली अक्षरे’, सोबत मधील ‘सप्तरंग’, मार्मिक, धर्मभास्कर, नवशक्ती, रत्नागिरी टाईम्स, अशा दैनिक व मासिकातून त्यांनी स्तंभलेखन केले आहे. ‘मराठी बाणा’ या दिवाळी अंकाचे संपादन करून मराठी भाषेवरील प्रेम सिद्ध करून टिकाकारांना उत्तर दिले होते. साहित्य, भाषा, याविषयी त्यांनी आपली मते परखडपणे मांडली. कोकण म. सा. परिषदेच्या माध्यमातून त्यांनी मराठी भाषा, साहित्य यासंबंधी अनेक उपक्रम यशस्वी केले. परिषदेच्या ‘झपूर्झा’ या त्रैमासिकाचे संपादनही केले.
स्वाभिमान व परखडपणा बरोबरच मित्रांबद्द्ल अपार स्नेह व हळवेपणा हे त्यांच्या स्वभावाचे वैशिष्ट्य होते. ‘दोस्ताना’ या त्यांच्या व्यक्तिचित्रण संग्रहात ते दिसून येते. अनेक नामवंत साहित्यिकांशी त्यांचा दोस्ताना होता.
30 कादंब-या, 14 विनोदी कादंब-या, 9 कथासंग्रह, 9 विनोदीकथासंग्रह, 4 कवितासंग्रह, 3 ललितलेख संग्रह, 1 व्यक्तिचित्रण संग्रह व 3 चित्रपट कथा लिहून त्यांनी मराठी साहित्यात मोलाची भर घातली आहे. सर्व पुस्तकांची सविस्तर नावे देणे, शब्दमर्यादेमुळे शक्य नसले तरी ‘धुमसणारं शहर’, ‘कार्यकर्ता’, ‘अस्पृश्य सूर्य’, ‘दुबई-दुबई’ यासारख्या गाजलेल्या पुस्तकांचा उल्लेख करावाच लागेल.
एकवीस जुलै 1997 ला एका अपघातात त्यांचे निधन झाले.त्यांची जीवन यात्रा संपली पण साहित्य क्षेत्रातील त्यांचा प्रदीर्घ प्रवास अनमोल ठेवा मागे सोडून गेला आहे.
त्यांच्या चतुरस्त्र लेखणीस सलाम!
☆☆☆☆☆
श्री सुहास रघुनाथ पंडित
ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ
मराठी विभाग
संदर्भ : विकिपीडिया, मराठीसृष्टी.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
वालीचे अन्यायाचे वागणे पाहुन, तारा वालीला म्हणाली, “स्वामी! मतंगऋषींचा शाप आधीच डोक्यावर आहे, त्यात पतिव्रता रुमाचा शाप कां घेता? या मोठ्या पापातून सुटका होऊ शकणारा नाही. हा अविचार सोडून द्या.” पण वालीला ऐकायचे नव्हते, ऐकलेच नाही त्याने. विनाश काले विपरीत बुध्दी..
तारा ही अत्यंत सुंदर, गुणी स्त्री होती. वालीमधील शौर्य, पराक्रम, धाडस अशा त्याच्या अनेक चांगल्या गुणांवर लुब्ध होती. त्याच्यातील गुणांची तिला पारख होती. त्याबद्दल तिला अत्यंत सार्थ अभिमानसुध्दा वाटत असे. परंतु वालीचा आत्यंतिक संतापी, हेकट, अन्यायी, दुर्गुणाकडे कल असणार्याद स्वभावाने तिच्या मनाला सतत काळजी वाटे. हे सर्व पाहुन तिच्या मनांत विचार आला, ‘सुग्रीवाला अधीक दुःख कशाचं झालं? राज्य गमावल्याचं की, पत्नी गमावल्याचं? रुमाच्या बाबतीत ते घडल! शेवटी दुर्दशा भोगावी लागते स्त्रीजातीलाच ना?
राक्षसांचा सम्राट लंकाधीश रावणाने सर्व राजांना जिंकण्याच्या महत्वाकांक्षेने प्रत्यक्ष देवराज इंद्रावर स्वारी केली. त्याच्या मुलाने, मेघनादने इंद्राला जिंकले. सर्व राजांना जिंकण्याच्या अभिलाषेने वालीवर देखील आक्रमण केले. पण वालीचा पराक्रम व अतुल ताकद, युध्दकौशल्य एवढे जबरदस्त होते की, रावणाला शस्त्र खाली ठेवुन त्याला शरण जाऊन शस्त्र खाली ठेवावे लागले.
रावणासारख्या बलाढ्य व प्रबळ शत्रुला देखील नमवून आपला पती वालीने त्याला शरण येण्यास भाग पाडले याबद्दल ताराच्या मनांत नितांत, आदर व कौतुक होते आणि म्हणूनच त्याच्या गुणांचे चीज व्हावे, तो सन्मार्गावर यावा यासाठी ती सतत प्रयत्नशील असायची पण यश तिच्यापासुन नेहमीच दूर पळत असे. वाली तिचे कांहीच ऐकत नसे आणि आपल्या हेकट, दुराग्रही स्वभावात बादल करत नसे.
एकदा तारा आपल्या महालांत निवांत बसली असता तिचा पुत्र अंगद येऊन सांगू लागला की, “तो मित्रांसोबत मतंगवनाच्या आजुबाजुला हिंडत असतांना त्रृषमूक पर्वतावर सुग्रीव काका दिसलेत. त्यांच्या मागे वीर हनुमान उभे असुन दोन सुंदर तेजस्वी राजकुमार त्यांच्याशी अत्यंत प्रेमाने गप्पा मारतांना दिसले. गुप्तहेरांकरवी चौकशी केली असतां दोन राजकुमार म्हणजे प्रत्यक्ष अयोध्या नरेश दशरथ यांचे दोन सुपुत्र असल्याचे कळले.
श्रीरामाची पत्नी सीताचे हरण करुन लंकाधीशपती सम्राट रावणाने तिला लंकेत नेऊन ठेवले आहे. तिच्या शोधार्थ हे दोन वीर हिंडत हिंडत तिथे आलेत. त्यांची सुग्रीव काकांशी मैत्री होऊन दोघांनी परस्परांना मदत करण्यासाठी अग्निसमोर आणाभाका, शपथ घेऊन वचनबध्द झालेत.
भाग – ६
श्रीराम-सुग्रीवाची युती झाल्याचे वृत्त ताराने ऐकले मात्र ती अतिशय संचित झाली. अंगदला म्हणाली, “अंगदा! तुझ्या वडलांना अनेक वेळा परोपरीने विनवून सांगीतले की, रुमादेवीला सुग्रीवाकडे पाठवुन द्यावे, परस्त्रीचे अपहरण करणे, तिची अभिलाषा धरणे फार मोठे पाप आहे. अशा पापाचे घोर प्रायश्चित्त भोगावेच लागेल. पण हटवादी स्वभावामुळे माझ्या बोलण्याकडे त्यांनी दुर्लक्ष केले.”
अंगद म्हणाला, “आई! श्रीराम देवासमान सुंदर, दयाळू, करुणामयी वाटतात.” ती म्हणाली, “श्रीरामाबद्दल सर्व माहित आहे मला. श्रीराम हे आर्त, दुःखी जणांचे आश्रयदाते आहेत. ते यशस्वी, ज्ञानविज्ञान संपन्न, पित्याच्या आज्ञेत राहणारे आहेत. हिमालय ज्याप्रमाणे अनेक रत्नांची खाण आहे, त्याप्रमाणे श्रीराम अनेक गुणांची खाण आहेत. असे श्रीराम सुग्रीवाचे झाले तर…. तुझ्या पित्याचा भविष्यकाळ फार गंभीर आहे. भविष्यातील संकटाची चाहुल लागत आहे.”
तारा अतिशय विकल मनःस्थीतीत अंगदाला म्हणाली, “अंगदा! तुझ्या वडिलांमधे अनेक सद्गुण असून ते फार पराक्रमी, शूर, धाडसी आहेत. ते वानराचे राज्य उत्तम रितीने चालवत आहेत म्हणूनच आज ते सर्व वानरांचे सम्राट आहेत. परंतु त्याचबरोबर त्यांनी कांही नीतिनियम पाळले असते, कांही धर्म मर्यादा मानल्या असत्या, तर त्यांच्यासारखा पुरुषोत्तम दुसरा कुणी नसता आणि माझ्या सारखी भाग्यवान स्त्री त्रिभुवनात दुसरी कुणी नसती! परंतु विधिलिखीत कुणाला टळले आहे? मातंग ऋषींचा अपमान व शाप, रुमासारख्या पतिव्रतेचा छळ, तिचा तळतळाट, माझ्या संसारसुखा भोवती एखाद्या काळसर्पाप्रमाणे वेटोळे घालुन बसला आहेसे वाटत आहे…..
सुग्रीवाने आपली अत्यंत करूणामय कर्मकहाणी श्रीरामांना सांगून म्हणाला, “हे प्रभु! तुझी पत्नी रावणाने पळवली आणि माझी पत्नी माझ्या मोठ्या भावाने वालीने! शिवाय राज्यातुन निष्कसित केले. माझी अवस्था दोर तुटलेल्या पतंगासारखी झालेली आहे.” श्रीरामाने सुग्रीवाला आश्वस्त केले. दोघांनी एकमेकांना मदत, सहाय्य करण्याच्या आणाभाका घेऊन आपापल्या समस्या सोडविण्याचे ठरविले.
सुग्रीव रामाला म्हणाला, “वाली भयंकर कोपिष्ट, शिघ्रकोपी, हट्टी व बलाढ्य आहे. त्याचा उच्छेद झाल्याशिवाय माझा मार्ग निष्कंटक होऊ शकणार नाही. तो सुखाने जगू देणार नाही.”
ताराला मिळत असलेल्या भविष्यातील घटनेच्या भाकिताप्रमाणे ती काळरात्र आलीच. रामाने द्वंद्व युध्दासाठी वालीला आव्हान द्यायला सुग्रीवाला सांगीतले. रामाच्या आज्ञेनुसार एका रात्री सुग्रीव किष्किंधेच्या परिसरांत येऊन दंड थोपटून मोठमोठ्याने आरोळ्या ठोकत, सिंहनाद करत वालीला आव्हान देऊ लागला. यावेळी वाली ताराबरोबर अंतःपुरात होता. सुग्रीवाचा आव्हानात्मक आवाज ऐकुन प्रथम तर त्याला अतिशय आश्चर्य वाटले. सुग्रीव सारखी साधी, सालस, व्यक्ती युध्दाचे आव्हान देते, हेच मुळी त्याला खरे वाटत नव्हते. नंतर तो अत्यंत संतप्त होऊन, धडा शिकवण्याच्या निश्चयाने सुग्रीवाचे आव्हान स्विकारण्यासाठी अंतःपुरांतुन बाहेर येऊ लागला.
संकलन – सुश्री मिनाक्षी देशमुख
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
☆ अवघा रंग एक झाला – भाग २ – अज्ञात ☆ संग्राहिका: सुश्री प्रतिमा जोशी ☆
(मागील भागात आपण पाह्यलं- झालं… सगळे कामाला लागले आणि चित्र खाली लागलं… बाजूला करुणाची माहिती… आणि बाजूला एक वही ठेवली… त्यात अभिप्राय लिहायचे होते…आता इथून पुढे )
“माई तुम्ही नेहमी म्हणत असता ना की आम्ही अश्रद्ध आहोत… तसं नाहीये माई… आमची श्रद्धा आहे… देवावर… पण देवाच्या मूर्तीवर नाही… माई तुम्ही आणि ऋत्विकाने वाती केल्या होत्या ना, त्या मी देवळाजवळच्या दुकानात विकायला दिल्या. त्याचे पैसे मिळाले त्यात थोडी भर घालून, देवळाजवळच एक मुलगी रस्त्यावर फडकं टाकून हार, फुलं विकायला बसायची, तिला एक स्टूल, टोपली, हार अडकवायला स्टँड असं समान घेऊन दिलं. इतकी खुश झाली, पुन्हा पुन्हा आभार मानत होती. आज तुमच्या रुपात तिला पांडुरंग भेटला. त्या मुलीसाठी तुम्ही ऋत्विका, करुणासाठी मी …आणि माझ्या साठी माझे बाबा ‘पांडुरंग’ होते…. ज्यांनी मला माणसामधला पांडुरंग ओळखण्याची ‘नजर’ दिली.
माई हसल्या. “अगं भल्या माणसाची ओळख आम्हाला पण पटते…. देवमाणसा पुढे आम्ही कायमच लीन असायचो… आणि गरजू माणसाला मदत करायची बुद्धी देवाने आम्हालाही दिलीय… पदराला खार लावून सुध्दा मदत केली आहे आम्ही… पण तरीही मला परंपराही पाळावीशी वाटते गं…. परंपरा देवासाठी नाही तर स्वतःसाठी, कुटुंबासाठी, समाजासाठी पाळायची… आता इथे शहरात सगळीकडे उजेडच उजेड असतो, पण खेडेगावात संध्याकाळ झाली की, धड अंधार नाही, धड उजेड नाही अशा वेळी खूप उदास वाटतं, मन कातर होतं… अशा वेळीच देवाशी निरांजन लावायची पद्धत होती, तुळशी जवळ दिवा लावून शुभंकरोती म्हणायला लागलं की मन शांत, आश्वस्त होतं… अशा परंपरांमुळे आपलं मानसिक स्वास्थ्य टिकतं. सणा उत्सवाच्या निमित्ताने कुटुंबातली माणसं एकत्र येतात, नाती टिकतात, किरकोळ रुसवे-फुगवे विसरले जातात… अनुजा, श्रद्धा ही बावनकशी सोन्यासारखी असते… पण सोन्याची लगड दोऱ्याला बांधून गळ्यात घातली तर कशी दिसेल? परंपरा त्या लगडीचा सुंदर हार करते… विस्तारते… सर्वांना सामावून घेते… श्रद्धेला एक लोभस रूप देते…” अनुजा चकित होऊन ऐकतच राहिली… आपण माईंना देवभोळ्या, फारसा विचार न करता प्रथा पाळणाऱ्या समजत होतो… जरा विचार करून अनुजा म्हणाली,
“माई तुम्ही दमला असाल, जरा आराम करा, जेवायच्या वेळी हाक मारते तुम्हाला.”
माई त्यांच्या खोलीत जाऊन आडव्या झाल्या, त्यांचा डोळा लागला…
त्यांना जाग आली ती अनुजा त्यांना उठवायला आली तेंव्हा… त्या उठल्या… त्यांनी ठरवलं की आपल्या उपासाचे काही बोलायचे नाही… नाही केला उपास तर काय बिघडतं ? नाहीतरी ह्या प्रथा स्वतःसाठीच असतात, असं आपणच नाही का सांगितलं? अनुजावर घरात निरांजन लागत नाही म्हणून आपण नाराज होतो… पण आज एका मुलीच्या आयुष्यात एक दिवा लागला…. मग नाराजी कशाची ?
त्या बाहेर आल्या… ऋत्विकाने त्यांना हात धरून किचन मध्ये देव्हाऱ्याजवळ नेलं… माई बघतच राहिल्या…. विठोबाची तसबीर ठेवली होती… हार घातला होता… आणि निरांजन लावलं होतं… माईंनी हात जोडले नि त्या डायनिंग टेबलाजवळ आल्या…