(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “नीति नहीं होती है यहाँ …”।)
ग़ज़ल # 35 – “नीति नहीं होती है यहाँ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता “खो उसको नैन आज फिर …”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा 91 ☆ ’’खो उसको नैन आज फिर…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #99 क्रोध पर नियंत्रण… ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक बार एक राजा घने जंगल में भटक जाता है, जहाँ उसको बहुत ही प्यास लगती है। इधर उधर हर जगह तलाश करने पर भी उसे कहीं पानी नही मिलता। प्यास से उसका गला सूखा जा रहा था तभी उसकी नजर एक वृक्ष पर पड़ी जहाँ एक डाली से टप टप करती थोड़ी -थोड़ी पानी की बून्द गिर रही थी।
वह राजा उस वृक्ष के पास जाकर नीचे पड़े पत्तों का दोना बनाकर उन बूंदों से दोने को भरने लगा जैसे तैसे लगभग बहुत समय लगने पर वह दोना भर गया और राजा प्रसन्न होते हुए जैसे ही उस पानी को पीने के लिए दोने को मुँह के पास ऊचा करता है तब ही वहाँ सामने बैठा हुआ एक तोता टेटे की आवाज करता हुआ आया उस दोने को झपट्टा मार के वापस सामने की और बैठ गया उस दोने का पूरा पानी नीचे गिर गया।
राजा निराश हुआ कि बड़ी मुश्किल से पानी नसीब हुआ और वो भी इस पक्षी ने गिरा दिया लेकिन अब क्या हो सकता है। ऐसा सोचकर वह वापस उस खाली दोने को भरने लगता है।
काफी मशक्कत के बाद वह दोना फिर भर गया और राजा पुनः हर्षचित्त होकर जैसे ही उस पानी को पीने दोने को उठाया तो वही सामने बैठा तोता टे टे करता हुआ आया और दोने को झपट्टा मार के गिराके वापस सामने बैठ गया।
अब राजा हताशा के वशीभूत हो क्रोधित हो उठा कि मुझे जोर से प्यास लगी है, मैं इतनी मेहनत से पानी इकट्ठा कर रहा हूँ और ये दुष्ट पक्षी मेरी सारी मेहनत को आकर गिरा देता है अब मैं इसे नही छोड़ूंगा। अब ये जब वापस आएगा तो इसे खत्म कर दूंगा।
इस प्रकार वह राजा अपने हाथ में चाबुक लेकर वापस उस दोने को भरने लगता है। काफी समय बाद उस दोने में पानी भर जाता है तब राजा पीने के लिए उस दोने को ऊँचा करता है और वह तोता पुनः टे टे करता हुआ जैसे ही उस दोने को झपट्टा मारने पास आता है वैसे ही राजा उस चाबुक को तोते के ऊपर दे मारता है और उस तोते के वहीं प्राण पखेरू उड़ जाते हैं।
तब राजा सोचता है कि इस तोते से तो पीछा छूंट गया लेकिन ऐसे बून्द -बून्द से कब वापस दोना भरूँगा और कब अपनी प्यास बुझा पाउँगा इसलिए जहाँ से ये पानी टपक रहा है वहीं जाकर झट से पानी भर लूँ ऐसा सोचकर वह राजा उस डाली के पास जाता है जहां से पानी टपक रहा था वहाँ जाकर जब राजा देखता है तो उसके पाँवो के नीचे की जमीन खिसक जाती है।
क्योकि उस डाली पर एक भयंकर अजगर सोया हुआ था और उस अजगर के मुँह से लार टपक रही थी राजा जिसको पानी समझ रहा था वह अजगर की जहरीली लार थी।
राजा के मन में पश्चाताप का समन्दर उठने लगता है की हे प्रभु! मैने यह क्या कर दिया? जो पक्षी बार बार मुझे जहर पीने से बचा रहा था क्रोध के वशीभूत होकर मैने उसे ही मार दिया।
काश मैने सन्तों के बताये उत्तम क्षमा मार्ग को धारण किया होता। अपने क्रोध पर नियंत्रण किया होता तो ये मेरे हितैषी निर्दोष पक्षी की जान नही जाती। हे भगवान मैने अज्ञानता में कितना बड़ा पाप कर दिया? हाय ये मेरे द्वारा क्या हो गया ऐसे घोर पाश्चाताप से प्रेरित हो वह राजा दुखी हो उठता है।
इसीलिये कहते हैं कि..
क्षमा औऱ दया धारण करने वाला सच्चा वीर होता है।
क्रोध में व्यक्ति दुसरो के साथ साथ अपने खुद का ही बहुत नुकसान कर देता है।
क्रोध वो जहर है जिसकी उत्पत्ति अज्ञानता से होती है और अंत पश्चाताप से होता है। इसलिए हमेशा क्रोध पर नियंत्रण रखना चाहिए।
परमात्मा ने प्रकृति को सृजन, विकास और समृद्धि देने का सामथ्र्य दिया है। एक छोटे से बीज को प्रकृति अपनी गोद में ले अंकुरित और क्रमश: विकसित कर एक विशाल वृक्ष के रूप में उभार प्रदान करती है जो कभी अनेकों श्रान्त पथिकों को छाया, सुरभि और सुमधुर फल देकर सुख और शांति देने वाले बन जाते हैं। प्रकृति उन सबका जो उनसे स्नेह करते हैं, माता के समान पालन-पोषण करती और उन्हें संसार में समृद्धि दे जनसेवा के लिये सुयोग्य और सक्षम बना सुख का वरदान देती है। परन्तु स्वार्थी धनलोलुप मनुष्य ने प्रकृति की गोद में खेलते खाते भी इस तथ्य को नहीं समझा और आधुनिकता के मोह में अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मार ली है। प्रकृति जो परमात्मा की प्राणी मात्र के लिये हितकारी परम शक्ति है, को मनुष्य अपने स्वार्थ के लिये नष्ट करने में लगा है और सुख प्राप्ति के स्थान में नये-नये दुखों को अनजाने में आमंत्रित करता जा रहा है। प्रकृति के उपकारों के प्रति आभारी न होकर अशिष्ट मानव ने उसका केवल दोहन किया है, इसी से आज जल, भूमि, वायु और नभ के प्रदूषणों से पीडि़त है। लोग समझते हैं कि सुख, धन संचय में है, ऊँची अट्टालिकाओं वाले गगनचुंबी भवनों में मोटे प्रतल्पों वाले पलंगों और सोफों में है। साधन सम्पन्न सजे-धजे कमरों में है। इसलिये वह अपना भण्डार जोड़ता जाता है। परन्तु वास्तविकता इससे बहुत भिन्न है। यदि सुख भव्य भवनों और समग्र एकत्रित संसाधनों में होता तो अनेक निवासी उन्हें छोडक़र एक दो दिन के लिये ही सही अपनी कारों में भागकर किसी सौंदर्यपूर्ण प्राकृतिक स्थल, निसर्ग द्वारा सुसमृद्ध वन स्थलों, पहाड़ों और पिकनिक स्पाटों की ओर क्यों जाते?
संसार में जिसने जन्म पाया है, जन्म के साथ ही कुछ विशेष गुण-धर्म भी पाये हैं। उन गुण-धर्मों के विपरीत हठात् प्रयत्नों ने प्राणियों की सुख-शांति को नष्ट कर नई समस्याओं को जन्म दिया है। आज का प्रगतिशील तथाकथित सुसमृद्ध विश्व हर क्षेत्र में इसका सहज अनुभव कर रहा है। परन्तु सात्विक पथ से भटककर आज मनुष्य नये रास्ते पर इतना आगे आ गया है कि अब पुराने पथ पर लौटना ही उसे भटकाव नजर आता है और असंभव भी है।
प्रकृति ने जिस कठोर और कोमल जीवन तंतुओं से विश्व का ताना बाना बुना है, उसका सूक्ष्म निरीक्षण परीक्षण और विश्लेषण बड़ा ही मनोज्ञ एवं आल्हादकारी विषय है। ऐसा क्यों है किसी के गुणधर्मों में कठोरता और किसी में अपार कोमलता है। शायद यह इसलिये है कि प्रत्येक की भूमिका निर्धारित है जो दूसरों की भूमिका से अलग है, जो सृष्टि की संचालन व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। अपने गुण-धर्मों के माध्यम से ही वह कुछ अनूठा कर सकता है। जो अन्य नहीं कर सकते। क्या सूर्य और चांद पर्वत और नदियां, वृक्ष और लतायें, पाषाण और पुष्प चट्टानें और सागर की जलोर्मियां इस भिन्नधर्मिता का स्पष्ट उद्घोष नहीं करतीं? क्या उनके जीवन उद्देश्य भिन्न भिन्न नहीं है? अपने प्रकृतिदत्त गुणधर्मों का परित्याग हर कोई अपनी जीवन यात्रा सुचारू ढंग से पूरी कर सकता है? अपने गुणधर्मों का प्राकृतिक स्वभाव का त्याग न केवल हानिकारक है वरन् भयावह भी है। शेर घास नहीं खा सकता और मृग मांसाहार नहीं कर सकता। गीता में कहा है- ‘स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।’
जब भी मर्यादाओं का अतिक्रमण होता है कोई विस्फोट होता है और यह प्रकृति के विरुद्ध अनर्थकारी ही होता है। मर्यादाओं की रक्षा आवश्यक है, क्योंकि उसमें न केवल सुख है वरन् सुषमा और आल्हाद भी है और वह मंगलदायी वातावरण के सृजन की क्षमता भी रखती है।
अत: प्रकृति के प्रति प्रेम और सौंदर्य की भावना वास्तविक सुख के लिये नितांत आवश्यक है। प्रकृति समन्वयवादी है और यही वह इन सबसे चाहती है, जिन्हें उसने उपजाया है। आज समन्वय के अभाव ने ही संसार में नये-नये टकरावों और कष्टों को जन्म दिया है। विविधता में एकता की भावना से मनुष्य सुखी रह सकता है और सभी को यथोचित उत्कर्ष के अवसर मिल सकते हैं।
सघन वनों में विभिन्न वनस्पतियों और विरोधी स्वभाव के प्राणियों का आवास और समृद्धि मनुष्य को सही सीख और हिलमिल के रहने की सूझ क्यों नहीं देता? आज खेमों मेंबंटे विश्व को- ‘जियो और जीने दो’ की पावन भावना की जरूरत है।
वाली-सुग्रीवामधे भयंकर घनघोर युध्द सुरु झाले. वालीच्या पराक्रमापुढे सुग्रिवाचा टिकाव लागेनासा झाला. सर्व वानरसेना एका बाजुला उभे राहुन दोघांचे द्वंदयुध्द पाहत होती. वालीच्या आघाताने सुग्रीव असहाय्य होऊन खाली कोसळला. वाली आतां त्याच्यावर निर्णायक वार करणार एवढ्यात सालवृक्षाच्या बुंध्याआड लपलेल्या रामाने वालीवर बाण सोडला. काय घडले हे कळायच्या आतच वालीचा प्रचंड देह धरणीवर कोसळला. बाजुला अभं राहुन पाणावल्या डोळ्यांनी सुग्रीव हे दृष्य पाहत होता. वालीसारखा बलाढ्य, महापराक्रमी योध्दा कोसळल्याचे पाहतांच सर्व वानरसेना भयाने रणांगणातून पळून जाऊं लागली.
कांही वानरप्रमुख वाली पडल्याचा दुःखद समाचार सांगण्याकरितां धावत ताराकडे आले. हे वृत्त ऐकुन तारा दुःखाने अतिशय व्याकुळ झाली. अंगदसोबत धावत नगरीबाहेर युध्दस्थळी आली. पाहते तो काय… सर्व वानरसेना व मंत्रीगण, सेनापती मरणाच्या भीतीने पळून जातांना दिसले, एवढ्या दुःखातही ताराने सर्वांना थांबायला सांगून संतापाने विचारले, “तुम्ही वीर ना? वाली राज्यावर असतांना त्याच्या बाहुबलाच्या आश्रयाने निश्चिंतपणे सुखाने बिनधास्त राहत होतात! आता हा वीर मरणोन्मुख झाल्याचे पाहतांच भ्याडाप्रमाणे पळून जाताहात! सुग्रीवाकडुन तो पराजीत झाला म्हणुन प्राणभयाने पळ काढतां?”
भयभीत होऊन वानर ताराला म्हणाले, “देवी! प्रत्यक्ष यमधर्मच रामाच्या रुपाने आलेले आहेत, तुम्ही सुध्दा पुढे न जातां अंगदचे रक्षण करा.”
तारा एक श्रेष्ठ वीरपत्नी होती. धैर्यशील होती. ती म्हणाली, “वानरराज वाली गेले, माझे सर्वस्व गेलं. माझं सौभाग्य गेलं. आतां पुत्रमोह, राज्य, जीवन कशाचेच प्रयोजन उरले नाही. मी फक्त माझे पती वालीराजांच्या चरणावर समर्पित होणार!”
राम लक्ष्मण आपली धनुष्ये जमीनीवर टेकवून हे दुःखद दृष्य बघत उभे होते. सुग्रीव अतीव दुःखाने मुर्च्छित होऊन वालीजवळ जमीनीवर पडला होता. तारा अत्यंत विकलावस्थेत धावत ओरडत वालीजवळ आली. वालीला पाहतांच त्याचे डोके मांडीवर घेऊन बसली व शोक करुं लागली. अंगदालाही शोक आवरेनासा झाला. सावध झालेल्या सुग्रिवाला तारा अंगदचा शोकविलाप पाहुन त्याचाही शोकपूर वाहु लागला.
तारा विलाप करत, रडत, अविचल वालीला म्हणाली, “वीरा! आपण बोलत कां नाही? आपण मिळवलेल्या सार्या वैभवाचं काय करायचं? माझा सारा आनंद, सौख्य लुटला गेला. माझे हृदय फाटुन कां जात नाही? आपण रुमाचे अपहरण केलेत त्याचे तर हे फळ नसेल ना? मी आपणांस अनेक वेळा, अनेक हितकारी गोष्टी सांगतल्या, दुष्प्रवृत्तीपासुन परावृत्त करण्याचा प्रयत्न केला, पण आपण कधीच माझे ऐकले नाही. श्रीरामाच्या बाणाने मारले गेलात. मला दीनता आली. असे वैफल्यपूर्ण, दयनीय, जीवन मी कधीही जगले नाही. एवढ्या मोठ्या दुःखाचा अनुभव नाही. वैधव्यजीवनच मला कंठावे लागणार ना?”
“बोला ना स्वामी! बोला ना माझ्याशी, आपल्या लाडका पुत्र अंगदशी बोला! सुग्रीव! आता निष्कंटक कर राज्य!”
एवढं बोलुन ती वालीजवळच आमरण ऊपोषणाला बसली.
क्रमशः…
संकलन – सुश्री मिनाक्षी देशमुख
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
रंजना परत सासरी गेली नाही म्हणल्यावर गल्लीतल्या बायकांत दबक्या आवाजात कुजबुज सुरू झाली होती. रंजना घरातून बाहेर पडली नसली तरी शेजार-पाजारच्या बायकांना ती नांदायला सासरी न जाता माहेरीच असल्याचे ठाऊक झाले होते. नेमके काय झालंय ? नेमकं काय बिनसलंय ? हे कुणालाही ठाऊक नव्हते. ‘ बरे विषय असा नाजूक की, कसे विचारायचे ? कुणी विचारायचे ? विचारपूस करायला गेले तरी पंचाईत आणि न जावं तरी पंचाईत.. अशी अवघड परिस्थिती.. आपलेपणाने विचारायला जावं आणि काहीतरी गैरसमज होऊन, काहीतरी वाटून शेजार दुरावायचा… त्यापेक्षा नकोच विचारायला. कधीतरी ते स्वतः होऊन सांगतीलच त्यावेळी पाहू…’ असा विचार मनात येऊन शेजारीपाजारी गप्प होते.. त्यामुळे नेमके ठाऊक नसले तरी अंदाज करणे, आखाडे बांधणे चालू झाले होते.
उन्हाळ्यातील दुपारची वेळ तशी काहीशी निवांतच असते. रानात पेरणीपर्यंत म्हणावी अशी कामे नव्हती.. दुपारच्या वेळात साल-बेजमीच्या पापड, कुरडया, शेवया केल्या जात होत्या. त्यानिमित्ताने एकमेकीकडे जाणे-येणे असायचे. आज एकीच्या झाल्या की दुसऱ्या दिवशी दुसरीच्या घरी साऱ्या शेजारणी गोळा होत होत्या. गप्पा मारता मारता पाटावरच्या शेवया केल्या जायच्या. यावेळी मात्र शेवया वळता-चाळता विषय निघायचा तो रंजनाचाच.. कुणी काळजीने बोलायचे.. कुणी रंजनाचीच चूक असल्यासारखे कुचेष्टेने. अशा गप्पात पराचा कावळा होत असतो. कुणी काहीतरी बोलायचे, दुसरी एखादी त्यात पदरचे घालून आणखी काहीतरी सांगायची. गप्पांचा विषय कुठेही, कसाही भरकटत गेला तरी शेवटी रंजनापाशीच येऊन थांबायचा आणि दोष मात्र रंजनाच्या माथी थोपला जायचा…
‘काय जरी झाले तरी तिने सासरी जाऊन राहावे.. चार महिने पड खाऊन, पदरात येईल ते सोसून नांदल्याशिवाय नवरा मुठीत येत नाही आणि संसाराची घडीही बसत नाही.’
‘आमचं ह्येनी कायबी झालं का आगुदर दोन तडाखं द्येत हुते… पर प्वार झालं अन गाडं लागलं सुराला.. आता उठा म्हणलं का उठत्याय आन बसा म्हणलं का बसत्यात ..’
कुणी कुणी अनुभवाचे बोल सांगत होते.. आपापसातील गप्पात रंजनाला नवऱ्यानं टाकल्याचा विषय चघळला जात असला तरी कुणीही तिच्याशी बोलायला गेले नव्हते. नेमके काय घडलंय हे ही कुणालाच ठाऊक नव्हते. प्रत्येकजण आपापल्या मनानुसार कयास बांधत होती. माहेरी आलेली रंजना परत सासरी गेली नव्हती.. तिकडचे कुणी तिला न्यायलाही आले नव्हते एवढंच काय ते प्रत्येकीला ठाऊक होते. नाही म्हणलं तरी तसा विषय नाजूक होता आणि त्यामुळे कुणी समक्ष बोलत नव्हतं. रंजनाचे असे काही झाले नसते तर त्यांच्यात दुसऱ्या कुणाचातरी दुसरा कुठला तरी विषय असता. रंजनाबद्दल त्यांना आपलेपणा नव्हता, आपुलकी नव्हती असे नाही पण आपण शेजारी असून, एवढे जवळचे असून आपल्याला त्यांनी काहीच सांगितले नाही हा सल प्रत्येकीच्या मनात होता.
घरातली सकाळची सारी कामे आटपून साऱ्याजणी गोळा झाल्या होत्या. शेवया वळायचे काम चालू झाले होते. ओळीने चार पाट मांडले होते. पाटावरती शेवया करायचे काम चालू होते. चार जणी पाटावर शेवया वळत होत्या तर समोर चारजणी थाटीत, ताटात शेवया चाळण्याचे काम करत होत्या. शेवयाची मालकीण थाट्यातील-ताटातील शेवया वाळवण्यासाठी पसरून, रिकाम्या थाट्या व ताटं आणून देत होती. हात चालू होते तसेच तोंडाची टकळी पण चालू होती. कामाचा कोणताही ताण न घेता, गप्पा मारत, एकमेकींची चेष्टा-मस्करी करत काम चालू होते. मधूनच शेवया वळून वळून हात दुखू लागले की एकमेकींच्या कामात बदलही केला जात होता. शेवया, कुरडया, पापड, सांडगे असे सारे साल-बेजमीचे करून ठेवले की पुन्हा सालभर काही बघायलाच लागायचे नाही.
” व्हय वो आक्कासाब, आत्याबाई कवा याच्या हायती. “
शेवया वळता वळता अचानक एकीला आत्याबाईंची आठवण झाली. आत्याबाईंचे नाव अचानक निघाल्याने एक-दोघीजणी दचकल्या.
” काय की ? भाचीकडं गेल्यात. आत्तापातूर याला पायजे हुत्या. “
” व्हय.. आत्याबाईशिवार शेवया कराय काय मज्जा न्हाय बगा. “
” अवो, त्येंच्यावानी एकसुरी शेवया मशनित्नंबी येत न्हाईत. “
” म्हैना झाला की वो जाऊन त्यास्नी ? “
” म्हैना का दोन म्हैनं झालं, कवा कुटं जात न्हायती.. पर ह्या पावटी गेल्या.”
” पर काय बी म्हणा.. लई खमकी बाई.. त्येंचा लै आधार वाटतो बगा.”
” व्हय. त्येबी खरंच हाय.. पर याला पायजे हुत्या.. त्या असत्या म्हंजी रंजनालाबी बरं पडलं असतं. “
” याला पायजे हुत्या न्हवं. आलीया.. पर त्या रंजनाचे काय म्हणीत हुतीस गं ? “
अचानक दारातून आत येत आत्याबाई म्हणाल्या तशा नाही म्हणलं तरी साऱ्याच गडबडल्या.
” लै दिस ऱ्हायलासा वो ?. “
” व्हय, माजं जाऊंदेल.. त्या रंजीचं काय म्हणीत हुतीस त्ये सांग आगुदर..”
सगळ्या एकदम गप्प झाल्या आणि तिथं असणाऱ्यापैकी वयाने मोठया असणाऱ्या आक्कांनी रंजनाच्या लग्नापासून सारे सांगायला सुरुवात केली.
आत्याबाई शांतपणे ऐकून घेत होत्या. रंजना परत सासरी गेलेली नाही हे वाक्य ऐकून आत्याबाई उठल्या आणि रंजनाच्या घराकडे निघाल्या.