हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 28 ☆ ग़ज़ल – प्रीत के हिंडोले में… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण हिंदी ग़ज़ल “प्रीत के हिंडोले में…”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 27 ✒️

?  ग़ज़ल – प्रीत के हिंडोले में… — डॉ. सलमा जमाल ?

प्रीत के हिंडोले में ,

झूलती जवानी है ।

फूल हैं क़दमों तले ,

निगाहें आसमानी हैं ।।

 

मुझे रोक ना सकेगी दुनियां,

रूढ़ियों की जंज़ीरों से ।

मैं बहती हुई नदिया हूं ,

भावना तूफ़ानी है ।।

 

झर – झर , झरते – झरने ,

कल-कल करतीं नदियां ।

कर्मरत रहना ही ,

सफ़ल ज़िन्दगानी है ।।

 

चांदी की हों रातें ,

सोने भरे हों दिन ।

ऐसा स्वर्ग धरती पर ,

हमने लाने की ठानी है ।।

 

सपनों के पंख पसारे ,

क्षितिज के पार हम चलें । ‌

रात भीगी – भीगी है ,

भोर धानी – धानी है ।।

 

मेरा प्यार एक इबादत है ,

मेरे प्यार में शहादत भी है ।

हर हाल में ‘ सलमा ‘ को ,

वफ़ा ही निभानी है ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा- डर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा- डर ??

पिता की खाँसी की आवाज़ सुनकर उसने रेडिओ की आवाज़ बेहद धीमी कर दी। उन दिनों संयुक्त परिवार थे, पुरुष खाँस कर ही भीतर आते ताकि महिलाओं को सूचना मिल जाए।…”संतोष की माँ, ये तुम्हारे लल्ला को बताय देना कि वो आज के बाद उस रघुवंस के आवारा छोकरे के साथ दीख गया तो टाँग तोड़कर घर बिठाय देंगे, कौनो पढ़ाई-वढ़ाई नाय, सब बंद कर देंगे’…. वह मन मसोस कर रह गया। रात को बिस्तर पर पड़े-पड़े सोचता रहा कि सत्रह बरस का तो हो लिया, अब और कितना बड़ा होना पड़ेगा कि पिता से डरना न पड़े।.. “शायद बेटे का जन्म बाप से डरने के लिए ही होता है” – वह मन ही मन बड़बड़ाया और औंधे होकर सो गया।

आज उसका अपना बेटा पंद्रह बरस का हो चुका। बेहद ज़िद्‌दी! कल-से उसने घर में कोहराम मचा रखा था। उसे अपने जन्मदिन पर मोटरसाइकिल चाहिए थी और अभी तो उसकी आयु लाइसेंस लेने की भी नहीं हुई थी। ऊपर से शहर का ये विकराल ट्रैैफिक, उसने सोच लिया था कि अबकी बार बेटे की ये ज़िद्‌द पूरी नहीं करेगा।…”मॉम, डैड को साफ-साफ बता देना, नेक्स्ट वीक मेरे बर्थडे से एक दिन पहले तक बाइक नहीं आई न, तो मैं घर छोड़कर चला जाऊँगा.. और हाँ, कभी वापस नहीं आऊँँगा।”… उसने बेटे की माँ के हाथ में बाइक के लिए चेक दे दिया। रात को बिस्तर पर पड़े-पड़े सोचता रहा-…”शायद बाप का जन्म बेटे से डरने के लिए ही होता है”- और वह सीधा होकर पीठ के बल सो गया।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 111 ☆ चंचल बैगा लड़की – 4 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “चंचल बैगा लड़की”)

☆ संस्मरण # 111 – चंचल बैगा लड़की – 4 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अनपढ़ आदिवासी  कार्तिक राम बैगा और फूलवती बाई की दूसरी संतान के रूप में 02.05.1991 को जन्मी प्रेमवती के पिता को जब पता चला कि समीपस्थ ग्राम लालपुर में कोई बंगाली डाक्टर बैगा बालिकाओं को निशुल्क शिक्षा दे रहे हैं तो वे पत्नी के विरोध के बावजूद उसे भर्ती कराने चले आए।  अपने बचपन के दिनों की याद करते हुए प्रेमवती बताती है कि पूरा परिवार अत्यंत गरीब था । माता-पिता दिन भर मजदूरी करते, जंगल लकड़ियाँ फाड़ने जाते और उसे बेचकर जो धन मिलता उससे खंडा अध टुकड़ा व सस्ता चावल खरीदते । इससे बना पेज पीकर पाँच लोगों का परिवार किसी तरह जीवित रहता। यह पेज भी भरपेट नहीं मिलता और कई बार तो तीन चार दिन तक भूखे रहना पड़ता । प्रेमवती और उसके दो भाई आपस में भोजन के लिए लड़ते और अक्सर एक दूसरे के हिस्से का निवाला छीन लेते। अक्सर हम बच्चे रात भर भूख से बिलबिलाते और रोते रहते।

ऐसी विपन्न स्थिति में रहने वाली यह अबोध बालिका जब बिना किसी सामान के 1996 में सेवाश्रम द्वारा संचालित स्कूल में लाई गई, तो माता-पिता से बिछुड़ने का दुख, क्रोध में बदलते देर न लगी और इस आवेश की पहली शिकार बनी बड़ी बहनजी । प्रेमवती बताती है कि उस दिन जब माँ-बाप उसे छोड़कर जाने लगे तो वह उनके पीछे दौड़ी लेकिन बड़ी बहनजी ने उसे पकड़कर अपनी बाहों में संभाल लिया और मैं इतने आवेश में थी कि उनपर अपने हाथ पैर बड़ी देर तक फटकारती रही । बाबूजी ने अतिरिक्त जोड़ी कपड़े, पुस्तकें  और बस्ता दिया। धीरे धीरे सभी बच्चों से मैं हिल-मिल गई । लेकिन घर की याद बहुत आती। जब छुट्टियों में घर जाते तो वापस आने को मन न करता । माँ को भी मेरी बहुत याद आती और एक बार वह मुझे आश्रम से बहाना बनाकर घर ले आई । पिताजी को जब इस झूठ के बारे में पता चला तो वह मुझे पुन: स्कूल छोड़ने आए।

प्रेमवती का मन धीरे धीरे पढ़ने में रमने लगा।  पढ़ाई के दिनों की याद करते हुए वह बताती है कि बाबूजी शाम को सभी लड़कियों को एकत्रित करके पहाड़े रटवाते थे, उनकी बंगाली मिश्रित टोन से हम लोगों को हंसी आती और लड़कियों को हँसता देख बाबूजी भी मुस्करा देते । जब 2001 में उसने माँ सारदा कन्या विद्यापीठ से पाँचवी की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली तो  बाबूजी ने उसका प्रवेश पोड़की स्थित माध्यमिक शाला में करवा दिया । आठवीं पास करने के बाद पिता को यह भान हुआ कि लड़की बड़ी हो गई है और इसका ब्याह कर देना चाहिए। प्रेमवती को अब तक शिक्षा का महत्व समझ में आ चुका  था । वह अड गई कि आगे और पढ़ेगी और अपने पैरों पर खड़े होने के बाद शादी करेगी । उसकी इस भावना को सहारा मिला  बाबूजी का । उन्होंने उसका प्रवेश भेजरी स्थित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में करवा दिया तथा सेवाश्रम के छात्रावास में ही उसके रहने खाने की व्यवस्था कर दी । वर्ष 2008 में जब कला संकाय के विषय लेकर प्रेमवती ने बारहवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की तो डाक्टर सरकार ने गुलाबवती बैगा के साथ उसका प्रवेश भी इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय के बी ए पाठ्यक्रम में करवा दिया । दुर्भाग्यवश अंतिम वर्ष की परीक्षा के समय वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गई और फिर ग्रेजुएट होने का सपना अधूरा ही रह गया।

बाबूजी के विशेष प्रयासों से उसे और उसकी सहपाठी गुलाबवती को वर्ष 2012 में मध्य प्रदेश सरकार ने सीधी नियुक्ति के जरिए प्राथमिक शाला शिक्षक के रूप में चयनित किया। इन दोनों बैगा बालिकाओं की सीधी नियुक्ति का परिणाम यह हुआ कि उसी वर्ष अनेक आदिवासी युवक युवतियाँ शिक्षक बनाए गए । लेकिन उसके बाद राज्य सरकार ने पढे लिखे बैगाओं की कोई सुधि नहीं ली और अब इस आदिम जनजाति के युवा बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं । 

स्नातक युवा एवं फर्रीसेमर गाँव की प्राथमिक शाला में शिक्षक सोन शाह बैगा की पत्नी प्रेमवती स्वयं प्रातमिक विद्यालय अलहवार में शिक्षक है और तीन बच्चों की माँ है । वह परिवार को नियोजित रखना चाहती है तथा अपने सजातीय आदिवासियों को कुरीतियाँ त्यागने, शिक्षित होने की प्रेरणा देती रहती है ।                                   

मैंने प्रेमवती से बैगा आदिवासियों की विपन्नता का कारण जानना चाहा । उसने उत्तर दिया की गरीबी के कारण माता-पिता बच्चों को मजदूरी के लिए विवश कर देते हैं ।  जब माता पिता जंगल में मजदूरी करने जाते हैं तो बड़े बच्चे छोटे भाई बहनों को संभालते हैं या गाय-बकरियाँ चराते हैं । बालपन से ही मजदूरी को विवश बैगाओं के पिछड़ेपन का अशिक्षा सबसे बड़ा कारण है । शराब पीना तो बैगाओं में बहुत आम चलन है । इस बुराई ने स्त्री और पुरुषों दोनों को जकड़ रखा है । अत्याधिक मदिरापान से उनकी कार्यक्षमता भी प्रभावित होती है । लेकिन इस बुराई को खत्म करना मुश्किल इसलिए भी है क्योंकि बड़े बुजुर्ग इसे बैगाओं की प्रथा मानते हैं और छोड़ने को तैयार नहीं हैं । प्रेमवती कहती है कि पुरानी परम्पराएं अब धीरे धीरे कम हो रही हैं । नई पीढ़ी की लड़कियां अब गोदना नहीं गुदवाती, शादी विवाह में पारंपरिक  गीत संगीत का स्थान अब अन्य लोगों की देखादेखी में डीजे आदि ले रहे हैं । बैगा समाज में स्त्रियों के प्रति सम्मान के भाव और उनको प्रदत्त स्वतंत्रता की प्रेमवती बड़ी प्रसंशक है । लड़की वर का चुनाव स्वयं करती है और वर पक्ष के लोग तीज त्योहार पर अक्सर कन्या को अपने घर बुलाते हैं। ऐसा तब तक होता जब तक वर वधू विवाह के बंधन में नहीं बंध जाते। वह बताती है कि विधवा को  पुनर्विवाह का अधिकार है । 

मैंने प्रेमवती के बालपन की यादों को कुरेदने का प्रयास किया । उसे आज भी नवाखवाई की याद है । वह बताती है कि जब खीरा,  कोदो, कुटकी, धान मक्का आदि की नई फसल घर आ जाती तो उसे सबसे पहले ग्राम के देवी देवताओं को अर्पित किया जाता और उसके बाद ही ने अनाज का हम लोग सेवन करते थे । इन्ही दिनों सारे बच्चे एक खेल गेंडी खेलते थे । लाठी में अंगूठे को फसाने के लिए जगह बनाकर उसपर चढ़ जाते और घर घर गाते हुए जाते थे ।  घर के लोग उन्हे नेंग में अनाज देते और फिर सभी बालक अपनी अपनी गेंडी पर चढ़े चढ़े  पास के किसी नाले के समीप जा प्रसाद चढ़ाते और गेंडियों को नदी में सिरा देते हैं ।

प्रेमवती के पास स्कूल और गाँव की यादों का पिटारा है और उससे वार्तालाप करते ऐसा नहीं लगता कि यह नवयुवती विपन्न आदिम जन जाति में जन्मी है, अच्छी शिक्षा का यही प्रभाव है ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 34 – आत्मलोचन – भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना  में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)   

☆ कथा कहानी # 34 – आत्मलोचन– भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

आत्मलोचन जी का प्रशासनिक कार्यकाल धीरे धीरे गति पकड़ रहा था. इसी दौरान जिला मुख्यालय के नगरनिगम अध्यक्ष की बेटी के विवाह पर आयोजित प्रीतिभोज के लिये स्वंय अध्यक्ष महोदय कलेक्टर साहब के चैंबर में पधारे और परिवार सहित कार्यक्रम को अपनी उपस्थिति से गौरवान्वित करने का निवेदन किया. यह कोरोनाकाल के पहले की घटना है पर फिर भी अतिमहत्वपूर्ण व्यक्तियों के आगमन की संभावना को देखते हुये सीमित संख्या में ही आमंत्रण भेजे गये थे. नगर के लगभग सभी राजनैतिक दलों के सिर्फ वरिष्ठ नेतागण और उच्च श्रेणी के प्रशासनिक अधिकारियों के अलावा परिजनों की संख्या भी सीमित थी. पर सीमित मेहमानों के बीच में भी सबसे ज्यादा ध्यानाकर्षित करने वाले विशिष्ट अतिथि थे प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री जो महापौर की पार्टी के ही वरिष्ठ राजनेता थे.

राजनीति में आने के पूर्व वे संयुक्त मध्यप्रदेश के दो बड़े जिलों के कलेक्टर रह चुके थे और सिविल सर्विस को त्याग कर राजनीति में प्रवेश किया था. यहां भी मुख्य मंत्री का पद सुशोभित कर चुके थे और अपने दल के संख्या बल में पिछड़ने के कारण विपक्ष की शमा को रोशन कर रहे थे. विधाता दोनों हाथों से गुडलक और सफलता किसी को नहीं देता, यही ईश्वरीय विधान है. एक भयंकर कार एक्सीडेंट में जान तो बच गई पर क्षतिग्रस्त बैकबोन ने हमेशा के लिये व्हीलचेयर पर विराजित कर दिया. जो कभी अपनी पार्टी के प्रदेश स्तरीय बैकबोन थे अब स्वयं बैकबोन के जख्मों के शिकार बन कर उठने बैठने की क्षमता खो चुके थे. पर ये विकलांगता सिर्फ शारीरिक थी, मस्तिष्क की उर्वरता और आत्मविश्वास की अकूट संपदा से न केवल विरोधी दल बल्कि खुद की पार्टी के नेता भी खौफ खाते थे.संपूर्ण प्रदेश के महत्वपूर्ण व्यक्ति और घटनायें उनकी मैमोरी की हार्डडिस्क में हमेशा एक क्लिक पर हाज़िर हो जाती थीं.

आत्मलोचन तो उनके सामने बहुत जूनियर थे पर उनकी विशिष्ट कुर्सी की आदत के किस्से उन तक पहुँच ही जाते थे क्योंकि उनका जनसंपर्क और सूचनातंत्र मुख्यमंत्री से भी ज्यादा तगड़ा था. कार्यक्रम में भोजन उपरांत उन्होंने स्वंय अपने चिरसेवक के माध्यम से कलेक्टर साहब को बुलाया और औपचारिक परिचय के बाद जिले के संबंध में भी चर्चा की. फिर चर्चा को हास्यात्मक मोड़ देते हुये बात उस प्वाइंट पर ले गये जहां वो चाहते थे.

“आत्मलोचन जी जिस पद पर आप हैं वह तो खुद ही पॉवर को रिप्रसेंट करती है, आप तो जिले के राज़ा समझे जाते हैं फिर उस पर भी विशिष्ट कुर्सी का मोह क्यों. आप तो अभी अभी आये हैं पर मैने तो कई साल पहले दो महत्वपूर्ण जिलों में आपके जैसे पद पर कार्य किया, जो थी जैसी थी पर कुर्सी तो कुर्सी होती है. पावर की मेरी महत्वाकांक्षा तो इस कुर्सी के क्षेत्रफल में सीमित नहीं हो पा रही थी तो मैं ने राजनीति में प्रवेश किया और वह कुर्सी पाई जो लोगों के सपने में आती है याने चीफमिनिस्टर की. पर सत्ता तो चंचल होती है हमेशा नहीं टिक पाती.आज जिस कुर्सी पर बैठ कर मैं तुमसे बात कर रहा हूं वह भी पावरड्रिवन है पर ये साईन्स के करिश्में याने बैटरी से चलती है पर एक बात की गठान बांध लो , कुर्सी नहीं उस पर बैठा व्यक्ति महत्वपूर्ण है और साथ ही महत्वपूर्ण है वह नेटवर्क जो जितना मजबूत होता है, व्यक्ति उतना ही कामयाब होता है चाहे वह क्षेत्र राजनीति का हो, सिविल सर्विस का हो या फिर परिवार का.”

बात बहुत गहरी थी, आत्मलोचन बहुत जूनियर तो पूरा समझ नहीं पाये, प्रतिभा और जोश तो था पर अनुभव कम था. शायद यही बात उनका भाग्य उन्हें किसी और ही तरीके से समझाने वाला था.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (11-15)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (6 – 10) ॥ ☆

सर्ग-19

कमलिनी का पा गंध जैसे कि गजराज उन्तत्त हो आप आ जाता सर में।

वैसे हि मधुगंध पा अग्निवर्ण भी रमणियों के संग आ घुसा मझधर में।।11।।

 

वहां अकेले में, नशे में खो सुध-सुध पिया उससे जूठी सुरा सुन्दिरियों ने।

बकुल वृक्ष सा उसने भी अनेक मुख की सुरा पी बिकल हो विवश इन्द्रियों से।।12।।

 

सदा मोह में मोद देती थी उसको कभी या तो वीणा कभी कामिनी या।

मधुर भाषिणी सुखद है दोनों निश्चित, हृदय में समाती जो संगीत स्वर गा।।13।।

 

जब अग्निवर्ण खुद बजाता था तबला, तो हिलता वलय था औ’ थी कण्ठमाला।

हर लेता था मन, वो यों नर्तकियों को कि शरमा के रह जाती थी रम्यबाला।।14।।

 

करते हुये नृत्य श्रम से पसीने से पुँछ गये तिलक वाली नृत्यांगना को।

मुँह की हवा दे, पसीना सुखा चूम लज्जित किया उसने तो वासना को।।15।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १ जून – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? ई-अभिव्यक्ती -संवाद ☆ १ जून -संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

गोपाल नीलकंठ दांडेकर (८ जुलै १९१६ – १ जून १९९८)

गोपाल नीलकंठ दांडेकर हे गोनीदा म्हणून सर्वपरिचित आहेत. ते एक अंनुभावसनपन्न, सृजनशील, रसिक वृत्तीचे भटकण्याची आवड असलेले कलंदर कलावंत होते. ते दुर्गप्रेमी आणि कुशल छायाचित्रकारही होते.

गोनीदांचा जन्म परतवाडा इथे झाला. १२व्या वर्षी शिक्षण सोडून त्यांनी स्वातंत्र्य चळवळीत उडी घेतली. पुढे ते गाडगे महाराजांच्या सहवासात आले. त्यांचा संदेश त्यांनी गावोगावी पोचवला. नंतर त्यांनी वेदांताचा अभ्यास केला. १९४७पासून त्यांनी लेखन कार्यावर उपजीविका करायचे ठरवले. त्यांनी पुढील आयुष्यात कुमार साहित्य, कादंबर्याी, ललित गद्य, चरित्र, आत्मचरित्र, प्रवास वर्णन, धार्मिक, पौराणिक इ. विविध प्रकारचे लेखन केले.  

कादंबरीचे अभिवाचन –

गोनीदांनी १९७५ साली कादंबरीच्या अभिवाचनाचा अभिनव प्रयोग सुरू केला. ग्यानेश्वर यांच्या जीवनावरील मोगरा फुलाला या कादंबरीपासून ही सुरुवात झाली. पुढे शितू, पडघवली. मृण्मयी, पवनाकाठचा धोंडी इ. अनेक कादंबर्यां अभिवाचन संस्कृतीतून वाचकांच्या भेटीला आल्या. त्यांचा हा उपक्रम त्यांच्या नंतरही त्यांच्या कुटुंबियांनी ( वीणा देव, विजय देव, रूचीर कुलकर्णी ) पुढे चालू ठेवला.

गोनीदांचे साहित्य –

बालवाङ्मय – आईची देणगी

कादंबरी – १.आम्ही भगीरथाचे पुत्र, २. शितू, ३.पडघवली, ४. पूर्णामायची लेकरं, मृण्मयी इये. १७ कादंबर्याो त्यांनी लिहिल्या. त्यापैकी ‘माचीवरला बुधा ‘ , जैत रे जैत, ‘देवकीनंदन गोपाला’ या कादंबर्यांनवर चित्रपट निघाले.  

चरित्र- आत्मचरित्र –

दास डोंगरी रहातो. गाडगे महाराज, तुका आकाशाएवढा इ. ६ पुस्तके

ललित गद्य –  छंद माझे वेगळे , त्रिपदी

ऐतिहासिक – कादंबरीमय शिवकाल – यात हे तो श्रींची इच्छा, झुंजर माची, दर्याभवानी, बाया दर उघड इ. छोट्या छोट्या कादंबर्यां चा समावेश आहे.

प्रवास आणि स्थल वर्णन – कुणा एकाची भ्रमण गाथा, दुर्ग दर्शन, महाराष्ट्र दर्शन इ. ११ पुस्तके

धार्मिक, पौराणिक, संत चरित्रे –श्रीगणेशपुराण, संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम इ. १४ पुस्तके

गौरव – अकोला येथे १९८१ साली झालेल्या अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते.

पुरस्कार –

१. ‘स्मरणगाथा’ साथी साहित्य अॅरकॅडमीचा पुरस्कार – १९७६

२. महाराष्ट्र शासनाचा उत्कृष्ट वाङ्मय निर्मिती  पुरस्कार

३.  महाराष्ट्र शासन आणि केंद्र शासन यांचा उत्कृष्ट चित्रपट कथा पुरस्कार

४. महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार – १९९०

५. जीजामाता पुरस्कार- १९९०

स्मृती पुरस्कार – गोनीदांनी वयाच्या पंचाहत्तरीत चांगल्या लेखकाला मृण्मयी पुरस्कार देण्याचे चालू केले. त्यांच्यानंतर त्यांच्या कुटुंबियांनी १९९९ पासून हा पुरस्कार गोनीदांच्या नावे देणे सुरू ठेवले. तसेच त्यांच्या पत्नी नीरा दांडेकर यांच्या स्मरणार्थही सामाजिक क्षेत्रात केलेल्या महत्वाच्या कामाबद्दल पुरस्कार  दिला जातो.

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

श्रीपाद कृष्ण कोल्हटकर ( २९ जून १८७१ – १ जून १९३४ )

श्री. कृ. कोल्हटकर यांनी  मराठीत विनोदी लेखनाची परंपरा रुजवली. ते नाटककार, कवी आणि समीक्षकही होते. ‘बहू असोत सुंदर संपन्न की महा…’ हे सुप्रसिद्ध गीत त्यांच्याच लेखणीतून उतरले.

श्री. कृ. कोल्हटकर यांना लहानपणापासूनच नाटकाची आवड होती. त्यांनी त्या वयात अनेक नाटके पाहिली. शालेय शिक्षण पूर्ण झाल्यावर पुण्यात डेक्कन कॉलेजमध्ये शिकताना  शि.म.परांजपे, एस.एस.देव, वी.का.राजवाडे यासारखे शिक्षक त्यांना शिकवायला होते. त्यांचा खूप प्रभाव कोल्हटकरांवर पडला. १८९१ मध्ये ‘मृच्छ्कटिकम्’ या नाटकात त्यांनी प्रथमच काम केले. शिकत असतानाच त्यांनी ‘विक्रम शशिकला’ या नाटकावर लिहिलेली समीक्षा ‘विविधज्ञानविस्तार’ मध्ये प्रसिद्ध झाली. १८८७मध्ये ते एल.एल.बी. झाले व अकोला येथे व्यवसाय करू लागले.      

 श्री. कृ. कोल्हटकर यांची साहित्य संपदा –

नाटके – १. गुप्तमंजुषा , २. जन्मरहस्य, ३. परिवर्तन, ४. मातीविकार, ५. मूकनायक ६. वधूपरीक्षा इ. १२ नाटके त्यांनी लिहिली.

विनोदी लेखसंग्रह – १. सुदामयाचे पोहे, २. अठरा धान्याचे कडबोळे

कादंबरी – ज्योतीषगणीत, श्यामसुंदर

गौरव –

१.        पुणे येथे झालेल्या दुसर्या्  कविसंमेलनाचे ते अध्यक्ष होते.

२.        १९२७ साली झालेल्या १३व्या साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते.     

३.        ते ज्योतिषतज्ज्ञही होते. तिसर्याद ज्योतिष परिषदेचे ते अध्यक्ष होते.  

श्री. कृ. कोल्हटकर यांच्यावरील साहित्य

१.  गंगाधर देवराव खानोलकर यांनी त्यांचे चरित्र लिहिले आहे.

२. कृष्ण श्रीनिवास अर्जुनवाडकर यांनी ‘श्री. कृ. कोल्हटकर- व्यक्तिदर्शन’ हे समीक्षात्मक पुस्तक लिहीले आहे. 

 गो. नी. दांडेकर आणि श्री. कृ. कोल्हटकर या दोघा प्रतिभावंतांचा आज स्मृतीदिन. त्या निमित्त त्यांना भावपूर्ण श्रद्धांजली. ? 

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, गूगल विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – सुश्री कुंदा कुलकर्णी – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

? सुश्री कुंदा कुलकर्णी – अभिनंदन ?

आपल्या समूहातील ज्येष्ठ लेखिका सुश्री कुंदा कुलकर्णी यांनी लिहिलेले “।। भगवान वेदव्यास ।। “ हे अतिशय अभ्यासपूर्ण पुस्तक नुकतेच प्रकाशित झाले आहे. त्याबद्दल सुश्री कुलकर्णी यांचे मनःपूर्वक अभिनंदन, आणि अशीच आणखी माहितीपूर्ण पुस्तके त्यांच्या हातून लिहिली जावीत आणि वाचकांपर्यंत पोहोचावीत यासाठी त्यांना हार्दिक शुभेच्छा. 

या पुस्तकाविषयीचे लेखिकेचे मनोगत वाचू या आजच्या “ मनमंजुषा “ या सदरात. 

ज्यांना हे पुस्तक हवे असेल त्यांनी लेखिकेच्या – ९१-९५२७४ ६०२९० या मोबाईल नंबरवर संपर्क साधावा असे त्यांनी कळवले आहे.

💐 ई- अभिव्यक्ती कडून त्यांचे मनःपूर्वक अभिनंदन.💐

संपादक मंडळ

 ई-अभिव्यक्ती मराठी.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ माझा गांव ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? कवितेचा उत्सव ? 

🙏 माझा गांव ! 🙏 श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐ 

माझ्या गावच्या वेशीवर

सुंदर स्वागत कमान,

होते स्वागत पाहुण्यांचे

देऊन त्यांना योग्य मान !

 

माझ्या गावच्या वेशीवर

मंदिरी वसे ग्रामदेव

सांज सकाळ पूजा करी

आमच्या गावचा गुरव !

 

माझ्या गावच्या वेशीवर

दगडी कौलरू शाळा,

धोतर टोपीतले गुरुजी

लावती अभ्यासाचा लळा !

 

माझ्या गावच्या वेशीवर

मंदिरा जवळच तळे,

त्यात दंगा मस्ती करती

पोहतांना मुले बाळे !

 

माझ्या गावच्या वेशीवर

म्हादू पठ्य्याची तालीम,

गावचे होतकरू मल्ल

तालमीत गाळीती घाम !

 

माझ्या गावच्या वेशीवर

वडा भोवती मोठा पार,

गप्पा टप्पा करण्या सारे

सांजेला जमती त्यावर !

 

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

१८-०५-२०२२

ठाणे.

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 134 ☆ गझल… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 134 ?

☆ गझल… ☆

 चांगले आहे कुणाची भिस्त व्हावे

 आपल्या मस्तीत जगणे मस्त व्हावे

 

घातल्या आहेत कोणी या पथारी

मी कशासाठी इथे संन्यस्त व्हावे

 

 मागण्या आहेत ज्या त्या माग राजा

राज्य कोणाचे कसे उद्ध्वस्त व्हावे

 

 पांगले आहेत येथे कळप सारे

 विश्व त्यांचे का बरे बंदिस्त व्हावे

 

 शिस्त त्यांनी लावली होती मलाही

  का तरी आयुष्य हे बेशिस्त व्हावे

 

उगवले नाहीच जर जन्मून येथे

 का असे वाटे तुला मी अस्त व्हावे                                  

 

 तोच आहे नित्य माझा पाठिराखा

 वाटते आता मला आश्वस्त व्हावे

 

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ तंबाखू मुक्ती दिन – गुटका नको ग बाई ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ तंबाखू मुक्ती दिन – गुटका नको ग बाई ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

गुटका नको ग बाई

बाई बाई बाई!

     काय झालं बया?

    बया बया बया…..

     काय झालं बया…..

   बया बया बया……

     सांग की ग बया……

     मला गुटका नको ग बाई

 

 

     मला तंबाखू नको ग बाई..

अग पण का ग बाई…

     असं केलं तर काय त्यानं…

     या गुटक्याची घेली मी चव…!

   समद जग दिसाया लागलं नवं नवं…..

अगं मग बेस झालं की….

दमडी खिशात टिकनं बाई….।।१।।

 

मला गुटका नको ग बाई……

या गुटक्यानं नादावली सारी आळी…..

  अन् मग ग…

घरादारात अन् गल्ली बोळात..

अग झालं तरी काय….

काढली पिचकारीची रांगोळी …..

  मग छानच झालं की…

बायाच्या शिव्याला दमच नाई

   कुठं बसाया जागा नाही….

मला गुट का नको ग ……।।२।।

 

या गुटक्यान …

  या या गुटक्यानं,.

    अग पर केलं तरी काय,,,..

 या या गुटक्यानं लावली माझी कड….

    म्हंजी ग…

   या या गुटक्यानं लावली माझी कड….

  अन्  कॕन्सर  झोपवील माझं मडं……

आग ग ग ग  ….

        अग  परं ….

      तू sss तर …

   हे जिणं …

बी काय जिणं …

   हाय व्हय……

अन्  दिवसा ढवळ्या ….

     दिसाया लागलं मरणं…..

   लई वंगाळ झालं बघ….

   पोरं बाळ ती भिकंला जाई….।।४।।

 

   मला गुटका नको ग बाई…..

एका जनार्दनी  समरस झाले….

एका जनार्दनी  समरस झाले…..

  अन् शरण व्यसन मुक्तीला ssss गेले…..

 आता गुटक्याचं नावच नाई,……

मला गुटका नको ग बाई…..

मला गुटका नको ग बाई…..

मला तंबाखू नको ग बाई..,..

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares