(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे”।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं “एक पूर्णिका… ”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ ॥ जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
जिस युग में आज हम जी रहे हैं, वह विज्ञान का युग है। विज्ञान ने एक से बढक़र एक, अनेकों सुविधाएँ उपलब्ध कराईं हैं। इनसे मानव जीवन में सुगमता आई है। हर क्षेत्र में विकास और भारी परिवर्तन हुए हैं। मनुष्य के सोच-विचार और व्यवहार मेें बदलाहट आई है। किन्तु इस प्रगति और नवीनता के चलते जीवन में नई उलझनें, आपाधापी, कठोरता और कलुषता भी बढ़ी है। आपसी प्रेम के धागे कमजोर हुए हैं। नैतिकता और पुरानी धार्मिक व सामाजिक मान्यताओं का हृास हुआ है और अपराध वृत्ति बढ़ी है। स्वार्थपरता दिनों दिन बाढ़ पर है। अनेकों विवशताओं ने परिवारों को तोड़ा है। सुख की खोज में भौतिकवादी विज्ञान ने नये नये चमत्कार तो कर दिखाये किन्तु सुख की मृगमरीचिका में भागते मनुष्य ने प्यास और त्रास अधिक पाये हैं, सुख कम। मैं सोचता हूँ ऐसा क्यों हुआ? मुझे लगता है कि भौतिकता के आभा मण्डल से हमारा आँगन तो जगमगा उठा है, जिसने हमें मोहित कर लिया है किन्तु हमारा भीतरी कमरा जहाँ अध्यात्म की पावन ज्योति जलती थी, उपेक्षित होने से अँधेरा हो गया है। हमने अन्तरिक्ष में तो बड़ी ऊँची उड़ानें भरी हैं और उसे जीत लिया है परन्तु अपने अन्त:करण को जानने समझने के लिए उस ओर झाँकने का भी यत्न छोड़ दिया है। पश्चिम की भौतिकवाद की आँधी ने हमारी भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक विरासत के दीपक को निस्तेज कर दिया है। हम अपनी संस्कृति के मन्तव्य को समझे बिना उसके परिपालन से हटते जा रहे हैं। भारतीय संस्कृति मानवीयता की भावभूमि पर तप, त्याग, सेवा और सहयोग पर आधारित है। वह सुमतिपूर्ण कर्मठता में संतोष सिखाती है जबकि पश्चिम की भौतिकवादी दृष्टि इसके विपरीत उपभोगवाद पर अधिक आधारित है। इसलिये वह त्याग और अपरिग्रह के स्थान पर संघर्ष, संग्रह और भोग पर जोर देती है।
सामाजिक जीवन के विकास क्रम में, मनुष्य जबसे किसी समुदाय का सदस्य बन कर रहने लगा तभी से उस समुदाय को सुरक्षा, जीवनयापन के साधन और विकास के अवसरों की जरूरत महसूस हुई। इसके लिए किसी योग्य, सशक्त, समझदार मुखिया या शासक की बात उठी। प्रत्येक समुदाय जो जहाँ रहता था, उसे अपना देश कहकर उसे सुरक्षा प्रदान करते हुए शासन करने वाले मुखिया को राजा के नाम से संबोधित करने लगा। राजा भी अपने अधिकार क्षेत्र में रहने वाले परिवार व उसके प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सन्तान की भाँति मानकर, सुरक्षा और स्नेह प्रदान कर उस समुदाय को अपनी प्रजा कहने लगा और उसके नियमित ढंग से पालन-पोषण के दायित्व को अपनी धार्मिक और नैतिक जिम्मेदारी के रूप में निभाने लगा। इस प्रकार देश, राजा तथा प्रजा और उनके कत्र्तव्यों की अवधारणा विकसित हुई। राज्य नामक संस्था स्थापित हो गई। राजा ने प्रजा के पालन-पोषण, संवर्धन और सुरक्षा का भार अपना धार्मिक कत्र्तव्य मानकर न्यायोचित कार्य करना अपना लिया और प्रजा ने भी कृतज्ञता वश राजा को अपना स्वामी या ईश्वर की भाँति सर्वस्व और शक्तिमान स्वीकार कर लिया। यही परिपाटी विश्व के सभी देशों में मान्य परम्परा बन गई और राजा का पद पारिवारिक विरासत बन गया। संसार में जनतांत्रिक शासन-व्यवस्था के चालू होने के पहलेे अभी निकट भूतकाल तक विभिन्न देशों के शासक और स्वामी राजा ही होते थे और वे अपनी प्रजा की रक्षा सुख-सुविधा के लिये जो उचित समझते थे, करते थे। आदर्श व सुयोग्य राजा या शासक से यही अपेक्षा होती है कि वह प्रजा-वत्सल हो, प्रजा के हितों का ध्यान रखे संवेदनशील हो और अपनी राज्य सीमा के समस्त निवासियों को हर प्रकार से सुखी रखे।
सुशिक्षित, संस्कारवान, धर्मप्राण व्यक्ति चाहे जो भी हो, राजा प्रजा या सेवक, अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करता है। परन्तु जब शिक्षा से संस्कार न मिलें, परहित की जगह स्वार्थपरता प्रबल हो, भोग और लिप्सा में कर्तव्य याद न रहें, आत्म मुग्धता और अभिमान में संवेदनशीलता न रहे, अनैतिकता और अधार्मिकता का उद्भव हो जाय तो न तो सही आचरण हो सकता है और न सही न्याय ही।
समय और परिस्थितियों के प्रवाह में बहते समाज के विचारों, धारणाओं और मान्यताओं में परिवर्तन होते रहते हैं। इसीलिए धर्मपीठाधीश्वर, सचेतक संत और साहित्यकार समाज मेें सदाचार, सद्ïविचार और कर्तव्य बोध की चेतना जागृत करने के लिए धर्मोपदेश, प्रवचन और चिंतन से तथा बोधगम्य आदर्श पात्र चरित्रों की प्रस्तुति से मार्गदर्शन देते आये हैं। महान विचारक, समाज-सुधारक, श्री राम भक्त, परम विवेकी विद्वान्ï महात्मा तुलसीदास जी ने भी अपने काव्य ”रामचरितमानस” की श्रेष्ठ सरस रचना कर, जन जन को श्रीराम कथा के माध्यम से पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक आदर्श प्रस्तुत कर आध्यात्मिक विकास के लिये दिशा दिखाई है। ईश्वर की भक्ति का अनुपम प्रतिपादन कर भारतीय दर्शन की व्याख्या की है। अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम को महाकवि तुलसी दास जी ने आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श सखा, आदर्श संरक्षक, आदर्श राजा, आदर्श कष्ट हर्ता और भक्तों के आदर्श उपास्य के रूप में प्रस्तुत कर सहृदय पाठकों का मन मोह लिया है। वे सबके लिए सभी रूपों में अनुकरणीय हैं। मानस वास्तव में मानवता को तुलसीदास जी का दिया हुआ मनमोहक उपहार है। आज के भौतिकवादी समाज में चूँकि लोग स्वार्थवश मोह में फँस अपने कर्तव्य पथ से विरत हैं, सामाजिक अनुशासन के लिए निर्धारित मान्यताओं का निरादर कर रहे हैं, चारित्रिक पतन के गर्त में गिरे हैं, इसी से दुखी हैं।
मानस का अनुशीलन और श्रीराम का अनुकरण समाज को दु:खों से उबारने में संजीवनी का काम कर सकता है किन्तु यह तभी संभव है जब ‘मानस’ का मौखिक पाठ भर न हो, उसकी पावन भावना का पढऩे वाले के मन में सुखद अवतरण भी हो और जीवन में आचरण भी। समाज के हर तबके के जन साधारण से लेकर सर्वाेच्च शासक-नृपति तक को उचित मार्गदर्शन देने के लिए सारगर्भित विचारों और भावों से समस्त ग्रंथ भरा पड़ा है। प्रत्येक शब्द के सार्थक नियोजन से एक एक छन्द में अलौकिक अमृतरस घुला हुआ है जो वर्षा की शीतल फुहार या वसन्त की नवजीवन दायिनी बयार सा आह्लाद प्रदान करता है। संवेदन शीलता, सत्य, न्याय और प्रेम पर आधारित शासन ही जन-जन को सुखकर हो सकता है।
मनोज्ञ राजा श्रीराम के शासन काल में अयोध्या कैसी सुखी, सम्पन्न और प्रफुल्लि थी इसकी सुन्दर झाँकी मानस के निम्न छन्दों में निहारिये-
दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज्य काहुहिं नहि व्यापा।
सब गुणज्ञ, पंडित सब ज्ञानी, सब कृतज्ञ नहिं कपट-सयानी।
सब उदार सब पर उपकारी, विप्रचरण सेवक नर-नारी।
एक नारिव्रत रत सब झारी, ते मन बचक्रम पति हितकारी।
बिधु महि पूर मययूखन्हि, रवि तप जेतनहि काज।
माँगे वारिद देंहि जल, रामचंद्र के राज॥
जहाँ ऐसी अच्छी व्यवस्था हो और ऐसा समाज हो वहाँ दु:ख कहाँ? और असंतोष किसे? इसीलिये भारतीय जनमानस में रामराज्य की परिकल्पना सर्वाेपरि सुखदायी शासन व्यवस्था की है। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त देश में ऐसे ही रामराज्य की कामना महात्मा गाँधी ने की थी और ऐसे ही सपने जन जन ने सँजोये थे। किन्तु हमारे शासक (जन-नेता) न तो अपने मनोविकारों को जीत राजाराम का अनुकरण करना सीख सके और न राम-राज्य आज तक आ सका। हाँ उसकी लालसा देश के जनमानस में आज भी सुरक्षित है। पश्चिम की हवा ने हमारी संस्कृति के दीपक की लौ को अस्थिर कर रखा है।
तुलसीदास जी ने लिखा है –
मुखिया मुख सों चाहिये खान-पान में एक
पालै पोषै सकल अँग तुलसी सहित विवेक।
यदि राजा या वर्तमान जनतांत्रिक प्रणाली में शासक ऐसा हो तो रामराज्य की स्थापना असंभव नहीं है। शासक के मन में सदा क्या चिंता होनी चाहिए, इसकी झलक श्रीराम की इस अभिव्यक्ति में देखिये जो उन्होंने लक्ष्मण से वन गमन के समय उनकी विवश आतुरता को राम के साथ वन जाने को देखकर कहा था। श्री राम समझाते हैं कि अन्य कोई भाई अयोध्या में नहीं है इसलिए प्रजा के हित में राज्य संचालन के लिए लक्ष्मण का अयोध्या में रुकना उचित है क्योंकि
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नरक अधिकारी।
राज परिवार को चाहे जो दुख हो पर प्रजा को दुख नहीं होना चाहिए अन्यथा राजा को नरक की यातना भोगनी होती है।
इसी प्रकार श्री राम को वापस अयोध्या चलकर राज्य करने के लिये मनुहार करने के प्रसंग में प्रिय भाई भरत को भी वे ही समझाते हैं कि राजधर्म का सार तत्व यही है कि अपने मन की बात मन ही रखकर या मन मारकर प्रजा के हित में गुरुजनों का आशीष ले राज्य काज करना भरत को ही उचित होगा सुनिये श्री राम क्या समझाते हैं-
राज धरम सरबस इतनोई, जिमि मन माँहि मनोरथ गोई
देश, कोष, परिजन, परिवारू, गुरुपदरजहि लागि धरिभारू
तुम मुनि मातु सचिव सिख मानी पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी।
ये विचार श्री राम के मन में वनवास में भी अपनी प्रजा के प्रति चिंता और प्रेम के भाव प्रदर्शित करते हैं।
रावण का विनाश कर चौदह वर्ष के वनवास के बाद जब अयोध्या लौटते हैं और उन्हें राजा बनाया जाता है तब उनकी दिनचर्या और बन्धु तथा जन-स्नेह को कवि ने यों वर्णित किया है-
राम करहि भ्रातन पर प्रीती, नाना भाँति सिखावहिं नीती,
हर्षित रहहिं नगर के लोगा, करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा।
मैं समझता हूँ कि ऐसा राजा और उसकी विचार-धारा व राजनीति तो आज की जनतांत्रिक शासन व्यवस्था से भी अच्छी थी। जनतांत्रिक व्यवस्था तार्किक विचार से जनता को यों ही सुख देने की कामना से तो की गई थी।
प्रजा को सुख देना और उनके अभिमत को महत्त्व देना श्री राम की पारिवारिक परम्परा रही है। राजा दशरथ ने जब राम को युवराज पद देने का विचार किया तो उन्होंने अपने मनोभाव प्रजा पर थोपे नहीं वरन्ï सभा में सबसे खुले रूप में सहमति देने का निवेदन किया- सभा में उन्होंने प्रस्ताव रखा राम को युवराज पद देने का और कहा-
जो पाँचहि मत लागै नीका, करऊं हरष हिय रामहिं टीका।
जहाँ राजा प्रजा की रुचि और सहमति का ख्याल रखता है वहाँ प्रजा प्रसन्न रहती है और प्रजा की प्रसन्नता ही किसी भी राज्य की सुख संमृद्धि और प्रगति का आधार मात्र नहीं होती बल्कि राजा या शासक के मनोबल और उस की शक्ति का, कार्य निष्पादन में भी बड़ा संबल होती हैं।
ऐसे जनमन रंजक लोक प्रिय राजा राम पर अनैतिकता का आरोप लगाकर महारानी सती सीता के लिए कटु शब्दों का प्रयोग करने वाले किसी प्रजाजन का मनोभाव अपने गुप्तचर से जानकर भी उन्होंने संंबंधित व्यक्ति को प्रताडि़त न कर, उसके आक्रोश और विषाद को दूर करने के लिये आदर्श राजा के रूप में आत्मप्रतारणा ही उचित समझा। इसीलिए उन्होंने प्रायश्चित स्वरूप अपने अद्र्धांग को त्याग कर जनहित में स्वत: दुख भोगना स्वीकार कर लिया। यह प्रसंग रामचरित मानस में तो भक्त शिरोमणि तुलसीदास ने नहीं उठाया है परन्तु वाल्मीकि रामयण में है जिसे राजाराम के द्वारा सीता परित्याग की संज्ञा दी जाती है और राम के अपनी पवित्र पत्नी पर किये गये अन्याय का रूप देकर उंगली उठाई जाती है किन्तु वास्तव में वह नारी के प्रति अन्याय की बात नहीं, बात है राजधर्म के निवहि में प्रजा के सुख के हेतु राजा के मनोभाव की जिसके कारण उन्होंने अद्र्धांग से ही दूर हो आत्म त्याग का अनुपम आदर्श प्रस्तुत किया है। ऐसा उन्होंने किया केवल अपनी प्रजा के सामान्य जन की प्रसन्नता देखने के लिये न कि राजरानी सीता को किसी प्रकार प्रताडि़त करने के लिये और न उनको लांछित और अपमानित करने के लिए। सीता तो उनके हृदय में सतत विराजित थीं और इसीलिए अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर सीता की स्वर्ण प्रतिमा को अधीष्ठित कर यज्ञ की धार्मिक विधि सम्पन्न की थी। यदि हृदय से उन्होंने किसी कारण से पत्नी का परित्याग किया होता तो स्वर्णमूर्ति बनवाने की स्थिति कैसे बनती? इस प्रसंग में राजा के मनोभाव को समझने की आवश्यकता है। किन्तु परिवार के किसी एक व्यक्ति के दुख से सभी परिवारी जनों का मन अस्वस्थ हो जाता है और उसका दुख भोग अन्यों को भी करना ही पड़ता है। इसीलिये सीता को राम की जीवन संगिनी के नाते उनके विचारों और कर्माे का परिणाम भोगना पड़ा क्योंकि भारतीय संस्कृति तो पति-पत्नी को दो शरीर एक प्राण मानती है। (यह सारा प्रसंग एक अलग विवेचना का विषय बन सकता है।) घटना का यह दूसरा दुखद पक्ष है। परन्तु इस घटना में प्रजा के लिये राजा का अनुपम त्याग न केवल महान है वरन अलौकिक है तथा स्तुत्य है।
इस पृष्ठभूमि में आज के शासकों, जन नेताओं और अधिकारियों के व्यवहारों को देखना चाहिए जो जनहित के विपरीत दिखते हैं। देश में अब स्थिति कुछ यों है-
आज दिखती शासकों में स्वार्थ की बस भावना
बहुत कम है जिनके मन है लोकहित की कामना।
राम से त्यागी कहाँ है? कहाँ पावन आचरण?
लक्ष्य जन सेवा के बदले लक्ष्य है धन-साधना॥
इसीलिए हर क्षेत्र में असंतोष है, कलह है, दुख है और नित नई समस्याएं हैं। कहाँ राजा राम का आदर्श आचरण और कहाँ आज के अधिकार संपन्न शासकों का व्यवहार? मानस के इस एक ही उपदेश को ध्यान में रख यदि आज के शासक व्यवहार करें तो स्थिति बहुत भिन्न होगी- “जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नरक अधिकारी।”
ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ १० जून – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर -ई – अभिव्यक्ती (मराठी)
कमलाबाई टिळक
कमलाबाई विष्णू टिळक(26 जून 1905 – 10 जून 1989) या लेखिका होत्या.
त्या पूर्वाश्रमीच्या कमला अनंत उकिडवे. मॅट्रिकला मुलीत पहिल्या आल्या. त्यांना संस्कृतसाठी जगन्नाथ शंकरशेठ शिष्यवृत्ती, चॅटफिल्ड, यमुनाबाई दळवी पारितोषिक मिळाले.
इंग्रजी साहित्य घेऊन त्या प्रथम वर्गात एम.ए. उत्तीर्ण झाल्या.
हुजूरपागेच्या मुलींच्या महाविद्यालयाच्या त्या प्राचार्या होत्या. नंतर बनारस येथील मुलींच्या महाविद्यालयात त्या इंग्रजीच्या प्राध्यापिका म्हणून रुजू झाल्या. पुढे त्या तिथे प्राचार्या झाल्या.
निवृत्तीनंतर फिल्म सेन्सॉर बोर्डाच्या सल्लागार समितीवर त्यांनी आठ वर्षे काम केले.
त्यांच्या अनेक कथा ‘रत्नाकर’, ‘मनोहर’, ‘यशवंत’, ‘स्त्री’ वगैरे मासिकांतून प्रसिद्ध झाल्या.
‘हृदयशारदा’, ‘आकाशगंगा’, ‘अश्विनी’, ‘सोन्याची नगरी’ हे कथासंग्रह, ‘शुभमंगल सावधान’ ही कादंबरी, ‘स्त्री-जीवन विषयक काही प्रश्न’, ‘स्त्री-जीवनाची नवीन क्षितिजे’, ‘युधिष्ठिर’ इत्यादी वैचारिक लेखन, तसेच बालवाङ्मय आणि एकांकिका असे बरेच लेखन कमलाबाईंनी केले.
चिंतनशीलता, सूक्ष्म विश्लेषण, तंत्रावरील प्रभुत्व व भाषेचे सहजसौंदर्य ही त्यांची खास वैशिष्ट्ये होती. स्त्रीला जाणवलेली भिन्नभिन्न स्त्री-रूपे, त्यातील वेगवेगळ्या छटा, गुंतागुंत ही त्यांनी अकृत्रिमपणे व तटस्थपणे उलगडून दाखवली.
त्यांची व बालगंधर्वांची जन्मतारीख एकच. त्या विनोदाने म्हणत, “त्या तारखेचे रूपसौंदर्य बालगंधर्वांनी घेतले. माझ्या वाटणीला काही उरलेच नाही.”
त्यांची ही विनोदी वृत्ती, शिक्षणाने मिळालेली समृद्धी, वैचारिकता, सहृदयतेने स्त्रियांच्या मानसिकतेकडे पाहण्याची व प्रश्नांच्या सर्व पैलूंना स्पर्श करण्याची परिपक्वता, अंतर्मनाच्या गाभ्याला भिडण्याची क्षमता वगैरे गोष्टी कमलाबाईंच्या लेखनातून जाणवतात.
कमलाबाई टिळक यांच्या स्मृतिदिनानिमित्त त्यांना अभिवादन.
☆☆☆☆☆
सौ. गौरी गाडेकर
ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ
मराठी विभाग
संदर्भ : साहित्य साधना, कऱ्हाड शताब्दी दैनंदिनी, विवेक :महाराष्ट्र नायक
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
संवादाचे एक माध्यम ही वाणीची ओळख परिपूर्ण ठरणारी नाही.तिची घडवण्याइतकीच बिघडवण्याची शक्ती जाणून घेऊन तिचा योग्य पध्दतीने वापर करणे अगत्याचे आहे असे मला वाटते.कुठे,कसे,किती बोलायचे आणि कुठे मौन पाळायचे यावरच वाणीद्वारे संवाद साधला जाणार की विसंवाद वाढणार हे अवलंबून असते.
वाणी माणसे जोडते तशीच तोडतेही.एखादे काम सुकर करते तसेच कठीणही.वाणी मन प्रसन्न करते आणि निराशही.ती आनंद देते कधी दु:खही.पण तिच्या या चांगल्या किंवा वाईट देण्याघेण्याच्या बाबतीत ती परस्वाधीनच असते.कारण तिचा वापर करणारे ‘आपण’ असतो ‘ती’ नाही.
मात्र या सगळ्याचे या आधी अनेकांच्या लेखनात सविस्तर विवेचन झालेले असल्याने या विषयाच्या एका वेगळ्यादृष्टीने महत्त्वाच्या कंगोऱ्याबाबत प्रामुख्याने आवर्जून कांही सांगायचा मी प्रयत्न करतो.
‘वाणी’ हा आपल्या व्यक्तिमत्त्वाचा अतिशय महत्त्वाचा भाग आहे हे वाचताना थोडं अतिशयोक्तीचं वाटेल पण ही वस्तुस्थिती आहे.
विविध घटकांनी बनलेल्या आपल्या व्यक्तिमत्त्वातला ‘चेहरा’ सर्वसाधारणपणे काळजीपूर्वक जपला जातो कारण आपलं व्यक्तिमत्त्व चांगलं दिसण्यासाठी आपला चेहराच महत्त्वाचा आहे असाच सर्वसाधारण समज असतो. त्यासाठी मुद्दाम वेळ काढून, भरपूर खर्च करून आपला चेहरा सतत ताजातवाना, टवटवीत राहिल, तो चांगला दिसेल याबाबत सर्वजणच दक्ष असतात.पण आपली वाणी म्हणजेच आपला आवाजसुद्धा आपल्या व्यक्तिमत्त्वातले तितकेच महत्वपूर्ण अंग आहे याबद्दल बरेच जण अनभिज्ञ असतात. त्यामुळे वाणीतील दोष आपल्या आकर्षक आणि रुबाबदार व्यक्तिमत्वावर क्षणार्धात नकारात्मक परिणाम करणारे ठरू शकतात याचा फारसा कुणी गंभीरपणे विचार करीत नाही. त्यामुळे अर्थातच ते दोष दूर करण्याच्या दृष्टीने कुणी फारसे प्रयत्नशीलही नसतात.
प्रत्येक व्यक्तीच्या व्यक्तिमत्वाच्या परिपूर्णतेत, सौंदर्यात तिच्या वाणीचेही खास महत्त्व आहे.किंबहुना चेहऱ्यापेक्षाही कणभर जास्तच. व्यक्तिमत्व अतिशय प्रसन्न, उमदं आणि चेहरा हसतमुख सुंदर असणारी व्यक्ती समोर येताच प्रथमदर्शनी आपण प्रभावित होतो खरे,पण त्या रुबाबदार व्यक्तीच्या वाणीत कांही दोष असतील तर तिने बोलायला तोंड उघडताच आपला विरस होतो.प्रथमदर्शनी निर्माण झालेला आपल्यावरील त्या व्यक्तीचा प्रभाव भ्रमनिरास व्हावा तसा क्षणार्धात विरून जातो.याचप्रमाणे सर्वसाधारण व्यक्तिमत्त्व असणारी,क्वचित कधी कुरुप असणारी एखादी व्यक्तीही केवळ तिच्या वैशिष्ट्यपूर्ण वाणीमुळे आपले लक्ष वेधून घेते.फोनवरचा कर्कश्श आवाज ऐकताच आपल्या कपाळावर नकळत आठी उमटते. तोच आवाज जर स्वच्छ, स्पष्ट, लाघवी असेल तर आपल्याला ती व्यक्ती पूर्वी कधीही प्रत्यक्ष भेटलेली नसली तरी तिचे बोलणे ऐकत रहावे असे वाटते.अर्थातच इथे तिच्या वाणीच्या गुणवत्तेला तिच्या बोलण्याची पध्दत,त्यातील आदरभाव,मुद्देसूदपणा, लाघव या गोष्टीही पूरक ठरत असतात. यावरुन आपल्या वाणीचे, आवाजाचे आपल्या व्यक्तिमत्वाच्या बाबतीतले महत्त्व समजून येईल.
गायक-गायिका, निवेदक, शिक्षक,वकील,विक्रेते अशा विविध व्यवसाय करणाऱ्यांच्या बाबतीत वाणीची गुणवत्ता महत्त्वाची असतेच.किंबहुना आवाजाची जाणिवपूर्वक केलेली सुयोग्य घडण ही या़च्याच बाबतीत नाही फक्त तर इतर सर्वांच्याच बाबतीतही तितकीच अत्यावश्यक बाब ठरते.
निसर्गत:च आपल्याला लाभलेली स्वरयंत्राची देणगी हे आपले स्वरवाद्यच.मग ते बेसूर वाजणार नाही याची काळजीही आपणच घ्यायला हवी हे ओघाने आलेच.
स्वरयंत्राची रचना आणि कार्यपध्दती याची सर्व शास्त्रीय माहिती आवर्जून करुन घेणे ही आवाजाची निगा राखण्याच्या प्रक्रियेतील पहिली पायरी म्हणता येईल.त्यानंतर गाण्यासाठी असो वा बोलण्यासाठी हे स्वरवाद्य परिपूर्ण करुन ते सतत कार्यक्षम ठेवणे गरजेचे आहे.त्यासाठीचा रामबाण उपाय म्हणजे ॐकाराचा नियमबद्ध रियाज ! इथे ॐकाराचा सरधोपट उच्चार कुचकामी ठरतो.तो नेमका कसा,कधी आणि किती करावा हे जाणकारांकडून समजून घेऊन अंमलात आणणे अगत्याचे आहे.परिपूर्ण आवाज आणि निर्दोष वाणीसाठी ॐकार साधना आणि ॐकार प्राणायाम यांचं प्रशिक्षण देणारी माध्यमेही आज उपलब्ध आहेत. त्यांचा उपयोग मात्र करुन घ्यायला हवा. शब्दस्वरातील स्पष्टता, दमश्वास वाढणे,आवाज मुलायम,वजनदार होणे,बोलण्यात किंवा गाण्यात सहजता येणे,वाणी शुध्द होणे, बोबडेपणा, तोतरेपणा यासारखे वाणीदोष नाहीसे होणे, आवाजातली थरथर दूर होऊन आवाज मोकळा होणे असे अनेक फायदे या ॐकार साधनेमुळे मिळवणे सहजशक्य आहे. त्यासाठी चिकाटी आणि सातत्यपूर्ण प्रयत्न यांचे महत्त्व मात्र जाणवायला हवे.परिपूर्ण निर्दोष वाणी ही फक्त विशिष्ट व्यवसाय व कलांच्या बाबतीतच आवश्यक असते हा एक गैरसमज आहे.आपले व्यक्तिमत्त्व सर्वांगसुंदर आणि निर्दोष होण्यासाठी ती सर्वांसाठीच तेवढीच आवश्यक आहे.
कर्णबधीर किंवा मुक्या व्यक्ती त्यांच्यातल्या व्यंगामुळे निर्माण झालेल्या प्रतिकूल परिस्थितीशी सतत संघर्ष करीत जशा स्वयंपूर्ण होतात तसेच त्या व्यक्तींकडे पाहिले की आपल्याला सहजपणे उपलब्ध झालेल्या वाणीची देणगी किती मोलाची आहे हेही आपल्याला नव्याने समजते.त्या मौल्यवान वाणीची योग्य निगा राखली तरच ते मोल मातीमोल होणार नाही हे मात्र विसरुन चालणार नाही.
आपण पैसे मिळवण्यासाठी अपार कष्ट करतो.आपला आवाज हेही आपले मौल्यवान असे आरोग्या’धन’च तर आहे.ते सहज उपलब्ध झालेय म्हणून त्याकडे दुर्लक्ष करुन कसे चालेल? ते मोलाचे धन आपणच जाणिवपूर्वक जपायला हवे !
☆ सुंदरी (भावानुवाद) – भगवान वैद्य `प्रखर’ ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆
संध्याकाळ व्हायला लागली होती. त्या पांथस्थाला दूरवर एका देवळाचे शिखर दिसले. त्यावरून कुठलेतरी गाव जवळच असणार असा त्याने विचार केला, आणि चालण्याचा वेग वाढवला. अचानक त्याला रस्त्याच्या कडेला असणाऱ्या झाडांच्या पलीकडून कुणाच्या तरी कण्हण्याचा आवाज ऐकू आला. पुढे जायचं सोडून तो त्या आवाजाच्या दिशेने जायला लागला– झाडी ओलांडून पलीकडे गेला मात्र – आणि समोरचं दृश्य पाहून एकदम दचकला – घाबरला. कमालीच्या जखमी अवस्थेतली कितीतरी माणसं तिथे तळमळत पडलेली होती. त्याला काही समजायच्या आतच जवळच पडलेल्या एक जखमीने कसंतरी म्हटलं – “ पाणी —” .
त्या पांथस्थाने आपली पाण्याची बाटली ताबडतोब त्याच्या तोंडाजवळ नेलीही, पण तेवढ्यात दुसऱ्या जखमी माणसाने क्षीण आवाजात म्हटलं —” पाणी —”. लगेच पहिल्या जखमी माणसाने आपलं तोंड दुसरीकडे वळवत, खुणेनेच त्या दुसऱ्या जखमीला पाणी देण्यास सांगितलं. पांथस्थ त्या दुसऱ्या जखमी माणसाकडे वळतच होता, तेवढ्यात तिसऱ्या जखमी माणसाने पाणी मागितलं. आणि दुसऱ्या जखमीने स्वतः पाणी न पिता त्याला तिसऱ्या जखमी माणसाला पाणी देण्यास पाठवलं. आणि हाच प्रकार पुढे चालू राहिला. एकाला पाणी द्यायला हात पुढे केला की तो पुढच्या जखमी माणसाकडे बोट दाखवत मान वळवत होता. असं होता होता तो पांथस्थ अगदी शेवटच्या टोकाला पडलेल्या जखमी माणसाजवळ पोहोचला. त्याची अवस्था तर अशी होती की त्याला जर अगदी लगेच पाणी मिळालं नसतं, तर त्याचा जीवच गेला असता. पांथस्थाने त्याला जेमतेम दोन घोट पाणी पाजलं असेल- त्याने घाईघाईने त्याच्या अलीकडच्या जखमीकडे जायची खूण केली. अशा प्रकारे सगळ्यांना घोट घोट पाणी पाजत पांथस्थ पुन्हा पहिल्या जखमी माणसापर्यंत आला. घोटभर पाणी पाजल्यावर त्याला जरा हुशारी आली. त्या सगळ्याच जखमी माणसांनी एक-दुसऱ्याबद्दल दाखवलेली ती आश्चर्यकारक आपुलकी पाहून तो पांथस्थ एव्हाना पार चक्रावून गेला होता. त्याला आता त्या सगळ्याबद्दलच प्रचंड कुतूहल वाटायला लागलं होतं. म्हणून नुकतंच जो पाणी प्यायला होता त्या जखमी माणसाला त्याने न राहवून विचारलं — “ तुम्ही सगळे कोण आहात ? आणि तुमची ही अशी अवस्था कशी झाली आहे ? “
––” आम्ही सगळे या जवळच्या गावातच राहणारे आहोत. “
—-” पण तुम्हाला असं इतकं घायाळ कुणी केलंय ?”
—-” आम्ही सगळे आपापसातच भांडलो आहोत. आणि मागचा पुढचा कुठलाही विचार न करता एकमेकांना बेदम मारलं आहे. “
—-” पण आत्ताच मी जे काही पाहिलं, त्यावरून तर एक गोष्ट स्पष्ट लक्षात येते आहे की तुमचं सगळ्यांचं एकमेकांवर जिवापाड प्रेम आहे – मग ही अशी मारामारी कशासाठी ?”
—-” आम्ही जेव्हा असे भांडतो, मारामारी करतो, तेव्हा आपसातलं प्रेम, आपलेपणा, नातीगोती, माणुसकी, हे सगळं आपोआपच विसरून जातो. कारण ज्या गोष्टीसाठी आम्ही भांडतो ती गोष्टच अशी आहे जी आम्हाला एकमेकांच्या जीवावर उठणारे शत्रू बनवते. “
—-” म्हणजे ? अशी गोष्ट तरी कोणती आहे ती – जरा मलाही कळू दे की .”
—-” ती एक सुंदरी आहे. आता गावात पंचायतीच्या निवडणूका होणार आहेत, आणि हे अगदी पक्कं ठरलेलं आहे की त्या निवडणुकीत जो जिंकेल, त्यालाच ती सुंदरी वरमाला घालेल .”
—-” हो का ? पण स्वतःची इच्छा पूर्ण करण्यासाठी माणसांना राक्षस बनवणाऱ्या या सुंदरीचं काहीतरी नाव असेल ना–”
—-” आहे ना–’ सत्ता-सुंदरी ‘ म्हणतात तिला. “
————पाणी पिऊन झाल्यावर काही जखमी माणसं कशीतरी उठून बसली होती. काही जण उठण्याचा किंवा उभं राहण्याचा प्रयत्न करत होते. पांथस्थाशी बोलत असलेल्या त्या जखमी माणसाचं इतर जखमी माणसांच्या त्या हालचालींकडे लक्ष जाताच स्वतःही उठण्याचा प्रयत्न करताकरता त्याने आधी आपली काठी हातात नीट धरली.
मूळ हिंदी कथा – ‘सुंदरी’ मूळ लेखक – भगवान वैद्य `प्रखर’
अनुवाद – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
☆ एक अविस्मरणीय पण अधुरी यात्रा भाग – 2 – लेखिका – डॉ. सुप्रिया वाकणकर ☆ प्रस्तुती – सुश्री स्नेहलता गाडगीळ ☆
(पण डोंगरदऱ्यात, जंगलात ,रात्र दाटत असताना ठरलेल्या ठिकाणी पोहोचण्यावाचून गत्यंतरच नव्हते.)–
इथून पुढे —
नेमकी त्या दिवशी अमावास्या होती.जसजसा काळोख दाटू लागला, मनातल्या नकारात्मक भावनांचे साम्राज्य सुरु झाले. तहान, भूकेच्या पलिकडे पोहोचलेली मने स्वत:ला संभाळूनही थकली. अगदी बधीर झाली. तरीही प्रवास चालूच राहिला. अखेर आमच्या त्या दिवशीच्या मुक्कामी पोहोचताच भावनांचा कडेलोट झाला. ग्रुपमधल्या इतरानी केलेल्या प्रेमळ सहकार्यांने आणि सहअनूभुतीने मन अगदी भरून आले..!
त्या दिवशीचा प्रवास सगळ्यांसाठीच आव्हानात्मक ठरला होता. आमच्यातील काही जण मात्र या प्रवासामुळे थोडे जास्त धास्तावले होते.
पुढची सकाळ मात्र पुन्हा एक नवा उत्साह घेऊन समोर आली. डोले, म्याचोरमुले अशी सुंदर गावे गाठत आम्ही पुढे पुढे जात होतो. आता सात आठ तास चालणे, डोंगर चढणे- उतरणे अंगवळणी पडू लागले होते. जसजशी आम्ही उंची गाठत होतो, निसर्ग आपली अधिक हृदयंगम रुपे दाखवत होता. आता हवेतील गारठा वाढला. हिरवाई लोपून लहान झुडपांचे राज्य सुरु झाले. दगडावर पोपटी आणि केशरी शेवाळाचे मनमोहक patterns पहायला मिळाले.दिवसातील तापमान 2-3 अंश असे तर रात्री उणे 3 -4 अंश! अंगावर सहा ते सात थर लेऊन आम्ही या बदलत्या वातावरणाचा सामना करत होतो. या सगळ्यात जमेची बाजू ही की आमच्या ग्रुपमधील सगळ्यांची आता छान मैत्री होऊ लागली होती. शेर्पा मदतनीसांच्या मेहनतीकडे आणि सहकार्याकडे पाहून तर माणुसकीचे जवळून दर्शन घडत होते.
अशात प्रवासाचा सहावा दिवस उजाडला. आमची अर्धी यात्रा सुखरुप पार पडली होती. आज आम्ही गोक्यो नावाच्या गावी मुक्काम करणार होतो. हा दिवस आमच्या पुढे काय घेऊन उभा असणार आहे याची काही कल्पना नव्हती. नेहमीप्रमाणे आदल्या दिवशीचा थकवा पार करुन मजला दरमजल करत आम्ही सर्व गोक्योला पोहोचलो. दुसर्या दिवशी सकाळी लहानसा प्रक्टिस ट्रेक होता. तो ही 3 तासांचा. नाही म्हणायला वावच नव्हता. गेल्या काही दिवसात शरीराने कौतुकास्पद साथ दिली होती. खरंच सांगते, या प्रवासाने माझ्या मनात मानवी शरीराबद्दल असीम कृतज्ञता दाटून आली आहे!!!! निसर्गाच्या या निर्मितीला, तिच्यातील उर्जेला आणि क्षमतेला मन:पूर्वक सलाम!!!!
तर आता आम्ही गोक्यो री या 5800 मीटर्सवरील ठिकाणी जायच्या तयारीत होतो. काल ज्या सहचर मैत्रिणीला थोडा जास्त थकवा होता तिने आज पूर्ण विश्रांती घेण्याचे ठरवले. आम्हीही पाच सहा जणानी जमेल तितके अंतर गाठून परत येण्याचे ठरवले.इथे कोणाचीच कोणाशी तुलना, स्पर्धा नव्हती. आपली स्वत:ची क्षमता पाहून निसर्गाला जमेल तसा प्रतिसाद देत पुढे जात राहणेच योग्य होते. आमची ही मैत्रीण तीन चार तासांच्या विश्रांती नंतर आम्हाला जॉईन होणार होती. आम्ही नेहमीप्रमाणे जुजबी न्याहारी करुन हाडे गोठवणा र्या थंडीचा सामना करत सराव ट्रेकसाठी निघालो. पावलागणिक धाप लागत होती.5800 मी.(19000 फूट) उंचीवर यापेक्षा फार वेगळे अपेक्षित नव्हते. त्यामुळे सावकाश पावले टाकत आमचा सहा जणांचा चमू हळूहळू चालला होता. खडा चढ असल्यामुळे पावले सांभाळून टाकणे फार गरजेचे होते. ‘बरं झालं, आज प्रज्ञा आली नाही’कुणीतरी म्हणालं सुद्धा! इतक्यात आमच्यापैकी एकाला थोडं चक्करल्या सारखं वाटलं म्हणून तासाभराच्या चढाईनंतर आम्ही तिथूनच मागे फिरण्याचा निर्णय घेतला.
का कुणास ठाऊक, आजची मोहीम अर्धी सोडल्याच्या दु:खापेक्षा मनात सुटकेचा नि :श्वासच जास्त होता.आम्ही पाच सहा जण परत हॉटेल वर आलो. मग शेकोटीच्या भोवती बसून गरम गरम मसाला चहा पित गप्पा मारु लागलो.आता हवा छान होती. गोक्यो तलावाच्या निळयाशार प्रवाहाला चारी बाजुनी गोठलेल्या पांढर्याशुभ्र हिमप्रवाहांची पार्श्वभूमी उठाव देत होती. तळ्यात काही बदके पोहत होती. आमच्यापैकी ज्या लोकानी सकाळी ट्रेकला जायचे टाळले ते तळ्याभोवती फेरी मारायला गेले. आम्ही मात्र खिडकीच्या काचेतून आत येणारे ऊन खात निवांत गप्पा छाटत बसलो. दोन तासात एक एक करत इतर मंडळी येऊ लागली. डायनिंग हॉल गजबजू लागला. सगळे आले की न्याहरी करण्याचा विचार होता. गरम पाणी पीत, तलावाची शोभा बघत आम्ही खिडकीपाशी बसलो होतो आणि अचानक खाली काही धावपळ जाणवली. काय झाले आहे हे नीट कळले नाही पण आमचे शेर्पा मदतनीस, ग्रुपमधील तज्ञ डॉक्टरना बोलावण्याकरता आले. क्षणभरात पळापळ झाली.कोणालातरी काही त्रास होतो आहे असे कळले.ग्रुपमध्ये प्रत्येक क्षेत्रातील नामवंत डॉक्टर होते. सगळेच धावत त्या ठिकाणी पोहोचले. क्षणभरात सगळे वातावरणच बदलले….आमची मैत्रीण मृत्यूशी झुंज देत होती. इतक्या उंचीवरच्या गावातील वैद्यकीय सुविधा किती अपुर्या असतात याची त्यावेळी सगळ्याना जाणीव झाली. तरी सगळ्या डॉक्टर मित्र मैत्रिणींनी चार तास शर्थीचे प्रयत्न केले. होती नव्हती ती सर्व औषधे, उपचार केले गेले. लुक्ला गावावरुन काही मदत मिळू शकेल का, यासाठी प्रचंड फोनाफोनी झाली. पण निसर्गानेही असहकार पुकारला होता. आभाळात ढग दाटू लागले. अशा वातावरणात हेलिकॉप्टर तिथवर पोहोचणे कठीण झाले. आम्ही तिच्या इतके निकट असूनही आमची ही मैत्रीण केव्हाच आम्हाला सोडून अनंतात विलीन झाली होती…..
सगळे सुन्न झालो होतो….
सगळ्यानाच जबरदस्त धक्का बसला होता. शब्द आणि अश्रू थिजले होते. बराच काळ भयाण सुन्नतेत गेला. मग भावनांचे आणि विचारांचे काहूर माजले….
“असं झालं असतं तर…असं केलं असतं तर..” याचं युद्ध प्रत्येकाच्या मनात चालू झालं…..आता कशाचाच काही उपयोग नव्हता….काळाने अत्यंत आकस्मिकपणे आम्हा सगळ्यांवर हा प्रहार केला होता..
खिडकीबाहेर आभाळही गच्च दाटून आले होते. त्या दिवशी तिथून कोणालाही हलणे शक्य नव्हते.
“पराधीन आहे जगती पुत्र मानवाचा…दोष ना कुणाचा….” ग.दिंचे शब्द मनात घोळवत जड अंत: करणाने आमची ही यात्रा अर्ध्यावर सोडून आम्ही परत फिरण्याचा निर्णय घेतला…
समाप्त
लेखिका : डॉ. सुप्रिया वाकणकर.
संग्राहिका : स्नेहलता गाडगीळ
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
अंधश्रद्धांचं पीक जगभर उगवतं, वारेमाप वाढतं ! त्याला एक सुद्धा देश अपवाद नाही.
ग्रीक-रोमन संस्कृतीत १३ हा आकडा बिचारा फुटक्या नशिबाचा आहे. अशुभ आहे. घातकी आहे. कृतघ्न आहे. सर्व घाणेरडी बिरुदं चिकटलेला हा १३ ! पूर्वीच्या काळाचं सोडा, अगदी आजही हजारो युरोपियन्स्, ख्रिश्चन्स् या १३ ला टरकून असतात ! आकडे मोजतांना, नंबरिंग करतांना १२ नंतर एकदम १४ मोजतात !! १२ बिस्किटं खाऊन झाल्यावर १३ वं न खाता एकदम १४ वं खातात. सगळाच खुळ्यांचा बाजार !
या १३ आकड्याच्या भीतीला म्हणतात Triskaidekaphobia!
ट्रिस्कायडेकाफोबिया !! … हुश्श्श् !!
😄
१३ तारीख अगदी टाकावू– कोणतीही कामे करण्यास. लढाया, अवजड उद्योग यांचा मुहूर्त ठरवतांना १३ तारीख येत नाही ना हे कांटेकोरपणे पाहिलं जातं. त्यासाठी इतर अडचणी पत्करल्या जातात.
१३ तारखेच्या या टरकूपणाला नांव आहे –
Paraskevi Dekatria Phobia
पॅरस्केविडकॅट्रियाफोबिया !! …
हुश्श्श्श्श्श्श्श्श् !! (शची संख्या वाढल्येय् इकडे कृपया लक्ष असावे, ही विनंती ! 😄 )
युरोपातल्या इमारतींच्या लिफ्टमधून मजल्यांचे आकडे तर दिसतातच, त्यात १३च्या जागी रक्ताळलेल्या हृदयाचे चित्र काढलेले असते !
विमानांच्या हॅंगर्सना नंबर देतांना ११, १२, १२-A, १४, १५ असे दिले जातात.
असे किती प्रकार ! आपल्याकडे सुद्धा अनेक ठिकाणी राजकारण्याच्या अनेक कामांत आकड्यांची गिनती सोईनुसार सोडली जाते. पण ती अंधश्रद्धा नव्हे. गणपतीच्या सहस्रनामपूजेत अनेक भटजीबुवा एक सोडून एक नांव वाचतात ! ही पण अंधश्रद्धा नव्हे ! याला म्हणतात बेरक्यांचा इरसालपणा … !!
असो. चालायचंच !
आणि १३ तारीख शुक्रवारी येत असेल तर अति अति वाईट !
मागच्या शुक्रवारी नेमकी १३ तारीख होती ! १३ एप्रिल २०२२. जे अंधश्रद्धेला न हसता घरीच बसले, कोणतंही काम केलं नाही, नवीन काम काढलं नाही. घराबाहेर पडले नाहीत – त्यांनी शुक्रवार घरच्या घरीच मनमुरादपणे साजरा केला … त्याचा काठोकाठ आनंद लुटला …अंधश्रद्धा मातेचा विजय असो … ॥