हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 92 – गीत – नील झील से नयन तुम्हारे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – नील झील से नयन तुम्हारे…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 92 – गीत – नील झील से नयन तुम्हारे…✍

नील झील से नयन तुम्हारे

जल पांखी सा मेरा मन है।

 

संशय की सतहों पर तिरते  जलपांखी का मन अकुलाया। संकेतों के बेहद देखकर

नील-झील के तट तक आया।

 

 दो  झण हर तटवर्ती को लहर नमन करती है लेकिन-

 

 गहराई का गांव अजाना मजधारों के द्वार बंद है ।

शव सी ठंडी हर घटना पर अभियोजन के आगिन छंद है।

संबंधों की सत्य कथा को

इष्ट तुम्हारा संबोधन है।

*

 कितनी बार कहा- मैं हारा लेकिन तुम अनसुनी किए हो। डूब डूब कर उतर आता हूं संदेशों की सांस दिए हो।

 

वैसे तो संयम की  सांकल चाहे जब खटका दूं लेकिन-

कूला कूल लहरों पर क्या वश जाने कब तटस्थता वर ले। वातावरण शरण आया है -एक सजल समझौता कर लें-

 

 बहुवचनी हो पाप भले ही किंतु प्रीति का एकवचन है।

*

मैं कदंब की नमीत डाल सा सुधियों की जमुना के जल में।

देख रहा हूं विकल्प तृप्ति को अनुबंधों के कोलाहल में।

 

आशय  का अपहरण अभी तक

कर लेता खुद ही लेकिन

 

 विश्वासों के बिंब विसर्जित आकांक्षा के अक्षत-क्षत हैं रूप शशि का सिंधु समेंटे  सम्मोहन हत लोचन लत हैं। दृष्टि क्षितिज में तुम ही तुम हो दरस की जैसे वृंदावन हैं ।

 

नील झील से नयन तुम्हारे

जल पाखी सा मेरा मन है।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 94 – “कालजयी-आराधन…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “कालजयी-आराधन …”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 94 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “कालजयी-आराधन”|| ☆

क्या -क्या सम्हालते

 

कितनी ही यादों के-

विनती-फरियादों के

पाँवों में लगे – लगे

सूख गये आलते

 

रीत गये संसाधन कालजयी आराधन

वक्ष की उठानों के

बिम्ब कई सालते

 

घुँघराले बालों के

इतर रखे आलों के

पूरब के राग सभी

पश्चिम में ढालते

 

कंगन पानी -पानी

चिन्तित है रजधानी

और क्या नया किस्सा

आँखों में पालते

 

शीशे के बने हुये

चंदोबे तने हुये

परदों में रेशम की

डोर कभी डालते

 

रानी पटरानी सब

लाल हरी धानी सब

सहम गई शाम कहीं

दीपक को बालते

 

चित्त के चरित्र सभी

अपनो के मित्र सभी

तसवीरों में शायद

खुदको सम्हालते

 

भोर क्या हुई सहमी

ठहरी गहमा -गहमी

दूर नहीं हो पाये

आपके मुगालते

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

12-06-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 9 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 9 ??

वस्तुत: इस्लाम के अनुयायी आक्रमणकारियों के देश में पैर जमाने के बाद सत्तालिप्सा, प्राणरक्षा, विचारधारा आदि के चलते धर्म परिवर्तन बड़ी संख्या में हुआ। स्वाभाविक था कि इस्लाम के धार्मिक प्रतीक जैसे धर्मस्थान, दरगाह और मकबरे बने। आज भारत में स्थित दरगाहों पर आने वालों का डेटा तैयार कीजिए। यहाँ श्रद्धाभाव से माथा टेकने आने वालों में अधिक संख्या हिंदुओं की मिलेगी। जिन भागों में मुस्लिम बहुलता है, स्थानीय लोक-परंपरा के चलते वहाँ के इतर धर्मावलंबी, विशेषकर हिंदू बड़ी संख्या में रोज़े रखते हैं, ताज़िये सिलाते हैं। भारत के गाँव-गाँव में ताज़ियों के नीचे से निकलने और उन्हें सिलाने में मुस्लिमेतर समाज कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहता है। लोक से प्राणवान रहती इसी संस्कृति की छटा है कि अयोध्या हो या कोई हिंदुओं का कोई अन्य प्रसिद्ध मंदिर, वहाँ पूजन सामग्री बेचने वालों में बड़ी संख्या में मुस्लिम मिलेंगे। हर घट में राम देखने वाली संस्कृति अमरनाथ जी की पवित्र गुफा में दो पुजारियों में से एक हिंदू और दूसरा मुस्लिम रखवाती है। भारत में दीपावली कमोबेश हर धर्मावलंबी मनाता है। यहाँ खचाखच भरी बस में भी नये यात्री के लिए जगह निकल ही आती है। ‘ यह जलेबी दूध में डुबोकर खानेवालों का समाज है जनाब, मिर्चा खाकर मथुरा पेड़े जमाने वालों का समाज है जनाब।’

इतिहास गवाह है कि धर्म-प्रचार का चोगा पहन कर आईं मिशनरियाँ, कालांतर में दुनिया भर में धर्म-परिवर्तन का ‘हिडन’ एजेंडा क्रियान्वित करने लगीं। प्रसिद्ध अफ्रीकी विचारक डेसमंड टूटू ने लिखा है, When the missionaries came to Africa, they had the Bible and we had the land. They said “let us close our eyes and pray.” When we opened them, we had the Bible, and they had the land.     भारत भी इसी एजेंडा का शिकार हुआ था। अलबत्ता शिकारी को भी वत्सल्य प्रदान करने वाली भारतीय लोकसंस्कृति की सस्टेनिबिलिटी गज़ब की है। इतिहास डॉ. निर्मलकुमार लिखते हैं, ‘.इसके चलते जिस किसी आक्रमणकारी आँख ने इसे वासना की दृष्टि से देखा, उसे भी इसनी माँ जैसा वात्सल्य प्रदान किया। यही कारण था कि धार्मिक तौर पर जो पराया कर दिये गये, वे  भी  आत्मिक रूप से इसी नाल से जुड़े रहे। इसे बेहतर समझने के लिए झारखंड या बिहार के आदिवासी बहुल गाँव में चले जाइए। नवरात्र में देवी का विसर्जन ‘मेढ़ भसावन‘ कहलाता है। विसर्जन से घर लौटने के बाद बच्चों को घर के बुजुर्ग द्वारा मिश्री, सौंफ, नारियल का टुकड़ा और कुछ पैसे देेने की परंपरा है। अगले दिन गाँव भर के घर जाकर बड़ों के चरणस्पर्श किए जाते हैं। आशीर्वाद स्वरूप बड़े उसी तरह मिश्री, सौंफ, नारियल का टुकड़ा और कुछ पैसे देते हैं। उल्लेखनीय है कि यह प्रथा हिंदू, मुस्लिम, ईसाई या आदिवासी हरेक पालता है। चरण छूकर आशीर्वाद पाती लोकसंस्कृति धार्मिक संस्कृति को गौण कर देती है। बुद्धिजीवियों(!) के स्पाँसर्ड टोटकों से देश नहीं चलता। प्रगतिशीलता के ढोल पीटने भर से दकियानूस, पक्षपाती एकांगी मानसिकता, लोक की समदर्शिता ग्रहण नहीं कर पाती। लोक को समझने के लिए चोले उतारकर फेंकना होता है।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 141 ☆ रिकवरी और ‘गुड़ -गुलगुले’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय एवं विचारणीय संस्मरण रिकवरी और ‘गुड़ -गुलगुले’”।)  

☆ संस्मरण  # 141 ☆ रिकवरी और ‘गुड़ -गुलगुले’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

प्रमोशन होकर जब रुरल असाइनमेंट के लिए एक गांव की शाखा में पोस्टिंग हुई,तो ज्वाइन करते ही रीजनल मैनेजर ने रिकवरी का टारगेट दे दिया, फरमान जारी हुआ कि आपकी शाखा एनपीए में टाप कर रही है और पिछले कई सालों से राइटआफ खातों में एक भी रिकवरी नहीं की गई, इसलिए इस तिमाही में राइट आफ खातों एवं एनपीए खातों में रिकवरी करें अन्यथा कार्यवाही की जायेगी ।

ज्वॉइन करते ही रीजनल मैनेजर का प्रेशर, और रिकवरी टारगेट का तनाव। शाखा के राइट्सआफ खातों की लिस्ट देखने से पता चला कि शाखा के आसपास के पचासों गांव में आईआरडीपी (IRDP – Integrated Rural Development Programme – एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम) के अंतर्गत लोन में दिये गये गाय भैंसों के लोन में रिकवरी नहीं आने से यह स्थिति निर्मित हुई थी। अगले दिन हम राइट्स आफ रिकवरी की लिस्ट लेकर एक गांव पहुंचे। कोटवार के साथ चलते हुए  एक हितग्राही रास्ते में टकरा गया।  हितग्राही  गुड़ लेकर जा रहा था, कोटवार ने बताया कि इनको आपके बैंक से दो गाय दी गईं थी। हमने लिस्ट में उनका नाम खोजा और उनसे रिक्वेस्ट की आज किसी भी हालत में आपको लोन का थोड़ा बहुत पैसा जमा करना होगा।

….हम लोग वसूली  के लिए दर बदर चिलचिलाती धूप  में भटक रहे है और आप गुड -गुलगुले खा रहा है ….बूढा बोला …बाबूजी गाय ने  बछड़ा  जना  है गाय के लाने सेठ जी से दस रूपया मांग के 5 रु . का गुड  लाये है…. जे  5 रु. बचो  है लो जमा कर लो …..

लगा ..किसी ने जोर से तमाचा जड़ दिया हो, अचानक रीजनल मैनेजर की डांट याद आ गई, मन में तूफान उठा, रिकवरी के पहले प्रयास में पांच रुपए का अपमान नहीं होना चाहिए, पहली ‘बोहनी’ है और हमने उसके हाथ से वो पांच रुपए छुड़ा लिए …..

बूढ़े हितग्राही ने कातर निगाहों से देखा, हमें दया आ गई, कपिला गाय और बछड़े को देखने की इच्छा जाग्रत हो गई, हमने कहा – दादा हम आपके घर चलकर बछड़ा देखना चाहते हैं। कोटवार के साथ हम लोग हितग्राही के घर पहुंचे, कपिला गाय और उसके नवजात बछड़े को देखकर मन खुश हो गया, और हमने जेब से पचास रुपए निकाल कर दादा के हाथ में यह कहते हुए रख दिए कि हमारी तरफ से गाय को पचास रुपए का और गुड़ खिला देना, और हम वहां से अगले डिफाल्टर की तलाश में सरक लिए …..

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 85 ☆ # बारिश की याद आती है # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# बारिश की याद आती है #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 85 ☆

☆ # बारिश की याद आती है # ☆ 

भीषण गर्मी में

‘ लू ‘ के थपेड़े

भटक रहे सब

सर को ओढ़े

तपन, जब

तनको झुलसाती है

तब बारिश की याद आती है

 

दिनभर चिलचिलाती धूप है

पसीना बहाती खूब है

छांव भी,जब तरसाती है

तब बारिश की याद आती है

 

गर्मी में लगती कितनी प्यास है

शीतल जल की मनमे आस है

प्यास, जब पल पल तड़पाती है

तब बारिश की याद आती है

 

पशु-पक्षी तृष्णा के मारे

जल के लिए है व्याकुल सारे

कभी कभी जल बिन

जब परिंदों को मौत आती है

तब बारिश की याद आती है

 

प्यासी धरती तड़प रही है

प्रियत्तम से मिलने धड़क रही है

वर्षा की फुहारें,

जब धरती में समाती है

तब बारिश की याद आती है /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ रामचरित मानस में लोकतंत्र के सिद्धान्तों का प्रतिपादन॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ रामचरित मानस में लोकतंत्र के सिद्धान्तों का प्रतिपादन ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

महात्मा तुलसी दास विरचित ‘रामचरित मानसÓ एक काल जयी अनुपम रचना है। विश्व साहित्य की अमर धरोहर है जो लोकमंगल की भावना से ओतप्रोत, भटकी हुई मानवता को युगों युगों तक मार्गदर्शन कर जन जीवन के दुख दूर करने में प्रकाश-स्तंभ की भाँति दूर दूर तक अपनी किरणें बिखेरती रहेगी। महाभारत के विषय में यह लोकोक्ति है कि-

जो महाभारत में नहीं है वह संसार में भी नहीं है

अर्थात्ï महाभारत में वह सभी वर्णित है जो संसार में देखा सुना जाता है। यही बात रामचरित मानस के लिये भी सच मालूम होती है। मनुष्य के समस्त व्यापार, विकार और मनोभावों का चित्रण मानस में दृष्टिगोचर होता है और उसका प्रस्तुतीकरण ऐसा है जो एक आदर्श प्रस्तुत कर बुराइयों से बचकर चलने का मार्गदर्शन करता है। संसार में मानव जाति ने विगत 100 वर्षों में बेहिसाब वैज्ञानिक व भौतिक प्रगति कर ली है किन्तु मानवीय मनोविकार जो जन्मजात प्रकृति प्रदत्त हैं ज्यों के त्यों हैं। इन्हीं के कारण मानव मानव से प्रेम भी होता है और संघर्ष भी। मानस में पारिवारिक सामाजिक राजनैतिक, भौतिक, आध्यात्मिक क्षेत्रों से संबंधित परिस्थितियों में मनुष्य का आदर्श व्यवहार जो कल्याणकारी है कैसा होना चाहिए इसका विशद विवेचन है। इसीलिए यह ग्रंथ साहित्य का चूड़ामणि है और न केवल भारत में बल्कि विश्व के अन्य देशों में भी सभी धर्माविलिम्बियों द्वारा पूज्य है।

राजनैतिक क्षितिज पर आज लोकतंत्र की बड़ी चमक है। दुनियाँ के कुछ गिने चुने थोड़े से देशों को छोडक़र सभी जगह लोकतंत्रीय शासन प्रणाली का बोल बाला है। क्यों? -कारण बहुत स्पष्ट है। मानव जाति ने अनेकों सदियों के अनुभव से यही सीखा है कि किसी एक राजा या निरंकुश अधिनयाक के द्वारा शासन किये जाने की अपेक्षा जनता का शासन जनता के द्वारा ही जनता के हित के लिए किया जाना बहुत बेहतर है क्योंकि किसी एकाकी के दृष्टिकोण और विचार के बजाय पाँच (पंचों) का सम्मिलित सोच अधिक परिष्कृत और हितकारी होता है। इसीलिए जनतंत्र में जनसाधारण की राय (मत) का अधिक महत्व होता है और उसे मान्यता दी जाती है।

तुलसी दास के युग में जब उन्होंने मानस की रचना की थी जनतंत्र नहीं था तब तो एकमात्र एकतंत्रीय शासन था जिसमें राजा या बादशाह सर्वेसर्वा होता था। उसका आदेश ईश्वर के वाक्य की तरह माना जाता था। सही और गलत की विवेचना करना असंभव था। तब भी अपने परिवेश की भावना से हटकर दूरदर्शी तुलसी ने कई सदी बाद प्रचार में आने वाली शासन प्रणाली ‘जनतंत्रÓ की भावना को आदर्श के रूप में प्रतिपादित किया है। मानस के विभिन्न पात्रों के मुख से विभिन्न प्रसंगों में तुलसी ने अपने मन की बात कहलाई है जो मानस के अध्येता भली भाँति जानते हैं और पढक़र भावविभोर हो सराहना करते नहीं थकते।

जनतंत्रीय शासन प्रणाली के आधारभूत स्तंभ जिनपर जनतंत्र का सुरम्य भवन निर्मित है, ये हैं- (1) समता या समानता, (2) स्वतंत्रता, (3) बंधुता या उदारता और (4) न्याय अथवा न्यायप्रियता। इन चारों में से प्रत्येक क्षेत्र की विशालता और गहनता की व्याख्या और विश्लेषण करके यह समझना कि समाज में जनतंत्र प्रणाली ही अपनाये जाने पर प्रत्येक शासक और नागरिक के व्यवहारों की सरहदें और मर्यादा क्या होनी चाहिए, रोचक होगा किन्तु चूँकि इस लेख का उद्ïदेश्य मानस में लोकतंत्रीय भावनाओं का पोषण निरुपित करना है इसलिए विस्तार को रोककर समय सीमा का ध्यान रखते हुए विभिन्न क्षेत्रों में रामचरित मानस से उदाहरण मात्र प्रस्तुत करके संतोष करना ही उचित होगा।

सुधी पाठकों का ध्यान नीचे दिये प्रसंगों की ओर इसी उद्ïदेश्य से, केन्द्रित करना चाहता हूँ।

श्री राम का परशुराम से निवेदन-

छमहु चूक अनजानत केरी, चहिय विप्र उर कृपा घनेरी॥ 

अयोध्या काण्ड 281/4

श्री राम का सोच-

विमल वंश यहु अनुचित एकू, बंधु बिहाय बड़ेहि आभिषेकू॥

अयोध्या काण्ड 7/7

दशरथ जी का जनमत लेकर कार्य करना-

जो पांचहि मत लागे नीका, करहुँ हरष हिय रामहिं टीका॥

अयोध्या काण्ड 4/3

भरत का लोकमत लेकर कार्य करना-

तुम जो पाँच मोर भल मानी, आयसु आशिष देहु सुबानी।

जेहि सुनि विनय मोहि जन जानी आवहिं बहुरि राम रजधानी॥

अयोध्या काण्ड 182/4

चित्रकूट से वापस न होकर श्री राम का भरत से कथन-

इसी प्रकार शबरी मिलन, अहिल्योद्धार, विभीषण को शरणदान, सागर से मार्ग देने हेतु विनती आदि और ऐसे ही अनेकों प्रसंगों में विनम्रता, दृढ़ता, समता, सहजता, स्पष्ट वादिता, उदारता, नीति और न्याय की जो लोकतंत्र के आधारभूत सिद्धान्त हैं और जो जनतंत्र को पुष्टï करते हैं तथा राजा/राजनेता को जनप्रिय बनाते है बड़ी सुन्दर अभिव्यक्ति की गई हैं। इन्हीं आदर्शों को अपनाने में जन कल्याण है।

इसीलिए मानस सर्वप्रिय, सर्वमान्य और परमहितकारी जन मानस का कंठहार बन गयाहै।

अब्दुर्रहीम खान खाना ने जिसकी प्रशंसा में लिखा है-

रामचरित मानस विमल, सन्तन जीवन-प्राण।

हिन्दुआन को  वेदसम, यवनहिं प्रगट कुरान॥

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १३ जून – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? ई-अभिव्यक्ती -संवाद ☆ १३ जून -संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

आचार्य प्रल्हाद केशव अत्रे  (13 ऑगस्ट 1898 – 13 जून 1969)

महाराष्ट्रात, जी बहुगुणी, बहुआयामी व्यक्तिमत्वं होऊन गेली, त्यामधे आचार्य प्र. के. अत्रे हे एक महत्वाचे नाव. ते शिक्षणतज्ज्ञ होते. क्रमिक पुस्तकांचे निर्माते होते.  कवी-लेखक होते. उत्तम वक्ते होते. खंदे पत्रकार होते. राजकारणी होते. लोकप्रीय नाटककार होते. चित्रपट निर्माते होते. ‘हात लावीन तिथे सोनं’ म्हणता येईल, अशी प्रत्येक क्षेत्रातली  त्यांची कारकीर्द होती. त्यांच्याच शब्दात त्यांचं वर्णन करायचं झालं, तर म्हणता येईल, ‘असा महापुरुष गेल्या दहा हजार वर्षात झाला नाही आणि पुढची दहा हजार वर्षे होणार नाही.’

आचार्य अत्रे यांची सुरुवातीची कारकीर्द अध्यापनाची आहे. त्यांनी कॅंप एज्यु. सोसायटी हायस्कूलमधे मुख्याध्यापक म्हणून काम केले. ही तळा-गाळातली शाळा त्यांनी नावा-रूपाला आणली. त्यांनी मुलांसाठी राजा धनराज गिरजी हायस्कूल व मुलींसाठी आगरकर हायस्कूल या शाळा काढल्या. प्राथमिक विभागासाठी ‘नवयुग वाचन माला’ व माध्यमिक विभागासाठी ‘अरुण वाचन माला’ ही क्रमिक पुस्तके तयार केली. त्यापूर्वी असलेल्या पाठ्यपुस्तकातून मुलांच्या वयाचा विचार केलेला नसे. अत्रे यांनी मुलांचे वय, आवडी-नावाडी, अनुभव विश्व विचारात घेऊन पाठ्य पुस्तके तयार केली. त्यामुळे ती सुबोध आणि मनोरंजक झाली. शिक्षण क्षेत्राला त्यांचे हे महत्वाचे योगदान आहे.         

आचार्य अत्रे  यांनी मुंबईसह संयुक्त महाराष्ट्राच्या चळवळीचे नेतृत्व केले. त्यांची वाणी आणि लेखणी दमदार, धारदार होती. त्याला विनोदाचे अस्तर असायचे. त्यामुळे त्यांचे लेखन आणि भाषण दोन्हीही लोकप्रिय झाले. त्यांनी अध्यापन, रत्नाकर, मनोरमा, नवे अध्यापन, इलाखा शिक्षक ही मासिके, नवयुग हे साप्ताहिक, जयहिंद हे सांज दैनिक सुरू केले. १९५६ साली त्यांनी मराठा हे दैनिक सुरू केले. ते खूपच लोकप्रिय झाले.

आचार्य अत्रे  यांच्या  चांगुणा, मोहित्यांचा शाप, या कादंबर्या , अशा गोष्टी अशा गमती, फुले आणि मुले हे कथासंग्रह,  गीतगंगा आणि झेंडूची फुले हे कविता संग्रह प्रकाशित झालेत. झेंडूची फुले हा कविता संग्रह म्हणजे त्या काळी लिहिल्या गेलेल्या काही सुप्रसिद्ध कवितांची विडंबने आहेत. काव्यक्षेत्रात या कविता म्हणजे त्यांनी चोखाळलेली एक वेगळीच वाट आहे. त्यानंतरही अशा प्रकारचे लेखन क्वचितच कुठे दिसले. ‘मी कसा झालो’ आणि कर्हेहचे पाणी ( खंड १ ते ५) ही त्यांची आत्मचरित्रात्मक पुस्तके. याशिवाय अत्रे यांनी, अत्रेटोला, केल्याने देशातन, दुर्वा आणि फुले, मुद्दे आणि गुद्दे अशी आणखी इतरही पुस्तके लिहिली. 

आचार्य अत्रे  यांची नाटकेही गाजली. त्यात भ्रमाचा भोपळा, कवडी चुंबक, मोरूची मावशी, साष्टांग नमस्कार यासारखी विनोदी नाटके होती, तर उद्याचा संसार, घराबाहेर, लग्नाची बेडी, तो मी नव्हेच, प्रीतिसंगम, डॉ. लागू यासारखी गंभीर नाटकेही होती.

आचार्य अत्रे यांच्या प्रतिभेचा आविष्कार चित्रपट सृष्टीतही झालेला दिसून येतो. नारद-नारदी, धर्मवीर, प्रेमवीर, ब्रॅंडीची बाटली, बेगुनाह ( हिन्दी) इ. चित्रपटांच्या कथा त्यांनी लिहिल्या. नयुग पिक्चर्स तर्फे लपंडाव, श्यामची आई हे चित्रपट काढले. त्यांचे दिग्दर्शन त्यांनी केले. यापैकी श्यामची आईला राष्ट्रपतींच्या हस्ते ‘सुवर्ण कमळ मिळाले. ‘सुवर्ण कमळ मिळवणारा हा पहिलाच मराठी चित्रपट. त्यांच्या चित्रपट सृष्टीच्या झगमगत्या कारकिर्दीत आणखी एक मानाचा तुरा खोचला गेला.

पुरस्कार, सन्मान, गौरव

विष्णुदास भावे या सांगलीयेथील नाट्यसंस्थेतर्फे त्यांना १९६० साली भावे गौरव सुवर्ण पदक मिळाले. पण अत्रे यांचे वैशिष्ट्य असे की अनेक संस्था अत्रे यांच्या नावे पुरस्कार देतात.

अशोक हांडे, ‘अत्रे अत्रे सर्वत्रे’ हा अत्रे यांची संगीतमय जीवनकथा सांगणारा कार्यक्रम करत. तर सदानंद जोशी हे ‘मी अत्रे बोलतोय’, हा एकपात्री प्रयोग करत.  

अत्र्यांची लोकप्रियता एवढी होती की त्यांच्या निधंनांनंतर त्यांच्या स्मृतीप्रीत्यर्थ अनेक गावी अनेक वेगवेगळ्या संस्था काढल्या गेल्या. अत्रे कट्टा, अत्रे संस्कृतिक मंडळ, अत्रे नाट्यगृह,  अत्रे कन्याशाळा, अत्रे विकास प्रतिष्ठान, अत्रे सास्कृतिक भवन अशा अनेक संस्था त्यांच्या नावे निघाल्या. वरळी आणि सासवड इथे त्यांचा भाव्य पुतळा उभारलेला आहे. 

अत्रे यांच्यावर अनेक पुस्तकेही लिहिली गेली. दिलीप देशपांडे, सुधाकर वढावकर, शिरीष पै, सुधीर मोर्डेकर, आप्पा परचुरे, श्याम भुर्के इ.नी त्यांच्यावर पुस्तके लिहिली आहेत.

आज अत्रे यांचा स्मृतीदिन. त्या निमित्त या अष्टपैलू प्रतिभावंताला शतश: अभिवादन! ? 

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, गूगल विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ शोध… ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक ☆

श्रीमती अनुराधा फाटक

? कवितेचा उत्सव ?

☆ शोध … ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक ☆ 

सागराला भेटण्याच्या ओढीने

त्याच्या मनाचा तळ शोधत

त्यात आपलं मन गुंतवत

 कित्येक वर्षाच्या तपश्चर्येने

नदी झेपावली

उंच कड्यावरून उड्या मारत

अंतरात काटेसराटे साठवत

विरहाचं अंतर कापत कापत

अखेर ती पोचली

सागर किनाऱ्याजवळ

सागरानं तिला आपल्यात घेतलं

आणि

तिचं नदीपण संपूनच गेलं

आता ती स्वतःला शोधते आहे

आपल्याच उगमाजवळ..!

© श्रीमती अनुराधा फाटक

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मनाचे श्लोक (निवडक) ☆ आचार्य प्रल्हाद केशव अत्रे ☆

आचार्य प्रल्हाद केशव अत्रे

?  कवितेचा उत्सव ? 

☆ मनाचे श्लोक (निवडक) ☆ आचार्य प्रल्हाद केशव अत्रे ☆

मना,नीट पंथे कधीही न जावे

नशापाणी केल्याप्रमाणे चलावे

जरी वाहने मागुनी  कैक येती

कधी ना तरी सोडिजे शांतवृत्ती!

           *      *   *

सदा खाद्यपेयावरी हात मारी

बिले देई सारून मित्रासमोरी

“अरेरे,घरी राहिले आज पैसे-“

खिसे चाचपोनी मना बोल ऐसे !

          *        *   *

इथे पायगाडी तिथे वाद्यपेटी

इथे पुस्तके वा तिथे हाथकाठी

अशी सारखी भीक मागीत जावे,

स्वताचे न काही जगी बाळगावे !

          *      *   *

जिथे चालल्या खाजगी कानगोष्टी

उभी आणि धेंडे जिथे चार मोठी,

मना,कान दे तोंड वासून तेथे,

पहा लागतो काय संबंध कोठे !

          *       *   *

 – आचार्य प्रल्हाद केशव अत्रे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे #84 ☆ आयुष्याच्या वाटेवर… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 84 ? 

☆ आयुष्याच्या वाटेवर… ☆

आयुष्याच्या वाटेवर, हसून खेळून जगावे

आयुष्याच्या वाटेवर, जीवन गणित पहावे..!!

 

आयुष्याच्या वाटेवर, खाच खळगे असतील

आयुष्याच्या वाटेवर, ठेचा खूप लागतील..!!

 

आयुष्याच्या वाटेवर, मित्र शत्रू बनतील

आयुष्याच्या वाटेवर, साथ सर्व सोडतील..!!

 

आयुष्याच्या वाटेवर, सिंहावलोकन करावे

आयुष्याच्या वाटेवर, वाईट सर्व सोडावे..!!

 

आयुष्याच्या वाटेवर, आपलेच आपण बनावे

आयुष्याच्या वाटेवर, स्वतः स्वतःचे डोळे पुसावे..!!

 

आयुष्याच्या वाटेवर, पुन्हा वळण नसते

आयुष्याच्या वाटेवर, आठवण फक्त उरते..!!

 

आयुष्याच्या वाटेवर, श्रीकृष्ण फक्त स्मरावा

आयुष्याच्या वाटेवर, राज-योग मिळावा..!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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