हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 114 ☆ गीत – आँसू तुम हो सरलम निश्छल… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 114 ☆

☆ गीत – आँसू तुम हो सरलम निश्छल… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

आँसू तुम हो सरलम निश्छल

झरना – सा बह जाते हो।

प्रेम उमड़ता जब आँखों में

जाने क्या कह जाते हो।।

 

कभी दिव्यता की सुधियों में

कभी क्रोध की ज्वाला बन

जीवन की सच्चाई तुम हो

कभी हँसे तुम ग्वाला बन

 

श्रद्धा के तुम पुष्प सुगंधित

पीर यूँ ही सह जाते हो।

प्रेम उमड़ता जब आँखों में

जाने क्या कह जाते हो।।

 

तन्हाई में दीवारों से

क्या – क्या बातें चलती हैं

कभी ईश को करते अर्पण

कभी शाम – सी ढलती हैं

 

तुम हो नदियों जैसे पावन

सागर में मिल जाते हो।

प्रेम उमड़ता जब आँखों में

जाने क्या कह जाते हो।।

 

मीत कभी तो कभी प्रीत हो

यादों के तारे बनकर

सागर – सा तुम बहे निरन्तर

भूली – बिसरी धुन सुनकर

 

शेष बचा क्या, सब है तर्पण

राह नई दिख लाते हो।

प्रेम उमड़ता जब आँखों में

जाने क्या कह जाते हो।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में नारी आदर्श सीता – भाग – 1 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में नारी आदर्श सीता – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

श्री सीता रामाभ्याम् नम:

“चारों वेद पुरान अष्टदश, छहों शास्त्र सब ग्रन्थन को रस” जिसमें है उस रामचरित मानस के रचियता कवि श्रेष्ठ तुलसीदास की विनम्रता तो देखिए-कहते हैं इस ग्रंथ की रचना उन्होंने केवल स्वान्त:-सुखाय की है। वास्तव में मानस एक ऐसा अनुपम और अद्भुत ग्रंथ है कि इसमें जिसका मानस जितनी गहरी डुबकी लगा सकता है उसे उतने ही रत्न मिल सकते हैं और उन रत्नों में जो आभा है वह बहुरंगी है जो दिनों दिन और उज्ज्वल होती जाती है। यह भक्त शिरोमणि महाकवि तुलसीदास के बस की ही बात है कि उन्होंने अपने अनन्य आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के शील और गुणों का वर्णन करते हुए ऐसी कथा धारा प्रवाहित की है कि जिसमें अवगाहन कर कौये, कोयल और बगुले, हंस बन जाते हैं-

काक होहिं पिक बकहि मराला ऐसा उनने स्वत: कहा है किन्तु अपने लिए कहते हैं कि-

कवि न होऊँ नहि वचन प्रबीनू, सकल कला सब विधाहीनू।

और  

भनिति भदेश, वस्तु भलि वरनी, राम कथा जग मंगल करनी।

इससे ही स्पष्ट है कि राम कथा की रचना-रामचरित मानस की रचना का उद्ïदेश्य लोग-मंगल ही अधिक है, आत्म मंगल कम।

यह तो सच है कि इसकी रचना की प्रेरणा उन्हें उनकी भगवान राम में अनन्त श्रद्धा, भक्ति और विश्वास से उपजी। साथ ही दैवी प्रेरणा से भी। किन्तु रचनाकार को सामायिक सामाजिक परिस्थितियाँ भी अभिव्यक्ति के लिए आधार अवश्य देती हंै और उनसे प्रभावित कवि हृदय अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति देता है।

जिस समय तुलसी दास जी थे भारत वर्ष में विधर्मियों का राज्य था। सीमित धनी सामंत वर्ग वैभव विलास में मस्त एक बड़े निर्धन वर्ग का शोषण कर रहा था। हिन्दु समाज उनसे त्रस्त था, बेसहारा था, दुखी था। तुलसीदास जी ने स्वत: गरीबी और उपेक्षा का दुख भोगा था तरह तरह के ‘दैहिक दैविक भौतिक ताप’ से पीडि़त समाज को एक ऐसी शक्ति और संबल की जरूरत थी जिससे दुखी जीवन को निराशा के अंधकार में आशा के प्रकाश की किरण मिल सके। अत: निर्गुण निराकार ब्रह्मï की उपासना की अपेक्षा उन्हें साकार, सबल, सरलहृदय, दुष्टों का दलन करने वाले, दीन-हीनों को प्रेम से गले लगाने वाले धुनर्धारी भगवान राम की भक्ति, जो सहज ही अधिक आकर्षक और आनंददायी है, को प्रतिपादित की, और भक्तवत्सल राम की मर्यादा,  पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिष्ठित प्रतिमा को जनमन में बैठा ‘निर्बल के बल राम’ का गुणगान किया, समाज को ढाढ़स बँधाया और आदर्श प्रस्तुत किया जो कालजयी है। और आज भी अनुकरणीय है और भविष्य में भी मानवता का पथप्रदर्शक बना रहेगा।

सिया-राम मय सब जग जानी करऊँ प्रणाम जोरि जुग पाणीÓ कहकर उन्होंने कण कण में घट घट में जगत्जननी सीता सहित भगवान श्री राम का निवास प्रतिपादित कर भगवान की भक्ति को ‘कलि मल हरनीÓ ‘संसय विहग उड़ावनहारीÓ सब भाँति हितकारी और एकमेव आश्रयस्थल प्रतिपादित किया है।

कहा है-

‘एक भरोसों एक बल एक आस विश्वास

श्याम सरोरुह राम घन चातक तुलसी दास’

इस पृष्ठ भूमि में यदि हम देखें तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम और जगत्जननी सीता के जीवन के माध्यम से जो आदर्श मानस में प्रस्तुत किये गये हैं वे मनमोहक, अजर अमर और युग युग जनहितकारी व कल्याणकारी हैं। वे 4-5 सौ वर्षों पूर्व के तत्कालीन समाज के लिये जितने अनुकरणीय थे, आज भी हैं, और शायद आज के तीव्र गति से पाश्चात्य विचार धारा से प्रभावित, परिवर्तन शील समाज में, जब हर क्षेत्र में अपने को मॉडर्न प्रदर्शित करने की लडक़े-लड़कियों में होड़ सी लगी है और भी अधिक प्रासंगिक और आवश्यक है। हमारी भारतीय संस्कृति को और इसकी मर्यादाओं को बनाये रखने में जिसकी प्रशंसा हमसे शायद अधिक विदेशी करते हैं और भौतिकता से ऊबकर आध्यात्मिकता की ओर आशाभरी दृष्टि से जोहते हैं।

भारतीय दर्शन में अद्र्ध नारीश्वर की अवधारणा है। व्यक्तित्व की पूर्णता पति-पत्नी की एकरूपता और समरसता में है और यही  दृष्टि गृहस्थ जीवन की कुशलता, सफलता और आनन्द के लिए आवश्यक है। नर और नारी एक दूसरे के लिए समर्पित हों तो सुख ही सुख है। इसलिए भारतीय मान्यता पत्नी को अद्र्धागिनी, सहधर्मिणी, गृहस्वामिनी का दर्जा देता है। पाश्चात्य मान्यता में इससे बहुत भिन्न है वे शायद अधिक से अधिक सहचरी व पर्यंंकï शायिनी मानते हैं। यदि नारी को पति की समर्पित अद्र्धागिनी, गृहस्वामिनी के रूप में प्रतिष्ठित होना है तो उसके लिए बचपन से उसकी वैसी ही ट्रेनिंग और तैयारी की जानी चाहिए तो उसका कोई आदर्श तो होना चाहिए। मानस में वह आदर्श सीता के जीवन चरित्र में मिलता है।

क्रमशः …

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – सौ. राधिका भांडारकर – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ सम्पादकीय निवेदन 

? ‘गारवा’  काव्य संग्रहाचा प्रकाशन ?

? सौ. राधिका भांडारकर  अभिनंदन ?

आपल्या समुहातील ज्येष्ठ लेखिका व कवयित्री राधिका भांडारकर यांचा‘गारवा’ हा काव्यसंग्रह नुकताच प्रकाशित झाला आहे.

? सौ. राधिका भांडारकर यांचे ई–अभिव्यक्तीतर्फे या नव्या पुस्तकाचे स्वागत व मनःपूर्वक अभिनंदन! ?

संपादक मंडळ

 ई-अभिव्यक्ती मराठी.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सरीवर सरी… ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर☆

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सरीवर सरी… ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

झांकोळले नभ

आला सोसाट्याचा वारा

गरजती मेघ

कशा कोसळती धारा

 

आल्या सरीवर सरी

वृक्ष वल्लरी भिजती

चिंब चिंब झाले रान

शेते वावरे डोलती

 

ओल्या मातीतला वास

भरे सुगंध श्वासात

वातावरणी गारवा

कुंद कुंद भासे रात

 

आली सागरा भरती

येती लाटांवर लाटा

झाले पाणी चहूकडे

दिसेनाश्या झाल्या वाटा

 

नद्या वाहती दुथडी

उड्या मारती निर्झर

वर्षाराणी नृत्य करी

थुई नाचतो मयूर

 

खिडकीत बसूनिया

झड मुखावरी घेऊ

पावसाचा हा धिंगाणा

डोळे भरूनिया पाहू

 

जाती घाटात पहाया

पावसाळ्याचा नज़ारा

जन ओलेचिंब होती

घेता अंगावरी धारा

 

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #113 – तुला पाहिले…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 113 – तुला पाहिले…!

 

तुला पाहिले अन् काळजात गलका झाला

हसताच गाली जीव हलका हलका झाला .

 

रांगेत उभा केव्हाचा, प्रेमात मी झुरणारा

डोळ्याला भिडता डोळा, स्वप्नांचा जलसा झाला.

 

रंगांची असते भाषा, माहित नव्हते काही

गालावर येता लाली, गुलाब कळता झाला.

 

हातात हात प्रेमाचा, नजरेची झाली भाषा

प्रेमाचा रंग नशीला, ह्रदयी वळता झाला.

 

झाले रूसवे फुगवे, मन मनांचे झाले

विश्वास सोबती येता,प्रवास सरता झाला.

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ बालकामगार निषेध दिनानिमित्त… भाग-1 ☆ सुश्री त्रिशला शहा ☆

सुश्री त्रिशला शहा

?  विविधा ?

☆ बालकामगार निषेध दिनानिमित्त… भाग-1☆ सुश्री त्रिशला शहा 

(बालकामगार निषेध दिन (12जून) त्यानिमीत्त)

‘बाळपणीचा काळ सुखाचा’ असं म्हटल जात,कारण या वयात कशाची चिंता,काळजी नसते.खाणे,पिणे,खेळणे आणि शाळेत जाणेएवढच काम लहान मुलांच असत.मोठ्यांना असणाऱ्या काळज्या,समस्या त्यांच्यापर्यंत पोहोचत नाहीत.पैसे मिळवण,घर चालवण हा त्रास मुलांना नसतो.त्यामुळेच की काय ‘ रम्य ते बालपण’ अस म्हटल जात.पण काही मुलांच्या बाबतीत हे बालपण रम्य नसते.ज्या वयात या मुलांच्या हाती वह्या,पुस्तके असायला हवीत त्या वयात या मुलांना मजूरीवर जाव लागत.

 घरातील पैशाची कमी, उपासमार, गरजेच्या वस्तू न मिळण शाळेच्या फी, पुस्तकासाठी पैसे नसणे अशा परिस्थिती मुळे मुलांना मजूरी करावी लागते. आपल्या आर्थिक गरजा भागवण्यासाठी त्यांना पालकांची मदत मिळत नाही. त्यामुळे सहाजिकच शाळेला  पूर्णविराम देऊन ही मुल, हाँटेलमधे टेबल पुसणे, भांडी घासणे, बांधकामावरच्या विटा उचलणे अशी काम करत रहातात.यालाच बालमजुरी किंवा बालकामगार असे म्हणतात, वयाची ९ वर्षे ते १६ वर्षे वयातील मुलांना बालकामगार म्हणतात.

काही वेळा पालकांना कामानिमित्त स्थलांतर करावे लागते.तसेच पालक शिक्षीत नसतील तर मुलंही शिक्षणापासून वंचित रहातात. त्यामुळे ही मुले मजूरीकडे वळतात.

बालमजूरी किंवा बालकामगार ही जागतिक समस्या आहे. पण अजूनही हा प्रश्न म्हणावा तितका सुटला नाही. भारतासारख्या संख्येने जास्त असलेल्या गरीब लोकांमधे ही समस्या अतिशय मोठ्या प्रमाणात दिसून येते. बऱ्याच गावात विशेषतः खेड्यामध्ये लहान मुलांना कामावर जावे लागते. उसतोड कामगारांची मुलं, बांधकामावर कामाला जाणाऱ्यांची मुलं बालमजूर म्हणून आई वडिलांबरोबर कामाला जातात. बरीच मुलं हाँटेल, कार्यालय, बार, वीटभट्टी, फँक्टरी अशा ठिकाणी मजूरी करताना दिसतात. फटाक्यांच्या फँक्टरीत तर असंख्य मुले काम करतात. अशा फँक्टरीमधे दुर्दैवाने काही अपघात झाला तर या मुलांना कायमचं अपंगत्व येण्याचीही शक्यता असते.

आईवडिलांचे कमी उत्पन्न,दारु पिणारे वडील, अनाथ मुले,घरातील कौटुंबिक वादविवाद, हिंसाचार अशा कारणांमुळे ही मुलं बालमजूर म्हणून काम करताना दिसतात.काही मुलं टि.व्ही.,सिनेमाच्या वेडापायी घरातून पळून जातात आणि त्यांना कुठेच आधार नाही मिळाला तर ते आपोआपचं मजूरीकडे वळतात.

क्रमशः…

(लेख 12 जून ला प्रसिद्ध करू शकलो नाही.क्षमस्व. संपादक मंडळ)

© सुश्री त्रिशला शहा

मिरज 

 ≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ कथा एका राणीची – भाग-2 ☆ सुश्री सुनिता गद्रे ☆

सुश्री सुनिता गद्रे

? जीवनरंग ❤️

 ☆ कथा एका राणीची – भाग-2 ☆ सुश्री सुनिता गद्रे ☆ 

(जगात बहुतेक प्रथमच कमांडो सैन्य आणि गोरिल्ला युद्धतंत्राचा वापर दिद्दाने केला होता.)आता यापुढे…..

या युद्धतंत्राचा जोरावरच एकदा राणीने शत्रूच्या पस्तीस हजार सैन्याच्या तुकडी बरोबर फक्त पाचशे सैनिकांच्या मदतीने पाऊण तासातच एक युद्ध जिंकले होते.

पण स्त्री जातीच्या दुर्दैवाचा तिलाही सामना करावा लागला. तिचे शत्रूंनी ‘चुडैल राणी'(चेटकीण राणी) असे नामाभिधान केले. कारण युद्धशास्त्रातील कौशल्याबरोबरच बुद्धिमत्ता, आत्मविश्वास ,इच्छाशक्ती यांच्या बळावर तिने आक्रमणकारी मोठ्या राजा ,महाराजांना रणांगणावर धूळ चारली होती. एका स्त्रीकडून पराभूत झालेल्या राजांनी हारल्यामुळे गेलेली आपली प्रतिष्ठा सांभाळण्यासाठी तिला चुडैल राणी म्हणायला सुरुवात केली. तिच्या अपंगत्वामुळे तिला खिजवण्यासाठी लंगडी राणी हा खिताब तर तिला त्यांनी आधीपासूनच दिलेला होता.

तिचा सर्वात मोठा पराक्रम त्या वेळी दिसून आला जेव्हा… सोमनाथ मंदिर लुटणाऱ्या आणि कित्येक शहरे उध्वस्त करणार्‍या…खूंखार मोहम्मद गजनीला तिने फक्त एकदा नाही तर दोनदा आपल्या  रणनीती-सामर्थ्याने भारतात काश्मीर मार्गे प्रवेश करण्यास रोखले. त्याला पराभूत पण केले. नंतर त्याने मार्ग बदलून गुजरात मार्गे भारतात प्रवेश केला.

इतके ‘असामान्यत्व’ सत्तेवर असल्यावर त्या व्यक्तीला मित्रांपेक्षा शत्रूच अधिक असतात. राणी दिद्दा पण याला अपवाद नव्हती. दरबारातले… एक सेनापती सोडला तर… सगळेच मंत्रीगण,सरदार तिला पाण्यात पाहत असत. अंतःपुरात इतर राण्या, त्यांचे नातेवाईक तिचा काटा काढण्याच्या तयारीतच असत.

अशातच एके दिवशी शिकारी दरम्यान राजा क्षेम गुप्ताचा मृत्यू झाला. तेव्हा तिला सती जाण्यासाठी तिच्यावर सगळीकडूनच खूप दबाव आणला गेला. पण मरणासन्न झालेल्या राजाला,राज्य सुरक्षित हातात सोपविण्याच्या तिने दिलेल्या वचनाने तिला मनोबल दिले. तिने सती जाण्यास साफ नकार दिला. कारण तिचा पुत्र अभिमन्यु लहान होता. त्याला राज्यकारभाराचे शिक्षण देण्याची जबाबदारी तिच्यावर होती.

हे सहन न झालेल्या अनेक सरदारांनी वेळोवेळी तिच्या  विरोधामध्ये अनेकदा बंडे पुकारली. पण दिद्दाने तिला सिंहासनावरून हटवण्याचे सर्व प्रयत्न क्रूरपणे हाणून पाडले. त्यामुळे क्रूर- कपटी राणी असे तिला नवे विशेषण मिळाले.

क्रमशः…

© सुश्री सुनीता गद्रे

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ट्रॅफिक… एकांताशी गप्पा — ’फुगेवाला’ ☆ सुश्री तृप्ती कुलकर्णी ☆

सुश्री तृप्ती कुलकर्णी

? मनमंजुषेतून ?

☆ ट्रॅफिक… एकांताशी गप्पा —फुगेवाला ☆ सुश्री तृप्ती कुलकर्णी ☆ 

मी नेहमीच असं गंमतीत म्हणते, ‘पुणेकर सगळं टाळू शकतील पण एक गोष्ट मात्र ते कधीच टाळू शकत नाहीत आणि ते म्हणजे ट्रॅफिक… ते जर कुणी टाळू शकत असेल किंवा आत्तापर्यंत एखाद्याला ते लागलं नसेल तर त्याची नोंद गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रेकॉर्डमध्येच  करायला हवी’, इतकं ते आपल्या जगण्याचा भाग आहे. म्हणजे कुठंतरी आपण थांबणं आवश्यक असल्यामुळे, कुठंतरी जाम झाल्यामुळे… काहीतरी चुकतंय याची जी जाणीव आपल्याला होते ती सुधारण्याचा जो आपण प्रयत्न करतो तो फार  महत्त्वाचा असतो. म्हणून सगळ्याच गोष्टी सुरळीत होण्यापेक्षा कधी कधी अडथळे येणं हे आपल्यासाठी आवश्यक असतं, फक्त ते आपल्याला जाणता आलं पाहिजे.  

मी जेव्हा ट्रॅफिकमध्ये अडकते तेव्हा मी आजूबाजूला बघते तर जाणवतं, अरे हे नवीन ठिकाण आहे.  हे पूर्वी कधी आपण या निवांतपणे पाहिलं नव्हतं. आपण स्वतःहून कधी इकडे पाहिलंच नसतं. धावत्या गाडीतून एखादी गोष्ट बघणं आणि तिथे रेंगाळून ती गोष्ट बघणं यात जमीन अस्मानाचा फरक आहे. गाडीच्या वेगाबरोबर आपल्या मनाचा वेग इतका जबरदस्त असतो की आपण त्या क्षणी आपल्या आजूबाजूला घडणाऱ्या गोष्टींची दखलसुद्धा घेत नाही.  पण ज्यावेळी आपल्याला तिथं थांबण्याची वेळ येते तेव्हा जे आपल्याला दिसतं…  जे अनुभवतो… ते एरवी आपण कधीच मुद्दाम पाहिलं, अनुभवलं नसतं. 

त्यादिवशी असंच ट्रॅफिक लागलं. सिग्नल काही केल्या लवकर सुटेना. बहुदा काहीतरी घोळ झाला होता. आणि सगळेजण वैतागले होते. जो तो आपापलं मन रिझवण्याचा पयत्न करत होता… कुणी मध्येच रस्त्यात उतरून हातवारे करत वाहनांना मार्गदर्शन करत होतं. कुणी फोनवर मोठ्याने बोलत होतं, कुणी हॉर्न वाजवत होतं, कुणी गाडी साईडला घ्यायला सांगतंय, कुणी फूटपाथवरून गाडी घुसवण्याचा प्रयत्न करत होतं, असे सगळेच आपापल्यापरीनं प्रयत्न करत होते. सरतेशेवटी त्यांच्या लक्षात आलं की आता मूळ  कोंडी सुटल्याशिवाय जाता येणार नाही. आणि मग सगळेच एकदम शांत झाले. मला जाणवलं की ही वेळ माझ्यासाठीचा खास निवांतपणा घेऊन येणारी आहे. डोक्यात चाललेल्या विचारांना पण या सिग्नलमुळे ब्रेक लागला होता. आणि आता काहीतरी नवीन बघायला मिळेल असं वाटत असतानाच अचानक तो दिसला…  इतक्या शांतपणे आकाशाकडे नजर लावून उभा होता की जणू काही घडलंच नाहीये. फक्त त्या त्याच्या दणकट सायकलच्या हॅन्डलवर मागेपुढे दोऱ्याने घट्ट बांधेलेले रंगीबेरंगी आणि निरनिराळ्या आकाराचे फुगे तेवढे वाऱ्यावर उडत होते.

सगळ्यांनाच सक्तीनं स्थिर व्हायला लावलेलं असताना वाऱ्यावर उडणारे ते फुगे मला फारच लक्षवेधक वाटले. मला या परिस्थितीत काहीतरी विरोधाभास… विसंगती दिसली. सुदैवाने माझी रिक्षा त्याच्या बऱ्यापैकी जवळ आली होती. त्याच्या कॅरिअरला बांधलेले फुगे माझ्या रिक्षेत डोकावून त्या वातावरणात एक हलकेपणा आणण्याचा प्रयत्न करतायत असं मला वाटलं. आणि मी नकळतच त्याच्याकडे निरखून पाहू लागले. तसा तो पाठमोरा होता. मध्यम उंचीचा, रापलेला रंग, काटकुळा… विचार आला, आजपर्यंत आपण कधी जाडजूड फुगेवाला पाहिलाय का? मी आठवू लागले पण आठवेना… पांढराच पण मळलेला शर्ट, खाली मळकी पोटरीपर्यंत दुमडलेली पँट… राकट हात, त्यांनी पकडलेल्या हॅन्डलला लटकवलेल्या पिशव्या, त्यातून बाहेर येऊ पाहणारे फुगे. एका साध्याशा पिशवीत पाण्याची बाटली दिसली आणि अजूनही त्यात काहीबाही होतं पण त्याचा मला अंदाज लावता येईना…. आणि माझं मन फुगेवालाच्या आयुष्याचं अनॅलिसिस करू लागलं.   

किती उत्पन्न असेल, त्यात सगळ्यांचं  कसं भागवत असतील… याची स्वप्नं काय असतील… तो समाधानी असेल का… रोजच्या कामात तो कसा मन रमवत असेल… इतक्यात कसलातरी आवाज आला म्हणून त्यानं मागे फुग्यांकडे वळून पाहिलं, त्यावेळी मला त्याच्या डोळ्यात फुग्यांविषयी ममत्व दिसलं. एक मन म्हणालं, छ्या! असं काही नाही. तुला तसं वाटतंय… दुसरं मन म्हणालं का नाही तसं ? अरे माणूस आहे तो… माणसं चांगली असतात. या द्वंद्वात मी सापडले असताना  पटकन काहीतरी हालचाल झाली मी दचकले. बघते तो इतक्या गोंधळात, गोंगाटात त्या फुगेवाल्याला एका लहान मुलाचा आवाज आला आणि त्यानं पटकन फुगा काढून त्याला दाखवला . मी बघू लागले याला कुठे दिसतोय मुलगा… मला काही दिसेना. आता रिक्षेवालाही बघू लागला. त्यालाही तो दिसेना. हा इकडून खाणाखुणा करून काहीतरी सांगत होता… त्याच्या चेहऱ्यावरून तरी तो फुगा विकला जाणार आहे असं वाटत होतं.  या धामधुमीत सिग्नल सुटला… सगळेजण आता पुढे सरकू लागले. आणि आम्ही पुढे निघून आलो.   

पूर्ण प्रवासभर माझ्या मनात प्रश्नच प्रश्न…

जाड फुगेवाला कुणी पाहिलाय का? 

यांची स्वप्नं काय असतात? 

फक्त फुगे विकणाऱ्याचं एखादं शानदार दुकान असू शकतं का ?….

©  सुश्री तृप्ती कुलकर्णी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ ‘अन्न हे पूर्णब्रह्म‘ ☆ प्रस्तुती – श्री विनय माधव गोखले ☆ 

श्री विनय माधव गोखले

? वाचताना वेचलेले ?

☆ अन्न हे पूर्णब्रह्म ☆ प्रस्तुती – श्री विनय माधव गोखले ☆ 

एका लग्नाला गेलो होतो . जेवणाचा तो थाटमाट पाहून थक्क झालो. जवळ जवळ वेगवेगळ्या पदार्थांचे 20 काउंटर मांडून ठेवले होते . स्वच्छ ,चकचकीत ड्रेस घातलेले वेटर इथे तिथे फिरत होते . युनिफॉर्म घातलेल्या  सुंदर मुली पाहुण्यांची विचारपूस करीत फिरत होत्या . 

पंचपक्वाने म्हणजे काय ते आज कळले मला …. हातात डिश घेऊन मी सगळ्या काउंटर वरून फिरू लागलो ….. 

तुम्हाला सांगतो राव एकही पदार्थ कधी घरी बनवून खाल्ला नव्हता असे सर्व पदार्थ होते .

सौ. ने हात खेचत म्हटले ” अहो जरा दमाने घ्या , मिळते म्हणून सर्व घेऊ नका , मग फेकून द्याल ” 

मी लक्ष न देता माझी डिश पूर्ण भरून घेतली आणि कोपरा गाठत शांतपणे जेवायला सुरवात केली . थोडे खाल्ल्यानंतर माझे पोट गच्च झाले ….. अधिक काही खाववेना . नाइलाजाने मी ती अर्धी भरलेली डिश फेकून द्यायला गेलो . रिकाम्या डब्याजवळ एक माणूस उभा होता …..

माझ्याकडे प्रसन्नपणे हसून पाहत हातातील डिश घेतली आणि म्हणाला—-

“सर , रागावणार नसाल तर एक सांगू ??”

अतिशय सभ्य माणूस दिसत होता म्हणून मी होय म्हटले . 

” ही तुमची डिश आहे ना ?? “

” होय,” मी परत उत्तरलो .

” हे उरलेले जेवण मी तुम्हाला पार्सल करून देऊ का ??  म्हणजे तुम्ही घरी नेऊन संध्याकाळीहि जेवू शकाल ” 

मी चकित झालो . थोडा रागही आला . त्याच रागात बोललो, ” अहो थोडे राहिले अन्न ? काय हरकत आहे .

नाही अंदाज आला .म्हणून काय घरी न्यायचं ?? “ 

” रागावू नका ” तो गोड हसत म्हणाला .“ हे मोठ्यांच लग्न आहे . पैश्याची बिलकुल काळजी करू नका असे सांगितले आहे आम्हाला . हजार माणसांच्या जेवणाची ऑर्डर म्हणजे . बाराशे माणसांचे जेवण बनविले आम्ही . कितीतरी अन्न उरणार, मग बाहेर बसलेल्या पंधरावीस भिकाऱ्यांना देऊ . आमची 25 माणसे .  पण तरीही अन्न उरणारच . आणि तुम्ही हे वाया घालवलेले अन्न !! त्याचे काय ??  राग मानू नका . पण आज हजार लोकांच्या जेवणासाठी गेले चार  दिवस आम्ही मेहनत करतोय , उत्कृष्ट प्रतीची भाजी , मसाले खरेदी केले. आज पहाटे चार वाजल्यापासून माझी माणसे तुम्हाला वेळेवर आणि उत्तम प्रतीचे चविष्ट जेवण देण्यासाठी राबतायत…. होय ,त्यासाठी आम्ही  मागू तेवढे पैसे तुम्ही  दिलेत हे मान्य आहे . पण सर्व गोष्टी अश्या पैशाने नाही मोजता येत . आज अशी अर्धवट भरलेली डिश डब्यात फेकून दिलेली पाहून जीव तुटतो आमचा …..म्हणून आम्ही ही शक्कल लढवली , हॉटेलमध्ये कसे तुम्ही डिशमधील अन्न पार्सल द्यायला सांगता…….. का ???  कारण तुम्ही पैसे मोजलेले असता.  मग इथे का नाही ??  कारण ते दुसऱ्याने दिले म्हणून का ?? “

” आणि हो , यातील काहीही यजमानांना माहित नाही . हे आम्हीच ठरविले आहे . त्यामुळे तुम्ही यजमानांना दोष देऊ नका . पटले तर तुमचे अन्न आणि अजून त्यात थोडी भर टाकून घरी घेऊन जा, नाहीतर डिशमधील अन्न पूर्ण खा .” 

मला काही सुचेना काय बोलावे . थोडी लाजही वाटली आणि पटतही होते —-

खरेच भारतातच काय, आज संपूर्ण जगात अन्नासाठी लोक भटकताहेत आणि आपण इथे कोरड्या मनाने फेकून देतोय …. 

इतक्यात सौ .म्हणाली  “बरोबर बोलताय भाऊ , यांना काय कळते किती मेहनत असते यामागे . हवे तसे घ्यायचे आणि उरलेले फेकून द्यायचे , तेव्हा करण्याला किती वेदना होतात . द्या तुम्ही ते पार्सल आम्हाला . आता रात्रीचे जेवण होईल . मेहनत , इंधन सर्व काही वाचेल .

 थोड्या वेळाने आम्ही  वर वधूला आशीर्वाद देऊन पार्सल घेऊन बाहेर पडलो ….

(आता बोला आहे का तुमची असे वागण्याची मानसिकता…. 

एक तर जेवढी भूक असते त्यापेक्षा कमीच पानात घ्यावे, अजून लागले तर ना नाहीच…. 

पण भूभूक्षीतासारखे भसाभसा पान भरून घेवून दुसऱ्याच्या तोंडचे अन्न वाया घालवण्यासारखा माजोरडेपणा नाही )  

 

—अन्नावाचून , अन्न पिकवता आत्महत्या करतोय … 

अन्न हे पूर्णब्रम्ह  ते वाया घालवू नका.  🙏

 

संग्राहक : विनय माधव गोखले

भ्रमणध्वनी – 09890028667

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ आला पाऊस पाऊस… ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

श्री रवींद्र सोनावणी

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? आला पाऊस पाऊस ?   श्री रवींद्र सोनावणी ☆ 

आला पाऊस पाऊस, सारे भिजले पाण्यात

आणि अंकूरले बीज, ओल्या मातीच्या मनात

सुखे भिजे माळरान, सोडी निःश्वास कातळ

अंबराच्या डोळ्यांतले, भिजे ढगांचे काजळ

आला पावसाळा, झाली सैरभैर वावटळ

माती ग्रीष्मातली पिते, थेंब टपोरे नितळ

टपटपले अमृत, कुठे कोरड्या चोचीत

थेंब मोतीयांचे झाले, पानाफुलांच्या ओठांत

ग्रिष्म भोगल्या माणसा, नको पाणी पाणी करू

आली मृगाची पालखी, झाला घंटानाद सुरू 

ग्रिष्म वनवासी झाला, आता पुरे नऊ मास

आसुसल्या धरणीची, आता उजवेल कूस

© श्री रवींद्र सोनावणी

निवास :  G03, भूमिक दर्शन, गणेश मंदिर रोड, उमिया काॅम्पलेक्स, टिटवाळा पूर्व – ४२१६०५

मो. क्र.८८५०४६२९९३

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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