(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है पितृ दिवस पर आपकी एक भावप्रवण कविता “# फादर्स डे पर छोटी बेटी का प्यार #”)
श्रीमती सुशीलादेवी केशवराम क्षत्रिय स्मृति बाल प्रतियोगिता- 2022 परिणाम घोषित – अभिनंदन
बालकहानी प्रतियोगिता के परिणाम घोषित – अलका प्रमोद लखनऊ को मिला प्रथम स्थान-
देशभर के बालकथाकारों से बालकहानियां प्रतियोगिता-श्रीमती सुशीलादेवी केशवराम क्षत्रिय स्मृति बाल प्रतियोगिता- 2022 के लिए आमंत्रित की गई थीं। जिसमें विभिन्न बालसाहित्यकारों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। इस कारण इस प्रतियोगिता में 55 से अधिक कहानियां प्रविष्ठियाँ के तौर पर प्राप्त हुई थीं। प्रतियोगिता के निम्नानुसार इन सभी कहानियों पर से रचनाकारों के नाम हटाकर कहानी के शीर्षक के साथ निर्णायक और प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ दिनेश कुमार पाठक ‘शशि’ को मूल्यांकन के लिए भेजा गया था।
निर्णायक महोदय ने कहानी का अध्ययन, मनन और चिंतन करके प्रथम स्थान- महंगी पड़ी शरारत, रचनाकार- अलका प्रमोद लखनऊ, द्वितीय स्थान- कहानी मिली की, रचनाकार- इंद्रजीत कौशिक बीकानेर, तृतीय स्थान- मछली जल की रानी, रचनाकार- नीलम राकेश लखनऊ की कहानी को प्रदान किया गया।
इसी तरह प्रथम 10 कहानियों में अपना स्थान बनाने वाली कहानी और रचनाकार का नाम इस प्रकार है- सब्जी लोक में टिंकू- अलका अग्रवाल जयपुर, लैपटॉप- मधुलिका श्रीवास्तव भोपाल, कौन जीता कौन हारा- मीनू त्रिपाठी नोएडा, इफ्तारी- डॉक्टर लता अग्रवाल भोपाल, मिंकु पिंकू- वंदना पुणतांबेकर इंदौर, अनुशासन का महत्व- विनीता राहुरिकर भोपाल, खेल खेल में- अंजली खेर भोपाल, मंगलवन में अमंगल ललित शौर्य पिथौरागढ़ , नन्ना गोलू- संध्या गोयल सुगम्या राजनगर गाजियाबाद को प्राप्त हुआ है।
इन सभी विजेताओं को पुरस्कार राशि व सम्मानपत्र श्रीमती सुशीलादेवी केशवराम क्षत्रिय स्मृति बाल प्रतियोगिता- 2022 के आयोजक प्रसिद्ध बालसाहित्यकार ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ द्वारा प्रदान किए जाएंगे।
☆ ॥ मानस का रेखांङ्कित शाश्वत सत्य – प्रेम – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
मनुष्य का मन विचारों का उद्गम स्थल है। विचार उत्पन्न होने पर ही मनुष्य कोई कार्य करता है। बहुत से विचार तो उठकर विलुप्त हो जाते हैं परन्तु कुछ ऐसे होते हैं जो कार्य कराते हैं। औरों से बिना कहे व्यक्ति को चैन नहीं मिलती हैं। जन साधारण तो अपने विचार मौखिक ही एक दूसरे पर व्यक्त कर अपना सारा कार्य-व्यापार सम्पन्न करते हैं, किन्तु मनीषी कवि लेखक अपने मन के विचारों को लिखकर व्यक्त करते हैं। ऐसे विचार गंभीर होते हैं और जन-जन को दीर्घकाल तक चिन्तन मनन का मसाला सबों को देते हैं। उनसे समाज को मार्गदर्शन भी मिलता है। ये विचार व्यक्ति के व्यक्तित्व समाज की तत्कालीन स्थितियों से प्रभावित होते हैं। इसीलिये उन विद्वानों के द्वारा रचित पुस्तकें समाज को उनके विचारों की सुगंध देती हैं और समाज की समस्याओं को सुलझा सकने के लिए राह दर्शाती हैं। ऊंचे विचारों को दर्शाने वाली ऐसी पुस्तकें युग-युग के लिए अमर हो जाती हैं जैसे गीता या रामायण।
महात्मा तुलसीदास के मानस का अध्ययन करने पर हमें उनकी अवधारणा इच्छा और लेखन के उद्देश्य का ज्ञान होता है। उन्होंने रामचरितमानस की रचना क्यों की, उन्हीं के शब्दों में मानस के प्रारंभ में लिखा है-
नाना पुराण निगमागम सम्मतं यत् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोदपि
वे कहते हैं कि विभिन्न वेद शास्त्रों में और बाल्मिकी रामायण में तथा कुछ अन्य गं्रथों में भी जो कुछ कहा गया है उसी को उन्होंने आत्मसुख की भावना से सुख के लिए सरल भाषा में अपनी तरह से लिखा है। इससे स्पष्ट है कि तुलसीदास जी ने नानापुराण निगम, बाल्मिकी रामायण और कुछ अन्य आध्यात्मिक गं्रथों का अध्ययन मनन कर जो सब संस्कृत भाषा में लिखे हुए हैं, उनके भावों को अपने विचारों के अनुसार प्रचलित लोकभाषा (जन-जन की बोलचाल की भाषा) में लिखा है। लोक भाषा में इसलिये लिखा कि जिससे जनसाधारण उसे पढ़ सकें और समझ सकें और उसमें निरूपित विचारों और भावों को लोक कल्याण के लिए व्यवहार में ला सकें।
महात्मा तुलसीदास भगवान राम के अनन्य भक्त थे। मानस में श्रीराम के जीवन का विशद वर्णन ही उनका प्रतिपाद्य विषय है परन्तु हर प्रसंग में उन्होंने जन साधारण के लिये सरल भाषा में लोकत्तियों और सूक्तियों तथा उदाहरणों और दृष्टान्तों के माध्यम से जनजीवन को सीखने और सुखी बनाने के लिए उपदेशात्मक प्रवचन भी लिखा है।
प्रत्येक काण्ड के प्रारंभ में उन्होंने ईश प्रार्थनायें की हैं जो संस्कृत में हैं। परन्तु सम्पूर्ण गाथा हिन्दी (अवधी लोकभाषा) में इसीलिये वर्णित की है, जिससे सामान्य ग्रामवासी भी पढक़र या सुनकर उस कथा प्रसंग से कुछ पा सकें, सीख सकें। ”स्वान्तस्सुखाय” का अर्थ होता है आत्म सुख के लिये परन्तु विद्वानों का ”स्वान्तस्सुखाय” ”बहुजन हिताय” होता है। हर एक का सुख अलग होता है। परन्तु लेखक या कवि का सुख तो इसी में होता है कि उसकी रचना अधिक लोगों के द्वारा पढ़ी जाय और सराही जाय। जितने अधिक संख्या में लोग उसकी रचना का रसास्वादन करें और उससे उनके विचारों की शुद्धि हो यही कवि या लेखक की सबसे ज्यादा प्रसन्नता होती है। यही उसका आत्मसुख है। इस दृष्टि से देखें तो रामचरित मानस अद्भुत गं्रथ है। भारत में तो हर हिन्दू के घर में उसकी प्रति उपलब्ध है। पढ़ी जाती है और पूजी जाती है। अन्य धर्मावलंबियों द्वारा भी उसे पढ़ा और सराहा जाता है। रामचरितमानस का अनुवाद विश्व की विभिन्न भाषाओं में हो चुका है और दक्षिण-पूर्वी एशिया के मुस्लिम बाहुल्य देशों में भी उसका सम्मान है। तुलसीदास जी की मनोभावना के अनुरूप उनकी अपूर्व आध्यात्मिक रचना ‘मानसÓ को उद्देश्य प्राप्ति भी हुई है और वे प्रसिद्धि के साथ सफल भी हुए हैं। इसमें भगवान राम की जीवन की सम्पूर्ण गाथा है किन्तु उनके जीवन की घटनाओं को आदर्शरूप में प्रस्तुत किया गया है जो पाठक पर गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ती है। घर-परिवार और समाज में घटित होने वाले छोटे से छोटे व्यवहारों को प्रस्तुत कर कवि ने वह सबकुछ समझा दिया है कि मनुष्य को जीवन में कैसे जीना चाहिये। उसको सब के साथ कैसा संबंध रखना चाहिये और कैसा व्यवहार करना चाहिये, जिससे जीवन में सबसे मधुर संबंध रख द्वेष और कलह से दूर रह प्रेम का व्यवहार कर सफल हो सकें। मानस में प्रेम के सशक्त धागे से मनुष्य मन के समस्त भावों को पुष्प की भांति गूंथकर, कवि ने प्रेम के माध्यम से ही समस्त कठिनाइयों को सुलझाने के मनोवैज्ञानिक सूत्र प्रस्तुत किये हैं। मानस में पारिवारिक हर रिश्ते में प्रेम, भ्रार्तृत्व, सहयोग, विश्वास, श्रद्धा, भक्ति, त्याग, निष्ठा, शौर्य, कर्तव्य का सच्चाई और ईमानदारी से निर्वाह, सदाचार का पालन, दुराचारियों का समाजहित में दमन, विचारों की दृढ़ता, निर्णय की अंडिगता तथा विनम्रता, समानता और सद्भाव के अनुपम आदर्श हैं। मनोविकारों पर विजय पाने से जीवन में सुख-शांति और सामाजिक समृद्धि संभव है तथा भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिए दैनिक व्यवहारों में शुद्धता और पवित्रता का पालन किया जाना सुखदायी और परिणामप्रद होता है- इसी का संकेत है। रामकथा के माध्यम से समाज में नई चेतना फूंकना, अपने परम आराध्य राम का जनहितकारी मंगलकर्ता ईश्वरीय स्वरूप हर भक्त हृदय में स्थापित करना, तुलसी का लक्ष्य प्रतीत होता है। श्रीराम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। दीन-दुखियों के शरणदाता हैं। सबके स्वारथरहित सखा हैं। निर्बल के बल है। भक्तों के लिये भवसागर पार कराने वाले पूज्य परमात्मा हैं। उनके प्रति सहज श्रद्धा जागती है। मानस के प्रमुख पात्र (नायक) हैं, किन्तु उनके जीवन से संबंधित हर पात्र आदर्श आचरण वाला है। राम के भाई भरत और लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न, भातृप्रेम और त्याग की प्रतिमूर्ति हैं। मातायें कौशल्या, सुमित्रा तथा कैकेयी भी वात्सल्य की प्रतिमा हैं। आयोध्यावासी नागरिक नितान्त प्रेमल व सदाचारी और धार्मिक हैं। अन्य सभी सेवक सहायक जो वनवास की अवधि में उन्हें मिले- सुग्रीव, हनुमान, अंगद, विभीषण आदि आदर्श सेवक हैं। हर पात्र, जो भी मानस में हैं अपनी भूमिका में आदर्श पात्र हैं। ऐसा तो ग्रंथ विश्व साहित्य में कोई दूसरा नहीं मिलता। इसीलिये यह ग्रंथ बेजोड़ है, कालजयी है तथा मनमोहक है। इसमें राजनीति, धर्मनीति, लोकनीति तथा अध्यात्म की शिक्षायें हैं। दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में- कम्बोडिया, वियतनाम, जावा, सुमात्रा में रामकथा का बड़ा आदर और महत्व है। विभिन्न अवसरों पर वहां रामकथा का रंगमंच पर प्रदर्शन किया जाता है।
ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ २० जून – संपादकीय – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे– ई – अभिव्यक्ती (मराठी)
“आलो तुझ्या दुनियेत, नव्हतो चोर वा डाकू आम्ही , एकही ना चीज इथली, घेऊनी गेलो आम्ही
ते ही असो, आमुच्यासवे आणिला ज्याला इथे , भगवन, अरे तो देहही मी टाकुनी गेलो इथे—“
— अशा शब्दात देवालाच सत्याची जाणीव करून देणारे सुप्रसिद्ध गझलकार , शायर व कवी श्री. वासुदेव वामन तथा भाऊसाहेब पाटणकर यांचा आज स्मृतीदिन.( २९/१२/१९०८ – २०/६/१९९७ )
मराठीतले जिंदादिल शायर अशी ओळख असणारे भाऊसाहेब हे खरे तर “ मराठी शायरीचे जनक “ . शायरी हा अधिकतर उर्दू – हिन्दी भाषेत रूढ असणारा काव्यप्रकार त्यांनी मराठी भाषेत रुजवला, देशभर पोहोचवला, आणि त्याला जणू “ चिरतरुण “ करून ठेवलं.
वेद , तत्वज्ञान , आणि इतर शास्त्रांचा अभ्यास असणारे भाऊसाहेब पेशाने वकील होते. यवतमाळ जिल्हा न्यायालयातील फौजदारी खटले कायम जिंकणारे वकील अशी त्यांची ख्याती झाली होती. शिवाय ` सहा पट्टेरी वाघांना लोळवणारे शिकारी `म्हणूनही ते ओळखले जात . शिकारीवर कायद्याने बंदी आल्याने त्यांना तो नाद सोडावा लागला. पुढे दृष्टिदोष झाल्याने त्यांना वकिली सोडावी लागली, पण काव्यरसिकांसाठी ती पर्वणी ठरली असे म्हणावेसे वाटते. कारण त्यानंतर ते कविता या साहित्यप्रकाराकडे वळले, आणि मराठी शायरी या नव्या प्रांताची त्यांनी लोकांना अगदी जवळून ओळख करून दिली. हळूहळू त्यांच्या रचना इतक्या लोकप्रिय झाल्या की महाराष्ट्रभर आणि इतर राज्यांमध्येही त्यांच्या शायरीचे कार्यक्रम होऊ लागले, आणि त्यांना रसिकांची प्रचंड दाद मिळू लागली . विनोद आणि प्रणय यांची रेलचेल असणारी, इतकी प्रसिद्ध झालेली शायरी लिहायची सुरुवात त्यांनी वयाच्या ५२ व्या वर्षी केली होती, हे सांगितले तर खरे वाटणार नाही. याचवेळी एकीकडे त्यांनी शायरी ह्या काव्यप्रकाराचा खोलात जाऊन अभ्यास केला. आणि मग तत्वज्ञान आणि जीवन या अनुषंगाने विविध विषयांवर त्यांनी शायरी लिहिली. वर सुरुवातीला उद्धृत केलेल्या त्यांच्या दोन ओळींवरून हेच दिसून येते. उर्दू शायरीपेक्षा अगदी वेगळी आणि स्वतंत्र अशी त्यांची मराठी शायरी खूपच लोकप्रिय झाली असली, तरीही ते विनम्रपणे असे व्यक्त व्हायचे की —
सांगेल काही भव्य ऐसी , शायरी माझी नव्हे —
तो कवींचा मान , तितुकी पायरी माझी नव्हे —
“जिंदादिल“ , “ दोस्तहो “ हे अतिशय गाजलेले काव्यसंग्रह, तसेच “ मराठी मुशायरा “ , “ मराठी शायरी “ ,
“ मैफिल“ असे त्यांचे प्रकाशित साहित्य आहे. भाऊसाहेबांच्या “ दोस्तहो “ या गजल संग्रहातल्या चारोळ्यांची भाषा तर इतकी सोपी आहे की चारोळी नुसती वाचली की त्यात काय सांगायचे आहे हे वाचकाला पूर्णपणे लक्षात येतं— म्हणजे त्याचे वेगळेपणाने रसग्रहण करायची गरजच उरत नाही – आणि ही त्यांच्या लेखणीची ताकद होती.- याच्या उदाहरणादाखल या पुढच्या काही ओळी —–
“आहो असे बेधुंद आमची धुंदही साधी नव्हे…. मेलो तरी वाटेल मेला दुसरा कुणी आम्ही नव्हे .. “
‘स्वामी विवेकानंद’ यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका ‘विचार–पुष्प’.
वराहनगर मठात श्री रामकृष्ण संघाचं काम सर्व शिष्य नरेंद्रनाथांच्या मार्गदर्शनाखाली करत होते. उत्तर भारतातले आखाड्यातले साधू बैरागी, वैष्णव पंथातले साधू समाजाला परिचित होते. पण शंकराचार्यांच्या परंपरेतल्या संन्याशांची फार माहिती नव्हती. त्यामुळे वराहनगर मठातल्या तरुण संन्याशांबद्दल समाजाची उपेक्षित वृत्ती होती. चांगले शिकले सवरलेले असून सुद्धा काही उद्योगधंदा न करता, संन्यास घेऊन हे तरुण लौकिक उन्नतीचा मार्ग दूर ठेवत आहेत, हे पाहून लोक खेद करत, उपेक्षा करत, कधी अपमान करत. तिरस्कार करत. कधी कधी कणव येई, तर कधी टिंगल होई.
पण प्रवाहाच्या विरुद्ध जाऊन काही करायचे म्हणजे असेच सर्व गोष्टींना सामोरे जावे लागते. समाजाने स्वीकारे पर्यन्त, बदल होण्याची वाट बघत हळूहळू पुढे जावे लागते. तसे सर्व शिष्यांमधे हा वाट पाहण्याचा संयम होता. दूरदर्शीपणा होता. कारण तसे ध्येय ठरवूनच त्यांनी घरादारचा त्याग केला होता आणि संन्यस्त वृत्ती स्वीकारली होती. हे तरुण यात्रिक अध्यात्म मार्गावरचे एकेक पाऊल पुढे टाकत चालले होते. भारताच्या आध्यात्मिक जीवनात संन्यस्त जीवनाचा सामूहिक प्रयोग नवा होता.
“आपल्याला सार्या मानवजातीला आध्यात्मिक प्रेरणा द्यायची आहे, तेंव्हा आपला भर तत्वांचा, मूल्यांचा,आणि विचारांचा प्रसार करण्यावर हवा. संन्यास घेतलेल्यांनी किरकोळ कर्मकांडात गुंतू नये”. असे मत नरेंद्रनाथांचे होते. या मठातलं जीवन, साधनेला वाहिलेलं होतं.
शास्त्रीय ग्रंथांचा अभ्यास, संस्कृत ग्रंथ व धर्म आणि अध्यात्म संबंधित ग्रंथांचे वाचन होत असे. हिंदूधर्म याबरोबर ख्रिस्तधर्म आणि बुद्धधर्म यांचाही अभ्यास केला जात होता. या धर्मांचा तुलनात्मक अभ्यास व्हायचा. इथे धर्मभेदाला पहिल्यापासूनच थारा नव्हता असे दिसते. शंकराचार्य आणि कांट यांच्या तत्वज्ञानाचा तौलनिक अभ्यास पण इथे होत होता. हे सर्व अनुभवास आल्यानंतर जाणकारांची उपेक्षा जरा कमी झाली आणि जिज्ञासा वाढली.
कधी ख्रिस्त धर्माचे प्रचारक मिशनरी येत त्यांच्या बरोबर चर्चेत हिंदू धर्माच्या तुलनेत ख्रिस्त धर्म कसा उणा आहे ते चातुर्याने आणि प्रभावी युक्तिवादाने नरेंद्र पटवून देत असत. ख्रिस्ताचे खरे मोठेपण कशात आहे तेही समजाऊन सांगत. हे विवेचन ऐकून धर्मोपदेशक सुद्धा थक्क होऊन जात.
हिंदू धर्मातील इतर पंथांचाही इथे अभ्यास चाले. तत्वज्ञानाच्या आधुनिक विचारवंतांनाही इथे स्थान होते. जडवादी आणि निरीश्वरवादी विचारसरणीचा परिचय करून घेतला जात होता. फ्रेंच राज्यक्रांतीचं महत्व सुद्धा नरेंद्रनाथ समजाऊन सांगत असत. साधनेच्या जोडीला अभ्यास हे वराहनगरच्या मठाचं वैशिष्ठ्य होतं. श्री रामकृष्ण यांच्या गृहस्थाश्रमी शिष्यांना एकत्र यायला हा मठ एक स्थान झालं होत. हळूहळू लोकांच्या मनातील दुरावा कमी झाला होता.
तीर्थयात्रा ही आपली पूर्वापार चालत आलेली परंपरा आणि धार्मिक जीवनाचा एक भाग पण. शिवाय श्रीरामकृष्ण यांनीही एकदा संगितले होते, की, “संन्याशाने एका जागी स्थिर राहू नये. वाहते पाणी जसे स्वच्छ राहते, तसे फिरत राहणारा संन्यासी आध्यात्मिक दृष्ट्या स्थिर आणि निर्मळ राहतो”.
या मठातील गुरुबंधूंना तीर्थयात्रेची उर्मी येत असे. त्याप्रमाणे नरेंद्रनाथांना पण एका क्षणी वाटले की, आपणच नाही तर सर्व गुरुबंधूंनी पण परिभ्रमण करावे. अनुभव घ्यावेत, त्यातून शिकावे. त्यामुळे प्रत्येकाच्या आंतरिक शक्तींचा विकास होईल. वराहनगर मठ हा एक मध्यवर्ती केंद्र म्हणून असेल, कोणी कुठे ही गेलं तरी सर्वांनी या केंद्राशी संपर्कात राहावं. शशी यांनी हा मठ सांभाळण्याची जबाबदारी घेतली. दोन वर्षानी १८८८ मध्ये नरेंद्रने वराहनगर मठ अर्थात कलकत्ता सोडले आणि त्यांच्या परिव्राजक पर्वाचा प्रारंभ झाला.
सुरूवातीला ते वाराणशीला आले. प्रवासात ते आपली ओळख फक्त एक संन्यासी म्हणून देत. अंगावर भगवी वस्त्रे, हातात दंड व कमंडलू, खांद्यावरील झोळीत एकदोन वस्त्रे, एखादे पांघरुण एव्हढेच सामान घेऊन भ्रमण करत. शिवाय बरोबर ‘भगवद्गीता’ आणि ‘द इमिटेशन ऑफ ख्राईस्ट’ ही दोन पुस्तके असायची. रोख पैशांना स्पर्श करायचा नाही, कोणाकडे काही मागायचे नाही हे त्यांचे व्रत होते.
सर्व गुरुबंधुना पण ते प्रोत्साहित करू लागले की, भारत देश बघावा लागेल, समजावा लागेल. लक्षावधी माणसांच्या जीवनातील विभिन्न थरांमध्ये काय वेदना आहेत, त्यांच्या आकांक्षा पूर्ण न होण्याची कारणे काय आहेत ते शोधावे लागेल. हे ध्येय समोर ठेऊन ,भारतीय मनुष्याच्या कल्याणाचे व्रत घेऊन स्वामी विवेकानंद यांचे हिंदुस्थानात भ्रमण सुरू झाले.
☆ ॠणानुबंध….भाग 1 ☆ सुश्री स्वप्ना अभिजीत मुळे (मायी) ☆
“थोडी भारी दाखवा ना दोन हजारच्या पुढे पण चालेल, आणि गडद चॉकलेटी रंग दाखवा प्लिज..” ह्या महेशच्या म्हणण्यावर “बरं” म्हणत पसरवलेल्या साड्या दोन्ही हातांनी उचलत तो दुकानातला नोकर निघून गेला तेंव्हा असावरीने न राहवून महेशला मांडीला चिमटा काढत खुणावलं आणि हातानेच ‘काय’ असं विचारलं,..
महेश म्हणाला, “बोलू या नंतर, साड्या बघ आधी..”
ती नाक मुरडत म्हणाली, “मला चॉकलेटी साडी नको.”
त्यावर महेश हसत म्हणाला, “तुला नाही गं..?”
आसावरीने परत डोळे मोठे करत “मग, दोन्ही ताईंना तर नाहीच आवडत हा रंग..”
त्यावर महेश म्हणाला, “त्यांना पण नाही.. देशमुख काकूच्या मुलीचं लग्न ठरलंय ना..”
त्याच्या ह्या वाक्यावर आसावरी जोरात ओरडली, “काय ? देशमुख काकूंना दोन हजाराची साडी..?” तिचं ओरडणं एवढं जोरात होतं की काउंटरवरचा मालक आणि आजूबाजूचे गिऱ्हाईक सगळे वळून बघत होते हिच्याकडे, अगदी समोरच्या पिलरमध्ये आरसा होता मोठा, त्यातही बऱ्याच माना हिच्या दिशेने वळाल्या. तिला ते जाणवलं. ती जराशी चपापली आणि खर्ज्यात आवाज लावत म्हणाली, “अरे पोळ्यावाली आहे ती आपली.. तिला कशाला एवढी महाग साडी..? घरात आहेरात आलेल्या पन्नास साड्या आहेत, त्यातली देऊ..”
तिच्या बोलण्याकडे लक्ष न देता महेशला आठवणीत होती तशीच मोठया काठांची सोनेरी बुट्ट्या असलेली चॉकलेटी साडी या नवीन गठ्ठ्यात दिसली. त्याने ती साडी पटकन उचलली. किंमत तीन हजार सहाशे होती पण त्याने लगेच “ही साडी पॅक करा” असं सांगितलं आणि तो असावरीकडे न बघताच काऊंटर कडे चालू लागला..
आसावरी मनातून प्रचंड चिडली होती. तिथे न थांबता तणक्यात ती गाडीत येऊन बसली. महेशने साडीचं पार्सल मागे गाडीत टाकलं आणि सिट बेल्ट लावत म्हणाला, “छान आहे ना गं साडी.. अगदी मला हवी तशी मिळाली..”
आसावरीचा रागाचा भडकाच उडाला, “अरे, काय पायातली वाहाण छान म्हणून डोक्यावर नाही ठेवत आपण..”
महेश म्हणाला, “असावरी, तुला काही माहीत नाही. बोलू आपण निवांत..”
त्यावर चिडून आसावरी म्हणाली, “सगळं माहीत आहे मला, अण्णा बोलले होते मागे, ह्या देशमुखबाईचे फार उपकार आहेत आपल्यावर.. म्हणून काय एवढी महाग साडी..?”
महेशने कॉफी शॉप बघत गाडी थांबवली. आसावरी तणक्यानेच टेबलवर बसली. महेशने कॉफी ऑर्डर केली आणि आसावरीशी बोलू लागला, “माझे आई आणि बाबा पाठोपाठ वारले आणि आजोबांनी हिम्मत लावून मला या शहरात शिकायला ठेवलं. शेतीचं उत्पन्न कमी. आजोबा कसेबसे पैसे पुरवायचे मला, पण एकदा कळलं, गावातले देशमुख शहरात राहायला येणार. गावाकडे आजोबा त्यांच्या देवाची पूजा करायला जायचे, त्यामुळे रोजच्या उठण्या बसण्यातल्या ओळखी होत्या.
आजोबांनी शब्द टाकला, ‘पोराला एक वेळ जेवण मिळालं तर बरं होईल.. शिक्षणाचा खर्च पेलत नाही.. एक वेळ चहा नाष्टा धकवतो.. खरंतर रोज पूजेला आला असता, पण कॉलेजची वेळ सकाळची..”
आजोबांच्या बोलण्यावर देशमुख तयार झाले आणि माझं रात्रीचं जेवण पक्क झालं.. ही मायमाऊली तेव्हापासून माझी अन्नपूर्णा आहे.. मला छोटीमोठी काम़ त्या घरात सांगितली जायची.. कधी दळण आणायचं, कधी भाजी आणून द्यायची..
मला जेवू घालतात हे त्यांच्या घरातल्या सगळ्यांच्या डोळ्यात दिसायचं. मला ते खुपायचं पण माझ्याकडे इलाज नव्हता. आजोबांची महिन्याची चक्कर हुकली की पोटात गोळा यायचा, कसं होईल आपलं..? खोलीचे भाडे, चहा, नाश्ता बिल जीव घाबरून जायचा. त्यादिवशी हमखास जेवणात लक्ष लागायचं नाही, तेंव्हा देशमुख काकु डोक्यावरून हात फिरवून शेजारी बसून आग्रहाने वाढायच्या. म्हणायच्या, ‘येतील आजोबा, नको काळजी करुस..’
जेवतांना डोळ्यातून अश्रू गालावर येऊन घासात मिसळायचे.. आईचा स्पर्श आठवायचा..असे ते दिवस होते,..
एकदा मला घरातल्या काही कपड्यांना इस्त्री कर असं एकदम करड्या आवाजात सांगितल्या गेलं.. तश्या काकु बाहेर येऊन म्हणाल्या, “अहो असं रागावून का सांगता त्याला.. आणि त्याला सवय नसेल इस्त्री करण्याची..’
पण त्यादिवशी देशमुख काका रागातच होते.. त्यांचा माझ्यासोबत बारावीत शिकणारा मुलगा नापास झाला होता आणि त्यांच्या तुकड्यांवर जगणारा मी मात्र मेरिटमध्ये आलो होतो.. तो रागच होता.. उपकाराचा.. त्यादिवशी त्यांचा मुलगा.. ही आता लग्न ठरलेली चिमी तर आठच वर्षांची होती, ती सुद्धा वेगळ्याच तोऱ्यात होती. काकूंनी मात्र तोंडात बेसनाचा लाडू घातला आणि केसांवरून हात फिरवत माझी दृष्ट काढत म्हणाल्या..