मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ आई झाली स्वतः च नाव… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? आई झाली स्वतः च नाव ?   सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆ 

पैलतीरावर जाण्यासाठी

आई झाली स्वतः च नाव

आजुबाजुला अथांग पाणी

दूर तिथे   वसतिचा गाव

पोटची पिले पाठीवरती

मदार  वल्हे पायावरती

मातेवरच्या विश्वासावर

पिल्ले निवांत पाठीवरती

पक्षांमधला क्षण हा सुंदर

मात्रुभावनेचा  जागर

जलाशयातील प्रतिबिंबाने

सौंदर्याची चढवी झालर

 🦆दिवसभराच्या शुभेच्छा🦜

 

चित्र साभार – सुश्री नीलांबरी शिर्के 

©  सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ हर आदमी में होते हैं… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण ☆ हर आदमी में होते हैं… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

निदा फाजली का बहुत मशहूर शेर है :

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी

जिसको भी देखना बड़े गौर से देखना…

आज मैंने सोचा कि किसी और को क्यों देखूं ? अपने ही गिरेबान में झांक कर देखूं कि मेरे अंदर कितने आदमी हैं ? कैसे एक कमलेश भारतीय इतने चेहरे लगा लेता है ?

मित्रो ! मेरे जन्म के बाद पालन पोषण नवांशहर के शारदा मुहल्ले में हुआ यानी ब्राह्मणों के बीच एक सरीन (खत्री ) परिवार का बेटा पला बढ़ा । पूरे सैंतीस साल उस मोहल्ले में रहा और ऐसे माहौल में जहां रसोई में नंगे पैर ही जा सकते थे और अंडे मीट मांस की चर्चा तक गुनाह थी । शुद्धता , पांडित्य और पोथी पत्री बांचने , भविष्य बताने वाले, ग्रहदोष टालने वाले भी थे । इसी के चलते हमें भी कुछ दोस्त पंडित जी पुकार लेते थे । कभी बुरा नहीं लगा ।

इसके बावजूद हमारा गांव था तीन चार किलोमीटर दूर सोना नाम से । वहां हमारी खेती थी , हवेली थी और रोज़ शाम वहीं गुजरती । पहले पिता जी के साथ । वे गांव के नम्बरदार भी थे । लगान वसूल करने जाते तब भी साथ रहता और कोर्ट कचहरी में गवाही देने जाते तब भी साथ देता । यानी गांव के लोगों से सीधे सीधे वास्ता रहता । वे अपने ढंग से बातचीत करते । अनाज मंडी और गन्ने की पर्ची लेकर गन्ना मिल भी जाते । इस तरह मेरी एक साथ अनेक अलग अलग दुनिया थीं । अलग अलग व्यवहार । अलग अलग चेहरे । पिता जी के अपने जीवन से जल्द विदा हो जाने पर पढ़ाई के साथ साथ न केवल खेती बल्कि मेरे नाम नम्बरदारी भी आई और आज तक मेरे नाम चल रही है । बेशक यह काम मैंने कभी नहीं किया । पहले अपने ही परिवार के एक सज्जन को दिये रखा और फिर उनके बाद अपनी खेती संभालने वाले दुम्मण को सौंप रखा है । सरकारी कागजों में नम्बरदार बनने का सुख है तो मेरा एक चेहरा यह भी है । कभी कभार दूसरों के कागज तस्दीक भी कर देता हूं जब कभी अपने शहर जाना होता है । हां , छोटी उम्र में ही नवांशहर से राजनीति करने वाले दिलबाग सिंह के करीब आया और पूरा साथ दिया हर चुनाव में । आखिरी समय जब वे पंजाब के कृषि मंत्री बने तो मुझे अपना ओएसडी बनाने के लिए बुलाया तब मना कर दिया क्योंकि राजनीति कभी मेरी मंजिल नहीं रही । ट्रिब्यून में ही इक्कीस साल बिता दिये । फिर एक और नेता मिले भूपेंद्र सिंह हुड्डा जो ले गये हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष बना कर । यह भी एक चेहरा हो सकता है मेरा जबकि मैं वही कलम का सिपाही बन कर खुश हूं ।

पढ़ाई लिखाई कर शहीद भगत सिंह के गांव में आदर्श स्कूल में पहले हिंदी प्राध्यापक बना और बाद में प्रिसिपल बना । इस तरह एक चेहरा मेरा शिक्षक और नसीहतें देने वाला भी हो सकता है । फिर चंडीगढ़ आया दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक बन कर । सात साल रहा और एक महानगर जैसे शहर का बाशिंदा बना लेकिन वह गांव का आदमी ही रहा । शेखर जोशी की कहानी दाज्यू का नन्हा सा हीरो जो हर कदम पर छला जाता है । वह गांव वाला भोलापन नहीं गया । और न जाये, यही दुआ है मेरी रब्ब से। मेरे अंदर बच्चा जिंदा रहे ।

सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी

सच है दुनिया वालो कि हम हैं अनाड़ी

गीत अक्सर गुनगुनाता हूं । लोग इस बात का फायदा उठा कर जब चलते बनते हैं तब सोचता हूं कि अगली बार सावधान रहूंगा पर सावधान कभी न हुआ और जिसका जोर चला वह छल कर चलता बना । यह चेहरा भी है मेरा ।

आर्य समाज से मेरे नाना जुड़े थे और मेरी दादी मंदिर लेकर जाती हर सुबह शाम । इस तरह दो अलग अलग चेहरे ये भी रहे । ननिहाल जाऊं तो हवन में बैठूं और नवांशहर रहूं तो दादी के साथ मंदिर जाकर आरती करूं ।

अब सोचता हूं कि मेरा कौन सा चेहरा असली है ? शारदा मुहल्ले वाला लड़का या गांव वाला या फिर बहुत नर्म , दयालु या एक ओशो की किताबें पढ़ने वाला थोड़ा सा संन्यासी जैसा ? थोड़ा सा ब्राह्मणों जैसा और थोड़ा सा गांव के अनाड़ी जैसा ? कैसा हूं मैं ? कितने चेहरे हैं मेरे ? प्यार करूं तो पूरा करूं और जब गुस्से हो जाऊं तो गांव वाले की तरह पूरा गुस्सा करूं । बिखर बिफर जाऊं गुस्से में । कोई छिपाव नहीं भावों का । कितने वर्ष वामपंथी विचारधारा से जुड़ा रहा और कहानियों में अपनी बात रखी । कौन हूं मैं ? कामरेड , ओशो के विचार या स्वामी दयानंद की सीख लेने वाला ? कौन हूं और क्या हो सकता था ? क्या हो गया ? प्रिंसिपल था , पत्रकार कैसे बनता चला गया ? क्या कर पाया ? क्या कुछ और बनना अभी बाकी है ? सोचता रहता हूं और अपने ही अनेक चेहरे देखता रहता हूं और निदा का शेर याद कर मुस्कुरा देता हूं ,,

जिसको भी देखना बड़े गौर से देखना…

लेकिन मैं तो अपने-आपको ही गौर से देख रहा हूँ और एक और शेर के साथ बात खत्म कर रहा हूं :

धूल चेहरे पर जमी थी

और मैं आइना साफ करता रहा …

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #144 – ग़ज़ल-30 – “पैमाना…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “पैमाना…”)

? ग़ज़ल # 30 – “पैमाना …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

हर दुनियावी शख़्स का होता एक तय पैमाना है,

तौल कर देखिए हम सबका एक तय पैमाना है।

 

ज़िंदगी का ज़हर लोग गले में धीरे-धीरे उतारते,

बाहरी खोल जो हमें दिखता एक तय पैमाना है।

 

चाहत है खिला सकूँ मौज़ू चेहरों को महफ़िल में,

आँसुओं में झिलमिलाती रोशनी तय पैमाना है।

 

तिरछी होती जा रहीं महफ़िल में कुछ निगाहें,

मजलिस में मौजू दिमाग़ों  का तय पैमाना है।

 

नज़रों में पानी की कैफ़ियत अलग होती है हुज़ूर,

कद्रदाँ पेशानी पर उभरती रेखाएँ तय पैमाना है। 

 

फ़िरक़ों में बाँट कर रख दी खूबसूरत ज़िंदगी,

ईसा ओ मुहम्मद का भी एक तय पैमाना है।

 

हिंद की खुली फ़िज़ाओं में ज़िंदगी गुज़ार देखो,

जिसके गुलशन में ख़ुश्बू का नहीं तय पैमाना है।

 

मुनासिब नहीं हर शेर पर हौसला अफजाई हो,

चुप हाज़िरान भी उनकी तारीफ़ का पैमाना है।

 

मासूम माथे पर लिख दिया इंजीनियर डॉक्टर,

हँसते-खेलते बचपन का मार्कशीट तय पैमाना है।

 

तुम रिश्तों में भावना की असलियत न पूछो,

बैंक पास बुक में असल रक़म तय पैमाना है।

 

माना बहुत बेरंग चेहरा उस रोशन दिमाग़ का,

आख़िर वो किसी न किसी ढंग का पैमाना है।

 

तुम्हें क्या पता शायर को क्या मुश्किल आती है,

‘आतिश’ दिल को पिघला कर ढालता पैमाना है।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 3 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 3 ??

एकता शब्द व्यक्तिगत रूप से मुझे अँग्रेजी के ‘यूनिटी’ के अनुवाद से अधिक कुछ नहीं लगता। अनेक बार राजनीतिक दल, गठबंधन की विवशता के चलते अपनी एकता की घोषणा करते हैं। इस एकता का छिपा एजेंडा हर मतदाता जानता है। हाउसिंग सोसायटी के चुनाव हों या विभिन्न देशों के बीच समझौते, राग एकता अलापा जाता है।

लोक, एकता के नारों और सेमिनारों में नहीं उलझता। वह शब्दों को समझने और समझाने, जानने और पहचानने, बरगलाने और उकसावे से कोसों दूर खड़ा रहता है पर लोक शब्दों को जीता है। जो शब्दों को जीता है, समय साक्षी है कि उसीने मानवता का मन जीता है। यही कारण है कि ‘एकता’ शब्द की मीमांसा और अर्थ में न पड़ते हुए लोक उसकी आत्मा में प्रवेश करता है।  इस यात्रा में एकता झंडी-सी टँगी रह जाती है और लोक ‘एकात्मता’ का मंदिर बन जाता है। वह एकात्म होकर कार्य करता है। एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हुए भी ‘एकता’ बहुत छोटा शब्द है ‘एकात्मता’ के आगे। अत: इन पंक्तियों के लेखक ने शीर्षक में एकात्मता का प्रयोग किया है। कहा भी गया है,

‘प्रकृति पंचभूतानि ग्रहा लोका: स्वरास्तथा/ दिश: कालश्च सर्वेषां सदा कुर्वन्तु मंगलम्।’

एकात्मता के दर्शन से लोक का विशेषकर ग्राम्य जीवन ओतप्रोत है। आज तो संचार और परिवहन के अनेक साधन हैं।  लगभग पाँच दशक पहले तक भी राजस्थान के मरुस्थली भागों में एक स्थान से दूसरे स्थान जाने के लिए ऊँट या ऊँटगाड़ी (स्थानीय भाषा में इसे लड्ढा कहा जाता था) ही साधन थे। समाज की आर्थिक दशा देखते हुए उन दिनों ये साधन भी एक तरह से लक्जरी थे और समाज के बेहद छोटे वर्ग की जद में थे। आम आदमी कड़ी धूप में सिर पर टोपी लगाये पैदल चलता था। यह आम आदमी दो-चार गाँव तक पैदल ही यात्रा कर लेता था। रास्ते के गाँव में जो कुएँ पड़ते वहाँ बाल्टी और लेजु (रस्सी) पड़ी रहती। सार्वजनिक प्याऊ के गिलास या शौचालय के मग को चेन से बांध कर रखने की आज जैसी स्थिति नहीं थी। कुएँ पर महिला या पुरुष भर रहा होता तो पथिक को सप्रेम पानी पिलाया जाता। उन दिनों कन्यादान में पूरे गाँव द्वारा अंशदान देने की परंपरा थी। अत: सामाजिक चलन के कारण पानी पीने से पहले पथिक पता करता कि इस गाँव में उसके गाँव की कोई कन्या तो नहीं ब्याही है। मान लीजिये कि पथिक ब्राह्मण है तो उसे पता होता था कि उसके गाँव के किस ब्राह्मण परिवार की कन्या इस गाँव में ब्याही है। इसी क्रम में वह अपने गाँव का हवाला देकर पता करता कि उसके गाँव की कोई वैश्य, क्षत्रिय या हरिजन कन्या तो इस गाँव  में नहीं ब्याही। जातियों और विशेषकर धर्मों में ‘डिफॉल्ट’ वैमनस्य देखनेवालों को पता हो कि पथिक यह भी तहकीकात करता कि किसी ‘खाँजी’ (मुस्लिम धर्मावलंबियों के लिए तत्कालीन संबोधन) की बेटी का ससुराल तो इस गाँव में नहीं है। यदि दूसरे धर्म की कोई बेटी, उसके गाँव की कोई भी बेटी, इस गाँव में ब्याही होती तो वहाँ का पानी न पीते हुए 44-45 डिग्री तापमान की आग उगलती रेत पर प्यासा पथिक आगे की यात्रा शुरू कर देता। ऐसा नहीं कि इस प्रथा का पालन जाति विशेष के लोग ही करते। ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, हरिजन, खाँजी, सभी करते। एक आत्मा, एकात्म, एकात्मता के इस भाव का व्यास, कागज़ों की परिधि में नहीं समा सकता।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 83 ☆ गजल – ’’जुड़ गया है आंसुओं का…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “जुड़ गया है आंसुओं का …”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 83 ☆ गजल – जुड़ गया है आंसुओं का…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

बीत गये जो दिन उन्हें वापस कोई पाता नहीं

पर पुरानी यादों को दिल से भुला पाता नहीं।

बहती जाती है समय के साथ बेवस जिंदगी

समय की भँवरों से बचकर कोई निकल पाता नहीं।

तरंगे दिखती हैं मन की उलझनें दिखती नहीं

तट तो दिखते हैं नदी के तल नजर आता नहीं।

आती रहती हैं हमेशा मौसमी तब्दीलियॉ

पर सहज मन की व्यथा का रंग बदल पाता नहीं।

छुपा लेती वेदना को अधर की मुस्कान हर

दर्द लेकिन मन का गहरा कोई समझ पाता नहीं।

उतर आती यादें चुप जब देख के तन्हाइयाँ

वेदना की भावना से कोई बच पाता नहीं।

जगा जाती आके यादें सोई हुई बेचैनियाँ

किसी की मजबूरियों को कोई समझ पाता नहीं।

जुड़ गया है आंसुओं का यादों से रिश्ता सघन

चाह के भी जिसको कोई अब बदल पाता नहीं।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # ९२ – जीभ का रस ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #92 🌻 जीभ का रस  🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक बूढ़ा राहगीर थक कर कहीं टिकने का स्थान खोजने लगा। एक महिला ने उसे अपने बाड़े में ठहरने का स्थान बता दिया। बूढ़ा वहीं चैन से सो गया। सुबह उठने पर उसने आगे चलने से पूर्व सोचा कि यह अच्छी जगह है, यहीं पर खिचड़ी पका ली जाए और फिर उसे खाकर आगे का सफर किया जाए। बूढ़े ने वहीं पड़ी सूखी लकड़ियां इकठ्ठा कीं और ईंटों का चूल्हा बनाकर खिचड़ी पकाने लगा। बटलोई उसने उसी महिला से मांग ली।

बूढ़े राहगीर ने महिला का ध्यान बंटाते हुए कहा, ‘एक बात कहूं.? बाड़े का दरवाजा कम चौड़ा है। अगर सामने वाली मोटी भैंस मर जाए तो फिर उसे उठाकर बाहर कैसे ले जाया जाएगा.?’ महिला को इस व्यर्थ की कड़वी बात का बुरा तो लगा, पर वह यह सोचकर चुप रह गई कि बुजुर्ग है और फिर कुछ देर बाद जाने ही वाला है, इसके मुंह क्यों लगा जाए।

उधर चूल्हे पर चढ़ी खिचड़ी आधी ही पक पाई थी कि वह महिला किसी काम से बाड़े से होकर गुजरी। इस बार बूढ़ा फिर उससे बोला: ‘तुम्हारे हाथों का चूड़ा बहुत कीमती लगता है। यदि तुम विधवा हो गईं तो इसे तोड़ना पड़ेगा। ऐसे तो बहुत नुकसान हो जाएगा.?’

इस बार महिला से सहा न गया। वह भागती हुई आई और उसने बुड्ढे के गमछे में अधपकी खिचड़ी उलट दी। चूल्हे की आग पर पानी डाल दिया। अपनी बटलोई छीन ली और बुड्ढे को धक्के देकर निकाल दिया।

तब बुड्ढे को अपनी भूल का एहसास हुआ। उसने माफी मांगी और आगे बढ़ गया। उसके गमछे से अधपकी खिचड़ी का पानी टपकता रहा और सारे कपड़े उससे खराब होते रहे। रास्ते में लोगों ने पूछा, ‘यह सब क्या है.?’ बूढ़े ने कहा, ‘यह मेरी जीभ का रस टपका है, जिसने पहले तिरस्कार कराया और अब हंसी उड़वा रहा है।’

शिक्षा:- तात्पर्य यह है के पहले तोलें फिर बोलें। चाहे कम बोलें मगर जितना भी बोलें, मधुर बोलें और सोच समझ कर बोलें।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (41-45)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (41 – 45) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -18

सिंहासन पर बैठे राजा के लधु आलक्तक-युक्त चरण।

जो पाद-पीठ पर जम न सकें, राजाओं ने उनको किया नमन।।41।।

 

ज्यों इन्द्रनील मणि छोटा भी कहलाता गुण से महानील।

त्यों ही महाराज सुदर्शन नाम था सार्थक देख शील।।42।।

 

चामर से नित जिसके गालों पै खेलती थी काली अलकें।

उस बाल नृपति की आज्ञा हित जल-निधि तक उत्सुक थी पलकें।।43।।

 

स्वर्णाभूषण-भूषित ललाट पै तिलक सजाये राजा ने।

हँसते हँसते की तिलक हीन अरि की सब सुन्दर वनितायें।।44।।

 

था कुसुम शिरीष सदृश कोमल, थक देता था भूषण उतार।

फिर भी सक्षमता से अपनी धारे था, धरती राज्य भार।।45।।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ प्रणवरहस्य !… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ प्रणवरहस्य !… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

पायाखालची जमीन सरता

आभाळाची आस ऊरते

दिशांचे वार्यातले घरटे

जळी श्वास कुस तरते.

 

क्षितीजाची काया खण-खंबीर

ब्रम्हांडाचे ध्यास धरते

वज्रातून तप्त लहरी

प्रणव तेज प्रखरते.

 

समुद्राची माया वाहे अनंत

शीतल शशीत भरते

अन् शलाका होता डोळे

तिमीराचे भय सरते.

 © श्रीशैल चौगुले

९६७३०१२०९०

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 104 – तरी तयाच्या पुसते वाटा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 104 – तरी तयाच्या पुसते वाटा ☆

फुलात मजला दिसतो काटा।

तरी तयाच्या पुसते वाटा।

 

आठवणींच्या हिंदोळ्यावर।

आज अचानक झुलती लाटा।

 

संस्कृतीस या स्वार्थांधांच्या।

स्वार्थाने या दिधला चाटा।

 

नात्यामधली विरली गोडी।

जेव्हा फुटला तयास फाटा।

 

प्रेमालाही तोलू पाहे।

प्रेमवीर हा दिसता घाटा।

 

अजब जगाची रीत साजना।

लाथ मारती भरल्या ताटा।

 

देश धर्मही धाब्यावरती।

अखंड करशी त्यांना टाटा।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ऋणानुबंध…भाग 3 ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर☆

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

? जीवनरंग ❤️

☆ ऋणानुबंध…भाग 3 ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

(कुठेतरी चांगल्या घरी चोवीस तासांची नोकरी मिळाली तर पोटापाण्याचा प्रश्न सुटेल आणि डोक्यावर छप्परही राहील असा विचार त्यांनी केला, आणि आज त्या अशा प्रकारे नंदिनीच्या घरी दाखल झाल्या. )

हळूहळू दिवसागणिक नंदिनी आणि मावशींचे सूर चांगले जुळत चालले होते. त्यांच्या व्यक्तित्वाचे एकेक पैलू नंदिनीला उलगडत गेले. सेवानिवृत्त नंदिनी घरच्या घरीच गाण्याचे क्लास घेत होती. स्वयंपाकघरात काम करता करता मावशींचे कान मात्र क्लासमध्ये चाललेल्या गाण्याकडे असायचे. कोणाचा सूर चांगला आहे, कोण बेसुरा आहे हे त्यांना चांगले समजायचे. कानावर अती बेसूर स्वर पडले तर त्यांना सहन व्हायचे नाही. कसलीही भीडभाड न बाळगता सरळ तोंडावर सांगायच्या, “ताई तुमचा गळा बेसुरा आहे, त्याकडे पहिले लक्ष द्या. “नंदिनीला वाटायचे ह्या अशा एकदम कशा काय बोलू शकतात? किती वेळा नंदिनी त्यांना समजवायची, “मावशी, असे एकदम तीर सोडू नका. “पण मावशी म्हणजे स्ट्रेट फाॅरवर्ड.. . !

त्यांचा आवाज इतका गोड होता, सूर ताल, लय अगदी उत्तम. किती गवळणी त्या नंदिनीला गाऊन दाखवायच्या.  “हरी माझ्या पदराला सोड रे”ही गवळण त्या फार भावपूर्ण गात असत. कधी कधी तर दोघींची मैफीलच जमायची. मावशी गवळणी गायच्या आणि नंदिनी पेटीवर त्यांना साथ द्यायची. दोघी कशा अगदी रंगून जायच्या. नंदिनीकडे काही बायका भजने शिकायला येत असत. मावशीही बसायच्या त्यांच्याबरोबर.. ..

कधी शाळेत गेल्या नाहीत. लिहिता वाचता काही येत नव्हते पण त्यांचे बोलणे ऐकत रहावे असे. अगदी साधे बोलतानासुद्धा सहजपणे किती म्हणी आणि वाक् प्रचार वापरायच्या. नंदिनीची बहीण तर नेहमी सांगत असे, “ताई तू मावशींचे बोलणे लिहून ठेव. “

नंदिनीने त्यांच्यासाठी बाराखडी, मुळाक्षरांचे पुस्तक आणले, पाटी पेन्सील आणली आणि त्यांना ती लिहिण्या वाचण्यास शिकवू लागली.

रोज तासभर तरी अभ्यास करायचा असा नियमच नंदिनीने त्यांना घालून दिला.  त्याही ईमानाने शिकू लागल्या.  थोड्याच कालावधीत त्या वर्तमानपत्रातील ठळक बातम्या वाचू लागल्या. करता करता जोडाक्षरांचीही त्यांना चांगली ओळख झाली. स्वतःची सही करायला शिकल्या.  नंदिनीने त्यांना बँकेत खातेही उघडून दिले.

प्रसंगामुळे त्या अशा दुसर्‍याच्या दारात आल्या पण खरोखरीच त्यांचे आचार विचार फार उच्च होते.

सहा महिन्यांच्या कालावधीतच त्या इतक्या रुळल्या की घर त्यांचे की नंदिनीचे असा प्रश्न पडावा कोणाला.. .

नंदिनीकडे येणार्‍या तिच्या मैत्रीणी, बहीणी, नणंदा, दीर हेही आल्या आल्या “काय मावशी,  कशा आहात तुम्ही?”म्हणून पहिली त्यांचीच चौकशी करणार. नेहमी नंदिनी आणि मावशी कुठेही एकत्रच जाऊ लागल्या. नाटक, सिनेमा, कधी सोशल व्हिजीट्स. बाजारातही दोघी एकत्र जात. चूकून कधी मावशी सोबत दिसल्या नाहीत तर वाटेत भेटणारी मंडळी विचारत, “ताई आज तुम्ही एकट्याच?मावशी कुठे गेल्या?”

हा काहीतरी दोघींचा पूर्वजन्मीचा ऋणानुबंधच होता जणू. परमेश्वरी योजना. नंदिनीला देवाने एकटे ठेवले नाही. मावशींच्या रूपात ईश्वरच जसा नंदिनीला साथ देत होता. तिच्या एकट्या जीवनाला उभारी देत होता. तिला आनंदी ठेवीत होता.

समाप्त

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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