मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ पदर, मदर आणि सदरा… ☆ योगिया ☆

? मनमंजुषेतून ?

☆ पदर, मदर आणि सदरा… ☆ योगिया ☆

(मातृ दिवस निमित्तची कविता)

आई वेगळी आणि आईचा पदर वेगळा.

खरं तर आईची ओळख झाली आणि

मग नऊ महिन्यांनी पदराची ओळख झाली.

पाजताना तिनं पदर माझ्यावरून झाकला

आणि मी आश्वस्त झालो

तेव्हा पासून तो खूप जवळचा वाटू लागला…

आणि मग तो भेटतच राहिला…आयुष्यभर…

 

शाळेच्या पहिल्या दिवशी तो रुमाल झाला

उन्ह्याळात कधी तो टोपी झाला

पावसात भिजून आल्यावर तो टॉवेल झाला

खावून घाईत खेळायला पळताना तो नँप्कीन झाला

प्रवासात तो कधी शाल झाला…

बाजारात भर गर्दीत कधी आई दिसायची नाही

पण पदराच टोक धरून मी बिनधास्त चालत राहायचो…

त्या गर्दीत तो माझा दीपस्तंभ झाला

गरम दूध ओतताना तो चिमटा झाला

उन्हाळयात लाईट गेल्यावर तो फँन झाला

 

निकालाच्या दिवशी तो पदर माझी ढाल व्हायचा

बाबा घरी आल्यावर…चहा पाणी झाल्यावर

तो पदरच प्रस्ताव करायचा….

छोटूचा रिझल्ट लागला…चांगले मार्क पडले आहेत

एक-दोन विषयात कमी आहेत

पण आता अभ्यास करीन अस तो म्हणलाय..

बाबांच्या सुऱ्याची सुरी होताना

मी पदरा आडून पाहायचो

 

हाताच्या मुठीत पदराच टोक घट्ट धरून….

त्या पदरानीच मला शिकवलं

कधी-काय अन कस बोलावं

तरुणपणी पदर जेव्हा बोटाभोवती घट्ट गुंडाळला

त्याची खेच बघून तिसऱ्या वेळी आईने विचारलंच

“कोण आहे तो…नाव काय??”

लाजायलाही मला पदरच  चेहऱ्यापुढे घ्यावा लागला

 

रात्री पार्टी करून आल्यावर…जिन्यात पाऊल वाजताच

दार न वाजवताच… पदरानेच उघडलं दार

कडी भोवती फडकं बनून…कडीचा आवाज दाबून

त्या दबलेल्या आवाजानेच दिली शिकवण नैतिकतेची

 

पदराकडूनच शिकलो सहजता

पदराकडूनच शिकलो सौजन्य

पदराकडूनच शिकलो सात्विकता

पदराकडूनच शिकलो सभ्यता

पदराकडूनच शिकलो सहिष्णुता

पदराकडूनच शिकलो सजगता

काळाच्या ओघात असेल

अनुकरणाच्या सोसात असेल किवा

स्व:ताच्या शोधात असेल

साडी गेली…ड्रेस आला…टाँप आला..पँन्ट आली

स्कर्ट आला…छोटा होत गेला

प्रश्न त्याचा नाहीच आहे…

प्रश्न आहे तो

आक्रसत जावून गायब होवू घातलेल्या पदराचा

खरं तर सदऱ्यालाही फुटायला हवा होता पदर….

– योगिया

([email protected] / ९८८१९०२२५२)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 92 ☆ अनहोनी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक संवेदनशील लघुकथा ‘अनहोनी’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 92 ☆

☆ लघुकथा – अनहोनी ☆ 

कई बार दरवाजा खटखटाने पर भी जब रोमा ने दरवाजा नहीं खोला तो उसका मन किसी अनहोनी की आशंका से बेचैन होने लगा। ऐसा तो कभी नहीं हुआ। इतनी देर तो कभी नहीं होती उसे दरवाजा खोलने में। आज क्या हो गया ?  आज सुबह जाते समय वह बाथरूम से उससे कुछ कह रही थी लेकिन काम पर जाने की जल्दी में उसने  जानबूझकर उसकी आवाज अनसुनी कर दी। कहीं बेहोश तो नहीं हो गई ? दिल घबराने लगा, आस – पड़ोसवाले भी इकठ्ठे होने शुरू हो गए थे।

वह रोज सुबह अपने काम से निकल जाता और रोमा घर में सारा दिन अकेली  रहा करती थी। बेटी की शादी हो गई और बेटा विदेश में था। उसने कई बार पति को समझाने की कोशिश भी की कि अब उसे काम करने की कोई जरूरत नहीं है, उम्र के इस दौर में आराम से रहेंगे दोनों पति-पत्नी लेकिन पुरुषों को घर में बैठना कब रास आता है।  किसी तरह से घर का दरवाजा खोला गया। रोमा बाथरूम में बेहोश पड़ी थी उसे शायद हार्ट अटैक आया था। पड़ोसियों की मदद से वह रोमा को अस्पताल ले गया। रोमा को अभी तक होश नहीं आया था। वह उसका हाथ पकड़े बैठा था और सोच रहा था कि अगर आज भी रोज की तरह देर रात घर आता तो ?

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 99 ☆ मोती,  धागा और माला ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “मोती,  धागा और माला …”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 99 ☆

☆ मोती,  धागा और माला… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

कितना सहज होता है,  किसी के परिश्रम पर अपना हक जमाना। जमाना बदल रहा है किंतु मानवीय सोच आज भी लूट- खसोट के साए से बाहर आना नहीं चाहती है या आने की जद्दोजहद करती हुई दिखाई देती है। धागे ने माला पर हक जताते हुए कहा,  मेरे कारण ही तुम हो। तभी बीच में बात काटते हुए मोती ने कहा तारीफ तो मेरी हो रही है कि कितने सुंदर मोती हैं। सच्चे मोती लग रहे हैं।

माला ने कहा सही बात है तुम्हारी सुंदरता से मेरी कीमत और बढ़ जाती है।

धागा मन ही मन सोचने लगा कि ये दोनों मिलकर अपने गुणगान में लगे हैं कोई बात नहीं अबकी बार ठीक समय पर टूट कर दिखाऊंगा जिससे माला और मोती दोनों अपनी सही जगह पर दिखाई देंगे।

ऐसा किसी एक क्षेत्र में नहीं,  जीवन के सभी क्षेत्रों पर इसका असर साफ दिखाई देता है। नींव की उपेक्षा करके विशाल इमारतें खड़े करने के दौर में जीते हुए लोग अक्सर ये भूल जाते हैं कि समय- समय पर उनके प्रति कृतज्ञता भी व्यक्त करनी चाहिए। स्वयं आगे बढ़ना और सबको साथ लेकर चलना जिसे आ गया उसकी तरक्की को कोई नहीं रोक सकता है। योजना बनाना और उसे अमलीजामा पहनाने के मध्य लोगों का विश्वास हासिल करना सबसे बड़ी चुनौती होती है जिसे  सच्ची सोच से ही पाया जा सकता है। श्रेय लेने से श्रेस्कर है कि कर्म करते चलें, वक्त सारे हिसाब- किताब रखता है। समय आने पर उनका लाभ ब्याज सहित मिलेगा। 

थोथा चना बाजे घना,  आखिर कब तक चलेगा,  मूल्यांकन तो सबकी निगाहें करती रहती हैं। धागे को सोचना होगा कि वो भी अपने सौंदर्य को बढ़ाए,  सोने के तार में पिरोए गए मोती को देखने से पहले लोग तार को देखते हैं उसके वजन का अंदाजा लगाते हुए अनायास ही कह उठते हैं; मजबूत है। यही हाल रेशम के धागे का होता है। करीने से चमकीले धागों के साथ जब उसकी गुथ बनाई जाती है तो मोतियों की चमक से पहले रेशमी, चमकीले धागों की प्रशंसा होती है। सार यही है कि आप भले ही धागे हों किन्तु स्वयं की गुणवत्ता को मत भूलिए उसे निखारने, तराशने,  कीमती बनाने की ओर जुटे रहिए। अमेरिकी उद्यमी जिम रॉन ने ठीक ही कहा है – “आप अपने काम पर जितनी ज्यादा मेहनत करते हैं,  उससे कहीं ज्यादा मेहनत खुद पर करें।”

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – वह ??

( कवितासंग्रह ‘वह’ से)

जैसे शैवाली लकड़ी,

ऊपर से एकदम हरी,

कुरेदते जाओ तो

भीतर निविड़ सूखापन,

कुरेदना औरत का मन कभी,

औरत और शैवाली लकड़ी

एक ही प्रजाति की होती हैं..!

© संजय भारद्वाज

(रात्रि 8:37, 15.7.19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 156 ☆ कविता – पड़ोसन…! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  कविता  पड़ोसन…! इस आलेख में वर्णित विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं जिन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से लेना चाहिए।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 156 ☆

? कविता  – पड़ोसन..! ?

वर्तुल ऐंठन ये,

सख्त कंटीली,

बाड़ी वाले तारों की,

चुभन भरी,

है बनी, आपाधापी

थपेड़ों झंझावातों से ।

 

नई पड़ोसन

हरित बेल ने

अपने मृदुल वर्तुल

सर्पालिंगन से

बना लिया है

उसी राह को

विकास का अवलंबन ।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 109 ☆ बाल कविता – सुंदर प्यारा समय न खोओ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 109 ☆

☆ बाल कविता – सुंदर प्यारा समय न खोओ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

शीतल – शीतल हवा चल रही

     प्रातः का कर लें अभिनंदन।

 

शरद ऋतु है, पर्व दशहरा

      करें ईश का हम सब वंदन।।

 

पंछी जगकर करें किलोलें।

       मीठे स्वर में मिसरी घोलें।।

 

पूरव में लाली है छाई।

       मौसम बड़ा सुहाना भाई।।

 

आलस त्यागें जगें भोर में

       नित्यकर्म कर , हम सैर करें।

 

योग औ’ व्यायाम भी कर लें

       शक्ति, जोश को हम सदा भरें ।।

 

पुष्प खिल गए झूमी डालें।

     स्वर्णिम – सी धानों की बालें।।

 

सैर करें पंछी भी नभ में।

      ईश्वर को देखें हम सबमें।।

 

गोल लाल सूरज उग आए।

       हम सबको वह ऊर्जा लाए।।

 

सुंदर प्यारा समय न खोओ।

     प्यारे बच्चो ! अब मत सोओ।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #115 – बाल साहित्य – हैलो की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है बच्चों के लिए एक ज्ञानवर्धक आलेख – “हैलो की आत्मकथा ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 115 ☆

बाल साहित्य – हैलो की आत्मकथा ☆ 

आप ने मेरा नाम सुना है. अकसर बोलते भी हो. जब आप के पास टैलीफोन आता है. तब आप यही शब्द सब से पहले बोलते हो. मगर, आप ने सोचा है कि आप यह शब्द क्यों बोलते हो? नहीं ना?

चलो ! मैं आप को बताती हूं. इस के शुरुवात की एक रोचक यात्रा. मैं यह कहानी आप को बताती हूँ. आप इसे ध्यान से सुनना. यह मेरी आत्मकथा भी है. 

हैलो ! इस नाम को हरेक की जबान पर चढ़ाने का श्रेय अलेक्जेंडर ग्राहम बैल को जाता है. हां, आप ने ठीक सुना और समझा. ये वही महान आविष्कारक ग्राहम बैल हैं, जिन्हों ने टैलीफोन का आविष्कार किया था.

हैलो ! चौंकिए मत. मेरा नाम हैलो ही है. मैं एक जीती जागती लड़की थी. मेरा पूरा नाम था मारग्रेट हैलो. ग्राहम बैल मुझ से बहुत प्यार करते थे. मैं उन की सब से प्यारी दोस्त थी. वे प्यार से मुझे हैलो कह कर पुकारते थे.

वे भी मेरे सब से अच्छे दोस्त थे. इस वजह से हम अपनी बातें आपस में साझा किया करते थे. वे अपनी सब बातें मुझे बातते थे. मैं भी अपनी सब बातें उन्हें बताती थी. जैसा अकसर दोस्तों के बीच होता है, वैसा हमारे बीच बातों का आदानप्रदान होता रहता था.

यह उन दिनों बात की है जब वे टैलीफोन का आविष्कार कर रहे थे. तब वे उस फोन का परिक्षण मुझे फोन कर के करते थे. इस के लिए उन्हों ने एक फोन का एक चोंगा मुझे दे रखा था. दूसरा चोंगा उन के पास रखा हुआ था.

उस में उन्हों ने कई सुधार किए. इस के बाद वे मुझे फोन करते.  सुनते-देखते सुधार के बाद कुछ अच्छा हुआ है. इस के लिए वे अक्सर फोन लगाते थे. तब वे सब से पहला शब्द में मेरे नाम बोलते थे- हैलो !

ऐसा उन्हों ने अनेकों बार किया. इस बात को उन के मित्र भी जानते थे. परिक्षण के दौरान भी उन्हों ने सब से पहला शब्द हैलो ही बोला था. तब से यह शब्द टैलीफोन करने- वालों के लिए एक संबोधन बन गया. जब भी कोई किसी को टैलीफोन करता या किसी का टैलीफोन उठाता सब से पहला यही शब्द बोलता था.

इस से यह शब्द टैलीफोन के लिए चल निकला.

यह शब्द ग्राहम बैल की देन है. इन्हों ने टैलीफोन सहित अनेक आविष्कार किए है. इन के अविष्कार ने ग्राहम बैल को अमर बना दिया हैं. मगर आप यह जान कर हैरान हो जाएगे कि आज तक उन का नाम इतनी बार नहीं बोला गया होगा जितनी बार मेरा नाम- हैलो बोला गया है. हमेशा बोला जाता रहेगा.

वे टैलीफोन के आविष्कारक और मेरे सब से अच्छे दोस्त थे. उन्हों ने मेरा नाम अमर कर दिया. मुझे उन की दोस्ती पर नाज है. ऐसा दोस्त सभी को मिले. यह आशा करती हूँ. चुंकि ग्राहम बैल ने सब से पहले मुझे ही टैलीफोन किया था. इस हिसाब से टैलीफोन की सब से पहली स्रोता मैं ही बनी थी. इस तरह दो प्रसिद्धि मेरे साथ जुड़ गई है. जिस ने मुझे सदा के लिए अमर बना दिया.

आशा है आप को मेरी यह आत्मकथा अच्छी लगी होगी.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

31/03/2019

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

सूचनाएँ/Information ☆ लघु पत्रिकाओं के महत्त्व व योगदान पर सम्मेलन – कमलेश भारतीय ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information  ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ लघु पत्रिकाओं के महत्त्व व योगदान पर सम्मेलन – कमलेश भारतीय ☆ 

लघु पत्रिका सम्मेलन, दिनेशपुर (उत्तराखंड)

अभी आया हूं दिनेशपुर से जो उत्तराखंड का एक छोटा सा गांव है। जहां न कोई बड़ा होटल है और न कोई गेस्ट हाउस लेकिन पलाश विश्वास का हौसला देखिए कि दो दिन का सम्मेलन रख दिया देश की लघुपत्रिकाओं के योगदान और उनकी भूमिका को लेकर। कितने ही रचनाकार /संपादक दूर दराज से, देश के कोने कोने से पहुंचे और जमकर चर्चा हुई दो दिन। जनता का साहित्य, जनता की संस्कृति और जनता का मीडिया यह विषय रहा चर्चा परिचर्चा के लिए। प्रसिद्ध रचनाकार मदन कश्यप ने बहुत बढ़िया बात कही -देशहित और जनहित में इतना विरोध क्यों है? बाजार और विचार के बीच खाई क्यों है? बाजार और विचार की लड़ाई बड़ी है और इन दोनों के बीच खाई भी बढ़ती जा रही है। विचारहीनता का संकट बढ़ता जा रहा है देश में। सत्य को समझने, पहचानने और अभिव्यक्त करने की चुनौती बढ़ती जा रही है। हम संस्कृति से विमुख करने वालों के लिए चुनौती बन सकें यह बहुत जरूरी हो गया है। देवशंकर नवीन ने कहा कि चेतना को प्रबुद्ध करने की जरूरत है। उन्होंने एक लघुकथा से समझाया कि जिन्होंने रावण के पाप को झेला वो भी कसूरवार होते हैं बराबर के। हमें वैकल्पिक मीडिया बनाना है। ये लघुपत्रिकायें ही हैं जिन्होंने हर आंदोलन को जन्म दिया।

मैंने हरियाणा की ओर से गये इकलौते प्रतिनिधि के रूप में कहा कि कोई पत्र पत्रिका लघु नहीं होता। यदि ऐसा होता तो छत्रपति के पूरे सच ने जो काम कर दिखाया वह बड़े बड़े अखबार नहीं कर सके। लघु पत्रिका ‘वामन के तीन डग’ भरतीं आसमान तक नाप जाती हैं।

पाश ने कहा भी था कि

सबसे खतरनाक होता है

सब कुछ देखकर भी चुप रहना

और सुरजीत पातर ने भी कहा था :

कुज्ज किहा तां हनेरा जरेगा किवें,,,

जी हां। हनेरा यानी अंधकार यानी तानाशाह कभी सहता नहीं विरोध और यह विरोध हमें करना है। इन लघु पत्रिकाओं को करना है क्योंकि मीडिया बिकाऊ होता जा रहा है और बड़े संस्थानों से कोई आस नहीं बची।

‘आजकल’ के संपादक राकेश रेणु ने कहा कि जितने बड़े आंदोलन देश में हुए सबमें लघु पत्रिकाओं का बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान है लेकिन जिस स्तर पर और जितनी गहरी बहस होनी चाहिए वह होनी चाहिए। इसे बहुत गंभीरता से लेने की जरूरत है।

सम्मेलन में ‘समयांतर’ के संपादक पंकज बिष्ट, ‘नैनीताल समाचार’ के संपादक राजीव लोचन साह, शेखर पाठक,कौशल किशोर, बेबी हालदार, कपिलेश भोज, अमृता पांडे, मीन अरोड़ा, गीता पपोला, रूपेश कुमार सिंह, नगीना खान, कितने जाने अनजाने मित्रों ने इसे गरिमा प्रदान की।

रूपेश कुमार सिंह द्वारा लिखित ‘मास्साब’ पुस्तक का विमोचन किया गया जिसमें मास्टर मास्टर प्रताप सिंह के जीवन की घटनाओं को समेटने की कोशिश  की गयी है। सम्मेलन में देश के अनेक स्थानों से प्रकाशित हो रही पत्रिकाओं व पुस्तकों की प्रदर्शनी व बिक्री भी खूब हुई और दोनों शाम कलाकारों ने सांस्कृतिक कार्यक्रम व नाटक प्रस्तुत किये।

कार्यक्रम का मुख्य संचालन हेतु भारद्वाज ने किया और इसे पटरी से उतरने से बार बार सही जगह लाने पर बीच में आते रहे।

इस पूरे आयोजन के लिए पलाश विश्वास और प्रेरणा अंशु को बधाई देता हूं। संयोग से प्रेरणा अंशु के प्रकाशन का यह 36 वां गौरवशाली वर्ष भी था।

प्रेरणा अंशु को भी बहुत बहुत बधाई। एक छोटे से गांव दिनेशपुर से जो अलख जगी है, वह बहुत दूर तक जायेगी, पूरी आशा है, विश्वास है।

साभार –  श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 17 (41-45)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #17 (41 – 45) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -17

 

कुश ने सावन सा किया था जन-नद समृद्ध।

बरस भाद्र सा अतिथि ने और किया अति ऋद्ध।।41।।

 

दिये वचन पूरे किये, कभी न मानी हार।

किन्तु शत्रु को नष्ट कर किया सदा प्रतिकार।।42।।

 

आयु, रूप ऐश्वर्य हर है मद का आधार।

किन्तु सभी होते भी था नहिं उसे मदभार।।43।।

 

दिन दिन नित बढ़ता गया उस पर सबका प्यार।

इससे सुदृढ़ हुआ झट उसका जन-आधार।।44।।

 

बाह्य शत्रु तो व्यक्ति पर करते क्वचित प्रहार।

मन में षट् रिपुओं का ही उचित सदा संहार।।45।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १२ मे – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ १२ मे – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर -ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

धनंजय कीर

अनंत विठ्ठल ऊर्फ धनंजय कीर (23 एप्रिल 1913 – 12 मे 1984) हे नामांकित चरित्रकार होते.

त्यांचा जन्म रत्नागिरीत झाला.

पुढे ते मुंबई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशनच्या एज्युकेशन कमिटीत नोकरी करून लागले.

ते ‘फ्री हिंदुस्थान’मध्ये लिहू लागले.

त्यांनी प्रथम सावरकर व नंतर आंबेडकरांचे चरित्र लिहिले. पुढे नोकरीचा राजीनामा देऊन त्यांनी महात्मा फुले, छत्रपती शाहू महाराज व महात्मा गांधी यांचीही चरित्रे लिहिली.

याशिवाय त्यांनी ‘लोकमान्य टिळक आणि राजश्री शाहू महाराज : एक मूल्यमापन’, ‘तीन महान सारस्वत’, ‘ ह्यांनी इतिहास घडविला’, ‘कृतज्ञ मी कृतार्थ मी’ (आत्मचरित्र) वगैरे मराठी, तसेच ‘Dr. Ambedkar :Life and Mission’, ‘Lokmanya Tilak :Father of Indian Freedom Struggle’ वगैरे अनेक इंग्रजी पुस्तके लिहिली.

1971मध्ये त्यांना पद्मभूषण प्रदान करण्यात आले.

शिवाजी विद्यापीठाने 1980 साली त्यांना ऑनररी डॉक्टरेट देऊन त्यांचा सन्मान केला.

रत्नागिरीमधील मंदिराचे बांधकाम चालू असताना कीरांना सावरकरांबरोबर काम करण्याची संधी मिळाली.

☆☆☆☆☆

अशोक पाटोळे

अशोक पाटोळे (5जून 1948 – 12 मे 2015) हे नाटककार, कथाकार, पटकथाकार वगैरे होते.

‘आयजीच्या जीवावर बायजी उदार’ ही त्यांची पहिली एकांकिका. नंतर त्यांनी विनोदी व हृदयस्पर्शी अशा दोन्ही प्रकारच्या नाटकांचे लेखन करून नाट्यक्षेत्रात स्वतःची वेगळी ओळख निर्माण केली.

‘झोपा आता गुपचूप’ हे त्यांचे पहिले नाटक. यानंतर त्यांनी  ‘आई रिटायर होते’, ‘एक चावट संध्याकाळ’, ‘जाऊबाई जोरात’, ‘देखणी बायको दुसऱ्याची’, ‘श्यामची मम्मी’, ‘हीच तर प्रेमाची गंमत आहे’, ‘बा रिटायर थाय छे'(गुजराती) वगैरे 24 नाटके लिहिली. ती सर्व प्रेक्षकांच्या पसंतीस उतरली. त्यांची अनेक नाटके हिंदी, गुजरातीतही यशस्वी ठरली.

पाटोळेनी दूरचित्रवाणीसाठी लिहिलेल्या ‘अधांतर’, ‘अध्यात ना मध्यात’, ‘झोपी गेलेला जागा झाला’, ‘हद्दपार’, ‘ह्यांचा हसविण्याचा धंदा’ वगैरे मराठी मालिका, तसेच ‘चुनौती’, ‘श्रीमान श्रीमती’, ‘ हसरते’ या हिंदी मालिका खूपच गाजल्या.

‘चौकट राजा’, ‘झपाटलेला’, ‘माझा पती करोडपती’, ‘शेजारी शेजारी’या गाजलेल्या चित्रपटांच्या  पटकथा आणि संवाद पाटोळेनीच लिहिले होते.

याव्यतिरिक्त त्यांनी ‘एक जन्म पुरला नाही'(आत्मचरित्र), ‘सातव्या मुलीची सातवी मुलगी'( कथासंग्रह) व ‘पाटोळ्यांच्या पाचोळ्या'( कवितासंग्रह) ही पुस्तकेही लिहिली.

अनुपम खेर यांच्या ‘कुछ भी हो सकता है’ या आत्मकथनात्मक नाटकाचे लेखनही पाटोळेनीच केले होते.

याव्यतिरिक्त त्यांना चित्रकला, वक्तृत्व, गीतगायन व अभिनय यांचीही आवड होती.

त्यांच्या निधनानंतर त्यांच्या इच्छेनुसार,कोणतेही धार्मिक अंत्यसंस्कार न करता त्यांच्या पार्थिवाचे देहदान करण्यात आले.

☆☆☆☆☆

तारा वनारसे

डॉ. तारा वनारसे (13 मे 1930 – 12 मे 2010) या निष्णात स्त्रीरोगतज्ज्ञ, कथाकार, कवयित्री, कादंबरीकार होत्या.

लंडनच्या ‘रॉयल कॉलेज ऑफ ऑबस्टेट्रिक्स अँड गायनोकॉलॉजी’ची फेलोशिप त्यांना मिळाली होती.

डॉ. बेनेडिक्ट रिचर्ड्स यांच्याशी लग्न करून त्या इंग्लंडला स्थायिक झाल्या. तिथल्याही सांस्कृतिक क्षेत्रात त्यांनी योगदान दिलं होतं.

रामायणाच्या पार्श्वभूमीवरील व शूर्पणखेला केंद्रस्थानी ठेवून लिहिलेली त्यांची ‘श्यामिनी’ ही कादंबरी लक्षवेधी ठरली. शूर्पणखेच्या प्रेमकहाणीला एक उदात्त रूप देऊन आर्य-अनार्य संघर्षाला एक वेगळा अर्थ देण्याचा प्रयत्न त्यांनी त्यात केला आहे.

वनारसेंची ‘पश्चिमकडा’, ‘कक्षा’, ‘केवल कांचन’, ‘गुप्त वरदान’, ‘तिळा तिळा दार उघड’, ‘सूर'(कादंबरी), ‘नर्सेस क्वार्टर्स’ (एकांकिका) वगैरे पुस्तके प्रसिद्ध आहेत.

त्यांच्या ‘बारा वाऱ्यांवरचे घर’ या काव्यसंग्रहाला राज्यशासनाचा पुरस्कार मिळाला होता.

12 मे 2010ला हंपस्टीडमध्ये त्यांचे निधन झाले.

धनंजय कीर, अशोक पाटोळे तारा वनारसे यांना त्यांच्या स्मृतिदिनी आदरांजली.🙏

☆☆☆☆☆

सौ. गौरी गाडेकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ :साहित्य साधना, कऱ्हाड शताब्दी दैनंदिनी, विकीपीडिया, विवेक  महाराष्ट्र नायक

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares