English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 92 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 92 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 92) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 92 ?

☆☆☆☆☆

नेकियाँ खरीदी हैं हमने

अपनी शोहरतें गिरवी रखकर,

कभी फुर्सत में मिल, ऐ ज़िंदगी

तेरा भी हिसाब कर देंगे…!

 

We have bought goodwill

by mortgaging our name & fame,

O’Life, meet me sometime in

leisure, will settle your dues too…!

☆☆☆☆☆ 

वो लफ्ज़ ही होते हैं किसी की

शख्सियत का हक़ीक़ी आईना

शक्ल तो उम्र और हालात के

साथ-साथ बदल जाती है…

 

Words are the true mirror

of one’s real personality…

Appearances keep changing with

the age and circumstances!

☆☆☆☆☆

 दर्द मुझे ढूंढ ही लेता है

रोज़ एक नये बहाने से

वाकिफ़ हो गया है वो

मेरे हर एक ठिकाने से…

 

Pain finds me everyday

with a new excuse…

It has become aware of

my every whereabouts!

☆☆☆☆☆ 

कम से कम मेरे इतने

करीब  तो  रहा करो…

बात ना भी हो तो क्या

दूरी तो न महसूस हो..!

 

At least stay so close …

that even if no talks…  

Happens to be there,

still distance is not felt!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 92 ☆ नवगीत – करना होगा… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित नवगीत – करना होगा… )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 92 ☆ 

☆ नवगीत – करना होगा…  ☆

हमको कुछ तो

करना होगा…

*

देखे दोष,

दिखाए भी हैं.

लांछन लगे,

लगाये भी है.

गिरे-उठे

भरमाये भी हैं.

खुद से खुद

शरमाये भी हैं..

परिवर्तन-पथ

वरना होगा.

हमको कुछ तो

करना होगा…

*

दीपक तले

पले अँधियारा.

किन्तु न तम की

हो पौ बारा.

डूब-डूबकर

उगता सूरज.

मिट-मिट फिर

होता उजियारा.

जीना है तो

मरना होगा.

हमको कुछ तो

करना होगा…

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

10.4.2018

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – आत्मानंद साहित्य #123 ☆ कविता – राग बासंती ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 123 ☆

☆ ‌कविता – राग बासंती ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

(जहां एक तरफ प्रकृति का सौंदर्य बोध कराती है तो वहीं पर प्रेम व विरह के भावों से बखूबी परिचय भी कराती है। इस रचना में जहां ‌ऋतुराज बसंत को नायक के रूप में चित्रांकित किया गया है वहीं धरती के सौंदर्य को दुल्हन के रूप में वर्णित किया गया है। कहीं संयोग प्रभावी है तो कहीं विरह प्रधान है। प्रकृति का रंग निखरता बिखरता दिखाई देता है, जो यह बताता है कि किस प्रकार मानव जीवन प्रकृति से प्रभावित होता है।)

पतझड़ के होते ही, बसनों का अंत करके।

देखो बसंत ऋतुराज, आज़ आया है।

नवपल्लव वृक्षों में, फूलों की क्यारी में।

अभिनव सुगंध और, रंग भर लाया है।।१।।

 

मंद मंद पुरुआ चले, प्रियतम संग सांझ ढले।

बांसुरी की तान सुनि, गोरिया का मन डोले।

नीली पीली चूनर ओढ़े, दूल्हन सी धरा लगे।

भावों का ज्वार लिए, मानो इस धरा पर।

धरती रिझाने, ऋतु राज उतर आया है।।०२।।    

।।पतझड़ के होते…।।

 

कोई डूबा हास‌ में, कोई परिहास में

कोई रमा भोग में, कोई विलास में।

गोद लिए छौने को, तडपत बिछौने पर।

बिरहिनि का मन तरसे, नैनों से जल बरसे।

राह तकत कटत रात, कंत नाही बुझत बात।

पिउ की पढत पाती पुरान, छलकत प्रेम गागर सा।

बिरह की हिलोर उठत, मन बिकलाया है।

भावों का ज्वार लिए, मानों धरा पर।

धरती रिझाने कामदेव उतर आया है।।०३।।

।। पतझड़ के होते ही…।।

 

नीले नीले अंबर में, डत झुंड बगुलों के।

कोयल की कूक सुनि, नृत्य देख मैना के।

बालियों से लदे खेत, झूमते हवाओं से।

छेड़-छाड़ बिरह प्यार, खुशियों के ले बहार।

फगुआ की स्वर लहरी, ढोलक की थाप सुनि।

मन हरसाया है, पतझड़ के होते ही।।०४।।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 17 (56-60)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #17 (56 – 60) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -17

 

सक्षम हो भी विजय का नहीं किया अभियान।

जहां रोध को हटा, पथ करना था आसान।।56।।

 

अर्थ-धर्म औं’ काम थे पारस्परिक सहाय।

तीनों उसके राज्य में करते थे समवाय।।57।।

 

निबल मित्र कम काम का, प्रबल भय का आधार।

इससे मध्य से मित्रता की पाने सहकार।।58।।

 

देश-काल-गति शत्रु की देख, भविष्य विचार।

योग्य प्रशासक के सदृश थे उसके व्यवहार।।59।।

 

कोश बढ़ाया प्रजाहित, न कि लोभ के भाव।

होते भिन्न जलद-शरद मेघों के बर्ताव।।60।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १५ मे – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ १५ मे – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर -ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

संभाजी सोमा कदम

संभाजी सोमा कदम (5 नोव्हेंबर 1932 – 15 मे 1998) हे प्रतिभावंत व्यक्तिचित्रकार, आदर्श शिक्षक, कलासमीक्षक, कवी, सौंदर्यमीमांसक, संगीताचे अभ्यासक होते.

अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितीत त्यांनी मुंबईतील जे. जे. स्कूल ऑफ आर्टमधून जी. डी. आर्ट ही पदविका प्राप्त केली. त्यानंतर त्याच संस्थेत प्रथम कलाशिक्षक, मग प्राध्यापक व नंतर अधिष्ठाता या पदावर त्यांनी काम केले.नंतर स्वेच्छानिवृत्ती घेऊन रहेजा कला शाळेत त्यांनी अभ्यागत प्राध्यापक म्हणून काम केले.

व्यक्तिचित्रणामध्ये त्यांनी स्वतःची खास शैली निर्माण केली.व्यक्तिचित्र म्हणजे त्या व्यक्तीच्या अंतरंगाला अधोरेखित करणारे चित्रण होय, ही व्याख्या त्यांनी रुजवली.

त्यांनी अनेक प्रदर्शने भरवली.

जे जे स्कूल ऑफ आर्टच्या ‘रूपभेद’ या अंकासाठी ते लेखन करत. काही काळ त्यांनी मराठी विश्वकोशासाठी लेखन व कलासंपादनाचे काम केले. जे. जे. स्कूल ऑफ आर्टचे माजी अधिष्ठाता प्रल्हाद अनंत धोंड यांनी सांगितलेल्या आठवणींचे ‘रापण’ या नावाने कदमांनी केलेले लेखन उल्लेखनीय आहे.

‘मौज’ या नियतकालिकातून ते ‘विरूपाक्ष’ या टोपणनावाने कलासमीक्षा लिहीत.नंतर ते ‘सत्यकथा’मधूनही समीक्षालेखन करू लागले.

‘पळसबन’ हा त्यांचा कवितासंग्रह. त्यातील त्यांच्या कविता खूप आत्मकेंद्रित आहेत.

संगीतातील सौंदर्यशास्त्र या विषयावरही त्यांनी लेखन केले आहे.

चिं. त्र्यं. खानोलकरलिखित ‘आरसा बोलतो’ हे एकपात्री नाटक त्यांनी दिग्दर्शित केले. यात अमोल पालेकर यांची भूमिका होती.

ते एकल हार्मोनियमवादनाचे प्रयोगही सादर करत असत.

मुंबई, पुणे, नागपूर, कोल्हापूर, गोवा, नाशिक, खैरागड, म्हैसूर, उदयपूर येथील कलासंस्थांमध्ये त्यांची व्यक्तिचित्रे संग्रहित आहेत.

विद्यार्थीदशेत असतानाच त्यांना ‘डॉली करसेटजी पारितोषिक’ मिळाले होते.

दिल्लीच्या आयफॅक्स या कलासंस्थेने त्यांना ‘व्हेटरन आर्टिस्ट’हा पुरस्कार देऊन गौरवले.

प्रा. कदम यांना त्यांच्या स्मृतिदिनानिमित्त आदरांजली.🙏

☆☆☆☆☆

सौ. गौरी गाडेकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ :साहित्य साधना, कऱ्हाड शताब्दी दैनंदिनी, मराठी विश्वकोश :सुपर्णा कुलकर्णी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ चला जाऊया पिकनिकला… ☆ सुश्री त्रिशला शहा ☆

सुश्री त्रिशला शहा

? कवितेचा उत्सव ?

☆ चला जाऊया पिकनिकला… ☆ सुश्री त्रिशला शहा ☆

सुट्टीच्या दिवसात पिकनिकला कुठे जायचं ते ठरवा.

(चाल- चल उड जा रे पंछी)

चला जाऊ पिकनिकला,पाहुया भारत देश हा न्यारा……..

 

कोकणचे ते रुप मनोहर, सागराच्या लाटा

आंबा,फणस,काजूंचा मेवा,शहाळ्याचा गोडवा

निसर्गाचा मस्त नजारा,पाहून घेऊ चला ना

        चला जाऊ….

 

मस्त फुलांच्या सुंदर  बागा, अनुपम्य काश्मीरला

सफरचंद,अक्रोडचा  साठा,दाल सरोवरी फेरा

बर्फाच्या राशीत खेळता,आनंद अनुभवू खरा

      चला जाऊ……

 

राजस्थानची बातचं न्यारी,महल,पँलेसची दाटी

वाळूमधुनी फिरण्यासाठी,उंटाची सफारी

माऊंट अबू अन् शहर गुलाबी, डोळे भरुनी पाहाण्या

     चला जाऊ……

 

सुंदर बीच अन् माडांची  शोभा,समुद्राची गाज

चर्च,मंदिर सुरेख तिथे,निसर्गाची लयलूट

गोव्याची ही सुपीक भूमी,पाहून येऊ चला ना

    चला जाऊ…….

 

हिमालयात बर्फांच्या राशी,दरी-खोऱ्यांची चढाई

मानसरोवरी भक्तीचा महिमा,’हर’ दर्शन कैलासी

बद्री,केदार मंदिर सुंदर,गंगेचा उगम पहाण्या

    चला जाऊ……

© सुश्री त्रिशला शहा

मिरज 

 ≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कृष्णचित्त… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ कृष्णचित्त… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

एक मनाचे बिंब

नाचे गोकुळात

कृष्ण लिलेचे भाव

साचती डोळ्यात.

 

तुडूंब जळांशयात

डुंबता विहार

गोपगडी ते सारे

काल्याचे शिवार.

 

त्या यमुना तीराशी

रंगे डाव खरा

जीवन या अर्थाचा

कळे गम्य फेरा.

 

राक्षस नि मानव

प्रकृती- प्रवृत्ती

ज्ञानाचीच ऊकल

मन कृष्ण चित्ती.

 © श्रीशैल चौगुले

९६७३०१२०९०

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ हिरवी कोडी… वि. म. कुलकर्णी ☆ रसास्वाद – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? काव्यानंद ?

☆ हिरवी कोडी… वि. म. कुलकर्णी ☆ रसास्वाद – श्री सुहास रघुनाथ पंडित

निष्कलंक, निरागस, बालपणातील आठवणी मनाच्या कोप-यात घर करून राहिलेल्या असतात. वर्षामागून वर्षे निघून जातील पण या आठवणी तिथेच अंग चोरून बसलेल्या असतात. मनाचा कोपरा कधी तरी साफ करावासा वाटतो आणि नकळत लक्ष जातं अशा कोप-यातल्या आठवणींकडे. शांत जलाशयावर एखाद्या धक्क्याने तरंग  उठावेत तसे मनोपटलावरही तरंग उठतात आणि आठवणींच्या लाटा हळुवारपणे एका मागे एक उमटू लागतात. मनच ते. जितक पुढ धावेल तितकंच मागे मागेही जाईल. मग बालपणातल्या टवटवीत आठवणी डोळ्यासमोर जाग्या व्हायला कितीसा वेळ लागणार?

कवीवर्य  वि. म. कुलकर्णी यांच्या ‘हिरवी कोडी ‘ या कवितेत हेच भाव व्यक्त झालेत असे वाटते. स्नेह भाव  व मनाची नितळता ही त्यांच्या फक्त स्वभावातच नव्हती तर कवितेतूनही दिसून येत होती. हिरवी कोडी मध्ये त्यांनी   जे प्रसंग चित्रित केले आहेत ते किती सौम्यभाषेत रंगवलेले आहेत ते समजून घेण्यासारखे आहे. आयुष्यतील कारकिर्दीची वर्षे ही शहरात व्यतीत झाली असली तरी मनातील गावाकडील बालपणीच्या आठवणींचा झरा बुजलेला नाही. शालेय जीवनातील सवंगडी आणि एखादी बालमैत्रिण दृष्टीआड झाली तरी स्मृतीआड होत नाहीय. ते गाव, तिथला ओढा, तिचं त्या गोड पाण्यात खेळणं, अंगावर उडणारे शिंतोडे , त्यामुळे होणारी जीवाची थरथर!शिंतोडे नव्हतेच ते, तो तर होता तिचा अप्रत्यक्ष स्पर्श. त्याशिवाय का जीवाची थरथर होईल?चवळीच्या शेंगांसारखा रानचा मेवा. त्या शेंगांनी भरलेली  ओंजळ याच्यासाठी रिकामी व्हायची, केवळ मैत्रीपोटी. आणि तो झोपाळा आजही झुलवतोय मनाला. झोका द्यायचा तिचा हुकूम हा मुकाट्याने कसा काय पाळायचा?केवळ मैत्री. जणू काहीनितळ मनाचे शीतल चांदणे.

आणि आज? ओढा गेला दूर देशी. शाळा झाली नजरेआड. घर म्हणजे फक्त आठवण. धुक्यामुळे धुसर दिसावे तसे काळाच्या पडद्याआडून पुसटसे दिसते आहे, थोडेसे स्मरते आहे. मन थरथरून उठते आहे. आठवणींच्या हिंदोळ्यावर झुलत राहतात मनात फुलणारी हिरवी कोडी! हो, कोडीच.  ज्यांची उत्तरं तेव्हाही मिळाली नव्हती आणि आताही मिळत नाहीत. किंवा उत्तरं मिळू नयेत असही वाटत असेल. कोडी मात्र हिरवी आहेत. तेव्हाही आणि आताही. हिरवेपणा न संपणारी, कधीच न उलगडणारी ! तुमच्या आमच्या मनातही असतातच ना अशी काही कोडी?

वि. मं. नी ती आपल्यालासमोर मांडली. आपणही उलगडूया आपल्या मनातली कोडी, हिरवी,

मन हिरवं गार राहण्यासाठी!

© श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ कव्हर… ☆ सौ. श्रेया सुनील दिवेकर ☆

?  विविधा ?

☆ कव्हर… ☆ सौ. श्रेया सुनील दिवेकर ☆ 

आज खूप वर्षानंतर पुस्तक विकत घेण्यासाठी पुस्तकांच्या दुकानात [ दालनात} गेले होते.

गेली अनेक वर्षे पुस्तकांना जणू पूर्णविराम द्यावा लागला होता, कारण तो दिला नसता तर माझ्या चिमुकल्यांमुळे एका पुस्तकाच्या अनेक प्रती तयार झाल्या असत्या….

आज मात्र अनेक वर्षांनी ह्या पुस्तकांना पाहून खूप आनंद होत होता. प्रत्येक पुस्तकांवरून नकळत हात फिरवला जात होता, अचानक लहानपणीची एक घटना आठवली. मी खूप छोटी असेन, मला माझे बाबा पहिल्यांदा पुस्तकांच प्रदर्शन बघायला घेऊन गेले होते.

खूप पुस्तके होती वेगवेगळ्या लेखकांची, वेगवेगळ्या विषयांची, काही संग्रही, काही लहानमुलांची, काही थोर नेत्यांची, मला त्यातले काहीही कळत नव्हते ती गोष्ट वेगळी.

माझे बाबा मात्र मला प्रत्येक लेखकाची माहिती देत होते. माझं लक्ष मात्र त्यांच्या बोलण्याकडे कमी, आणि पुस्तकांच्या छान रंगीत रंगीत आवरणावर जास्त होते. काहींवर सुंदर सुंदर पऱ्या होत्या, तर काहींवर अक्राळविक्राळ राक्षस,काहींवर हत्ती, उंट, सिंह ह्यांची चित्र होती तर काहींवर सिंड्रेलाची.

बाबांनी मला दोन पुस्तकं निवडायला सांगितली. मी अशी पुस्तकं निवडली ज्याची चित्र मला फार आवडली. ती कोणी लिहिली आहेत, कोणत्या विषयांवर लिहिली आहेत ह्याच्याशी माझे काही देणे घेणे नव्हते. त्यावेळी बाबा काहीच बोलले नाहीत. घरी आल्यावर मात्र त्यांनी मला विचारले की मी ती पुस्तक का निवडली ?? मी म्हणाले काही नाही त्याची चित्र बघा ना किती छान आहेत ती चित्र मला खूप आवडली म्हणून ती निवडली.

असच काहीस माणसांच्या आयुष्यात घडतं नाही. आपण माणसांचे चेहरे बघून त्यांची निवडत करत असतो. त्यांच्याशी मैत्री करत असतो, नाती जोडत असतो, त्यांच्या मनात काय विचार चालू आहे हे कधी डोकावून पहावे अस वाटतच नाही आपल्याला. त्यांचा पेहेराव, त्यांचा चेहरा, त्यांच ते शुगर coated बोलणे हे पाहूनच त्यांच्या बद्दल एक मत बनवून टाकतो.

आणि जसं पुस्तकं वाचायला सुरुवात केल्यावर आपल्या लक्ष्यात येत की, पुस्तक अजिबात वाचनीय नाही. तसं काहीसं माणसांच्या बाबतीत होत. एखाद्याचा चेहरा इतका प्रेमळ, दयाळू, सोज्वळ सज्जन असतो अगदी gentleman वाटतो. पण प्रत्यक्षात तो तिरसट, क्रूर, रागीट असतो. अति गोड बोलणार माणूस आतून किती धूर्त, लबाड आहे हे कळतच नाही आपल्याला.

फरक फक्त इतकाच असतो की पुस्तकं आपण न वाचता, आवडले नाही म्हणून ठेऊ शकतो.पण नाती नाही हो वगळता येत. ती निभावून न्ह्यावी लागतात.

पण काही वेळा असं ही होत की, पुस्तक चांगल की वाईट आहे हे आपल्याला काही पानं वाचल्यावर लक्ष्यात येतं, एखाद्या पुस्तकाला लेखकांनी अचानक यू टर्न दिलेला असतो. आपण हे पुढे आता अस होईल अस काहीतरी विचार करत असतो पण लेखकाने काहीतरी वेगळेच लिहिलेले असते… आपल्याला वाटत असतं की ह्यातला नायक किती रागीट आहे, तो आता तिचा शेवट करणारच पण पुढे वाचल्यावर कळते की तो असा का बनला. हां काही पुस्तक अपवाद आहेत म्हणा.

माणसांच्या मनांत नक्की काय चालू आहे हे आपल्याला त्याला समजून घेतल्याशिवाय कळत नाही. त्याचा स्वभाव असा का बनला हे आपल्याला त्याची बाजू समजून घेतल्याशिवाय कळत नाही.

त्याच्या सहवासात काही दिवस घालवावे लागतात त्याच्या मनात उतरून स्वतः ला त्याच्याजागी ठेऊन विचार करावा लागतो तेव्हां कुठे थोडे कळते.

खूप जणांना सवय असते एखाद्या बद्दल पट्कन मत बनवायची. खूप जणांना असं वाटतं की आपण माणसे परफेक्ट ओळखू शकतो. पुस्तकांची cover बघून त्यातली गोष्ट ओळखू शकतो, अगदी तशी. पण आपण स्वतःला तरी कितपत ओळखतो ही आपली एक शंका आहे मला.

आपण स्वतः च्या चेहर्‍यावर, मनांवर cover घालण्यात इतके बिझी असतो की आपल्याला ही कळत नाही की किती थर चढले आहेत. कधी अहंकाराचा, तर कधी लोभाचा, कधी दुःखी नसताना आपण किती दुःखी आहोत हे दाखवण्याचा तर कधी खूप कष्ट, अपमान, हाल सहन करूनही सुखी असण्याचा.काही वेळेला आपल्याला जाणून बुजून cover घालावे लागते आपल्या मनावर, चेहर्‍यावर.

मित्रानो मला पुस्तकं घेतांना ही जाणवलेली गोष्ट मी आज तुमच्या समोर मांडली.. माझं फक्त एवढेच म्हणणे आहे की कोणाही बद्दल पट्कन मत बनवू नका. दोन्ही बाजू समजून घ्या. पुस्तकाच cover बघून जसं पुस्तक निवडायचे नसते तसच माणसाचा चेहरा बघून त्याला निवडू नका.

 

©  सौ. श्रेया सुनील दिवेकर

मो 9423566278

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ विटी-दाडू – भाग-2 ☆ श्री आनंदहरी ☆

श्री आनंदहरी

? जीवनरंग ❤️

☆ विटी-दाडू – भाग-2 ☆ श्री आनंदहरी

रावसाहेब म्हणजे सरळमार्गी माणूस. आयुष्यभर नोकरी एके नोकरी केली. आधी वयस्कर आई-वडीलांची सेवा आणि नंतर उशिरा झालेल्या एकुलत्या-एक मुलाचे शिक्षण या साऱ्यांमुळे  स्वतःसाठी, बायकोसाठी असा वेळ देणे जमलेच नाही. . कधी  कुठे जाणे-येणे, फिरणे, सहलीला जाणे जमलेच नव्हते. मुलगा हुशार, चांगला शिकला, आयटी मध्ये चांगल्या पगाराची नोकरी लागली याचा सार्थ अभिमान त्या दोघांनाही वाटत होता. घेतलेले कष्ट सार्थकी लागल्याचा, आपण आईवडील आणि मुलगा यांच्याबाबत मुलगा आणि बाप म्हणून असणारी आपली कर्तव्ये आदराने, प्रेमाने आणि योग्यप्रकारे पार पाडू शकलो याचे समाधान हीच आयुष्याची सर्वात मोठी कमाई आहे, पुंजी आहे असे त्यांना वाटत होते. त्याचाच त्यांना खूप आनंद वाटत होता.

मुलगा स्वतःच्या पायावर उभा राहिला. तसे ते दोघंही त्याच्या लग्नाचा विचार करू लागले. एवढे एक कर्तव्य पार पडले की मग आपण आपले आयुष्य जगू, आयुष्यभर अपूर्ण राहिलेली हिंडण्या-फिरण्याची, तीर्थाटन करण्याची स्वप्ने पूर्ण करू असे ती दोघे एकमेकाला म्हणायची. मुलाजवळ लग्नाचा विषय काढला तसे त्याने त्याच्याच क्षेत्रात काम करणाऱ्या एका मुलीबरोबर लग्न करण्याची इच्छा व्यक्त केली.  रावसाहेब विचारात पडले पण त्यांच्या पत्नीने, राधाबाईंनी एका झटक्यात नकार दिला. रावसाहेबांनी विचार करून राधाबाईंना म्हणाले,  

” त्याचे आयुष्य त्याला त्याच्या इच्छेनुसार जगू दे. . अगं, आपल्या वेळचा काळ नाही राहिलेला आता, आपल्यावेळी आई-वडिलांनी ठरवलेल्या स्थळाशी लग्ने करण्यात. . संसार करण्यात धन्यता मानत होतो. आनंद मानत होतो पण आताच्या तरुण पिढीची विचार करण्याची पद्धत, त्यांच्या सुखाच्या कल्पना सारेच वेगळे आहे. आपल्या वेळचे सारे वेगळे होते. . अगदी थोडक्यात सांगू का तुला. . ? अगं, आपले जग वेगळे होते, आहे आणि त्यांचे जग वेगळे आहे. “

” अहो, पण… “

” मला एक सांग, आपल्या पोटचे लेकरू सुखात असावे, राहावे असे वाटते ना तुला? “

” अहो, काहीही काय विचारताय, मी आई आहे त्याची. . आणि प्रत्येक आईला आपले मुल सुखात, आनंदात असावं असं वाटत असतंच…”

” हो ना? मग त्यासाठी त्याला त्याच्या मनाप्रमाणे जगू दे. अगं, अलिकडची पिढी तर लग्न न करता लिव्ह इन रिलेशनशिप मध्ये राहायचा विचार करत असते. . आपला मुलगा लग्न करायचे म्हणतोय हे ही नसे थोडके… तसे लिव्ह इन सुद्धा वाईट नाही म्हणा. . आपल्यावेळी असते तर. . “

” काय म्हणालात. . ?” 

डोळे वटारून राधाबाईनी विचारले,

” अगं, तुझ्याबरोबरच म्हणतोय मी. . “

हसत हसत रावसाहेब उत्तरले. .

” म्हणजे त्यातही तुमच्याबरोबरच? छे बाई ss ! मग त्याला काय अर्थ आहे. . “

राधाबाई कृतक कोपाने म्हणाल्या आणि हळूच हसल्या.

राधाबाईंचे हे हसणे म्हणजेच मुलाला हवे तसे लग्न करायला संमतीच होती.  

मुलाचे त्याच्या इच्छेप्रमाणे लग्न झाले. ते ही कर्तव्य व्यवस्थित, आनंदाने पार पडले याचे समाधान रावसाहेब आणि राधाबाईंना झाले. काही दिवस मुलाबरोबर त्याच्या फ्लॅट मध्ये राहून, त्याचा संसार मांडून देऊन रावसाहेब आणि राधाबाई गावी परतले.

मुलाचा संसार सुरू झाला होता. रावसाहेबांनाही निवृत्तीचे वेध लागले होते. निवृत्तीनंतर लगेचच दक्षिण भारताची, उत्तर भारताची यात्रा करायची असे दोघांनीही ठरवले होते. अनेक वेळा रावसाहेब-राधाबाईंच्या गप्पांचा तोच विषय असे. राधाबाईंनी वृत्तपत्रात प्रसिद्ध होणाऱ्या यात्रा कंपनीच्या जाहिरातींची कात्रणेही कापून संग्रहित ठेवली होती, त्यांचे संपर्क क्रमांकही एका वहीत नोंदवून ठेवले होते. .  

मुलाने स्वतःचा  टूबीएचके फ्लॅट घेतला. मुलाने आपल्याशी विचार-विनिमय करून, आपल्याला बोलावून, फ्लॅट दाखवून फ्लॅट घेतला याचा रावसाहेब- राधाबाई दोघांनाही आनंद झाला. मुलगा-सून स्वतःच्या फ्लॅटमध्ये स्थलांतरित झाल्यावर चार दिवस आनंदात घालवून ते दोघेही समाधानाने परतले.

तिथे असताना राधाबाईं हसत हसत सुनेला म्हणाल्या,

” आता स्वतःचा फ्लॅट झाला नातवंड खेळू दे आमच्या मांडीवर…”

” थोडे थांबा आई ! बाबाही निवृत्त होतील वर्षाभरात. . मग तुम्ही इथेच या दोघेही. . आमचे दोघांचे ठरलंय. . हा सेंकड हॅन्ड फ्लॅट आहे. . तेंव्हा दोनतीन वर्षात आपण लक्झरियस थ्री बीएचके नवा फ्लॅट घ्यायचा आणि तिथ गेल्यावरच तुमचे नातवंडं तुमच्या मांडीवर द्यायचे. “

हसत हसत सुनेने उत्तर दिले. खरे तर राधाबाई मनातून खट्टू झाल्या होत्या. . ते पाहून हसत हसत रावसाहेब म्हणाले,

” किती विचारपूर्वक निर्णय घेते तुमची पिढी. .  आयुष्यभर आम्हाला कुठे सहलीला जाता आले नाही, निवृत्तीनंतर आम्ही दक्षिण भारत-उत्तर भारत जाऊन येणार आहोत हे मी बोललेले तुम्ही अगदी आठवणीत ठेवलेले दिसतंय. . स्वतः आधी आमचा विचार करणारी तुझ्यासारखी सून आम्हांला मिळालीय हे आमचे भाग्यच. . “

रावसाहेबांच्या वाक्याने सून ही सुखावली होती आणि राधाबाईंच्या मनातील खट्टूपणा निवळून त्या हसल्या होत्या.

क्रमशः…

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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