हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 88 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 88 –  दोहे ✍

प्रश्न प्रेम का जब उठे, उग जाता संदेह।

अशरीरी यदि प्रेम तो, किस मतलब की देह।।

 

परिभाषा दें प्रेम की, किसकी है औकात।

 कभी मरुस्थल सा लगे कभी चांदनी रात।।

 

मन में प्रतिक्षण उमड़ते, इतने इतने भाव।

एक लहर पर दूसरी रचती नए रचाओ।।

 

प्रेम तत्व गहरा गहन, जिसका आर न पार।

शब्दों से भी है परे, अर्थों का विस्तार।।

 

परिभाषा क्या प्रेम की, सभी हुए असमर्थ ।

प्रेम प्रेम है प्रेम का यही हुआ बस अर्थ।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 33 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 33 – मनोज के दोहे

(चैत, उपवास, प्रतीक्षा, मनमीत)

चैत शुक्ल नवमी दिवस, जन्मे थे श्री राम।

नगर अयोध्या था सजा, बना देव का धाम।।

 

चैत्र माह प्रतिपदा को, नौ दिन का उपवास

मातृ-शक्ति का दिवस यह,भक्ति भाव है खास।।

 

सुखद प्रतीक्षा है अभी, बने हमारे काज।

नित विकास के पथ गढ़ें, रहे राम का राज।।

 

मन के जो नजदीक हैं, बन जाते मनमीत

दिल में जब वे आ बसें, मनभावन हैं गीत।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ब्लैक होल ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – ब्लैक होल  ??

कैसे ज़ब्त कर लेते हो

इतने दुख, इतने विषाद

अपने भीतर..?

विज्ञान कहता है-

पदार्थ का विस्थापन

अधिक से कम,

सघन से विरल

की ओर होता है,

ज़माने का दुख

आता है, समा जाता है,

मेरा भीतर इसका

अभ्यस्त हो चला है,

सारा रिक्त शनैः-शनैः

ब्लैक होल हो चला है!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 113 – “महानायक मोदी” … श्री कृष्ण मोहन झा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  श्री कृष्ण मोहन झा जी  की पुस्तक “महानायक मोदी” की समीक्षा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 113 ☆

☆ “महानायक मोदी” … श्री कृष्ण मोहन झा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ 

किताब… महानायक मोदी

लेखक… कृष्ण मोहन झा

प्रकाशक… सरोजनी पब्लिकेशन, नई दिल्ली ११००८४

मूल्य… ५०० रु,

पृष्ठ… १६० सजिल्द

युवा पत्रकार श्री कृष्ण मोहन झा इलेक्ट्रानिक व वैचारिक पत्रकारिता का जाना पहचाना नाम है. देश के अनेक बड़े राजनेताओ से उनके व्यक्तिगत संबंध हैं. उन्होने भारतीय राजनीति में पार्टियों, राज्य व केंद्र के सत्ता परिवर्तन बहुत निकट से देखे और समझे हैं. उनकी लेखनी की लोकप्रियता बताती है कि वे आम जनता की आकांक्षा और उनके मनोभाव पढ़ना वे खूब जानते हैं. श्री झा को उनकी सकारात्मक पत्रकारिता के प्रारम्भ से ही मैं जानता हूं. विगत दिनों मुझे उनकी पुस्तक महानायक मोदी के अध्ययन का सुअवसर मिला. लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में जन प्रतिनिधि के नेतृत्व में असाधारण शक्ति संचित होती है. अतः राजनीति में नेतृत्व का महत्व निर्विवाद है. जननायको के किचित भी गलत फैसले समूचे राष्ट्र को गलत राह पर ढ़केल सकते हैं. विगत दशको में भारतीय राजनीति का पराभव देखने मिला. चुने गये नेता व्यक्तिगत स्वार्थों में इस स्तर तक लिप्त हो गये कि आये दिन घपलों घोटालों की खबरें आने लगीं. नेतृत्व के आचरण में इस अधोपतन के चलते सक्षम बुद्धिजीवी युवा पीढ़ी विदेशों की ओर रुख करने लगी, अधिकांश आम नागरिक देश से पहले खुद का भला तलाशने लगे. इस दुष्कर समय में गुजरात की राजनीति से श्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय राजनीति में पदार्पण किया. उन्होने स्व से पहले समाज का मार्ग ही नही दिखलाया बल्कि हर पीढ़ी से सीधा संवाद स्थापित करने का प्रयास करते हुये राष्ट्र प्रथम की विस्मृत भावना को नागरिकों में पुर्जीवित किया. स्वयं अपने आचरण से उन्होने  एक अनुकरणीय नेतृत्व  की छवि स्थापित करने में सफलता पाई. वो महात्मा गांधी थे जिनके एक आव्हान पर लोग आंदोलन में कूद पड़ते थे, लाल बहादुर शास्त्री थे जिनके आव्हान पर लोगों ने एक वक्त का खाना छोड़ दिया था.

दशकों के बाद देश को एक अनुकरणीय नेता मोदी जी के रूप में मिला है. वे विश्व पटल पर भारत की सशक्त उज्जवल छवि निर्माण में जुटे हुये हैं, उन्होने भगवत गीता, योग, दर्शन को भारत के वैश्विक गुरू के रूप में स्थापित करने हेतु सही तरीके से दुनिया के सम्मुख रखने में सफलता अर्जित की है. जन संवाद के लिये नवीनतम टेक्नालाजी संसाधनो का उपयोग कर उन्होने युवाओ में अपनी गहरी पैठ बनाने में सफलता अर्जित की है.  देश और दुनिया में वैश्विक महानायक के रूप में उनका व्यक्तित्व स्थापित हो चला है. ऐसे महानायक की सफलताओ की जितनी विवेचना की जावे कम है, क्योंकि उनके प्रत्येक कदम के पारिस्थितिक विवेचन से पीढ़ीयों का मार्गदर्शन होना तय है. मोदी जी को  कोरोना, अफगानिस्तान समस्या,  यूक्रेन रूस युद्ध, भारत की गुटनिरपेक्ष नीती के प्रति प्रतिबद्धता बनाये रखने वैश्विक चुनौतियों से जूझने में सफलता मिली है. तो दूसरी ओर उन्होंने पाकिस्तान पोषित आतंक, काश्मीर समस्या, राममंदिर निर्माण जैसी समस्यायें अपने राजनैतिक चातुर्य व सहजता से निपटाई हैं.

देश की आजादी के अमृत काल का सकारात्मक सदुपयोग लोगों में राष्ट्रीयता जगाने के अनेकानेक आयोजनो से वे कर रहे हैं. समय समय पर लिखे गये अपने ३४ विवेचनात्मक लेखों के माध्यम से श्री झा ने मोदी जी के महानायक बनने के सफर की विशद, पठनीय, तथा तार्किक रूप से आम पाठक के समझ में आने वाली व्याख्या इस किताब में की है. निश्चित ही यह पुस्तक संदर्भ ग्रंथ के रूप में शोधार्थियों द्वारा बारम्बार पढ़ी जावेगी. मैं श्री कृष्नमोहन झा को उनकी पैनी दृष्टि, सूक्ष्म विवेचनात्मक शैली, और महानायक मोदी पर सामयिक कलम चलाने के लिये बधाई देता हूं व आपसे इस किताब को खरीदकर पढ़ने की अनुशंसा करता हूं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पोस्टकार्ड ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “पोस्ट कार्ड।)

☆ आलेख ☆ पोस्टकार्ड  ☆ श्री राकेश कुमार ☆

संदेश भेजने का सबसे प्रचलित साधन जिसका उपयोग लंबे समय तक चला।ये तो संचार क्रांति ने पोस्ट कार्ड का जीवन ही समाप्त सा कर दिया। साठ के दशक में छः पैसे या इक्कनी प्रति पोस्ट कार्ड हुआ करता था। उस समय दो पोस्ट कार्ड जुडे़ हुए रहते थे, जिसको जवाबी कार्ड कहा जाता था। पोस्ट कार्ड भेजने वाला ही एक जवाबी कार्ड साथ में अपना पत्ता लिख कर भेजता थ। शिक्षा की कमी के कारण पोस्टमैन अपनी लेखनी से पूछ कर जवाब लिख देता था। शिक्षा के प्रसार के कारण कुछ वर्ष पूर्व जवाबी कार्ड बंद हो गया हैं, वैसे अब पोस्ट कार्ड देखे हुए भी दशक से अधिक समय हो चुका हैं।

बाल्य काल में पिताजी के नाम से उर्दू भाषा में लिखा हुआ पोस्ट कार्ड आता था, तो अंदाज लगाते थे किस नातेदार का होगा। यदि उस पर  हल्दी के छीटें होते थे तो खुशी का समाचार होता था। किनारे से थोड़ा सा फटा हुआ कार्ड किसी दुःख की खबर वाला होता था। जिसको पढ़ने के बाद तुरंत नष्ट कर दिया जाता था। कारण ये ही रहा होगा। बार बार आंखों के सामने आने से मन दुःखी होता होगा।

व्यापार में भी पोस्ट कार्ड का भरपूर उपयोग हुआ। कम कीमत के कारण व्यापारी इसका बहुत उपयोग करते थे। बाद में सरकार ने छपे हुए कार्ड की कीमत में वृद्धि कर इसके व्यापारिक उपयोग को सीमित करने में सफलता प्राप्त की थी। कम आय या गरीब व्यक्ति इसी के सहारे अपने से दूर रहने वाले से जुड़ा रहता था।

वर्ष नब्बे में भिलाई शाखा की बिल्स सीट में कार्यरत रहते हुए शाखा प्रबंधक की सहमति से पोस्ट कार्ड छपवा कर बिल भेजने वाली कम्पनी को बैंक का बिल क्रमांक लिख कर पावती भेज देते थे। डाक किताब में प्रवष्टि पर समय खर्च बचाने के लिए पूरा खर्च प्रिंटिंग मद में डाल दिया गया था। इस सिस्टम से बिल भेजने वाली कंपनियों के काम काफी हद तक सुचारू और सुविधाजनक हो गए थे। एक शहर में तो कुकिंग गैस की बुकिंग करने के लिए भी हमने पोस्ट कार्ड का उपयोग किया था। आजकल तो शायर भी ऐसी बातें करने लगे हैं।                        

डाकिया वापिस ले आया आज खत मेरा,

बोला पता सही था मगर लोग बदल गए हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 124 – कविता – अमृतवाणी… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं परिस्थिति जन्य कथानक पर आधारित एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना   “अमृतवाणी…”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 124 ☆

☆ कविता – 🌹 अमृतवाणी…🌹 

जीवन ज्योति जड़ चेतन,

पावन निर्मल अग्नि अगन।

गीता वेद पुराण कहे,

मनुज सुने होकर मगन।

 

हर युग में नारी की शक्ति,

पल पल नियती उसकी भक्ति।

सारे भूमंडल पर महिमा,

माँ हो कर पाए मुक्ति।

 

प्राणी की है अनुपम काया,

बंधा हुआ जीवन माया।

प्रेम दया करुणा ममता,

इससे होती सुंदर छाया।

 

युगों युगों की बात का,

रखते सभी है ध्यान।

माता पिता गुरु सेवा से,

सब होते हैं महान।

 

बिटिया जन्म है अनमोल,

नहीं है इसका कोई तोल।

पाकर इनको नमन करें,

बोलती मीठे मीठे बोल।

 

बेटा है अनमोल रतन,

पाकर खिलता अपना चमन।

वंश वृद्धि ये बेल बढ़ाए,

सुख कर होता है जीवन।

 

नर्मदा का पावन जल,

बहता निर्मल कल कल कल ।

सद कर्मों की पुण्य दायिनी,

पुण्य सलिला है अविरल।

 

चिड़ियों का चहचहाना,

जड़ चेतन को रोज जगाना।

भूले भटके को राह दिखाना,

अपनों में हैं मिलकर रहना।

 

प्रेम भक्ति से जो कोई,

करता हरि का ध्यान।

पाप मिटे संकट कटे,

मनचाहे पाए वरदान।

 

श्रद्धा सुमिरन से प्रभु,

करती हूं आराधना ।

पूरी करना आप सभी,

साँसों की हर साधना।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 17 (66-70)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #17 (66 – 70) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -17

 

रक्षित पृथ्वी ने दिया राजा को प्रतिदान।

खानों से मणि, वन से गज, खेतों से धन-धान्य।।66।।

 

छहों गुणों औं बलों का कार्तिकेय सा वीर।

कर उपयोग सही सही, बना सका तकदीर।।67।।

 

साम-दाम-दंड-भेद का कर प्रयोग निर्भार।

प्राप्त किये फल तीर्थ के करके पुण्य-प्रसार।।68।।

 

कूट युद्ध विधि जान भी, धर्म युद्ध कर आप्त।

मनचाही नायिका सी की विजय लक्ष्मी प्राप्त।।69।।

 

मद-जल-वाही गज के मद की ज्यों पाकर गंध।

सभी राज भयभीत हो युद्ध कर दिये बंद।।70।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १७ मे – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? ई-अभिव्यक्ती -संवाद ☆ १७ मे -संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

कमल पाध्ये

कमल पाध्ये या वैचारिक लेखन करणार्याड मराठी लेखिका होत्या. त्या माहेरच्या गोठोसकर. मुंबईतील रामवाडीतील विनायक पांडुरंग गोठोसकर यांच्या त्या कन्या. १९४० साली पत्रकार प्रभाकर पाध्ये यांच्याशी त्यांचा विवाह झाला. बंध- अनुबंध या त्यांनी लिहिलेल्या आत्मचरित्राला अफाट लोकप्रियता मिळाली. याशिवाय त्यांनी भारतीय मुसलमानांचा राजकीय इतिहास १८५८ ते १९४७ हे अनुवादीत पुस्तक लिहिले. मूळ पुस्तक ‘द इंडियन मुस्लीम’ हे असून  त्याचे मूळ लेखक आहेत, राम गोपाल. ‘भारतातील स्त्रीधर्माचा आदर्शवाद’ हेही पुस्तक त्यांनी लिहिले आहे. 

कमल पाध्ये यांचा आज स्मृतीदिन. त्या निमित्त त्यांना भावपूर्ण श्रद्धांजली. ? 

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, गूगल विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कधी होता उचंबळ… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ कधी होता उचंबळ… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆ 

कधी होता उचंबळ

आता एक उपचार

कधी होती कृतज्ञता

आता कोरडे आभार!

 

दहा पाहुण्यांचा दंगा

मूठभर एका घरी

ऐसपैस झाले घर

आतिथ्यास हद्दपारी!

 

पडे विसर भुंग्यांना

जातिवंत कुसुमांचा

फुलांभोवती कागदी

गुंजारव आता त्यांचा!

 

गरुडाच्या पंखांतील

गेले आटून उधाण

म्हणे भरारीस आता

कुठे पूर्वीचे गगन!

 

उपनद्या ,प्रवाहांचे

आटलेले सारे पाणी

गंगौघाच्या कंठी आता

खळखळाटाची गाणी!

 

आतड्याला नाही पीळ

काळजाला कळ नाही

झेललेला कोणी येथे

कोणासाठी वार नाही!

 

तिह्राईत गल्ल्या बोळ

आटलेला गावपणा

माझ्या गावी मीच आता

एक नकोसा पाहुणा !

 

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #138 ☆ दूर गेल्या सावल्या ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 138  ?

☆ दूर गेल्या सावल्या  ☆

घेउनी छन्नी हतोडा फक्त खपल्या काढल्या

ये जरा बाहेर म्हटले ईश्वराला आतल्या

 

राम वनवासात होता भोग हे चुकले कुणा

दाखवीतो तोच जखमा त्याच वनवासातल्या

 

ओळखीचे झाड काही ताठ फांद्या त्यातल्या

लागले फांदीस ज्या फळ त्याच होत्या वाकल्या

 

वयपरत्वे होत नाही सहन सूर्याच्या झळा

पाहुनी माझी अवस्था दूर गेल्या सावल्या

 

त्यागताना फूल होई वेदना काट्यासही

आंगठ्याला ठेच आणिक पापण्या ओलावल्या

 

टाकले देऊन सारे आणि झालो मोकळा

कागदावरच्या सह्याही आज मजवर हासल्या

 

चिरतरुण हे क्षितिज कायम आठवांची रात्र ती

तळपणाऱ्या चांदण्यांही उंच होत्या टांगल्या

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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