हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 28 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 28 ??

मेलों का महत्व-

मेले परम्पराओं और रीति-रिवाजों का जतन करते हैं। मेले सांस्कृतिक धरोहर का वहन करते हैं। सदियों से चले आ रहे पर अब लगभग समाप्तप्राय अनेक खेल, तमाशा, मेलों में देखने को मिलते हैं। अनेक लोककलाएँ केवल मेलों के दम पर टिकी हैं।

कभी-कभार जिनसे काम पड़ता हो, ऐसे अनेक शिल्पी, प्रशिक्षित कारीगर यहाँ अपनी कारीगरी की प्रदर्शनी करते हैं। लोग उनके सम्पर्क क्रमांक लेते हैं। इस तरह इन सधे हाथों को व्यापार मिलता है, वाणिज्यिक लेन-देन बढ़ता है, समाज की आर्थिक समृद्धि बढ़ती है। साथ ही समाज में हर प्रतिभा को मंच एवं मान्यता मिलते हैं। कहा जा सकता है कि हर मेला समाज के विभिन्न घटकों के बीच सम्बन्धों को अधिक घनिष्ठ करता है।

हर समाज की अपनी कुछ  सार्वजनिक मान्यताएँ तथा वर्जनाएँ भी होती हैं। कुछ वर्जनाएँ तो अकारण ही समाज में घर किये बैठी होती हैं। समाज जब साथ आता है, एक-दूसरे से प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग करता है तो व्यवहारिकता की कसौटी पर वर्जनाएँ कसी जाती हैं। फलत: अनेक वर्जनाएँ समाप्त हो जाती हैं। अस्पृश्यता से लेकर भोजन के आदान-प्रदान तक अनेक वर्जनाओं को दुर्बल करने में मेलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

मराठी में एक कहावत है जिसका अर्थ है कि सारे स्वांग हो सकते हैं पर पैसे का स्वांग संभव नहीं होता। हाथ में पैसा होना समाज की रीढ़ होता है। मेले से होनेवाले आर्थिक लाभ से समुदाय को अपनी रोजी-रोटी जुटाने और टिकाने में सहायता मिलती है।

मनुष्य जंगल में रहा या नागरी जीवन में, मनोरंजन उसे दैहिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रखने का बड़ा कारण रहा है। मेलों के माध्यम से होनेवाला मनोरंजन विशेषकर गाँव और कस्बाई जीवन को नये उत्साह एवं उमंग से भर देता है।

मेला देखने के लिए गाँव से निकला व्यक्ति प्राय:  आसपास के इलाके घूम भी लेता है। इससे पर्यटन और वित्तीय विनिमय को विस्तार मिलता है।

सबसे महत्वपूर्ण है मानव की मानवता का बचा रहना। सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक परंपराओं से जुड़ा होना कहीं न कहीं मनुष्य को अमनुष्य होने से बचाए रखता है। मेला मनुष्य और मनुष्यता के बीच सेतु की भूमिका का निर्वाह करता है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा#72 ☆ गजल – ’’कला और गुण की बहुत कम है कीमत’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “कला और गुण की बहुत कम है कीमत”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 72 ☆ गजल – ’’कला और गुण की बहुत कम है कीमत’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

जो देखा औ’ समझा, सुना और जाना

किसे कहें अपना औ’ किसको बेगाना।

यहाँ कोई दिखता नहीं है किसी का

अधिकतर है धन का ही साथी जमाना।

कला और गुण की बहुत कम है कीमत

जगत ने है धन को ही भगवान माना।

धनी में ही दिखते है गुण योग्यतायें

सहज है उन्हें सब जगह मान पाना।

गरीबों की दुनियाँ  में हैं विवशताएँ

अलग उनके जीवन का है ताना-बाना।

उन्हें जरूरत तक को पैसे नहीं हैं

धनी खोजते खर्च का कोई बहाना।

है जनतंत्र में कुछ नये मूल्य विकसे

बड़ा वह जिसे आता बातें बनाना।

सदाचार दुबका है चेहरा छुपायें

दुराचार ने सीखा फोटो छपाना।

विजय काँटों को हर जगह मिल रही है

सही न्याय युग गया हो अब पुराना।

सही क्या, गलत क्या ये कहना कठिन है

न जाने कहाँ जा रहा है जमाना।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#82 – सच्चा भक्त ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #82 – सच्चा भक्त ☆ श्री आशीष कुमार

एक राजा था जो एक आश्रम को संरक्षण दे रहा था। यह आश्रम एक जंगल में था। इसके आकार और इसमें रहने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही थी और इसलिए राजा उस आश्रम के लोगों के लिए भोजन और वहां यज्ञ की इमारत आदि के लिए आर्थिक सहायता दे रहा था। यह आश्रम बड़ी तेजी से विकास कर रहा था। जो योगी इस आश्रम का सर्वेसर्वा था वह मशहूर होता गया और राजा के साथ भी उसकी अच्छी नजदीकी हो गई। ज्यादातर मौकों पर राजा उसकी सलाह लेने लगा। ऐसे में राजा के मंत्रियों को ईर्ष्या होने लगी और वे असुरक्षित महसूस करने लगे। एक दिन उन्होंने राजा से बात की – ‘हे राजन, राजकोष से आप इस आश्रम के लिए इतना पैसा दे रहे हैं। आप जरा वहां जाकर देखिए तो सही। वे सब लोग अच्छे खासे, खाते-पीते नजर आते हैं। वे आध्यात्मिक लगते ही नहीं।’ राजा को भी लगा कि वह अपना पैसा बर्बाद तो नहीं कर रहा है, लेकिन दूसरी ओर योगी के प्रति उसके मन में बहुत सम्मान भी था। उसने योगी को बुलवाया और उससे कहा- ‘मुझे आपके आश्रम के बारे में कई उल्टी-सीधी बातें सुनने को मिली हैं। ऐसा लगता है कि वहां अध्यात्म से संबंधित कोई काम नहीं हो रहा है। वहां के सभी लोग अच्छे-खासे मस्तमौला नजर आते हैं। ऐसे में मुझे आपके आश्रम को पैसा क्यों देना चाहिए?’

योगी बोला- ‘हे राजन, आज शाम को अंधेरा हो जाने के बाद आप मेरे साथ चलें। मैं आपको कुछ दिखाना चाहता हूं।’

रात होते ही योगी राजा को आश्रम की तरफ लेकर चला। राजा ने भेष बदला हुआ था। सबसे पहले वे राज्य के मुख्यमंत्री के घर पहुंचे। दोनों चोरी-छिपे उसके शयनकक्ष के पास पहुंचे। उन्होंने एक बाल्टी पानी उठाया और उस पर फेंक दिया। मंत्री चौंककर उठा और गालियां बकने लगा। वे दोनों वहां से भाग निकले। फिर वे दोनों एक और ऐसे शख्स के यहां गए जो आश्रम को पैसा न देने की वकालत कर रहा था। वह राज्य का सेनापति था। दोनों ने उसके भी शयनकक्ष में झांका और एक बाल्टी पानी उस पर भी उड़ेल दिया। वह व्यक्ति और भी गंदी भाषा का प्रयोग करने लगा। इसके बाद योगी राजा को आश्रम ले कर गया। बहुत से संन्यासी सो रहे थे।उन्होंने एक संन्यासी पर पानी फेंका। वह चौंककर उठा और उसके मुंह से निकला – शिव-शिव। फिर उन्होंने एक दूसरे संन्यासी पर इसी तरह से पानी फेंका। उसके मुंह से भी निकला – हे शंभो। योगी ने राजा को समझाया – ‘महाराज, अंतर देखिए। ये लोग चाहे जागे हों या सोए हों, इनके मन में हमेशा भक्ति रहती है। आप खुद फर्क देख सकते हैं।’ तो भक्त ऐसे होते हैं।भक्त होने का मतलब यह कतई नहीं है कि दिन और रात आप पूजा ही करते रहें। भक्त वह है जो बस हमेशा लगा हुआ है, अपने मार्ग से एक पल के लिए भी विचलित नहीं होता। वह ऐसा शख्स नहीं होता जो हर स्टेशन पर उतरता-चढ़ता रहे। वह हमेशा अपने मार्ग पर होता है, वहां से डिगता नहीं है। अगर ऐसा नहीं है तो यात्रा बेवजह लंबी हो जाती है।

भक्ति की शक्ति कुछ ऐसी है कि वह सृष्टा का सृजन कर सकती है। जिसे मैं भक्ति कहता हूं उसकी गहराई ऐसी है कि यदि ईश्वर नहीं भी हो, तो भी वह उसका सृजन कर सकती है, उसको उतार सकती है। जब भक्ति आती है तभी जीवन में गहराई आती है। भक्ति का अर्थ मंदिर जा कर राम-राम कहना नहीं है। वो इन्सान जो अपने एकमात्र लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित है, वह जो भी काम कर रहा है उसमें वह पूरी तरह से समर्पित है, वही सच्चा भक्त है। उसे भक्ति के लिए किसी देवता की आवश्यकता नहीं होती और वहां ईश्वर मौजूद रहेंगे। भक्ति इसलिए नहीं आई, क्योंकि भगवान हैं। चूंकि भक्ति है इसीलिए भगवान हैं।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (6-10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (6 – 10) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

 

माताओं ने स्नेह से तब कह- ‘‘अस्वीकार’’।

बेटी तेरे पुण्य ही राम विजय-आधार।।6।।

 

तब रघुकुल मणि राम का हुआ राज्य-अभिषेक।

तीर्थसलिल प्रेमाश्रु से कर के पावन षेक।।7।।

 

पावन सागर-सर-नदी से लाकर जल पूत।

बरसाये श्रीराम पर सुग्रीव विभीषण दूत।।8।।

 

राम जो तापस वेश में भी थे सुधर ललाम।

राजवेश में वे हुये दुगने शोभाधाम।।9।।

 

राम अयोध्या में गये कुल परम्परानुसार।

जहाँ वाद्य सह गीत थे और मंगलाचार।।10अ।।

 

बरसाई जा रही थी खील, थी भीड़ अपार।

द्वार-द्वार पर थे सजे सुन्दर वन्दनवार।।10ब।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मायेचे पीठ… ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर ☆

प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ मायेचे पीठ… ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर ☆

पहाटच्या पाऱ्यामंधी

माझी माय दळे पीठ ,

घरघरत्या जात्यावरी

तिचा घास दळे नीट .

               जात्याच्या भवताली

               मायेचे पीठ सांडे,

               सुखी घरादारासाठी

               दुःख जात्याशीच मांडे .

रोज  दळता  दळण

माय गात ऱ्हाते ओवी ,

तिच्या ममतेत सारे

घरदार सुखी होई .

               माय दळून कांडून

               अशी झिजतच जाते ,

               घरघरत्या जात्याला

               तिचे जितेपण येते .

 

© प्रा.अरुण कांबळे बनपुरीकर

बनपुरी ता.आटपाडी जि.सांगली

मो ९४२११२५३५७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 93 – आक्रंदन पिडीतांचे ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 93 – आक्रंदन पिडीतांचे ☆

गगनांतरी भिडाले

आक्रंदन पिडीतांचे।

झांजावाती निघाले

तांडव महापूराचे।

 

ओठाता स्तब्ध झाल्या

निःशब्द भावना या।

निजधाम सोडूनिया

कित्येक गेले विलया.

अशूंचे गोठ नयनी

आक्रंदतात कोणी।

शून्यात नेत्र दोन्ही

स्वप्नेच गेली विरूनी।

 

देईना साथ कोणी

थारा न देई धरणी।

जावे कुठे जीवांनी

घरट्याविना पिलांनी

भांबावल्या मनांना

समजावूनी कळेना।

सेल्फीत दंग मदती

जगण्याची प्रेरणा ना।

  

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ साॅरी… ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

सौ. दीपा नारायण पुजारी

?विविधा ?

☆ साॅरी… ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

‘सॉरी’ हा इंग्रजी शब्द खूपच कॉमन आहे. सरसकट तो सगळीकडं वापरलेला दिसतो. गंमत म्हणजे तान्हुल्या बाळालाही आई साॅरी म्हणताना आढळते. विनोदाचा भाग सोडला तरी हा खरोखरच एक जादुई शब्द आहे हे मात्र नक्की. सॉरी जितक्या सहजपणानं तोंडी येतं तितकं सहज; ‘ माफ करा हं!’,म्हंटलं जात नाही. तसं पाहिलं तर हे दोन्ही शब्द कानावर पडताच रागाचा पारा खाली जातोच.

आपल्या नकळत जेव्हा काही चूक घडते तेव्हा सॉरी म्हणताच वातावरण निवळते. उदा. एखाद्याला चुकून धक्का लागला तर सॉरी म्हणताच त्याच्या चेहऱ्यावर इट्स ओके ची स्मितरेषा उमटतेच. पण खरच चूक होते तेव्हा? ज्या व्यक्तीची चूक असते तीनं सॉरी म्हणणं अपेक्षित असतं. परंतु मीच का सॉरी म्हणू अशी आढ्यता बाळगणारे अधिक असतात.

हा शब्द नाती जपतो. मान, अपमान, अहंकार यापेक्षा नाती ज्याला महत्त्वाची वाटतात तो सहजपणानं माफी मागून रिकामा होतो. तर ज्याला अहंकार , मी पणा महत्त्वाचा वाटतो, तो दुसऱ्याला नाक  कसं खाली घालायला लावलं यातच समाधानी राहतो. अशी अहंकाराची वाळवी लागलेली नाती टिकणं दुरापास्त असतं. गंमत म्हणजे असे लोक जिथं गरज नाही तिथं साॅरी म्हणताना दिसतात.

सॉरी योग्य वेळी म्हणणं ही तितकंच गरजेचं असतं बरं. समजा एखाद्या ची काही वस्तू हरवली किंवा आपल्याकडून कोणाचं काही नुकसान झालं तर लगेचच सॉरी म्हणावं. नुकसानभरपाईचा प्रयत्न ही जरुर करावा. परंतु बघू, म्हणू केंव्हातरी किंवा त्यात काय एवढं असा विचार केला , माफी मागायला वेळ झाला तर नात्यातील तणाव वाढत गेलेला दिसतो. बऱ्याचदा अशा नात्यातून बदसूरच उमटतो.

सॉरी वेळेवर म्हणणं जसं महत्त्वाचं तसंच माफी मागण्याची पद्धत ही महत्त्वाची! रागारागानं, आदळ आपट करत सॉरी म्हणताना माफी मागणाऱ्याची नाराजी व्यक्त होते. आक्रस्ताळेपणानं चिडचिड करत माफी मागणं अयोग्यच. तर गोड लडिवाळ आवाजात सॉरी म्हणणारी व्यक्ती मनापासून माफी मागतेय हे जाणवतं. हात जोडून किंवा कान हातात पकडून माफी मागितली की समोरच्याचा पारा एकदम उतरतो.

एखादी जादूची कांडी फिरवावी तसा हा शब्द काम करतो. समोरच्या माणसाला हसवतो. त्याच्या चेहऱ्यावरील शंका दूर करतो. पुन्हा नव्यानं संवाद साधायला मदत करतो. रागाला पळवून लावतो. जाने दो म्हणत पुन:श्च हातात हात गुंफले जातात. खांद्याला खांदा लावून कामं केली जातात. माणसा माणसांमधील सहकार्य वाढतं. खेळीमेळीचं वातावरण निर्माण होते. हा शब्द मैत्री टिकवायला, मैत्री निभावून न्यायला, मैत्री निर्माण करायला देखील धावून येतो.

हा शब्द आपल्या शब्द कोशातला नाही आहे. तसा तो परकीय आहे. तरीही तो आपला मित्र आहे. कितीतरी गोष्टींसाठी सीमा, प्रांत, देशाच्या सीमा आपण ओलांडल्या आहेत. रितीरिवाज, परंपरा, वेषभूषा, खाद्यसंस्कृती अशा खूपशा बाबतीत आपण बदल करतो.गरजेपेक्षा सोयीचा विचार करुन वेषांतर  किती सहज केले ना आपण? धोतरा ऐवजी शर्ट पॅंट आले, साडी ऐवजी देखील ट्राऊझर्स- टॉप्स आले. हे बदल जितके आवश्यक तितकेच चांगलेही आहेत. मग शिष्टाचाराचे नियम तितक्याच प्रमाणात वापरायला काहीच हरकत नसावी.

ग्लोबल च्या नावाखाली लोकल विसरतो. अगदी रोज बोलताना देखील कितीतरी इतर भाषेतील शब्द वापरतो.पण सॉरी म्हणण्यात बहुतेक वेळा कमीपणा समजतो. या लहानशा शब्दाला ओठांवर आणायचे टाळतो.

तसंही नकळतपणे का होईना, दुसऱ्याचं मन दुखावलं गेलं की आपणही थोडे उदास होतो. खरं ना? मग काय हरकत आहे या जादूवाल्या शब्दाशी दोस्ती करायला?

माणूस हा सोशल प्राणी आहे. तो एकटा राहू शकत नाही.  समाजात, नातेवाईंकांबरोबर, मित्रमैत्रिणींबरोबर तो करतो ते व्यवहार भावनांनी युक्त असतात. कोरडेपणानं होत नाहीत. एकूण काय , नात्यातील, व्यवहारातील, सकारात्मकता वाढवण्यासाठी, नाती अधिक सुदृढ करण्यासाठी थॅंक्यू इतकंच सॉरी म्हणणं महत्त्वाचं.

© सौ. दीपा नारायण पुजारी

इचलकरंजी

9665669148

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद… श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

☆ आत्मसंवाद… श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

आत्मसंवाद या लेखमालेतील शेवटचा लेख सौ.उज्वला केळकर यांचा असून ते सहा भाग आज पुन्हा एकदा वाचले.

ही लेखमाला सुरू करण्याची मूळ कल्पना त्यांचीच. ती चालू करण्यासाठी व चालू ठेवण्यासाठी त्यांनी केलेले प्रयत्न व धडपड याची आम्हाला कल्पनाआहे.या निमित्ताने दीर्घकाळ गांभीर्याने लेखन करणा-या साहित्यिकांची जडणघडण, लेखनातील विविधता, आलेले अनुभव हे सर्व वाचायला मिळाले व सर्वांत महत्त्वाचे म्हणजे अंतर्मुख होऊन विचार करण्याची संधी मिळाली.

आज सौ.केळकर यांचा आत्मसंवाद वाचल्यावर मात्र एक वेगळाच अनुभव आला. आपल्या सहवासातील व्यक्ती कशी आहे हे आपल्याला समजले आहे असे आपल्याला वाटते. पण प्रत्यक्षात आपण त्या व्यक्तीला खूपच कमी ओळखत असतो.

सांगलीतीलच असल्यामुळे त्यांना भेटण्याचा योग अनेक वेळेला येतो. ‘ई-अभिव्यक्ती’ च्या निमित्ताने अनेक वेळा चर्चाही होते. पण त्यांच्या स्वतःच्या साहित्य प्रवासाविषयी एवढी माहिती कधीच मिळाली नव्हती. ती आज मिळाली.

खरेच, त्यांचा साहित्यप्रवास थक्क करणारा आहे. कथा, कविता, नाट्य, बालसाहित्य, अनुवाद, श्रुतीका, नभोनाट्य अशा विविध प्रांतात सहजतेने प्राविण्य मिळवून इतरांनाही मार्गदर्शन, सहकार्य करण्याची त्यांची वृत्ती कौतुकास्पद आहे. आजही त्यांचा उत्साह थक्क करून सोडणारा आहे.

त्यांना उत्तम आरोग्य लाभो व लेखनकार्य अविरतपणे चालू राहो ही सरस्वतीचरणी प्रार्थना.

 

वर उल्लेख केलेले, सौ. उज्वला केळकर यांच्या आत्मसंवाद चे सहा भाग आपण खाली दिलेल्या लिंकवर वाचू शकता .

मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग 1 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग 2 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग 3 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग 4 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग 5 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

मराठी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ आत्मसंवाद…भाग 6 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

 

– सुहास रघुनाथ पंडित

 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ कोनाडा… भाग 2 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

 

? जीवनरंग ❤️

☆ कोनाडा… भाग 2 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

ती जशी प्रेमळ ,तशी त्रासदायकही होती.तिचं कुणी ऐकलं नाही की ती त्या गोष्टीचा इतका पिच्छा पुरवायची की शेवटी कंटाळून तिचं ऐकावच लागायचं.

एकदा आठवतंय् दिवस पावसाळ्याचे होते.

पण म्हणावा तसा पाऊस अजुन कोसळत नव्हता.त्या दिवशी तर चक्क उन पडलं होतं.

आभाळ अगदी मोकळं,निरभ्र होतं..तरीही घरातून निघताना जीजी म्हणाली,

“छत्री घे….”

काय तरी काय? इतक्या कडक उन्हात मी छत्री घेतली तर माझ्या मैत्रीणी मला हंसतील..आणि मी छत्री कुठेतरी विसरेनही..

पण गंमत झाली. संध्याकाळी वातावरण एकदम बदललं.. आकाश काळंकुट्ट झालं.

ढगांचा गडगडाट .विजांचा लखलखाट. वादळी वारा आणि मुसळधार पाऊस. ओली झालेली मी कशीबशी बसमधून टेंभी नाक्यावर उतरले. तर बस स्टाॅपवर जीजी डोक्यावर एक आणि हातात एक छत्री घेऊन उभी..!!

ते चित्र कायम माझ्या डोळ्यासमोर आहे.

त्या दिवसाची तिची ती काळजीभरली प्रेममय नजर मनात कोरली गेली आहे.

“अग!!तू कशाला आलीस इतक्या पावसात?”

“कार्टे तुला सकाळी छत्री घेउन जायला सांगितलं तर ऐकलं नाहीस. हट्टी द्वाड..

किती भिजली आहेस…न्युमोनिया झाला तर? परीक्षा जवळ आली आहे…””

रस्ताभर ती बोलत होती.

घरात शिरल्याबरोबर, स्वत:च्या पदरानेच तिनं माझं डोकं खसाखसा पुसलं.. गरम पाण्यात चमचाभर ब्रांडीही पाजली..

कितीतरी वेळ नुसती अस्वस्थ होती…

लहानपणी  मला वरचेवर सर्दी, खोकला ताप यायचा.. डांग्या खोकल्याने मी दोन महिने आजारी होते. कितीतरी औषधे.. इंजेक्शने झाली.पण खोकला काही थांबायचा नाही. एक दिवस कंटाळून मी जीजीला म्हटलं,

“जीजी आता तूच मला बरं कर..तू दिलेलं

कितीही कडु औषध मी पीईन! पण हा खोकला थांबव.. नाहीतर मी मरुन जाईन..”

तिच्या अंत:करणातला मायेचा झरा, तिच्या डोळ्यातून ठिबकला. एरवी मला सतत ‘कार्टी भामटी’म्हणणारी.. तिनं मला पदरात वेढून घेतलं…

“असं बोलू नकोरे बाबा… संध्याकाळच्या वेळी कसलं हे अभद्र बोलणं..मी कशी मरु देईन तुला?”

अन् तिने माझे मटामट मुके घेतले…

मग ती सकाळीच घराबाहेर पडली.. कुठे गेली कोण जाणे! पण परत आली तेव्हां तिच्या हातात हिरवीगार अढुळशाची पानं होती..

तिनं ती स्वच्छ धुवून पाट्यावर वाटली. आणि त्याचा रस काढला.

आणि तो कडु रस, अच्च्युताय नम:, गोविंदाय नम: असं म्हणत माझ्या घशात उतरवला… लागोपाठ सात दिवस या धन्वंतरीची ट्रीटमेंट याच पद्धतीने घेतली..

आणि खरोखरच माझा तो जीवघेणा खोकला बरा झाला…

तिची श्रद्धा,तिची मेहनत आणि तिच्या ममतेपुढे तो रोग नमला. तिला इतकी आयुर्वेद उपचारपद्धती कशी माहित होती, ते गुपीतच होतं.. पण तिने केलेले लेप, गुट्या चाटणे, काढे यांच्यामुळे आमच्या व्याधी झटकन् बर्‍या व्हायच्या..

जीजी सार्‍यांसाठी झटायची. तिला आमच्यापैकी कुणाचंही काही करताना कधीही कंटाळा आला नाही.तिच्या मनात आमच्याबद्दल अत्यंत माया होती… ओलावा होता..

जीजीची तिसरी नात छुंदा..आमच्या सर्वांपेक्षा ती हुशार. अत्यंत अभ्यासु. जीजीला तिचा फार अभिमान.

“हा माझा अर्जुन हो!..” असं सगळ्यांना सांगायची.

पण जीजीची ही नात फार रडकी आणि खेंगट.. शाळेत जाताना रडायची.म्युनिसीपालिटीची बारा नंबरची शाळा तिला आवडायची नाही. पण घराजवळची शाळा म्हणून आमचे सर्वांचेच प्राथमिक शिक्षण तिथेच झालं. आम्ही कुणीच शाळेत जाताना त्रास दिला नाही. पण छुंदाने खूप त्रास दिला. जीजी रोज तिच्याबरोबर शाळेत जायची. शाळा सुटेपर्यंत पायरीवर बसून रहायची. ना भूक ना तहान… छुंदा वर्गातून बाहेर येउन खात्री करुन घ्यायची, जीजी पायरीवर असल्याची… छुंदा पाचवीत जाईपर्यंत ही जोडगोळी शाळेत जायची. छुंदा वर्गात अन् जीजी पायरीवर.

पुढेपुढे छुंदाच्या वर्गबाईंनाही जीजीची सवय झाली.ही एवढी म्हातारी बाई नातीसाठी ५—६ तास पायरीवर बसून राहते याचं त्यांनाही प्रचंड कुतुहल वाटायचं.. कधी कधी तर बाईंना काही काम असलं तर त्या जीजीलाच वर्ग सांभाळायला सांगायच्या..

वर्गातल्या सार्‍यांचीच ती आजी झाली होती…

पुढे छुंदा ऊच्च श्रेणीत केमीकल इंजीनीअर झाली. आजही ती म्हणते… “जीजी नसती तर मी शिकले असते का…??”

इंजीनीअरींगचं सर्टीफिकेट जीजीच्या हातात देत ती म्हणाली होती..

“खरं म्हणजे हे सर्टीफिकेट तुलाच दिलं पाहिजे….”

त्याक्षणी तिच्या चेहर्‍यावरचा आनंद, डोळ्यातलं पाणी अवर्णनीय होतं…

क्रमश:…

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ आईपण… डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? मनमंजुषेतून ?

☆  आईपण… डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

☘️ सहजच जगता जगता

आज 25 फेब्रुवारी अनुजाचा वाढदिवस. या दिवशी 2003 साली मी दूसऱ्यांदा आई झाले. पहिल्यांदा 1998 साली डॉ.प्रेरणाचा जन्म झाला तेव्हा. आईपण हे काय रसायन आहे हे मी गेली 25 वर्षे अनुभवती आहे. पण आईपण सुरु झाल्यापासून मी मला शोधण्याचा प्रयत्न करते. मी मला कायम आई म्हणूनच सापडते. मी माला दवाखान्यात काम करताना शोधले. मी मला माझ्या नात्यात शोधले. मी मला घरात, घरा बाहेर शोधले पण मी मला नेहमी आई म्हणूनच सापडले. आईपण खूप पछाडून टाकतं हे मला इतकं माहितच नव्हतं. आणि आज मुली मोठ्या झाल्या तरीही आईपण थोडं सोडवू पाहते पण अजिबात सुटत नाही.

माझ्या जीवनाला कलाटणी म्हणजे आईपण.  माझ्या जगण्यातला सर्वोच्च अविष्कार म्हणजे आईपण. माझ्या जीवनाचं अतिम सत्य म्हणजे आईपण. माझ्या माणूसपणातील सर्वात रोमांचकारी, अनाकलनीय, सर्वोत्कृष्ट निर्मितीचा आनंद म्हणजे आईपण. प्रेम, विश्वास, जिव्हाळा, निष्ठा, कर्तव्यतत्परता, जबाबदारी, काळजी, समर्पण म्हणजे आई. आईपणात वेदना आणि दुःख अमाप आहे. आई त्या वेदनांचा, दुःखाचा सोहळा उत्सव करते. ही आईपणाला गवसलेली अनोखी शक्ती आणि युक्ती म्हणायला हरकत नाही.

मी अजूनही स्वतःला शोधत राहते पण आई म्हणूनच सापडते. माझ्या दवाखान्यात, माझ्या  कवितेच्या ओळीतही मी आई म्हणूनच सापडते…!

नाही उमगत मी मला अजूनही…!

मला आईपण बहाल केल्याबद्दल मी माझ्या दोन्ही मुलींची ऋणी आहे. माझा जोडीदार या दोघींच्या बाबांचे    नामदेवचे धन्यवाद मानालाच हवेत !

सर्व आईंना मनापासून सलाम !  🙏🏻

  

– डॉ.सोनिया कस्तुरे

9326818354

25/02/2022

संग्राहिका – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे 

९८२२८४६७६२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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