हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆”शेरू” ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक आलेख – “शेरू.)

☆ आलेख ☆ “शेरू☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज हमारे एक समूह में शेर पर लंबी चर्चा हुई, तो हमारा शेरू (पालतू कुत्ता) भी कहने लगा कि हम पर भी कभी चर्चा कर लिया करो, हम कोई धोबी के कुत्ते तो है नहीं, जो कि “ना घर के ना घाट के” कहलाये। हमे उसकी बात में दम लगा। शेरू फिर कहने लगा वैसे तो हर कुत्ता अपनी गली का शेर होता है, लेकिन चूंकि वो सोसाइटी के फ्लैट में रहता है इसलिए उसे अपने फ्लोर का शेर कह सकते हैं।

शेरू आजकल बहुत प्रसन्नचित्त रहता है, जबसे चुनाव आयोग ने मतदान की तिथियों की घोषणा की वो खुशी के मारे फूला नहीं समा रहा है।

सूरज के ढलते ही वो टीवी के सामने अपना आसन लगा कर बैठ जाता हैं। जब तक टीवी चालू कर “राजनीतिक बहस” का चैनल नहीं लगता उसको चैन नहीं आती। जैसे जैसे बहस में तेज़ी आती है, वो भी अपनी वाणी से गुर्रा कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा देता है। कल हम टीवी चला कर वाट्स एप पर बिखरे हुए ज्ञान को समेटने लगे तो शेरू ने अपने पंजे से हमारा मोबाईल बिस्तर पर गिरा दिया। उसकी सोच भी सही है, जब इतनी बढ़िया बेवकूफी की बहस से मनोरंजन हो रहा है, तो उससे वंचित क्यों रहना चाहिए।

श्रीमती जी भी खुश हैं, टीवी देखते हुए शेरू को खाने में घर का बना हुआ कुछ भी परोस दो, वो बिना नखरे के खा लेता है। वरना शेरू को भी जब तक ऑनलाइन डॉग फूड ना मंगवा कर दो, वो भूखा रह लेता पर घर का बना भोजन नहीं खाता हैं। चलो टीवी की बहस सुनते हुए उसकी आदतों में सुधार आ रहा हैं। वैसे हम भी जब टीवी में मग्न होते हैं तो नापसंद वस्तुएं भी हज़म कर जाते हैं। शायद शेरू भी जाने अनजाने में हमसे ये सब सीख गया हो।                           कोविड की तीसरी लहर से पूर्व शेरू शाम को हमारे साथ बगीचे में सैर पर जाता था। वहाँ उसके समाज के लोग भी बड़ी संख्या में आते थे। वहाँ उनसे वो भी लंबी वार्तालाप कर लेता था।    

अब माहौल को देखते हुए जब सांयकालीन भ्रमण बंद है, तो शेरू को टीवी में बहस करते हुए लोग अपने समाज के ही लगते है। बिना किसी सार्थक विषय के एक दूसरे के कपड़े फाड़ने पर उतारू चंद लोग सड़क पर बिना किसी कारण के भौंकते हुए कुत्तों जैसा व्यवहार ही तो करते हैं।   

अब लेखनी को विराम देता हूँ, शेरू टीवी के सामने आसन लगा कर बैठ गया है। समय का बड़ा पाबंद है, हमारा शेरू।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 117 – लघुकथा – बेरंग होली…  ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा “*बेरंग होली… *”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 117 ☆

☆ लघुकथा – बेरंग होली … 

होली की मस्ती और रंगों की बौछार लिए होली का त्योहार जब भी आता श्रेया के मन पर बहुत ही कडुआ ख्याल आने लगता।

अभी अभी तो वह यौवन की दहलीज चढी थी।आस पडोस सभी श्रेया की खूबसूरती पर बातें किया करते थे।

उसे याद है एक होली जब उसने अपने दोस्तों और सहेलियों के साथ खेली। एक दोस्त जो कभी उससे बात भी नहीं कर सकता था आज वह भी उसके साथ होली खेल रहा था। मस्ती और होली की ठंडाई, होली के रंगों के बीच किसे कब ध्यान रहा कि श्रेया को ठंडाई के साथ नशे की पुड़िया पिला दिया गया।

झूमते श्रेया को लेकर दोस्त जो उसे पागलों की तरह चाहता था। पहले रंगों, गुलाल से सराबोर कर दिया और मौका देखते ही सूनेपन का फायद उठाया और श्रेया को  जिंदगी का वह मोड़ दे दिया जहां से उबर पाना उसके लिए बहुत ही मुश्किल था।

होश आने पर अपने आपको डॉक्टर की चेम्बर में पाकर बेकाबू हो कर रोने लगी।

मम्मी पापा को उसकी हालत देख समझते देर न लगी कि रंगो की सुंदरता पर होली में किसी ने अचानक होली को बेरंग कर दिया है।

एक अच्छे परिवार के लड़के से शादी के बाद श्रेया के जीवन में होली तो हर साल आती। मगर अपने जीवन की बेरंग होली को भूल न  पाई थी।

तभी उसका बेटा जो हाथों में पिचकारी लिए दौड़कर अपनी मम्मी श्रेया के पास आकर बोला… “पापा कह रहे हैं वह माँ आपको बिना रंगों की होली पसंद है। यह भी कोई रंग होता है। मैं आज आपको पूरे रंगों से रंग देता हूं। आप भूल जाओगी अपने बिना रंगों की होली।”

श्रेया को जो अब तक होली रंगों से अपने आप को बंद कर लेती थी। आज गुलाल से लिपीपुति अपने पतिदेव से बोली..” बहुत वर्ष हो गए गए मैंने आपको बेरंग रखा।”

“आइए हम रंगीन होली खेलते हैं।” श्रेया को पहली बार होली पर खुश देखकर पतिदेव मुस्कुराए और गुलाल से श्रेया का पूरा मुखड़ा रंग दिया।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (21-25)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (21 – 25) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

कर बनवास समाप्त यों किया राज-पद प्राप्त।

पूरी कर पितृआज्ञा, जो था उनको आप्त।।21अ।।

 

अर्थ धर्म और काम प्रति ज्यों था सम व्यवहार।

अनुजों से भी राम का प्रेम था उसी प्रकार।।21ब।।

 

सब कृतिकाओं से था ज्यों कार्तिकेय को प्यार।

त्यों ही सब माताओं से था समान व्यवहार।।22।।

 

लोभ त्याग कर प्रजा को किया सुखी सम्पन्न।

विघ्न न थे कोई कहीं सब थे मुदित प्रसन्न।।23अ।।

 

प्रजा मानती थी पिता उन्हें, पा सद्-उपदेश।

और पुत्रवत क्योंकि वे हरते उनके क्लेश।।23ब।।

 

नागरिकों का ध्यान रख करते थे सबकाज।

थीं सीता के रूप में राज-लक्ष्मी विराज।।24।।

 

राजमहल में रंगे थे वन के कई प्रसंग।

जिन्हें कभी वे देखते थे सब सुख के संग।।25अ।।

 

दण्डकवन में पाये दुख को भी वे कर याद।

पाते थे सुख, गये दिनों के करते संववाद।।25ब।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १५ मार्च – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ १५ मार्च -संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

आदिमाया अंबाबाई, आला आला वारा, गोमू संगतीनं माझ्या तू येशील काय?,  जरा विसावू या वळणावर, फिटे अंधाराचे जाळे, रात्रीस खेळ चाले, सांज ये गोकुळी सावळी सावळी या सारख्या सदाबहार गीतांनी श्रोत्यांच्या मनावर गारुड केलं, नव्हे अजूनही करताहेत, ती गीते सुधीर मोघे यांच्या लेखणीतून लिहिली गेली. कवी, गीत, चित्रपट गीत, पटकथा लेखन, ललित लेखन, संवाद लेखन, संगीत दिग्दर्शन, रंगमंचीय आविष्करण, दिग्दर्शन या बहुविध माध्यमातून, रंगभूमी, आकाशवाणी, दूरदर्शन, चित्रपट इ. क्षेत्रात त्यांचा संचार झाला.

‘कविता पानोपानी’ या रंगमंचीय कार्यक्रमात सुधीर मोघे ध्वनी –प्रकाश योजनेच्या सहाय्याने  आपल्या मराठी कविता, गीते सादर करत.

सुधीर मोघे यांचे कविता संग्रह –

१. आत्मरंग, २. गाण्याची वही, ३. पक्ष्यांचे ठसे, ४. शब्दधून, ५. स्वातंत्रते भगवती

सुधीर मोघे यांचे गद्य लेखन –

१. अनुबंध, २. कविता सखी, ३. गाणारी  वाट, ४. निरंकुशाची रोजनिशी

सुधीर मोघे यांनी ५०हून अधीक चित्रपटांसाठी गीतलेखन केले.

सुधीर मोघे- पुरस्कार आणि सन्मान –

१.    सर्वोत्कृष्ट गीतकार – अल्फा गौरव

२.    ग. दी. मा. प्रतिष्ठान – चैत्रबन

३.    महाराष्ट्र साहित्य परिषद – ना.घ. देशपांडे पुरस्कार.

४.    दीनानाथ मंगेशकर प्रतिष्ठान – शांता शेळके पुरस्कार.

 

सुधीर मोघे यांचा जन्म ८ फेब्रुवारी १९३९ चा. आज त्यांचा स्मृतीदिन. या प्रतिभासंपन्न कवी, गीतकार, लेखकाला शतश: वंदन.?

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, गूगल विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ आनंद तरंग ☆ सुश्री सुमन किराणे ☆

सुश्री सुमन किराणे

परिचय

जन्म-5/7/1949

शिक्षण – एम.ए.बी एड्.(डबल)

निवृत्त माध्यमिक शिक्षिका, रयत शिक्षण संस्था

10पुस्तके प्रसिद्ध, दोन पुस्तके प्रकाशनाच्या मार्गावर

 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ आनंद तरंग ☆ सुश्री सुमन किराणे ☆

मुठी एवढ्या हृदयात

सागरा एवढी दुःखं

ठाण मांडून बसली

तेव्हां दःखं

मुठी एवढी झाली नाहीत

पण

हृदय  मात्र

सागरा एवढं झालं

त्याला हेलावून टाकणाऱ्या

महाभयंकर लाटा उठल्या

पण

कोणत्याही आपत्तिनं

हृदय सागर डगमगला नाही

त्याना तोंड देता देता

दुःखाना सुखं बनविण्याची

ताकत मात्र त्याच्यात निर्माण झाली

दुःखात सुख मानत जाईल

तसतसं

दुःखांची ओहोटी सुरु झाली

आणि सुखांची भरती येऊ लागली

होता होता

आता

सारी सुख,दुःखं

त्या सागरात विरुन गेलेत

हृदय सागर स्थिर झा लाय

आता

त्या हृदय  सागरावर दिसतात

ते फक्त

 आनंद तरंग

© सुश्री सुमन किराणे

पत्ता – मु.पो. हेरले, ता. हातकणंगले, जि. कोल्हापुर.

मोबा.9850092676

 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ संवाद ☆ कै सुधीर मोघे ☆

? कवितेचा उत्सव ?

☆ संवाद ☆ कै सुधीर मोघे ☆

ना सांगताच तू

मला उमगते सारे

कळतात तुलाही

मौनातील इशारे.

दोघात कशाला मग,

शब्दांचे बंध

‘कळण्या’ चा चाले

‘कळण्या’ शी संवाद.

 

कवी – कै सुधीर मोघे

 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 129 ☆ खोटे नाणे ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 129 ?

☆ खोटे नाणे ☆

मी मोत्यांचे तुला चारले होते दाणे

तरी असे का तुझे वागणे उदासवाणे

 

काढायाला भांडण उकरुन तुलाच जमते

शोधत असते नवीन संधी नवे बहाणे

 

तूच बोलते टोचुन तरिही हसतो केवळ

किती दिवस मी असे हसावे केविलवाणे

 

अंगालाही लागत नाही बदाम काजू

मिळता संधी काढत असते माझे खाणे

 

नजर पारखी होती माझी नोटांवरती

तरी कसे हे नशिबी आले खोटे नाणे

 

हा तंबोरा मला लावता आला नाही

तरी अपेक्षा सुरात व्हावे माझे गाणे

 

राग लोभ तो हवा कशाला जवळी कायम

नव रागाचे गाऊ आता नवे तराणे

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ उबुंटू….अनामिक ☆ संग्राहिका – सौ. स्मिता पंडित ☆

?  विविधा ?

उबुंटू….अनामिक ☆ संग्राहिका – सौ. स्मिता पंडित ☆

उबुंटू ही आफ्रिका देशातील एक सुंदर गोष्ट आहे.

उबुंटू हे प्रेरणादायी मानवतावादी तत्त्वज्ञान आहे.  

आफ्रिकेतील आदिवासी लहान मुलांचा एका तत्त्ववेत्याने एक खेळ घेतला.  त्या खेळामध्ये एका झाडाखाली एक मिठाई चे बास्केट ठेवले. सर्व मुलांना त्या झाडापासून 100 मीटर अंतरावर उभे केले. तिथून धावत जाऊन ते मिठाई चे बास्केट घ्यायचे, जो आधी पोहोचेल त्यास ती मिठाई मिळेल असे सांगण्यात आले. आता त्या व्यक्तीने खेळ सुरू करण्याची सूचना केली. परंतु त्या नन्तर जे घडले ते आश्चर्य वाटणारे होते. त्या सर्व मुलांनी एकमेकांचे हात हातात धरले आणि सर्वच्या सर्वजण एकत्रितपणे झाडाखाली ठेवलेल्या मिठाई च्या बास्केट कडे धावत सुटले. एकाचवेळी तिथे पोहोचले. ती मिठाई सर्वानी समान वाटून घेतली व सर्वानी मिळून त्याचा आस्वाद घेतला.

यावर त्या तत्त्वज्ञाने मुलांना असे करण्याचे कारण विचारले असता, उत्तर मिळाले…..उबुंटू.

उबुंटू चा अर्थ आहे… ‘I am because We are.’

म्हणजेच ‘मी आहे कारण आपण सर्व आहोत’.

इतर दुःखात असताना मी एकटा कसा सुखी होऊ शकतो ?? या प्रश्नाचे उत्तर उबुंटू आहे.

‘सर्वांचे सुखी असणे हेच मला सुखी बनविणारे आहे’

हा फार मोठा माणुसकीचा, समतेचा, एकीचा संदेश, सर्व च पिढ्यांना उबुंटू देत आहे.

चला तर मग आपण सर्वजण उबुंटू  जगूया अणि जिथे जाऊ तिथे सगळीकडे आनंद पसरवुया.

I am Because We are.

संग्राहिका : स्मिता पंडित

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ कोनाडा… भाग 5 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

 

? जीवनरंग ❤️

☆ कोनाडा… भाग 5 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

पण ती जगतच राहिली. प्रत्येकवेळी तिच्या जगण्याला कारणच मिळायचं जणु.

आजारपणात ती देवाला विनवायची,

“बाबारे! या निशाचं एव्हढं बाळंतपण होऊ दे!पहिल्या खेपेस तिचं आॅपरेशन झालं.. आतां काय होतंय् कोण जाणे! सारं सुखरुप होऊदे रे बाबा! तिला धडधाकट पाहू दे मग ने मला…

पपांना पहिला हार्ट अॅटॅक आला तेव्हांही ती अशीच आजारी होती..गादीत पडल्या पडल्याच पुटपुटायची,

” माझा जना असा गादीवर..माझं काही झालं तर हा उठेल..खांदा देईल..मग नंतर याला काही झालं तर..?नको आधी माझ्या जनाला बरं कर..मग मला ने.

जीजीच्या आयुष्याची दोरी अशी वाढतच गेली.ती इतकी लांबली की तिच्या आयुष्यातली एक शोकांतिका टळली नाही.

पपा गेले.ती राह्यली.

देवळातला घंटानाद,आणि तळ्यातल्या कमळांना साक्षी ठेवून तिनं तिच्या बाळाला वाढवायचं व्रत घेतलं होतं .ते व्रत तिने आयुष्यभर पाळलं.

ती आम्हाला अनेक गोष्टी वारंवार सांगायची..त्यातलीच एक गोष्ट ही होती.

“जना लहान असताना त्याला नेहमी एक स्वप्न पडायचं.आपली आई सोडून गेली.

मग तो स्वप्नातून जागा व्हायचा.माझ्या कुशीत शिरायचा. म्हणायचा,”आई तू मला सोडून कधीही जाऊ नकोस. “मग ती म्हणायची”नाही रे बाबा!मी तुला अगदी जन्मभर पुरेन! घाबरू नकोस.”

जणु जीजीचे शब्द खरे ठरले की पपांना दिलेलं वचन तिने पाळलं.?

पण आमचे पपा गेले आणि आम्ही दु:खात बुडालो.पपा आमचे सर्वकाही होते.वडील. मार्गदर्शक. मित्र.

आम्हां सगळ्यांना शोकाकुल बघून ती कळवळली.तिनं आम्हां सार्‍यांना जवळ घेतलं.

“बाबांनो! वडीलांच्या मृत्युचे दु:ख नका करु. पिकलं पान गळणार. मुलांच्या आधी बापानं जावं… हाच जगाचा नियम. माझा बाबा गेला. मी मागे उरले. उलट झालं. माझ्या मरणाचं दु:ख बाबाला सहन झालं असतं का.. माझ्यात दु:ख सोसण्याची ताकद आहे.. त्याला नसतं सोसलं… म्हणून मी राहिले..”

९७वर्षाची होती ती! पण हिंडती फिरती होती.. मी माहेरी येणार असले की तिची फार धावपळ असायची.. माझ्यासाठी माझ्या आवडीचे खाद्यपदार्थ करण्याचा तिचा केव्हढा आटापिटा असायचा..

पहाटे दारात रिक्षा थांबली तर लगबगीने दार उघडायला तीच यायची.. दारातच विळखा घालायची.. पापे घ्यायची.. इतकी कृश झाली होती.. नजरही अंधुकली होती.

पण आम्हाला ती डोळ्यांच्या पलीकडे बघू शकत होती…

जातांना निरोप घेताना तिला म्हणावं,

“येते हं जीजी..”

“नीट जा हं!परत कधी येशील..?”

मनात यायचं परत येईन तेव्हां ही असेल का?

ती म्हणायची, “आता देवानं मला न्यावं ग!! कधी मरेन मी?”

तिचा हा प्रश्न किती केवीलवाणा असायचा..

ती गेली…

त्यादिवशी मला दार उघडायला ती नव्हती.

दाराला लटकलेलं तिच्या अस्थींचं गाठोडं पाहिलं अन् प्रवासात धरुन ठेवलेला बांध तुटला…

जाणवलं..

आयुष्यातला एक निस्सीम प्रेमाचा कोनाडा रिकामा झाला…

समाप्त..

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ संगीताचा विकास – भाग-३ ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

? सूर संगत ?

☆ संगीताचा विकास – भाग – ३ ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

४) आधुनिक कालखंड ~ इ.स. १८०० पासून

ख्याल गायनाचा भरपूर प्रसार व त्याचबरोबर वाद्यसंगीताची विलक्षण क्रान्ती या कालखंडांत दिसून येते.

संगीताचे स्वरलेखन, संगीत संस्थांच्या निरनिराळ्या परीक्षा, संगीतावरची पुस्तके आणि व्याख्याने यामुळे संगीत शास्त्राचा प्रचंड प्रसार झाला. पंडित विष्णू दिगंबर पलुस्कर, भातखंडेबुवा, विनायकराव पटवर्धन वगैरे संगीतज्ञांनी तर भारतीय संगीत प्रसाराचे व्रतच घेतले होते.

संगीताचा सतत अभ्यास व रियाज करून कलावंत वैयक्तिक विचाराने स्वतःची विशिष्ट गायनशैली तयार करतो.प्राचीन काळापासून ते अगदी आधुनिक काळांत एकोणीसाव्या शतकापर्यंत गुरूगृही राहून, गुरूची मनोभावे सेवा करीत संगीत साधना करण्याची प्रथा होती. गुरू त्यांची वैशिष्ठ्यपूर्ण गायनशैली शिष्याच्या गळ्यांत जशीच्या तशी उतरविण्याचा प्रयत्न करीत असे. यालाच त्या गायन शैलीचे घराणे म्हटले जाऊ लागले. अशा रीतीने काही प्रतिभावंत कलाकारांनी त्यांची स्वतंत्र गायनशैली शिष्यांकरवी

जतन करण्याचा प्रयत्न केला. ह्यातूनच आज प्रचलित असलेली किराणा, जयपूर, मेवाती, ग्वाल्हेर, आग्रा वगैरे एकूण १६ घराणी तयार झाली.

अब्दूलकरीमखाॅं साहेब हे किराणा घराण्याचे पट्टीचे गायक.

आपल्या सर्वांचे लाडके कै.भीमसेन जोशी (अण्णा, सवाई गंधर्व यांचे शिष्य), आघाडीच्या गायिका प्रभा अत्रे हे किराणा घराण्याचे गायक. अल्लादिया खाॅं यांचे जयपूर घराणे स्व.किशोरीताई अमोणकर यांनी त्यांच्या गायन कौश्यल्याने लोकप्रिय केले व आज अश्विनी भिडे देशपांडे या ते पुढे नेत आहेत. स्व.विनायकबुवा पटवर्धन, शरद्चंद्र आरोलकर, गोविंदराव राजूरकर हे ग्वाल्हेर घराण्याचे आघाडीचे गायक.

आधुनिक काळांत काही कलावंतांची मात्र कोणा एका घराण्याला चिकटून न राहता अनेक घराण्यांची वैशिष्ठ्ये लक्षात घेऊन स्वतःची शैली तयार करण्याची धडपड चालू असते.याचे एक उत्तम उदाहरण म्हणून कै.पंडित जितेंद्र अभिषेकीबुवांचा उल्लेख करणे  योग्य होईल. त्यांनी ग्वाल्हेर,आग्रा,अत्रौली अशा विविध घराण्यांची गायकी आत्मसात केली. आणि बुद्धीचातूर्याने स्वतःच्या गाण्याचा वेगळा ठसा उमटविला.जसे जयपूर घराण्यांतील एकारातील स्वरलगाव,आग्रा घराण्याची आकारयुक्त आलापी,किराणा घराण्याची मेरखंड पद्धतीने केलेली आलापी.उस्ताद बडे गुलाम अलीखाॅं यांच्या गायनांतील चपलता,मृदुता,भावुकता इत्यादी गुणविशेष त्यांनी उचलले तर ठुमरी पेश करताना पतियाळा घराण्याची पद्धत जवळ केली.

पं.उल्हास कशाळकरांचाही स्वतंत्र शैलीचे गायक म्हणून उल्लेख करावा लागेल.त्यांनी गजाननबुवा जोशी यांजकडून ग्वाल्हेर घराण्याची तालीम घेतली,त्याचबरोबर जयपूर गायकीचे निवृत्तीबुवा सरनाईक, डी.व्ही.पलुस्कर, मास्टर कृष्णराव, कुमार गंधर्व  इत्यादी नामवंतांच्या गायकीचा प्रभाव त्यांच्या गायकीवर आहे.

मध्ययुगीन काळांत राजाश्रय असलेले संगीत नाटके, चित्रपट, आकाशवाणी, मागील पन्नास वर्षांत लोकप्रिय झालेले दूरदर्शन या प्रसारमाध्यमांमुळे  घरोघरी पोहोचले. रसिकांची नाट्यसंगीत, भक्तीगीते, अभंग गायन, भावगीते तसेच गझल, ठुमरी दादरा अशा उपशास्त्रीय संगीतात अधिकाधिक रुची उत्पन्न झाली. त्यामुळे ख्यालगायकीची मैफल असली तरी एखाद दोन राग पेश झाल्यानंतर प्रेक्षकांची भजन, नाट्यपद किंवा ठुमरी कलावंताने सादर करावी अशी फरमाईश असतेच.

भीमसेन जोशींनी “चलो सखी सौतनके घर जईये” ही गुजरी तोडीतील दृत बंदीश किंवा “रंग रलिया करत सौतनके संग” ही मालकंसमधील दृतबंदीश संपविल्यानंतर अण्णांचे तीर्थ विठ्ठल क्षेत्र विठ्ठल, इंद्रायणी काठी हे अभंग ऐकल्याशिवाय मैफल पूर्ण झाल्याचे समाधान होतच नव्हते.

आधुनिक तंत्रज्ञानामुळे आता जग जवळ आले आहे. संगीतांत अनेकविध नवेनवे प्रयोग होऊ लागले. फ्यूजन,रिमिक्स वगैरे. चित्रपट संगीताने तर संगीतविश्व पारच बदलून टाकले. भारतीय आणि पाश्चात्य वाद्यांचा मेळ पहावयास मिळतो. काही ठिकाणी तो चांगलाही वाटतो पण कधी कधी संगीतातील माधूर्य हरपून त्याची जागा गजराने घेतली आहे असे वाटते.

गुरूकूल पद्धतीने संगीत साधना करणे आज लुप्त झाले आहे.केवळ संगीतावरच लक्ष्य केंद्रीत करणे आजच्या काळांत अवघडच आहे.ज्ञानार्जन किती झाले यापेक्षा प्रसिद्धि केव्हा मिळेल याकडे अधिक लक्ष आहे.त्याचबरोबर मात्र शास्त्रीय संगीताचा अभ्यास व साधना करणारी युवा मंडळीही भरपूर आहेत.त्यामुळे वेदकाळी रोपण केलेला शास्त्रीय संगीताचा हा डेरेदार वृक्ष नवोदीत कलाकारांच्या खत~पाण्याने सतत बहरतच राहील यांत संशय नाही.

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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