हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 90 ☆ निष्कासन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक संवेदनशील लघुकथा ‘निष्कासन’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 90 ☆

☆ लघुकथा – निष्कासन ☆ 

वह सिर झुकाए बैठी थी। चेहरा दुपट्टे से ढ़ंका हुआ था। एक महिला पुलिस तेज आवाज में पूछ रही थी – कैसे आ गई इस धंधे में ? यहाँ कौन लाया तुझे ? बोल जल्दी – उसने सख्ती से कहा। उसने सूनी आँखों से चारों तरफ देखा, उत्तर देने में जख्म हरे हो जाते हैं, पर क्या करे ? ना जाने कितनी बार बता चुकी है यह सब —

सौतेली माँ ने बहुत कम उम्र में मेरी शादी कर दी। मेरा आदमी मुंबई में मजदूरी करता था। सास खाने में रोटी और मिर्च की चटनी  देती थी। आग लग जाती थी मुँह में। पानी पी- पीकर किसी तरह पेट भरती थी अपना। बोलते – बोलते उसकी जबान लड़खड़ाने लगी मानों मिर्च का तीखापन फिर लार में घुल गया हो।

नाटक मत कर,  कहानी सुनने को नहीं बैठे हैं हम, आगे बोल –

पति आया तो उसको सारी बात बताई। वह मुझे अपने साथ मुंबई ले गया। इंसान को मालूम नहीं होता कि किस्मत में क्या लिखा है वरना मिर्च की चटनी खाकर चुपचाप जीवन काट लेती।  अपने आदमी के साथ चली तो गई पर  वहाँ जाकर समझ में आया  कि यहाँ के लोग अच्छे नहीं हैं। मुझे देखकर गंदे इशारे करते थे। एक रात पति काम के लिए बाहर गया था। रात में कुछ लोग मुझे जबर्दस्ती उठाकर ले गए। बहुत रोई, गिड़गिड़ाई पर —। आधी रात को पत्थरों पर फेंककर चले गए। तन ‌- मन से बुरी तरह टूट गई थी मैं। पति पहले तो बोला कि तेरी कोई गल्ती नहीं है इसमें लेकिन बाद में अपनी माँ की ही बात सुनने लगा। सास उससे बोली कि इसके साथ ऐसा काम हुआ है इसको क्यों रखा है अब घर में, निकाल बाहर कर। उसके बाद से वह मुझे बहुत मारने लगा। हाथ में जो आता, उससे मारता। एक दिन परेशान होकर मैं घर से निकल गई। मायके का रास्ता मेरे लिए पहले ही बंद था। छोटी – सी बच्ची थी मेरी, गोद में उसे लेकर इधर – उधर भटकती रही। कहने को माँ – बाप, भाई, पति सब थे, पर कोई  सहारा नहीं। कुछ दिन भीख मांगकर किसी तरह अपना और बच्ची का पेट भरती रही। तब भी लोगों की गंदी बातें सुननी पड़ती थीं। कब तक झेलती यह सब? एक दिन  ऑटो रिक्शे में बैठकर निकल पड़ी। रिक्शेवाले ने पूछा – कहाँ जाना है? मैंने कहा – पता नहीं, जहाँ ले जाना हो, ले चल। उसने इस गली में लाकर छोड़ दिया। बस तब से यहीं —

और कुछ पूछना है मैडम? उसने धीमी आवाज में पूछा। 

नाम क्या है तुम्हारा ? – थोड़ी नरमी से उसने पूछा।

सीता।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – यात्रा-वृत्तांत ☆ काशी चली किंगस्टन! – भाग – 15 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।

 ☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 15 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)

कैटारॅकी नदी और कैटारॅकी मार्केट

आदिवासी इरोक्वैश भाषा में कैटाराक्ने का अर्थ है वह स्थान जहाँ नदी आकर झील से मिलती है। तो कैटारॅकी नदी और सेंट लारेंस नदी यहाँ आकर अॅन्टारिओ लेक में समा जाती हैं। कैटारॅकी रि ड्यू कैनाल से निकल कर किंग्सटन में आकर लेक अंटारिओ में मिल जाती है। एक भरत मिलाप और फिर संगम !

झूम कैटारॅकी मॉल में कोई सामान ‘फेरने’ आयी है। यहाँ का यह सिस्टेम भी अनोखा ही है। इतने दिनों के अंदर खरीदा गया सामान लौटा कर आप कैश भी वापस ले जा सकते हैं। हाँ, रसीद होनी चाहिए, और एक दो महीने का कुछ निर्धारित समय है। यहाँ जैसे मैक्डोनाल्ड और टिम हार्टन आदि के रेस्तोराँ हैं, उसी तरह वालमार्ट और कैटारॅकी मॉल और मेट्रो या लो ब्लॉस में खाद्य पदार्थ मिलते हैं, तो फ्रेशको में ताजी सब्जियाँ।  

झूम रुपाई के साथ दूसरी मंजिल पर गयी हुई है। हम दोनों इधर उधर चक्कर लगाते हुए नैनों से केवल वातायन – खरीदारी यानी विंडोशॉपिंग करते हुए एक खुले आँगननुमा जगह में रखे सोफे पर बैठ गये। दोनों ओर बड़ी बड़ी दुकानें। कपड़ों की, जूतों की, गिफ्ट आइटेमों की, सामने क्राकरीज और गृहसज्जा के सामान। अचानक आँख गयी सामने के एक सफेद बोर्ड पर। उस पर एक कहानी के साथ एक अपील छपी थी – कनाडा के निराश्रय अनाथ किशोरां के लिए ……..

कनाडा का कोई अनाथ लड़का है। बेघर, बेसहारा। उसका बाप नशा करके आता था और उसकी माँ को आये दिन पीटता था। फिर अचानक एक दिन वह लापता हो गया। किसी को बिना कुछ बताये। धीरे धीरे उसकी माँ को भी नशे की लत लग गयी। और एकदिन वह भी चल बसी वहाँ, जहाँ के बारे में धार्मिक ग्रंथों में तो भूरि भूरि लिखा रहता है, मगर जिसका पता ठिकाना किसी को मालूम नहीं। किसी ने वहाँ से वापस लौट कर वहाँ का आँखों देखा हाल जो आजतक नहीं सुनाया। अब? उस लड़के का घर छिन गया। वह पब्लिक पार्क में ही सोने लगा। मगर वहाँ भी आये दिन पुलिस आकर उसे भगा देती, ‘क्यों बे, इस पार्क को तू ने अपना ननिहाल समझ लिया है? चल, भाग हियाँ से।’

पेट में भूख। वह क्या खायेगा और कैसे भोजन जुटायेगा? एक इंग्लिश मॅफिन के नाश्ते में ही तो साढ़े सात डॉलर लग जाते हैं।

ऐसे निराश्रय अनाथ बच्चों के लिए है वह अपील। मगर अंदाज निराला। हमारे यहॉँ चंदे के लिए ऐसी अपील के साइनबोर्ड नहीं लगाये जाते। वो भी सुपर मार्केट में। चार्लस डिकेन्स ने न जाने कब लंदन के किसी ऐसे अभागे की कहानी लिखी थी ‘ऑलिवर ट्विस्ट’ में। उस समय इंग्लैंड में पूँजी की हुकूमत के आरंभ का युग रहा। नये नये कल कारखाने बन रहे थे। किसान खेत छोड़ भाग रहे थे शहर की ओर,‘क्यों ब्रदर, वहॉँ कोई काम मिलेगा?’

निःसन्देह विश्व ने काफी आर्थिक प्रगति की है। मगर आखिर वह कौन सी दुनिया होगी जहॉँ ऐसे ऑलिवर ट्विस्ट दर दर की ठोकर नहीं खायेंगे? और उस नयी दुनिया का निर्माण करेगा कौन? जहाँ हर कन्हैया को कम से कम माता यशोदा का प्यार तो जरूर मिलेगा …….!

वैसे कहा जाए तो यहाँ कहीं कोई भिखारी वगैरह दिखता नहीं है। मुझे सिलिगुड़ी और हैदराबाद की घटनायें याद आ रही हैं। हमलोग हैदराबाद घूमने गये हुए थे। चार मीनार के पीछे किसी होटल से लाजवाब बिरियानी खाकर हम चारों नीचे उतरे कि हम और हमारे दो घेर लिये गये,‘साहब, हमें भी कुछ देते जाओ।’

अरे बापरे! चार चार पाँच पाँच के झुंड में बच्चे। बेटे बेटी को लेकर हम दोनों दौड़ते रहे, भागते रहे। कौन कहता है कि केवल अभिमन्यु ही चक्रव्यूह में फँसा था ? जरा वे यहाँ आकर इस चक्रव्यूह को भेद कर, इससे निकल कर तो दिखाये।

फिर उसी तरह …….

दार्जिलिंग जाते समय दोपहर बाद सिलिगुड़ी में उतरकर स्टेशन परिसर में टैक्सी स्टैंड के सामने बचा खुचा भोजन उदरस्थ कर रहे थे, क्योंकि दार्जिलिंग पहुँचने में तो शाम हो जायेगी। मगर एक कौर मुँह में डालने का मौका भी नहीं मिला –

‘ए माई, ए बाबूजी -!’ कई फैले हुए हाथ। किस किस हाथ में और क्या क्या डालते? यः पलयति स जीवेति …….। भागने में ही भलाई है, जहाँ जान पर बन आई है !

एकदिन यहीं कहीं जब रुपाई अगल बगल नहीं था, हम दोनों मॉल के अंदर बेटी के साथ एक ट्रॉली लेकर गृहस्थी के सामान बटोर रहे थे। दोनों ओर चावल, दाल, तेल, साबुन वगैरह के रैक। तो एक सँकरे पैसेज से आती हुई एक महिला के बिलकुल सामने झूम जा पहुँची। यह बात कहीं भी हो सकती है। कोई भयंकर दुर्घटना की बात भी नहीं। मगर उस महोदया ने कहा क्या,‘अंधी हो क्या? देख कर चल नहीं सकती?’अब दोष उसका या झूम का, यह कौन कहे? कोई टक्कर भी नहीं हुई थी। फिर भी ऐसा वाक्य वाण! झूम चुप रही। पीछे कहती है,‘बाबा, कुछ लोग ऐसे ही होते हैं। हम कलर्ड हैं, इसीलिए वे इसतरह बात करते हैं। चूँकि हमे अभी पर्मानेंट रेसिडेंसी मिली नहीं है, तो चुप रहना ही बुद्धिमानी है।’

मैं ने अपना सर पीट लिया। अरे मेरी मुनिया, किसने कहा है तुम दोनों को यहाँ पड़े रहने को? मगर हाय रे लाचारी ! 

जहाँ मैं बैठा हूँ, वहाँ मेरे दाहिने बाजू की ओर ब्लू नोट्स की एक बड़ी दुकान है। शोरूम में एक लड़की के मॉडल पर पैंट और शर्ट जैसा पहनावा। जीन्स पैंट के धागे को कुरेद कुरेद कर उसे दारिद्र्य का गहना पहनाया गया है। टी शर्ट में भी कई छेद। वाह भई! फैशन के भी क्या कहने। जिनके पास तन ढकने के कपड़े भी नहीं होंगे, वे भी शायद इस फैशन को देख कर ठठा कर हँस पड़े ! तो आगे …….

हाँ, यहाँ की लड़कियों या महिलाओं में भी नथनी पहनने का फैशन खूब चल पड़ा है। कान में दो दो छेद। यहाँ तक कि होंठ के ऊपर या नीचे भी। हे भगवान! कितने छेद करवाना चाहती हो? खुदा का दिया हुआ हुस्न से संतुष्टि  नहीं ?

अब इन्हें कौन समझाये? आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में और एक प्राचीन आचार्य वराहमिहिर (उज्जयिनी निवासी, सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक, ज्योतिषशास्त्र के प्रकांड विद्वान) का उद्धरण (बृहत्संहिता) देते हुए लिखा है – स्त्रियाँ ही रत्नों को भूषित करती हैं, रत्न स्त्रियों को क्या भूषित करेंगे ! (रत्नानि विभूषयन्ति योशा भूषयन्ते वनिता न रत्नकान्त्या।) हे आचार्य आपने तो कह दिया – ‘धर्म-कर्म, भक्ति-ज्ञान, शांति-सौमनस्य कुछ भी नारी का संस्पर्श पाए बिना मनोहर नहीं होते – नारी-देह वह स्पर्श मणि है, जो प्रत्येक ईंट-पत्थर को सोना बना देती है।’,मगर ‘आपुन देश’ की नारिओं को भी कौन समझाये? वहाँ भी तो आजकल कान छिदवाने की होड़ लगी हुई है। कान एक, मगर छेद तीन। खैर, महिलायें नाराज न हों! आखिर आपही तो हमारी अन्नदात्री हैं!

इस मॉल की विशाल इमारत की बनावट इतनी अच्छी है कि क्या बतायें? हमारी सड़क जितने चौड़े बरामदे के दोनों ओर दुकानें और बीच में आँगन जैसी खुली जगह। छत से दिन का पर्याप्त प्रकाश आ रहा है। यही चीज आप साँई बाबा की शिरडी के गेस्ट हाउस में भी देख सकते हैं।

वाशरूम में गया तो वही चमाचम व्यवस्था। सफाई, पानी का इंतजाम। हाथ धोने के बाद – घर्रर्…..तेज आवाज के साथ हैंड ड्रायर चल रहा है – सूखा लो हाथ! छोटे से बक्से में मानो अंधड़ चल रहा है।

एक पीली ट्रॉली लेकर सफाई कर्मचारी आ रहा है। क्या गजब का ड्रेस है, भाई! हमारे यहाँ के ऑफिसर वैसी पोशाक में रहते होंगे। और इंतजाम ? वाह! यह ब्रश, वो ब्रश……..

अरे मेरी नन्ही गुड़िया! देखा एक पैराम्बुलेटर को धकियाती हुई एक बच्ची चली आ रही है। पैराम्बुलेटर में उसकी डॉल लेटी हुई है। वाह भई! नन्ही जसोदा अपने डॉल कान्हा को घुमाने ले जा रही है। पीछे पीछे उस लड़की की माँ और उसके डैडी भी चले आ रहे हैं। खुद ही है छोटी एक परी, घूँघट डाले बनी है बड़ी।

आवागमन की व्यवस्था भी चमत्कार है। कार पार्किंग एरिया से आप सीधे पहली मंजिल में तो पहुँचते ही हैं, दूसरी मंजिल से भी आप शकट तक सीधे पहुँच सकते हैं। आर्किटेक्ट यानी वास्तु शिल्पकारों के क्या डिजाइन हैं!

उसदिन आकर हमने देखा था – घुसते ही सर्वप्रथम एरिया में तरह तरह के क्राकरीज सजा कर रखे हुए हैं। कितनी खूबसूरत प्लेट, बोल वगैरह, तरह तरह के कलछुल आदि। हिम्मत करके दाम पूछा तो बेहोश होते होते बच गया। बाथरूम टावेल की कीमत 15.99 डॉलर, यानी करीब 800रुपये। फिर वही हिसाब लेकर बैठ गया? धत्, का भैया हियाँ के रुमाल के दाम में हम हुआँ बनारसी साड़ी खरीद सकीला का ?

इन पाक-यंत्रों की बगल से आगे चले जाइये, तो उधर है नारी परिधान कार्नर। एक जगह तो चक्कर आ गया। माँ बिटिया मिलकर मुस्किया रही थीं – देख, बुढ़वा का हाल देख ! लाल, हरे, सफेद, काले – तरह तरह की कंचुकी हैंगर से लटक रही हैं। हे ईश्वर! ये किन उर्वशी, रंभा या मेनकाओं के लिए हैं? ये साइज तो शायद अजन्ता की मूर्तिआें को ही फिट बैठेगी। सुना था चोली के भीतर किसी का दिल धड़कता है। यहाँ तो उस व्याप्ति के नजारे को देखकर बाहर खड़े मेरा ही दिल धड़कने लगा। कबिरा खड़ा बाजार में, चोली देख घबड़ाय। हिंद की ग्राम वधुओं के इनमें चोला समाय!

कैटारॅकी से बाहर निकला तो खिलखिलाती धूप। कनाडा के मौसम के मिजाज का भी जबाब नहीं। अभी पूनमासी, तो अभी अमावस। अभी मारे गरमी के उफ उफ कर रहे हैं, तो अभी बदरी और फिर रिमझिम। मई जून में तो दो तीन दिन की गर्मी के बाद ही पानी बरसने की भविष्यवाणी हो जाती है। तो चलिए कैटारॅकी मॉल में बैठे कुमार विनोद के ‘सजदे में आकाश’ से सुनिए –

मौसम बदमाशी पे उतरा लगता है/ बारिश के संग धूप रवाना करता है।

प्यार में ऊँचे-नीचे का फिर भेद कहाँ/ सजदे में आकाश जमीं पे झुकता है।

ऐसे तो यहाँ हमने कम्प्यूटर आदि की दुकानों के अलावा इलेक्ट्रिकल गुडस में और कुछ खास देखा नहीं, फिर भी एकाध बार लग रहा था – काश, एक सीलिंग फैन ही लग जाता!

इसीलिए तो यहाँ राह चलते समय सन ग्लास और कैप लगाना मानो अनिवार्य है। वरना त्वचा सन टैन्ड होकर रह जायेगी। उसकी भी एक आपबीती कहानी है। वो बाद में………

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 39 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 39 ??

वैष्णो देवी-

जम्मू कश्मीर के त्रिकुट पर्वत पर स्थित है माँ वैष्णवी का मंदिर जो कालांतर में वैष्णो देवी के रूप में प्रतिष्ठित हुईं। वैष्णो देवी का मंदिर जम्मू के कटरा नगर में है। सामान्यतः इसकी यात्रा रात में होती है। पूरी रात चढ़ाई करनी होती है। आजकल यात्रा का बड़ा भाग हेलीकॉप्टर या बैटरी कार से पूरी करने की व्यवस्था भी है। माता की मूर्ति गुफा में है जिसका प्रवेशद्वार अत्यंत संकरा है। प्रतिवर्ष भारी संख्या में यात्री यहाँ दर्शनार्थ आते हैं।

अमरनाथ-

जम्मू कश्मीर में स्थित बाबा अमरनाथ की गुफा हिंदुओं के प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों में से एक है।  मान्यता है कि इसी गुफा में महादेव ने माँ पार्वती को अमरत्व का ज्ञान दिया था। भुरभुरी बर्फ की गुफा में प्राकृतिक रूप से ठोस बर्फ से 10 फुट का शिवलिंग यहाँ बनता है। यही कारण है कि अमरनाथ को बाबा बर्फानी भी कहा जाता है। आषाढ़  से श्रावण पूर्णिमा तक पह यात्रा चलती है।

माना जाता है कि अमरनाथ गुफा की खोज एक मुस्लिम गड़ेरिया ने की थी। इस अन्वेषी के परिजनों को बाबा बर्फानी के कुल चढ़ावे का एक चौथाई भाग आज भी दिया जाता है। धार्मिक भेदभाव की संकीर्णता से परे  वैदिक दर्शन की आँख में बसा यह कल्पनातीत एकात्म भाव, मानवजाति की आँखें खोलने वाला है।

अयोध्या-

मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम की नगरी है अयोध्या। इसे अवध भी कहा जाता है। अयोध्या मनु महाराज द्वारा बसाया गया नगर है। अयोध्या का अर्थ है, जिसे युद्ध अथवा हिंसा से न प्राप्त किया जा सके। इस नगर में श्रीराम जन्मभूमि, करोड़ों सनातनियों की आस्था का सबसे बड़ा केंद्र है। इसके अतिरिक्त कनक भवन, हनुमानगढ़ी, श्री लक्ष्मण किला, दशरथ महल जैसे आकर्षण के अनेक केंद्र हैं।

श्रीराम भारतीयता के प्राणतत्व हैं। बच्चे के जन्म पर रामलला की बधाई गाता और अंत्येष्टि में ‘रामनाम सत है’ का घोष करता है भारतीय समाज। अवधनगरी में तो श्वास-श्वास राममय है।

श्रीराम ने बंधु, सखा, वनवासी, वानर, टिटिहरी सबको एक भाव से देखा। रघुनाथ का जीवन एकात्मता का शिलालेख है।

क्रमश: …

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 151 ☆ आलेख – शब्द एक, भाव अनेक ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  आलेख  शब्द एक, भाव अनेक

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 151 ☆

? आलेख  – शब्द एक, भाव अनेक  ?

जब अलग अलग रचनाकार एक ही शब्द पर कलम चलाते हैं तो अपने अपने परिवेश, अपने अनुभवों, अपनी भाषाई क्षमता के अनुरूप सर्वथा भिन्न रचनायें उपजती हैं.

व्यंग्य में तो जुगलबंदी का इतिहास लतीफ घोंघी और ईश्वर जी के नाम है, जिसमें एक ही विषय पर दोनो सुप्रसिद्ध लेखको ने व्यंग्य लिखे. फिर इस परम्परा को अनूप शुक्ल ने फेसबुक के जरिये पुनर्जीवित किया, हर हफ्ते एक ही विषय पर अनेक व्यंग्यकार लिखते थे जिन्हें समाहित कर फेसबुक पर लगाया जाता रहा. स्वाभाविक है एक ही टाइटिल होते हुये भी सभी व्यंग्य लेख बहुत भिन्न होते थे. कविता में भी अनेक ग्रुप्स व संस्थाओ में एक ही विषय पर समस्या पूर्ति की पुरानी परम्परा मिलती है. इसी तरह , एक ही भाव को अलग अलग विधा के जरिये अभिव्यक्त करने के प्रयोग भी मैने स्वयं किये हैं. उसी भाव पर अमिधा में निबंध, कविता, व्यंग्य, लघुकथा, नाटक तक लिखे. यह साहित्यिक अभिव्यक्ति का अलग आनंद है.

सैनिक शब्द पर भी खूब लिखा गया है, यह साहित्यकारो की हमारे सैनिको के साथ प्रतिबद्धता का परिचायक भी है. भारतीय सेना विश्व की श्रेष्ठतम सेनाओ में से एक है, क्योकि सेना की सर्वाधिक महत्वपूर्ण इकाई हमारे सैनिक वीरता के प्रतीक हैं. उनमें देश प्रेम के लिये आत्मोत्सर्ग का जज्बा है.उन्हें मालूम है कि उनके पीछे सारा देश खड़ा है. जब वे रात दिन अपने काम से  थककर कुछ घण्टे सोते हैं तो वे अपनी मां की, पत्नी या प्रेमिका के स्मृति आंचल में विश्राम करते हैं, यही कारण है कि हमारे सैनिको के चेहरों पर वे स्वाभाविक भाव परिलक्षित होते हैं. इसके विपरीत चीनी सैनिको के कैम्प से रबर की आदम कद गुड़िया के पुतले बरामद हुये वे इन रबर की गुड़िया से लिपटकर सोते हैं. शायद इसीलिये चीनी सैनिको के चेहरे भाव हीन, संवेदना हीन दिखते हैं. हमने देखा है कि उनकी सरकार चीन के मृत सैनिको के नाम तक नही लेती. वहां सैनिको का वह राष्ट्रीय सम्मान नही है, जो भारतीय सैनिको को प्राप्त है. मैं एक बार किसी विदेशी एयरपोर्ट पर था,  सैनिको का एक दल वहां से ट्राँजिट में था, मैने देखा कि सामान्य नागरिको ने खड़े होकर, तालियां बजाकर सैनिक दल का अभिवादन किया. वर्दी को यह सम्मान सैनिको का मनोबल बहुगुणित कर देता है.

सैनिक पर खूब रचनायें हुई है हरिवंश राय बच्चन की पंक्तियां हैं

जवान हिंद के अडिग रहो डटे,

न जब तलक निशान शत्रु का हटे,

हज़ार शीश एक ठौर पर कटे,

ज़मीन रक्त-रुंड-मुंड से पटे,

तजो न सूचिकाग्र भूमि-भाग भी।

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी की कविता का अंश है…

तुम पर है ना आज देश को तुम पर हमें गुमान

मेरे वतन के फौजियों जांबाज नौजवान

सुनकर पुकार देश की तुम साथ चल पड़े

दुश्मन की राह रोकने तुम काल बन खड़े

तुम ने फिजा में एक नई जान डाल दी

तकदीर देश की नए सांचे में ढ़ाल दी

अनेक फिल्मो में सैनिको पर गीत सम्मलित किये गये हैं. प्रायः सभी बड़े कवियों ने कभी न कभी सैनिको पर कुछ न कुछ अवश्य लिखा है. जो हिन्दी की थाथी है. हर रचना व रचनाकार अपने आप में  महत्वपूर्ण है. देश के सैनिको के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुये अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूं. हमारे सैनिक  राष्ट्र की रक्षा में  अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं  । सैनिक होना केवल आजीविका उपार्जन नही होता । सैनिक एक संकल्प, एक समर्पण, अनुशासन के अनुष्ठान का  वर्दीधारी बिम्ब होता है  ।हम सब भी अप्रत्यक्ष रूप से जीवन के किसी हिस्से में कही न कही किंचित भूमिका में छोटे बड़े सैनिक होते हैं  । कोरोना में हमारे शरीर के रोग प्रतिरोधक  अवयव वायरस के विरुद्ध शरीर के सैनिक की भूमिका में सक्रिय हैं ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 93 ☆ ऑनलाइन से ऑफलाइन की ओर… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “ऑनलाइन से ऑफलाइन की ओर…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 93 ☆

☆ ऑनलाइन से ऑफलाइन की ओर… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

लाइन में लगकर न जाने क्या- क्या कार्य किए जाते रहे हैं। राशन, बिल, रेल व पिक्चर के टिकिट, रोजगार हेतु फॉर्म जमा करना,  फीस जमा करना, बैंक के कार्यों में आदि। वैसे सबसे पहले स्कूल में प्रार्थना करते समय लाइन का अभ्यास बच्चों को शुरू से कराया जाता है। ऊँचाई के आधार पर, कक्षा, वर्ग की लाइन लगती है। जरा सी तिरछी होने पर तुरंत कड़क आवाज द्वारा सीधा करा दिया जाता है।

कृपया लाइन से आइए तभी सारे कार्य सुचारू रूप से हो सकेंगे। ऐसा कहते और सुनते हुए हम लोग बड़े हुए हैं। तकनीकी के प्रभाव से भले ही, लाइन लगाने के अवसरों में कमीं आयी है किंतु हम लोग इस अधूरेपन को कहीं न कहीं महसूस अवश्य कर रहे हैं। लाइन में लगकर बातचीत करते हुए अपने अधिकारों की चर्चा करना भला किसको याद नहीं होगा। सारी रामकथा वहीं पर कहते – सुनते हुए लोग देखे जा सकते थे किंतु ऑफलाइन के बढ़ते प्रभाव ने इस भावनात्मक मेलजोल को कम कर दिया है। 

इधर सारे कार्य भी वर्क फ्रॉम होम होने से उदास लोग मौका ढूंढते हुए दिखने लगे हैं कि ऑफलाइन में जो मजा था वो फिर से चाहिए। हालांकि अब कोई रोक- टोक नहीं है किंतु सब कुछ गति में आने पर वक्त तो लगता ही है। हर नियमों के  लाभ और हानि को मापना संभव नहीं  है। इस सबमें सबसे अधिक नुकसान स्कूली बच्चों का हुआ है। वे अब ऑफलाइन जाने में डर रहे हैं। दो वर्षों से ऑनलाइन परीक्षा देने पर जो लाभ उन्हें मिला है उससे उनकी पढ़ने व याद करने की आदत छूट गयी है। गूगल की सहायता से उत्तर लिखते हुए जो मजा उन्हें आ रहा था अब वो नहीं मिलेगा सो चिड़चिड़ाते हुए स्कूल जाते देखे जा सकते हैं। स्कूल प्रशासन को चाहिए कि उन्हें धैर्य के साथ समझाए। ज्यादा भय देने पर अरुचि होना स्वाभाविक है। बाल मन जब खेल- कूद की ओर लगेगा तो धीरे- धीरे पुनः गति आएगी।

माता- पिता को भी शिक्षकों के साथ तारतम्यता बैठाते हुए बच्चों को पुनः पहले जैसा बनाने की पहल करनी चाहिए। ऑफ लाइन की लाइन भले ही कष्टकारी हो किंतु सच्ची सीख, परस्पर प्रेम, देने का भाव, मेलजोल, सहनशीलता व संवाद को जन्म देती है इसलिए आइए मिलकर पुनः उसी धारा की ओर लौटें थोड़े से परिवर्तन के साथ क्योंकि परिवर्तन सदैव हितकारी होते हैं। इनसे ही सुखद भविष्य की नींव गढ़ी जा सकती हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #111 – पानी चला सैर को ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर बाल गीत  – “पानी चला सैर को।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 111 ☆

☆ बाल गीत – पानी चला सैर को ☆ 

पानी चला सैर को

संगी-साथी से मिल आऊ.

 

बादल से बरसा झमझम

धरती पर आया था.

पेड़ मिले न पौधे

देख, मगर यह चकराया था.

कहाँ गए सब संगी-साथी

उन को गले लगाऊं.

 

नाला देखा उथलाउथला

नाली बन कर बहता.

गाद भरी थी उस में

बदबू भी वह सहता .

उसे देख कर रोया

कैसे उस को समझाऊ.

 

नदियाँ सब रीत गई

जंगल में न था मंगल.

पत्थर में बह कर वह

पत्थर से करती दंगल.

वही पुराणी हरियाली की चादर

उस को कैसे ओढाऊ.

 

पहले सब से मिलता था

सभी मुझे गले लगते थे.

अपने दुःख-दर्द कहते थे

अपना मुझे सुनते थे.

वे पेड़ गए कहाँ पर

कैस- किस को समझाऊ.

 

जल ही तो जीवन है

इस से जीव, जंतु, वन है.

इन्हें बचा लो मिल कर

ये अनमोल हमारे धन है.

ये बात बता कर मैं भी

जा कर सागर से मिल जाऊ.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

13/05/2019

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 103 ☆ आलेख – मैं पानी की बचत कैसे करता हूँ ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक आलेख  “मैं पानी की बचत कैसे करता हूँ”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 103 ☆

☆ जल ही जीवन है – मैं पानी की बचत कैसे करता हूँ ☆ 

मैंने देखा मेरा एक पड़ोसी पानी का स्विच ऑन करके भूल जाता है, बल्कि दिन में एक बार नहीं, बल्कि कई-कई बार। सदस्य दस के आसपास, लेकिन सभी बादशाहत में जीने वाले, देर से सोना और देर से जगना। ऐसे ही कई बादशाह और भी पड़ोसी हैं, जो पानी की बरबादी निरन्तर करने में गौरव का अनुभव कर रहे हैं। मैं कई बार उन्हें फोन करके बताता हूँ, तो कभी आवाज लगाकर जगाता हूँ। उनमें कुछ बुरा मानते हैं तो अब उनके कान पर जूं रेंगाना बन्द कर दिया है। सब कुछ ईश्वर के हवाले छोड़ दिया है कि जो करा रहा है वो ईश्वर ही तो है, क्योंकि वे सब भी तो उसकी संतानें हैं। उनमें भी जीती जागती आत्माएं है, जो पानी बहाकर और बिजली फूँककर आनन्दित होती हैं। पानी की बर्बादी करने में दो ही बात कदाचित हो सकती हैं कि या तो वे बिजली का प्रयोग चोरी से कर रहे हैं या उन्हें दौलत का मद है। खैर जो भी हो, लेकिन मुझे पानी की झरने जैसी आवाजें सुनकर ऐसा लगता है कि यह पानी का झरना मेरे सिर पर होकर बह रहा है,जो मुझमें शीत लहर-सी फुरफुरी ला रहा है।

पता नहीं क्यों मैं पानी की बचत करने की हर समय सोचा करता हूँ। बल्कि, पानी की ही क्यों, मैं तो पंच तत्वों को ही संरक्षित और सुरक्षित करने के लिए निरन्तर मंथन किया करता हूँ। बस सोचता हूँ कि ये सभी शुद्ध और सुरक्षित होंगे तो हमारा जीवन भी आनन्दित रहेगा। वर्षा होने पर उसके जल को स्नान करनेवाले टब और कई बाल्टियों में भर लेता हूँ। उसके बाद उस पानी से पौधों की सिंचाई , स्नान, शौचालय आदि में प्रयोग कर लेता हूँ। अबकी बार तो मैंने उसे कई बार पीने के रूप में भी प्रयोग किया। जो बहुत मीठा और स्वादिष्ट लगा। टीडीएस नापा तो 40-41 आया। जबकि जो जमीन का पानी आ रहा है, उसका टीडीएस 400 के आसपास रहता है। क्योंकि जमीन में हमने अनेकानेक प्रकार के केमिकल घोल दिए हैं। मेरे गाँव के कुएँ का जल भी वर्षा के जल की तरह मीठा और स्वादिष्ट होता था, अब इधर 40 वर्षों में क्या हुआ होगा, मुझे नहीं मालूम।

सेवानिवृत्त होने के बाद कपड़ों की धुलाई घर में मशीन होते हुए भी मैं हाथों से कपड़े धोता हूँ, ताकि शरीर भी फिट रहे और पानी भी कम खर्च हो। बल्कि सर्विस में रहने के दौरान भी यही क्रम चलता रहा, तब कभी मेरे साथ धुलाई मशीन नहीं रही।

कपड़ों से धुले हुए साबुन के पानी को कुछ तो नाली की सफाई में काम में लेता हूँ और शेष पानी से जहाँ गमले रखे हैं, अर्थात छोटा-सा बगीचा है ,उसके फर्स की धुलाई भी करा देता हूँ। कई प्रकार के हानिकारक कीट पानी के साथ बह जाते हैं और बगीचा भी ठीक से साफ हो जाता है।

आरओ से शुद्ध पानी होने पर जो गन्दा पानी निकलता है, उसे मैं शौचालय में , या कपड़े धोने में या पौंछे आदि में प्रयोग करता हूँ। आरओ का प्रयोग घर-घर में हो रहा है, अब सोचिए लाखों लीटर पानी बिना प्रयोग करे ही नालियों में बहकर बर्बाद किया जा रहा है। लेकिन मैं उसकी भी बचत करता हूँ। मुझे ऐसा करके सुख मिलता है।

स्नान मैं सावर से भी कर सकता हूँ और काफी देर तक कर सकता हूँ, लेकिन मैं नहीं करता, बस एक बाल्टी पानी से ही अच्छी तरह रगड़-रगड़ कर नहाता हूँ, नहाते समय जो पानी फर्स पर गिरता है, उससे भी बनियान या रसोई का मैला कपड़ा धो लेता हूँ। प्रायः नहाने के लिए साबुन प्रयोग नहीं करता हूँ। बाल कटवाने पर महीने में एकाध बार ही करता हूँ, वैसे मैं बाल और मुँह आदि धोने के लिए आंवला पाऊडर और ताजा एलोवेरा प्रयोग करता हूँ। स्नान करने के बाद कमर को तौलिए से अच्छे से रगड़ता हूँ, ताकि पीठ की 72 हजार नस नाड़ियां जागृत होकर सुचारू रूप से अपना काम करती रहें।

सब्जी, फल आदि को धोने के बाद जो पानी बचता है, उसे भी मैं शौचालय आदि में प्रयोग कर लेता हूँ।

घर में लोग दाल बनाते हैं, तो उसे कई बार धोते हैं और पानी फेंकते जाते हैं। मैं एकाध बार थोड़े पानी से धोकर, उसे पकाने से दो-तीन घण्टे पहले भिगो देता हूँ, वह जब अच्छी तरह फूल जाती है, तब उसे धोकर स्टील के कुकर में धीमी आंच पर पकाने रख देता हूँ, इस तरह दाल एक सीटी आने तक अच्छी तरह पककर तैयार हो जाती है। गैस का खर्च आधा भी नहीं होता है। इस तरह पानी और गैस दोनों ही कम व्यय होते हैं। इसी तरह तरह मैं सब्जियां बनाते समय करता हूँ कि पहले सब्जी को अच्छे से धोता हूँ, फिर उसे छील काटकर बनाता हूँ, इस तरह पानी भी कम खर्च होता है और सब्जी के विटामिन्स भी सुरक्षित रहते हैं। उसे धीमी आंच पर पकाता हूँ, अक्सर लोहे की कड़ाही या स्टील के कुकर का प्रयोग करता हूँ, ताकि पकाने में उपयोगी तत्व मिलें , क्योंकि अलमुनियम आदि के कुकर या कड़ाही, पतीली आदि बर्तनों में पकाने से अलमुनियम के कुछ न कुछ हानिकारक गुण सब्जी या दाल में अवश्य समाहित हो जाते हैं, जो धीमे जहर का काम कर रहे हैं, कैंसर जैसी बीमारियां बढ़ने का एक बहुत कारण यह भी है, जिसे हम कभी नहीं समझना चाहते हैं। क्योंकि अंग्रेजों ने सबसे पहले इसका प्रयोग भारतीय जेलों में रसोई में प्रयोग करने के लिए इसलिए किया था कि देश स्वतंत्रता दिलाने वाले भारतीय जेलों में ही बीमार होकर जल्दी मर जाएँ।

मैं सड़क राह चलते, रेलवे स्टेशन आदि कहीं पर भी खुली टोंटियाँ देखता हूँ, तो रुककर उन्हें बन्द कर देता हूँ।

मकान में जब कभी कोई टोंटी आदि खराब होती है, उसे तत्काल ही ठीक करने के लिए प्लम्बर बुलाकर ठीक कराता हूँ।

मेरा संकल्प रहता है कि पानी का दुरुपयोग मेरे स्तर से न हो, उसका सही सदुपयोग हो। जो भी लोग मेरे संपर्क में आते हैं, चाहे वह कामवाली हों या कोई अन्य तब मैं उन्हें जागरूक कर समझाता हूँ कि पानी जीवन के लिए अमृत तुल्य होता है, इसका दुरुपयोग जो भी लोग करते हैं उन्हें ईश्वर कभी भी क्षमा नहीं करते हैं। बल्कि पानी के साथ -साथ हमें पंच तत्वों का संरक्षण भी अवश्य करते रहना चाहिए। मैं तो इन्हें सुरक्षित एवं संरक्षित करने लिए निरन्तर प्रयास करता रहता हूँ।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 15 (16-20)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #15 (16 – 20) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -15

 

था चिताग्नि सा रूप कुछ धूमिल मयदुर्गन्ध।

अग्निलपट से बाल थे, मांस-मखन स्वच्छंद।।16।।

 

शूल रहित पाकर उसे घेर लिया तत्काल।

क्योंकि वह ही उचित था, हर प्रकार का काले।।17।।

 

ब्रह्मा ने डर कर तुम्हें भेजा मम आहार

क्योंकि आज भोजन रहित था मेरा भण्डार।।18।।

 

धमका के शत्रुध्न को राक्षस विविध प्रकार।

उन्हें मारने के लिये तरू एक लिया उखाड़।।19।।

 

खण्ड हुआ वह वृक्ष जब लगा शत्रुध्न तीर।

पुष्परेणु भर छू सकी उड़ कर दुष्ट शरीर।।20।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ ३१ मार्च – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆  ३१ मार्च -संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर -ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

दत्तात्रय बळवंत पारसनीस

रावबहादूर दत्तात्रय बळवंत पारसनीस (27नोव्हेंबर 1870 -31मार्च 1926) हे इतिहाससंशोधक वं ऐतिहासिक साधनांचे संग्राहक होते. त्यांचे शिक्षण इंग्रजी सहावीपर्यंत झाले होते.

जानेवारी 1887मध्ये त्यांनी ‘सुभाष्यचंद्रिका’ हे मासिक काढले. सहा अंक निघाल्यानंतर 1887मध्ये सुरू केलेल्या ‘महाराष्ट्र कोकिळ’ या मासिकात ते समाविष्ट केले. त्या मासिकांतून मराठेशाहीतील प्रसिद्ध व्यक्तींशी संबंधित कागदपत्रे प्रसिद्ध होत असत.

‘भारतवर्ष’ आणि ‘इतिहास संग्रह’ नावाची नियतकालिके त्यांनी चालू केली. त्यांतून त्यांनी सहा हजारांहून अधिक अस्सल ऐतिहासिक कागदपत्रे प्रकाशित केली.

त्यांच्या प्रेरणेने वं प्रयत्नांनी सातारा येथे ऐतिहासिक संग्रहालय स्थापन झाले. पुढे 1939 साली ते पुण्याच्या डेक्कन महाविद्यालयात हलवण्यात आले. त्यांच्या संग्रहात मराठेशाहीतील, विशेषतः अठराव्या शतकातील घटनांसंबंधीची अस्सल कागदपत्रे, जुनी नाणी, चित्रे, कलाकुसरीच्या वस्तू, पोशाख-पेहेराव आदींचे नमुने, ऐतिहासिक पत्रे, हस्तलिखिते वगैरे होते.

त्यांनी विपुल लेखन केले. ‘अयोध्येचे नबाब’, ‘ महादजी शिंदे याजकडील राजकारणे -5खंड’, ‘सवाई माधवराव पेशव्यांचा दरबार ‘वगैरे 12 मराठी पुस्तके, तसेच त्यांनी संपादित केलेली काही पुस्तके, त्याचप्रमाणे ‘दि सांगली स्टेट’ वगैरे विविध ऐतिहासिक स्थळविषयक माहिती देणारी 5इंग्रजी पुस्तके, ‘अ हिस्टरी ऑफ द मराठा पीपल – 3खंड (सहलेखक :सी. ए. किंकेड), ‘ट्रीटीज, एंगेजमेंटस अँड  सनदज, बॉम्बे’ (सहसंपादक :पी. व्ही. मावजी व जी. सी. लाड) हे इंग्रजी ग्रंथ अशी अनेक पुस्तके त्यांनी लिहिली.

पारसनीसांच्या स्मृतिदिनानिमित्त त्यांना मानाचा मुजरा.  🙏🏻

सौ. गौरी गाडेकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ: साहित्य साधना, कऱ्हाड शताब्दी दैनंदिनी, विकीपीडिया,

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #106 – माझी कविता…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 106 – माझी कविता…! 

 

अक्षर अक्षर मिळून बनते माझी कविता

आयुष्याचे दर्पण असते माझी कविता

अक्षरांतही गंध सुगंधी येतो जेव्हा

काळजातही वसते तेव्हा माझी कविता….!

 

कधी हसवते कधी रडवते माझी कविता.

डोळ्यांमधले ओले पाणी माझी कविता.

तुमचे माझे पुर्ण अपूर्णच गाणे असते.

ओठावरती अलगद येते माझी कविता…..!

 

आई समान मला भासते माझी कविता.

देवळातली सुंदर मुर्ती माझी कविता.

कोरे कोरे कागद ही मग होती ओले.

जीवन गाणे गातच असते माझी कविता….!

 

झाडांचाही श्वासच बनते माझी कविता.

मुक्या जिवांना कुशीत घेते माझी कविता.

अक्षरांसही उदंड देते आयुष्य तिही.

फुलासारखी उमलत जाते माझी कविता….!

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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