हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथाएं–[1] बुद्धिजीवी [2] अपने बिल में ☆ डॉ. हंसा दीप ☆

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।

☆ लघुकथाएं – [1] बुद्धिजीवी [2] अपने बिल में ☆ डॉ. हंसा दीप 

☆ बुद्धिजीवी ☆

बस चली जा रही थी। अगले स्टॉप पर कुछ देर रुकी तो एक बहुत बूढ़ी महिला बस में चढ़ी। चूँकि कोई सीट खाली नहीं थी अत: वह डंडा पकड़े खड़ी रही। उसके पास वाली सीट पर एक बुद्धिजीवी-सा नवयुवक बैठा था। वह देख रहा था कि बस के बार-बार हिचकोले खाने से बुढ़िया को बड़ी दिक्कत हो रही थी। बेचारी बमुश्किल स्वयं को गिरने से बचा पा रही थी। उसने सोचा वह खड़ा हो जाए और बुढ़िया को बिठा दे पर न जाने क्यों वह उठा नहीं। सोचा, वह तो इतनी दूर से आ रहा है, वह क्यों उठे! और दूसरे यात्री भी तो हैं क्या कोई भी उसे बिठा नहीं सकता!

ऊँह बिठाना चाहता तो अब तक कोई बिठा ही देता, क्यों न वह ही उठ जाए! बिल्कुल, अब वह उठेगा और बुढ़िया को बिठा ही देगा। वह मन ही मन कई बार दुहरा चुका कि बुढ़िया से कहेगा– “माँजी आप बैठो…” और जब वह खड़ा होगा तो बस के सारे यात्री निश्चित ही उसकी दया से प्रभावित होंगे। सोचेंगे, कितना दयालु है यह! वह सोचता ही रहा और सोचते-सोचते उसे झपकी लग गयी। आँख खुली तब तक बुढ़िया उतर चुकी थी।

☆ अपने बिल में ☆

समर्थ जी बहुत खुश हैं। पिछले बीस सालों से विदेश में रहकर हिन्दी की सेवा कर रहे हैं परन्तु इन दिनों उनकी सेवा लोगों को दिखाई दे रही है। फेसबुक पर उनके पूरे पाँच हजार फ्रेंड्स हैं। पहले तो भारत जाकर रिश्तेदारों से मिल-मिला कर आ जाते थे पर इन दिनों भारत यात्रा की बात ही कुछ और है। फेसबुक के मित्र उनके लिये सम्मान समारोह रखते हैं। अब हर साल की एक भारत यात्रा पक्की कर ली है जिसमें कम से कम पच्चीस सम्मान समारोह न हो तो जाने का आनंद ही क्या! भारत से जब लौटते हैं तो अगली यात्रा के इंतज़ार में कई फूल मालाओं का वजन गर्दन पर महसूस होता रहता है। यहाँ की ठंड में मफलर पहनते हैं तो लगता है यह मफलर नहीं वे ही फूल हैं जो उन्हें इस ठंड में गर्मी दे रहे हैं। 

इस बार उन्हीं मित्रों में से एक मित्र अनादि बाबू विदेश की सैर पर आए। अनादि जी की दिली इच्छा थी कि जैसा सम्मान उन्होंने अपने मित्र समर्थ जी का भारत में किया वैसा ही शानदार कार्यक्रम अनादि बाबू के लिये यहाँ किया जाए। बस यहीं आकर समर्थ जी फँस गए क्योंकि वे जानते थे कि उनके अपने शहर में उनकी कितनी इज्जत है, उन्हें कोई घास तक नहीं डालता। अब वे फूलों के हार उन्हें गले में लिपटे साँप की तरह भयानक लग रहे थे व फूँफकारते हुए साँप उन्हें बिल में घुसने के लिये मजबूर कर रहे थे।

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© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

hansadeep8@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 21 – सजल – राह देखता खड़ा सुदामा… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है बुंदेली गीत  “राह देखता खड़ा सुदामा … । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 21 – सजल – राह देखता खड़ा सुदामा …

समांत- ईते

पदांत- अपदांत

मात्राभार- 16

 

श्रमिक-रोज शंका में जीते ।

दुख के आँसू खुद ही पीते।।

 

राह देखता खड़ा सुदामा,

शासक के बस हुए सुभीते।

 

फल तो कई फले हैं लेकिन,

खाने को कब मिले पपीते।

 

अखबारों में छपी योजना,

तंत्र लगाते रहे पलीते।

 

तन-गरीब ऐसे हैं ढकते,

सुइ-धागों से थिगड़े सीते।

 

हर गरीब का जीना दूभर,

कैसे उनका जीवन बीते।

 

सबने पाल रखे हैं सपने।

पर उनके दिल दिखते रीते।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग -13 -हरतालिका एवं गणगौर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 13 – हरतालिका एवं गणगौर ??

हरतालिका-  सुहागिनों (और कुमारिकाओं द्वारा भी) द्वारा किया जाता विशेषकर उत्तर भारत का यह प्रसिद्ध पर्व  है। भाद्रपद शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाया जाने वाला यह हरतालिका की महाराष्ट्र में भी विशेष मान्यता है। अखंड सौभाग्य के लिए किये जाने वाले इस व्रत में अंतर्निहित सामाजिकता देखिए कि सम्बंधित महिला की बीमारी की स्थिति में दूसरी स्त्री  उसके लिए यह व्रत रख लेती है। अनेक बार पत्नी के अस्वस्थ होने पर पति यह व्रत करता है।

गणगौर- यह मुख्यत: राजस्थान में  मनाया जाता है। गणगौर, गण और गौर ( शिवजी और गौरा जी) की पूजा है। पौराणिक गाथा है कि चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को गौरा जी अपने पीहर आती हैं। आठ दिन बाद ईसर जी (शिवजी) उन्हें विदा कराने आते हैं। चैत्र शुक्ल तृतीया को गौरा जी विदा होती हैं। इस प्रकार गणगौर  अठारह दिनों तक चलता है।

इसे सुहागिन और कुंवारी दोनों करती हैं। चूँकि यह युगलपूजा है, दो महिलाएँ मिलकर पूजती हैं। स्त्री  सामासिकता एवं एकात्मता का समन्वित प्रतिरूप है। यही कारण है कि गणगौर में भी यही भाव प्रतिबिंबित होते हैं। सुहागिनें अपने पीहर और ससुराल दोनों में सुख- समृद्धि बनाये रखने और अखंड सौभाग्य के लिए गणगौर पूजती हैं। कुंवारियाँ सच्चे व अच्छे जीवनसाथी के लिए गणगौर करती हैं।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 106 – “इक्कीसवीं सदी का भारत” – डा उमेश कुमार सिंग ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  डा उमेश कुमार सिंग जी की पुस्तक  “इक्कीसवीं सदी का भारत” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 106 – “इक्कीसवीं सदी का भारत” – डा उमेश कुमार सिंग ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – इक्कीसवीं सदी का भारत

म. प्र. साहित्य अकादमी की पत्रिका साक्षात्कार के संपादकीय का संकलन

लेखक – डा उमेश कुमार सिंग

प्रकाशक – संदर्भ प्रकाशन, भोपाल

मूल्य – ३०० रु

संदर्भ प्रकाशन भोपाल श्री राकेश सिंह के समर्पित साहित्य प्रेम का उदाहरण है, किसी भी तरह दिल्ली या जयपुर के प्रकाशको से प्रकाशन, प्रस्तुति, उत्कृष्ट साहित्य के चयन में उन्नीस नही है. विविध विषयो पर साश्वत साहित्य वे लगातार प्रकाशित कर रहे हैं. इसी क्रम में “इक्कीसवीं सदी का भारत ” पुस्तक पढ़ने में आई. लेखक डा उमेश कुमार सिंग जो साहित्य अकादमी के निदेशक रह चुके हैं, और जिनके संपादन में म. प्र. साहित्य अकादमी की पत्रिका साक्षात्कार ने नई उंचाईयां स्पर्श की थीं, के द्वारा उनके संपादन में निकले साक्षात्कार के अंको के संपादकीय आलेखो का संकलन इस पुस्तक में है. कुल २६ लेख हैं. सभी लेख शाश्वत मुक्त चिंतन से उपजे हैं. हर उस व्यक्ति को जिसे स्व से पहले समाज और देश की चिंता हो, ये आलेख जरूर पसंद आयेंगे. अधिकांश लेख मेरे पहले ही साक्षात्कार में पढ़े हुये हैं, जिन पर मैं यदा कदा पाठकीय प्रतिक्रिया भी पत्रिका में ही व्यक्त करता रहा हूं. साहित्य का सरोकार मई २०१६ के अंक से आरंभ जून २०१८ में प्रकाशित रंक को तो रोना है लेख तक सभी न केवल पठनीय हैं वरन मनन करने और चिंताकरते हुये राष्ट्र के लिये किंचित कुछ करने को प्रेरित करते हुये लेख पुस्तक में हैं. लेखक डा उमेश कुमार सिंग ने इतिहास, कविता, आलोचना, संपादन में निरंतर बड़े काम किये हैं उन्हें कई सम्मान और जिम्मेदारियां मिली जिनका उन्होने सफल निर्वाह किया है. ऐसे साहित्यिक समर्पित मनीषी के चिंतन का लाभ पाठको को इस कृति के माध्यम से मिलना तय है.

 

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’, भोपाल

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.com

apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ संदूक – प्रथम भाग ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में अगला संस्मरण – संदूक – प्रथम भाग.)

☆ संस्मरण ☆ संदूक – प्रथम भाग ☆ श्री राकेश कुमार ☆

(यादों के झरोखे से)

एक सैनिक की पहचान बंदूक और संदूक हुआ करती थी। समय के फेर में संदूक अब सूटकेस कहलाने लगा हैं।

एक जमाने में रईसी का पैमाना भी संदूक हुआ करते थे। फलां के घर में तो इतने सारे संदूक हैं, आदि। मध्य श्रेणी के घरों में बड़े करीने से संदूक सज़ा कर नाप के अनुसार कपड़े से ढककर बड़े आदर से रखे जाते थे। कुछ क्षेत्रों में इसको ट्रंक, बक्सा के नाम से जाना जाता हैं।

समय की करवट में एरिस्ट्रोक्रेट, वीआईपी, इत्यादि वज़न में हल्के अटैची या सूटकेसों ने ले ली। इनके प्रचलन में गिरावट आ जाने से रफूगर प्रजाति भी अंतिम सांसे गिन रही हैं। इन बक्सों के कारण कपड़ों में एल आकार का चीरा लग जाता था, जिसको रफुगर बड़ी बारीकी से दुरुस्त कर दिया करते थे।

बैंक में भी रौकड़ को एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाने के लिए लोहे के बक्से का उपयोग भी अब समाप्ति की कगार पर हैं। सुविधाजनक चार पहिया वाले सूटकेस जो उपलब्ध हो जातें हैं। रेलवे स्टेशन/बस अड्डे इत्यादि में कुली के कार्य करने वाले भी इनका प्रचलन बंद हो जाने के कारण, दूसरे रोजगार के साधनों में अपनी जीवनचर्या व्यतीत कर रहे हैं।

बचपन के ग्रीष्म अवकाश में जब ननिहाल से घर वापसी के समय, ढेर सारी वस्तुएं भेंट में मिलने के बाद ट्रंक बंद नहीं होता था तो उस के ढक्कन को बंद करके उस पर बैठ कर ही उसे बंद किया जाता था। हालांकि हमारी उम्र के लोग आज भी वीआईपी सूटकेस को भी ऊपर से बैठकर बंद करने की वकालत करते हैं। साधन और समय बदल रहा हैं, लेकिन हम नहीं बदलेंगे।

क्रमशः …

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य#113 – लघुकथा – * गंगाजल * ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है एक सार्थक लघुकथा “ *गंगाजल*”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 113 ☆

? लघु कथा ? *गंगाजल*? ?

पहली बार गंगा स्नान के लिए गोमती गांव से इलाहाबाद जा रही थीं। बरसों की भावना और मन में उत्साह बहुत था। स्टेशन से गंगा तट की दूरी बहुत ज्यादा हैं। इसलिए एक आटो वाले के साथ अन्य लोगों के साथ अपने नाती को लेकर बैठ गई।

स्नान पूजन के बाद गंगा जल बाॅटल में भर बड़े जतन और श्रद्धा से गोद में लेकर उसी आटो से वापस स्टेशन आने  लगी।

अत्यधिक भीड़ और धूप की वजह से रास्ते में आटो चालक जो शुगर पेशेंट था। अचानक उसे चक्कर सा आने लगा। उसने तुंरत आटो रोकने की कोशिश की और गिर पड़ा।

बाकी सभी बैठे यात्री अपनी अपनी गंगा जल की बाॅटल और सामान ले उतर कर भागने लगे। गोमती ने जल्द ही गंगा जल की बाॅटल खोल मुंह पर छींटा मारा और जल पिलाया।साथ में रखे खाने का सामान भी दिया।

सभी कहने लगे  कितनी मेहनत से तुम गंगा जल ले जा रही थीं और इस आटो वाले को पिला कर जूठा कर लिया। नाती भी डांटने लगा इतना खर्च किएऔर आपने गंगा जल यूं ही खराब कर दिया।

आटो चालक चंगा हो चलाने की स्थिति में आ गया। बाकी महिलाओं ने कहा अब तुम पूजन के लिए क्या ले जाओगी।

गोमती मंद मंद मुस्कान के साथ बोली मेरी पूजा तो  जन्मों जन्मों के लिए हो गई।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 12 (76-80)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #12 (76-80) ॥ ☆

सर्गः-12

 

किया गरूड़ ने लखन को नागपाश से मुक्त।

पर क्षण संकट दे गया मेघनाथ से युद्ध।।76।।

 

तब पौलस्त्य ने शक्ति का लखन पै किया प्रयोग।

किन्तु राम के हृदय पै व्यापी गहरी चोट।।77।।

 

लाये तब संजीवनी महाबली हनुमान।

जिसने फिर जीवन दिया बचा लखन के प्राण।।78अ।।

                

लक्ष्मण ने उठ फिर किया भीषण युद्ध प्रगाढ़।

डर लंका की नारियाँ रोई आँसू ढार।।78ब।।

 

शरद आ करता मेघ औ इंद्रधनुष का नाश।

त्यों रावण-सुत ‘मेध’ का धनुसंग किया विनाश।। 79।।

 

कुंभकरण सुग्रीव से हो विरूप अँग-भंग।

मनःशिला सम रक्त मय भिड़ा राम के संग।।80।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कोणते मी गीत गावे… ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ कोणते मी गीत गावे … ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील ☆ 

मोकळ्या केसात सखये चांदणे माळून यावे

आणखी स्वप्नात माझ्या तू मला भेटून जावे

 

वाजणा-या पावलांच्या चाहुलीने जाग यावी

स्वागतासाठी तुझ्या मी दीप सारे पेटवावे

 

थांबुनी दारात थोडी घाल ना मज साद वेडे

तू मला दिसताक्षणी मी मोग-याचे फूल व्हावे

 

या धरेच्या हिरवळीची पाखरांना भूल पडली

खेळ मांडाया निघाले मोकळ्या रानात रावे

 

बंधने तोडून सारी ये मला भेटायला तू

कोरुया मग काळजावर फक्त दोघांचीच नावे

 

काय मागावे जगाला हेच आहे एक कोडे

जिंदगीच्या दोन घटका भोगुनी येथे मरावे

 

आठवांच्या रागदारी संगीताचा मी भुकेला

प्रश्र्न पडतो या मनाला कोणते मी गीत गावे

 

 © श्री तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 125 ☆ सुगंधाचा लळा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 125 ?

☆ सुगंधाचा लळा ☆

भेटल्यावर भेटायचे ना कडकडून

घेतलेही असते तुला मी सावरून

 

मीच वेड्यासारखी का वागते इथे

शिशिरात ही येते अशी मी मोहरून

 

कंठ फुटला पंख फुटले कोकिळ गातो

मोहराचा गंध येतो झाडावरून

 

तृप्त तृष्णा ढेकळाची नाही झाली

मेघ गेला फसवून हा दारावरून

 

एकांताच्या वाटेवर दोघे आपण

जायला पाहिजे होते काही घडून

 

लागो सुगंधाचा लळा तुला असा की

घेऊन जावीत सुमने माझ्याकडून

 

एक काटा काय इतका टोचला तुला

आलाच नाही तू पुन्हा मागे फिरून

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

ashokbhambure123@gmail.com

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ मनातील अडगळीची खोली… ☆ सौ. श्रेया सुनील दिवेकर ☆

?  विविधा ?

☆ मनातील अडगळीची खोली… ☆ सौ. श्रेया सुनील दिवेकर ☆ 

मनातली अडगळीची खोली काय डोकावले आहे का कधी ह्या खोलीत… ?

प्रश्न जरा विचित्र वाटतो खरा, पण बघा जरा विचार करून शेवटचं कधी डोकावलं होत ते.

आपण आपल्या घरातल्या अडगळीच्या खोलीत अधून मधून डोकावत असतो. नेहमी नाही पण महिन्यातून एकदा तरी नक्की डोकावतो. एखादी वस्तू जी क्वचित लागते ती तिथे ठेवलेली असते ती आणायच्या कारणाने तरी, आणि नाहीच तर साठलेले धुळीचे थर झटकून खोली स्वच्छ करण्याच्या हेतूने तरी.

सगळं सामान, अर्थात बरचस नको असलेलं झटकून स्वच्छ पुसून नीट लावून ठेवतो. उगीचच सगळ्या वस्तूं वरुन हात फिरवतो, काही खास गोष्टींवर घातलेले कव्हर बाजूला सारून ते झटकून परत घालतो.

काय काय सापडत म्हणून सांगू. आरामखुर्ची, पेंड्युलमचे घड्याळ, कधी काळी शिवणकाम शिकलो आहे ह्याचा शिक्का मोरतब करणारे मशीन,एफेम रेडियो, पिढ्यानपिढ्या चालत आलेला पाळणा, तीनचाकी सायकल जी आता कोणीही चालविणार नाही, पाटावरवंटा ज्यावर चटणी वाटण्यासाठी आपल्याकडे शक्तीही नाही, रॉकेल वरचे कंदील आता रॉकेल न का मिळेना, स्टोव्ह जो पेटवता सुद्धा येत नाही अशा एक ना अनेक वस्तू असतात.

परवा मी पण सहज माझ्या अडगळीच्या खोलीत गेले होते. तिथे धूळ झटकून खोली आवरताना एक खुर्ची सापडली ती पाहून मला माझ्या माळी काकांची आठवण झाली. परवाच ते मला विचारत होते, ताई एखादी खुर्ची असेल तर द्याल का? त्यांचे वडील आले होते गावाकडून आणि त्यांना खाली बसता येत नव्हतं. पटकन ती खुर्ची काढली झटकली आणि देण्यासाठी सज्ज केली. तेव्हाच ठरवलं अश्या वस्तू ज्या आपल्याला नको आहेत त्या आता ठेवायच्या नाहीत. ज्या चांगल्या आहेत त्या देऊन टाकायच्या. खराब झालेल्या टाकून द्यायच्या नाहीत तर भंगारात द्यायच्या.

हा विचार करत असतानाच मला असं वाटलं.. की माणूस नुसते अडगळीच्या खोलीतच अडगळ ठेवत नाही तर त्यापेक्षाही जास्त अडगळ मनात ठेवतो. ती साठवतो आणि त्याला खतपाणीही घालतो. त्या गाठोड्यात असतात अनेक गोष्टी जसे मान, अपमान,अपयश काही तुटलेली अपूर्ण राहिलेली स्वप्न, दुखावलेली दुरावलेली नाती, आपल्या मित्र मैत्रिणीशी झालेले भांडण, ते कोण मिटवणार म्हणून मनात असलेली अढी, अश्या एक ना अनेक गोष्टी. एका वर एक थर चढतच जातात, आणि नकळत त्याची अडगळीच्या खोली पेक्षाही जास्त मोठी खोली मनांत तयार होते.

तेव्हा ठरवलं घरात नको असलेल्या वस्तूंची खोलीच ठेवायची नाही. नको असलेल्या वस्तू ठेवायच्याच नाहीत, ना घरात आणि ना मनात. नको असलेल्या वस्तू देऊन मोकळं व्हायचं. सगळया गोष्टींचा कसा रोखठोक हिशोब ठेवायचा. एखाद्याची एखादी गोष्ट आवडली नाही तर तिथल्या तिथे सांगून मोकळे व्हायचे. त्याचे व्याजावर व्याज चढवायचे नाही मनांत. एखादी गोष्ट मनाविरुद्ध झाली म्हणून कुढत बसायचे नाही, धुळी सारखी झटकायची आणि पुढे जात रहायचे. अपयशाला गोंजारत बसायचे नाही तर त्याला यशाची पहिली पायरी समजून यश मिळे पर्यंत प्रयत्न करत रहायचे.

आज ह्या गोष्टी तुमच्या समोर मांडायच कारण आपण सगळेच जणं मनात खूप काही साठवून ठेवतो भूतकाळाला जास्त महत्त्व देऊन वर्तमान हरवून बसतो. तस नकरता वर्तमानात जगूया ह्या क्षणाचा आनंद घेऊया.

बघा आठवून तुम्ही शेवटचे कधी डोकावले होते मनातल्या खोलीत??

आज नक्की डोकावा नको असलेल्या साचलेल्या विचारांना काढून टाका, काही गैरसमज झाले असतिल तर त्या व्यक्तीशी बोलून दूर करा. कुढत बसू नका आणि सगळ्यात महत्वाचे विचार साठवून ठेवूच नका कोणापाशी तरी बोलून मन मोकळं करा. साठलेली धूळ आपोआपच निघून जाईल,एक स्वच्छंद, निरोगी मनाचे आयुष्य जगता येईल.

खुश रहा आनंदी जगा. ?

©  सौ. श्रेया सुनील दिवेकर

मो 9423566278

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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