हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 96 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 7 – जो जैसी करनी करें … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 96 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 7 – जो जैसी करनी करें … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

जो जैसी करनी करें, सो तैसों फल पाय।

बेटी पौंची राजघर, बाबैं बँदरा खाय॥

शाब्दिक अर्थ :- बुरे काम करने का फल  भी बुरा ही मिलता है। बुरे सोच के साथ किसी अच्छी वस्तु की प्राप्ति नहीं हो सकती है। ऐसी ही एक सुकन्या से विवाह की इच्छा रखने वाले बुरे विचार के साधू (बाबैं) को बंदरों (बँदरा) ने काट खाया और सुकन्या का विवाह साधू की जगह राजकुमार से हो गया।

इस बुन्देली कहावत के पीछे जो कहानी है वह बड़ी मजेदार है, आन्नद लीजिए। सुनार नदी के किनारे बसे रमपुरवा गाँव में एक बड़ा पुराना शिवालय था। गाँव के लोगों की मंदिर में विराजे भगवान शिव पर अपार श्रद्धा थी। गामवासी प्रतिदिन सुबह सबेरे नदी में स्नान करते और फिर भोले शंकर को जल ढारकर अपने अपने काम से लग जाते। एक दिन एक साधू कहीं से घूमता घामता गाँव में आया और उसने मंदिर में डेरा डाल दिया। मंदिर की और शिव प्रतिमा की साफ सफाई के बाद वह भजन गाने लगा। गाँव वालों को अक्सर भजन गाता,मंजीरा बजाता  यह सीधा साधा साधू बहुत पुसाया और वे उसे प्रतिदिन कुछ कुछ न कुछ भोजनादी सामग्री भेंट में देने लगे। इस प्रकार साधू ने मंदिर के पास एक कुटिया बना ली और वहीं रम गया। गाँव के लोग अक्सर साधू से अपनी समस्या पूंछते, बैल गाय घुम जाने अथवा अन्य परेशानियों का उपाय पूंछते और साधू उसका समाधान बताता। गाँव की महिलाएँ और कन्याएँ भी कहाँ पीछे रहती वे भी अपने दांपत्य सुख को लेकर या विवाह के बारे में साधू से पूंछती  और साधू उन्हे उनके मनवांछित जबाब दे  देता। इस प्रकार साधू की कीर्ति आसपास के अनेक गाँवों में फैल गयी।  रमपुरवा गाँव से कोई पांचेक मील दूर सुनार नदी किनारे एक और गाँव था बरखेड़ा। इस गाँव में एक विधवा ब्राम्हणी, अपनी सुंदर युवा पुत्री के साथ, रहती थी । पुत्री विवाह योग्य हो गई थी पर गरीबी के कारण उसका विवाह नहीं हो पा रहा था। जब विधवा ब्राम्हणी और कन्या ने ने इस साधू की ख्याति सुनी तो वे भी, रमपुरवा गाँव  के शिवालय साधू से मिल, विवाह  के बारे में जानने पहुँची। साधू उस सुंदर कन्या पर रीझ गया और उससे विवाह करने का इच्छुक हो गया किन्तु साधू होने के कारण वह ऐसा कर नहीं सकता था। अत: उसने विधवा ब्राम्हणी से कहा कि कन्या का भाग्य बहुत खराब है और इस पर सारे बुरे ग्रहों की कुदृष्टि है। इसके निवारण का उपाय करने वह स्वयं अमावस्या के दिन बरखेड़ा गाँव आयेगा। नियत तिथी को साधू विधवा ब्राम्हणी के घर पहुँचा और उसने उसकी छोटी सी झोपड़ी कों देख कर कहा इस जगह रहने से इस कन्या का विवाह जीवन भर न होगा अत: यह झोपड़ी  छोडनी पडेगी। विधवा ब्राम्हणी बिचारी पहले से ही गरीब थी नई झोपड़ी बनाने पैसा कहाँ से लाती इसलिए उसने साधू से कोई दूसरा उपाय बताने को कहा। साधू तो मौके कि तलाश में ही था उसने सलाह दी कि कन्या को एक पेटी में बंद कर नदी में बहा दो एकाध दिन बाद कन्या किनारे लग कर बरखेड़ा गाँव वापस आ जाएगी और इससे बुरे ग्रहों की कुदृष्टि का दोष दूर हो जाएगा और इसका विवाह किसी धनवान से हो जाएगा तथा ससुराल में कन्या राज करेगी। विधवा ब्राम्हणी कन्या का उज्ज्वल भविष्य की सोचकर इस योजना के लिए तैयार हो गई। अमावस्या की काली अंधेरी रात को साधू ने विधवा ब्राम्हणी के साथ मिलकर कन्या को एक बक्से में बंद कर नदी में डाल दिया और स्वयं अपनी कुटिया की ओर तेज गति  चल पड़ा। कुटिया में पहुँच कर वह कल्पना में डूब गया कि कुछ समय में वह बक्सा बहता हुआ आवेगा और फिर वह उसे यहाँ से बहाकर कहीं  दूर ले जाएगा और फिर उस सुंदर कन्या से विवाह कर अनंत सुख भोगेगा। इधर बक्सा बहते बहते नदी के दूसरे किनारे की तरफ चला गया।  कुछ दूर घने जंगल में एक राजकुमार शिकार खेल रहा था उसने इस बहते बक्से को देखा और उसे अपने सिपाहियों की मदद से बाहर निकलवाकर उत्सुकतावश खोला। जैसे ही उसने बक्सा खोला तो उसमे से वह सुंदर कन्या निकली। कन्या ने राजकुमार को अपनी आप बीती और साधू के कुटिल चाल की बात सुनाई। राजकुमार ने उसकी दुखभरी कहानी सुनकर उससे विवाह करने की इच्छा दर्शायी और अपने साथ राजमहल चलने को कहा। कन्या राजकुमार की बातों से सहमत हो गई। तब राजकुमार ने जंगल से एक दो खूंखार बंदरों को पकड़ उन्हे बक्से में बंद कर पुनः नदी में छोड़ दिया। यह बक्सा बहता बहता साधू की कुटिया के पास जैसे ही पहुँचा साधू ने बक्से को रोका और बड़ी कामना के साथ खोला। बक्सा खुलते ही दोनों बंदर बाहर निकल कर साधू पर झपट पड़े और उसे काट काटकर बुरी तरह घायल कर दिया। तभी से यह कहावत चल पड़ी है। इसी से मिलती जुलती एक और कहावत है :-

करैं बुराई सुख चहै, कैसें पाबैं कोय। 

बोबैं बीज बबूर कौ, आम कहाँ से होय॥

यह तो सनातन परम्परा चली आ रही है। जो जैसा भी कार्य करता है उसे वैसा ही फल मिलता है। बुरे काम करने का नतीजा भी बुरा ही होता है। बुराई  के काम करने के बाद  यदि  कोई सुख चाहता है तो उसे सुखी जीवन जीने कैसे मिल सकता है। बबूल (बबूर) का बीज बोने से आम का पेड़ नहीं उग सकता।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी #19 – परम संतोषी भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)     

☆ कथा – कहानी # 19 – परम संतोषी भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

शाखा के निरीक्षण के प्रारंभ होने के साथ साथ ये कहानी जब आगे बढ़ती है तो संतोषी जी की पद्मश्री प्रतिभा, इंस्पेक्शन प्रारंभ होने के अगले दिन से ही सामने आना प्रारंभ हो जाती है. यहां पर अवश्य ही कुछ पाठक, इंस्पेक्शन अधिकारियों की खातिरदारी के नाम पर मदिरापान, निरामिष महाभोज और दूसरी तरह तरह की कल्पनाओं के सागर में गोते लगाने लगे होंगे पर इन सब प्रचलित परंपरागत स्वागत से कहीं अलग संतोषी जी की प्रक्रिया थी. इसके लिये आपको, उनकी निज़ता का सम्मान करते हुये, उनके परिवार के बारे में सूचना देना आवश्यक है. संतोषी साहब को देशी उपचार का ज्ञान अपने दादाजी और दादीजी के माध्यम से मिला था. तबियत की सामान्य नासाजी, अनमनापन, सर्दी जुकाम, सामान्य ज्वर और अपच, पेट साफ नहीं होना याने इनडाइजेशन के लिये उनके पैतृक परिवार में और उनके साथ चल रहे न्यूक्लिक परिवार में भी, कभी भी डॉक्टर की सेवाएं नहीं ली जाती थीं. इसका अनुभव हमेशा संतोषी जी को परिवार के बाहर, बैंक की दुनियां में भी काम आता था. दूसरी बात यह कि वे तीन विदुषी और पाक कला में दक्ष पुत्रियों के लाडले पिता थे. पुत्रों कों पुत्ररत्न की उपाधि से सम्मानित करने की हमारी परंपरा, बेटियों के लिये किसी विशेषण का उपयोग नहीं करती पर ये वास्तविकता है कि बेटियाँ रत्न नहीं घरों की रौनक हुआ करती हैं और ये वही समझ पाते हैं जो बेटियों के पिता बनने का सौभाग्य पाते हैं. तो संतोषी जी की तीनों बेटियों की पाक कला में पूरे भारत के दर्शन हुआ करते थे. सुस्वादु और तड़केदार पंजाबी डिशों से लेकर सेहत और स्वाद दोनों की परवाह करती दक्षिण भारतीय डिशों से अक्सर उनका घर महका करता था. स्वादिष्ट भोजन की खुशबू , लोगों को हमेशा से ही चुंबक की तरह अपनी ओर खींचती आई है और यह भी एक तरह की धनात्मक ऊर्जा का स्त्रोत होती है. भोजन की पाकशाला में एक मेन्यू बहुत स्ट्रिक्टली प्रतिबंधित था और वह था नॉन वेजेटेरियन फुड. पूरे संतोषी परिवार का पूरे दृढता से ये मानना था कि जब शाकाहार में ही इतनी विविधता और स्वाद है तो किसी निर्बल का सहारा अपने स्वाद के लिये क्यों लिया जाय।

निरीक्षण में आये सहायक महाप्रबंधक दक्षिण भारतीय थे और एसी टू में यात्रा करने के बावजूद पर्याप्त नींद न लेने के कारण परेशान थे. उत्तर भारत की शीत ऋतु भी उन्हेँ रास नहीं आ रही थी. इन विषमताओं से उन्हें, सरदर्द, जुकाम और इनडाइजेशन तीनों की शिकायत हो गई थी. निरीक्षण में उनके साथ आये मुख्य प्रबंधक शुद्ध पंजाबी संस्कृति में पके पकवान थे. तो इडली सांभर और छोले भटूरे का तालमेल नहीं बैठ पाता था. पर निरीक्षण का काम नियमानुसार बंटा हुआ था और बैठने की जगह भी उस हिसाब से भूतल और प्रथम तल में अलग अलग थी तो आमना सामना सुबह की गुडमार्निंग के बाद यदाकदा ही होता था.

संतोषी साहब ने निरीक्षण करने आये सहायक महाप्रबंधक महोदय की अस्वस्थता, उड़ती चिडिया के पर  गिनने की दक्षता के साथ समझ लिया था और उनके अविश्वास और ना नुकर के बावजूद अपने देशी इलाज से उनकी सारी परेशानी उड़न छू कर दी. स्वस्थ्य होना हर प्रवासी की ज़रूरत होती है जिसे पाकर सहायक महाप्रबंधक, संतोषी जी के अनुरागी बन गये. उसके बाद अगला कदम उनके लिये नियमित रूप से घर के बने दक्षिण भारतीय, शाकाहारी भोजन की व्यवस्था थी जो सिर्फ उनके लिये की जाती गई. निरीक्षण अधिकारी, संतोषी साहब के इस व्यवहार से परम संतुष्ट हो गये और संतोषी जी को बजाए ब्रांच के अपनी निरीक्षण टीम का हिस्सा मानने का सम्मान दिया. जब उन्होंने शाखा के मुख्य प्रबंधक महोदय से संतोषी जी के आतिथ्य की मुक्त कंठ से सराहना की तो मुख्य प्रबंधक भी बोल उठे कि सर,संतोषी साहब को हमने आप लोगों के लिये ही रिजर्व कर दिया है और जब भी आपको उनकी सहायता या सानिध्य की आवश्यकता पड़े,आप निस्संकोच मुझे निर्देश दें या आप उन्हें भी डायरेक्ट बुला सकते हैं.

“ड्राइफ्रूट्स”  बैंक सहित अन्य कार्यालयों का वह अघोषित खर्च होता है जो विशिष्ट अधिकारियों के आगमन पर किया जाता है. ये ऐसा अवसर भी होता है,जब इस बहाने ड्राई फ्रुट्स के स्वाद से बाकी लोग भी परिचित होते हैं. शाम की चाय इनके बिना “हाई टी” का तमगा नहीं पा सकती. इसका एक अघोषित नियम यह भी है जब मेजबान और मेहमान साथ बैठकर हाई टी का आनंद ले रहे हों तो भुने हुये काजू प्लेट से उठाने का अनुपात 1:4 होना चाहिए याने मेजबान एक : मेहमान चार.

इंस्पेक्शन तो अभी चलेगा और परम संतोषी कथा भी. इंस्पेक्शन फेस करने का पहला मूलमंत्र यही है कि कंजूसी मत करो क्योंकि आपकी जेब से नहीं जा रहा है.

यही मूलमंत्र कथा का अच्छा पाठक होने का भी है कि ताली ज़रूर बजाइये वरना आपको मूर्ति याने बुत समझा जा सकता है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 12 (81-85)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #12 (81-85) ॥ ☆

सर्गः-12

सोने का आदी था जो सोता था दिनरात।

उसे सुलाया राम ने अवश मृत्यु के साथ।।81।।

 

कोटि राक्षस जा गिरे वानर सेना बीच।

जैसे रण की धूल गिर बने रक्त मिल कीच।।82।।

 

तब रावण संकल्प ले विजय या कि फिर मृत्यु।

निकला करने राम से घर से अन्तिम युद्ध।।83।।

 

देख राम को विरथ औ रावण रथ-आरूढ़।

इन्द्र ने भेजा राम हित श्वेत अश्वरथः गूढ।।84।।

 

मातलि जिसका सारथी उस रथ बैठे राम।

नभ-गंगा की वायु से उड़ती ध्वजा ललाम।।85।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १६ फेब्रुवारी – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? १६ फेब्रुवारी –  संपादकीय  ? 

म श्री .दीक्षित यांचा जन्म १६ मे १९३४चा. ते मराठी साहित्य परिषदेचे कार्यकर्ते होते. ते इतिहासाचे लेखक होते. संपादक होते. त्यांना पुण्याचा चलता- बोलता इतिहास म्हणत.

श्री. म. माटे यांच्याकडे त्यांनी लेखनिक म्हणून काम केलं. त्यानंतर त्यांनी परिषदेच्या कामात सहभाग घेतला.  म.सा.प. चा १०५ वर्षांचा इतिहास लिहून त्यांनी प्रसिद्ध केला.

 म श्री .दीक्षित यांनी ६० वर्षे वृत्तपत्रातून, विविध नियतकालिकातून विविध प्रकारचे प्रासंगिक, ऐतिहासिक व चरित्रात्मक लेखन केले. अनेक स्मरणिकांचे संपादन केले. शंभरावर पुस्तकांचे परीक्षण केले. त्यांनी आत्मचरित्रही लिहिले.

अहिल्याबाई होळकर, आनंदीबाई पेशवे, बाबासाहेब आंबेडकर, शिवरायांची आई जिजाई , वीररमणी झाशीची राणी, तात्या टोपे, नेपोलियन, विठ्ठल रामजी शिंदे. अनेक चरित्र त्यांनी लिहिली. कौरव पांडव ( कथा) , मुळा-मुठेच्या तीरावरून (व्यक्तिचित्रे) इ. त्यांची विपुल साहित्य संपदा आहे. आज त्यांचा स्मृतीदिन. ( १६ फेब्रुवारी २०१४) .त्यांच्या या विपुल साहित्य संपदेला विनम्र आदरांजली.

☆☆☆☆☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई – अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : शिक्षण मंडळ कर्‍हाड: शताब्दी दैनंदिनी, विकिपीडिया, इंटरनेट    

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ फरक… ☆ श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे ☆

श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ फरक…. ☆ श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे ☆

बोलण्यास्तव गोड त्यांनी तिळगुळ वाटला

सहज जगण्यात अमुच्या गोडवा

नकळत दाटला

 

अपेक्षेने स्वार्थ सिद्धी च्या त्यांनी उपवास  ही धरीयला

उपाशी नको पोरे म्हणुनी माऊलीने तो सहज घडविला

 

दिसण्या सुंदर त्यांनी घाम ही गाळला

तडजोडीत जीवनाच्या आम्ही

नकळत तो ढाळला

 

शेकण्यास्ताव हात त्यांनी  होळ्या भडकविल्या

आम्ही कवडश्याच्या प्रकाशाने

मशाली पेटविल्या

 

मिरविण्या स्व त्यांनी किती भूमिका वठवील्या

जगता जगता सहजतेने आम्ही

माणूसच घडविला

 

© श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

चंद्रपूर,  मो. 9822363911

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 120 ☆ वृत्त – मेनका ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 120 ?

☆ वृत्त – मेनका ☆

 मी अशी का गोंधळाया लागले

बोल माझे अडखळाया लागले

 

वाट माझी वेगळी होती तरी

का बरे इकडे वळाया लागले

 

मेनका मोठी अनोखी अप्सरा

कन्यकेला आकळाया लागले

 

तू तिथे आहेस एकाकी जरी

चंद्र तारेही जळाया लागले

 

लावल्या पैजा जरी त्यांनी किती

मोल त्याचेही ढळाया लागले

 

वेगळी आहे कहाणी आपली

शेवटी आता कळाया लागले

 

ठेव तू बांधून पाण्याला तिथे

डोह आता खळखळाया लागले

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- sonawane.prabha@gmail.com
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ भरताचे नाट्यशास्त्र ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

?विविधा ?

☆ भरताचे नाट्यशास्त्र ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

भरतमुनीनी लिहिलेला ‘नाट्यशास्र’ हा सर्वात प्राचीन ग्रंथ मानला जातो.आज माघी पौर्णिमा.भरतमुनी जयंती ! या निमित्ताने त्यांच्या या ग्रंथाची ओझरती ओळख करुन देण्याचा हा प्रयत्न.जेणेकरुन जिज्ञासू रसिकांना या ग्रंथांवर अनेक अभ्यासकांनी लिहिलेल्या संशोधनात्मक ग्रंथसंपदेच्या माध्यमातून हा ग्रंथ समजून घेण्याबाबत उत्सुकता वाटावी.

या ग्रंथाचे लेखन भरतमुनींनी नेमके कधी केले हे ज्ञात नसले तरी त्यांचा कार्यकाल ख्रिस्तपूर्व चौथ्या किंवा पाचव्या शतकातला मानला जातो. याचाच अर्थ इसवीसनपूर्व काळापासून भारतवर्षात नाट्य,नृत्य,गायनादी कला प्रगतिशील स्तरावर पोचलेल्या होत्या हेच सिद्ध होते.

‘भरताचे नाट्यशास्त्र’ या ग्रंथात नाट्य,अभिनय याशिवाय नृत्य,गायन आदी पूरक कलांचे रंगमंचावरील सादरीकरणाचे शास्त्र व व्याकरणही सविस्तर समजून सांगितलेले आहे.या ग्रंथाची प्रत्यक्ष नाट्यप्रयोगासाठीची उपयोगिता तसेच या ग्रंथाची व्याप्तीही समजावी या हेतूने प्रातिनिधिक स्वरूपात त्यातील ‘अभिनय’ या अंगाचा इथे सविस्तर उहापोह करीत आहे.

या ग्रंथामधे ३६ अध्याय असून त्यातील आठव्या अध्यायात भरताने अभिनयाच्या चार प्रकारांची वैशिष्ट्ये विशद केलेली आहेत.हे चार प्रकार खालीलप्रमाणे-

१) आंगिक २) वाचिक ३)आहार्य व ४) सात्त्विक अभिनय.

आंगिक अभिनय – हा शरीराच्या माध्यमातून केलेला अभिनय. भरताने या ग्रंथात नाट्यधर्मीशैलीचा विचार करताना विविध अंग-उपांगांच्या हालचाली व मुद्रायुक्त रितीबद्ध हावभाव यांची सविस्तर ओळख करून दिलेली आहे.नाट्यधर्मीशैलीनुसार  हात,पाय,कंबर,छाती, मस्तक यासारख्या मुख्य अंगांच्या आणि बोटे,डोळे,नाक,गाल यासारख्या उपांगांच्या काही निश्चित आणि प्रतीकात्मक रितीबध्द चेष्टांची एक विशिष्ठ भाषाच तयार केली होती व  गद्यपद्यात्मक संवादातील व पात्रांच्या कृतीतील नेमका आशय  याच मर्यादित चेष्टांद्वारेच व्यक्त केला जायचा.

आंगिक अभिनयाचे मुखज,शरीर व चेष्टाकृत हे तीन प्रकार. यातील ‘मुखज’ म्हणजे चेहऱ्यावरील भुवया,पापण्या, डोळे, नाक, गाल, ओठ इत्यादी विविध उपांगांद्वारे केलेला अभिनय. ‘शरीर’ अभिनय म्हणजे खांदे,मान, हात, पाय यासारख्या मुख्यअंगाद्वारे केलेला अभिनय. आणि ‘चेष्टाकृत’ म्हणजे शरीर अवयवांच्या विविध हालचालींद्वारे केलेला अभिनय.

याशिवाय कोणती भूमिका साकारताना नटाने कसे चालावे, उठावे, बसावे इत्यादीबाबतचे नियमही नाट्यशास्त्रात सांगितले आहेत.उदा.- वृद्ध पात्र, तरुण पात्र, मध्यमवयीन,अपंग, दमून आलेले, दुःखी, आनंदाने भारलेले, अशा विविध पात्रांच्या मनोवस्था आणि स्थितीनुसार त्यांचे चालणे, उठणे, बसणे, यातील नेमके आणि सूक्ष्म फरक अभिनयाद्वारे दाखवणे अपेक्षित असते. तसेच वेड्या माणसाचा अभिनय करताना त्याचे अस्ताव्यस्त केस, कपडे याबरोबरच त्याचे डोळे, भुवया इत्यादीद्वारे होणारा मुखज अभिनय किंवा भरभर चालता चालता मधेच थबकणे,धपकन् बसणे, संतापणे, मधेच हसणे, यासारखे शरीर व चेष्टाकृत अभिनय याद्वारे त्याचे वेगळेपण अधोरेखित होणे अपेक्षित आहे.

आंगिक अभिनयाचं नेमकं सार भरतमुनींच्याच शब्दात सांगायचे झाले तर ते असे सांगता येईल.-‘ निरनिराळ्या वासाची फुले एकत्र करून माळी जशी फुलांची एक माळ तयार करतो त्याचप्रमाणे नटाने भिन्न भिन्न भावदर्शक अंगोपांगांची रचना करून त्याची सरस, सुंदर, सहज, स्वाभाविक आणि मनोहर दिसेल अशी भावमाला गुंफावी आणि ती प्रेक्षकांना प्रदान करुन आनंदित करावे.’

वाचिक अभिनय-नाटकातील गद्य पद्यात्मक संवाद, गद्य व संगीताद्वारे वाचेचा उपयोग करून प्रस्तुत करणे यास भरताने ‘वाचिक अभिनय’ असे संबोधले आहे. लेखकाच्या प्रत्येक शब्दातील व शब्दांमागील अर्थ जाणीवपूर्वक जपला पाहिजे यासाठी भरतमुनींनी शब्दांच्या खालील चार शक्ती सांगितलेल्या आहेत.

१) अभिदा शक्ती- शब्दांचा  साहित्यिक अर्थ स्पष्ट करणारी शक्ती.

२) लक्षणा शक्ती- शब्दात लपलेला अर्थ प्रकट करणारी.

३) व्यंजना शक्ती- शब्दांमधील सांकेतिक अर्थ प्रकट करणारी.      ४)तात्पर्य शक्ती- शब्दाचा हेतू प्रकट करणारी.

नटाच्या वाचिक अभिनयातून म्हणजेच संवादांमधील शब्दोच्चारातून या चार शक्तींचा प्रत्यय येणे आवश्यक आहे.

अशा या वाचिक अभिनयाच्या पायावरच आंगिक, आहार्य आणि सात्त्विक अभिनय तोललेले आहेत. याचाच अर्थ अभिनयाच्या या इतर सर्व प्रकारांचा डोलारा वाचिक अभिनयाच्या पायावरच उभा असतो.                           आहार्य अभिनय नाटकातील पात्रे रंगमंचावर सादर करणाऱ्या  नटांना पात्रांचे रूप देणे व अभिनयासाठी आवश्यक वातावरण निर्माण करणे हे काम रंगतंत्राचे असते. तसेच दृश्यबंध

व अन्य मंचवस्तू नाटकातील अभिनयासाठी योग्य वातावरण निर्माण करतात. प्रकाश व ध्वनी संयोजनाद्वारे त्या वातावरणाला पूर्ण रूप प्राप्त होते. वेशभूषा व रंगभूषा नटाला पात्ररुप देतात. तथापि या कृत्रिम साधनांनी निर्माण केलेले वातावरण कृत्रिम नसून अस्सलच आहे असा आभास अभिनयाद्वारे निर्माण करणे ही नटाची जबाबदारी असते. अभिनयाच्या या अंगास  ‘आहार्य अभिनय ‘ असे म्हटले जाते.

सात्विक अभिनय पात्राच्या सत्त्वाशी संबंधित असलेल्या मानसिक प्रक्रिया आंगिक व वाचिक व आहार्य अभिनयाच्या माध्यमातून व्यक्त करणे यास भरताने ‘सात्त्विक अभिनय’ ही संज्ञा दिली आहे.उदा.- कंठ दाटून येणे,डोळ्यात अश्रू येणे,स्तंभित होणे,रोमांचित होणे,शरीराला कंप सुटणे,इत्यादी.या सर्व प्रतिक्रिया नटाच्या अंतर्मनातून निर्माण होत असल्याचा आभास निर्माण करणाऱ्या अभिनयास ‘सात्त्विक अभिनय’ असे म्हटले जाते.

भरताच्या नाट्यशास्त्रातील अभिनय या संकल्पनेचा हा ओझरता परिचय !

नाट्यशास्त्र या ग्रंथात भरतमुनीनी नाट्यास पूरक अशा नृत्यसंगितादी कलांचे शास्रही विदित केलेले आहे. दक्षिण भारतातील मंदिरांमध्ये उगम झालेली ‘भरतनाट्यम्’ नृत्यशैली भरतमुनींच्या नाट्यशास्त्रावरच आधारित आहे. भरतनाट्यम् नृत्याचे  सादरीकरण कर्नाटकी संगीताच्या साथीने होते. या नृत्य पद्धतीवर द्रविड संस्कृतीचा प्रभाव आहे. तंजावर बंधू म्हणून मान्यता पावलेल्या संगीतकारांनी या नृत्याचा ‘मार्गम्’ रचला आणि त्याच क्रमाने आजही या नृत्याची प्रस्तुती करण्याची प्रथा आहे.

नाट्यनृत्यकलांचा भक्कम पाया असलेल्या ‘भरतमुनींचे नाट्यशास्त्र’ या ग्रंथाचे मोल म्हणूनच अमूल्य आहे.

भरतमुनी जयंती निमित्त त्यांचे हे लेखनरुपी स्मरण हीच त्यांना वाहिलेली माझी आदरांजली !???

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ गटुळं – भाग-1 ☆ श्री आनंदहरी ☆

श्री आनंदहरी

? जीवनरंग ❤️

☆ गटुळं – भाग-1 ☆ श्री आनंदहरी 

ग्रामीण एकांकिका :- गटुळं

लेखक :- आनंदहरी

पात्रे –

धुरपदा :-  सासू :- वय साधारण 65 ते70 च्या जवळपास काहीशी थकलेली

यशवदा :-  धुरपदाची समवयस्क शेजारीण

रंगा :-  धुरपदाचा मोठा मुलगा 40 च्या दरम्यान

भामा ;- रंगा ची बायको मोठी सून

यशवंता :- धुरपदा चा धाकटा मुलगा 35 च्या जवळपास

सारजा :-  यशवंतांची बायको..

सागर :-  स्वतःला पुढारी समजणारा गावातील एक रिकामटेकडा

(रंगाचे साधेच घर.. पुढे अंगण.. शेजारी गोठ्याचं छप्पर .. यशवंताचे घर.. रंगा रानात कामे करणारा.. यशवंता छोट्याशा कारखान्यात काम करणारा कामगार.  घरे साधीशीच .. फर्निचर असे फारसं काहीही नाहीच)

प्रवेश पहिला..

(विंगेतून धुरपदाला हाताला धरून ओढतच तिची सून बडबडतच तिला अंगणात  घेऊन येते…)

धुरपदा :-  (गयावया करीत) आगं ssआगं.. असं काय करतीयास गं..?

भामा :- (ठामपणे काहीसे निर्धाराने) आगुदर भायेर हुयाचं.. लय झालं. पार डूईवरनं पानी गेलं…

धुरपदा :-  आगं,  पर झालंय तरी काय ?

भामा :- आदी माज्या घरातनं भायेर हुयाचं.

धुरपदा :- (काहीसे आश्चर्याने,काहीसं चिडून) तुजं घर ? कवापासन घर तुज झालं गं ?     घर काय म्हायेरासनं घिऊन आलीवतीस व्हय गं ? लगी लागली माजं माजं कराय ? आगं , नवऱ्यासंगं रात-दिस राबून काडी काडी गोळा करून बांधलय म्या ती.. आन मलाच भाईर काडतीस व्हय गं ?  म्हणं, माज्या घरातनं भायेर हुयाचं..

भामा :- माज्या म्हायेराचं नाव काढायचं काम न्हाय .. सांगून ठयेवते… ही घर बगूनच माज्या बा नं दिलीया मला… पार फशीवलंसा तुमी, मला नं माज्या बा ला… माजा बा लई भोळा, फसला.. आन तालेवाराची  सोयरीक आल्याली सोडून हितं दिली मला…

धुरपदा :- व्हय गं व्हय… पार पालखीच घ्येवून आला आसंल न्हवं , एकांदा राजा तुज्यासाठनं ..  मग जायाची हुतीस… आमी काय मेणा न्हवता धाडला ? मेल्याली म्हस म्हणं आठ शेर दूध देत हुती ..उगा आपलं कायबी बोलायचं..

भामा :-  म्हस आठ शेरांची असूनदेल न्हायतर धा शेरांची…बास झालं तुमचं..आदी भायेर हुयाचं आन आजाबात घरात याचं न्हाय…न्हाय म्हंजी न्हायच..

धुरपदा :- (ती घरातून बाहेर काढणारच हे जाणवून गयावया करीत) आगं पर मला म्हातारीला कशापाय काडतीयास गं भाईर..? ऱ्हाऊदेल की ग  घरात मला.. म्या म्हातारीनं कुटं जायाचं गं..?

भामा :- त्ये मला कशापायी ईचारतायसा ?  … कुटं बी जावा पर माज्या घरात रहायचं न्हाय… आजपातूर लई झालं.. पर आता म्या कुणाचंच ऐकायची न्हाय..  भाईर म्हंजी भाईंरच..

धुरपदा :- (गयावया करत ) आगं..नगं गं आसं करुस….. ऐक माजं ? आगं, असं किस्तं दिस ऱ्हायल्यात माजं म्हातारीचं ?

(धुरपदाचं काहीही न ऐकून घेता तिला झिडकारून भामा आत जाते.. आतून वाकळ बाहेर टाकते आणि दार बंद करते ..  धुरपदा दुःखी कष्टी होऊन बाहेर तशीच बसली आहे… भामाने तिच्या जवळच वाकळ टाकली तशी ती बसूनच जरा वाकळेकडं सरकली काही क्षण तशीच बसून राहिली)

धुरपदा:- ( काहीसे आठवण होऊन  वाकळ उलटी सुलटी करून शोधत..) माजं गटूळं ss ? माजं गटूळं कुटं गेलं…?

(काहीसं आठवून तिरमिरीत उठते..[ विंगेजवळ जात ] भामाचे दार ठोठावत)

भामे ss ए भामे ss ! माजं गटूळं दे आदी… आदी माजं गटूळं दे.. ( पुन्हा दार ठोठावते ) सांगून ठयेवते …आदी माजं गटूळं दे..

(जरा बाजूला होत बडबडू लागते..)

मला भायेर काडतीया आन माजं गटूळं बी दिना झालीया …

तू ब्येस काडशील गं… पर माझा रंगा आला का पेकटात लाथ घालून तुलाच भायेर काडतुय का न्हाय त्ये बग….

भामा :- (विंगेतूनच – फक्त आवाज) माजं गटूळं ss माजं गटूळं ss ! म्हातारी पार जीव खाया लागलीय गटूळयासाठनं..  गवऱ्या मसनात गेल्या तरीबी गटूळं गटूळं कराय लागल्यात.. येवडं काय अस्तंय त्या गटूळ्यात कुणाला ठावं ?..ही घ्या तुमचं गटूळं..

(दार उघडून भामा गटूळं बाहेर फेकते .. धुरपदा झटकन पुढं होऊन गटूळं घेते)

धुरपदा:- (बंद दाराकडे [विंगेकडे] पहात, हातवारे करीत .. काहीसं स्वतःशीच बोलल्यासारखं पण भामाला उद्देशून)

व्हय बाई व्हय… माज्या गवऱ्या मसनात गेल्याती…समद्यांच्याच कवा ना कवा जात्यातीच… आता तुज्या  नसतील जायाच्या तर ऱ्हाउंदेल बाई.. तू ऱ्हा जित्तीच .. न्हायतरीं गवऱ्या मसनात धाडाय कुणीतरी पायजेलच …

मला घरातनं भायेर काढतीया.. वाईच कड काढ.. माजा रंगा आला म्हंजी कळंल ..कसं भायर काढायचं असतंय ती.. ( स्वगत) तवर आपलं सपरात जावं आन वाकाळ हातरुन पडावं …

 (धुरपदा वाकळ आणि गटूळं घेऊन छपरात/ गोठयात जाते… काहीवेळ अस्वस्थच.. उठून तिथंच  माठावर असणाऱ्या तांब्यातून पाणी पिते . अंगणात येते , बंद दाराकडं आशाळभूतपणे पाहते… चहाची तल्लफ आली असावी असा अविर्भाव ,….अंगणात फिरता फिरता…)

(स्वगत)

कवा दाराम्होरनं जाणारा कुणीबी च्या पेल्याबिगर गेला न्हाई आन आता दोन दोन सुना आसूनबी मला म्हातारीला च्या चा घोट बी मिळंना झालाय…

(आकाशाकडे बघून हात जोडते.. जीवाची घालमेल होतेय..हळू हळू चालत छपराकडे जात असतानाच प्रकाश कमी होत अंधार होतो)

अंधार

क्रमशः…

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक १८ भाग २ – झांबेझीवर झुलणारी झुंबरं ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १८ भाग २ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ झांबेझीवर झुलणारी झुंबरं  ✈️

झांबिया म्हणजे पूर्वीचा उत्तर ऱ्होडेशिया. या छोट्या देशाभोवती अंगोला, कांगो, टांझानिया, मालावी, मोझांबिक, झिम्बाब्वे ( पूर्वीचा दक्षिण ऱ्होडेशिया ) आणि नामिबिया अशी छोटी छोटी राष्ट्रे आहेत. मे महिन्यापासून ऑगस्टपर्यंत इथले हवामान अतिशय प्रसन्न असते. सुपीक जमीन, घनदाट जंगले, सरोवरे, नद्या, जंगली जनावरांचे कळप, सुंदर पक्षी यांची देणगी या देशाला लाभली आहे. नद्यांवर धरणे बांधून इथे वीज निर्मिती केली जाते. तांब्याच्या खाणी,  झिंक, कोबाल्ट, दगडी कोळसा, युरेनियम, मौल्यवान रत्ने, हिरे तसेच उत्तम प्रतीचा ग्रॅनाइट व संगमरवरी दगड सापडतो.  गाई व मेंढ्यांचे मोठमोठे कळप आढळतात. तंबाखू, चहा-कॉफी ,कापूस उत्पादन होते.  १९६४ साली ब्रिटिशांकडून स्वातंत्र्य मिळाल्यापासून २७ वर्षें राष्ट्राध्यक्ष असलेल्या केनेथ कोंडा यांनी या राष्ट्राला प्रगतीपथावर नेले.

झांबिया आणि झिंबाब्वे यांच्या सरहद्दीवर असलेल्या महाकाय  व्हिक्टोरिया धबधब्याचा शोध, स्कॉटिश मिशनरी संशोधक डॉक्टर डेव्हिड लिव्हिंगस्टन यांना १८५५ मध्ये  लागला. त्यांनी धबधब्याला आपल्या देशाच्या राणी व्हिक्टोरियाचे नाव दिले.५६०० फूट रुंद आणि ३५४ फूट खोल असलेला हा धबधबा जगातील सात नैसर्गिक आश्चर्यांपैकी एक मानला जातो. युनेस्कोने त्याला वर्ल्ड हेरिटेजचा दर्जा दिला आहे.

आम्हाला व्हिक्टोरिया धबधब्याचे खूप जवळून दर्शन घ्यायचे होते. धबधब्याच्या पुढ्यातील डोंगरातून रस्ता तयार केला आहे. रस्ता उंच-सखल, सतत पडणाऱ्या पाण्यामुळे बुळबुळीत झालेला होता. आधारासाठी बांधलेले लाकडी कठड्याचे खांबही शेवाळाने भरलेले होते. मध्येच दोन डोंगर जोडणारा, लोखंडी खांबांवर उभारलेला छोटा पूल होता. गाईड बरोबर या रस्त्यावरून चालताना धबधब्याचे रौद्रभीषण दर्शन होत होते. अंगावर रेनकोट असूनही धबधब्याच्या तुषारांमुळे सचैल  स्नान घडले. शेकडो वर्षे अविरत कोसळणाऱ्या या धबधब्यामुळे त्या भागात अनेक खोल घळी ( गॉरजेस )  तयार झाल्या आहेत. धबधब्याचा नजरेत न मावणारा विस्तार, उंचावरून खोल दरीत कोसळतानाचा तो आदिम मंत्रघोष, सर्वत्र धुक्यासारखे पांढरे ढग….. सारेच स्तिमित करणारे. एकाच वेळी त्यावर चार-चार इंद्रधनुष्यांची झुंबरं झुलत होती. ती झुंबरं वाऱ्याबरोबर सरकत डोंगरकडांच्या झुडपांवर चढत होती. हा नयनमनोहर खेळ कितीही वेळ पाहिला तरी अपुराच वाटत होता. ते अनाघ्रात, रौद्रभीषण सौंदर्य कान, मन, डोळे व्यापून उरत होतं .स्थानिक भाषेत या धबधब्याला  ‘गडगडणारा धूर’ असं म्हणतात ते अगदी सार्थ वाटलं.

मार्गदर्शकाने नंतर झांबेझी नदीचा प्रवाह जिथून खाली कोसळतो त्या ठिकाणी नेले. तिथल्या खडकांवर निवांत बसून पाण्याचा खळखळाट ऐकला. जगातील सगळ्या नद्या या लोकमाता आहेत. इथे या लोकमातांना त्यांचे सौंदर्य आणि स्वच्छता जोपासून सन्मानाने वागविले जात होते.( जागोजागी कचरा पेट्या ठेवलेल्या होत्या ) आपण आपल्या लोकमातांना इतक्या निष्ठूरपणे का वागवितो हा प्रश्न मनात डाचत राहिला.

संध्याकाळी झांबेझी नदीतून दोन तासांची सफर होती. तिथे जाताना आवारामध्ये एकजण लाकडी वाद्य वाजवीत होता. मरिंबा(Marimba ) हे त्या वाद्याचे नाव.पेटीसारख्या  आकारातल्या लाकडी  पट्टयांवर दोन छोट्या काठ्यांनी तो हे सुरेल वाद्य वाजवीत होता. पट्टयांच्या  खालच्या बाजूला सुकलेल्या भोपळ्यांचे लहान-मोठे तुंबे लावले होते.

क्रूझमधून  झांबेझीच्या  संथ आणि विशाल पात्रात फेरफटका सुरू झाला. नदीत लहान-मोठी बेटं होती. नदीतले बुळबुळीत, चिकट अंगाचे पाणघोडे ( हिप्पो ) खडकांसारखे वाटत होते. श्वास घेण्यासाठी त्यांनी पाण्याबाहेर तोंड काढून जबडा वासला की त्यांचे  अक्राळविक्राळ दर्शन घडे.   एका बेटावर थोराड हत्ती, भलेमोठे झाड उपटण्याच्या प्रयत्नात होते. त्यांचे कान राक्षसिणीच्या सुपाएवढे होते .दुसऱ्या एका बेटावर अंगभर चॉकलेटी चौकोन असलेल्या लांब लांब मानेच्या जिराफांचे दर्शन घडले. काळे, लांब मानेचे बगळे, लांब चोचीचे करकोचे, विविधरंगी मोठे पक्षी, पांढरे शुभ्र बगळे, घारी, गरुड या साऱ्यांनी आम्हाला दर्शन दिले. निसर्गाने किती विविध प्रकारची अद्भुत निर्मिती केली आहे नाही?

सूर्य हळूहळू केशरी होऊ लागला होता. सूर्यास्त टिपण्यासाठी सार्‍यांचे कॅमेरे सज्ज झाले. दाट शांतता सर्वत्र पसरली आणि एका क्षणी झांबेझीच्या विशाल पात्रात सूर्य विरघळून गेला. केशरी झुंबरं लाटांवर तरंगत राहिली.

साधारण नव्वदच्या दशकापर्यंत आफ्रिकेला काळे खंड म्हटले जाई. आजही या खंडाचा काही भाग गूढ, अज्ञात आहे. सोनेरी- हिरवे गवत, फुलांचा केशरी, लाल, पांढरा, जांभळा, गुलाबी रंग, प्राणी आणि पक्ष्यांचे अनंत रंग, धबधब्याच्या धवलशुभ्र रंगावर झुलणारी इंद्रधनुष्ये, अगदी मनापासून हसून आपले स्वागत करताना तिथल्या देशबांधवांचे मोत्यासारखे चमकणारे दात….. सगळी रंगमयी दुनिया! हे अनुभवताना नाट्यछटाकार ‘दिवाकर’ यांची एक नाट्यछटा आठवली. ती भूमी जणू म्हणत होती,’ काळी आहे का म्हणावं मी? कशी छान, ताजी, रसरशीत, अगणित रंगांची उधळण करणारी सौंदर्यवती आहे मी!

भाग २ व झांबेझी समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ रिक्त मरण (Die Empty) ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

?  वाचताना वेचलेले ? 

☆ रिक्त मरण (Die Empty) ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

वाचण्यासाठी आणि त्यातून काहीतरी शिकण्यासाठी अनेक पुस्तकं आहेत त्यातलंच एक सर्वोत्तम पुस्तक म्हणजे टॉड हेनरी यांचे “Die Empty”

हे पुस्तक लिहण्याची प्रेरणा आणि कल्पना लेखकाला एका बिझनेस मिटींग मध्ये मिळाली…

मिटींगमध्ये डायरेक्टरने तेथे उपस्थित लोकांना प्रश्न विचारला. की “जगातील सर्वात श्रीमंत जमीन कोठे आहे?”

प्रेक्षकांपैकी एकाने उत्तर दिले : “तेलाने समृद्ध गल्फ राज्ये.”

तर दूसर्‍याने उत्तर दिले : “आफ्रिकेतील डायमंड खाणी.”

त्यांची उत्तरं ऐकल्यानंतर डायरेक्टर म्हणाले : नाही, जगातील सर्वात श्रीमंत जमीन म्हणजे स्मशानभूमी. कारण असे लाखो लोक मरण पावले आहेत ज्यांच्याजवळ अनेक मौल्यवान कल्पना होत्या पण त्या कधीच प्रकाशात येऊ शकल्या नाहीत आणि इतरांना त्याचा काहीच फायदा सुध्दा झाला नाही. त्यांच्या या सर्व मौल्यवान कल्पना त्यांच्याबरोबर या दफनभूमीत पुरण्यात आल्या आहेत.

याच उत्तराने प्रेरीत होऊन लेखक टॉड हेनरी यांनी “Die Empty” हे पुस्तक लिहले.

सर्वात सुंदर जर त्यांनी काही या पुस्तकात म्हटलं असेल तर ते म्हणजे “तुमच्या आतमध्ये जे सर्वात बेस्ट आहे जे तुम्ही करु शकता ते आतमध्येच ठेवुन मरु नका. निवडण्यासाठी आपल्याकडे नेहमीच पर्याय असतो त्यामुळे नेहमी रिक्त मरण निवडा…

रिक्त मरण किंवा Die Empty या शब्दाचा इथे अर्थ असा आहे की तुमच्यामध्ये जो काही चांगुलपणा आहे, जे काही चांगले तुम्ही या जगाला देऊ शकता ते सर्व मरण्यापूर्वी या जगाला देऊन जा…

जर तुमच्याकडे एखादी कल्पना असेल तर ती सादर करा…

जर तुमच्याकडे ज्ञान असेल तर ते इतरांना द्या…

जर तुमच्याकडे एखादे ध्येय असेल तर ते साध्य करा…

तुमच्याकडे जे आहे त्यावर प्रेम करा, इतरांचा सांगा आणि इतरांमध्ये वाटा आतमध्येच दडवून ठेवू नका…

चला तर मग, द्यायला सुरुवात करुया. आपल्यामध्ये जे काही चांगले आणि आपण जे काही चांगले या जगाला देऊ शकतो ते सर्व  आपल्यामधून काढून या जगामध्ये पसरवा….

शर्यत सुरु झाली आहे…

चला, हे जग सोडण्याआधी रिक्त होऊया…

संग्राहक – मंजुषा सुनीत मुळे 

९८२२८४६७६२

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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