हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है।  अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

असहमत, सायंकालीन भ्रमण पर निकला, मौसम सुहाना था, ठंड उतनी ही थी कि तिब्बती बाज़ार से खरीदी नई स्वेटर पहनकर दिखाई जा सके. वैसे तो प्रायः असहमत भीड़भाड़ से मुक्त स्थान पर जाना पसंद करता था पर आज उसकी इच्छा बाज़ार की चहलपहल में रमने की थी तो उसने मार्केट रोड चुनी. पदयात्रियों के लिये बने फुटपाथ पर मनिहारी, जूतों, कपड़ों और जड़ी बूटियों के बाज़ार सजाकर बैठे विक्रेता उसका रास्ता रोके पड़े थे. मजबूरन उसे वाहनों के हार्न के शोर से कराहती सड़क पर चलना पड़ रहा था. बाइकर्स ब्रेक से अंजान पर एक्सीलेटर घुमाने के ज्ञानी थे जो हैंडल के neck pain की तकलीफ समझते हुये नाक की सीध में तूफानी स्पीड से चले जा रहे थे.असहमत को शंका भी होने लगी कि कहीं ये उसकी तरफ निशाना लगाकर भिड़ने का प्लान तो नहीं कर रहे हैं. वो वापस लौटने का निर्णय लेने वाला ही था कि उसकी नजर सामने लगे बोर्ड पर पड़ी. लिखा था “जो तुम्हारा है पर क्या तुम्हारे काम नहीं आ रहा है” समाधान के लिये मिलें “स्वामी त्रिकालदर्शी ” समाधान शुल्क 1100/-.

असहमत के पास वैसे तो कई समस्याओं का भंडार था जिनमें अधिकतर का कारण ही उसका सहमत नहीं हो पाना था पर फिर भी अपनी ताज़ातरीन समस्या के समाधान के लिये और बाइकर्स की निशानेबाजी से बचने के लिये उसने खुद को स्वामी जी के दरबार में पाया. दरबार में प्राइवेसी उतनी ही थी जितनी सरकारी अस्पतालों की OPD में होती है याने खुल्ला खेल फरुख्खाबादी. पहले नंबर पर एक महिला थी और समस्या : स्वामी जी, वैसे पति तो मेरा है पर उसकी हरकतों से लगता है कि ये पड़ोसन का है.

स्वामी : सात शुक्रवार को पड़ोसन के पति को अदरक वाली चाय पिलाओ.पड़ोसन अपने आप समझ जायेगी और तुम्हारा पति भी कि क्रिकेट के ग्राउंड पर फुटबाल नहीं खेली जाती.

अगला नंबर वृद्ध पति पत्नी का था और समस्या : स्वामी जी, बेटा तो हमारा है पर हमारे काम का नहीं है. अपनी आधुनिक मॉडल पत्नी और कॉन्वेंटी बच्चों के साथ सपनों की महानगरी में मगन है, रम गया है, वो भूल गया है कि वो हमारा है.

स्वामी : उस महानगरी के अखबार में विज्ञापन दे दीजिये कि हम अपना आलीशान मकान बेचकर हरिद्वार जाना चाहते हैं. बेटा तो आपके हाथ से निकल चुका है पर वो है तो बुद्धिमान तभी तो महानगरीय व्यवस्था में अपने सपनों को तलाश रहा है. तो आयेगा तो जरूर क्योंकि विद्वत्ता के साथ साथ धन भी सपने साकार करने की चाबी ? होता है.

अब नंबर असहमत का आया

“स्वामी जी,है तो मेरा मगर जरूरत पर मेरे काम नहीं आता.

स्वामी जी: पहेलियों में बात नहीं करो बच्चा, समस्या कहो, समाधान के लिये हम बैठे हैं.

असहमत : पैसा तो मेरा ही है पर जरूरत पर निकल नहीं पा रहा है. कभी लिंक फेल हो जाता है, कभी कार्ड का पिन भूल जाता हूँ.

स्वामी जी: अरे तुम तो मेरे गुरु भाई निकले, मैं त्रिकालदर्शी हूँ पर मेरा धन “जो बंद हो चुके बहुत सारेे पांच सौ के नोटों की शक्ल में है”, मेरे किसी काम नहीं आ रहा है. चलो चलते हैं, इसका समाधान तो हम दोनों के महागुरु ही दे सकते हैं.

?   ?

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 2– जगमग दीप जले — ☆डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत “जगमग दीप जले —” 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 2 ✒️

? गीत –  जगमग दीप जले —  डॉ. सलमा जमाल ?

जगमग – जगमग ये दीप जले ।

फिर भी अंधेरा दिया तले ।।

 

फैला अमावस का अंधेरा ,

निर्धनों को दुखों ने घेरा ,

बच्चे अभावों में हैं पले ।

जगमग ————— ।।

 

धनी वर्ग मनाऐ दिवाली ,

ख़ुशियां हैं कमाई – काली ,

ऊपरी तौर से मिलें गले ।

जगमग ————— ।।

 

सभी जलाएं आतिशबाज़ी ,

आपस में फ़िर भी नाराज़ी ,

खड़ी इंसानियत हाथ मले ।

जगमग ————— ।।

 

महलों में दीपों की कतारें ,

कुटिया में बचपन मन मारे ,

ग़म उनके रिस्ते सांझ ढले ।

जगमग ————— ।।

 

प्रकाश ने संदेश दिया है ,

हम सबने अनसुना किया है ,

सपने पलते आकाश तले ।

जगमग ————— ।।

 

काश ! मसीहा ऐसा आए ,

दीन – दुखी को गले लगाऐ ,

जो संग सलमा दो क़दम चले ।

जगमग ————— ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – salmakhanjbp@gmail.com

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ #86 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में – 2 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने महात्मा गाँधी जी की मध्यप्रदेश यात्रा पर आलेख की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में  के अंतर्गत महात्मा गाँधी जी  की यात्रा की जानकारियां आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ आलेख #86 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में – 2 ☆ 

छिंदवाड़ा :- गांधीजी यहां  अली भाइयों (मौलाना मुहम्मद अली एवं मौलाना शौकत अली) के आमंत्रण पर आए और 06 जनवरी 1921 को  एक आमसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने एक तरफ खिलाफत के अपमान का परिमार्जन करने हेतु कांग्रेस के आंदोलन का समर्थन किया तो दूसरी तरफ पंजाब में घटित जलियाँवाला बाग के अन्याय का विरोध भी किया। गांधीजी ने सैनिकों से कहा कि जनरल डायर जैसे  अत्याचारी का बेहूदा हुकूम मानने की अपेक्षा बहादुरी से  उसकी गोली खाकर मरना स्वीकार करें और इस प्रकार  सैनिकों से राजभक्ति की अपेक्षा देशभक्ति को मनुष्य का धर्म मानते हुए उसका अनुपालन करने को कहा। उन्होंने सैनिकों से निर्भय होकर कांग्रेस की सभाओं में शामिल होने का आग्रह किया. उन्होंने उपाधिधारियों से उपाधि त्यागने, वकीलों से वकालत छोड़ देने, पंद्रह वर्ष से अधिक आयु के बालकों से स्कूल छोड़ देने का आह्वान किया। इसके अलावा उन्होंने स्वदेशी के महत्व को रेखांकित करते हुए चरखा चलाने, हिन्दू मुस्लिम एकता को मजबूत करने और अस्पृश्यता के कलंक को मिटाने का भी अनुरोध किया। जहां एक ओर गांधीजी ने वकीलों और विद्यार्थियों से बहिष्कार की अपील की तो दूसरी तरफ आर्थिक दृष्टि से कमजोर वकीलों को कांग्रेस की ओर से मदद व विद्यार्थियों से पढ़ाई छोड़ने के बाद देशहित  के अन्य कार्यों से संलग्न होने की सलाह दी। इस प्रकार गांधीजी की  सभा से लोगों का उत्साह बढ़ा और अंग्रेजी शासन व उपाधिधारियों से उनका भय खत्म हुआ।

सिवनी व जबलपुर के अल्प प्रवास पर गांधीजी 20 व 21 मार्च 1921 को पधारे। सिवनी में  सभा को संबोधित करते हुए, कांग्रेस के नेता भगवान दीन यहां गिरफ्तार कर लिए गए थे, इसीलिए जनता का मनोबल बढ़ाने गांधीजी यहां विशेष रूप से आए और भाषण भी दिया। उन्होंने मद्यपान न करने की सलाह दी और कहा कि इससे बेहतर तो गंदे नाले का पानी पीना है।  गंदे नाले का पानी पीने से तो बीमारी होती है पर शराब पीने से आत्मा मलिन हो जाती है।

खंडवा :- इस नगर को महात्मा गांधी का स्वागत करने का अवसर दो बार मिला।  पहली बार बापू मई 1921 में जब वे अंबाला से भुसावल जाते हुए खंडवा में रुके थे। यद्दपि  यहां  उस दिन उन्होनें किसी सभा को संबोधित तो नहीं किया लेकिन रास्ते में पड़ने वाले छोटे-छोटे स्टेशनों पर उपस्थित जनसमूह को उन्होंने अवश्य संबोधित किया। ऐसे ही एक भाषण में उल्लेख है कि स्टेशन पर आए जनसमूह से उन्होंने तिलक स्मृति कोष के लिए दान देने की अपील की, स्वराज का अर्थ केवल टोपी तक सीमित न रखते हुए विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार और खादी अपनाने का आग्रह किया और उन्हें  फूल भेंट करने की जगह स्वराज के लिए धन देने को कहा। गांधीजी ने अस्पृश्यता निवारण हेतु भी लोगों से कहा कि भंगी-चमार को अस्पृश्य न माने और उनकी और ब्राह्मण की समान सेवा करें। दूसरी बार गांधीजी 1933 में खंडवा आए और तत्कालीन नगरपालिका अध्यक्ष रायचंद नागड़ा के आवास पर रुके। रेलवे स्टेशन पर गांधीजी का स्वागत माखनलाल चतुर्वेदी की बहन कस्तूरी बाई ने सूत की माला पहना कर किया और स्थानीय घंटाघर चौक  में विशाल आमसभा को संबोधित किया और अस्पृश्यता को दूर करने हेतु लोगों से इस पुनीत कार्य में जुट जाने की अपील की। खंडवा में जिस स्थान पर गांधीजी की सभा हुई थी, वहां स्मारक का निर्माण किया गया और उस जगह को गांधी चौक नाम दिया गया। यहां  एक लगे स्मृति पटल  के अनुसार गांधीजी ने 01अप्रैल 1930 को खंडवा में आम सभा को संबोधित किया था, लेकिन यह तिथि सही है पर वर्ष गलत है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 8 (51-55)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #8 (51-55) ॥ ☆

 

सहज केलि श्रम बिन्दु है मुख पर अब भी व्याप्त

थिकृ असार यह दहे जो तुम हो गई समाप्त ॥ 51॥

 

मन ने किया न अहित तब क्यों करती हो त्याग ?

भूपति तो हूँ नाम का, सच तुममें अनुराग ॥ 52॥

 

पुष्प गुंथे काले भ्रमर से बरोरू तव बाल

उड़ा वायु देता मुझे जगने का सा ख्याल ॥ 53॥

 

अतः रवि गिरिगुहा में ज्यों तृष ज्योति प्रकाश

वैसे ही दे बोध तुम दूर करों अवसाद ॥ 54॥

 

अलकें कम्पित मौन पर तब आनन अरविंद

मुझे सताता निशि में ज्यों मौन भ्रमर है बंद ॥ 55॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १ डिसेंबर – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? १ डिसेंबर –  संपादकीय  ?

आज दादा धर्माधिकारी, वामन चोरघडे, आणि गं.बा.सरदार  या तिघांचा स्मृतिदिन।

दादा धर्माधिकारी यांचा जन्म मध्य प्रदेशातील बैतुल इथे १८८९ मधे झाला. ते गांधीवादी विचारवंत होते. भारत छोडो आंदोलनात त्यांनी सहभाग घेतला.त्यांना दोन वेळा तुरुंगवास भोगावा लागा. ते परिवर्तनवादी विचारसरणीचे होते. चळवळीत  गेल्यामुळे त्यांचे शिक्षण पूर्ण होऊ शकले नाही.त्यांना कॉलेजची पदवी नव्हती पण त्यांचे वाचन उदंड होते. हिन्दी, संस्कृत, मराठी, बंगाली , गुजराती, इंग्रजी ग्रंथांचा त्यांचा चांगला अभ्यास होता. ते चांगले लेखक होते. हिन्दी, मराठी आणि गुजरातीत त्यांनी अनेक पुस्तके लिहिली.

दादांच्या बोधकथा – भाग १ ते ३, तरुणाई, दादांच्या शब्दात दादा भाग १ व २ (आत्मचरित्र) ,प्यिय मुली, मैत्री, क्रांतिवादी तरुणांनो, स्त्री- पुरुष सहजीवन इ, त्यांची मराठीत पुस्तके आहेत. त्यांच्या कार्यावरही पुस्तके  लिहिली गेली आहेत.

दादा धर्माधिकारी जीवंदर्शन, विचारयोगी दादा धर्माधिकारी, स्नेहयोगी दादा धर्माधिकारी ही पुस्तके तारा धर्माधिकारी यांनी संपादित केली आहेत.

☆☆☆☆☆

वामन चोरघडे यांचा जन्म नागपूरयेथील नरखेड इथे १६ जुलै १९१४ मध्ये झालात्यांचे पदवीपर्यंतचे शिक्षण मॉरिस कॉलेजमध्ये झाले. कॉलेजमध्ये असतानाच त्यांनी अम्मा नावाची लघुकथा लिहिली. त्यांच्या कथा वागेश्वरी, सत्यकथा, मौज इ. दर्जेदार नियतकालिकातून प्रकाशित झाल्या.

वर्धा व नागपूर येथील जी.एम. कॉलेज येथे  त्यांनी अध्यापन केले. प्राध्यापक ते प्राचार्य असा त्यांचा व्यावसायिक प्रवास झाला. मराठी साहित्य आणि अर्थशास्त्र यात त्यांनी पदवी घेतली होती .स्वातंत्र्य लढ्यातही त्यांचा सहभाग होता. त्यांनाही दोन वेळा तुरुंगवास भोगावा लागला.

वामन चोरघडे यांचे प्रकाशित साहित्य –  

असे मित्र अशी मैत्री , देवाचे काम – बालसाहित्य, जडण-घडण –आत्मचरित्र (१९८१) चोरघडे यांची कथा – (१९६९), ख्याल, साद, सुषमा, हवन, पाथेय, प्रदीप, प्रस्थान, यौवन इ. त्यांचे कथासंग्रह आहेत. याशिवाय, वामन चोरघडे  यांच्या निवडक कथा भाग१ व २ , संपूर्ण  चोरघडे (१९६६) इ. त्यांचे कथासंग्रह आहे.

विदर्भ साहित्य संघाचे ते अध्यक्ष होते. १९७९ साली चंद्रपूर येथे झालेल्या अखिल भारतीय साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते.

☆☆☆☆☆

 गं.बा.सरदार यांचाही आज स्मृतिदिन. त्यांच्याविषयी सविस्तर माहिती वाचा याच अंकात.

 

या तीनही साहित्य श्रेष्ठींच्या स्मृतिदिनी त्यांना विनम्र अभिवादन. ?

☆☆☆☆☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई – अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : १.शिक्षण मंडळ कर्‍हाड: शताब्दी दैनंदिनी  २. इंटरनेट    

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सापडावा सूर माझा ☆ श्री शरद कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सापडावा सूर माझा ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆ 

खुद्द आकाशाने

शोधावे मेघाला.

झाडांनी शोधावे

सावलीला .

तहान लागावी

वाहत्या पाण्याला.

पूर अनावर

नदी ,पापणीला .

कधी विसंगतीने

शोधावे भारुड.

जडावे गारुड

विपरीत .

एका जनार्दनी

आक्रोश घडावा

आणि सापडावा,

सूर माझा.

 

© श्री शरद  कुलकर्णी

मिरज

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 111 ☆ अरुंधती ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 111 ?

☆ अरुंधती ☆

 ऋषीपत्नी अरुंधती

गाऊ तिचीच आरती

एकनिष्ठा पतिव्रता

सुयज्ञाची हीच माता !

 

वशिष्ठ नि अरुंधती

युगानुयुगे जन्मती

आदर्श हे पती पत्नी

अढळपदी पोचती !

 

पातिव्रत्य धर्म तिचा

असे मनस्वी मानिनी

 दक्षराजाची ती कन्या

कुलवती सौदामिनी !

 

आतिथ्य धर्म आचारी

तेजस्वी गुणसुंदरी

गाऊ गुणगान तिचे

सारे जन्म हो भाग्याचे

 

तारा तो चमचमता

देवी अरुंधतीमाता

नवदांपत्ये प्रार्थिती

लाभावया फलश्रुती

 

पुण्यवती पावन ती

 शुभांगिनी सुभाषिणी

अलौकिका ही भामिनी

कृतार्थ झाली जीवनी!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- sonawane.prabha@gmail.com
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ समाज प्रबोधनाचे सरदार: गं .बा. सरदार ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? विविधा ?

☆ समाज प्रबोधनाचे सरदार: गं .बा. सरदार ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर 

गंगाधर बाळकृष्ण सरदार

 (२ ऑक्टोबर १९०८-१ डिसेंबर १९८८)

गंगाधर बाळकृष्ण सरदार यांचं सारं लेखन समाज प्रबोधन आणि समाज परिवर्तन या गोष्टी केंद्रस्थानी ठेवून केलेले आहे. समाजाचे निकोप परिवर्तन व्हायचे असेल, तर सांस्कृतीक विषमता आणि आर्थिक दु:स्थिती नाहीशी व्हायला हवी, अशी त्यांची धारणा होती. त्यांच्या सामाजिक चिंतनाचा प्रभाव स्वाभाविकपणे त्यांच्या साहित्यिक दृष्टीकोणावर पडला आहे. सामाजिक दायित्व ते मानतात, त्यामुळेच साहित्याची निखळ कलावादी भूमिका त्यांना मान्य नाही.

गं .बा. सरदार यांचा जन्म ठाणे जिल्ह्यातील जव्हार गावी झाला. त्यांचे शिक्षण जव्हार, पुणे, मुंबई इथे झाले. त्यानंतर नाथाबाई दामोदर ठाकरसी या महिला विद्यालयात मराठीचे व्याख्याते म्हणून त्यांची निवड झाली. ६८ला ते मराठीचे प्रपाठक  म्हणून निवृत्त झाले.

जव्हार मध्ये आदिवासी बहुसंख्येने आहेत. त्यामुळे त्यांचे जीवन, त्यांची दु:खे, समस्या इ.शी त्यांची जवळून ओळख झाली. घरातील वातावरणही समतावादी होतं.त्यामुळे सामाजिक भेदाभेदापलीकडे जाऊन माणूस म्हणून पाहण्याची दृष्टी त्यांना लाभली.

शालेय जीवनात स्वामी रामतीर्थ, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद यांचा त्यांच्यावर प्रभाव पडला होता. सावरकरांच्या विचारांनेही त्यांना काही काळ मोहित केलं होतं. नंतर ते गांधीवादाकडे वळले होते. मिठाच्या सत्याग्रहात ते सामील झाले होते आणि त्यासाठी त्यांना तुरूंगवासही भोगावा लागला होता. पण पुढे बदलत्या काळात, त्यांना गांधीवादाचे अपूरेपण जाणवू लागले. मग ते साम्यवादी विचारधारेकडे ओढले गेले. सक्रीय राजकरणाकडे न वळता, ते लेखन-भाषण याद्वारे समाज प्रबोधन करू लागले. त्यांची ग्रंथसंपदा पहिली तरी त्यांचे समाज प्रबोधनाशी असलेले अतूट नाते लक्षात येईल.

अर्वाचीन मराठी गद्याची पूर्वपीठिका हा त्यांचा पहिला ग्रंथ १९३७ साली प्रसिद्ध झाला.  १८८५ ते १९२० या कालखंडात मराठी गद्याचा विकास झाला, त्याची पार्श्वभूमी अव्वल इंग्रजी काळातील मराठी गद्यलेखकांनी कशी तयार करून ठेवली, याचे विवेचन त्यांनी यात केले आहे. त्यासाठी त्यांनी १८०० ते १८७४ या काळातील विविध ग्रंथांचा परामर्श घेतला आहे.

सरदारांची आणि ग्रंथसंपदा सांगायची तर १.महाराष्ट्राचे उपेक्षित मानकरी -१९४१ , २.न्या. रानडेप्रणीत, सामाजिक सुधारणेची तत्वमीमांसा, ३.आगरकरांचे सामाजिक तत्वविचार , ४. म. फुले विचार आणि कार्य , ५ .प्रबोधानातील पाउलखुणा – १९७८       ६. नव्या युगाची स्पंदने –  १९८४, ७. नव्या ऊर्मी नवी क्षितिजे – १९८७ , ८. परंपरा आणि परिवर्तन- १९८८. पुस्तकांची ही नावे वाचली तरी  प्रबोधनाकडे त्यांचा असलेला कल स्पष्ट होतो.

रानडे, चिपळूणकर, यांच्या पूर्वी महाराष्ट्रात चेतनादायी ठरेल असे काम ज्यांनी केले पण ज्यांची उपेक्षा झाली, त्या अव्वल इंग्रजी काळातल्या, भाऊ महाजनी, लोकहितवादी, विष्णुबुवा ब्रम्हचारी म. ज्योतिबा फुले ह्यांच्या कार्याचे विवेचन त्यांनी केले आहे. महाराष्ट्राच्या प्रबोधनाच्या कार्यामागे न्या. रानडे यांचे तात्विक अधिष्ठान काय होते, प्रबोधनाच्या इतिहासात त्यांचे स्थान काय होते, याचे विवेचन त्यांनी केले आहे. आगरकरांच्या सामाजिक चिंतनाचा परामर्श घेऊन धर्म , सामाजिक परिवर्तन, आणि आर्थिक प्रश्न हयासंबंधी आगरकरांच्या विचारांचे विवेचन केले आहे. म. फुले यांच्या जीवांनीष्ठेचा शोध घेऊन त्यांच्या विचारांचा सामाजिक आशय त्यांनी विषद केला आहे.

त्यांच्या स्फुट लेखातून भारतीय राष्ट्रवाद, आणि ऐहिक निष्ठा, नव्या महाराष्ट्राचे भवितव्य, संस्कृती संवर्धन आणि ज्ञानोपासणा ह्यातील अनुबंध, समाज प्रबोधन आणि धर्मजीवन, व्यक्ति आणि सामाजिक संस्था यातील अनुबंध संकुचित विचारांमुळे प्रबोधनाला पडणार्‍या मर्यादा अशा अनेक विषयांचे  विवेचन त्यांनी केले आहे. त्याचप्रमाणे महर्षी विठ्ठल रामजी शिंदे , म. ज्योतिबा फुले, राजर्षी शाहू छत्रपती, म.गांधी, कर्मवीर भाऊराव  पाटील, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, या थोर सुधारकांच्या कार्याचा परिचय करून दिला आहे.

त्यांच्या काही लेखातून दलित साहित्याचे समालोचन आर्थिक आणि सांस्कृतिक अशा दोन्ही आघाड्यांवर घेतले आहे. जनमानसात नवीन जाणीवा रुजवणार्‍या दलित साहित्यिकांचा विद्रोह सरदारांना स्वागतार्ह वाटतो. भविष्य काळात खर्‍या अर्थाने भारतीय समाज एकात्म बनला, तर दलित वाङमायाच्या स्वतंत्र अस्तत्वाचे प्रयोजन रहाणार नाही, असे त्यांना वाटते, पण तोपर्यंत त्या साहित्याचे वेगळे दालन आणि व्यासपीठ आवश्यक आहे, असं त्यांना वाटतं.  समाजाचे निकोप परिवर्तन व्हायचे असेल, तर सांस्कृतिक विषमता आणि आर्थिक दु:स्थिती नाहीशी व्हायला हवी, अशी त्यांची धारणा होती.

’संतवाङमायाची सामाजिक फलश्रुती’  या त्यांच्या गाजलेल्या ग्रंथात, त्यांनी संतांच्या कामगिरीचा परामर्श घेतला आहे.  संतांनी मराठीसंस्कृतिक विकासात काय योगदान दिले, याचा विचार सामाजिक दृष्टीकोन ठेवून केला आहे. संतांच्या विचारामुळे सामाजिक प्रगतीत अडसर निर्माण झाला, हे काही अभ्यासकाचे मत त्यांना मान्य नाही. ‘ज्ञानेश्वरांची  जीवननिष्ठा या १९७१ साली प्रसिद्ध झालेल्या ग्रंथात त्यांनी ज्ञानेश्वरांचे तत्वज्ञान आणि कार्य याच विवेचन केले आहे. याचप्रमाणे ‘तुकाराम दर्शन -६८, रामदास दर्शन – १९७२, एकनाथ दर्शन- ७८ हे ग्रंथ संपादले आहेत.

गं. बा. सरदारांच्या संपादित ग्रंथात महाराष्ट्र जीवन : परंपरा , प्रगती आणि समस्या ( २ खंड – १९६० ) आणि संक्रमण काळाचे आव्हान ( १९६६) हे २ ग्रंथ विशेष उल्लेखनीय ठरले आहेत. अनेक अभ्यासक, आणि विचारवंत यांनी लिहिलेले लेख यात समाविष्ट केलेले आहेत.

आयुष्यात त्यांनी विशिष्ट ध्येयाने प्रेरित होऊन लेखन केले. त्यांना अनेक सन्माननीय पदे मिळाली. १९७८ साली मुंबई येथे झालेल्या दलित साहित्य समेलनाचे ते अध्यक्ष होते, तर १९८० साली बार्शी येथे भरलेल्या अखिल भारतीय साहित्य संमेलनाचे ते अध्यक्ष होते. नाशिक आणि जळगाव येथे भरलेल्या अन्याय निर्मूलन परिषदेचे ते अध्यक्ष होते. मनोर ( त. पालघर) जंगल बचाव आदिवासी परिषद भरली होती. या परिषदेचेही ते अध्यक्ष होते.

महाराष्ट्र साहित्य परिषद आणि इतिहास संशोधक मंडळ इ. विविध संस्थांमध्ये त्यांनी काम केले. त्यांचे पुणे येथे १ डिसेंबर १९८८ रोजी निधन झाले.त्यानंतर हेमंत इनामदार यांनी  त्यांच्यावरचा  गं. बा. सरदार: व्यक्ती आणि कार्य हा ग्रंथ १९९८ मध्ये लिहून प्रसिद्ध केला.

साभार  – इंटरनेट

©️ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ प्रेम…. ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी

सुश्री संगीता कुलकर्णी

? विविधा ? 

☆ प्रेम…. ☆सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆ 

प्रेमाला उपमा नाही हे देवाघरचे लेणे खरंच किती भावार्थ लपला आहे नाही या गाण्यात…प्रेम ही ईश्वरी देणगी आहे.. प्रेम हे ठरवून कधीच होत नाही..

प्रत्येक व्यक्ती कधीना कधी कोणावर ना कोणावर प्रेम करतेच नाही का..

कुणीतरी आपल्यासाठी आपल्याला आवडतं म्हणून काही करणं म्हणजे प्रेम असतं.  प्रेम हे केवळ व्यक्तीवर  असतं ? तर नाही.. ते भावनेवर असतं त्याच्या/ तिच्या अस्तित्वावर असतं.. त्याच्या / तिच्या  सहवासात असतं… प्रेम हे दिसण्यात असतं ? तर  ते  नजरेत असतं.. जगायला लावणाऱ्या उमेदीत असतं.. प्रेम निर्बंध असतं..त्याला वय ,विचारांचं बंधन कधीच नसतं. जेंव्हा एखादी व्यक्ती प्रेमात पडते तेव्हा अख्खं जग सुंदर दिसू लागतं…त्याचे संदर्भ मनातल्या मंजुषेशी जुळलेले असतात…ते एक अनामिक नातं भावनांच्या मनस्वी लाटा वाहवणार असतं…एक हुरहूर,ओढ आणि तेवढीच धडधड वाढविणारही असतं. कांहीही नसताना खूप कांही जपणार आणि जोपासणार असतं. अश्या अनामिक नात्याची उत्कटता शब्दांत व्यक्त करताचं येत नाही…

प्रेम सहवासाने वाढते.. ते कृतीतून  स्पर्शातून व्यक्त होते.. प्रेमामुळे तर आपुलकी स्नेह निर्माण होतो.

सर्वोच्च प्रेमाची परिणीती म्हणजे त्याग…

आपल्या प्रिय गोष्टीचा त्याग करणे हे ही एक प्रकारचे प्रेमच असते नाही का..! शेकडो मैल केलेला प्रवास म्हणजे प्रेमाची परिसीमाच नाही काय?.. प्रेम ही एक सर्वोच्च शक्ती आहे.

प्रेमामुळेच विविध महाकाव्यांची निर्मित झाली.. प्रेम हे  पहाटेच्या धुक्यात असते… रातराणीच्या सुगंधात असते..खळखळ वाहणाऱ्या निर्झरात असते तर प्रेम पहाटेच्या मंद झुळकीतही असते बरे.. इतकं नाही तर दूरदूर जाणाऱ्या रस्त्यात सुद्धा प्रेम असते… प्रेम गालावरच्या खळीत असते…झुकलेल्या नजरेत असते…

ओथंबलेल्या अश्रूत ही असते.. शीतल चांदण्यात ,आठवणींच्या गाण्यात, चिंचेच्या बनात, निळ्याशार तळ्यात..दोन ओळींची चिठ्ठीसुद्धा प्रेम असतं..घट्ट घट्ट मिठीसुद्धा असते.

गुणगुणाऱ्या भुंग्याला पाहून लाजणाऱ्या फुलात ही प्रेम असते.

सृष्टीच्या प्रत्येक रचनेत चराचरात निसर्गात प्रेम असते आणि आहे…

विरह हा प्रेमाचा खरा साक्षीदार …

वाट पाहण्यातील आतुरता, हुरहुर, ती ओढ, ती न संपणारी प्रतीक्षा.. वेळ किती हळूहळू जातोय असं वाटणारी ती जीवघेणी अवस्था. …तो किंवा ती कधी येईल ? ही वाटण्यातील अधीरता, तो किंवा ती आपल्याला फसवणार तर नाही ना ? अशी मनात येणारी दृष्ट शंका… किती किती भावना नाही का ?

मी तिच्यावर /त्याच्यावर प्रेम करावे. त्याला /तिला अजिबात जाणीव नसू नये. .मी निष्ठापूर्वक प्रेम करावे त्याची उपेक्षा व्हावी. ..त्यामुळे झालेले दुःख मला प्राणापेक्षा प्रिय आहे. .ही कधी संपत नाही अशी गोष्ट आहे नी न संपणारी रात्र आहे. .फक्त आणि फक्तच ज्योत बनून तेवत रहाणे हेच तर खऱ्या प्रेमाचे भाग्यदेय आहे नाही का ? ….पण खेदाची बाब ही आहे की प्रेम या सर्वोच्च भावनेचा,त्याच्या पवित्रतेचा अर्थच लोकांना अद्याप समजलेला नाही.. नसावा त्यामुळे तर विकृतीकडे पाऊले उचलली जात आहेत…

प्रेमात वासनेला मुळीच स्थान नसते तर तिथे हळूवार नाजूक स्पर्श हवा असतो. दोन जीवांच्या अत्युच्च प्रेमामुळेच तर सृष्टीची निर्मिती झाली आहे. अशक्य ते शक्य करण्याची ताकद प्रेमात असते नुसते मनच नाही तर जगही प्रेमामुळे जिंकता येते.

प्रेम म्हणजे स्वतः जगणं आणि दुसऱ्याला जगवण आहे… प्रेमाचा परिस्पर्श ज्याला होतो त्याचे सारे आयुष्य उजळून निघते..म्हणूनच याला देवाघरचे लेणे असे संबोधले आहे…

प्रेम हृदयातील एक भावना.. कुणाला कळलेली.. कुणाला कळून न कळलेली.. कुणी पहिल्याच भेटीत उघड केलेली.. तर कुणी आयुष्यभर लपवलेली… कुणी गंमत करण्यासाठी वापरलेली.. तर कुणाची गंमत झालेली.. कुणाचे आयुष्य उभारणारी.. तर कुणाला आयुष्यातुन उठवणारी.. फक्त एक भावना.. !

© सुश्री संगीता कुलकर्णी 

लेखिका /कवयित्री

ठाणे

9870451020

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ एकुलती -भाग तिसरा ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

? जीवनरंग ❤️

☆ एकुलती -भाग तिसरा ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

पूर्वार्ध :हॉस्पिटलमधून बाबांना केतकीच्या घरी न्यायचं ठरलं. आता पुढे…..)

कार्तिक -केतकी कामापुरतंच बोलत होती. पण या आजारपणाच्या व्यापामुळे कोणाच्या ते लक्षातही आलं नाही.

गेस्टरूममध्ये बाबा आणि त्यांचा रात्रीचा अटेंडंट निळू झोपत असल्यामुळे आई केतकीबरोबर बेडरूममध्ये झोपत होती आणि कार्तिक हॉलमध्ये सोफा-कम-बेडवर.

आई मधूनमधून म्हणायची, “मी हॉलमध्ये झोपते ” म्हणून.पण कार्तिक -केतकी दोघंही घायकुतीला आल्यासारखे एकसुरात “नको, नको “म्हणून ओरडायचे.

वीकएंडला बराच वेळ तो घराबाहेरच असायचा. घरात असला, तर लॅपटॉप उघडून बसायचा.

आईचं चाललेलं असायचं,”अगं,जरा त्याच्याकडे बघ.थोडा वेळ त्याच्याबरोबर घालव.”

एकदा तर चक्क त्याच्यासमोरच म्हणाली, ” बाबा बरे आहेत. काशिनाथ आहे सोबतीला. तुम्ही दोघं बाहेर जा कुठेतरी. फिरायला, सिनेमाला.” केतकीला ‘नाही’ म्हणायला संधीच नाही मिळाली.

घरातून बाहेर पडल्यापासून घरी परत येईपर्यंत दोघात चकार शब्दाची देवघेव झाली नाही.

केतकीला आठवलं, लग्नापूर्वी आणि नंतरही सुरुवातीच्या काळात केतकीची अखंड बडबड चालायची. कार्तिक कौतुकाने ऐकत असायचा. तिचा प्रत्येक शब्द झेलायचा तो तेव्हा.

मग शनिवारी-रविवारी दोघांनी बाहेर पडायचं, हा नियमच करून टाकला आईने.

यावेळी लॉन्ग ड्राइव्हला मुंबईबाहेर पडायचं, ठरवलं कार्तिकने. तसा ट्रॅफिक खूप होता, पण फारसं कुठे अडकायला झालं नाही.

एका छानशा रिझॉर्टच्या रेस्टॉरंटसमोर त्याने गाडी थांबवली.

‘अरेच्चा!बॅग गाडीत ठेवायची राहिली. आता वॉशरूममध्ये हूक असला म्हणजे मिळवली,’ केतकीच्या मनात आलं. पण कार्तिकने हात पुढे केला. तिने गुपचूप बॅग त्याच्याकडे दिली.

कोपऱ्यातल्या टेबलवर कार्तिक बसला होता. ती येताच तो उठून फ्रेश व्हायला गेला.

वेटर डिशेस घेऊन आला. तिच्या आवडीचा मेन्यू होता.

ही त्याची चाल नाहीय ना? ‘सावध, केतकी, सावध,’ तिने स्वतःला रेड ऍलर्ट दिला.

खायला सुरुवात केल्यावर तिच्या लक्षात आलं, की तिला खरोखरच खूप भूक लागली होती.

थोडंसं खाऊन झाल्यावर कार्तिकने अचानकच विचारलं,  “भेटला कोणी? “

“म्हणजे?” त्याला काय विचारायचंय, हेच तिला कळलं नाही.

“म्हणजे आपला डिव्होर्स झाल्यानंतर ज्याच्याशी तू लग्न करशील, असा कोणी भेटला का?”

क्रमश:….

© सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

संपर्क –  1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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