हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 114 ☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख आज ज़िंदगी : कल उम्मीद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 114 ☆

☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद

‘ज़िंदगी वही है, जो हम आज जी लें। कल जो जीएंगे, वह उम्मीद होगी’ में निहित है… जीने का अंदाज़ अर्थात् ‘वर्तमान में जीने का सार्थक संदेश’ …क्योंकि आज सत्य है, हक़ीकत है और कल उम्मीद है, कल्पना है, स्वप्न है; जो संभावना-युक्त है। इसीलिए कहा गया है कि ‘आज का काम कल पर मत छोड़ो,’ क्योंकि ‘आज कभी जायेगा नहीं, कल कभी आयेगा नहीं।’ सो! वर्तमान श्रेष्ठ है; आज में जीना सीख लीजिए अर्थात् कल अथवा भविष्य के स्वप्न संजोने का कोई महत्व व प्रयोजन नहीं तथा वह कारग़र व उपयोगी भी नहीं है। इसलिए ‘जो भी है, बस यही एक पल है, कर ले पूरी आरज़ू’ अर्थात् भविष्य अनिश्चित है। कल क्या होगा… कोई नहीं जानता। कल की उम्मीद में अपना आज अर्थात् वर्तमान नष्ट मत कीजिए। उम्मीद पूरी न होने पर मानव केवल हैरान-परेशान ही नहीं; हताश भी हो जाता है, जिसका परिणाम सदैव निराशाजनक होता है।

हां! यदि हम इसके दूसरे पहलू पर प्रकाश डालें, तो मानव को आशा का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यह वह जुनून है, जिसके बल पर वह कठिन से कठिन अर्थात् असंभव कार्य भी कर गुज़रता है। उम्मीद भविष्य में फलित होने वाली कामना है, आकांक्षा है, स्वप्न है; जिसे साकार करने के लिए मानव को निरंतर अनथक परिश्रम करना चाहिए। परिश्रम सफलता की कुंजी है तथा निराशा मानव की सफलता की राह में अवरोध उत्पन्न करती है। सो! मानव को निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए और उसका जीवन में प्रवेश निषिद्ध होना चाहिए। इच्छा, आशा, आकांक्षा…उल्लास है,  उमंग है, जीने की तरंग है– एक सिलसिला है ज़िंदगी का; जो हमारा पथ-प्रदर्शन करता है, हमारे जीवन को ऊर्जस्वित करता है…राह को कंटक-विहीन बनाता है…वह सार्थक है, सकारात्मक है और हर परिस्थिति में अनुकरणीय है।

‘जीवन में जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं। सो! हम वह करते हैं, जो हम चाहते हैं। परंतु होता वही है, जो परमात्मा चाहता है अथवा मंज़ूरे-ख़ुदा होता है।’ फिर भी मानव सदैव जीवन में अपना इच्छित फल पाने के लिए प्रयासरत रहता है। यदि वह प्रभु में आस्था व विश्वास नहीं रखता, तो तनाव की स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यदि वह आत्म-संतुष्ट व भविष्य के प्रति आश्वस्त रहता है, तो उसे कभी भी निराशा रूपी सागर में अवग़ाहन नहीं करना पड़ता। परंतु यदि वह भीषण, विपरीत व विषम परिस्थितियों में भी उसके अप्रत्याशित परिणामों से समझौता नहीं करता, तो वह अवसाद की स्थिति को प्राप्त हो जाता है… जहां उसे सब अजनबी-सम अर्थात् बेग़ाने ही नहीं, शत्रु नज़र आते हैं। इसके विपरीत जब वह उस परिणाम को प्रभु-प्रसाद समझ, मस्तक पर धारण कर हृदय से लगा लेता है; तो चिंता, तनाव, दु:ख आदि उसके निकट भी नहीं आ सकते। वह निश्चिंत व उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर करता है और सदैव अलौकिक आनंद की स्थिति में रहता है…अर्थात् अपेक्षा के भाव से मुक्त, आत्मलीन व आत्म-मुग्ध।

हां! ऐसा व्यक्ति किसी के प्रति उपेक्षा भाव नहीं रखता … सदैव प्रसन्न व आत्म-संतुष्ट रहता है, उसे जीवन में कोई भी अभाव नहीं खलता और उस संतोषी जीव का सानिध्य हर व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है। उसकी ‘औरा’ दूसरों को खूब प्रभावित व प्रेरित करती है। इसलिए व्यक्ति को सदैव निष्काम कर्म करने चाहिए, क्योंकि फल तो हमारे हाथ में है नहीं। ‘जब परिणाम प्रभु के हाथ में है, तो कल व फल की चिंता क्यों?

वह सृष्टि-नियंता तो हमारे भूत-भविष्य, हित- अहित, खुशी-ग़म व लाभ-हानि के बारे में हमसे बेहतर जानता है। चिंता चिता समान है तथा चिंता व कायरता में विशेष अंतर नहीं अर्थात् कायरता का दूसरा नाम ही चिंता है। यह वह मार्ग है, जो मानव को मृत्यु के मार्ग तक सुविधा-पूर्वक ले जाता है। ऐसा व्यक्ति सदैव उधेड़बुन में मग्न रहता है…विभिन्न प्रकार की संभावनाओं व कल्पनाओं में खोया, सपनों के महल बनाता-तोड़ता रहता है और वह चिंता रूपी दलदल से लाख चाहने पर भी निज़ात नहीं पा सकता। दूसरे शब्दों में वह स्थिति चक्रव्यूह के समान है; जिसे भेदना मानव के वश की बात नहीं। इसलिए कहा गया है कि ‘आप अपने नेत्रों का प्रयोग संभावनाएं तलाशने के लिए करें; समस्याओं का चिंतन-मनन करने के लिए नहीं, क्योंकि समस्याएं तो बिन बुलाए मेहमान की भांति किसी पल भी दस्तक दे सकती हैं।’ सो! उन्हें दूर से सलाम कीजिए, अन्यथा वे ऊन के उलझे धागों की भांति आपको भी उलझा कर अथवा भंवर में फंसा कर रख देंगी और आप उन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए छटपटाते व संभावनाओं को तलाशते रह जायेंगे।

सो! समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए संभावनाओं की दरक़ार है। हर समस्या के समाधान के केवल दो विकल्प ही नहीं होते… अन्य विकल्पों पर दृष्टिपात करने व अपनाने से समाधान अवश्य निकल आता है और आप चिंता-मुक्त हो जाते हैं। चिंता को कायरता का पर्यायवाची कहना भी उचित है, क्योंकि कायर व्यक्ति केवल चिंता करता है, जिससे उसके सोचने-समझने की शक्ति कुंठित हो जाती है तथा उसकी बुद्धि पर ज़ंग लग जाता है। इस मनोदशा में वह उचित निर्णय लेने की स्थिति में न होने के कारण ग़लत निर्णय ले बैठता है। सो! वह दूसरे की सलाह मानने को भी तत्पर नहीं होता, क्योंकि सब उसे शत्रु-सम भासते हैं। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है तथा किसी अन्य पर विश्वास नहीं करता। ऐसा व्यक्ति पूरे परिवार व समाज के लिए मुसीबत बन जाता है और गुस्सा हर पल उसकी नाक पर धरा रहता है। उस पर किसी की बातों का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वह सदैव अपनी बात को उचित स्वीकार कारग़र सिद्ध करने में प्रयासरत रहता है।

‘दुनिया की सबसे अच्छी किताब हम स्वयं हैं… ख़ुद को समझ लीजिए; सब समस्याओं का अंत स्वत: हो जाएगा।’ ऐसा व्यक्ति दूसरे की बातों व नसीहतों को अनुपयोगी व अनर्गल प्रलाप तथा अपने निर्णय को सर्वदा उचित उपयोगी व श्रेष्ठ ठहराता है। वह इस तथ्य को स्वीकारने को कभी भी तत्पर नहीं होता कि दुनिया में सबसे अच्छा है–आत्मावलोकन करना; अपने अंतर्मन में झांक कर आत्मदोष-दर्शन व उनसे मुक्ति पाने के प्रयास करना तथा इन्हें जीवन में धारण करने से मानव का आत्म-साक्षात्कार हो जाता है और तदुपरांत दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: शमन हो जाता है; हृदय सात्विक हो जाता है और उसे पूरे विश्व में चहुं और अच्छा ही अच्छा दिखाई पड़ने लगता है… ईर्ष्या-द्वेष आदि भाव उससे कोसों दूर जाकर पनाह पाते हैं। उस स्थिति में हम सबके तथा सब हमारे नज़र आने लगते हैं।

इस संदर्भ में हमें इस तथ्य को समझना व इस संदेश को आत्मसात् करना होगा कि ‘छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान को … जिसके लिए सुनना व सीखना अत्यंत आवश्यक है।’ यदि आपने सहना सीख लिया, तो रहना भी सीख जाओगे। जीवन में सब्र व सच्चाई ऐसी सवारी हैं, जो अपने शह सवार को कभी भी गिरने नहीं देती… न किसी की नज़रों में, न ही किसी के कदमों में। सो! मौन रहने का अभ्यास कीजिए तथा तुरंत प्रतिक्रिया देने की बुरी आदत को त्याग दीजिए। इसलिए सहनशील बनिए; सब्र स्वत: प्रकट हो जाएगा तथा सहनशीलता के जीवन में पदार्पण होते ही आपके कदम सत्य की राह की ओर बढ़ने लगेंगे। सत्य की राह सदैव कल्याणकारी होती है तथा उससे सबका मंगल ही मंगल होता है। सत्यवादी व्यक्ति सदैव आत्म-विश्वासी तथा दृढ़-प्रतिज्ञ होता है और उसे कभी भी, किसी के सम्मुख झुकना नहीं पड़ता। वह कर्त्तव्यनिष्ठ और आत्मनिर्भर होता है और प्रत्येक कार्य को श्रेष्ठता से अंजाम देकर सदैव सफलता ही अर्जित करता है।

‘कोहरे से ढकी भोर में, जब कोई रास्ता दिखाई न दे रहा हो, तो बहुत दूर देखने की कोशिश करना व्यर्थ है।’ धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाते चलो; रास्ता खुलता चला जाएगा’ अर्थात् जब जीवन में अंधकार के घने काले बादल छा जाएं और मानव निराशा के कुहासे से घिर जाए; उस स्थिति में एक-एक कदम बढ़ाना कारग़र है। उस विकट परिस्थिति में आपके कदम लड़खड़ा अथवा डगमगा तो सकते हैं; परंतु आप गिर नहीं सकते। सो! निरंतर आगे बढ़ते रहिए…एक दिन मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपका स्वागत अवश्य करेगी। हां! एक शर्त है कि आपको थक-हार कर बैठना नहीं है। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वामी विवेकानंद जी की पंक्तियां…’उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक तुम्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।’ यह पंक्तियां पूर्णत: सार्थक व अनुकरणीय हैं। यहां मैं उनके एक अन्य प्रेरक प्रसंग पर प्रकाश डालना चाहूंगी – ‘एक विचार लें। उसे अपने जीवन में धारण करें; उसके बारे में सोचें, सपना देखें तथा उस विचार पर ही नज़र रखें। मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों व आपके शरीर के हर हिस्से को उस विचार से भरे रखें और अन्य हर विचार को छोड़ दें… सफलता प्राप्ति का यही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।’ सो! उनका एक-एक शब्द प्रेरणास्पद होता है, जो मानव को ऊर्जस्वित करता है और जो भी इस राह का अनुसरण करता है; उसका सफल होना नि:संदेह नि:शंक है; निश्चित है; अवश्यंभावी है।

हां! आवश्यकता है—वर्तमान में जीने की, क्योंकि वर्तमान में किया गया हर प्रयास हमारे भविष्य का निर्माता है। जितनी लगन व निष्ठा के साथ आप अपना कार्य संपन्न करते हैं; पूर्ण तल्लीनता व पुरुषार्थ से प्रवेश कर आकंठ डूब जाते हैं तथा अपने मनोमस्तिष्क में किसी दूसरे विचार के प्रवेश को निषिद्ध रखते हैं; आपका अपनी मंज़िल पर परचम लहराना निश्चित हो जाता है। इस तथ्य से तो आप सब भली-भांति अवगत होंगे कि ‘क़ाबिले तारीफ़’ होने के लिए ‘वाकिफ़-ए-तकलीफ़’ होना पड़ता है। जिस दिन आप निश्चय कर लेते हैं कि आप विषम परिस्थितियों में किसी के सम्मुख पराजय स्वीकार नहीं करेंगे और अंतिम सांस तक प्रयासरत रहेंगे; तो मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपकी प्रतीक्षा करती है, क्योंकि यही है… सफलता प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग। परंतु विपत्ति में अपना सहारा ख़ुद न बनना व दूसरों से सहायता की अपेक्षा करना, करुणा की भीख मांगने के समान है। सो! विपत्ति में अपना सहारा स्वयं बनना श्रेयस्कर है और दूसरों से सहायता व सहयोग की उम्मीद रखना स्वयं को छलना है, क्योंकि वह व्यर्थ की आस बंधाता है। यदि आप दूसरों पर विश्वास करके अपनी राह से भटक जाते हैं और अपनी आंतरिक शक्ति व ऊर्जा पर भरोसा करना छोड़ देते हैं, तो आपको असफलता को स्वीकारना ही पड़ता है। उस स्थिति में आपके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य कोई भी विकल्प शेष रहता ही नहीं।

सो! दूसरों से अपेक्षा करना महान् मूर्खता है, क्योंकि सच्चे मित्र बहुत कम होते हैं। अक्सर लोग विभिन्न सीढ़ियों का उपयोग करते हैं… कोई प्रशंसा रूपी शस्त्र से प्रहार करता है, तो अन्य निंदक बन आपको पथ-विचलित करता है। दोनों स्थितियां कष्टकर हैं और उनमें हानि भी केवल आपकी होती है। सो! स्थितप्रज्ञ बनिए; व्यर्थ के प्रशंसा रूपी प्रलोभनों में मत भटकिए और निंदा से विचलित मत होइए। इसलिये ‘प्रशंसा में अटकिए मत और निंदा से भटकिए मत।’ सो! हर परिस्थिति में सम रहना मानव के लिए श्रेयस्कर है। आत्मविश्वास व दृढ़-संकल्प रूपी बैसाखियों से आपदाओं का सामना करने व अदम्य साहस जुटाने पर ही सफलता आपके सम्मुख सदैव नत-मस्तक रहेगी। सो! ‘आज ज़िंदगी है और कल अर्थात् भविष्य उम्मीद है… जो अनिश्चित है; जिसमें सफलता-असफलता दोनों भाव निहित हैं।’ सो! यह आप पर निर्भर करता है कि आपको किस राह पर अग्रसर होना चाहते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ‘जाता साल’ और ‘आता साल’ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

?संजय दृष्टि – ‘जाता साल’ और ‘आता साल’ ??

[1]

जाता साल

करीब पचास साल पहले

तुम्हारा एक पूर्वज

मुझे यहाँ लाया था,

फिर-

बरस बीतते गए

कुछ बचपन के

कुछ अल्हड़पन के

कुछ गुमानी के

कुछ गुमनामी के,

कुछ में सुनी कहानियाँ

कुछ में सुनाई कहानियाँ

कुछ में लिखी डायरियाँ

कुछ में फाड़ीं डायरियाँ,

कुछ सपनों वाले

कुछ अपनों वाले

कुछ हकीकत वाले

कुछ बेगानों वाले,

कुछ दुनियावी सवालों के

जवाब उतारते

कुछ तज़ुर्बे को

अल्फाज़ में ढालते,

साल-दर-साल

कभी हिम्मत, कभी हौसला

और हमेशा दिन खत्म होते गए

कैलेंडर के पन्ने उलटते और

फड़फड़ाते गए………

लो,

तुम्हारे भी जाने का वक्त आ गया

पंख फड़फड़ाने का वक्त आ गया

पर रुको, सुनो-

जब भी बीता

एक दिन, एक घंटा या एक पल

तुम्हारा मुझ पर ये उपकार हुआ

मैं पहिले से ज़ियादा त़ज़ुर्बेकार हुआ,

समझ चुका हूँ

भ्रमण नहीं है

परिभ्रमण नहीं है

जीवन परिक्रमण है

सो-

चोले बदलते जाते हैं

नए किस्से गढ़ते जाते हैं,

पड़ाव आते-जाते हैं

कैलेंडर हो या जीवन

बस चलते जाते हैं।

[2]

आता साल

शायद कुछ साल

या कुछ महीने

या कुछ दिन

या….पता नहीं;

पर निश्चय ही एक दिन,

तुम्हारा कोई अनुज आएगा

यहाँ से मुझे ले जाना चाहेगा,

तब तुम नहीं

मैं फड़फड़ाऊँगा

अपने जीर्ण-शीर्ण

अतीत पर इतराऊँगा

शायद नहीं जाना चाहूँ

पर रुक नहीं पाऊँगा,

जानता हूँ-

चला जाऊँगा तब भी

कैलेंडर जन्मेंगे-बनेंगे

सजेंगे-रँगेंगे

रीतेंगे-बीतेंगे

पर-

सुना होगा तुमने कभी

इस साल 14, 24, 28,

30 या 60 साल पुराना

कैलेंडर लौट आया है

बस, कुछ इसी तरह

मैं भी लौट आऊँगा

नए रूप में,

नई जिजीविषा के साथ,

समझ चुका हूँ-

भ्रमण नहीं है

परिभ्रमण नहीं है

जीवन परिक्रमण है

सो-

चोले बदलते जाते हैं

नए किस्से गढ़ते जाते हैं,

पड़ाव आते-जाते हैं

कैलेंडर हो या जीवन

बस चलते जाते हैं।

 

©  संजय भारद्वाज

4:31 दोपहर, 2 जून 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 65 ☆ लोक एवं निजी संपत्ति के नुकसान पर अंकुश ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “लोक एवं निजी संपत्ति के नुकसान पर अंकुश।)

☆ किसलय की कलम से # 65 ☆

☆ लोक एवं निजी संपत्ति के नुकसान पर अंकुश ☆

अपना हक लेना यह सब का अधिकार है। हमें व्यक्तिगत रूप में और सामूहिक रूप में सरकार तथा निजी संस्थानों से हक प्राप्त करने की कानूनी पात्रता है।  कानून, पद, योग्यता, पैतृक संपत्ति हस्तांतरण आदि के आधार पर प्राप्त शक्ति अथवा अधिकार से हमें कोई वंचित नहीं कर सकता। युगों-युगों से मानव अधिकार के लिए लड़ता आया है। हक की ही लड़ाई पांडवों ने लड़ी थी। यही कारण है कि आज भी समाज में न्यायालयों का सम्मान किया जाता है।

एक समय था जब धरने, हड़तालें, अनशन, प्रदर्शन, आंदोलन अथवा विरोध बड़ी शांति पूर्वक किए जाते थे। पहले लोगों के व्यक्तिगत, शासकीय अथवा निजी मामले आपसी वार्तालाप, मोहल्ले, पंचायतों अथवा न्यायालयों के माध्यम से निपट जाया करते थे। लोग इन पर विश्वास भी करते थे, लेकिन धीरे-धीरे शिक्षा, स्वतंत्रता, मूल अधिकारों के गलत प्रयोग, राजनैतिक वर्चस्व के चलते हक और अधिकारों की लड़ाई में निजी तथा शासकीय संपत्तियों को क्षति पहुँचाने, तोड़फोड़ करने, इमारतों, वाहनों, कार्यालयों में आग लगा देने जैसी घटनाओं को लोग अंजाम  देने लगे। स्वार्थवश, संप्रदाय, स्थानीय, प्रदेशीय, देशीय, धार्मिक अथवा अन्य घोषित माँगों के लिए भी अधिकारों व स्वतंत्रता का हवाला देकर ये विरोध, प्रदर्शन, आंदोलन आदि होने लगे। इनके नारे भी जोशीले हुआ करते हैं-

‘चाहे जो मजबूरी हो, माँग हमारी पूरी हो’

‘तानाशाही नहीं चलेगी, नहीं चलेगी’ अथवा ‘जो हमसे टकराएगा, चूर-चूर हो जाएगा”

इन परिस्थितियों में भीड़ का फायदा उठाकर, आक्रोश अथवा जोश में आकर आंदोलनकारी असंवैधानिक तरीके से तोड़-फोड़ व आगजनी भी करने लगे। हत्याएँ,  दुर्घटनाएँ, गोली चालन जैसी वारदातें होने लगीं, जो निश्चित रूप से हक या अधिकार की लड़ाई में कदापि उचित नहीं है। जब अधिकार माँगने वाला या अधिकार देने वाला ही दुनिया में नहीं रहेगा तो, ऐसे आंदोलनों अथवा प्रदर्शनों का कोई औचित्य नहीं है।

निसंदेह स्वतंत्रता के पश्चात हमें अपना देश और अधिकार की सौगात मिली है। इसका लाभ भी सभी को मिला है, लेकिन इन कृत्यों से हुई अकूत सरकारी क्षति क्या निंदनीय नहीं है? हमारे ही पैसों से बनी संपत्ति को हम ही नष्ट करें, यह कितनी दुःखद बात है। सरकारें आती-जाती रहेंगी, लेकिन चाहे जब लाखों-करोड़ों की संपत्ति नष्ट होते रहना तो सबके लिए कष्टप्रद होगी ही।

देर आयद, दुरुस्त आयद कहावत को चरितार्थ करते हुए भला हो उन कानूनविदों और  कुछ सरकारी नुमाइंदों का, जिनकी सक्रियता से हम ऐसे नुकसान की रोक-थाम हेतु ऐसा सकारात्मक कदम आगे बढ़ा पाए। इसे अभी हम शुरुआत ही मानें क्योंकि देश में हमारे मध्यप्रदेश को मिलाकर अभी मात्र छह ही ऐसे राज्य हैं जिन्होंने इन असंवैधानिक कार्यों के विरुद्ध यह विधेयक बनाया है। इस विधेयक के अन्य प्रदेशों में सुखद परिणाम भी दिखाई देने लगे हैं। मध्यप्रदेश की विधानसभा ने दिसंबर 2021 में इस विधेयक को पारित कर दिया है, जो ‘मध्यप्रदेश लोक एवं निजी संपत्ति को नुकसान का निवारण व नुकसानी की वसूली विधेयक 2021’ के नाम से जाना जाएगा।

इस कानून के अंतर्गत धरना, जुलूस, हड़ताल, बंद, दंगा या व्यक्तियों के समूह द्वारा पत्थरबाजी, आग लगाने या तोड़फोड़ से सरकारी या निजी संपत्ति को नुकसान पहुँचाने पर अब उनसे इसकी क्षतिपूर्ति कराई जाएगी। इसके अतिरिक्त उन लोगों को भी इस कानून के दायरे में लिया गया है जो उक्त कृत्य करने के लिए उकसाने या ऐसे कार्यों को करने हेतु प्रेरित करते हैं। इस विधेयक में नुकसान हुई राशि की दोगुनी रकम तक वसूले जाने का प्रावधान है। राशि के भुगतान न हो सकने की स्थिति में ऐसे लोगों की चल-अचल संपत्ति की नीलामी करने का अधिकार भी सरकार के पास होगा।

इस तरह हम कह सकते हैं कि अब उपरोक्त होने वाले नुकसान में रोक संभव हो सकेगी। ऐसे उन सभी कृत्यों में भी लगाम लगेगी, जिनसे निजी अथवा शासकीय संपत्तियों को नुकसान होता है।

अब बदले हुए परिवेश में अधिकार माँगने वालों के बदले-स्वर कितने प्रभावी होंगे? यह भी देखना होगा कि उक्त प्रदर्शनों, धरना विरोधी आंदोलनों का स्वरूप क्या होता है? विचारणीय बिंदु यह भी है कि अब निजी संस्थानों और सरकारी नुमाइंदों की सोच में भी बदलाव आता है अथवा नहीं। शांतिप्रिय आंदोलनों अथवा विरोध की गतिविधियों पर अब त्वरित निर्णय लेने हेतु ऊपर बैठे लोगों की नैतिक जवाबदेही बन गई है। वहीं जनता और भीड़ के संयम की पराकाष्ठा न चाहते हुए भी कुछ अप्रिय करने पर बाध्य न हो जाए, इसलिए अब दोनों पक्षों के मध्य संवादहीनता अथवा असहमति के बचाव हेतु एक समन्वय मंडल की भी आवश्यकता है जो उभय पक्षों के तथ्यों की जानकारी लेकर समन्वय स्थापित करा सके।

देश हमारा है। सरकार हमारी है और लोग भी अपने हैं। इसलिए जनता, प्रशासन और निजी संस्थानों को आपसी सौहार्दपूर्वक सबके अधिकारों और हक का ध्यान रखते हुए उक्त विधेयक के अनुरूप आगे बढ़ना चाहिए।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : vijaytiwari5@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #113 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 113 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

स्वेटर

माँ ने स्वेटर में बुना,  माँ का प्यारा प्यार।

याद दिलाता यह हमें ,माँ का प्यार दुलार।।

 

अँगीठी

देखो कितनी ठंड है, जली अँगीठी द्वार।

मिलजुल कर सब तापते,खुश होता परिवार।।

 

रजाई

ठंड -ठंड हम कर रहे,  नहीं रजाई  पास।

तापें जला अलाव तब, आ जाती है सांस।।

 

शाल

प्रियतम  जब भी ओढ़ता,मीत प्रीति का शाल।

सर्दी में गरमी मिले, जीवन भर हर हाल ।।

 

कंबल

कंबल वो तो बाँटते,करें पुण्य का काम।

मिल जाए वैकुंठ का,आशीषों से धाम।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 102 ☆ साल नया अब निखर रहा है….☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  नव वर्ष पर एक भावप्रवण  पूर्णिका साल नया अब निखर रहा है…. । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 102 ☆

☆ साल नया अब निखर रहा है….  ☆

बूढ़ा  दिसंबर   गुजर  रहा है

साल नया अब निखर रहा है

 

जवां जनवरी जोश में आई

मौसम  देखो  संवर  रहा  है

 

उम्र की माला का इक मोती

नये  साल  में   झर   रहा   है

 

कुछ खोया कुछ पाया हमने

जीवन   ऐसे   उतर  रहा   है

 

गुनगुनाती  है   धूप   सुहानी

तन कंप कंप यूँ ठिठुर रहा है

 

बिरहन पिय की राह ताकती

एक  आस  नव सहर रहा  है

 

जोश  होश   “संतोष”   रहेगा

वर्ष  बाइसवां   बिखर  रहा है

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 10 (26-30)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #10 (26-30) ॥ ☆

 

जैसे मिलती उदधि में गंगा की सब धार

मिलते साधन सिद्धि सब तुममें उसी प्रकार ॥ 26॥

 

जिसने धर तब ध्यान सब किये समर्षित कर्म

उन विराणियों को श्शरण देते तुम बन धर्म ॥ 27॥

 

है प्रत्यक्ष महिमा अमित, पृथ्वी की तव नाथ

वेद वचन की सत्यता तो, फिर क्या तब बात ?॥ 28॥

 

स्मरण मात्र तब पावन करता जन को देव

तब तो अन्य भी वृत्तियाँ देती फल स्वयमेव ॥ 29॥

 

उदधिरतन सूरज किरण, के तब तेज समान

मनवाणी से अगम है वर्णन तब गुणखान ॥ 30॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ ३१ डिसेंबर – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? ३१ डिसेंबर –  संपादकीय  ?  

.

गत वर्षाच्या

सरत्या क्षणांबरोबरच

विरून जाऊ दे

गूढ, उदास, मलिन धुके

कटु स्मृतींचे

येऊ दे सांगाती

सौरभ सुमधुर स्मृतींचा

जो सेतू होऊन राहील

भूत-भविष्याचा

 

आज २०२१ सालचा शेवटचा दिवस. वर्षभराचा मागोवा घेताना, अनेक बर्‍या वाईट आठवणी उसळून वर येताहेत. भविष्य काळात शांती मिळवायची असेल, तर दु:खद आठवणी विसरायला शिकायला हवं आणि सुखद आठवणी आठवता आठवता त्या जगन्नियंत्याचे आभार मानायला हवे, की त्याने असे सुखद, सुंदर क्षण आपल्या ओंजळीत टाकले.

माझ्या सुखद क्षणांबद्दल बोलायचं झालं, तर , ई-अभिव्यक्तीच्या संपादनाच्या निमित्ताने अनेक लिहिते हात माझ्या परिचयाचे झाले. लिहित्या हातांच्या धन्यांची ओळख झाली. हा अल्प परिचय अधीक दृढ होईल, मैत्रीत रूपांतरित होईल, अशी उमेद बाळगून नवं वर्षात पाऊल टाकायचे आहे. ई-अभिव्यक्तीवरून अधिकाधिक सकस साहित्य कसं देता येईल, याचा शोध, वाचक-लेखकांच्या सहाय्याने घ्यायचा आहे. सर्वांच्या सहाय्याने अधिकाधिक लेखक-वाचक मंडळी ई-अभिव्यक्तीशी जोडून घ्यायचीत. हे झाले, तर याचे श्रेयही आपणा सर्वांचे आहे. नवीन वर्षातला संकल्पच  म्हणा ना हा! आणि असे घडावे, म्हणून मीच मला बेस्ट लक देते आहे.

 ☆☆☆☆☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई – अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : इंटरनेट    

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ स्वागत नववर्षाचे ☆ सौ. स्वाती रामचंद्र कोरे

सौ. स्वाती रामचंद्र कोरे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ स्वागत नववर्षाचे ☆ सौ. स्वाती रामचंद्र कोरे ☆

(शेल काव्य रचना)

सान थोर सर्वजण

सर्वजण आतुरले..

 नववर्ष स्वागतास

 स्वागतास सज्ज झाले..१

 

भले बुरे जे जे झाले

झाले गेले विसरावे

नव आशा उमेदीने

उमेदीने सज्ज व्हावे..२

 

नव वर्षाची पहाट

पहाट हर्षानंदाची

फुले माळा रांगोळीने

रांगोळीने स्वागताची…३

 

मनी करूया संकल्प

संकल्प आनंददायी

पूर्ण होवो साऱ्या इच्छा

इच्छा व्हाव्या फलदायी..४

 

 नव वर्षात लाभावे

लाभावे सुख समृध्दी

दुःख सरूनिया होवो

होवो जीवन आनंदी..५

 

©  सौ. स्वाती रामचंद्र कोरे

भिवघाट.तालुका, खानापूर,जिल्हा सांगली

मो.9096818972

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 107 – माझी शाळा ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 107 – विजय साहित्य ?

☆ माझी शाळा  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

अभिनव माझी शाळा

अंतरात कोरलेली

यशोदीप गुणकारी

शैशवात गोंदलेली…१

 

कलासक्त गुरूजन

आधाराचा देती हात

ज्ञानदान करताना

देती संकटांना मात…२

 

शाळा आणि क्रिडांगण

जणू ज्ञानाची पंढरी

खेळ मैदानी खेळता

शाळा भरते अंतरी…३

 

शिका वाचा आणि खेळा

शाळेतील गुरू मंत्र

शाळा अभिनव माझी

जीवनाचे सोपे तंत्र…४

 

माय बाप झाली शाळा

तन मन  घडविले

योग व्यायाम संस्कार

अलंकार जडविले…५

 

बदलले रंग रूप

नाही बदलली शाळा

आशीर्वादी कानी नाद

ज्ञानवंत हो रे बाळा…६

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ इतिहासाचार्य – विश्वनाथ काशिनाथ राजवाडे ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

?  विविधा ?

☆ इतिहासाचार्य – विश्वनाथ काशिनाथ राजवाडे ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆ 

मराठी इतिहासाचे अत्यंत प्रतिभावान, व्यासंगी, दृढनिश्चयी, निष्ठावान इतिहास संशोधक म्हणजे विश्वनाथ काशिनाथ राजवाडे.  महाराष्ट्रातील इतिहास संशोधनाचे ते पहिले पुरस्कर्ते होत. एवढ्या प्रचंड मोठ्या कार्यामुळे ‘इतिहासाचार्य’ म्हणूनच ते ओळखले जातात. महाराष्ट्राच्या विचार विश्वात त्यांचा मोठा दरारा, दबदबा होता.

विविध विषयांवर त्यांनी संशोधन केले. इतिहास, गणित, मानववंशशास्त्र, विज्ञान, भौतिकशास्त्र, संस्कृत, भाषाशास्त्र अशा अनेक विषयांवर त्यांचे प्रभुत्व होते. इतिहास हा भूतकालीन समाजाचे सर्वांगीण समग्र जीवनदर्शन असते. त्यासाठी अस्सल कागदपत्रांच्या आधारे आपला इतिहास आपणच लिहिला पाहिजे ही त्यांची स्पष्ट विचारधारा होती. ऐतिहासिक साधनांच्या आणि प्राचीन साहित्याच्या शोधासाठी त्यांनी अखंड भ्रमंती केली. प्राचीन अवशेष आणि जुनी दप्तरे गोळा केली. त्यांच्या अभ्यासातून, संशोधनातून इतिहास लेखन केले. संशोधन, संकलन, संपादन आणि समीक्षा या इतिहासाच्या सर्व टप्प्यात ते शेवटपर्यंत कार्यरत होते. त्यांचे लिखाण नवीन विचारांचे खाद्य पुरवणारे आणि लोकविलक्षण निष्कर्षांचे असायचे. संशोधनाचा अफाट व्यासंग होता.

‘मराठ्यांच्या इतिहासाची साधने’ या ग्रंथाचे बावीस खंड प्रसिद्ध आहेत.ते मराठा साम्राज्याच्या इतिहास अभ्यासासाठी महत्त्वाचे साधन बनलेले आहेत. त्यातील काही खंडांना त्यांनी लिहिलेल्या प्रस्तावना संपादनापेक्षा जास्त गाजल्या.संशोधनात ज्ञानेश्वरीची जुनी प्रत मिळाल्यावर तिला शंभर पानांची प्रस्तावना लिहिली. ‘ज्ञानेश्वरीतील व्याकरण’ हा ग्रंथ लिहिला.

महाराष्ट्राचा वसाहत काळ’, ‘राधा माधव’, ‘विलास चंपू’, ‘महिकावतीची बखर’ इत्यादी लेखन त्यांच्या प्रतिभा संपन्नतेची साक्ष देते.  प्रसिद्ध वा अप्रसिद्ध कोणत्याच ग्रंथसंपदेवर त्यांनी हक्क राखून ठेवले नाहीत. ही त्यांची निस्पृहता अतुलनीय आहे. संपूर्ण वाङमय संशोधनात्मक असून त्यातून बुद्धिवादी व शास्त्रीय पद्धतीचे धडे दिले.

मराठी भाषा व मराठी वाङमय या विषयी त्यांची जिज्ञासुवृत्ती होती. मातृभाषेतच लिहिण्याचा बाणा त्यांनी आयुष्यभर पाळला. ते म्हणत, “ज्ञानार्जनाची हौस असेल तर माझी मराठी भाषा पाश्चिमात्य लोक शिकतील. माझ्या ग्रंथांची पूजा करतील. मी परकीय भाषेत माझा ग्रंथ लिहिणार नाही. मी कीर्तीला हपापलेलो नाही.”   

मराठीतून इतिहास, भाषाशास्त्र, व्युत्पत्ती, व्याकरण इत्यादी बहुविध विषयांवर व्यासंगी संशोधन आणि लेखन केले. भाषा ही संस्कृतीचे प्रतीक आणि भाषेतील शब्द इतिहासाचे विश्वसनीय साधन वाटे.मराठीचे विवेचनात्मक व्याकरण आणि ऐतिहासिक व्याकरण यांच्या त्यांनी व्याख्या केल्या. ऐतिहासिक व्याकरणाच्या सहाय्याने शब्दांची प्राकृत, संस्कृत, वेदकालीन, पूर्ववैदिक, पूर्वपूर्ववैदिक भाषेतील रूपांचे संशोधन केले. समाजशास्त्राचा ही अभ्यास केला.

स्वभाषेच्या, स्वदेशाच्या इतिहासातून स्वाभिमान जागृत करणे आणि सर्वसामान्यांना संघर्षास प्रवृत्त करणे हे त्यांनी आपल्या कामाचे ध्येय ठरवले होते. असे हे कीर्ती, संपत्ती, अधिकार यांचा हा मोह टाळून अखंड ज्ञानोपासना करणारे, प्रचंड व्यासंग असणारे प्रतिभाशाली व्यक्तिमत्व ३१ डिसेंबर १९२६ रोजी निवर्तले.

त्यांच्या स्मृतींना विनम्र अभिवादन.?

 

© सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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