हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 49 ☆ वैज्ञानिक कसौटी पर भी खरा है – सनातन धर्म ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  एक अत्यंत ज्ञानवर्धक, ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक आलेख  वैज्ञानिक कसौटी पर भी खरा है – सनातन धर्म”.)

☆ किसलय की कलम से # 49 ☆

☆ वैज्ञानिक कसौटी पर भी खरा है – सनातन धर्म ☆

आस्था और विश्वास सहित धर्म के पथ पर चलना इंसान अपना कर्त्तव्य मानता है। विश्व के हर धर्म में कुछ ऐसी अच्छाईयाँ होती हैं कि वे धर्मावलंबी किसी अन्य धर्म को अपनाने की सोचते भी नहीं है। इसका आशय यह कदापि नहीं है कि वे अन्य धर्मों के प्रति ईर्ष्या या द्वेष रखते हैं। अधिकांश लोग इतर धर्मों की गहन जानकारी रखते हैं, आदर और श्रद्धा का भाव भी रखते हैं। वैसे तो मेरी दृष्टि से धर्म संकीर्णता से परे होता है। यदि संकीर्णता को अपनाया जाए तो इसका मतलब यही होगा कि उस धर्म के लोग यह सब किसी स्वार्थवश ऐसा कर रहे हैं। भारतवर्ष सनातन-धर्म प्रधान राष्ट्र है। सनातन धर्म की विराटता एवं तरलता विश्वविख्यात है। ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ एवं ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ जैसे सनातन धर्म के ये वाक्य विश्वव्यापी हो गए हैं।

सनातन धर्म की सबसे बड़ी विशेषता है कि प्रत्येक धर्मावलंबी मूर्ति उपासक होता है। मूर्ति उपासक होने का आशय यही है कि लोग मूर्तियों के सामने बैठकर पूजा-अर्चना, भक्ति-साधना, उपवास-तपस्या आदि के माध्यम से मोक्ष के साथ-साथ ईश्वर की शरण भी चाहते हैं।

हमें अपने धर्म पर कभी शंका या अविश्वास नहीं करना चाहिए। हमारे महान ऋषि-मुनियों, तपस्वियों ने हजारों-हजार वर्ष पूर्व कठोर तप-साधना, चिंतन-मनन व एकाग्रता से परहितार्थ, समाजहितार्थ अथवा यूँ कहें कि विश्व कल्याणार्थ जो कुछ लिखा, जो दिशानिर्देश दिए, जिसे धर्म सम्मत बताया वह निर्मूल तो हो ही नहीं सकता। प्राचीन संतों व महापुरुषों द्वारा लिखे गए ग्रंथ आज भी विश्वकल्याण का ही पाठ पढ़ाते नजर आते हैं।

सनातन धर्म मात्र एक धर्म  नहीं है, एक विकसित विज्ञान भी है। सनातन धर्म अथवा प्रचलित भाषा में कहें तो हिंदू धर्म में इंगित अधिकांश बातें, विधियाँ, पर्व, तिथियाँ, खगोलीय घटनाएँ, ऋतु-परिवर्तन आदि का विज्ञानपरक विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। आज का हिंदू धर्मावलंबी किसी न किसी अज्ञानता वश धर्म की बातों को गंभीरता से नहीं लेता और मुसीबतों को स्वयमेव आमंत्रण देता रहता है।

यदि हम सनातन धर्म की वैज्ञानिकता पर आधारित दिनचर्या का पालन करें तो आपका नीरोग, निश्चिंत और संतुष्ट रहना अवश्यंभावी है। महायोगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण का जीवन दर्शन पढ़ें। उसे यथासंभव अपनाएँ। प्रथम पूज्य गणेश जी के विराट व्यक्तित्व को जानें और उनके द्वारा अपनाई गई बातों को अंगीकृत करने का प्रयास करें। देखिए फिर आप कैसे सुखी और शांत नहीं रहते।

एक छोटी सी बात यह भी है कि हम जब सच्चे मन से अपने ईश्वर की मूर्ति के समक्ष उनकी आराधना करते हैं तब  हमारे मन में इतर भाव नहीं आते। यदि आते हैं तब कहना होगा कि आप सच्चे मन से ईश्वर की पूजा-अर्चना नहीं कर रहे हैं।

यह भी अनुभव कीजिये कि कम से कम जितना भी समय आपने ईश्वर आराधना में लगाया, उतने समय तक आपका मस्तिष्क एकाग्र रहा। अर्थात शांत रहा। उसमें मात्र ईश्वर रचा-बसा रहा। अब वैज्ञानिक बात लीजिए कि साधारण रूप से मन के तनाव को सामान्य स्थिति में लाने के लिए जहाँ 20 घंटे भी लग सकते हैं वहीं ईश-आराधना के माध्यम से घड़ी दो घड़ी में ही आपका तनाव समाप्त हो जाता है। क्या यह विज्ञान नहीं है।

प्रातः स्नान करना, जल्दी शयन करना, सूर्योदयपूर्व जागना, ध्यान-योग करना, ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखना, संतोषी होना, परोपकार करना, सादगी और सद्भाव को अपनाना। क्या इन बातों को निराधार कहा जा सकता है? हिन्दुधर्म की कोई भी बात लो, कोई भी पक्ष लो, हर कहीं आपको मानवता के ही दर्शन होंगे।

सच्चा धर्म वही है जिसे धारण करने से हमें मनुष्यता पर गर्व हो। हम दूसरों के काम आएँ, हमारे कृत्यों से किसी अन्य को पीड़ा न हो, हमारे व्यवहार से लोगों के चेहरे प्रसन्नता से खिल उठें, हमारा नाम सुनते ही लोगों के मानस पटल पर सच्चरित्र व्यक्तित्व की छवि उभर आए। यही है सच्चे और श्रेष्ठ धर्म को मानने वाले इंसान की पहचान। आईए, हम भी ऐसे ही पथ पर चलना प्रारम्भ करें, जो कहीं न कहीं श्रेष्ठ धर्म की सार्थकता सिद्ध करे।

                       

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : vijaytiwari5@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 96 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 96 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

बिजली

कड़क कड़क कर चमकती, बिजली चारों ओर।

आसमान में छा रही, उड़े घटा घनघोर।।

 

बदरी

बदरी घन पर छा गई, मंगल है हर ओर

गरजे घन वर्षा हुई, नाच रहे है मोर।।

 

मेघ

मेघ गरजते दे रहे, प्यारा सा संदेश।

देखो साजन आ रहे, वापस अपने देश।।

 

चौमास

चौमासे की धूम है, हर दिन है त्यौहार।

संग सखी, भाई बहन, मिले पिया का प्यार।।

 

ताल

तपन बहुत ही बढ़ गई, सूखे नदिया ताल

वर्षा जाने कहां गई, बुरा फसल का  हाल।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ बड़ा साहित्यकार ☆ सुश्री अनीता श्रीवास्तव

सुश्री अनीता श्रीवास्तव

☆ व्यंग्य ☆ बड़ा साहित्यकार ☆ सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆

कल श्री घोंघा प्रसाद “कालपुरी” जी का फोन आया . बोले – घर पर गोष्ठी है . मैंने अभिवादन किया मगर गोष्ठी की बात पर कुछ नहीं कहा . मेरी उदासीनता ने उन्हें गोष्ठी के बारे में कुछ अधिक बताने को प्रेरित किया . वे गला ठीक करते हुए बोले-  सभी बड़े साहित्यकार गोष्ठी में आ रहे हैं . गोष्ठी का आयोजन अमुक के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में रखा गया है l आप आएँगीं तो अच्छा होगा . मैं सोचने लगी इस शहर में बड़े साहित्यकार कौन हैं? व्यक्तिगत मेल- मिलाप में  तो कालपुरी जी सभी को छोटा बता चुके हैं – फलां की भाषा क्लिष्ट है, अमुक की व्याकरण ठीक नहीं या इनको तो सिवाय लफ्फाजी के कुछ सूझता नहीं . फिर ये बड़े साहित्य कार  हैं कौन  !  मुझे संकोच हुआ- इतने बड़े साहित्यकारों के सामने मैं क्या मुँह खोलूँगी भला  !

     मैं नियत दिन व समय पर गोष्ठी में सम्मिलित होने घर से निकली लेकिन जाम में फंसने के कारण विलम्ब से पहुंची. मैंने देखा काव्य पाठ चल रहा है. अभिवादन करके बैठ गई. मेरा नाम बाद में था, जान कर सुकून मिला. मेरी आँखें वहाँ बड़े साहित्यकार को तलाश रहीं थी. सभी पहचाने चेहरे थे.

गोष्ठी शबाब पर पहुँचने के साथ ही वाह वाही जोर पकड़ती जा रही थी. मेरा मन खोज में ही लगा था. निदान होते न देख मैंने पूछ ही लिया , “आप में से बड़े साहित्यकार कौन हैं  ?”  कहते हुए मेरी नजर जिन पर टिकी थी वे तनिक लजा गए और बोले-   मैं तो छोटा सा कलम का सिपाही हूँ.

  मेरी नज़र दूसरे पर शिफ्ट हो गई. वे बोले-  जी मैं तो वाणी का मामूली सा साधक हूँ.

तीसरे- मैं तो बस थोड़ा बहुत ही…आप सबके आशीर्वाद से… हें हें हें.

इसी प्रकार सभी ने अपने आप को छोटा बताया. मैं हैरान. जब सभी छोटे हैं तो बड़ा साहित्यकार कौन है! मेरी हालत भांप कर कालपुरी जी खड़े हुए और अपने ठीक सामने विराजित कवि से बोले-  जब कोई पूछे कि बड़ा साहित्य कार कौन है तो आपको अपने बारे में कुछ नहीं कहना चाहिए. आपको अपने बगल में बैठे साहित्यकार को बड़ा बताना चाहिए, भले ही आपका मन साथ न दे. बदले में वह भी आपको बड़ा बताएगा. साहित्यकार इसी तरह बड़ा बनता है. मेरा नादान मन प्रफुल्लित हो उठा.  मैं तत्काल समझ गई बड़ा साहित्यकार कौन होता है. जैसा मेरी शंका का समाधान हुआ, ठाकुर जी करें, सबका हो.

© सुश्री अनीता श्रीवास्तव

मऊचुंगी टीकमगढ़ म प्र

मो-  7879474230

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 86 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 86 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

(प्राणायाम, चकोरी, हरियाली, हिलकोर, प्रसून)

नमस्कार कर सूर्य का, करिए प्राणायाम

नित होगा जब योग तब, तन-मन में आराम

 

प्रेम चकोरी-सा करें, जैसे चाँद-चकोर

इक टक ही वो ताकती, किये बिना ही शोर

 

रितु पावस मन भावनी, बढ़ती जिसमें प्रीत

सब के मन को मोहते, हरियाली के गीत

 

जब भी देखा श्याम ने, राधा भाव विभोर

प्रेम बरसता नयन से, राधा मन हिलकोर

 

देख प्रेयसी सामने, मन में खिले प्रसून

जब आँखे दो-चार हों, खुशियां होतीं दून

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (71-75)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (71-75) ॥ ☆

 

प्रदक्षिणा करके वेदिका की, गुरू दंपती, धेनु की वत्स की भी

समस्त कल्याण की कामना रख, प्रस्थान कर भूप ने यात्रा की ॥ 71॥

 

अबाध गति सुख से मार्ग चलते रथ की मधुर कर्णप्रिय ध्वनि

वह वीर श्शालीन व्रती सपत्नी प्रसन्न था पूर्ण मनोरथों से ॥ 72॥

 

जो पुत्र की प्राप्ति हित व्रत नियम से,कृशकाय था क्षीण नव चंद्रमा सा

उत्सुक प्रजा नेत्र आतृप्ति लखते उसे प्रतिपदा चंद्र के सम सुखदप्त ॥ 73॥

 

आ निज नगर में श्री वृद्धि करते, ऊँची उड़ाते ध्वजा – पताका

फिर विष्णु की भॉति पूजित जनों से नृप ने धराभार शासन सम्हाला ॥ 74॥

 

चंदासम सुखदायी गंगा सम तेजस्वी और स्कन्द के समान बलशाली गुण में ।

नरपति कुलभूषण दिकपालों सम ते जवान पुत्र जन्म हेतु खुशी छायी जन – जन में ॥75।।

 

द्धितीय सर्ग समाप्त

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ अभंग .. विठ्ठलाचे रुप ☆ श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर

श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ अभंग .. विठ्ठलाचे रुप ☆ श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर ☆ 

 

सुंदर सावळा लेकूरवाळा

  राहतो पंढरीसी विठराया।।ध्रु.।।

 

विठ्ठलाचे रुप

साजिरे गोजिरे

सुंदर ते ध्यान

 उभे सदा।।१।।

          सुवर्ण रत्नांचा

           मुगुट तो छान

            तुझिया शिरी

                साज चढे।।२।।

शेंदरी हा छान

अष्टगंधी टिळा

तुझिया कपाळा

   शोभिवंत।।३।।

           हऱ्या सुगंधित

         तुळशीच्या माळा

          तुझ्याच रे कंठी

             शोभे छान।।४।।

कटी हेमपट्टी

कटेवरी कर

कासे पितांबर

 शोभतसे।।५।।

          देखोनिया डोळा

          पाऊले ही तुझी

          शमे आस माझी

                पांडुरंगा।।६।।

ठेवियेला माथा

तुझिया पाऊली

देई तू साऊली

   निरंतर।।७।।

         जमविलास तू

         भक्तांचा हा मेळा

          लेकूरवाळा तू

               म्हणवीसी।।८।।

जनाईच्या साठी

जाशी तू धावूनी

चोखयाचा मळा

   फुलवीसी।।९।।

          गुण तुझे किती

          गाऊ मी अंनता

          प्रसाद दे आता

                मम करी।।१०।।

© श्रीमती अनिता जयंत खाडीलकर

सह्याद्री अपार्टमेंट, खाडीलकर गल्ली, बालगंधर्व नाट्यमंदिर समोर, ब्राह्मणपुरी, मिरज,जि. सांगली

मो 9689896341

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 87 – स्वीकार. . . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 87 – विजय साहित्य  ✒ स्वीकार !✒  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

अपघातानं

आलेलं

एकुलत्या 

एक मुलाचं

अपंगत्व

तिनं स्वीकारलं

पचवलं

पण

अपघातानं

आलेलं वैधव्य

समाज स्वीकारेल ?

तिला जगू देईल

उजळ माथ्याने ?

तिच्या कुटुंबासाठी . . . !

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ बुरी नजरवाले तेरा मुॅंह काला ☆ श्री अरविंद लिमये

श्री अरविंद लिमये

?विविधा ?

☆ बुरी नजरवाले तेरा मुह काला ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

मुल़-मुली बाहेरुन खेळून तिन्हीसांजेला घरी परत आली की त्यांची किंवा घरातल्या तान्ह्या बाळांचीही पूर्वी मीठ-मोहऱ्या ओवाळून ‘दृष्ट’ काढली जायची. परगावाहून घरी आलेल्या मुली-सुनांना उंबऱ्यातच थांबवून त्यांच्या पायांवर पाणी घालून,त्यांच्यावरुन भाकरतुकडा ओवाळून टाकला जायचा आणि मगच त्यांना घरात घेतलं जायचं. बाहेरची इडापिडा बाहेरच रहावी,ती त्यांच्यासोबत आंत येऊ नये,त्यांचा त्यांना त्रास होऊ नये ही भावना असलेल्या आणि रुढींनी शिक्कामोर्तब केलेल्या या परंपरा..! जुनं ते सगळं निरर्थक, त्याज्य, अवैज्ञानिक,तथ्यहीन म्हणून हे बऱ्याच प्रमाणात आता कालबाह्य झालेलं आहे.तरीही बराच काळ उलटून गेल्यावर मानसशास्त्राच्या अभ्यासांतर्गत झालेल्या विविध संशोधनातून Negative आणि Positive waves चे आपल्या आरोग्यावर,स्वास्थ्यावर होणारे परिणाम ठळकपणे अधोरेखित होऊन स्विकारले गेल्यानंतर मात्र आपल्या भारतीय संस्कृतीतल्या वर उल्लेख केलेल्या आणि आज निरर्थक वाटणाऱ्या प्रथा-परंपरांमागचं विज्ञान नव्याने जाणवतं आणि त्या त्या प्रथा तथ्यहीन नसल्याचं आपल्या लक्षात येतं.

या ‘दृष्ट’ काढण्याच्या संकल्पनेतील ‘दृष्ट’ या शब्दाचा ‘दृष्टी’ याअर्थी थेट संबंध ‘वाईट नजरे’शीच आहे.वाईट नजरेतली  पूर्वी गृहित धरली गेलेली इडा-पिडा म्हणजेच आजच्या विज्ञानाचं समर्थन मिळालेल्या ‘Negative-waves’च. ‘बुरी नजरवाले तेरा मुॅंह काला’ या उक्तीमधे वाईट नजरेचा तिरस्कार ओतप्रोत भरलेला आहे तो यासाठीच.मग या Negative waves घराबाहेर काढून टाकण्यासाठी मीठ-मोहऱ्याच का? यामागेही कांही शास्त्र (म्हणजेच विज्ञान) असणारच. आज अशा कोडी बनून राहिलेल्या आपल्या संस्कृतीतील अनेक परंपरांमागचं विज्ञान जाणून घेण्याचं औत्सुक्यच त्या कोड्या़मधे लपलेलं रहस्य शोधायला आपल्याला उद्युक्त करणारं ठरेल.

इतर चार ज्ञानेंद्रियांच्या तुलनेत आपल्या पंचज्ञानेंद्रियांमधील ‘डोळे’ या ज्ञानेन्द्रियाची खास वैशिष्ट्ये आहेत.डोळ्यांचं वर्णन करण्यासाठी वापरल्या जाणाऱ्या विशेषणांचे असंख्य अलंकार इतर चार ज्ञानेंद्रियांच्या वाट्याला तितक्या प्रमाणात येत नाहीत म्हणून मला ‘डोळे’ वैशिष्टयपूर्ण वाटतात.बघा ना.डोळ्यांसाठी आपण त्यातील भावछटांनुसार किती विविध विशेषणे वापरतो.

डोळे टपोरे असतात.हसरे असतात. डोळे बोलके असतात. खोडकर असतात. तेजस्वी असतात किंवा विझलेले सुध्दा.ते उत्सुक असतात. निराशही कधीकधी. प्रेमळ असतात,तसेच जुलमी न् अधाशीही..!

खरंतर डोळे हे डोळेच असतात.ही जी असंख्य विशेषणं आपण डोळ्यांचे वर्णन करायला म्हणून वापरतो त्यांचे खरे हकदार डोळे नसतातच. खरी हकदार असते त्या डोळ्यांमधली नजर..! डोळे हे या नजरांचे वाहक असतात फक्त.मनातल्या या विविध भावना नि:शब्दपणे तरीही अचूक व्यक्त करत असते ती नजरच.लटका राग असो वा टोकाचा संताप.समाधान,आनंद असो किंवा दुःख, वेदना,घुसमट असो वेळोवेळी या सगळ्या भावना नजरेतून आधी डोळ्यांत उमटतात,मग चेहर्‍यावर पसरतात आणि नंतर शब्दांतून व्यक्त होतात.भावनेच्या तीव्रतेमुळे क्वचित कधी शब्द मुकेच राहिले तरीही नजरेतून व्यक्त होणाऱ्या या भावना त्यांच्या कमी-अधिक तीव्रतेनुसार पाहणाऱ्यापर्यंत           ‘शब्देविण संवाद ‘ साधत अचूक पोचतातच.

या भावना तशा हानीकारक नसतात. याला अपवाद अर्थातच अधाशी डोळ्यांचा. नजरेतल्या अधाशीपणाचा. वरवर विचार केला तर अधाशीपणातून पोटातली भूक व्यक्त होते असा समज आहे. पण मला वाटतं की भुकेलेपण आणि अधाशीपण यात जमीन-अस्मानाचा फरक आहे. कारण भुकेल्या नजरेत एक प्रकारची अगतिकता असते. व्याकुळता असते. अधाशी नजरेत याचा लवलेशही नसतो. असते फक्त अतृप्ती. अधाशी पणात काठोकाठ भरलेला असतो तो फक्त हव्यास. तिथं ‘आणखी हवं’ ला अंतच नसतो.

अधाशीपणातली भूक अन्नाचीही असते पण फक्त अन्नाचीच नसते.भूक अनेक प्रकारची असू शकते. पैशाची असते, यशाची असते, प्रतिष्ठेची असते, सौंदर्याची असते किंवा वासनेने अंध झालेल्या मनातल्या उपभोगांचीही असते..!

हव्यास आणि अतृप्ती हे अशा अधाशीपणाच्या विकृतीतले समान धागे. अधाशीपण खाण्याच्या बाबतीतलं असेल तर कितीही खाल्लं, पोट भरलं तरी तृप्ती नसतेच. असते अतृप्तीच.तसंच भूक पैशाची असेल तर कितीही पैसा मिळाला तरी समाधान नसते. आपल्यापेक्षा अधिक पैसा मिळणाऱ्यांबद्दल हेवाच असतो मनात.हेच कोणत्याही प्रकारच्या भूकेबाबतचं समान वास्तवच.

अधाशीपणा लालसेने लडबडलेला असतो. तिथे अतृप्तीत भिजलेली वखवख असते फक्त ! हा हव्यास, ही  वखवख अधाशी डोळ्यांमधे ठासून भरलेली असते.ती लपूच शकत नाही. ही अधाशी डोळ्यांमधली नजरच ‘दृष्ट’ लावणारी असते. हे दृष्ट लागणं म्हणजेच इडा-पिडांच्या काळ्या सावल्या..! अधाशी डोळ्यांचं हे लागटपण म्हणजे Negative waves चे वहानच.आणि ‘दृष्ट काढणं’ हा त्यावरचा मानसिक निश्चिंतता देणारा बुऱ्या नजरेवरचा उतारा..!!

 

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अश्रू …भाग 1 ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

? जीवनरंग ❤️

☆ अश्रू …भाग 1☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे 

रखमाला काही कळत नव्हते. रोज गप्प गप्प असणारा पप्या आज बाहेरून आला तो खुशीत दिसत होता. नेहमीच स्वतःच्या विचारात गुरफटलेला पप्या आज मात्र चेहऱ्यावर वेगळ्याच प्रकारचे समाधान दाखवत घरात फिरत होता. नक्कीच काहीतरी विशेष घडले असणार त्याशिवाय पप्या एवढा मोकळा वागला नसता आणि काही वेळाने रखमाच्या कानावर बातमी आली ‘पप्याचा बाप मेला’.

पप्या रखमाचा पहिल्या नवऱ्यापासून म्हणजेच म्हादबाकडून  झालेला मुलगा. गावाच्या वेशीबाहेर म्हादबा आणि रखमाचे झोपडे होते. तीन ते चार जण जेमतेम झोपू शकतील एवढीच काय ती झोपडीची जागा. म्हादबाचे रखमावर खूप प्रेम. दिवसभर गावात जाऊन काम करून म्हादबा संध्याकाळी घरी येऊन रखमा बरोबर सुखाचे दोन घास खात होता. रखमाही म्हादबाला जे काही आवडते ते बनवून खायला घालत होती. सुखाने चाललेल्या त्यांच्या संसाराला पप्याच्या रूपाने पालवी फुटली. दोघेही पप्याला खूप शिकवून त्याला मोठे करण्याची स्वप्ने बघत असताना त्यांच्या संसाराला कोणाची तरी दृष्ट लागली आणि म्हादबाचा सर्पदंशाने मृत्यू झाला. रखमाला दोन वर्ष्याच्या पप्याला मोठा करण्यासाठी तिच्या मामाच्या ओळखीच्या सदू बरोबर दुसरे लग्न करावे  लागले.

सदू रखमापेक्षा पाच वर्षाने मोठा तर होताच पण काहीही काम करत नव्हता. दिवसभर दारू ढोसून कधी घरातच नाहीतर दारूच्या अड्ड्याच्या जवळच कुठेतरी पडलेला असायचा. रात्रीच्या जेवणाच्या वेळेला मात्र तो घरात जेवायला यायचा आणि रखमाने काही बनविले नसेल तर रखमाला मारहाणही करायचा. कसेबसे पप्याला सांभाळून रखमा गावात जाऊन दोन चार उणीधुणी करून घर चालवत होती. रात्री सदू आला की काही ना काही कारणाने आरडाओरडा करून रखमाला मारहाण हे रोजचेच झाले होते. एक वर्षा नंतर छोटीचा जन्म झाला. रखमाला आता दोन जीवांचा सांभाळ करावयास लागत होता. झोपडीच्या मागच्या बाजूला एक पडीक जागा होती तिथे रखमानी पालेभाज्या लावून, त्यांची मशागत करून, त्या गावात जाऊन, विकून त्याच्यावर गुजराण करावयास सुरवात केली. सदूचा रोजचा त्रास चालूच होता. रखमा कडे दारूसाठी पैशाची मागणी आणि त्यासाठी तिला मारहाण हे रोजचेच झाले होते. पप्या लहान होता पण त्याच्या डोळ्यात सदूबद्दलचा राग दिसत होता. लाल झालेले डोळे मोठे करून स्वतःचेच ओठ चावण्यापलीकडे त्याला काहीही करता येत नसे. 

पप्या जसा मोठा होत गेला तसा घुम्या होत गेला. शाळा नाही, दिवसभर घरात नाहीतर रखमाच्या मागे असायचा. रखमा पालेभाजी विकायला गावात गेली की छोटीला सांभाळायची जबाबदारी पप्यावर येत असे. रोज रात्री सदू आला की रखमाला मारहाण ही ठरलेलीच असायची तेंव्हा  छोटीला सांभाळायचे कामही पप्याच करायचा. तिला आपल्या मांडीवर थोपटून झोपवायचे हे त्याचे काम आता नित्यच झाले होते. छोटीवर त्याचे विलक्षण प्रेम होते. दिवसभर तिला तो मायेने सांभाळत तिची तो खूप काळजी घेत असे. पप्याला समज यायला लागली तसा त्याचा घुमेपणा वाढला. कोणाशीही न बोलता तो स्वतःशीच मग्न असायचा. त्याला मित्र तर नव्हतेच पण तो रखमाशीही फारसा बोलायचा नाही. बापाचे, हो. पप्याला जेंव्हा पासून समजायला लागले तेंव्हापासून सदूला तो बाप ह्या नावानेच संबोधित होता. तर बापाचे हे रोज रात्रीचे नाटक बघून बापाचा त्याला खूप राग यायचा. रखमाला बापाच्या त्रासातून बाहेर काढावयासे त्याला नेहमीच वाटत असे पण त्याचे लहान वय आणि कमजोर शरीर ह्यामुळे त्याची कुचंबना होत असे. लहान असल्यापासून पप्याचे डोळे मात्र नेहमीच कोरडे असायचे. त्याच्या डोळ्यात रखमाला कधी अश्रू दिसले नाहीत, की अश्रू डोळ्यातून बाहेर पडे पर्यंत सुकून जायचे हे काही रखमाला कळले नाही. 

वर्षांमागून वर्षे जात होती. शाळेत न जाता परिस्थिती जे शिकवत होती ते पप्या शिकत होता. घरातल्या पाळीव कुत्र्यांवर आपला जीव ओवाळून टाकत होता. भटक्या गुरांना खायला घालत होता. माणसांपासून दूर राहून मुक्या प्राण्यांशी मूकपणे संवाद साधत होता. त्यांच्यामध्येच राहून प्रेमाने त्यांना आपलेसे करत होता पण त्याचा घुमेपणा, एककेंद्री राहणे आणि अबोलपणा काही गेला नाही. 

क्रमशः …..

© श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

ठाणे

मोबा. ९८९२९५७००५ 

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ मामाच्या गावाला जाऊया….भाग 5 ☆ श्रीमती सुधा भोगले

श्रीमती सुधा भोगले

? मनमंजुषेतून ?

☆ मामाच्या गावाला जाऊया….भाग 5 ☆ श्रीमती सुधा भोगले ☆ 

(१९५६-१९७० च्या या आठवणी)

परिमल आनंद देत राही? 

काही वेळच्या सुट्टीला पावसाळा सुरु होई. कोकणातला तो मुसळधार पाउस वेड्यासारखा बरसतच राही, हे चक्र दिवस रात्र चाले. आणि सात-सात दिवस थांबण्याचे नाव नसे. त्या पावसाला सातेरे म्हणत. पावसाच्या आवाजाला विशेषण कितीतरी आहेत, एकंदर पाऊस मनाला सुखवून जातो, त्याविना जीवन अशक्यच नाही का? 

पावसाळ्यात रानभाज्या उगवत भारम्बीची भाजी, टाकळा, मुद्दाम पेरलेला वाल, त्याच्या वितभर उगवलेल्या भाजीचे केलेले बिरडं सगळं कसं रुचकर लागे.

शेतात भात आता वितभर वाढू लागे. उन्हाळ्यात केलेली नांगरणी मग पेरणी थोडी रोपे तयार झाली की लावणी होई ‘गुडघा, गुडघा’ चिखलात, ‘गुडघा चिखलात’, भाताची पेरणी करू या की ग, करू या की ग! अशी भाताची पेरणी संपन्न होई. 

हळूहळू आषाढ संपे श्रावण येई उन पावसाचा खेळ चाले. डोंगरीच्या बाजूने इंद्रधनू दिसू लागे. मग गणपतीचे जुलैत महिन्यात सुरु केलेले काम वेग घेई. 

बाजूच्या माजघरात उंचीवर हारीने शाडूच्या मूर्ती विराजत, याची तयारी पावसाळ्या आधीच सुरु होई आजोबा मामा मुंबईला जाऊन शाडू माती रंग कुंचले आणि बरेच साहित्य घेऊन येत. श्रावणापर्यंत मूर्ती वाळल्या की रंगकाम सुरु होई. एका वर्षी मोठे झाल्यावर तेथे होतो घेतला हातात कुंचला मामाला विचारून गणपती रंगवायला बसले. तो आनंद अवर्णनीय होता! 

त्यावर्षी विष्णूमामाने गजेंद्र मोक्षाचा देखावा फारच सुंदर केला होता, भगवान विष्णूला खरोखरच लहानसं उपरणंही घातले होते, खूपच सुंदर कलाकृती झाली. आता सारखे पटापट फोटो काढता येत नव्हते एवढेच!

गणपतीच्या डोळ्याची आखणी करणे, हे विशेष कलात्मक काम असे, त्यान मोठा मामा तरबेज होता तो डोळ्यांचे रंगकाम करी. मग चतुर्थीचे आदल्या दिवशी पासून ज्यांनी नोंदणी केली आहे ते मूर्ती न्यायला येत. तो एक आनंदमय व्यापार होता. कलाकृतीचे कारागीर आणि गणेशभक्त यांच्यातला अलौकिक ऋणानुबंध! वर्षानुवर्ष येणारे अनेकजण!

मंगलमूर्तीची पूजा होई गौरीचे आगमन मग पितृपंधरवडा असे करत दसरा दिवाळीचे दिवस जवळ येत. शेतात भातं निसवायला येत (म्हणजे भाताचा दाणा तयार होणं) आणि मग कापणीचा हंगाम! खळ्यामध्ये कापलेले भाताचे भारे येऊन पडत मधे बसलेल्या खांबाला बैल जुंपत मग मळणीचे काम होई त्यावेळी आता सारखी मळणी यंत्र नव्हती बैलाने तुडवून भातं वेगळे होई पोती भरून कोठारात ठेवली जात. भात काढल्यावर वालाची काही भागात पेरणी होई.   

शेताची कामे झाली की दिवाळी झाल्यवर गावदेवातांच्या जत्रा सुरु होत. आजोबा पूर्वीपासून या जत्रात मिठाईचे दुकान थाटत असत. बेड्याच्या (गोठा) बाहेर भट्ट्या कायम स्वरूपी केलेल्या होत्या. मग मुंबईला जाऊन मावा (खवा) काजू व मिठाईला लागणारे सामान खरेदी होई. भट्ट्यावर कढया चढत, बत्तासे, मावा बर्फी, पाकवलेले काजू, भेंड, बदामी बर्फी, साखर फुटणे, दुधी हलवा, इत्यादी पदार्थ करत भेंड करण्यासाठी पक्का गोळीबंद, साखर होईल इतका पाक करत. मग त्या पाकाची थोडा थंड झाल्यावर लांब वळी करत. आणि ती एका खांबाला बांधलेल्या खिळ्याला अडकवून त्याला लांब लांब ओढत. पुन्हा वळकटी पुन्हा ओढणे, अस करत पांढरट रंग आल्यावर भेडांना जसे विळखे दिसतात ते पडल्यावर छोट्या वळकट्यांकरून भेंडे कापून लहान लहान आकारात तयार होत. 

एके दिवशी, मी त्या सुमारास तेथे होते. तशी लहान पोरंच! त्या वेळी वीज नव्हती कंदील, बत्ती, किंवा भुते असत. हे भुते म्हणजे जाड बाटलीला, वर वात ओवता येईल असे पत्र्याचे तिकाटणे आणि बाटलीत रौकेल वर जोत पेटवायची की उजेड पडे. त्या दिवशी आजोबा बर्फी कढईत ढवळत होते.  मला म्हणाले, “बाय, जरा वर उचलून भूत्याचा उजेड दाखव!” मी भूत्या हातात घेऊन तसे केले पण, तेवढ्यात खाली भट्टीला वैलाची तीन गोल गोल भोके होती त्यात पाय अडखळला, भुत्या हेंदकाळला व थोडेसे रॉकेल नकळत बर्फीत पडले असावे. 

—–क्रमश: 

© श्रीमती सुधा भोगले 

९७६४५३९३४९ / ९३०९८९८९१९

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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