English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 56 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 56 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 56) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 56 ☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

परिंदे  शुक्रगुजार  हैं

पतझड़ के भी , दोस्तों

तिनके कहाँ  से  लाते,

अगर सदा, बहार रहती…

 

Birds are grateful to

the autumn too,

Where else from would

they bring straws,

if spring remained

there  forever…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

दिखाई कब दिया करते हैं

बुनियाद के पत्थर…

जमीं में जो दब गए, इमारत

उन्हीं पे तो क़ायम है…

 

When have the foundation

stones ever been seen…

Buried in the ground, they

only hold the building…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

नए  रिश्ते  बने  ना  बनें

इसका मलाल मत करना

कहीं पुराने  टूट ना जाएँ

बस इसका ख़्याल रखना…

 

Don’t regret whether new

relations are made or not

Just  make  sure  that

old ones aren’t broken!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

होगी तुमको लाख

समझ  इश्क़  की,

हमारी  इश्क़  में

नादानी ही अच्छी…

 

You may have a deep

understanding of love,

But my imprudence in

love, only is all fine..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 57 ☆ जबलपुर में शुभ प्रभात ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा  रचित  भावप्रवण रचना ‘जबलपुर में शुभ प्रभात । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 57 ☆ 

☆ जबलपुर में शुभ प्रभात ☆ 

*

रेवा जल में चमकतीं, रवि-किरणें हँस प्रात।

कहतीं गौरीघाट से, शुभ हो तुम्हें प्रभात।।१।।

*

सिद्धघाट पर तप करें, ध्यान लगाकर संत।

शुभप्रभात कर सूर्य ने, कहा साधना-तंत।।२।।

*

खारी घाट करा रहा, भवसागर से पार।

सुप्रभात परमात्म से, आत्मा कहे पुकार।।३।

*

साबुन बिना नहाइए, करें नर्मदा साफ़।

कचरा करना पाप है, मैया करें न माफ़।।४।।

*

मिलें लम्हेटा घाट में, अनगिन शिला-प्रकार।

देख, समझ पढ़िये विगत, आ आगत के द्वार।।५।।

*

है तिलवारा घाट पर, एक्वाडक्ट निहार।

नदी-पाट चीरे नहर, सेतु कराए पार।।६।।

*

शंकर उमा गणेश सँग, पवनपुत्र हनुमान।

देख न झुकना भूलना, हाथ जोड़ मति मान।।७।।

*

पोहा-गरम जलेबियाँ, दूध मलाईदार।

सुप्रभात कह खाइए, कवि हो साझीदार।।८।।

*

धुआँधार-सौन्दर्य को, देखें भाव-विभोर।

सावधान रहिए सतत, फिसल कटे भव-डोर।।९।।

*

गौरीशंकर पूजिए, चौंसठ योगिन सँग।

भोग-योग संयोग ने, कभी बिखेरे रंग।।१०।।

*

नौकायन कर देखिये, संगमरमरी रूप।

शिखर भुज भरे नदी को, है सौन्दर्य अनूप।११।।

*

बहुरंगी चट्टान में, हैं अगणित आकार।

भूलभुलैयाँ भुला दे, कहाँ गई जलधार?।१२।।

*

बंदरकूदनी देख हो, लघुता की अनुभूति।

जब गहराई हो अधिक, करिए शांति प्रतीति।।१३।।

*

कमल, मगर, गज, शेर भी, नहीं रहे अब शेष।

ध्वंस कर रहा है मनुज, सचमुच शोक अशेष।।१४।।

*

मदनमहल अवलोकिए, गा बम्बुलिया आप।

थके? करें विश्राम चल, सुख जाए मन-व्याप।।१५।।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #86 ☆ भोजपुरी कविता – इहै प्लास्टिक सबके मारी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  एक भावप्रवण रचना  “# इहै प्लास्टिक सबके मारी#। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 86 ☆ # इहै प्लास्टिक सबके मारी# ☆

आज का मानव समाज सुविधा भोगी हो चला है साधन और सुविधाओं के चक्कर में मानव समाज मौत के मुहाने पर खड़ा है, गाहे-बगाहे न सड़ने वाले बजबजाते प्लास्टिक कचरे के तथा उसकी दुर्गंध से हर व्यक्ति परिचित हैं, ऐसे में आने वाले भयावह खतरे से सावधान रहने का संदेश यह भोजपुरी रचना देती है। उम्मीद है सभी इस भोजपुरी भाषा की रचना को आत्मसात कर समसामयिक रचना का संदेश लोकहित में प्रसारित करेंगे। – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

पोलिएथ्रिन* के आयल जमाना,

साधन आ सुविधा के खुलल खजाना।

पोलीथीन प्लास्टिक नाम बा एकर,

सड़वले से कचरा बड़े नाही जेकर।

साधन आ सुविधा इ केतना बनवलस,

केतना गिनाई नाम बहुतै कमइलस।

कपड़ा अ लत्ता दवाई मिठाई,

गाड़ी मोटर टीवी अ गद्दा रजाई

।।1।।इहै प्लास्टिक एकदिन।।

प्लास्टिक क पत्तल अ प्लास्टिक क दोना,

वोही क ओढ़ना वोही क बिछौना।

वो से छुटल नाहीं कौनो कोना।

प्लस्टिक से सुविधा मिलै ढ़ेर सारी,

मिलै वाले दुख से ना केहू उबारी।

।।इहै प्लस्टिक एक दिन सबके मारी।।2।।

 

इ बाताबरन में प्रदूषण बढ़ाई,

न कौनों बिधि ओकर कचरा ओराइ।

ऐसी खातिर आदत तूं आपन सुधारा,

दूसर विकल्प खोजा कइला किनारा।

समझा अ बूझा सब कर जीवन संवारा,

नाहीं त कवनो दिन बनबा बेचारा।

देखा इ सुरसा जस मुंह बवलस भारी,

धरती हुलिया कबौ ई बिगारी।

।।इहै प्लास्टिक एक दिन सबके मारी।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

1–09–21

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 3 (6-10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 3 (6-10) ॥ ☆

जो गर्भिणी रानी चाहती थी वही था प्रस्तुत उपभोग के हित

न कुछ भी अप्राप्त था धनुर्धर को, था स्वर्ग सुख की सुलभ्य निश्चित ॥ 6॥

 

कर पार प्रारंभिक गर्भ के दुख, हुई सृदक्षिणा मनोरमा यों

बसंत में होती है सुशोभित हरी भरी हो कोई लता ज्यों ॥ 7॥

 

दिन बीतते पा विकास नी लाभ – मुख हो गये दो बड़े पयोधर

ज्यों कि सुविकसित कमल कली शिखर पर आ बैठते है स्वतः भ्रमरवर ॥ 8॥

 

सुसिंधुवसना सरत्नगर्भा, सभी तथा सरस्वती सी पावन

दिलीप ने गर्भिणी में देखा निहित अतुलतेज परम सुहावन ॥ 9॥

 

सुदक्षिणा के सनेह में सन पराक्रमार्जित दिगन्त श्री सम –

विश्वास से पुत्र के जन्म का ही, कोई भी उत्सव किये नही कम ॥ 10॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ शिक्षक दिन विशेष – गुरूदक्षिणा ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? कवितेचा उत्सव ?

☆ शिक्षक दिन विशेष – गुरूदक्षिणा ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

मातीच्या या गोळ्याला तुम्ही दिला आकार

आज असे सत्कार ,गुरूजी,आज असे सत्कार .

 

ज्ञानाची तुम्ही दिलीत दीक्षा

वेळप्रसंगी करूनी शिक्षा

क्षणोक्षणी घेऊन परीक्षा

त्या ज्ञानाच्या सामर्थ्याने दिला आम्हा आधार

आज असे सत्कार,आपला,आज असे सत्कार.

 

मन-भूमीतील काढूनिया तण

संस्कारांचे करून शिंपण

गुणवत्तेचे शोधुनिया धन

त्या कष्टाचे फलित,अमुचे विवेक आणि विचार

आज असे सत्कार ,आपला,आज असे सत्कार,

 

दिवस आजचा गुरुपूजनाचा

तव स्मरणाचा, कृतज्ञतेचा

ज्ञानमंदिरा आठवण्याचा

गुरूदक्षिणा एकच, तुमचे स्वप्न करू साकार

आज असे सत्कार,आपला,आज असे सत्कार

गुरूजी,आज असे सत्कार

 

©  श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ शिक्षक दिन विशेष – अभंग ….. गुरु माझा ☆ सौ. स्वाती रामचंद्र कोरे

सौ. स्वाती रामचंद्र कोरे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ शिक्षक दिन विशेष – अभंग ….. गुरु माझा ☆ सौ. स्वाती रामचंद्र कोरे ☆

(आज ५ सप्टेंबर शिक्षक दिन, जीवनाची उत्तम जडण घडण करणाऱ्या, शालेय पाठाबरोबरच संस्काराचे धडे देणाऱ्या, वेगवेगळ्या क्षेत्रात भेटलेल्या सर्वच शिक्षकांना, गुरूंना शब्द सुमनांची मानवंदना)

गुरुविण नाही।जगी मान पान

जगण्यास ज्ञान।गुरु देती

 

प्रेमळ वागणे।मधुर बोलणे

सर्वां मान देणे।सांगे गुरु

 

गुरु माय बाप।गुरु बंधू सखा

होय पाठीराखा। नेहमीच

 

परीक्षा ते घेती।अनुभव देती

हात न सोडती।कदापि च

 

संकट काळात।मदत करती

आधार ते देती।सदोदित

 

अंतरी विश्वास।जगण्याचा ध्यास

गुरु माझा श्वास।झाला असे

 

गुरु ऋणातून।नाही उतराई

गुरुच्याच ठायी।मन लागे

 

गुरु चरणांची।घडो सदा सेवा

आनंदाचा ठेवा।सदा लाभो

 

©  सौ. स्वाती रामचंद्र कोरे

खानापूर,जिल्हा सांगली

मो.9096818972

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ शिक्षक दिन विशेष – सरस्वतीच्या आकाशातील तारा…. ☆ सौ. विद्या पराडकर

सौ. विद्या पराडकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ शिक्षक दिन विशेष – सरस्वतीच्या आकाशातील तारा….☆ सौ. विद्या पराडकर ☆

(दिनविशेष: 5 सप्टेंबर -डाॅ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन् जन्मदिन – शिक्षक दिन)

सरस्वतीच्या आकाशातील

तू एक तारा

विद्यारूपी वीणेच्या

छेड तू  तारा

 

बहूव्यासंगी ज्ञानगंगेचा

आहेस तू कुंभ

पण ज्ञानदान करतांना

धरू नकोस दंभ

 

हाती छिन्नी हातोडा धरूनी

जैसा शिल्पकार

तैसाच तू शिल्पकार

जिवंत मूर्तीला देई आकार

 

तव यशो मय जीवनाचा विद्यार्थी द्योतक

विश्वात कोरलेले शिल्प सुबक

तव अखंड अध्यापनाचा तोच प्रतीक

तोच खरा प्रतीक

 

© सौ. विद्या पराडकर

पुणे.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ शिक्षक दिन विशेष – लुगड्याची गोष्ट …. ☆ श्री रवींद्र देवघरे “शलभ’

☆ शिक्षक दिन विशेष – लुगड्याची गोष्ट …. ….☆  श्री रवींद्र देवघरे “शलभ’ ☆

रात्रीची वेळ.. निरव शांतता .. तेलाच्या दिव्याचा मिण मिणता प्रकाश.

सावित्रीबाई पांघरूण अंगावर घेऊन झोपण्याच्या तयारीत..

ज्योतीराव कौतुकाने आपल्या बायकोच्या कपाळा वर हात ठेवतात.

“,सावित्री. !” ज्योतीराव उद्गारले, “अगं, तुझं अंग गरम आहे. ताप येतोय का तुला ? “

“आहो, एवढं काही नाही .थोडी कण-कण आहे, झालं.” ,सावित्रीबाई.

“अग पण ही कण-कण वाढली तर आपल्या शाळेचं कसं होईल? ,

मुलींच्या शिक्षणाच काय होईल?……..

ते काही नाही,उद्याच वैद्यांना बोलावतो,
तू औषध घे म्हणजे लवकर बरी होशील.”‘,–ज्योतीराव.

“आहो, हा ताप औषधाने नाही जायचा.” सावित्रीबाई.

“मग?” ज्योतीरावांचा आश्चर्यचकित प्रश्न.

” तुम्ही मला शाळेत जाण्यासाठी अजून एक लुगडं देऊ शकलात तर हा ताप आपोआप जाईल.” सावित्रीबाई…..

ज्योतीराव काहीशा नाराजीने दुस-या कुशीवर वळून झोपण्याचा प्रयत्न करू लागले.

त्यांचे विचारचक्र सुरु झाले.
लुगड्यासाठी ताप घेणारी सावित्री नक्कीच नाही………..

मग सावित्री असे का बरं बोलली?……….

तिच्याकडे एक लुगडं असताना ती दुसरं लुगडं का मागते?………..

आपल्याकडे जे पैसे आहेत ते शिक्षण कार्या करता आहेत ….

बायकोच्या लुगड्या करिता नव्हे …………

पण सावित्री शाळेत जाण्याकरिता लुगडं मागतेय म्हणजे नक्कीच काहीतरी कारण असणार………..

विचार करीत-करीत ज्योतीराव झोपून गेले.

दुस-याच दिवशी ज्योतीरावांनी सावित्रीबाई्च्या हातावर नवे लुगडे ठेवले.

बाईंच्या डोळ्यात पाणी आलं………..

लुगड्यासाठी खर्च करायला ज्योतीरावांना खूप त्रास झाला असणार,

कारण त्यांच्या जवळ जे पैसे आहेत ते शिक्षण कार्याकरिता……

सावित्रीबाई पक्के जाणून होत्या.
त्या नंतर बाईंना कधी ताप नाही आला.

ज्योतीरावांना आश्चर्य वाटले, “हे कसं काय.”………

लुगड्या साठी ताप घेणारी सावित्री नाहीच…………

ज्योतीरावांनी सावित्रीबाईंचे शाळेतील सहाय्यक होते, त्यांची भेट घेतली. आणि त्यांना सविस्तर प्रसंग सांगितला.

त्यांनी उलगडा केला,”सावित्रीबाई शाळेत येतांना लोक अंगावर शेण चिखलाचा मारा करतात.

बाई शाळेत आल्यावर अंगावरील लुगड्यावरचे शेण चिखलाचे डाग धुऊन ओल्या लुगड्याने दिवसभर शाळेत शिकवितात.

त्या मुळे रात्री त्यांना ताप येत असेल.

परंतु आता तुम्ही त्यांना दुसरं लुगडं दिल्या पासून शाळेत आल्यावर लुगडं बदलून माखलेलं लुगडं धुऊन ठेऊन कोरड्या लुगड्याने शाळेत शिकवितात .

त्या मुळे आत्ता त्यांना ताप येत नसेल.”

आत्ता ज्योतीरावांच्या डोळ्यात पाणी आलं..

सावित्रीबाईंच्या महानतेस ज्योतीरावांनी मनोमन प्रणाम केला…!!

आपणही त्या दोन्ही महान विभूतींस प्रणाम करू या…

कारण त्यांच्यामुळेच् आजच्या स्त्रीयां ज्या कुठल्यही जातीच्या असो की धर्माच्या शिकु शकल्या ..!!

शिक्षक दिनाच्या हार्दिक शुभेच्छा

© श्री रवीन्द्र देवघरे “शलभ’

नागपूर.

मो  9561117803.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ पावसाची रुपं… ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी

सौ. दीपा नारायण पुजारी

 

? विविधा ?

☆ पावसाची रुपं… ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी 

पावसाची रुपं

                   “येरे येरे पावसा

                    तुला देतो पैसा

                  पैसा झाला खोटा

                  पाऊस आला मोठा “

पैसा घे पण ये बाबा!पैसा खोटा निघाला तरी चालेल पण तू येच.” असं खरच म्हणावं अशी दडी तू मारतोस तर कधी “थांब थांब,थोडी उसंत घे रे.” असाही बरसतोस.

शब्द म्हणजे काय; त्यांचा अर्थ काय हे कळण्याआधीच तू माझ्या मनात बरसू लागलास. आई -आजी बरोबर मी ही टाळ्या वाजवत तुझ्या संगे ताल धरला.माझ्या बोबड्या बोलाने आईचा घट आनंदाने भरुन वाहू लागला. गालावरून हात फिरवत आजीचे हसूही तिच्या कापर्‍या गालांवर पसरले.

थोडी मोठी झाले. पावसाची गाणी,गाण्यातले शब्द, शब्दांची गंमत समजू लागली.

‘सांग सांग भोलानाथ पाऊस पडेल काय?

शाळेभोवती तळे साचून सुट्टी मिळेल काय?’

मनातला भोलेनाथाला तथास्तु म्हणत हातात हात घालून तू माझ्या बरोबर खेळू लागलास. तुझ्याच साठलेल्या पाण्यात उड्या मारणं, डबक्यात साठलेल्या पाण्यातून मुद्दामच वेगानं सायकल चालवणं हे तूच तर मला शिकवलंस. कागदी नावा पाण्यात सोडून त्या बरोबर काठाकाठानं भिजत वाहतांना तूही माझ्या संगे मस्ती केलीस,हो ना?

टप टप थेंब वाजवत तू आलास की मी पाटी पुस्तक विसरून गारा वेचे,नाचे,खिदळे!! नक्कीच ते भोळे बालरुप तुलाही भावलं  असावं. . . . . तरीही रंगीबेरंगी रेनकोटात मला लपेटून बोट धरून तू मला शाळेतही नेलेस! खोट नको बोलू!नवीन पुस्तकांचा वास तुलादेखीलआवडत असे.

         ‘पाऊस वाजे धडाडधूम

         धावा धावा ठोका धूम

         धावता धावता गाठले घर

        पड रे पावसा दिवसभर ‘

बालबोलीतले हे कौतुक तुला देखील ऐकावेसे वाटे,काय ओळखलं ना बरोबर ?

बडबड गीतांचे अवखळ वय हळू हळू सरले. तुझे संगीत मनात गुंजी घालू लागले.

      ‘आला पाऊस मातीच्या वासात ग . .  .

पहिल्या पावसाचा मातीचा वास मनाला वेड लावू लागला .पावसात भिजण्यापेक्षा पाऊस अनुभवण्याचा सुज्ञ पणा आला. तू कधी सर सर येतोस, कधी रिमझिम बरसतोस. कधी पाऊलही न वाजवता येतोस तर कधी तांडवनृत्य करतोस . कधी कडकडाटी गर्जन करतोस तर कधी वार्‍याबरोबर सगळ्यांची दाणादाण उडवत येतोस.तुझी रुपे बघण्याचं, स्वत:तच रमण्याचं वय आलं. तू ही बालीश पणा सोडून खट्याळ झालास. आता तू माझी फजिती करु लागलास. कॉलेजला जाताना छत्री सांभाळत,कपडे सावरत,खांद्यावरची कंडक्टर बॅग लटकवत मी चालले की तू फिदीफिदी हसू लागलास. तू मुद्दामच वात्रट वार्‍याला माझी छत्री उलटी करायला सांगायचास. नेमकं सबमिट करायच जरनल तुझ्या मुळे चिखलात पडत असे. पण मी त्या गावचा नाहीच अस दाखवत तू तिथून पळ काढायचास.मी तुझ्या वर तेंव्हा रागावतच असे थोडीशी !

       पण तेव्हढ्यात तू गात आलास . . .

     ‘ऋतु हिरवा, ऋतु बरवा’

माझ्यासाठी इंद्रधनुची कमान उभी करुन आलास. असे वाटले की या कमानीवरुन सहजपणे चढून आकाशातल्या तुझ्या अंगणात पोचेन. खोट नाही . . अगदी खरचं!

निळ्यासावळ्या टेकडीवरून माझ्या चित्तचोरासमवेत हातात हात घालून फिरताना त्या पाचूच्या बनात सप्तरंगी कमान घेऊन भेटलास. पुढील सुखद सहजीवनाची तार कानात झंकारत रिमझिम बरसलास.

. . . . . . . वर्षे सरली. . . बेलबॉटमचे, नेलपेंटचे दिवस गेले,हातात इवलीइवलीशी झबली टोपडी आली, बाळलेणी आली. तू भेटायला यायचास पण बाळाचे वाळत घातलेले कपडे काढण्याची माझी धावपळ! तुझी रुपे निरखण्यापेक्षा बाळलीला जास्त मोहवत होत्या ना! स्वेटर मोजे विणण्याचे दिवस आले व गेलेही. पुन्हा एकदा मुलांच्या बरोबर मी लहान झाले . गारा वेचत व नाव पाण्यात सोडत आई पण विसरून किशोरी झाले .जोरात तुषार शिंपडून हसलास ना खुशीत?

शीळ घालत,सायकल वर स्वार होऊन तू माझ्या मुलांच्या सवे घरात येऊ लागलास. मी हातात टॉवेल तयार ठेवू लागले . पण जुन्या आठवणीने ओठांच्या कोपर्‍यात किंचित आलेले हसू तू अचूक हेरलेस ना?

मोठे डोळे करून मुलांना दटावत असे मी! पण लेक्चर चुकवून मैत्रिणींच्या बरोबर तुझ्या तालात केलेली झिबांड झिम्मड झिम्म्याने मनात फेर धरलाच रे!

आता मात्र तू येतोस सुंठ,आलं,काढ्याचा वास घेऊन ! तुझ्या आगमनाची वर्दी देत मातीचा दरवळ येतो. .  . मी मात्र घरात काढ्याचे साहित्य आहे ना याची खात्री करते. तुला अंगाखांद्यावर घेऊन चिंब भिजावसं वाटतं पण तुझ्या सरींबरोबर मनातल्या मनातच फुगडी घालते.

कानटोपी चढवून, शाल गुंडाळून बाल्कनीतून ,खिडकीतून तुला न्याहळत राहते. थरथणारे हात बाहेर काढून ओंजळीत तुला साठवते.

गारांना घेऊन थाडथाड पावले वाजवत येणार्‍या किंवा सरसर धुंदीत येणार्‍या तुझ्या रुपापेक्षा संथगतीने येणारं तुझं म्हातारं रुपच आपलसं वाटू लागलय हल्ली. . . . .

 

© सौ. दीपा नारायण पुजारी

१२/७/२०२०

इचलकरंजी

9665669148

deepapujari57@gmail.com

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ छोटुली – भाग १ (भावानुवाद) – डॉ हंसा दीप ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

?जीवनरंग ?

☆ छोटुली – भाग १ (भावानुवाद) – डॉ हंसा दीप ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ती पाच वर्षांची छोटुली आहे. मुलीच्या जन्मानंतर, आपल्या मुलीसाठी ‘छोटुली’पेक्षा जास्त चांगलं नाव तिच्या मम्मी-पप्पांना सुचलंच नाही. दिवस-रात्र छोटुली म्हणता म्हणता, तिचं नाव छोटुलीच पडलं. तशी ती लहानच आहे, पण तिचे पाय असे काही थिरकतात, की जसे काही तिचे प्राण नृत्यातच वसलेले आहेत. चेहर्‍यावरचे भाव आणि शब्दांचा ध्वनी एकमेकांशी एकरूप होतात, तेव्हा तिचं नृत्य सुरू होतं. तेव्हा आतूनच उत्स्फूर्तपणे विभ्रम सुरू होतात. त्यासाठी कुठल्या तालमीची किंवा कुठल्या गुरूची आवश्यकता नसते. मम्मी-पप्पा जेव्हा तिला असं नाचताना बघतात, तेव्हा ते स्वत:कडे बघू लागतात. त्यांचा एक पायसुद्धा सुराबरोबर ताळ- मेळ साधत नाही आणि हिच्याकडे बघा. सारं शरीर न थांबता थिरकत रहातं. त्यांच्या शुष्क जमिनीवर हिरवळ पसरणारा हा कुठला नैसर्गिक चमत्कार त्यांच्या घरी उपजलाय. कुठल्याही प्रकारच्या आवाजाने तिच्या शरीरात जी हालचाल होते, ती बेजोड असते.  

शहरापासून दूर गावात राहूनही छोटुलीच्या मम्मी-पप्पांना कळलं की कुठलं तरी टी.व्ही. चॅनेल नृत्याच्या शोसाठी प्रतिभावंतांचा शोध घेते आहे, तेव्हा त्या दोघा पती-पत्नींनी आपल्या मुलीचं, आपलं, भाग्य अजमावण्याचा विचार केला. मग सगळ्याचा शोध घेतला गेला. शहरात जाऊन कुठे तरी पेइंग गेस्ट म्हणून रहाणं शक्य आहे. एक दूरचे नातेवाईक आहेत. रहाण्यासाठी जागा शोधायला ते मदत करू शकतील. प्रयत्न करायला काय हरकत आहे?

 सगळ्या गोष्टी वेळेवर होत गेल्या. रहाण्याची व्यवस्था, येण्या-जाण्याची व्यवस्था. रहाण्यासाठी त्या नातेवाईकाच्या घरीच सोय झाली, तेव्हा त्यांनी सुटकेचा निश्वास टाकला. अर्थात हे आश्वस्त होणं, शहरात पोचण्यापुरतंच होतं. पुढे अनंत अडचणी होत्या. त्या पार करायला हव्या होत्या, नाही तर मग घरी परतणं होतंचं. पै पै गाठीला जोडून शहरात पोचले तर खरे, पण त्यांना वाटू लागलं आपण खूप मोठी चूक केलीय. त्यांच्या मुलीचं नृत्य पाहून इतक्या मोठ्या शोसाठी कोण तिची निवड करणार? ही कला तिच्या आई-वडलांच्या अंगात नव्हतीच मुळी. तेव्हा आपल्या मुलीकडून याची अपेक्षा करण्यात काय अर्थ आहे, असंही त्यांना वाटू लागलं होतं, पण मुलीकडे लक्ष जाताच, त्यांना पुन्हा वाटू लागायचं, की काही तरी खास तिच्या नृत्यामध्ये आहे, तिच्या वयापेक्षा मोठं… खूप मोठं.. तिच्या आई-वडलांचे विचार एकसारखेच होते. ‘एकदा प्रयत्न करून बघायला काय हरकत आहे? जास्तीत जास्त काय होईल? तिची निवड होणार नाही. थोडे पैसे खर्च होतील. इतकी काही आपली खालावलेली परिस्थिती नाही की पैशाची  काही व्यवस्थाच करू शकणार नाहीत. होय-नाही करत ते शहरात येऊन पोचले. इथली चमक-दमक, गर्दीच गर्दी, सगळ्यांच्या टवकारलेल्या नजरा जणू म्हणत होत्या, ‘तुम्ही इथे का… तुम्ही इथे कसे… तुमचं इथे काय काम…!’  प्रत्यक्ष कुणीच काही बोलत नव्हतं .त्यांचा स्वत:चाच न्यूंगंड त्यांना पाऊल पुढे उचलण्यापासून परावृत्त करत होता. आस-पास दिसणारे चेहरे वाचायचा ते प्रयत्न करत होते. या सगळ्यातून वर येत, नाव-नोंदणी करून नंबर घ्यावयाच्या रांगेत ते उभे राहिले. त्यानंतर कधी त्यांना बोलावलं जाईल, याची ते प्रतीक्षा करत राहिले. या सगळ्याशी काहीच देणं- घेणं नसलेलेली ती मुलगी आपल्या स्वत:मध्येच मश्गुल होती. या नव्या वातावरणात आपल्या जुन्या, नेहमीच तिच्या बरोबर असलेल्या, टेडी बेअरशी खेळण्यात व्यस्त होती.

संध्याकाळ होऊ लागली होती. निवडीसाठी नृत्य सादर करायची तिची वेळ जवळ येऊ लागली होती. काही झालं, तरी आज निवडीची प्रक्रिया पूर्ण होणारच होती. आजच्या नृत्यासाठी तिला कुणी तयार केलेलं नव्हतं. तिला जसं हवं तसं, जे हवं ते ती करू शकणार होती. तिच्या आई-वडलांना या गोष्टीची खात्री होती की ती गर्दीला घाबरत नाही. जेव्हा सांगावं तेव्हा, जिथे सांगावं तिथे ती आपली नाचू लागते. न सांगताही. तिचं थिरकणारं अंग-प्रत्यांग थांबता थांबत नाही. घरीदेखील गाणं कानावर पडताच, त्याच्या सुर-तालाबरोबर ती नाचू लागते. तिच्या चाहर्‍याचे भाव सुरांच्या आरोहा-अवरोहाबरोबर असे काही बदलत जातात, जसं काही कुणी या बदालाचा रिमोटच तिच्या मेंदूत बसवून ठेवलाय आणि बटण दाबताच एकामागून एक मनमोहक भाव तिच्या चेहर्‍यावर उमटू लागतात.

क्रमश:….

मूळ लेखिका – डॉ. हंसा  दीप 

Contact- Dr. Hansa Deep, 1512-17 Anndale Drive, North York, Toronto, ON – M2N2W7 Canada

Ph. 001 647 213 1817  Email- hansadeep8@gmail.com

अनुवाद –  श्रीमती उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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