हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 56 ☆ कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा…”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 56 – कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा…

साधना किसी की भी हो परन्तु आराधना तो मेरी ही होनी चाहिए। इसी को आदर्श वाक्य बनाकर लेखचन्द्र जी सदैव की तरह अपनी दिनचर्या शुरू करते हैं। जो कुछ करेगा, उसे बहुत कुछ मिलेगा, ये राग अलापते हुए वे निरंतर एक से बड़े एक फैसले धड़ाधड़ लेते जा रहे हैं। और उनके अनुयायी, रहिमन माला प्रेम की जिन तोड़ो चिटकाय के रास्ते पर चलते हुए हर आदेशों को प्रेम भाव से स्वीकारते जा रहें हैं। भई विश्वास हो तो ऐसा कि आँख, कान, मुँह बंद कर भी किया जा सके। हो भी क्यों न उनके आज तक के सभी निर्णय सफल हुए हैं,ये बात अलग है कि इस सफलता के पीछे मूलभूत आधार स्तम्भों की भक्ति सह शक्ति कार्य कर रही है।

यहाँ फिर से कार्य आ धमका, आराम हराम होता है, अतः कुछ तो करना ही है सो क्यों न सार्थक किया जाए, जिससे सभी के मुँह में घी -शक्कर  हो। इतिहास गवाह है, जब- जब सबके हित में कार्य किया गया है तो अवश्य ही उम्मीद से ज्यादा लाभ कार्य शुरू करने वाले को हुआ है।

पल में तोला, पल में माशा, अपनी खुशी का रिमोट किसी के भी हाथों में देकर हम लोग नेतृत्व करने का विचार रखते हैं। अरे भई जब हमारा स्वयं पर ही नियंत्रण नहीं है तो दूसरों पर कैसे होगा। हमारा व्यवहार तो इस बात पर निर्भर करता है कि सामने वाले ने हमारे साथ कैसा आचरण किया है। इसी कड़ी में एक चर्चा और निकल पड़ी कि ऐसे लोग जो हर दल में शामिल होकर केवल मलाई खाकर ही अपना गुजर बसर चैन पूर्वक करते चले आ रहें हैं, जब वे कुछ करते हैं तो कैसे -कैसे बखेड़े खड़े हो जाते हैं। एक आयोजन में सभी दल के लोग आमंत्रित थे। एक ही आमंत्रण पत्र सारे दलों के व्हाट्सएप  पर सबके पास पहुँच गया। पार्टी में भाँति- भाँति के लोगों से खूब रौनक जमीं। सारे लोग दलगत राजनीति भूलकर एक दूसरे से गले मिलते हुए एक ही मेज पर बैठकर रसगुल्ले,चमचम उड़ा रहे थे।

इस मेल मिलाप से प्रेरित हो सारे मीडिया कर्मी भी एकजुट होकर, एक जैसी रिपोर्ट बनाकर ही प्रसारित करेंगे ये फैसला मन ही मन ले बैठे। अब तो वे एक साथ सारी बातों को समेटने लगे। अगले दिन जब खबर छपी तो इधर के नाम उधर, उधर के नाम इधर छप चुके थे। अब तो  हड़कंप मच गया। सारे दलों के मुखिया भयभीत हो अकस्मात अपने – अपने पार्टी कार्यालयों में मीटिंग करते दिखे, उन्हें ये भय सताने लगा कि कहीं सचमुच ऐसा ही तो नहीं होने वाला है क्योंकि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कभी गलत हो ही नहीं सकता,आखिर आँखों देखी ही तो कहते हैं, लिखते व दिखाते हैं। मन ही मन बैचैन होकर वे लोग अंततः किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहे थे। कहीं से कोई ऑडियो वायरल होने की खबर, तो कहीं से लार टपकाते लोग दिखाई देने लगे। ये कहीं शब्द तो एकजुटता पर भारी होता हुआ प्रतीत होने लगा, तभी मुस्कुराते हुए अनुभवीलाल जी कहने लगे कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, जितना तोड़ा उतना जोड़ा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 78 – हाइबन- सबसे बड़ा पक्षी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- सबसे बड़ा पक्षी। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 78☆

☆ हाइबन- सबसे बड़ा पक्षी ☆

मैं सबसे बड़ा पक्षी हूं। उड़ नहीं पाता हूं इस कारण उड़ान रहित पक्षी कहलाता हूं। मेरे वर्ग में एमु, कीवी पक्षी पाए जाते हैं। चुंकि मैं सबसे बड़ा पक्षी हूं इसलिए सबसे ज्यादा वजनी भी हूं। मेरा वजन 120 किलोग्राम तक होता है। अंडे भी सबसे बड़े होते हैं।

मैं शाकाहारी पक्षी हूं । झुंड में रहता हूं। एक साथ 5 से 50 तक पक्षी एक झुंडमें देखे जा सकते हैं। मैं संकट के समय, संकट से बचने के लिए जमीन पर लेट कर अपने को बचाता हूं । यदि छुपने की जगह ना हो तो 70 किलोमीटर की गति से भाग जाता हूं।

मेरी ऊंचाई ऊंट के बराबर होती है। मैं जिस गति से भाग सकता हूं उतनी ही गति से दुलत्ती भी मार सकता हूं। मेरी दुलत्ती से दुश्मन चारों खाने चित हो जाता है।

मैं अपने खाने के साथ-साथ कंकर भी निकल जाता हूं। यह कंकरपत्थर मेरे खाने को पीसने के काम आते हैं। इसी की वजह से पेट में खाना टुकड़ोंटुकड़ों में बढ़ जाता है।

क्या आप मुझे पहचान पाए हैं ?  यदि हां तो मेरा नाम बताइए ? नहीं तो मैं बता देता हूं। मुझे शुतुरमुर्ग कहते हैं।

अफ्रीका वन~

दुलत्ती से उछला

वजनी शेर।

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

22-01-210

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 62 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – द्वितीय अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है प्रथम अध्याय।

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 63 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – द्वितीय अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज आप पढ़िए द्वितीय अध्याय का सार। आनन्द उठाएँ।

 डॉ राकेश चक्र

धृतराष्ट्र के सारथी संजय ने धृतराष्ट्र से सैन्यस्थल का आँखों देखा हाल कुछ इस तरह कहा।

अर्जुन ने श्री कृष्ण से , किया शोक संवाद।

नेत्र सजल करुणामयी ,तन-मन भरे विषाद।। 1

 

श्री कृष्ण भगवान उवाच

प्रिय अर्जुन मेरी सुनो, सीधी सच्ची बात।

यदि कल्मष हो चित्त में, करता अपयश घात।। 2

 

तात नपुंसक भाव है, वीरों का अपमान।

उर दुर्बलता त्यागकर, अर्जुन बनो महान।। 3

 

अर्जुन ने भगवान कृष्ण से कहा

हे!मधुसूदन तुम सुनो, मेरे मन की बात।

पूज्य भीष्म,गुरु हनन से, उन पर करूँ न घात।। 4

 

पूज्य भीष्म,गुरु मारकर, भीख माँगना ठीक।

गुरुवर प्रियजन श्रेष्ठ हैं, ये हैं धर्म प्रतीक।। 5

 

ईश नहीं मैं जानता,क्या है जीत-अजीत।

स्वजन बांधव का हनन, क्या है नीक अतीत।। 6

 

कृपण निबलता ग्रहण कर, भूल गया कर्तव्य।

श्रेष्ठ कर्म बतलाइए, जो जीवन का हव्य।। 7

 

साधन अब दिखता नहीं, मिटे इन्द्रि दौर्बल्य।

भू का स्वामी यदि बनूँ, नहीं मिले कैवल्य।। 8

 

संजय ने धृतराष्ट्र से इस तरह भगवान कृष्ण और अर्जुन का संवाद सुनाया

मन की पीड़ा व्यक्त कर, अर्जुन अब है मौन।

युद्ध नहीं प्रियवर करूँ, ढूंढ़ रहा मैं कौन।। 9

 

सेनाओं के मध्य में, अर्जुन करता शोक।

महावीर की लख दशा, कृष्ण सुनाते श्लोक।। 10

 

श्री भगवान ने अर्जुन को समझाते हुए कहा

 

पंडित जैसे वचन कह, अर्जुन करता शोक।

जो होते विद्वान हैं, रहते सदा अशोक।। 11

 

तेरे-मेरे बीच में,जन्मातीत अनेक।

युद्ध भूमि में जो मरे, लेता जन्म हरेक।। 12

 

परिवर्तन तन के हुए, बाल वृद्ध ये होय।

जो भी मृत होते गए, नव तन पाए सोय।। 13

 

सुख-दुख जीवन में क्षणिक,ऋतुएँ जैसे आप।

पलते इन्द्रिय बोध में, धैर्यवान सुख- पाप।। 14

 

पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन सुनो, सुख-दुख एक समान।

जो रखता समभाव है, मानव वही महान।। 15

 

सार तत्व अर्जुन सुनो, तन का होय विनाश।

कभी न मरती आत्मा, देती सदा प्रकाश।। 16

 

अविनाशी है आत्मा, तन उसका आभास।

नष्ट न कोई कर सके, देती सदा उजास।। 17

 

भौतिकधारी तन सदा, नहीं अमर सुत बुद्ध।

अविनाशी है आत्मा, करो पार्थ तुम युद्ध।। 18

 

सदा अमर है आत्मा , सके न हमें लखाय।

वे अज्ञानी मूढ़ हैं, जो समझें मृतप्राय।। 19

 

जन्म-मृत्यु से हैं परे, सभी आत्मा मित्र।

नित्य अजन्मा शाश्वती, है ईश्वर का चित्र।। 20

 

जो जन हैं ये  जानते, आत्म अजन्मा सत्य।

अविनाशी है शाश्वत, कभी ना होती मर्त्य।। 21

 

जीर्ण वस्त्र हैं त्यागते, सभी यहाँ पर लोग।

उसी तरह ये आत्मा, बदले तन का योग।। 22

 

अग्नि जला सकती नहीं, मार सके न शस्त्र।

ना जल में ये भीगती, रहती नित्य अजस्र।। 23

 

खंडित आत्मा ही सदा, है ये अघुलनशील।

सर्वव्याप स्थिर रहे, डुबा न सकती झील।। 24

 

आत्मा सूक्ष्म अदृश्य है, नित्य कल्पनातीत।

शोक करो प्रियवर नहीं, भूलो तत्व अतीत।। 25

 

अगर सोचते आत्म है, साँस-मृत्यु का खेल।

नहीं शोक प्रियवर करो, यह भगवन से मेल।। 26

 

जन्म धरा पर जो लिए, सबका निश्चित काल।

पुनर्जन्म भी है सदा,ये नश्वर की चाल।। 27

 

जीव सदा अव्यक्त है, मध्य अवस्था व्यक्त।

जन्म-मरण होते रहे, क्यों होते आसक्त।। 28

 

अचरज से देखें सुनें, गूढ़ आत्मा तत्व।

नहीं समझ पाएं इसे, है ईश्वर का सत्व।। 29

 

सदा आत्मा है अमर, मार सके ना कोय।

नहीं शोक अर्जुन करो, सच पावन ये होय।। 30

 

तुम क्षत्रिय हो धनंजय, रक्षा करना धर्म।

युद्ध तुम्हारा धर्म है, यही तुम्हारा कर्म।। 31

 

क्षत्री वे ही हैं सुखी, नहीं सहें अन्याय।

युद्धभूमि में जो मरे, सदा स्वर्ग वे पाय।। 32

 

युद्ध तुम्हारा धर्म है, क्षत्रियनिष्ठा कर्म।

नहीं युद्ध यदि कर सके, मिले कुयश औ शर्म।। 33

 

अपयश बढ़कर मृत्यु से, करता दूषित धर्म।।

हर सम्मानित व्यक्ति के, धर्म परायण कर्म।। 34

 

नाम, यशोलिप्सा निहित, चिंतन कैसा मित्र।

युद्ध भूमि से जो डरे, वह योद्धा अपवित्र।। 35

 

करते हैं उपहास सब,निंदा औ’ अपमान।

प्रियवर इससे क्या बुरा, जाए उसका मान।।36

 

यदि तुम जीते युद्ध तो, करो धरा का भोग।

मिली वीरगति यदि तुम्हें, मिले स्वर्ग का योग।।37

 

सुख-दुख छोड़ो मित्र तुम, लाभ-हानि दो छोड़।

विजय-पराजय त्यागकर, कर्म करो उर ओढ़।।38

 

करी व्याख्या कर्म की, सांख्य योग अनुसार।

मित्र कर्म निष्काम हो, उसका सुनना सार।।39

 

भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग का महत्व बताया

कर्म करें निष्काम जो, हानि रहित मन होय।

बड़े-बड़े भय भागते, जीवन व्यर्थ न होय।।40

 

दृढ़प्रतिज्ञ जिनका हृदय, वे ही पाते लक्ष्य।

मन जिनका स्थिर नहीं, रहते सदा अलक्ष्य।।41

 

वेदों की आसक्ति में, करें सुधीजन पाठ।

जीवन चाहे योगमय, ऐसा जीवन काठ।।42

 

इन्द्रिय का ऐश्वर्य तो, नहीं कर्म का मूल।

करें कर्म निष्काम जो, मानव वे ही फूल।।43

 

सुविधाभोगी जो बनें, इन्द्रि भोग की आस।

ईश भक्त ना बन सकें, रहता दूर प्रकाश।।44

 

तीन प्रकृति के गुण सदा,करते वेद बखान।

इससे भी ऊँचे उठो, अर्जुन बनो महान।।45

 

बड़ा जलाशय दे रहा, कूप नीर भरपूर।

वेद सार जो जानते, वही जगत के शूर।।46

 

करो सदा शुभ कर्म तुम,फल पर ना अधिकार।

फलासक्ति से मुक्त उर, इस जीवन का सार।।47

 

त्यागो सब आसक्ति को , रखो सदा समभाव।

जीत-हार के चक्र में, कभी न दो प्रिय घाव।।48

 

ईश भक्ति ही श्रेष्ठ है, करो सदा शुभ काम।

जो रहते प्रभु शरण में, होता यश औ नाम।।49

 

भक्ति मार्ग ही श्रेष्ठ है, रहता जीवन मुक्त।

योग करे, शुभ कर्म भी, वह ही सच्चा भक्त।।50

 

ऋषि-मुनि सब ही तर गए, कर-कर प्रभु की भक्ति।

जनम-मरण छूटे सभी, कर्म फलों से मुक्ति।।51

 

मोह त्याग संसार से, तब ही सच्ची भक्ति।

कर्म-धर्म का चक्र भी, बन्धन से दे मुक्ति।।52

 

ज्ञान बढ़ा जब भक्ति में, करें न विचलित वेद।

हुए आत्म में लीन जब, मन में रहे न भेद।।53

 

श्रीकृष्ण भगवान के कर्मयोग के बताए नियमों को अर्जुन ने बड़े ध्यान से सुना और पूछा–

अर्जुन बोला कृष्ण से, कौन है स्थितप्रज्ञ।

वाणी, भाषा क्या दशा, मुझे बताओ सख्य।।54

 

श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को फिर कर्म और भक्ति का मार्ग समझाया

मन होता जब शुद्ध है, मिटें कामना क्लेश।

मन को जोड़े आत्मा, स्थितप्रज्ञ नरेश।।55

 

त्रय तापों से मुक्त जो, सुख – दुख में समभाव।

वह ऋषि मुनि-सा श्रेष्ठ है, चिंतन मुक्त तनाव।।56

 

भौतिक इस संसार में, जो मुनि स्थितप्रज्ञ।

लाभ-हानि में सम दिखे , वह ज्ञानी सर्वज्ञ।।57

 

इन्द्रिय विषयों से विलग, होता जब मुनि भेष।

कछुवा के वह खोल-सा, जीवन करे विशेष।।58

 

दृढ़प्रतिज्ञ हैं जो मनुज, करे न इन्द्रिय भोग।

जन्म-जन्म की साधना, बढ़े निरंतर योग।।59

 

सभी इन्द्रियाँ हैं प्रबल, भागें मन के अश्व ।

ऋषि-मुनि भी बचते नहीं, यही तत्व सर्वस्व।।60

 

इन्द्रिय नियमन जो करें, वे ही स्थिर बुद्धि।

करें चेतना ईश में, तन-मन अंतर् शुद्धि।61

 

विषयेन्द्रिय चिंतन करें, जो भी विषयी लोग।

मन रमताआसक्ति में, बढ़े काम औ क्रोध।।62

 

क्रोध बढ़ाए मोह को, घटे स्मरण शक्ति।

भ्रम से बुद्धि विनष्ट हो, जीवन दुख आसक्ति।। 63

 

इन्द्रिय संयम जो करें , राग द्वेष हों दूर

भक्ति करें जो भी मनुज, ईश कृपा भरपूर।। 64

 

जो जन करते भक्ति हैं, ताप त्रयी मिट जायँ।

आत्म चेतना प्रबल हो, सन्मति थिर हो जाय।। 65

 

भक्ति रमे जब ईश में, बुद्धि दिव्य मन भव्य।

शांत चित्त मानस बने, शांति मिले सुख नव्य।। 66

 

यदि इंद्रिय वश में नहीं, बुद्धि होती है क्षीण।

अगर एक स्वच्छंद है, तन की बजती बीन।।67

 

इन्द्री वश में यदि रहें, वही श्रेष्ठ है जन्य।

और बुद्धि स्थिर रहे, मिले भक्ति का पुण्य।।68

 

आत्म संयमी है सजग, तम में करे प्रकाश।

आत्म निरीक्षक मुनि हृदय, मन हो शून्याकाश।।69

 

पुरुष बने सागर वही, नदी न जिसे डिगाय।

इच्छाओं से तुष्ट जो, वही ईश को पाय।। 70

 

इच्छा इंद्री तृप्ति की, करे भक्त परित्याग।

अहम, मोह को त्याग दे, मिले शांति का मार्ग।। 71

 

आध्यात्मिक जीवन वही, मानव करे न मोह।

अंत समय यदि जाग ले, मिले धाम ही मोक्ष।।72

 

इस प्रकार श्रीमद्भगवतगीता के द्वितीय अध्याय ” गीता का सार” का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ (समाप्त)।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.६१॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.६१॥ ☆

 

प्रालेयाद्रेर उपतटम अतिक्रम्य तांस तान विशेषान

हंसद्वारं भृगुपतियशोवर्त्म यत क्रौञ्चरन्ध्रम

तेनोदीचीं दिशम अनुसरेस तिर्यग आयामशोभी

श्यामः पादो बलिनियमनाभ्युद्यतस्येव विष्णोः॥१.६१॥

हिमवान गिरि के किनारे सभी रम्य

स्थान औ” तीर्थ के पार  जाते

भृगुपति सुयश मार्ग को “क्रौंचरन्धम्”

या “हंसद्वारम्” जिसे सब बताते

से कुछ झुके विष्णु के श्याम पद सम

बलि दैत्य बन्धन लिये जो बढ़ा था

होकर प्रलंबित सुशोभित वहाँ से

दिशा उत्तरा ओर हे घन चढ़ा जा

 

शब्दार्थ  क्रौंचरन्धम् व हंसद्वारम्  … स्थानो के नाम

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

Sahitya Sammelan

☆ सम्पादकीय नि वे द न ☆

९४व्या अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलनाचे अध्यक्ष म्हणून ज्येष्ठ वैज्ञानिक आणि विज्ञानलेखक डॉ जयंत नारळीकर यांची सन्मानपूर्वक निवड करण्यात आली आहे.  यानिमित्ताने यंदाचा  विज्ञान दिवस (दि.28 फेब्रुवारी) साजरा कराण्यासाठी विज्ञान कथा, कविता अपेक्षित आहे.

आपले साहित्य दि. 26/02/2021 पर्यंत पाठवावे,ही विनंती.

संपादक मंडळ, ई-अभिव्यक्ती.मराठी.

श्रीमती उज्ज्वला केळकर 

Email- [email protected] WhatsApp – 9403310170

श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

Email –  [email protected]WhatsApp – 94212254910

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 67 – काही थेंब…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #67 ☆ 

☆ काही थेंब…! ☆ 

पुस्तकांच्या
दुकानात
गेल्यावर
मला
ऐकू येतात..;
पुस्तकात
मिटलेल्या
असंख्य
माणसांचे
हुंदके.. ;
आणि.. . . .
दिसतात
पुस्तकांच्या
मुखपृष्ठावर
ओघळलेले
आसवांचे
काही थेंब…!

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सांज ☆ श्री आनंदहरी

☆ कवितेचा उत्सव ☆ सांज ☆ श्री आनंदहरी ☆ 

तुला सांज वाटे आता नकोशी

उगवतीचा लागे लळा आगळा

त्यागू कसा शिणल्या पावलाना

आणू कुठूनी जन्म नवा वेगळा ।।

 

जन्मांस लाभे सावली अंताची ही

तरी जन्मता जीवनी पाश आहे

उगवण्या भास्करा लागते मावळाया

जिथे निर्मिती तेथ विनाश आहे ।।

 

उमलणे तिथे कोमेजणे आणिक

पालवीस सुकूनी गळूनी जाणे

निसर्गाचे देणे असे आगळे हे

अंकुरास वाढणे, वाळून जाणे ।।

 

जरी जाणती खेळ हा निसर्गाचा

बालपणा माया लाभते आगळी

तिरस्कार छळे नित वृद्धत्वासी

अशी जगाची या रीत ही वेगळी ।।

 

लागेल तुलाही कधी मावळाया

जाणीव तुजला तयाची ना आहे

पेरले आज जे,उगवते उद्याला

अंतरी विचार हा रुजवूनी राहे ।।

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ बोध कथा – कल्पक योजना ☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी

☆ जीवनरंग ☆ बोध कथा – आव्हान ☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी ☆ 

||कथासरिता||

(मूळ –‘कथाशतकम्’  संस्कृत कथासंग्रह)

?लघु बोध कथा?

(लघु बोध कथांचा हा  उपक्रम आज संपतोय. आज शेवटची कथा आपण वाचणार आहोत. संस्कृत दुर्मिळ कथांचे मराठीत भाषांतर या निमित्ताने पूर्ण झाले. अरुंधती ताईंचे अत्यंत आभारी आहोत. ? रसिकहो या बद्दल आपल्याही प्रतिक्रिया जाणून घ्यायला आवडेल. ?  – सम्पादक ई-अभिव्यक्ति  (मराठी) )

कथा २१. आव्हान

महिलापुर नगरात एक वाणी होता. त्याच्या पत्नीचे नाव चंद्रमुखी व मुलाचे नाव सुमती होते. सुमती पाच वर्षांचा असतानाच वाण्याचे निधन झाले. आता त्या दोघांचे रक्षण करणारे कोणी नव्हते म्हणून चंद्रमुखी सुमतीला घेऊन पतीच्या मित्राकडे – दुसऱ्या वाण्याकडे आली. त्याने त्या दोघांना आदराने स्वतःच्या घरी ठेऊन घेतले व अन्न-वस्त्र देऊन रक्षण केले.

काही काळाने सुमतीचा विद्याभ्यास पूर्ण झाल्यावर चंद्रमुखी त्याला म्हणाली, “आता तू काहीतरी करून जीवन व्यतीत करावेस. आता इथे रहाणे योग्य नाही. आपला वाण्याचा पूर्वापार उद्योग आहे. तेव्हा तूसुद्धा तो केलास तर बरे होईल. त्यासाठी तुला काय करायचे आहे ते ऐक. या नगरच्या जवळच कुंडिनपुर नावाचे नगर आहे. तेथे धर्मपाल नावाचा वाणी आहे. तो त्याच्याकडे आलेल्यांना व्यापारासाठी अपेक्षित धन देतो. तू त्याच्याकडे गेलास तर सुखी होशील.”

सुमती आपल्या मातेचा निरोप घेऊन त्या धर्मपालाकडे आला. तेव्हा तो पूर्वी त्याच्याकडून अनेकवेळा धन घेऊन गेलेल्या व पुन्हा काही धन मागण्यासाठी आलेल्या माणसाला संबोधून म्हणाला, “अरे, आजपर्यंत तू मागत असलेले धन मी तुला दिले. तू काहीसुद्धा धनार्जन न करता ते धन संपवून परत धन मागण्यासाठी आलास! बुद्धिमान लोक मेलेल्या उंदरालासुद्धा भांडवल करून त्याच्या प्रयोगाने धनप्राप्ती करू शकतात. तू धन कमावण्यास पात्र नाहीस. मी तुला थोडेसुद्धा धन देणार नाही.”

सुमतीने वाण्याचे ते बोलणे ऐकून तो मृत उंदीर मला द्यावा अशी त्याच्याकडे विनंती केली. हा मुलगा माझी टिंगल करण्यासाठी आला आहे असे समजून रागावलेल्या वाण्याने त्याला एक मेलेला उंदीर देऊन निघून जाण्यास सांगितले.

सुमती तो मृत उंदीर बाजारात विकण्यासाठी घेऊन आला. तो गिऱ्हाईकाची प्रतिक्षा करत असताना एका मनुष्याने आपल्या मांजरीच्या पिल्लाला खाण्यासाठी म्हणून तो उंदीर भाजलेले चणे त्याला देऊन विकत घेतला. नंतर सुमती गावाजवळच्या एका मोठ्या झाडाच्या सावलीत बसून त्या मार्गाने जाणाऱ्या थकलेल्या लाकूड वाहणाऱ्या लोकांना थोडे चणे व पाणी देत असे. चणे खाऊन व पाणी पिऊन ताजेतवाने झालेले ते लोक आपल्या लाकडाच्या भाऱ्यातील एक एक लाकूड काढून त्याला मोबदला म्हणून देत असत.

अशा प्रकारे थोड्या दिवसांनंतर त्याच्याजवळ जमा झालेले लाकूड सुमतीने विकले. त्याद्वारे जमा झालेल्या पैशांतून तेथे आणलेल्या सगळ्या लाकडाच्या भाऱ्यांची खरेदी करून सुमतीने ते लाकूड स्वतःच्या घरी आणले. दुसऱ्या दिवसापासून आठ दिवस सतत मुसळधार पाउस पडत होता. त्यामुळे लोकांना इंधन मिळणे कठीण झाले. त्यावेळी सुमतीने साठवलेल्या लाकडाच्या भाऱ्यांची अधिक किंमत घेऊन विक्री केली. त्यामुळे त्याला भरपूर धनप्राप्ती होऊन तो सुखाने राहू लागला.

तात्पर्य – बुद्धिमान लोक टाकाऊ गोष्टीचा सुद्धा युक्तीने उपयोग करून त्यांची उपयुक्तता सिद्ध करून दाखवतात व सुख मिळवतात.

अनुवाद – © अरुंधती अजित कुळकर्णी

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/म्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ मिस् जोकर – भाग-4 ☆ सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी

सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी

☆ जीवनरंग ☆ मिस् जोकर – भाग-4 ☆ सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी ☆ 

खरंच मला आश्चर्य वाटलं ते वीस वर्षांपूर्वीची टवळी, बेजवाबदार, आई वडिलांच्या डोक्याला ताप देणारी, भावंडाच्या, मित्रमैत्रिणीच्या खोड्या काढून त्यांना हैराण करणारी शैतान मिस जोकर हीच का ती? तिचे आता वेगळंच रूप मी पहात होते. सारं हॉस्पिटल, स्टाफ,  पेशंट, त्यांचे नातेवाईक हिला देव मानत होते. कोणाला आर्थिक तर कोणाला मानसिक मदत, कोणा पेशंटसाठी गरज असेल तर रात्री जागरण कर, कोणा पेशंटच्या नातेवाईकांची राहण्याची, जेवणाची तात्पुरती सोय कर. हेच तिचं काम ह्यातच तिला समाधान. हेच तिचं सुख. मग लग्न कार्य हवं कशाला? हे तिचं म्हणणं. कामात चोख, हुशार,चटपटीत, अपार मेहनत घेण्याची तयारी. त्यामुळे डॉक्टरांचा पण उजवा हात. डॉक्टर वेळ प्रसंगी तिच्यावर हॉस्पिटलची  जबाबदारी टाकून सेमिनारला, बाहेर फिरायला, बिनधास्त जात होते. डिग्री नव्हती पण कामात डॉक्टराच्या इतकीच अनुभवाने, वाचनाने निष्णात झाली होती. हाताला यश पण चांगले  होते. डिलिव्हरीसाठी लांबून लांबून स्त्रिया हिच्या धीरावर हॉस्पिटल मध्ये येत होत्या. कर्णोपकर्णी तिची कीर्ती वाढलेली. त्यामुळे डॉक्टर तिला दुसऱ्या हॉस्पिटल मध्ये पाठवयाला तयार नसायचे.

आता 31 मार्च उजाडला. क्लोझिंगचा बिझी दिवस. मिस जोकर वर  काका  काकूंना सोपवून आम्ही निर्धास्त. कारण कोणालाही त्या दिवशी दांडी मारणे शक्यच नव्हते. एक एप्रिलला रविवार होता. मीच आमच्या ग्रुप मधल्या नीलाच्या मुलाशी, जो इव्हेंट मॅनेजर होता. त्याला कॉन्टॅक्ट केले. हॉस्पिटलचा स्टाफ, आमचा मित्रमैत्रिणीचा ग्रुप, तो ठणठणीत होऊन गेलेला पेशंट- विनोद धमाले, जोकरला मागणी घातलेले त्याचे आई वडील ह्या सगळ्यांना दुपारी जेवणाचं आमंत्रण दिले. काकांचा बंगलोरला असलेला मुलगा आणि सून पण शनिवार रविवार जोडून सुट्टी घेऊन काकूंना बघायला आणि जमले तर त्यांना घेवून जायला आले  होते. सगळंच सरप्राईझ. योगयोगाने जोकरचा तो जन्मदिवस. तिकडे पण आई बाबांना एप्रिलफूल केले होते जोकरने. तिच्या आजारी आईच्या सोबतीला कोणाला तरी बसवून तिच्या वडिलांना हॉस्पिटलमध्ये आणण्याची व्यवस्था मी केली. आणि आम्ही सगळ्यांनी मिळून मिस जोकरचा सत्कार समारंभ करण्याचा घाट घातला. तिचा वाढदिवस धुमधडाक्यात साजरा  केला. आम्ही  पण रोजच्या धावपळीतून रिलॅक्स झालो होतो. मिस जोकर  ह्या सरप्राईझने चकीत  पण खूप आनंदी झाली कारण आजपर्यन्त तिच्यासाठी कोणी असे कधी केलेचं नव्हते. तिचं फायदा घेऊन सगळेचं पसार व्हायचे. तिचे वडिल हा सत्कार समारंभ बघून गहिवरले. स्टाफचा  पण उत्साह ओसंडून जात होता. त्यांनी सगळ्यानी आपल्या लाडक्या मिस जोकरबद्दल छान छान बोलून तिच्यावर स्तुतीसुमनांचा  वर्षाव केला. आता पाळी आली तिला मागणी घालणाऱ्या विनोदच्या आई वडिलांची. ते तर पुऱ्या तयारीनिशीचं आले होते. डायरेक्ट सगळ्यांच्या समोर त्यांनी तिला मागणी घातली. तिच्या वडिलांशी, आम्हा मित्र-मैत्रिणीशी पण चर्चा केली. त्या वयस्कर मीना नर्सने पण त्याना दुजोरा दिला. आणि जोकरला पण मनापासून विनोद आवडत होता हे तिच्या चेहऱ्या वरून दिसतच होते. चला. विनोदच्या आईवडिलांनी दोघांच्या एंगेजमेंटचा दिवस 15 दिवसांनी येणारा गुढी पाडव्याचा मुहूर्त नक्की केला. आम्हाला तिकडेच आमंत्रण दिले. जोकरला शकुनाची साडी, श्रीफळ दिले. आम्ही तिच्या आईला आणि रेवतीला  विडिओ कॉल करून समारंभात सामील केले होते. भावी वधुवरांनी  सगळ्यांना वाकून नमस्कार केला. सगळ्यांनी काका काकूंना मनापासून धन्यवाद दिले. काकूंच्या पडण्यामुळेचं तर आज मिस जोकरची मिसेस विनोद धमाले झाली होती.

समाप्त!

© सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी

फोन  नं. 8425933533

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ आठवणींच्या साठवणी….☆ श्री तुकाराम दादा पाटील

श्री तुकाराम दादा पाटील

0 ☆ विविधा ☆ आठवणींच्या साठवणी…. ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील ☆ 

आयुष्याचा सारीपाट मांडून आपल्याला खेळवणारी नियती काही मजेचे, काही कठीण, खडतर,खेळ मांडून सारखी खेळवत असते. जोजवत  असते, वाढवत असते, घडवत असते. अचानकपणे ती बदलून जाते. चकीत करते. गुपचुपपणे लुटायला एकांतातील अत्यानंद देते. खूप मजा वाटते तो लुटताना. लोकाना वरून काहीच कळत नाही. पण भोगणा-याच्या काळजात लुटलेला व भोगलेला आनंद मावता मावत नाही. ही दिशाभुलीची मजा दिर्घकाळ टिकणारा आठवणींचा नयनमनोहर तलावच बनून जाते. मग त्या तळ्याकाठी वाढलेल्या गर्दसावलीच्या डेरेदार झाडाखाली किती काळ कसा फुलपाखरा सारखा निघून व हरवून जातो तेच कळत नाही. प्रतेक आठवण एक नवासरंजाम घेवून येते. आकंठ आनंदात न्हाऊ घालते. उनपावसातल्या श्रावण धारांचा लपाछपीचा खेळ मांडून आपल्यातच गुंतवून ठेवते. म्हणूनच आठवण कायमची आठवणीत रहाते. कधी बगल देवून निघून गेली तर परतून लगट करायला हटकून येते. अशा आठवणींचा तजेलदारपणा‌ कधीच शेळपटत नाही. ती आठवण आठवणारालाही कायम आपलेसे करून टाकते.

अशा आठवणींच्या साठवणीनाच जीवनाचे चैतन्यमय न संपणारे कोठार समजायला काय हरकत आहे.

हे कोठर कुलूप लाउन कधीच बंद करून ठेवता येत नाही. हवे तेव्हा खाडकन उघडून हव्या त्या आठवणींची मजा मनसोक्त लुटता येते. किंवा तिच्यातील कटूता आठवून एकलेपणातील आक्रोश मांडून आपल्याच अश्रूं सोबत वाहून ही जाता येते. वास्तवाशी सांगड घालून एखादी नवीन समस्या सहजतेने सोडवता येते. हेच आठवणींचे खरे सामर्थ्य आहे. म्हणूनच आठवणींचे मोल सर्वाधिक आहे. त्या आपल्या सोबत कायम असतात. कधीच हरवत नाहीत. सढळ हातानी वापरून सरतही नाहीत. त्याचा साठा कायम वाढतच जातो.

आठवणींचा समृद्ध साठा ज्यांच्याकडे आहे तो जगातील खराखुरा सर्वात गर्मश्रीमंत असे मी समजतो. तुमचे या बाबतचे मत काय? हे विचारण्याचा आगवूपणा मी नक्कीच करणार नाही. किंवा तुमची एखादी खाजगीतली आठवण सांगा असा. आग्रह ही धरणार नाही.पण तुमच्या आठवपाखराना  मनाच्या कैदखान्यात नका ठेऊ डांबून. त्यांना  मुक्तता द्या, मुक्तपणे वावरायला, संचार करायला. कारण त्याच तुमच खरं ऐश्र्वर्य चिवचिवाट करून जगाला सांगतील. तुम्हालाही आत्मिक

समाधान देतील. आठवणी वाटचाल करणा-या आयुष्याच्या वाटाड्या असतात. अस्वस्थ मनाला रिझवायला आठवणीसारखा दुसरा खेळगडी नाही. जपा त्यांना आपले मार्गदर्शक म्हणून.

©  श्री तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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