हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य – ‘लेखकोपयोगी सूत्र और 100 पत्रपत्रिकाएं’ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य – ‘लेखकोपयोगी सूत्र और 100 पत्रपत्रिकाएं’ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’☆

पुस्तक – लेखकोपयोगी सूत्र और 100 पत्रपत्रिकाएं

लेखक – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

प्रकाशक – नोशन प्रेस

मूल्य – 200 रु (पेपरबैक) 

पृष्ठ संख्या –  156

ISBN:-10-1638324948

ISBN:-13-978-1638324942

इस संस्करण को अमेज़न और नोशन प्रेस से खरीदा जा सकता है।

अमेज़न लिंक >> लेखकोपयोगी सूत्र और 100 पत्रपत्रिकाएं

नोशन प्रेस लिंक >> लेखकोपयोगी सूत्र और 100 पत्रपत्रिकाएं

? इस महत्वपूर्ण उपलब्धि के लिए ई-अभिव्यक्ति परिवार की और से श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं ?

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

लेखक परिचय

नाम- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

जन्मतिथि एवं स्थान- 26 जनवरी 1965, भानपुरा जिला-नीमच (मप्र)

प्रकाशन- अनेक पत्रपत्रिकाओं में रचना सहित 141 बालकहानियाँ 8 भाषा में 1128 अंकों में प्रकाशित।

प्रकाशित पुस्तकेँ- 1- रोचक विज्ञान बालकहानियाँ, 2-संयम की जीत, 3- कुएं को बुखार, 4- कसक  5- हाइकु संयुक्ता, 6- चाबी वाला भूत, 7- पहाड़ी की सैर  सहित 4 मराठी पुस्तकें प्रकाशित।

☆ पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य – ‘लेखकोपयोगी सूत्र और 100 पत्रपत्रिकाएं’ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’☆

प्रथम संस्करण से…..
अभ्यास भी गुरु है। बिना अभ्यास के कुछ नहीं सीखा जा सकता। संगीत के साथ रियाज जुड़ा है तो लेखन के साथ अभ्यास ।

अभ्यास के साथ-साथ यदि किसी से मार्गदर्शन मिलता रहे तो लक्ष्य जल्दी प्राप्त हो जाता है । गुरु का मार्गदर्शन दीपक की लौ की तरह है जो अंधेरे में राह बताता है ।

लेखन के लिए ये तीन बातें जरुरी है । एक, अभ्यास खूब किया जाए। दो, अपने ज्ञान का प्रयोग करना सीखा जाए । तीन, सही मार्गदर्शन प्राप्त किया जाए। इसी तीसरे लक्ष्य की पूर्ति के लिए यह पुस्तक प्रस्तुत की जा रही है, जिस का सारा श्रेय कहानी लेखन महाविद्यालय के सूत्रधार डॉ. महाराज कृष्ण जैन को जाता है ।

दिनांक 05-07-95

 

तीन महीने की मेहनत के बाद आखिर किताब पूरी हो ही गई…..

इस पुस्तक का पहला संस्करण सन 1995 में प्रकाशित हुआ था और वह 4 साल में ही समाप्त प्राय हो गया था। उस वक्त यह पुस्तक 40 पेज की थी और आज 150 के लगभग पेज की हो गई है। उसी वक्त आदरणीय डॉ महाराज कृष्ण जैन साहब ने मुझे इसे अद्यतन करने के लिए कहा था। वह अद्यतन संस्करण मैं ने तारिका प्रकाशन, कहानी लेखन महाविद्यालय, अंबाला छावनी को पहुंचाया भी था। मगर नियति को कुछ और ही मंजूर था। आदरणीय महाराज कृष्ण जैन साहब उसी दौरान हमें छोड़ कर चले गए। इस कारण यह संस्करण अटका हुआ रहा। पुन: इसे अद्यतन कर के आप के सम्मुख प्रस्तुत हैं।

इसमें नवोदित रचनाकारों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण सूत्र शैली में जानकारी दी गई है।

उपन्यास लेखन की दो पद्धति है। अधिकांश दूसरी पद्धति का उपयोग करते हैं । इसी की व्यवहारिक योजना को इस पुस्तक में 13 पृष्ठों में समेटा गया है। यदि आप उपन्यास लिखना चाहते हैं तो आपके लिए यह पुस्तक काम की हो सकती है।

इस के अलावा भी बहुत कुछ है।

 

द्वितीय संस्करण से …..

लेखन में तीन बातें बहुत जरूरी है

यह अनुभव सिद्ध रहस्य है। जब तक आप बेहतर नहीं पढ़ते हैं तब तक बेहतर नहीं लिख सकते हैं। बेहतर पढ़ने पर ही बेहतर शब्दकोश तैयार होता है। यही शब्दकोश आपके लेखन में उपयोगी होता है।

इसलिए पहली बात- खूब पढ़ा जाए। जमकर पढ़ा जाए । अच्छा पढ़ा जाए। लेखन में सहायक हो, वैसा पढ़ा जाए। इन पंक्तियों के लेखक स्वयं अपनी रचना लिखने के पूर्व विधा की 20-25 रचनाएं पढ़ लेता है। तब लिखता है। तभी बेहतर ढंग से लिखा बाहर आता है।

दूसरी बात- जिस पत्रपत्रिका में छपना चाहते हैं उसे निरंतर देखते रहे। उसको देखने पढ़ने से उसकी रीति नीति पता चलता रहता है। उसके दृष्टिकोण को समझने के लिए यह बहुत जरूरी है। ताकि पत्रिका के इन रीति नीतियों को बेहतर ढंग से समझा जा सके। तभी आप उस पत्रिका के अनुरूप लिख सकते हैं।

पत्रिका क्या छपती है? यह जानना बहुत जरूरी है। आप एक धार्मिक रचना सरिता मुक्ता में छपने नहीं भेज सकते हैं। यदि भेज भी दी है तो वह हरगिज छप नहीं सकेगी। कारण स्पष्ट है कि सरिता मुक्ता की रीति नीति धार्मिक पाखंड का खंडन मंडन करना है। इस कारण वह इस तरह की रचनाएं प्रकाशित नहीं करेगी।

इसी तरह, एक धार्मिक पत्रिका सरिता मुक्ता की रीति नीति की रचनाएं भी हरगिज प्रकाशित नहीं करेगी। चाहे आपकी रचना कितनी भी श्रेष्ठ क्यों ना हो। कारण स्पष्ट है, धार्मिक पत्रिकाएं धार्मिक मान्यता, संस्कृति, परंपरा आदि की पोषक रचना ही स्वीकृत करती और छापती है। इस कारण, आपको पत्र पत्रिकाओं को सदा पढ़ते देखते रहना जरूरी है।

तीसरी और जरूरी बात- आपको बेहतर मार्गदर्शन मिलता रहे और आप बेहतर मार्गदर्शन प्राप्त करते रहें। यह मार्गदर्शन कई तरह का हो सकता है। छपना भी एक प्रेरक मार्गदर्शन ही है। इसके अलावा अपनी छपी रचना को कार्बन कॉपी से मिलान करते रहिए। इस से आपको अपनी कई तरह की गलतियां पता चलती रहेगी। यह स्व मार्गदर्शन होगा। आप अपनी गलतियों का परिष्कार कर पाएंगे।

यदि रचना अस्वीकृत हो तो उसका कारण खोजिए। निराश व हताश हरगिज़ न हो। अस्वीकृति कई कारणों से होती है। जरूरी नहीं कि रचना बेकार हो। इसके कारणों को जानने की कोशिश करें।

आपके आसपास कोई साहित्यकार रहता हो तो उसे रचना दिखाइए। उस से सलाह मशवरा कीजिए। इससे आप की नजर और नजरिया बदलेगा। उससे  अस्वीकृत रचना पर सलाह लीजिए। उन की बताई सलाह पर चलिए। उसे अपनाइए। वह आपके लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगी।

गुरु का मार्गदर्शन आप का मार्ग प्रशस्त करता है। यह बेहद जरूरी है। इसी तीसरी बात को सामने लाने के लिए यह पुस्तक लिखी गई है। इस पुस्तक से आपको अनुभव सिद्ध मार्गदर्शन मिलेगा।

आप इसे पढ़कर बताइएगा कि यह पुस्तक आपको कैसी लगी ? इसमें और क्या जोड़ा जाए?  या और क्या घटाया जाए ? ताकि भविष्य में इसमें सुधार किया जा सके। आपके पत्र, संदेश या मोबाइल का इंतजार रहेगा।

आपका साथी रचनाकार

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.६३॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.६३॥ ☆

 

उत्पश्यामि त्वयि तटगते स्निग्धभिन्नाञ्जनाभे

सद्यः कृत्तद्विरददशनच्चेदगौरस्य तस्य

शोभाम अद्रेः स्तिमितनयनप्रेक्षणीयां भवित्रीम

अंसन्यस्ते सति हलभृतो मेचके वाससीव॥१.६३॥

 

होगी वहाँ , तीर पहुंचे तुम्हारी

कज्जल सृदश श्याम स्निग्ध शोभा

ताजे तराशे द्विरददंत सम गौर

गिरि वह वहाँ और अति रम्य होगा

तो कल्पना में बँधी टक नयन से

मधुर रम्य दृष्टव्य शोभा तुम्हारी

मुझे दीखती , ज्यों गहन नील रंग की

लिये स्कंध पर शाल बलराभ भारी

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 76 – विजय साहित्य – जीवनाचे गीत…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 76 – विजय साहित्य – जीवनाचे गीत…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

सांजावला दिनमणी,

आता रजनीची शाल.

तुझ्या सोबतीने सरे

सुखदुःख  भवताल …!

 

असा जीवनाचा सुर

अंतरात निनादतो

आठवांच्या पाखरांनी

आसमंती विसावतो …!

 

अशा संधीकाली गाऊ

जीवनाचे गीत नवे

ऐकायला जमलेत

आपलेच स्वप्न थवे…..!

 

तने दोन, एक मन,

प्रेम प्रीती जुने नाते.

तेजोमय भविष्याची,

वाट जोगिया हा गाते …!

 

दूर करण्या अंधार,

अशी रम्य  वाटचाल

कधी ज्ञानाचा प्रकाश,

कधी प्रकाशाची शाल…!

 

सुरमयी सजे आभा,

लावू पाठीला या पाठ

स्वप्न मयी, कवडसे

बांधियली सौख्य गाठ…… !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ भास तुझ्या स्वप्नांचा ☆ सौ. राही पंढरीनाथ लिमये

सौ. राही पंढरीनाथ लिमये

 ☆ कवितेचा उत्सव  ☆ भास तुझ्या स्वप्नांचा ☆ सौ. राही पंढरीनाथ लिमये ☆ 

गंध दरवळला बकुळी चा

इशारा तुझ्या येण्याचा

बावरे मन चाचपे कुंतलाना

परी भास हा माझ्या मनाचा.

 

पोर्णिमेचा चंद्र मना मोहवी

स्वप्न तुझ्या प्रिती चे जागवी

स्वप्न भंगता डोळे ओले

तुझ्या आठवांचा झुला झुलवी.

 

मन वेडे  समजाऊनी समजेना

जखमा उरी स्वप्नात  गुंतताना

आता भेट आपली पुढील जन्मी

तरी मन मोहरे स्वप्नी भेटताना.

राही पंढरीनाथ लिमये.

 

सौ. राही पंढरीनाथ लिमये

मो  नं 9860499623

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/म्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – कठपुतली ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

 

 

 

 

☆ जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – कठपुतली ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆ 

“मम्मी, काल आमच्या शाळेत कठपुतलीचा खेळ दाखवला,” जमिनीवर बसून वहीत ड्रॉइंग काढत असलेली पारंबी म्हणाली.

“अरे वा, काय काय दाखवलं?” गाईला चारा घालून परत घरात येता येता मम्मीने विचारलं.

“अगं ए, गाईला चारा-पाणी देऊन झालं असेल तर जरा इकडे ये, आणि माझे पाय दाबून दे,” कॉटवर आरामात लोळत पडलेल्या नवऱ्याने हुकूम फर्मावल्यासारख सांगितलं.

“सगळं दाखवलं मम्मी— त्या बाहुल्यांनी विहिरीतून पाणी काढून घरात आणून ठेवणं, चुलीवर स्वैंपाक करणं, मुलांना आंघोळी घालणं, कपडे धुणे, इस्त्री करणं — सगळं सगळं दाखवलं—” काढलेलं चित्र रंगवता रंगवता पारंबीने सांगितलं.

“कसा वाटला तुला तो कठपुतलीचा खेळ?”— नवऱ्याच्या पायापाशी बसून आता ती बायको त्याचे पाय चेपायला लागली होती.

“खूपच छान”, पारम्बी उत्साहाने सांगायला लागली.

“दोऱ्यांचे एक एक टोक खेळ दाखवणाऱ्या त्या माणसाच्या बोटांना बांधलेले होते, आणि दुसरी टोके त्या बाहुल्यांच्या अंगावर बांधलेली होती. तो माणूस त्या बाहुल्यान्ना इशारा केल्यासारखा बोटं हलवतो, आणि मग त्या बाहुल्यांचे अंग हलायला लागते. मग तुम्ही तुम्हाला जे पाहिजे ते त्यांच्याकडून करून घ्या. उड्या मारायच्या, खाली पडायचं, नाचायचं, गाणं- बजावण करायचं, भांडणं करायची—- हे सगळंही करत होत्या त्या. खूप खूप मज्जा आली मम्मी मला.”

” थांब– पुरे झालं पाय चेपन”

” थांब— पुरे झालं आता. एक तरी काम व्यवस्थित करायला कधी शिकणार आहेस कोण जाणे”— नवरा रागावून म्हणाला. बायको कॉटवरून खाली उतरताच तो पुन्हा गुरगुरला— “चाललीस कुठे लगेच? जरा तेल लावून डोक्याला मालीश करून दे– आणि सावकाश कर– मान तोडायची नाहीये माझी,” त्याच्या आवाजात कडवटपणा होता.

“बाळा तू रिमोटवर चालणाऱ्या कठपुतळ्या पाहिल्या आहेस का?”– आता नवऱ्याच्या डोक्यापाशी बसून, त्याच्या डोक्याला तेलाने मालिश करणाऱ्या बायकोने विचारलं.

“रिमोटवर चालणारी म्हणजे?”– खोडरबराने चित्र खोडता खोडता पारंबीने विचारलं.

“म्हणजे– म्हणजे फक्त आवाज ऐकून सगळं काही करते ती — कठपुतली– जसे की– तुम्ही हुकूम द्या– जा, गाईला चारा घालून ये– की ती जाऊन गाईला चारा घालून येईल. मग तुम्ही सांगा, की इकडे येऊन पाय चेपून दे– मग ती पट्कन येऊन पाय चेपत बसेल. — मग तुम्ही तिला दम देत सांगायचं, की आता डोक्याला तेल —“.

एखादे झुरळ झटदिशी उडावे, तसे पारंबीचे लक्ष त्या चित्रावरून उडाले आणि ती मम्मीकडे बघायला लागली. खरं तर तिच्या लक्षात आलं होतं की, तिच्या मम्मीचा आत्ताचा आवाज हा आवाज नाही, तर बरसण्यासाठी व्याकूळ झालेले – गच्च दाटून आलेले काळे ढग होते. हातातलं खोडरबर तिथेच टाकून ती उठली, आणि जाऊन कॉटवर तिच्या मम्मीला चिकटून बसली — आणि तिच्या गळ्यात हात टाकत म्हणाली — “मम्मी मी कठपुतली होणार नाही– मुळीच नाही– कधी म्हणजे कधीच होणार नाही मी कठ पुतली — तू मला स्वतःसारखी कठपुतली बनवू नकोस मम्मी—-

मूळ हिंदी कथा : श्री भगवान वैद्य “प्रखर”

अनुवाद :  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तिळगुळ घ्या, गोड बोला ☆ श्रीमती सुधा भोगले

☆ मनमंजुषेतून ☆ तिळगुळ घ्या, गोड बोला ☆ श्रीमती सुधा भोगले ☆ 

तिळगुळ घ्या, गोड बोला, संक्रांतीच्या सणाला तिळगुळ एकमेकांना देताना म्हणायचे गोड गोड शब्द!  वर्षभरातील कटू आठवणींना विसरून जाऊन एकमेकात गोडी निर्माण करणारा सण!  नवीन लग्न झालेल्या लेकीचा संक्रांतसण करण्यास मातेची केवढी धावपळ. जामातांना सणाला बोलवून त्यांना संक्रांतीचे दान करणे यात परंपरेचा भाग आलाच. बालगोपाळांचा बोरनहाण हा केलेला संस्कार, परंपरेचा व हौसेने करायचा सोहळा! उत्सवप्रियतेमुळे चारजणांनी एकत्र जमावे हेच खरे त्यामागील उद्दिष्ट.

असे आपले अनेक सण. त्यामागील संस्कार, काहीवेळा पौराणिक कथा आणि बहुतांशी आपल्या थोर भारतीय संकृतीतील विचार, आचार आणि परंपरा यांचा सुरेख संगम म्हणजे संक्रांतीसारखे सण होय. सणांनी आपले जीवन इतके व्यापून टाकलयं की त्यांची आपण आतुरतेने वाट पहात असतो. सणामुळे आपल्या जीवनात उत्साह, आनंद आणि क्रियाशीलता येते.

प्रत्येक सणामागे आणि धार्मिक कृत्यात दानाची अजोड अशी कल्पना असते. आपली संस्कृती त्यावरच आधारित असल्याने आपल्याजवळचे जे चांगले आहे, उत्तम आहे ते योग्य ठिकाणी देणे, यातून दात्यास सात्विक समाधान लाभते.

मकर संक्रणापासून देवांची रात्र संपून दिवस सुरु होतो. दिवस म्हणजे प्रकाश. इतके दिवस असलेली रात्र सरून सूर्यदेवाची स्वच्छ किरणे पृथ्वीतलावर आल्याने सर्वकडे तेजाचे वातावरण निर्माण होते. पौराणिक कालापासून देव व राक्षस असे दोन परस्पर विरुद्ध पक्ष आपण पाहतो. देवांचे ते ते आचरणीय, चांगले, राक्षस म्हणजे क्रूर, कुटील, कारस्थानी अशी माणसे, प्रवृत्ती! म्हणून अंधाराचा काळ म्हणजे वाईट प्र्रुवृतीचा काळ. तो मागे पडून स्वच्छ प्रकाशाचा काळ येतो आहे. त्यालाच संक्रमण म्हणतात. अनिष्टातून चांगल्या सुष्ट विचारांकडे वळणे म्हणजे संक्रमण, बदल! ते विचारांचे,  आचारांचे आणि कृतीचेही हवे.

कालचक्रानुसार सूर्याची दोन आयने मानली जातात. १) दक्षिणायन २) उतारायण. मकरसंक्रमण म्हणजे दक्षिणायनाचा अस्त आणि उत्तरायणाचा उदय.

संक्रातीला तिळाला अनन्यसाधारण महत्व आहे. प्राचीन काळापासून तिळ आपल्या स्निग्ध गुणांमुळे, आपल्या आहारात महत्वाचे स्थान व्यापून आहे.

महर्षे गोत्र संभूता:काश्यपस्य तिलामृता:

तस्मादेषां प्रदानेन मम पाप व्यतोहतु||

महर्षी कश्यपांच्या कुळातील तीळ अमृत मानला गेला आहे. म्हणून तिळाला काश्यपहि म्हणतात. अशा अमृतमय तिळाच्या दानाने माझ्या पापांचा नाश होवो.

प्राचीन काळापासून तीळ हे, दोन्ही कर्मासाठी म्हणजे देवनाकृत व पितृकृत्य यासाठी शास्त्रकारांनी शुद्ध मानले आहे. विधीपूर्वक जर, होम,  दान, तिलमिश्रित उदक, तिलाक्षता अर्पण केल्या, तर त्याचे फळ दात्यास प्राप्त होते. तिळाचा गुणधर्म उष्ण असल्याने त्याच्या सेवनाने आपल्या शरीरात उष्णता निर्माण होऊन शक्ती वाढते.

तिलस्नायी, तीलोद्वती, तिलहोमी,  तिलोदकी|

तीलभूक तिलदात्रीच षटतिला:पापनाशका||

तिळाच्या स्नानाने, तीळयुक्त उदक घेतल्याने तिळाच्या सेवनाने व तिळाच्या दानाने पापांचा नाश होतो. म्हणजेच दक्षिणायनात घडलेल्या चुकांचे, पापांचे परिमार्जन तिलसेवनाने होऊ दे. आपल्या पुर्वज्यांनी निसर्ग आणि अनुरूप असा आहार, यांची सांगड घालून जनसामान्यांना आहारविहाराचे महत्व पटवून दिले आहे.

या सणाला सुवासिनी सुगडाचे दान करतात. सुगड मृतिकेचे असते. त्यात शेतात पिकलेले धान्य, ऊस गाजर, हरभरा आदी घालून ऐकमेकींना दान करतात. या दानाला सुवर्णदानाचे महत्व आहे. सुवर्णाचा पिवळा रंग आणि त्याचे स्थान दुसरा धातू घेऊ शकत नाही. पृथ्वीतलावर पिकलेले हे काळ्यामातीतील सोने सुवर्णाइतकेच, किंबहुना त्याहून अधिक मोलाचेच आहे. या भूमीतील सोन्यामुळेच तर आपले भरण पोषण होते. पृथ्वीतलावरील जीवन त्याविना अशक्यप्राय आहे. म्हणून मृत्तीकेचे सुगड. हे भूमीचे द्योतक,  तर धान्य हे त्यातून निर्माण झालले सोने,  म्हणजे सुवर्णच! मृत्तिका आपली माता.

पूर्वजांनी पुजिलेल्या अशा अनेक उच्चतम कल्पनांना आजच्या आधुनिक काळात कितपत महत्वाचे स्थान उरलयं ही शंका आहे. त्यागाचा असलेला महान संस्कृतीचा पाया आत्मकेंद्री, स्वार्थी विचारांनी डळमळा यला  लागला आहे. माझे स्थान, मी आणि मीच मला शोधत फिरतो आहे. या वृत्तीमुळे आपण एकमेकांना दुरावत आहोत. तंत्रज्ञानामुळे जग क्षणाच्या अंतरावर आले आहे. पण पूर्वीचा स्नेहभाव, आपुलकी या गुणांना या नव संस्कृतीने दूर लोटले आहे. सहनशीलता आणि त्यागीवृती आपल्यापासून दूर पळते आहे.  पाश्चीमात्यांचा भोगवाद आपण अंगिकारला आहे त्यामुळे तिळातिळाने गोड बोलण्यापेक्षा तिळा-तिळाने कटू बोलणे आणि तिळा-तिळाने एकमेकात वैमनस्य वाढत आहे.  तिळाच्या उष्ण प्रव्रुतीमुळे व पौष्टीक्तेमुळे आपले बल वर्धन होते आपण शरीराने व मनानेही बलवर्धक होऊन या अनिष्ट काळाचा नाश करण्यास सज्ज होणे उचित आहे. धन गेले तर कोणतेही नुकसान नाही आरोग्य बिघडले थोडे नुकसान होते,  परंतु चारित्र्य बिघडले तर सर्वस्वाचाच नाश होतो. शुद्ध आचरण हेच या संक्रांतीच्या काळाचा नेम करूया म्हणून या संक्रमणाच्या कार्यास सर्वांनी हातभार लावूया.  जुन्या नव्याची सांगड घालून नवं विचारांची,  आचारांची वाट अनुसरणे हेच आधुनिक काळात उचित उत्तरायण होईल.

एक दुजांना तिळगुळ देऊ

गोड बोलण्या शप्पथ घेऊ

 भांडण-तंटा विसरून जाऊ

 आपण सारे स्नेह वाढवू !

 

© श्रीमती सुधा भोगले 

९७६४५३९३४९ / ९३०९८९८९१९

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ ‘फादर टेरेसा आणि इतर वल्ली’ – डॉ शंतनू अभ्यंकर ☆ सुश्री सुमती जोशी 

सुश्री सुमती जोशी

☆  पुस्तकांवर बोलू काही ☆ ‘फादर टेरेसा आणि इतर वल्ली’  – डॉ शंतनू अभ्यंकर ☆ सुश्री सुमती जोशी  ☆ 

फादर टेरेसा आणि इतर वल्ली

पुस्तकाचे नाव : फादर टेरेसा आणि इतर वल्ली

लेखक  : डॉ शंतनू अभ्यंकर

प्रकाशक : समकालीन प्रकाशन

मूल्य : रू 160/-

पृष्ठ संख्या – 130 

ISBN13: 9789386622662

पुस्तक परिक्षण  : सुश्री सुमती जोशी 

‘फादर टेरेसा आणि इतर वल्ली’ हे डॉक्टर शंतनू अभ्यंकर यांनी लिहिलेलं समकालीन प्रकाशन यांनी प्रकाशित केलेलं पुस्तक वाचलं. ‘फादर टेरेसा’ हे शीर्षक ऐकल्यावर वाचकांच्या मनात उत्सुकता निर्माण होते. मदर टेरेसा माहितेय, पण फादर तेरेसा ही काय भानगड? डॉक्टर त्याचं स्पष्टीकरण देतात. खाष्ट, उंच, धिप्पाड नर्स. आवाज आणि बोलणं सारं पुरुषी. ‘नर्स कसली, नरसोबाच तो! म्हणून फादर टेरेसा’ असं सांगून ते तिचं व्यक्तिमत्त्व शब्दांच्या माध्यमातून साकार करतात. भुलेश्वर अनॅस्थटीस्ट प्राणसख्याविषयी इतक्या तळमळीनं लिहिलंय की कोणत्याही ऑपरेशनमध्ये त्याचं अनन्यसाधारण महत्त्व डॉक्टर प्रांजळपणे कबूल करतात. प्रसू ही गरोदर महिला आपल्या डॅनिष नवऱ्याबरोबर येते. बाळंत होईपर्यंत वरचेवर भेटायला येते. तिचे प्रश्न, मनातल्या शंका, हक्क याविषयी चर्चा करते आणि डॉक्टरांना पेशंटच्या हक्कांची जाणीव करून देते. कोणताही आडपडदा न ठेवता डॉक्टरांनी हे नमूद केलंय. असा हा अनोखा पेशंट प्रत्यक्ष भेटलाय, असा भास वाचकांना होत राहतो. महाडचे पेशंट चाफेकर बंधू, पण त्यांची नावं दाऊद, बशीर, रहीम. कोकणी मुसलमान. त्यांची भाषा आपलीच भाषा असल्याच्या थाटात डॉक्टर त्यांची कथा आपल्याला सांगतात. सय्यद गलाह हा अफगाणिस्तानातून आलेला, इंग्रजीचा गंध नसलेला विद्यार्थी मेडिकल कॉलेजमध्ये प्रवेश घेतो आणि डॉक्टरांचा मित्र बनतो. नियतीच्या फेऱ्यात अडकल्यामुळे त्याच्या जीवनाची कशी फरपट होते हे त्यांनी आपल्या समर्थ लेखणीने साकार दिलंय. जीवनात नाटक आणि नाटकाच्या अनुषंगानं येणारे इतर विषय हेच जीवनसर्वस्व असणारे ‘मास्तर’ म्हणजे एक अवलिया. हे सदाहरित मास्तर सगळ्यांना हवेहवेसे वाटतात. ‘नाटक संपल्यावर गप्पांचा फड जमतो आणि हा चौथा अंक कधीकधी नाटकापेक्षा रंगतदार होतो’, असं लेखक म्हणतात तेव्हा आपण त्या आनंदाला मुकलोय, अशी हुरहूर वाचकांना वाटत राहते. गर्भपात करून घ्यायला आलेली कुंती, डॉक्टर च्यायला, चक्रधर, कुलीओ अशा एकापेक्षा एक सरस व्यक्ती आणि वल्लींचा परिचय डॉक्टर अचूक शब्दात करून देतात. ‘नाना’ हे त्यांच्या आजोबांचं व्यक्तिचित्र वाचल्यावर मला माझे आजोबा आठवले. त्यांचं धारदार बोलणं, तिरकस विनोद, पुण्याचा चालता बोलता शब्दकोश असलेल्या नानांचं शब्दचित्र अतिशय ह्रदयस्पर्शी झालंय.

अशी चित्रविचित्र माणसं आपल्यालाही भेटतात. पण ती शब्दबद्ध करायला भाषेवर विलक्षण प्रभुत्त्व असावं लागतं. त्या माणसाच्या मनात शिरता यावं लागतं. भाषा हवी तशी वळवता यावी लागते. इंग्लिश मिडीयममध्ये शिकूनही त्यांच्या शिक्षकांनी त्यांना मराठीची गोडी लावली. टी.व्ही. नसलेल्या त्या काळात आपलं वाचनवेड जोपासत त्यांनी सर्वस्पर्शी वाचन केलं. त्याचाच परिपाक आणि प्रचीती या पुस्तकाच्या पानोपानी येत रहाते. अवश्य वाचावं असं हे पुस्तक.

 

सुश्री सुमती जोशी

मोबाईल ९८३३२२२१०६. ई-मेल आयडी [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 61 ☆ लघुकथा – बेडियाँ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर एक  हृदयस्पर्शी लघुकथा। मानव जीवन अमूल्य है और हमारी विचारधारा कैसे उसे अमूल्य से कष्टप्रद बनाती है यह पठनीय है ।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को एक  विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 61 ☆

☆ लघुकथा – बेडियाँ ☆

मैं ऐसी नहीं थी, बहुत स्मार्ट हुआ करती थी अपनी उम्र में – वह हँसकर बोली। यह हमारी पहली मुलाकात थी और वह थोडी देर में ही अपने बारे में सब कुछ बता देना चाहती थी। वह खटाखट इंगलिश बोल रही थी और जता रही थी कि हिंदी थोडी कम आती है। हमारे परिवार में किसी के कहीं भी आने जाने पर कोई रोक – टोक नहीं थी, खुले माहौल में पले थे। शादी ऐसे घर में हुई जहाँ पति को मेरा घर से बाहर निकलना पसंद नहीं था। बहुत मुश्किल लगा उस समय, अकेले में रोती थी लेकिन क्या करती, समेट लिया अपनेआप को घर के भीतर। मेरी दुनिया घर की चहारदीवार के भीतर पति और बच्चों तक सीमित रह गई।

बच्चे बडे हो गए। बेटी की शादी कर दी और बेटा विदेश चला गया। अपनी जिम्मेदारी  पूरी कर चैन की साँस ली ही थी कि पति  एक दुर्घटना में चल बसे। जिनके इर्द- गिर्द मेरी दुनिया सिमट गई थी, वे सहारे ही अब नहीं रहे। अब  बच्चे समझाते हैं मम्मी घर से बाहर निकलो, लोगों से मिलो, बात करो, अकेली घर में बंद मत रहो। फीकी सी हँसी के साथ बोली – अब कैसे समझाऊँ इन्हें कि चालीस साल की इन बेडियों को इतनी जल्दी कैसे काटा जा सकता है ?

मैं चुपचाप उसकी बातें सुन रही थी, मेरी आँखों के सामने एक बिंब उभर रहा था चार पैरवाले पशु का, जिसके दो पैर रस्सी से बाँध दिए गए थे।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अहं ब्रह्मास्मि ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – अहं ब्रह्मास्मि  ☆

यात्रा में संचित

होते जाते हैं शून्य,

कभी छोटे, कभी विशाल,

कभी स्मित, कभी विकराल..,

विकल्प लागू होते हैं

सिक्के के दो पहलू होते हैं-

सारे शून्य मिलकर

ब्लैकहोल हो जाएँ

और गड़प जाएँ अस्तित्व

या मथे जा सकें

सभी निर्वात एकसाथ

पाए गर्भाधान नव कल्पित,

स्मरण रहे-

शून्य मथने से ही

उमगा था ब्रह्मांड

और सिरजा था

ब्रह्मा का अस्तित्व,

आदि या इति

स्रष्टा या सृष्टि

अपना निर्णय, अपने हाथ

अपना अस्तित्व, अपने साथ!

 

©  संजय भारद्वाज

( प्रात: 8.44 बजे, 12 जून 2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 96 ☆ कविता – बसन्त की बात ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  समसामयिक विषय पर आधारित एक भावप्रवण कविता  ‘बसन्त की बात’ इस सार्थक सामयिक एवं विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 96☆

? बसन्त की बात ?

लो हम फिर आ गये

बसन्त की बात करने ,रचना गोष्ठी में

 

जैसे किसी महिला पत्रिका का

विवाह विशेषांक हों , बुक स्टाल पर

ये और बात है कि

बसन्त सा बसन्त ही नही आता अब

अब तक

बसन्त बौराया तो है , पर वैसे ही

जैसे ख़ुशहाली आती है गांवो में

जब तब कभी जभी

 

हर बार

जब जब

निकलते हैं हम

लांग ड्राइव पर शहर से बाहर

 

मेरा बेटा खुशियां मनाता है

मेरा अंतस भी भीग जाता है

और मेरा मन होता है एक नया गीत लिखने का

 

मौसम के  बदलते मिजाज का अहसास

हमारी बसन्त से जुड़ी खुशियां बहुगुणित कर देता है

 

किश्त दर किश्त मिल रही हैं हमें

बसन्त की सौगात

क्योकि बसंत वैसे ही बार बार प्रारंभ होने को ही होता है

कि फिर फिर किसी आंदोलन

की घटा घेर लेती है बसन्त को

 

बसन्त किसी कानून में उलझ कर

अटका रह जाता है

 

मुझे लगता है

अब किसान भी

नही करते

बरसात या बसन्त का इंतजार उस व्यग्र तन्मयता से

 

क्योंकि अब वे सींचतें है खेत , पंप से

और बढ़ा लेते हैं लौकी

आक्सीटोन के इंजेक्शन से

 

 

देश हमारा बहुत विशाल है

कहीं बाढ़ ,तो कहीं बरसात बिन

हाल बेहाल हैं

जो भी हो

पर

अब भी

पहली बरसात से

भीगी मिट्टी की सोंधी गंध,

और

बसन्त के पुष्पों से

प्रेमी मन में उमड़ा हुलास

और झरनो का कलकल नाद

उतना ही प्राकृतिक और शाश्वत है

जितना कालिदास के मेघदूत की रचना के समय था

 

और इसलिये तय है कि अगले बरस फिर

होगी रचना गोष्ठी

 

और हम फिर बैठेंगे

इसी तरह

नई रचनाओ के साथ .

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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