हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ऊर्जा के मन्दिरों की घाटी ☆ श्री हेमचंद्र सकलानी

श्री हेमचंद्र सकलानी

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हेमचन्द्र सकलानी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप उत्तराखंड जल विद्युत् निगम से सेवानिवृत्त हैं।  अभियांत्रिक पृष्ठभूमि के साथ साहित्य सृजन स्वयं में एक अभूतपूर्व उपलब्धि है। आपके साहित्य संसार की उपलब्धियों की कल्पना आपके निम्नलिखित संक्षिप्त परिचय से की जा सकती है।)

संक्षिप्त परिचय 

शिक्षा  – एम.ए.राजनीति विज्ञान और इतिहस।

प्रकाशन  – 1-विरासत को खोजते हुए (उत्तराखंड के यात्रा वृतांत) 2- शब्दों के पंछी (कविता संग्रह) 3- इस सिलसिले में (कहानी संग्रह) 4- विरासत को खोजते हुए (यात्रा वृतांत -भाग – 2) 5- एक युद्ध  अपनों से (कहानी संग्रह) 6- विरासत को खोजते हुए – (भाग -3) 7- उत्तराखंड की जल धाराएं और उनके तट पर ऊर्जा के मन्दिर 8- डूबती टिहरी की आखरी कविताएं (कविता संग्रह का संपादन) 9- अंतर्मन की अनुभूतियां (कहानी संग्रह) 10-विरासत की यात्राएं ( यात्रा वृतांत भाग -४)  11- दुनिया घूमते हुए ( विदेशों के यात्रा संस्मरण, यात्रा वृतांत भाग 5) 12- विरासत की यात्राएं (देश के यात्रा वृतांत भाग 6) इसके अतिरिक्त 1- उत्तराखंड महोत्सव की.

पुरस्कार / सम्मान – देश भर की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा हिमालय गौरव, उत्तराखंड रत्न, भारतेन्दु साहित्य शिरोमणि, हिंदी गौरव सम्मान, यात्रा साहित्य पर भारत सरकार से प्रथम पुरस्कार, मुंबई कहानी प्रतियोगिता में प्रथम स्थान सहित 94 सम्मान प्राप्त। देश भक्ति के गीतों की सीडी “देश को समर्पित वंदना के स्वर” जारी जिसको अपने मधुर स्वरों से सजाया “सारेगामापा” की 2019 की विजेता ईशिता विश्वकर्मा और साथियों ने। 2002, 2004, 2008, 2012, 2014 का तथा पावर जूनियर इंजीनियर एसोशिएसन की वर्ष 2008, 2010, 2012 की स्मारिकाओं का संपादन।

(आज प्रस्तुत है उत्तराखंड की जलधाराओं के तट पर ऊर्जा के मंदिर की गाथा – ऊर्जा के मन्दिरों की घाटी )

 ☆ आलेख ☆ ऊर्जा के मन्दिरों की घाटी ☆ श्री हेमचंद्र सकलानी ☆ 

उत्तरकाशी देश का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल, पर्यटक स्थल, अपनी प्राकृति सुन्दरता के कारण तो जाना ही जाता है, साथ ही अनेक पवित्र नदियों, जैसे गंगा, जाड़गंगा, यमुना, तमसा, केदार गंगा जैसी नदियों का उदगम स्थल भी है। यह जलधारांए अपने अन्दर अनेक पैराणिक कथांए समेटे हैं। जिससे प्राचीन काल से ही ये हमारी असीम आस्था, श्रद्धा का पात्र बनी हुई हैं। उत्तरकाशी की हिमच्छादित पर्वत श्रंखला भागीरथी शिखर से यदि गंगा प्रवाहित होती है। तो गंगोत्री ग्लेशियर के दूसरे छोर बंदरपुंछ अर्थात कालिन्दी शिखर से यमुना उदगमित होती है। पुराणों में यमुना को कालिन्दी के साथ एक हजार नामों से सुशोभित किया गया है। इसी से इस पवित्र नदी का महत्व पता चलता है।

दूसरी ओर हर की दून नामक स्थान से नीचे उतरने पर सांकरी नामक स्थान के पास सुपिन नदी तथा सियान गाड़ नामक जलधाराएं मिलकर तमसा नदी का निर्माण करती हैं। नैटवार, नालगल घाटी, सिंगला घाटी की जलधाराएं रूपिन नदी का रूप लेकर तमसा से मिलती हैं। गलामुंड, कुलनी से आकर कुछ जलधाराएं मोरी के पास तथा जरमोला, पुरोला से, चिरधार से आ रही जलधाराएं  पब्बर नदी, मीनस नदी और दिबन खैरा की दो जलधाराएं अपनी जलराशि से तमसा को समद्ध करती हैं।

आगे चलकर तमसा और यमुना, प्रसिद्ध यमुना घाटी का निर्माण करती हैं। यह जल धाराएं अनेक पौराणिक कथाओं के साथ अपने अन्दर असीम विद्युत शक्ति का भण्डार तथा सिंचाई की क्षमता समेटे हुये हैं। यमुना अपनी सहायक तमसा नदी के साथ उत्तरी क्षेत्र की सर्वाधिक विद्युुत उत्पादन क्षमताओं वाली नदियों में से एक है। इनकी अनुमानित विद्युत क्षमता 1960-70 के दशक में लगभग 55 लाख किलोवाट आंकी गयी थी, तथा इसमें लगभग 3 लाख हैक्टेयर भूमि सिंचाई के लिये 19,000 लाख घनमीटर अतिरिक्त जल प्रदान करने की भी क्षमता है। स्वतन्त्रता के बाद तमसा, यमुना के तट पर कुछ ऊर्जा के मन्दिरों का निर्माण कर इनकी जलशक्ति का उपयोग कर जनजीवन के उपयोग हेतु सिंचाई जल तथा विद्युत शक्ति उत्पन्न करना लक्ष्य रखा गया। जिनमें कुछ एक उददेशीय  परियोजनाए थी तो कुछ बहुउददेशीय परियोजनाए थी। एक उददेशीय परियोजना का लक्ष्य विद्युत उत्पादन था तो बहुउददेशीय परियोजना का विद्युत के साथ सिंचाई के लिए जल उपलब्ध कराने के साथ बाढ़ से होने वाली जन-धन हानि से सुरक्षा प्रदान करना था।

यमुना जल विद्युत परियोजना के प्रथम चरण में देहरादून से 50 कि0मी0 दूर डाकपत्थर में एक बांध बनाया गया । सन 1949 में प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने इस बांध की आधारशिला रखी थी। इस बांध से शक्ति नहर निकाल कर 9 कि0मी0 दूर ढकरानी नामक गांव के समीप ढकरानी पावर हाउस से (11.25MW x 3) अर्थात 33.75 मेगावाट तथा ढालीपुर गांव के समीप ढालीपुर जल विद्युत परियोजना से  (17 MW x 3) अर्थात 51 मेगावाट की परियोजनाओं से नवम्बर-दिसम्बर 1965 में  विद्युत उत्पादन प्राप्त होने लगा था।

यमुना जल विद्युत परियोजना के द्वितीय चरण में डाकपत्थर से 40 कि0मी0 दूर इच्छाड़ी नामक गांव के समीप तमसा नदी पर एक बांध बनाया गया । जहां पर एशिया का उच्चतम टेंटर गेट  16.5 मीटर ऊंचाई के हैं। इस बांध की जलराशी को 7 मीटर व्यास की 6.174 कि0मी0 लम्बी भूमिगत सुरंग (पहाडों के अन्दर) को छिबरो गांव के समीप सर्ज टैंक से जोड़ा गया। यह सर्ज टैंक 20 मीटर व्यास का तथा 92 मीटर ऊंचाई का है। इस परियोजना में विश्व में अपने ढंग की सर्व प्रथम सैन्डीमेन्टेशन तथा इनटेक प्रणाली अपनायी गयी है। छिबरो गांव में तमसा के समीप पर्वत के गर्भ में 113 मीटर लम्बे, 18.2 मीटर चौड़े, 32 मीटर व्यास के भू गर्भित जल विद्युत गह, जिसमें चार 60 मेगावाट, की टरबाईनों वाला 240 मेगावाट का विद्युत गह निर्मित हुआ। वर्ष 1974-75 में इस विद्युत गह से विद्युत उत्पादन प्राप्त होने लगा।

छिबरो पावर हाउस के उपरान्त तमसा नदी के पानी के उपयोग के लिए यमुना जल विद्युत परियोजना के द्वितीय चरण में हिमाचल प्रदेश के खोदरी नामक गांव मे, डाकपत्थर के समीप खोदरी जल विद्युत गह का निर्माण हुआ। वर्ष 1984 से जिसकी 4 टरबाईनों से (30MW x 4) अर्थात 120 मेगावाट विद्युत का उत्पादन प्राप्त हुआ। इन दोनों विद्युत गृह के मध्य विश्व में सर्वप्रथम टैण्डम प्रणाली अपनायी गयी। छिबरो पावर हाउस से खोदरी पावर हाउस तक विश्व की प्रथम ”एक्टिव इन्ट्रा थ्रस्ट” क्षेत्रों से गुजरने वाली 5.9 कि0मी0 लम्बी भूमिगत सुरंग बनायी गयी। खोदरी पावर हाउस का सर्ज टैंक 21 मीटर व्यास तथा 57.5 मीटर ऊंचाई का है। उपर्युक्त दोनों परियोजनाओं में तमसा की जलराशी का उपयोग हुआ। डाकपत्थर बांध में यमुना-तमसा आपस में मिल जाती हैं। यमुना की यह सहायक नदी तमसा लगभग 4900 वर्ग कि0मी0 के विशाल जल ग्रहण क्षेत्र से निरन्तर प्रवाह हेतु जल ग्रहण करती हुई, संकीर्ण घाटी से प्रवाहित होती है। जिस कारण इसमें सिंचाई तथा विद्युत उत्पादन के लिए पर्याप्त डिस्चार्ज तथा उचित हैड मिल जाता है। इच्छाड़ी बांध तथा छिबरो पावर हाउस के निर्माण की परिकल्पना तो स्वतन्त्रता से पूर्व कर ली गई थी। परन्तु इस परियोजना पर अमल सन 1966 से प्रारम्भ हुआ।

यमुना जल विद्युत परियोजना के चौथे चरण में शक्ति नहर से प्रवाहित होने वाली जलराशी के उपयोग के लिए कुल्हाल नामक गांव के समीप ढालीपुर से 5 किलोमीटर दूर कुल्हाल विद्युत गह का निर्माण हुआ जिसकी 10 मेगावाट की 3 टरबाईनों से सन 1975में 30 मेगावाट विद्युत उत्पादन प्राप्त होने लगा। यहां से निकली जलराशी का उपयोग बादशाही बाग नामक स्थान पर खारा जलविधुत परियोजना का निर्माण कर किया गया। सन 1986 में इस परियोजना से 78.75 मेगावाट विद्युत उत्पादन प्राप्त होने लगा।

इनके अतिरिक्त तमसा-यमुना की घाटी में कुछ ऐसी परियोजनाएं हैं जो अपने निर्माण की प्रतीक्षा में हैं। इनमे से यमुना जलविधुत परियोजना के ततीय चरण में जौनसार के किशाऊ नामक गांव के समीप तमसा पर बांध बनाकर 750 मेगावाट (बाद में इसे 600 मेगावाट) की जल विद्युत परियोजना प्रस्तावित है। ऐसे ही यमुना नदी पर लखवाड़ गांव के समीप एक बांध बनाया जाना है, तथा एक भूगर्भित विद्युत गृह बनाया जाना है, जिससे 300 मेगावाट विद्युत उत्पादन प्राप्त होगा। इसी जलराशी का उपयोग कर व्यासी गांव के समीप व्यासी बांध तथा यमुना पर 120 मेगावाट का विद्युत गृह बनाया जाना है। तथा हत्यारी गांव के समीप 19 मेगावाट की क्षमता का विद्युत गृह भी प्रस्तावित है।

यदि सभी परियोजनाएं पूरी होकर आस्तित्व मे आ जायें तो यमुना घाटी में तमसा यमुना की जलराशी से 1723.750 मेगावाट विद्युत का उत्पादन उत्तराखण्ड को प्राप्त होगा। जो सम्पूर्ण उत्तराखण्ड की ही नही देश के, अनेक स्थानों की सुखः समृद्धि में अहम भूमिका निभायेगा। यद्यिपि अभी मात्र 553.500 मेगावाट विद्युत उत्पादन ही प्राप्त हो पा रहा है। इनके अतिरिक्त भी कई दशक पूर्व यमुना घाटी की तमसा यमुना पर कई जल विद्युत् परियोजनाओं के लिए सर्वेक्षण हुए, तथा निर्माण हेतु प्रास्तावित हुई जिनके नाम निम्न प्रकार हैं तालुका सांकरी हाइड्रोस्कीम 60 मेगावाट, जखोल सांकरी 60 मेगावाट, सिडरी डियोरा 80 मेगावाट, डिपरोमोरी 34 मेगावाट, छाताडैम 225 मेंगावाट, आराकोट त्यूणी 62 मेगावाट, त्यूणी प्लासू 50 मेगावाट, हनोल न्यूणी 26 मेगावाट। बाद मे किशाऊ बांध जल विधुत परियोजना की विद्युत क्षमता 750 मेगावाट से घटाकर 600 मेगावाट कर दी गई। ये सारी परियोजनाएं तमसा पर निर्मित होनी थीं जबकि यमुना पर हनुमानचटटी 33 मेगावाट, सियानचटटी 46 मेगावाट, बड़कोट कुआ 25 मेगावाट, कुआ डामटा 126 मेगावाट की परियोजनाए थीं। इस पर भी ऊर्जा के मन्दिरों, छिबरो, खोदरी, ढकरानी, ढालीपूर, कुल्हाल, ने तमसा यमुना धाटी को अपने विद्युत् रूपी आशीर्वाद से जगमग तो किया ही है साथ ही उन्नति, विकास, समद्वि से भरपूर भी किया। आज जो विकास तमसा-यमुना घाटी में हमें दिखाई पड़ता है उसमें निसंदेह तमसा-यमुना के ऊर्जा मन्दिरों के योगदान को कभी भुलाया नही जा सकेगा।

©  श्री हेमचन्द्र सकलानी 

संपर्क – सकलानी साहित्य सदन,विद्यापीठ मार्ग,विकासनगर देहरादून (उत्तराखंड)

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तिलिस्म ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – तिलिस्म 

हाथ कुछ ऊपर उठाता

आकाश उतर आता,

तिलिस्म था हाथों में..,

मृगछौनी आँखों ने

फिर पूछा सवाल

मिलकर उतारें आकाश..?

कसकर भले न थाम सको

पर भरोसे से थामना हाथ

वरना टूट जाएगा तिलिस्म..,

दोनों ने चाहा मिलकर

उतारना साझा आकाश,

तिलिस्म ख़त्म हुआ..,

रूठा तिलिस्म शायद

लौट भी आए कभी

पर टूटा विश्वास

लौटता नहीं कभी..!

©  संजय भारद्वाज

(21.12.20 11.55 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बिन इंटरनेट सब सून! ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक  विचारणीय आलेख  ‘बिन इंटरनेट सब सून!’। हम आपसे आपके अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

☆ आलेख ☆ बिन इंटरनेट सब सून! ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

तीन दिन इंटरनेट बंद क्या हुआ, सब कुछ फीका फीका सा लग रहा था। व्हाटसएप पर देश भर से जुड़ने वाले दोस्तों से मुलाकात ही नहीं हुई। बार बार चैक कर रहे हैं कि नेट आया कि नहीं।

सुबह सुबह मिलने वाले दोस्तों के गुड मॉर्निंग संदेश नहीं मिल रहे थे। जब मिलते थे तो कहते थे, इनकी रोज़ रोज़ क्या ज़रूरत है। सारी मेमोरी खा जाते हैं। ज़्यादातर वक्त तो फ़िज़ूल से लगने वाले मेसेज डिलीट करने में ही लग जाता था। नेटबंदी में नहीं आए तो इनका इंतजार सा हो रहा था। कुछ मित्र सुबह प्रेरक संदेश भेजते थे, वो भी नहीं मिले। एक मित्र रंग बिरंगे पक्षियों के चित्र भेज कर मन खुश कर देते थे। अब बस उनकी यादें हैं।

ज़िन्दगी की गति जैसे ढीली पड़ गई थी। हम अपने मनपसंद साइट टेड टाक्स से भी नहीं जुड़ सके। जो मेसेज आते हैं हम उनमें से कुछ सेव करके रख लेते हैं। उन्हे दोबारा पढ़ कर कुछ चैन मिला।

वक्त जैसे पांच साल पीछे चला गया था जब हमने स्मार्टफोन लिया था और इसके साथ ही हम वॉट्सएप और फेसबुक से जुड़ गए थे।

इसी के सहारे हम एक ऐसे ग्रुप से जुड़ गए जहां सर्विस के दौरान साथ रहे मित्र फिर आन मिले थे अपनी वे कहानियां और किस्से लेकर जिन्हे हमने सर्विस कैरियर में भी नहीं सुना था। खूब जन्मदिन व शादी की साल गिरह मनाते थे। तीन दिन से कुछ नहीं मनाया था।

सर्विस वाले ही क्यूं, कुछ कॉलेज व यूनिवर्सिटी के दोस्त भी करीबन 50 साल बाद ढूंढ लिए थे हमने। हां एक स्कूल वाला दोस्त भी मिल गया 60 साल पुराना। लंबे समय से परिचित इन दोस्तों से असली पहचान तो अब हुई थी। उनकी विचारधारा और छुपे गुणों का पता तो अब चला। कई छुपे रुस्तम निकले तो कई बस फॉरवर्ड करने वाले ही थे। पर सभी प्यारे थे। मैं कुछ मित्रों से इतना प्रभावित हुआ कि मैंने उन पर लेख भी लिख दिए। स्मार्टफोन और इंटरनेट ने मेरे लेखन को बहुत तराशा है। मित्रों से मिली प्रशंसा उत्साहवर्धन करती है।

पांच साल पहले मैं साहित्यकारों के एक ग्रुप से जुड़ा। मैं शाम को सोने से पहले और सुबह उठते ही मैं साहित्यिक रचनाएं ही पढ़ता था।

अखबार तो बासी से लगने लगे थे। हर ताज़ा समाचार अलर्ट के साथ वॉट्सएप पर मिल जाता था।

इंटरनेट हमारे जीवन का अभिन्न अंग बनता जा रहा है। इसीलिए लगता है, बिन इंटरनेट सब सून। इंटरनेट अलग किस्म का जनसंचार, मास मीडिया, है। अखबार, रेडियो, टेलीविजन बहुत हद तक एक तरफ साधन है। आपको संदेश सुनाए, पढ़ाए, दिखाए जाते हैं। दर्शक, पाठक, श्रोता की कोई खास सुनवाई नहीं होती। इंटरनेट पर आप जो चाहें उसे गूगल से ढूंढ कर पा सकते हैं, अपनी पसंद के मुताबिक। जिससे चाहें उससे बात करें, या फिर ग्रुप छोड़ दें। पर यहां भी विवेक की ज़रूरत है, वर्ना लुभावने संदेश आपके मन मस्तिष्क को काबू कर लेंगे। आपकी पसंद नापसंद का पता लगा कर आपकी सोच और जेब दोनों खाली कर देंगे। आपकी स्वतंत्रता छीन लेंगे, आपको भीडतंत्र का हिस्सा बना देंगे, केवल नारे लगाने के लिए।

करीबन दस साल पहले जब अरब देशों में अरब बसंत नाम के आंदोलन चल रहे थे और सरकारों ने इंटरनेट की सुविधा बंद कर दी थी तो उस वक्त अमेरिका की तत्कालीन विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन का बयान आया था कि संपर्क करने का अधिकार संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में मूलाधिकार के रूप में शामिल किया जाना चाहिए। इंटरनेट किसी खास मुद्दे को लेकर समर्थकों के विशाल समुदाय खड़े कर सकता है। ये समुदाय किसी भी सरकार के लिए उसकी किसी नीति या उसके अस्तित्व तक पर सवाल खड़े कर सकता है।

टेक्नोलॉजी के विस्तार के साथ अब दुनिया की हर घटना की जानकारी लाइव सभी के पास पहुंच जाती है। भारत में लालकिले पर किसानों के एक गुट द्वारा उपद्रव हो या अमेरिका में ट्रंप समर्थकों द्वारा वहां की संसद में घुसकर तोड़फोड़, सबकुछ दुनिया भर में उसी समय पहुंच जाता है जिस समय यह घटित हो रहा होता है। इस स्थिति में आंदोलन और भी भड़क सकता है या फिर यहीं से इसका पतन भी शुरू हो सकता है।

प्रजातंत्र एक धीमी प्रक्रिया है। पूर्ण बहुमत की सरकार भी अपने चुनाव पूर्व घोषित कार्यक्रम को फिर से जनमत बनाए बिना लागू नहीं कर सकती। विपक्ष चाहे वह किसी भी दल का हो, वह सत्तारूढ़ दल के खिलाफ हर मुद्दे पर विरोध करता ही रहता है। प्रजातंत्र में यह नैतिक अभाव रहता ही है, विरोध केवल विरोध के लिए। अत: पूर्ण बहुमत के बावजूद सत्ता दल को विपक्ष को साथ लेकर चलना ही पड़ता है।

पिछली सदी में साम्यवादी व्यवस्था से दुनिया के अनेक देशों ने भारी तरक्की की पर मानवीय मूल्यों और स्वतंत्रता के मुद्दों की अनदेखी के कारण सोवियत संघ के विघटन के बाद आज दुनिया के लगभग दो तिहाई देशों में प्रजातंत्र व्यवस्था काम कर रही है हालांकि इसका स्वरूप एक समान नहीं है। पूंजीवादी व्यवस्था प्रजातांत्रिक व्यवस्था का अभिन्न अंग है। अमेरिका व यूरोपीय देशों ने इसी व्यवस्था के तहत तेज़ तरक्की की है। पर इस व्यवस्था का भी एक गंभीर दोष सामने आ रहा है। समाज की पूंजी कुछ एक अमीर घरानों के पास इकट्ठी हो रही है। अमीर अधिक अमीर होता जा रहा है और गरीब अधिक गरीब। लगता है दोनों ही व्यवस्थाएं फेल हो रही हैं और कोई नया विकल्प भी नहीं सूझ रहा। विभिन्न देशों में उभरे आंदोलन इसी विफलता की निशानी हैं।

नागरिक स्वतंत्रता भी बनी रहे और तेज तरक्की भी हो जिसके लाभ सभी तक समान रूप से पहुंच सकें, ऐसी व्यवस्था की ज़रूरत है पर यह कैसे संभव होगी यही लाख टके का सवाल है। मेरी निजी राय है कि अनेक अन्य देशों की तुलना में भारत कुल मिलाकर विकास और नागरिक आज़ादी की व्यवस्था का एक अच्छा उदाहरण है पर राजनैतिक दलों में पारस्परिक सद्भाव की कमी अक्सर खेल बिगाड़ देती है।

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#1 – प्राथमिकता मुख्य उत्तरदायित्व को दें! ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ। )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#1 – प्राथमिकता मुख्य उत्तरदायित्व को दें! ☆ श्री आशीष कुमार☆

प्राथमिकता मुख्य उत्तरदायित्व को दें!

जंगल में एक गर्भवती हिरनी बच्चे को जन्म देने को थी वो एकांत जगह की तलाश में घूम रही थी कि उसे नदी किनारे ऊँची और घनी घास दिखी। उसे वो उपयुक्त स्थान लगा शिशु को जन्म देने के लिये वहां पहुँचते ही उसे प्रसव पीडा शुरू हो गयी।

उसी समय आसमान में घनघोर बादल वर्षा को आतुर हो उठे और बिजली कडकने लगी।

उसने बायें देखा तो एक शिकारी तीर का निशाना उस की तरफ साध रहा था। घबराकर वह दाहिने मुड़ी तो वहां एक भूखा शेर, झपटने को तैयार बैठा था। सामने सूखी घास आग पकड चुकी थी और पीछे मुड़ी तो नदी में जल बहुत था।

मादा हिरनी क्या करती? वह प्रसव पीडा से व्याकुल थी। अब क्या होगा? क्या हिरनी जीवित बचेगी? क्या वो अपने शावक को जन्म दे पायेगी? क्या शावक जीवित रहेगा?

क्या जंगल की आग सब कुछ जला देगी? क्या मादा हिरनी शिकारी के तीर से बच पायेगी? क्या मादा हिरनी भूखे शेर का भोजन बनेगी?

वो एक तरफ आग से घिरी है और पीछे नदी है। क्या करेगी वो?

हिरनी अपने आप को शून्य में छोड़,अपने प्राथमिक उत्तरदायित्व अपने बच्चे को जन्म देने में लग गयी।  कुदरत का करिश्मा देखिये बिजली चमकी और तीर छोडते हुए , शिकारी की आँखे चौंधिया गयी उसका तीर हिरनी के पास से गुजरते शेर की आँख में जा लगा, शेर दहाडता हुआ इधर उधर भागने लगा और शिकारी शेर को घायल ज़ानकर भाग गया घनघोर बारिश शुरू हो गयी और जंगल की आग बुझ गयी हिरनी ने शावक को जन्म दिया।

हमारे जीवन में भी कभी कभी कुछ क्षण ऐसे आते है, जब हम चारो तरफ से समस्याओं से घिरे होते हैं और कोई निर्णय नहीं ले पाते तब सब कुछ नियति के हाथों सौंपकर अपने उत्तरदायित्व व प्राथमिकता पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। अन्तत: यश- अपयश, हार-जीत, जीवन-मृत्यु का अन्तिम निर्णय ईश्वर करता है। हमें उस पर विश्वास कर उसके निर्णय का सम्मान करना चाहिए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -8 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -8 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

मेरी नृत्य की यात्रा का परमोच्च बिंदू और अविस्मरणीय पल अंडमान मे स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी को जिस कमरे मे बंद किया था, वहा लिखे हुए गीत पर मेरे गुरु के साथ नृत्य करने का मुझे आया हुआ अनमोल क्षण| यह परमभाग्य का क्षण हमे मिला और हमारे जन्म का कल्याण हुआ|

२०११ वर्ष स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी के धैर्य से दौड़ने का शतक साल| इस महान साहस को उच्च कोटी का प्रणाम करने के लिए सावरकर प्रेमियों ने ‘स्वातंत्र्यवीर सावरकर अंडमान पदस्पर्श शताब्दी उत्सव’ चार जुलै से बारह जुलै तक इस काल में आयोजित किया था। अंडमान के उस जेल में जाकर सावरकर जी के उस कमरे को नमन करने का भाग्य जिन चुनें हुए भाग्यवान लोगों को मिला, उस में हम तीन, याने मैं, मेरी गुरु सौ. धनश्री आपटे और मेरी सहेली नेहा गुजराती थे|

मै खुद को खुशनसीब समझती हूँ कि मुझे अंडमान जाने को मिला| उसके लिये सावरकर जी के आशीर्वाद, मेरे माता पिता जी का आधार, धनश्री दीदी की मेहनत और मेरी बहन सौ. वर्षा और उसके पति श्री. विनायक देशपांडे इन सबकी मदद का लाभ मुझे मिला|

सांगली जिले में ‘बाबाराव स्मारक’ समिती है| उधर बहुत सावरकर प्रेमी लोग काम करते है| उस में से एक थे श्री बालासाहेब देशपांडे| २०११ साल स्वातंत्र्य स्वातंत्र्यवीर जी के धैर्य, साहस का सौवां साल था| अपनी भारत माता पारतंत्र्य में जकड़ी हुई थी| यह वे सह नहीं पाते थे| इस एक ध्येय के कारण ही उन्होंने एक उच्चतम पराक्रम किया| उसके कारण ही हम सब भारतीय स्वातंत्र्य का आनंद उठा रहे है, खुली सांस ले रहे है| उनकी थोडी तो याद हमें रखनी चाहिये ना? उनको अंडमान जाकर प्रणाम करना चाहिए, ऐसा इन सब लोगों ने तय किया| स्वातंत्रवीरों के गीत गाकर नृत्याविष्कार करके प्रणाम करने का तय किया था| उसके लिये मैं, धनश्री दीदी और नेहा ने नृत्य की तैयारी की थी|

लगभग दो-तीन महीने हम नृत्य की तैयारी कर रहे थे| जेल के उस कमरे में सावरकर जी ने काटों से, कीलों  से लिखी हुई कविता पेश करना तय किया| उस गीत को विकास जोशी जी ने सुर लगाकर सांगली की स्वरदा गोखले मैडम से कविता सादर की| धनश्री दीदी के कठिन प्रयास से और मार्गदर्शन से नृत्य अविष्कार पेश किया गया|

मैं खुद को बहुत खुशनसीब समझती हूँ।  हम तीनों ने सावरकर जी के उस कमरे में, जहां उनको बंद करके रखा था, उधर नृत्य पेश किया| उस कमरे का नंबर १२३ था| आश्चर्य की बात यह है कि, लोगों को, पर्यटकों को देखने के लिए वह कमरा जैसा था वैसा ही रखा हैं| हम जिस दिन उस कमरे में गए थे, वह दिन सावरकर जी ने धैर्यता से जो छलांग मारी थी, वह वही दिन था | उस दिन सावरकर जी की तस्वीर उधर रखी थी| सब कमरा फूलों से सजाया था| जिस दीवारों को सावरकर जी का आसरा मिला था उस दीवारों के ही सामने हमने सावरकर जी का अमर काव्य, अमर गान पेश किये| वह कमरा सिर्फ १०x१० इतना छोटा था| जैसे-तैसे तीन चार आदमी खड़े रह सकते हैं इतना ही था|लेकिन हमें उन्ही दीवारों को दिखाना था कि उनके ऊपर सावरकर जी ने लिखे हुए अमर, अनुपम कविताएं नृत्य के साथ उन्हें बहाल कर रहे हैं| धनश्री दीदी ने बहुत अच्छी तरह से सायं घंटा नाम का नृत्य पेश किया| उस कविता का मतलब समझ लेने जैसा है| जेल में बंदी होते थे उस समय सावरकर जी के हाथों में जंजीर डालकर बैल की तरह घुमा-घुमा कर तेल निकालना पड़ता था| बहुत ही कठिन और परेशानियों का काम था वह| उस वक्त का जेलर बहुत क्रूरता से पेश आता था| परिश्रम के सब काम खत्म होने के बाद शाम को कब घंटी बजाता है इस पर कैदियों की नजर होती थी| शाम की घंटी बज गई तो हाय! यह दिन खत्म हो गया ऐसा लगता था| वह काव्य जिस कमरे में लिखा था उसी कमरे में धनश्री दीदी ने नृत्य पेश किया| वह जेलर कैसे परेशान करता था वह उन्होंने दिखाया| उसी के साथ सावरकर जी की संवेदना अच्छी तरह से पेश की गई|

मैं और नेहा गुजराती हम दोनों ने सावरकर जी मातृभूमि की मंगल कविता मतलब “जयोस्तुते” पेश किया| बहुत बुद्धिमान ऐसे सावरकरजी ने जो महाकाव्य लिखा और मंगेशकर भाई-बहन ने बहुत ही आत्मीयता से वह भावनाएं हम तक पहुंचाई, अपने मन में बिठाई, उस नृत्य को पेश करने का भाग्य हमें मिला|

‘जयोस्तुते’ पेश करते समय मैं शिल्पा ‘भारत माता’ बनी थी|नेहा ने नकारात्मक चरित्र पेश किया था| याने वह   नकारात्मक चरित्र और भारत माता की लड़ाई हमने दिखाइ थी| तुमको बताती हूं, ‘हे अधम रक्त रंजिते’ इस पर नृत्य करते समय, मुझमें जोश आ गया था| वह नकारात्मक शक्ति लड़ते वक्त जब पैरों पर गिर गई थी, तब मुझे भी बहुत खुशी हुई थी| इस प्रकार जयोस्तुते इस जगह पर पेश करने को मिला, इसे मैं अपनी किस्मत समझती हूँ|

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४२॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४२॥ ☆

 

तां कस्यांचिद भवनवलभौ सुप्तपारावतायां

नीत्वा रात्रिं चिरविलसनात खिन्नविद्युत्कलत्रः

दृष्टे सूर्ये पुनरपि भवान वाहयेदध्वशेषं

मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपतार्थकृत्याः॥१.४२॥

सतत लास्य से खिन्न विद्युत लतानाथ

वह निशि वहीं भवन छत पर बिताना

कहीं एक पर , जहाँ पारावतों को

सुलभ हो सका हो शयन का ठिकाना

बिता रात फिर प्रात , रवि के उदय पर

विहित मार्ग पर तुम पथारूढ़ होना

सखा के सुखों हेतु संकल्प कर्ता

है सच , जानते न कभी मन्द होना

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 65 – शब्द पक्षी…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #65 ☆ 

☆ शब्द पक्षी…! ☆ 

मेंदूतल्या घरट्यात जन्मलेली

शब्दांची पिल्ल

मला जराही स्वस्थ बसू देत नाही

चालू असतो सतत चिवचिवाट

कागदावर उतरण्याची त्यांची धडपड

मला सहन करावी लागते

जोपर्यंत घरट सोडून

शब्द अन् शब्द

पानावर मुक्त विहार करत नाहीत

तोपर्यंत

आणि

तेच शब्द कागदावर मोकळा श्वास

घेत असतानाच पुन्हा

एखादा नवा शब्द पक्षी

माझ्या मेंदूतल्या घरट्यात

आपल्या शब्द पिल्लांना सोडुन

उडून जातो माझी

अस्वस्थता

चलबिचल

हुरहुर

अशीच कायम

टिकवून ठेवण्या साठी…!

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ स्त्री ☆ श्री अनंत नारायण गाडगीळ

☆  कवितेचा उत्सव ☆ स्त्री ☆ श्री अनंत नारायण गाडगीळ  ☆ 

(- अनंता.)

तू जन्मलीस

बाळ होतीस

 

मुलगी झालीस

तरुणी बनलीस

 

पत्नी झालीस

एक नवा जीव

जन्माला घातलास

 

आई बनलीस

अनुभव घेतलास

 

माया लावलीस

माणूस घडविलास

 

तू तर सर्वांनाच

जीव लावलास

 

कष्ट अपार केलेस

जीवन सार्थ केलेस

 

वंदनीय तू झालीस

जीवनाधार झालीस

 

आ म्हणजे आत्मा

ई म्हणजे ईश्वर

आई म्हणून तू

आत्मा ईश्वराचा

भूतलावर आणलास

पांग कसे फेडावे

स्त्रीचे ते कळेना

काय म्हणून करावे

काहीच ते वळेना!

 

© श्री अनंत नारायण गाडगीळ

सांगली.

मो. 92712 96109.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ जगावेगळी…भाग-1 ☆ श्री अरविंद लिमये

श्री अरविंद लिमये

☆ जीवनरंग ☆ जगावेगळी…भाग-1 ☆ श्री अरविंद लिमये☆

(एकटेपण दु:खदायक असणार हे माहित असूनही ते टाळण्यासाठी स्वतःचा स्वाभिमान गहाण टाकायला ती तयार नव्हती.अशाच एका जगावेगळ्या गलितगात्र तरीही स्वाभिमानी आईची ही कथा…..)

जा. त्या घरात डोकावून या. आपल्या संसारासाठी, मुलासाठी रक्ताचं पाणी केलेली, थकली भागलेली एक म्हातारी आई आत आहे….! आलात डोकावून..?

मलाही जायचंय. मन तिथं केव्हाच जाऊन पोहोचलंय. पावलंच घुटमळतायत. सारखी आठवतीय, तिच्या मुलाचं लग्न ठरलं होतं तेव्हाची ती.थकल्या शरीरानं पण प्रसन्न मनानं पदर खोचून उभी राहिली होती. तिच्या संसाराचं स्वप्न विरता विरताच पोराच्या सुखी संसाराचं स्वप्न तिच्या म्हातार्‍या नजरेसमोर तरळलेलं होतं.

तीन मुलींच्या पाठीवरचा वाचलेला असा हा एकुलता एक मुलगा. तिन्ही मुलींनी उघडण्या पूर्वीच आपले डोळे मिटलेले. आल्या,आणि आईच्या काळजाचा एकेक लचका तोडून आल्या पावलीच निघून गेल्या. तेव्हापासून हिचे डोळे पाझरतच राहिलेत. कधी त्या जखमांची आठवण म्हणून, कधी पोराला दुखलं खुपलं म्हणून, पुढे नवरा आजारी पडला म्हणून, नंतर तो गेला म्हणून आणि नंतर नंतर हा सगळा भूतकाळ आठवूनच.

मुलाचं लग्न ठरलं, तेव्हा त्या क्षणापर्यंत अप्राप्य वाटणारी तृप्ततेची एक जाणिव तिच्या मनाला स्पर्शून गेली.. पण.. ओझरतीच..! लक्ष्मी घरी आली, पण समाधानाने डोळे मिटावेत एवढी उसंत कांहीं तिला मिळालीच नाही. लक्ष्मी घरी आली तेव्हा तिला वाटलं होतं.. आता मांडीवर नातवंड खेळेल.. सुख ओसंडून वाहील.. घर हसेल. पण.. तिचं सुखच हिरमुसलं.

माप ओलांडून सून घरी आली तेव्हा तिला एकदा डोळे भरून पहावी म्हणून हिने नजर वर उचलली, तेव्हा सुनेच्या गोऱ्यापान कपाळावर एक सुक्ष्मशी आठी होती. होती सुक्ष्मशीच..पण ती हिच्या म्हाताऱ्या नजरेत सुध्दा आरपार घुसली. मन थकलं, तशी शरीराने कुरकुर सुरु केली. पण अंथरूण धरलं तर सुनेच्या कपाळावरचं आठ्यांचं जाळं वाढेल म्हणून ती उभीच राहिली. थकलीभागली, पण झोपली नाही….

आलात डोकावून? कशी आहे हो ती? आहे एकटीच पण आहे कशी? हे प्रश्न कधी हवे तेव्हा, हवे त्यावेळी डोकावलेच नव्हते त्याच्या मनात.मुलाच्या. लक्ष्मी हसली तो खुलायचा. ती रुसली तो मलुलायचा. घरी आलेली ती नाजूक गोरटेली मोहाचं झाडच बनली होती जणू. ही फक्त पहात होती. आपला मुलगा आणि त्याची सावली यातला फरक तिला नेमका समजला. लग्न झालं तेव्हापासून तो हिच्यापुरता मेलाच होता. जिवंत होती ती त्याची सावली. सावली.. पण आपल्याअस्तित्वाने चटकेच देणारी..!

पहिल्यापासून अबोलच तो. बोलायचा फार कमी. हवं-नको एवढंच. आता तर तेही नव्हतं. आयुष्यभर काबाडकष्ट करून आईच्या अंगावरचं मांस सगळं झडलंच होतं.. पण तिच्या हाडांची कुरकुर त्याला कधी जाणवलीच नाही. बाहेरची काम बंद केली होती पण घटत्या शक्ती न् उतरत्या वयाच्या तुलनेत घरची कामं दुपटीने वाढली होती. मूर्तिमंत सोशिकताच ती. बोलली काहीच नाही. गप्प बसली.

घरात खाणारी तोंडं ही तीनच. पैसा उदंड नव्हता पण कमी नव्हताच. खरेदी, साड्या,  सिनेमे सगळंच तर सुरू होतं. सिगारेटचा धूर तर सतत दरवळलेलाच असायचा. काटकसर ओढाताण कुठे दिसत नव्हतीच आणि या कशाचबद्दल तिची तक्रारही नव्हती. पण हिच्या गुडघ्यावर खिसलेलं पातळ खूप दिवस उलटून गेल्यानंतरसुद्धा जेव्हा त्या दोघांच्या   नजरपट्टीत आलं नाही तेव्हा हिच्या मनावर पहिला ओरखडा उठला. कुणाची दृष्ट लागावी एवढं खाणं नव्हतंच हिचं. पण भूक मारायचं औषध म्हणून अंगी मूरवलेली चहाची सवय मात्र अद्याप सुटलेली नव्हती.एक दिवस पहाटे पहाटे डोळा लागला तो सकाळी उशिरा उघडला. पाहिलंन् तर दोघांचा चहा झालेला. चूळ भरुन पदराला हात पुसत ती आंत आली तेव्हा हिच्या चहाचं आधण सूनेनं आधीच स्टोव्हवर चढवलेलं होतं. हिने पुढे होऊन दूध कपात घेऊन चहा गाळलान् तर गाळणं पूर्ण भरून वर चोथा उरलाच. इथं दुसरा ओरखडा उठला. आधीच अधू झालेलं मन रक्तबंबाळ झालं. पोराला हाक मारलीन् तीसुद्धा रडवेली.

“एका कपभर चहालासुद्धा महाग झाले कां रे मी?”

“काय झालं?”

“बघितलास हा चहा? उरलेल्या चौथ्यात उकळवून ठेवलाय. एवढं दारिद्र्य आलंय का रे आपल्याला? जड झालेय मी तुम्हाला?”

तो गप्प. एक बारीकशी आठी कपाळावर घेऊन त्याने आपल्या बायकोकडे पाहिलंन्. ती उठली. तरातरा पुढे झाली. सासूनं गाळून ठेवलेला चहा एका घोटात पिऊन टाकलान् आणि तोंड सोडलंन्.

“विष देऊन मारत नव्हते मी तुम्हाला. चहाच होता तो. पटलं ना आता? एक गोष्ट माझी मनाला येईल तर शपथ. आपापलं काही करायचं बळ नाहीय अंगात तर एवढं. ते असतं तर रोज खेटरानंच पूजा केली असतीत माझी. आजवरचं आयुष्य काय अमृत पिऊन काढलं होतंत? या चहाला नाकं मुरडायला? बोलली आणि ढसाढसा रडायला लागली. आता खरं तर रडायचं हिनं पण ही रडणंच विसरली. मुलगा शुंभासारखा उभाच होता. ही जागची उठली. आत जाऊन पडून राहिली. चहा नाही,पाणी नाही, जेवण नाही.. अख्खा दिवस मुलानं बायकोची समजूत काढण्यात घालवला आणि तिन्हीसांजेला तो आईकडे डोकावला.

“आई, तू हे काय चालवलंयस?”

“मी चालवलंय?”

“हे बघ, मला घरी शांतता हवीय. काहीही काबाडकष्ट न करता तुला वेळेवारी दोन घास मिळतायत ना? तरीही तू अशी का वागतेयस? थोडंसं सबुरीनं घेतलंस तर कांही बिघडेल?”

उपाशी पोटी मुलाच्या तोंडून दोन वेळच्या घासांचं अप्रूप तिनं ऐकलं आणि ती चवताळून ताडकन् उठली. पण तेवढ्या श्रमानेही धपापली.

“सबुरीनं घेऊ म्हणजे काय करू रे? तुम्ही जगवाल तशी जगू? मन मारून जिवंत राहू? अरे, ती सून आहे माझी. कुणी वैरीण नव्हेs. आजवर वाकडा शब्द वैऱ्यालासुध्दा कधी ऐकवला नव्हता रे मी. स्वतःच्या संसाराकरता हातात पोळपाट लाटणं घेऊन मी चार घरं फिरले त्याची हिला लाज वाटतेय होय? का माझ्या पिकल्या केसांची न् या वाळक्या शरीराची?”

“आई..पण..”

“हे बघ, मला वेळेवर दोन  घास नकोत पण प्रेमाचे दोन शब्द तरी द्यायचेत.मी काबाडकष्ट केले ते मला दोन घास मिळावेत म्हणून नव्हतेच रे. ते तर मिळालेसुध्दा नाहीत कितींदा तरी. कारण मिळालेल्या एका घासातला घास काढून तो मी आधी तुला भरवला होता रे. वाढवला, लहानाचा मोठा केला..”

ऐकलं आणि सून तीरा सारखी आत घुसली.

“हे बघा, पोराला वाढवलं, मोठ्ठ केलं ते तुमच्याच ना? उपकार केलेत? आम्हीसुद्धा आमची पोरं वाढवणारंच आहोत. उकिरड्यावर नेऊन नाही टाकणार..”

“सुनबाई, बोललीस? भरुन पावले. तुला मी डोळ्यांसमोर नकोय हेच वाकड्या वाटेने आज सांगितलंस? पण एक लक्षात ठेव. स्वयंपाकांच्या घरातूनसुद्धा आज पर्यंत फक्त मानच घेतलाय मी. अपमानाचं हे असलं जळजळीत विष तिथंसुद्धा मला कधी कुणी वाढलं नव्हतं आजपर्यंत.मी माझ्या पोराला वाढवलं. मोठं केलं. उपकार नाही केले. कर्तव्यच केलं. खरं आहे तुझं. पण त्या कर्तव्याची दुसरी बाजू तुम्ही टाळताय. तुम्ही माझं देणं नाकारताय. तुमचा संसार तुम्हाला लखलाभ. मला एक खोली घेऊन द्या. कुडीत जीव आहे तोपर्यंत चार पैसे तिथं पाठवा. उपकार म्हणून नकोsत. केलेल्या कर्तव्याची परतफेड म्हणूनच”

“होs पाठवतो नाs. खाण नाहीये कां इथं पैशांची..! हंडा सापडलाय आम्हाला  गुप्तधनाचा. तो उपसतो आणि पाठवतो बरंs पाठवतो.”

सून तणतणत राहिली. सिगारेटचा धूर हवेत सोडत मुलगा शून्यात पहात राहिला. ती संपूर्ण रात्र तिने टकटकीत जागून काढली. दुसऱ्या दिवशी ऑफिसमध्ये जाण्यासाठी मुलगा घराबाहेर पडला, त्याच्या पाठोपाठ फाटक्या पिशवीत जुनेरं कोंबून हिने बाहेरचा रस्ता धरलान्..आपल्या सुनेचा निरोपसुद्धा न घेता. एकटेपणाचा बाऊ न करता तिने पुन्हा पदर खोचला. पुन्हा पोळपाट-लाटणं हातात घेतलं. पण ते हात आता पूर्वीसारखे खंबीर नव्हते. थरथरत होते. मग गरजेपोटी कधी कुणी तिला कामावर ठेवून घेत राहिलं. ती राहिली. चुकतमाकत स्वैपाक करू लागली. पण पूर्वीची चवीची भट्टी पुन्हा कधी जमलीच नाही. मग कधी बोलणी बसायची. कामं सुटायची किं पुन्हा दुसरं घर. ती फिरत राहिली. फिरत फिरत इथं आली. या समोरच्या घरी. तिने पूर्वी जोडून ठेवलेल्या.

क्रमशः…

© श्री अरविंद लिमये

सांगली

मो ९८२३७३८२८८

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ घडवं घडवं रे सोनारा….. भाग-1 ☆ डॉ मेधा फणसळकर

डॉ मेधा फणसळकर

 ☆ विविधा ☆ घडवं घडवं रे सोनारा….. भाग-1 ☆ डॉ मेधा फणसळकर ☆ 

“अरे ए, सरक ना बाजूला! जरा कुठे अंग पसरायला जागा नाही. शी बाई! या कंबरपट्ट्याने सगळीच जागा व्यापलीये. मोठ्ठा ‛आ’ वासून पसरलाय. आणि आजूबाजूला या मेखलाबाईंचा गोतावळा आहे. कशा नवरोबाना चिकटून बसल्या आहेत बघा. मेली लाज कशी वाटत नाही म्हणते मी! हल्ली या कंबरपट्याचा मान वधारलाय ना? म्हणून ही मिजास! त्याच्याच बाजूला या एकाच पेटीत आम्हाला आपले एका बाजूला अंग चोरुन घेऊन पडून घ्यावे लागतेय. आमचे म्हणजे त्या जीवशास्त्रातील अमिबासारखे आहे. मिळेल त्या जागेत, आहे त्या आकारात स्वतःला सामावून घ्यायचे. त्यामुळे कोणीही उचलावे आणि हवे तिकडे टाकून द्यावे.”

दागिन्यांच्या मोठ्या डब्यामध्ये एका बाजूला बसून या सोन्याच्या साखळीताईंची बडबड चालू होती.

तेवढ्यात पोहेहार तिच्याकडे सरकत म्हणाला, “ताई, कशाला वाईट वाटून घेतेस? अग, माझे तरी काय वेगळे आहे? मलाही आहे त्या जागेत कसेही कोंबतात ग. हे पदर एकमेकात अडकून कसा चिमटा बसतो हे तू अनुभवले नाहीस. माईंच्या लग्नात त्यांच्या सासूबाईंनी मला घडवले. माई होत्या तोपर्यंत किती हौसेने मिरवायच्या मला. पण माईंची सून उर्मिलेने एक दोनदा मला घातले आणि अडगळीतच टाकून दिले.  म्हणे मी outdated झाले आहे म्हणे. म्हणूनच ही अवस्था झाली आहे. अग साखळीताई, किमान वर्षातून लहान- सहान कार्यक्रमाला तरी तुला बाहेरची हवा मिळते. पण चिमटे बसून- बसून माझे अंग दुखू लागलंय बघ!”

त्याचवेळी एका सुंदरशा चौकोनी पेटीत मऊ गादीवर बसलेला कोल्हापुरी साज म्हणाला, “ इतके वाईट वाटून घेऊ नकोस रे दादा!  आता मिळतेय मला ही मऊमऊ गादी. पण मध्यन्तरीच्या काळात मलाही ही उपेक्षा सहन करावीच लागली आहे.  ‛रायाकडून’ हट्ट करुन करुन मला घडवून घेणाऱ्या या बायकांना काही दिवसांनी मी पण outdated वाटू लागलो. मग लागली माझी पण वाट! माझ्यातच गुंतलेल्या माझ्याच  तारेने- या बायकोने सारखे टोचून टोचून हैराण केले बघ मला. शेवटी बायकोच ती! पण एकदा एका पार्टीत उर्मिलेच्या मैत्रिणीने कोल्हापूरी साज ‛new fashion’ म्हणून घातला. तर काय? माझा भाव एकदम वधारला. उर्मिलेने पुन्हा माझी डागडुजी करून घेतली आणि मी झळकू लागलो. माझी बायको पण आता कशी शिस्तीत मला चिकटून बसली आहे बघ. आणि आता म्हणे उर्मिलेच्या लेकीचे कॉलेजमध्ये लावणी फ्यूजन आहे. त्यात मी हवाच आहे. म्हणूनच आपल्याला बाहेर काढले आहे आज आणि ही थोडी थोडी बाहेरची हवा चाखायला मिळते आहे. त्यामुळे थोडे सहन करा. कदाचित थोडे दिवसांनी पुन्हा तुमचे दिवस येतील.”

त्याच्याच शेजारी जोंधळ्यासारख्याच पण त्याच्यापेक्षा छोट्या छोट्या सोनेरी दाण्यांच्या नक्षीने सजलेली ठुशी समजूत काढत म्हणाली, “ नका रे एवढे निराश होऊ. शेवटी प्रत्येकाचे दिवस असतात हेच खरे. मला नाही कधी उपेक्षा सहन करावी लागली. अगदी जन्मापासून मी प्रत्येक बाईच्या गळ्यातला ताईत बनले आहे. माईंच्या सासूबाईंच्या आईने मला घडवून घेतले. त्यांच्यानंतर माई आणि आता उर्मिलासुद्धा अधूनमधून मला प्रेमाने मिरवतात. खूप वर्ष सेवा केल्यावर मध्यंतरी जरा आजारी पडले होते. पण माईंनी उर्मिलेच्या लग्नाच्या वेळी पुन्हा मला तंदुरुस्त केले आणि मी नवीन सुनेच्या गळ्यात तितक्याच दिमाखाने मिरवू लागले. त्यामुळे मी खूप पावसाळे पाहिलेत. म्हणूनच ‛एक ना एक दिवस प्रत्येकाचे चांगले दिवस येणार’हे माझे शब्द लक्षात ठेवा.”

तेवढ्यात एका कोपऱ्यात बसलेली पाटलीबाई मुसमुसत म्हणाली,“ तू म्हणतेस ते खरे ग ठुशीआज्जी! पण माझे काय? हल्ली हातात पाटल्या- बांगड्या घालायची फॅशन गेलीये म्हणे. माईंच्या सासूबाईंच्या लग्नात त्यांच्या सासऱ्यांनी चांगली पाच तोळ्याची आमची जोडी बनवून घेतली होती. माईच्या सासूबाईंचे वय अवघे आठ वर्षाचे ग त्यावेळी! बिचारी कशीबशी माझे वजन सांभाळायची. बरोबर बिलवर- तोडे या माझ्या भगिनी पण असायच्या ना ग! माई असेपर्यंत आम्ही सुखाने त्यांच्या हातावर नांदलो. उर्मिलेला मात्र रोज नोकरीवर जाताना सगळे हातात घालणे शक्यच नव्हते. तेव्हापासून आम्हा दोघींची रवानगी या छोट्या कोपऱ्यात झाली आहे. आणि आमच्या भगिनींचा मेकओव्हर करुन कंगन-ब्रेसलेटच्या रुपात अधून- मधून झळकतात उर्मिला आणि तिच्या लेकीच्या हातावर! मला मात्र घराण्याची आठवण म्हणून जपून ठेवले आहे हो! पण कधीतरी माझासुद्धा मेकओव्हर होईल की काय अशी भीती वाटत राहते. परवाच उर्मिलेचा राजू आईला सुनावत होता की ‛कसली घराण्याची परंपरा आणि काय? हे दागिने जपून ठेवून काय करायचे आहेत? त्यापेक्षा मला दे सगळे. त्याचे दुप्पट पैसे करुन देतो.’

पण उर्मिला काही बधली नाही हो त्याला. म्हणून आपण सगळे वाचलो आहोत आज.” “ हे बाकी खरे हो!” छोट्याश्या पेटीत बसलेली टपोऱ्या मोत्यांची नथ म्हणाली.“ मला माईंचा हट्ट म्हणून त्यांच्या यजमानांनी मुलाच्या मुंजीत पुण्यात पेठे सराफांकडून बनवून घेतले. माई सगळ्या कार्यक्रमात अगदी हौसेने मला मिरवत. उर्मिलेने पहिल्यांदा हळदी-कुंकू, मंगळागौरीत मला मिरवले. पण तिच्या नाकाला काही माझा भार सहन होईना. मग तिने तिच्या पहिल्या भिशीच्या पैशातून माझी ही छोटी सवत ‘हिऱ्याची नथनी’ करुन घेतली. आता तिच तोरा मिरवत असते.”

क्रमशः…

© डॉ. मेधा फणसळकर

मो 9423019961

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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