हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #93 ☆ कविता – किशोरी बेटियां ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक  विचारणीय कविता  ‘किशोरी बेटियां इस सार्थकअतिसुन्दर कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 93 ☆

☆ कविता – किशोरी बेटियां ☆

मन में ऊँची ले उड़ाने, बढ़ रही हैं ये किशोरी बेटियां

स्कूल में जो वृक्ष पर, संग खड़ी हैं ये किशोरी बेटियां

 

कोई भी परिणाम देखो, अव्वल हैं हर फेहरिस्त में

हर हुनर में लड़कों पे भारी पड़ रही हैं ये किशोरी बेटियां

 

अब्बा अम्मी और टीचर, हौसले ही सब बढ़ा सकते हैं बस

अपना फ्यूचर खुद बखुद ही गढ़ रही हैं ये किशोरी बेटियां

 

तालीम का गहना पहनकर, बुरके को तारम्तार कर

औरतों के हक की खातिर लड़ रही हैं ये किशोरी बेटियां

 

“कल्पना” हो या “सुनीता” गगन में, “सोनिया” या “सुष्मिता”

रच रही वे पाठ खुद जो, पढ़ रही हैं ये किशोरी बेटियां

 

इनको चाहिये प्यार थोड़ा परवरिश में, और केवल एक मौका

करेंगी नाम, बेटों से बढ़कर होंगी साबित ये किशोरी बेटियां

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 76 – हाइबन- नक्शे का मंदिर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- नक्शे का मंदिर। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 76☆

☆ हाइबन- नक्शे का मंदिर ☆

नक्शे पर बना मंदिर! जी हां, आपने ठीक पढ़ा। धरातल की नीव से 45 डिग्री के कोण पर बना भारत के नक्शे पर बनाया गया मंदिर है। इसे भारत माता का मंदिर कह सकते हैं। इस मंदिर की छत का पूरा नक्शा भारत के नक्शे जैसा हुबहू बना हुआ है। इसके पल में शेष मंदिर का भाग है।

इस मंदिर की एक अनोखी विशेषता है । भारत के नक्शे के उसी भाग पर लिंग स्थापित किए गए हैं जहां वे वास्तव में स्थापित हैं । सभी बारह ज्योतिर्लिंग के दर्शन इसी नक्शे पर हो जाते हैं।

कांटियों वाले बालाजी का स्थान कांटे वालों पेड़ की अधिकता के बीच स्थित था। इसी कारण इस स्थान का नाम कांटियों वाले बालाजी पड़ा।  रतनगढ़ के गुंजालिया गांव, रतनगढ़, जिला- नीमच मध्यप्रदेश में स्थित भारत माता के इस मंदिर में बच्चों के लिए बगीचे, झूले, चकरी आदि लगे हुए हैं । इस कारण यह बच्चों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।

कटीले पेड़~

नक्शे पर सेल्फी ले

फिसले युवा।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

09-09-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 61 ☆ बाल साहित्य – दाँतों की आत्मकथा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक विचारणीय आलेख  “दाँतों की आत्मकथा.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 61 ☆

☆ बाल साहित्य – दाँतों की आत्मकथा ☆ 

मित्रो मैं दाँत हूँ, बल्कि आज मैं अपनी ही नहीं, बल्कि सभी बत्तीस साथियों की आत्मकथा इसलिए लिख रहा हूँ कि बच्चों से लेकर बड़े तक हमारे प्रति सचेत नहीं रहते। मुँह में साफ सुथरे सुंदर – सुंदर खिलखिलाते हम दाँत सभी को अच्छे लगते हैं। हम दाँतों की सुंदरता से ही चेहरे की आभा और कांति बढ़ जाती है। लोग बात करना और मिलना – जुलना भी पसंद करते हैं। प्रायः हम मनुष्य के मुख में बत्तीस होते हैं। सोलह ऊपर और सोलह नीचे के जबड़े में। हम दाँतों की सरंचना कैल्शियम के द्वारा ही हुई है, इसलिए जो बच्चे बचपन से ही साफ – सफाई और बिना नाक मुँह बनाएअर्थात मन से दूध , पनीर, दही आदि कैल्शियम वाली खाने- पीने की चीजें अपने भोजन में सम्मिलित करते हैं तथा खूब चबा- चबा कर भोजन आदि करते हैं तो हम जीवन भर उनका साथ निभाते हैं। क्योंकि ईश्वर ने बत्तीस दाँत इसलिए दिए हैं ताकि हम दाँतों से एक कौर को बत्तीस बार चबा चबा कर ही खाएँ, ऐसा करने से जीभ से निकलनेवाला अमृत तत्व लार भोजन में सुचारू से रूप से मिल जाता है और भोजन पचाने की प्रक्रिया आसान हो जाती है। हड्डियां मजबूत रहती हैं। हम दाँत भी हड्डी ही हैं।

हम  जब बच्चा एक वर्ष का लगभग हो जाता है तो हम आना शुरू हो जाते हैं। फिर धीरे-धीरे हम निकलते रहते हैं। बचपन में हमको दूध के दाँत कहते हैं। जब बच्चा छह वर्ष का लगभग हो जाता है तब हम दूध के दाँत धीरे – धीरे उखड़ने लगते हैं और हम नए रूप रँग में आने लग जाते हैं।

हम दाँत कई प्रकार के होते हैं। हमें अग्रचवर्णक, छेदक, भेदक, चवर्णक कहते हैं। अर्थात इनमें हमारे कुछ साथी काटकर खाने वाले खाद्य पदार्थ को काटने का काम करते हैं, कुछ चबाने का, कुछ पीसने आदि का काम करते हैं।

मुझे अपनी और साथियों की आत्मकथा इसलिए लिखनी पड़ रही है कि मनुष्य जाति बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक हमारे प्रति घोर लापरवाही बरतती है। और हमें बहुत सारी बीमारियाँ मुफ्त में दे देती है या हमारी असमय मृत्यु तक करा देती है। हमारे बीमार रहने या हमारी असमय मृत्यु होने से  बच्चा या बड़ा भी बहुत दुख और कष्ट उठाता है, डॉक्टर के पास भागता है। अपना कीमती समय और धन बर्बाद करता है। असहनीय दर्द से चिल्लाता है, दवाएँ खाता है।

एक हमारे जाननेवाले दादाजी हैं, जो बालकपन और किशोरावस्था में हम दाँतों के प्रति बहुत लापरवाह थे। जब उनकी युवावस्था आई तो वे कुछ सचेत हुए, लेकिन तब तक बहुत देर हो गई थी, वे इस बीच हम दाँतों के कारण बहुत पीड़ाएँ झेलते रहे। और इस बीच हमारे चार साथियों में असहनीय दर्द होने के कारण मुँह से ही निकलवाना पड़ा अर्थात हमारे चार साथियों की मृत्यु हो गई। फिर तो वे कष्ट पर कष्ट उठाते रहे। चार साथी खोने से हम भी असंतुलित हो गए और हमारे घिसने की रफ्तार भी बढ़ती गई। जब दादा जी की उम्र पचास रही होगी, तब तक हम बहुत घिस गए थे, उन्हें भोजन चबाने में बहुत दिक्कत होती गई और दादाजी को हमारे कुछ साथियों में आरसीटी करवाकर अर्थात हम दाँतों की नसों का इलाज कराकर कई कैप लगवाईं। फिर भी आए दिन ही दादाजी को बहुत कष्ट झेलना पड़ा। क्योंकि यह सब तो कामचलाऊ दिखावटी ही था। प्राकृतिक दाँतों अर्थात ईश्वर के दिए हुए हम दाँतों की बात कुछ और ही होती है। अर्थात मजबूत होते हैं। दादाजी ने कहा कि मनुष्य जाति को बताओ कि उसे बचपन से बड़े होने तक किस तरह हम दाँतों की देखभाल और साफ सफाई रखनी चाहिए।

दादाजी अब हमारी बहुत देखभाल करते हैं। दादाजी ने हमारे जीवन के ऊपर बहुत सुंदर कविता भी लिखी है। जो भी पढ़ेगा वह खुश हो जाएगा———– क्योंकि उनके मन की शुभ इच्छा है कि जो दाँतों की पीड़ा उन्हें हुई है, साथ ही समय और जो धन नष्ट हुआ है, वह उनकी आनेवाली पीढ़ी को बिल्कुल न हो।

बाल कविता – ” मोती जैसे दाँत चमकते “

हमको पाठ पढ़ाया करते

प्यारे अपने टीचर जी

दाँतों की नित रखें सफाई

कहते हमसे टीचर जी।।

 

दाँत हमारे यदि ना होते

हो जाता मुश्किल भी खाना

स्वाद दाँत के कारण लेते

इनको बच्चो सभी बचाना।।

 

जब- जब खाओ कुल्ला करना

नहीं भूल प्रिय बच्चो जाना

रात को सोना मंजन करके

भोर जगे भी यह अपनाना।।

 

चार तरह के दाँत हमारे

प्यारे बच्चो हैं होते

कुछ को हम छेदक हैं कहते

कुछ अपने भेदक होते।।

 

कुछ होते हैं अग्र चवर्णक

कुछ अपने भोजन को पीसें

खूब चबाकर भोजन खाएँ

कभी नहीं उस पर हम खीजें।।

 

सोलह ऊपर, सोलह नीचे

दाँत हमारे बच्चो होते

करें सफाई, दाँत- जीभ की

दर्द के कारण हम न रोते।।

 

मोती जैसे दाँत चमकते

जो उनकी रक्षा करते हैं

प्यारे वे सबके बन जाते

जीवन भर ही वे हँसते हैं।।

 

तन को स्वस्थ बनाना है तो

साफ – सफाई नित ही रखना,

योग, सैर भी अपनाना तुम

अपनी मंजिल चढ़ते रहना।।

दादाजी ने अपनी कविता में बहुत सुंदर ढंग से समझाने का प्रयास किया है, लेकिन हम दाँत आपको पुनः सचेत कर रहे हैं तथा हमारी बातों को सभी बच्चे और बड़े ध्यान से सुन लेना कि जो कष्ट और पीड़ा दादाजी ने उठाई है वह आपको न उठानी पड़े। समय और धन की बचत हो, डॉक्टर के की क्लिनिक के चक्कर न लगाने पड़ें, इसलिए हमें स्वस्थ रखने के लिए नित्य ही वह कर लेना जो मैं दाँत आपसे कह रहा हूँ —-

बच्चे और बड़े सभी लोग अधिक ठंडा और अधिक गर्म कभी नहीं खाना। न ही अधिक ठंडे के ऊपर अधिक गर्म खाना और न ही गर्म के बाद ठंडा। ऐसा करने से हम दाँत बहुत जल्दी कमजोर पड़ जाते हैं। साथ ही पाचनतंत्र भी बिगड़ जाता है। भोजन के बाद ठंडा पानी कभी न पीना । अगर पीना ही पड़ जाए तो थोड़ा निबाया अर्थात हल्का गर्म ही पीना। जो लोग भोजन के तुरंत बाद ठंडा पानी पीते हैं उनका भी पाचनतंत्र बिगड़ जाता है। पान, तम्बाकू, गुटका खाने वाले तथा रात्रि के समय टॉफी, चॉकलेट या चीनी से बनी मिठाई खानेवाले भी सावधान हो जाना। अर्थात खाते हो तो जल्दी छोड़ देना, नहीं तो हम दाँतों की बीमारियों के साथ ही अन्य भयंकर बीमारियों को भी जीवन में झेलना पड़ेगा।

भोजन के बाद और कुछ भी खाने के बाद कुल्ला अवश्य करना। रात्रि को सोने से पहले मंजन या टूथपेस्ट से ब्रश करके अवश्य सोना। अच्छा तो यह रहेगा कि साथ में गर्म पानी में सेंधा नमक डालकर कुल्ला और गरारे भी कर लेना। ऐसा करने से हम भी जीवन भर  स्वस्थ और मस्त रहेंगे और हमारे स्वस्थ रहने से आप भी। साथ में हमारी जीवनसंगिनी जीभ की भी जिव्ही से धीरे-धीरे सफाई अवश्य कर लेना। क्योंकि बहुत सारा मैल भोजन करने के बाद जीभ पर भी लगा रह जाता है। जब ब्रश करना तो आराम से ही करना, जल्दबाजी कभी न करना। दोस्तो जल्दबाजी करना शैतान काम होता है। सुबह जगकर दो तीन गिलास हल्का गर्म पानी बिना ब्रश किए ही पी लेना। ऐसा करने से आपको जीवन में कभी कब्ज नहीं होगा। शौचक्रिया ठीक से सम्पन्न हो जाएगी। बाद में ब्रश या मंजन कर लेना या गर्म पानी में सेंधा नमक डालकर कुल्ला और गरारे कर लेना। थोड़ा मसूड़ों की मालिश भी कर लेना। ये सब करने हम हमेशा स्वस्थ और सुंदर बने रहेंगे तथा जीवनपर्यन्त आपका साथ निभाते रहेंगे। नींद भी अच्छी आएगी । जो लोग हमारा ठीक से ध्यान और सफाई आदि नहीं करते हैं उनके दाँतों में कीड़े लग जाते हैं, अर्थात कैविटी बन जाती है या पायरिया आदि भयंकर बीमारियाँ हो जाती हैं।

दोस्तो आपने अर्थात सभी बच्चे और बड़ों ने हम दाँतों का कहना मान लिया तो जान लीजिए कि आप हमेशा तरोताजा और मुस्कारते रहेंगे। हर कार्य में मन लगेगा। पूरा जीवन मस्ती से व्यतीत होता जाएगा।

मैं दाँत आत्मकथा समाप्त करते- करते एक संदेश और दे रहा हूँ कि अपने डॉक्टर खुद ही बनना और ये भी सदा याद रखना—-

 “जो भी करते अपने प्रति आलस, लापरवाही।

उनको जीवन में आतीं दुश्वारी और बीमारीं।।”

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४७॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.४७॥ ☆

तत्र स्कन्दं नियतवसतिं पुष्पमेघीकृतात्मा

पुष्पासारैः स्नपयतु भवान व्योमगङ्गाजलार्द्रैः

रक्षाहेतोर नवशशिभृता वासवीनां चमूनाम

अत्यादित्यं हुतवहमुखे संभृतं तद धि तेयः॥१.४७॥

 

वहाँ पर स्वयं पुण्य घन व्योम गंगा

सलिल सिक्त तुम पुष्प वर्षा विमल से

नियतवास  स्कन्द को देवगिरि पर

प्रथम पूजना मित्र कुछ और चल के

षडानन वही इन्द्र की सैन्य रक्षार्थ

जिनको स्वयं शम्भु ने था बनाया

रवि से प्रभापूर्ण , अति तेज वाले

जिन्होंने अनल मुख से था जन्म पाया

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्रीदत्ता ☆ श्री मुबारक उमराणी

श्री मुबारक उमराणी

 

☆ कवितेचा उत्सव ☆ श्रीदत्ता… ☆ श्री मुबारक उमराणी ☆

रुप तुझेचश्रीदत्ता

माझ्या ह्दयी आहे रे

अंतरिचा धुप दीप

डोळा भरुन पाहे रे

 

भजनात दिनरात

मीही झालो असा दंग

माझ्या जीवनात तूच

देवा भरलास रंग

 

माय माहूर डोंगरी

देई मजसी आशिष

मोद भरे जीवनात

मनी उरला ना रोष

 

सोडुनी अमलझरी

तूच भेटण्या आलास

डोळाभर अश्रूधार

देवा तूच पुसलीस

 

मन झाले देवालय

नाद ब्रम्ही घंटानाद

पायघडी अंथरता

मीच धरी तुझे पाद

 

धुप सुगंधात देवा

कोठे तू रे दडलास ?

मेवा अमृताचा घास

माझ्यासाठी धाडलास

 

माझ्यासाठी चालतांना

नाही थकले रे पाय

तुझ्यासवे आली घरी

अनुसया माझी माय

 

परिमळ त्रिभूवनी

ब्रम्हरसपान फुला

जन्म सार्थकी पालखी

आशिषाचा दिला झुला

 

डोळा भरून पहाता

थांबेनात अश्रूधार

भूलचूक झाली जरी

तुच करी नौका पार

 

पूजाअर्चा  करतांना

शोधते अमलझरी

भाजी भाकरी सेवता

माझ्या घरी दत्त हरी

 

© श्री मुबारक उमराणी

शामरावनगर, सांगली

मो.९७६६०८१०९७.

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ कृतज्ञ डोळे – भाग-1 ☆ श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

 ☆ जीवनरंग ☆ कृतज्ञ डोळे – भाग-1 ☆ श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे ☆ 

गाडी पार्क करून निघालो तो नेहमीप्रमाणे तुकाराम शिपाई ब्याग घ्यायला धावत आला, त्याला ब्याग देऊन चेंबर मध्ये खुर्चीवर स्थानापन्न होऊन समोरील फाईल्स चाळतो  तो तुकाराम वर्दी द्यायला आला, सर… कुणी. नामदेव शेरकि नावाचे  पालक भेटू इच्छितात  पाठवू का आत.

फायलीतून नजर उंचावून मी केबिन च्या काचातून बेंचावर बसलेल्या त्या पालकांकडे नजर फिरविली त्याच्यासोबत एक स्त्री बसली होती वयावरून ती त्याची मुलगी असावी याचा मी अंदाज बांधला. डोक्याला तान देऊन त्याव्यक्तीला ओळखण्याचा प्रयत्न करू लागलो, कधीतरी त्याला भेटलो असल्याचे जाणवत होते पण ओळख पटत नव्हती….. सर पाठवू का आत तुकाराम च्या आवाजाने मी भानावर आलो. टेबलावरची बेल वाजवुन मी क्लार्क ला बोलावून घेतले व त्या पालकाचे काही कार्यालयीन काम असेल तर करून देण्याचे सांगितले.

थोड्या वेळाने क्लार्क परत आला म्हणाला सर ते तुम्हालाच भेटायचं म्हणतात. काय समस्या असेल बुवा…..थोड्याशा नाखुशिनेच मी  पाठवून दे अशी मानेनेच खुण केली. येवू का आत सर…. या आवाजाने मी नजर वर केली एक पन्नाशीच्या वयातील गृहस्थ समोर उभा होता. मळलेला पांढरट पायजामा बंगाली खांद्यावर दुपट्टा बोटबोट दाडी वाढलेली उन्हात काम केल्याने रापलेला चेहरा. प्रयत्न करूनही ओळख पटेना. सोबत असलेल्या  मुलीकडे नजर टाकली चेहरा ओळखीचा वाटला पण साडी  घालण्याची सवय नसावी हे तिच्या साडी घालण्याच्या पद्धतीवरून दिसून येत होते. मी मानेनेच या अशी खुण केली. आत येताच त्या दोघांनी माझे पाय केंव्हा पकडले कळलच नाही अरे…. अरे…. हे काय लावले, पाया कशाला पडता. म्हणत मी उठून उभा राहिलो. सर तुम्ही मला ओळखले नाही, ती मुलगी  म्हणाली सर मी बेलसनी गावची सुषमा, सुषमा शेरकी सर. एका डोळ्याने आंधळी सुषमा सर. आणि आता चकित होण्याची पाळी माझी होती. अरे शूषमा म्हणत मी तिला उचलून उभे केले आता ती माझ्या छातीवर डोके टेकवून रडायला लागली मी तिला शांत हो ग. असा धीर देत तिच्या हातात पाण्याचा ग्लास देत खुर्चीवर बसण्याचा संकेत केला.तिचे वडील भाऊक होऊन पाहत होते त्यांनाही बसायला सांगितले.सुषमा सावरून बोलायला लागली.सर हे अश्रू आनंदाचे होते. सर मी शिक्षिका झाले,माझ्या पायावर उभी झाले.तुमचे स्वप्न पूर्ण केले. तिच्या डोळ्यातून दोन आसवे पुन्हा चमकली. आता  मी विचारमग्न झालो आणि सुषमा चा भूतकाळ. डोळ्यासमोरून सरकू लागला…….. जवळपास पाच वर्ष झालीत. त्यावेळेस मी प्राध्यापक होतो तीन दिवसापासून वर्गात मागे बसलेल्या मुलीचे लेक्चर मध्ये लक्ष नसल्याचे जाणवत होते.चवथ्या दिवशी मी तिच्याजवळ जाऊन विचारले,ती काही बोलत नव्हती,काही नाही सर म्हणून अबोल झाली,मी सुध्धा अधिक ताणले नाही. दुपारी अचानक ती तिच्या मैत्रिणीला सोबत घेऊन स्टाफ रूम मध्ये माझ्या समोर येऊन उभी झाली, मी प्रश्नार्थक नजरेने दोघींकडे पाहिले, सुषमाचा एक डोळा पूर्ण पांढरा होता हे मला पहिल्यांदाच दिसले. तिच्या चासम्यामुळे कधी जानवलेच नाही. आता तिची तिची मैत्रीण बोलू लागली. सर हीचा प्रॉब्लेम आहे, मी नजरेनेच काय म्हणून विचारले. आता सुषमा बोलू लागली, सर माझे वडील शिक्षण सोडण्यासाठी मागे लागले आहे,रोज घरी यासाठी भांडण होत आहे.उद्यापासून कॉलेजला जाशील तर कुलूप लावून बंद करून ठेवीन, असा वडिलांनी दंम दिला आहे सर मला शिकायचे आहे पायावर उभे व्हायचे आहे. काय करू सर. ती रडायला लागली. तिला समजावून मी धीर देत सांगितले मी तुझ्या वडिलांशी बोलतो, संध्याकाळी मी तुझ्या वडिलांना भेटायला येतो गावाला,चिंता करू नको. दोघीही मान हलवून परत वर्गात गेल्या.

                            क्रमशः भाग-2….

© श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

चंद्रपूर,  मो. 9822363911

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ बोध कथा – लबाडीचा व्यवहार ☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी

☆ जीवनरंग ☆ बोध कथा – लबाडीचा व्यवहार ☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी ☆ 

||कथासरिता||

(मूळ –‘कथाशतकम्’  संस्कृत कथासंग्रह)

?लघु बोध कथा?

कथा १९. लबाडीचा व्यवहार

एकदा एका राजाला तो त्याच्या महालातून बाहेर पडत असताना दारात कोणी एक मनुष्य हातात कोंबडा घेऊन उभा असलेला दिसला. तेव्हा राजाने त्याला “तू कोण आहेस? आणि इथे का उभा आहेस?” असे विचारले. तेव्हा तो म्हणाला, “मी आपल्या नावावर कोंबड्यांच्या व्यापारात हा कोंबडा जिंकलो. तेव्हा त्याला आपल्या चरणांवर अर्पण करण्यास आलो आहे.” “ठीक आहे, कोंबडा आत देऊन ये” असा राजाने त्याला आदेश दिला.

दुसर्‍या वेळी मेंढा घेऊन तो मनुष्य राजाच्या दारात उभा राहिला. पूर्वीच्याच त्या माणसाला पाहून राजाने “हे काय आणले?” असे विचारले. तेव्हा, “हा बोकड सुद्धा मी आपल्या नावावर जिंकला” असे त्याने कथन केले. राजाने त्याला पूर्वीप्रमाणेच आत येण्यास अनुमती दिली. राजाची अनुमती मिळालेल्या त्या मनुष्याने बोकडाला राजगृही ठेवले व तो निघून गेला.

पुन्हा तिसर्‍या वेळी काही व्यापाऱ्यांसोबत आलेल्या त्या मनुष्याला पाहून “काय आज काहीही बरोबर न आणता आलास?” असे राजाने विचारले. तेव्हा तो म्हणाला, “महाराज, मी काहीही न घेता आलेलो नाही. आपल्या नावाने लावलेली दोन सहस्र नाणी मी व्यापारात हरलो. ती नाणी दे असे म्हणत या व्यापाऱ्यांनी मला निर्दयपणे पकडले आहे. म्हणून महाराजांजवळ मी त्यांना आणले आहे.” तेव्हा राजाने त्याच्या कोषागारातून तों हजार नाणी त्याला आणून दिली व ‘यापुढे माझ्या नावावर व्यापार करू नकोस’ असे त्याला बजावून पाठवून दिले.

तात्पर्य – लबाडीचा व्यवहार जास्त काळ टिकू शकत नाही. तो उघडकीस येतोच..

अनुवाद – © अरुंधती अजित कुळकर्णी

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/म्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ लोकसाहित्य – हावशा भ्रतार ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ विविधा ☆ लोकसाहित्य – हावशा भ्रतार ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर☆ 

बाळाचं कौतुक आईनं जसं भरभरून केलय, तसच आपल्या हावशा भ्रताराचं गुणवर्णनही . तिने आसासून केलय. आपला भ्रतार म्हणजे देवाचा अवतार असल्याचं ती सांगते. त्याचा चांगुलपणा, त्याचं सामर्थ्य, त्याचं प्रेम आणि तिची त्याच्यावरची निष्ठा, भक्ती सगळं काही त्याला ‘देव’ म्हणण्यातून ती सुचवते.

‘काई सरलं ग दळईन…. माझ्या सुपात पानविडा… देव ग अवतार माझा जोडा’ कुठे ती त्याला ‘देव’ म्हणते, तर कुठे ‘ बाजीराव’ ती म्हणते, ‘पिवळा पितांबर मला पुशितो सारा गाव… पिता दौलत राजस म्या ग लुटीला बाजीराव.’ ‘पितांबर’ म्हणताना तिला ऊंची, गर्भारेशमी लोकांच्या नजरेत भरेलसे वस्त्र आपण नेसलो आहोत, इतके सुचवायचे आहे. म्हणून तर सारा गाव तिला विचारतो आहे. ते वस्त्र नेसण्याची तिची ऐपत आहे. कारण तिचा राजस पिता श्रीमंत आहे. त्यामुळे की काय ‘बाजीराव’ पती तिने सहज मिळवला आहे. पतीला ‘बाजीराव’ म्हणताना तिला त्याचा रुबाब, सामर्थ्य, संपन्नता असं सगळं सुचवायचं आहे.

आपल्या कर्तृत्ववान पतीच्या ताकदीचं वर्णन करताना ती सांगते. शिवार पिकलं, धान्याच्या गोण्या गाडीत भरल्या आणि आपल्या भ्रताराने त्या दंडभुजांनी रेटल्या. अगदी असंच वर्णन तिने आपल्या भावाचंही केलं आहे.

या रूपवान बाईकडे कुणी वाकड्या नजरेने पाहीलं तर… ते बजावते, वाटेच्या वाटसरा आल्या वाटेने तू निमूट चालू लाग. कारण माझा कंथ आहे, जंगलात वाघाच्या दाढा मोजणारा. अशाच एका ओवीत नागालाही तिने असंच बजावलय. बहुतेक ओव्यातून नागाचा उल्लेख भाऊ म्हणून आलाय. पण क्वचित काही ठिकाणी तो परपुरुष म्हणूनही येतो. नाग हे पुरूषतत्वाचं प्रतीक मानलं जातं, त्यामुळे क्वचित  कुठे अशाही ओव्या दिसतात. आपल्या भ्रतार्‍याच्या सामर्थ्याची कल्पना देणार्‍या अनेक ओव्या स्त्रियांनी गायल्या आहेत.

अशा या सामर्थ्यशाली , कर्तृत्ववान , देवाचाच अवतार आहेसं वाटणार्‍या आपल्या पतीच्या राज्यात आपल्याला काहीच कमी नाही, हे सांगताना ती म्हणते, काई माळ्याच्या गं मळ्यामंदी पान गं मळ्याला पायइरी… हौशा गं कंथाच्या जीवावरी दुनिया भरली दुईईरी’ असं ती कौतुकानं, अभिमानानं संगते. उदंड भोगायला भ्रताराचंच राज्य, हे सांगताना आणखी एक वास्तव ती सांगून जाते.

‘काई पुतबीगराच राज… राज गं डोळ्यांनी बघायला … भोळ्या गं  भ्रताराबीराचं राज … राज गं उदंड भोगायाला.’ मग कधी ती त्याच्याकडे लाडिक हट्ट धरते, ‘काई धाकटं गं माझं घर… हंड्या ग भांड्याचा पसाईरा … हौशा गं कंथाला किती सांगू … वाडा ग बांधावा दुसईरा.’ कंथ हवशा आहे आणि दुसरा वाडा बांधावा अशी समृद्धीही आहे, असं सगळच  ती त्यातून सुचवते.

बाळाबद्दल असो, नवर्‍याबद्दल असो, किंवा मग भावाबद्दल, गाणारी नारी आपल्या नेहमीच्या परिचयातली उदाहरणे, दाखले देते. त्यात आंब्याचं झाड त्याची सावली येते. कधी सीताफळ येतं, तर कधी ब्रिंदावनासारख्या कडू फळाचा दाखलाही येतो.

‘भरतार नव्हं गोड आंब्याची सावली…. आठवली नाही परदेशाला माऊली.’ भ्रताराच्या सहवासात आईसुद्धा विसरली, असं ती तृप्त मनाने म्हणते. कधी त्याच्या सावलीत ऊन–वारासुद्धा गोड लागत आसल्याचं सांगते.

कधी भ्रतार गोड आंब्याची सावली आहे, असं ती म्हणते, तर कधी तो संतापी असल्याचंही सांगते. त्याचा संताप कसा, इंगल्या इस्तवावानी म्हणजे चुलीतल्या निखार्‍यासारखा. किंवा मग आधानाच्या पाण्यासाखा. पण आपण गोड हसून बोलून त्या आधानाच्या पाण्यात विसावण घालतो, असं ती सांगते. म्हणजे तिच्याजवळ हीही चतुराई आहे तर. कधी ती त्याला सीताफळाची उपमा देते. सीताफळ कसं वरून खडबडीत दिसतं, पण त्याच्या आत साखरेची काया असते, तसच वरून खडबडीत वाटणार्‍या भ्रताराच्या पोटात माया आहे, असं तिला वाटतं.

सगळ्याच जणी मात्र अशा नशीबवान नसतात. त्यांके नवरे रुबाबदार, ताकदवान, सामर्थ्यशाली , कर्तृत्ववान नसतात. तरीहे ती आपला पत्नीधर्म निभावते. ’दुबळ्या ग भरताराची सेवा करिते आदरान… पाय पुशिते पदरान. का बरं? कारण ‘काई हळदीवरलं कुंकू … सोनं दिल्यानं मिळना.’ हे तिला माहीत आहे.

पत्नी जितकी आसासून प्रेम करते, सगळ्यांचेच नवरे तितक्याच उत्कटतेने आपल्या बायकोवर प्रेम करतात असं नाही.

मग ती कष्टी होत म्हणते, ‘जीवाला जीव देऊन पहिला। पाण्यातला गोता अंती कोरडा राहिला।‘

कुणाचा नवरा दुबळा असतो. कुणाचा फसवाही निघतो. मग विरस झालेली एखादी मनाशी किंवा जनातही म्हणते,

‘कावळ्यानं कोटं केलं बाभुळवनामंदी… पुरुषाला माया थोडी नारी उमंज मनामंदी।‘ कधी भोळेपणाचा आव आणत ती म्हणते,

कडू बृंदावन। डोंगरी त्याचा राहावा। पुरुषाचा कावा। मला येडीला काय ठावा।‘ बृंदावन हे एक फळ आहे. वरून दिसायला मोहक पण आतून कडू जहर. कधी ती याहीपेक्षा तिखटपणे  म्हणते, ‘माऊलीच्या पोटी लेक जन्मला तरवड । लोकाच्या लेकराची त्याने मांडली परवड।‘ सासू चांगली आहे, म्हणून तिच्यासाठी ती ‘माऊली’ शब्द वापरते. पण तिच्यापोटी हे काटेरी झाड कसण निपजलं म्हणून आश्चर्य आणि खंतही  व्यक्त करते.

भ्रताराबद्दलच्या भाव – भावनांचे असे विविध रंगी इंद्रधनुष्य दळता-कांडतांना गायलेल्या ओव्यातून प्रकट झाले आहे.

क्रमश:  पुढील लेखात ताईता बंधुराजा

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूर संगीत राग गायन (भाग १०) – राग~मारवा, पूरिया, सोहोनी ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

☆ सूर संगत ☆ सूर संगीत राग गायन (भाग १०) – राग~मारवा, पूरिया, सोहोनी ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

मारवा,पूरिया,सोहोनी मारवा थाटोत्पन्न हे तीन राग! गोत्र एकच परंतु प्रत्येकाची कुंडली भिन्न, साम्य असूनही वेगळी दिसणारी! स्वभाव वेगळा, चाल वेगळी, स्वतंत्र अस्तित्व असणारी अशी ही तीन सख्खी भावंडेच!

मारवा थाट म्हणजे कोमल रिषभ आणि तीव्र मध्यम घेऊन येणारा. अर्थातच या तीनही रागांत रे कोमल आणि म तीव्र, पंचम वर्ज्य, बाकीचे स्वर शुद्ध. अर्थातच यांची जाति षाडव~षाडव.

सगळे स्वर तेच असतांना प्रत्येक राग आपले स्वतंत्र अस्तित्व कसे काय टिकवितो हा एक मोठा प्रश्नच आहे नाही का?  याचे ऊत्तर असे की प्रत्येकाचे चलन संपूर्णपणे वेगळे आहे. दुरून येणार्‍या किंवा पाठमोर्‍या एखाद्या माणसाला आपण जसे त्याच्या चालण्यावरून अचूक ओळखतो तसेच ह्या रागांचे आहे.

ह्या लेखांत आपण मारवा या रागाचे विवेचन करूया.

मारव्याचे सर्व सौंदर्य शुद्ध धैवतात एकवटलेले आहे. या स्वराबद्धल जाणकारांत बरीच मतभिन्नता आहे. कोणी शुद्ध धैवत तर कोणी कोमल आणि शुद्ध या दोन धैवतामधील श्रुतींवर लागणारा धैवत मारव्यात असला पाहीजे असे मानतात. असा कलात्मक धैवत मारव्याचे सौंदर्य खुलवितो, अधिक मोहक रूप व्यक्त करतो. याच्या चलनांत पुर्वांगांत कोमल रिषभ व उत्तरांगांत शुद्ध धैवत प्रबळ आहे. राग विस्तार करतांना षड्जाचा कमीत कमी वापर असल्यामुळे कलाकाराची हा राग सादर करतांना कसोटीच असते. नी(रे)—ग(म)ध— (म)ध(म)ग(रे)—सा। ध आणि रे वर न्यास असे याचे स्वरूप आहे. कोमल रिषभांतून आर्त भाव उमटतात. दिवस व रात्र यांची संधि होण्याची, संधिकालीन वेळ मनाला एकप्रकारची हुरहुर लावणारी, उदास! अशावेळी मारव्याचे सूर त्यातील तीव्र मध्यमामुळे अधिकच कातर वाटतात.”पैया परत छांड दे मोरी गगरी।जाने दे पनिया भरनको शामसुंदर।।ह्या पंक्ती ऐकल्या की गोपींची आर्त विनवणी मारव्याच्या सुरांतून नेमकी समजते.

मारव्यात अनेक मराठी/हिंदी गीते संगीतबद्ध करण्यांत आली आहेत. अरूण दाते यांनी गायिलेले व र्‍हुदयनाथ मंगेशकरांनी संगीत दिलेले स्वरगंगेच्या काठावरती वचन दिले तू मला हे भावगीत मारव्याचे स्पष्ट रूप रसिकांस दाखविते. भक्तीतील करूणा आपल्याला धन्य ते गायनी कळा या नाटकांतील हे करूणाकरा ईश्वरा ह्या भजनांतून

अनुभवास येते.शब्द शब्द जपून ठेव बकुळीच्या फुलापरी हे सुमन कल्याणपूरचे भावगीत मारवा मधलेच!सांझ ढले गगनतले हम कितने है एकाकी ह्या शब्दांतूनच मारव्यातली ऊदासीनता दिसून येते.

अथांग सागराला भरती आली आहे,पौर्णिमेच्या चंद्रप्रकाशांत उसळणार्‍या लाटांची गाज कानावर पडते आहे,अशा निसर्गाच्या रूपाचे दर्शन म्हणजे मारवा!

भैरवकालिंगडा,भूपदेसकार,तोडीमुलतानीप्रमाणेच मारवापूरिया ही जोडी प्रसिद्ध आहे.

पुढील लेखांत आपण पूरिया रागाविषयी बोलूया.

 

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – मासिक स्तम्भ ☆ खुद से खुद का साक्षात्कार #1 – श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆ आयोजन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी)

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

वर्तमान में साहित्यकारों के संवेदन में बिखराव और अन्तर्विरोध क्यों बढ़ता जा रहा है, इसको जानने के लिए साहित्यकार के जीवन दृष्टिकोण को बनाने वाले इतिहास और समाज की विकासमान परिस्थितियों को देखना पड़ता है, और ऐसा सब जानने समझने के लिए खुद से खुद का साक्षात्कार ही इन सब सवालों के जवाब दे सकता है, जिससे जीवन में रचनात्मक उत्साह बना रहता है। साक्षात्कार के कटघरे में बहुत कम लोग ऐसे मिलते हैं, जो अपना सीना फाड़कर सबको दिखा देते हैं कि उनके अंदर एक समर्थ, संवेदनशील साहित्यकार विराजमान है।

कुछ लोगों के आत्मसाक्षात्कार से सबको बहुत कुछ सीखने मिलता है, क्योंकि वे विद्वान बेबाकी से अपने बारे में सब कुछ उड़ेल देते है।

खुद से खुद की बात करना एक अनुपम कला है। ई-अभिव्यकि परिवार हमेशा अपने सुधी एवं प्रबुद्ध पाठकों के बीच नवाचार लाने पर विश्वास रखता है, और इसी क्रम में हम माह के हर दूसरे बुधवार को “खुद से खुद का साक्षात्कार” मासिक स्तम्भ प्रारम्भ कर रहे हैं। जिसमें ख्यातिलब्ध लेखक खुद से खुद का साक्षात्कार लेकर हमारे ईमेल ([email protected]) पर प्रेषित कर सकते हैं। साक्षात्कार के साथ अपना संक्षिप्त परिचय एवं चित्र अवश्य भेजिएगा।

आज इस कड़ी में प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार – साहित्यकार श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी का  खुद से खुद का साक्षात्कार. 

  – जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी)  

☆ खुद से खुद का साक्षात्कार #1 – खुद से खुद का साक्षात्कार बतर्ज हम को हमीं से चुरा लो…..  श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆

श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

लेखक परिचय  

नाम :   प्रभाशंकर उपाध्याय

जन्म : 01.09.1954

जन्म स्थान : गंगापुर सिटी (राज0)

शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), पत्रकारिता में स्नातकोत्तर उपाधि।

व्यवसाय : स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर से सेवानिवृत अधिकारी।

सम्पर्क :  193,महाराणा प्रताप कॅालोनी, सवाईमाधोपुर (राज.) पिन-322001

मोबाइल सं. :  9414045857, 8178295268

कृतियां/रचनाएं : चार कृतियां- ’नाश्ता मंत्री का, गरीब के घर’, ‘काग के भाग बड़े‘,  ‘बेहतरीन व्यंग्य’ तथा ’यादों के दरीचे’। साथ ही भारत की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग पांच सौ रचनाएं प्रकाशित एवं प्रसारित। कुछेक रचनाओं का पंजाबी एवं कन्नड़ भाषा अनुवाद और प्रकाशन। व्यंग्य कथा- ‘कहां गया स्कूल?’ एवं हास्य कथा-‘भैंस साहब की‘ का बीसवीं सदी की चर्चित हास्य-व्यंग्य रचनाओं में चयन,  ‘आह! दराज, वाह! दराज’ का राजस्थान के उच्च माध्यमिक शिक्षा पाठ्यक्रम में शुमार। राजस्थान के लघु कथाकार में लघु व्यंग्य कथाओं का संकलन।

पुरस्कार/ सम्मान : कादम्बिनी व्यंग्य-कथा प्रतियोगिता, जवाहर कला केन्द्र, पर्यावरण विभाग राजस्थान सरकार, स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर, अखिल भारतीय साहित्य परिषद तथा राजस्थान लोक कला मण्डल द्वारा पुरस्कृत/सम्मानित। राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार घोषित।

 

खुद से खुद का साक्षात्कार बतर्ज हम को हमीं से चुरा लो…..  श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

ब्रज भाषा के महाकवि देव ने एक बार मन को तड़ी दी थी- नासपीटे, तेरी शरारतों का जरा सा भी अनुमान होता तो तेरे हाथ-पांव तोड़ देता।

अतएव, उसी भय से मैं शैतान  मन को अपना साक्षात्कार नहीं दे रहा बल्कि अपने हम को यह सुनहरा अवसर प्रदान कर रहा हूं। लिहाजा, हम को हमीं से चुरा लो गीत की तर्ज पर हमारे हम (जिसे मैंने  ‘प्रतिच्छाया हम’ लिखा है) के द्वारा ‘हम’ से लिया इंटरव्यू प्रस्तुत किए दे रहा हूं।  लिहाजा, दोनों में जो तीखी तकरार हुई, उसका लुत्फ़ लीजिए है-

हम(प्रतिच्छाया)- तुम लेखक ही क्यों भए…और कुछ क्यों न?

हम- हमरा जनम गणेश चतुर्थी के दिन हुआ था, चित्रा नक्षत्र में। सो मामाश्री ने नामकरण किया, गजानन। शास्त्रों में कहा गया है – ‘सा एशा गणेश विद्या’ (वह विद्या (लिपि) है जिसे गणेश जानते हैं) महाभारत के लेखन के लिए व्यासजी, गणेश जी का स्मरण करते हुए लिखते हैं- ‘लेखको भारतस्यास्य भव गणनायक’। हे गणनायक! आप भारत ग्रंथ के लेखक हों।

गणनायक अर्थात् गणपति … जिन्होंने वैदिक ऋषियों के अनुनय पर वायु में विलीन हो रहे स्वरों और व्यंजनों को सर्वप्रथम आकृति प्रदान की और विश्व के प्रथम लेखक बने।

अत: उसी परंपरा का अनुशीलन करते हुए यह अकिंचन गजानन भी लेखकीय कर्म में अनुरत हुआ।

तुम्हारे प्रश्न का दूसरा गजब उत्तर और देता हूं कि मामू ने गजानन नामकरण क्यों किया? हमारे थोबड़े पर पोंगड़ा सी नासिका तथा सूप सरीखे कर्ण भी गजमुखी होने का आभास कराते थे, सो ‘गज-आनन’ रखा।

हम(प्रतिच्छाया)- मगर, व्यंग्यकार ही क्यों हुए, कथाकार भी तो हो सकते थे?

हम- अय…मेरे हमसाए! अब, इसका उत्तर भी सुन। पंडितजी ने जब जन्मकुंडली हेतु मत्था मारा तो नाम निकला- प्रेमचंद। हमें लगता है कि पिताजी उस नाम पर बिचक गए थे। कदाचित उन्होंने प्रेमचंदजी की फटे जूते वाली तस्वीर देख ली होगी सो घबरा कर, कन्या राशिषन्तर्गत वैकल्पिक नाम रखा-प्रभाशंकर। इस प्रकार हम कहानीकार होते होते रह गए।

हम(प्रतिच्छाया)- वाह गुरू! प्रेमचंद नाम होने से ही हर कोई कथाकार हो जाता है और प्रभाशंकर होने से व्यंग्यकार? बात हजम नहीं हुई।

हम- तुमने गुरू ही बोल दिया है तो तर्क-ए-हाजमा भी हम ही देते हैं। ध्यान देकर सुनो। हम हैं, प्रभाशंकर। संधि विच्छेद हुआ प्रभा+शंकर। भगवान शंकर के पास तीन नेत्र हैं बोलो…हैं कि नहीं? और जब जगत में भय, विद्रुपताएं, अनाचार आदि बढ जाते हैं तो उनका तीसरा नेत्र खुल जाता है।  अत: हम भी शंकर की वही ‘प्रभा’ हैं। सांसारिक दो नेत्रों से विसंगतियों, विषमताओं, अत्याचारों और टुच्चेपन को निरखते हैं तथा अपनी ‘प्रभा’  रूपी तीसरी आंख यानी कलम से उन पर प्रहार करते हैं। बोलो सांचे दरबार की जय…। तुम्हारे ज्ञानवर्धन के लिए एक बात और बता दें कि डॉ. हरिश्चंद्र वर्मा के अनुसार – व्यंग्य व्यवहार में महादेव की भांति रुद्र है और परिणाम में शिव। जरा सोचो बरखुरदरी कि हरिश्चंद्रजी तो असत्य लिखने से रहे।

एक पते की बात और कि पिता ने प्रभाशंकर नाम ही रखा गर, हरिशंकर रखा होता तो हम परसाई भी हो जाते और अगर गजानन ही हुआ रहता तो कविश्रेष्ठ ‘मुक्तिबोध’ हो रहते फिर आते हमारे अच्छे दिन और पुरोधाओं के बिगड़ जाते..हा…हा…।

हम(प्रतिच्छाया)- तुम कुतर्क कर रहे हो प्यारे!और बेशर्मी से दांत भी फाड़ रहे हो पर हमारे पास तुम्हारे इस कुतर्क को मानने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं। खैर, यह बताओ कि व्यंग्य लेखन में तुमने कोई बड़ा तीर मारा  या अभी तक सिर्फ भांजी ही मार रहे हो?

हम- चारा तो अब बचा भी नहीं है क्योंकि उसे तो बरसों पूर्व बिहार का एक पूर्व मुख्यमंत्री खा गया था और अब ‘बे – चारा’ हुए कारावास भुगत रहा है। सो तुम भी चारे के चक्कर ना पड़ो तो ही अच्छा है। चुनांचे, अपने सवाल का जवाब सुनो- भांजी मारना सबसे आसान काम है। आजकल, अधिकांश व्यंग्य लेखक यही कर रहे हैं और हम भी। देखो डियर, हम इस मुगालते में कतई नहीं हैं कि परसाई, शरद, त्यागी या शुक्ल बन जाएंगे। अरे, हम तो ज्ञान और प्रेम भी नहीं बन सके। अलबत्ता, दुर्वासा अवश्य बन सकते थे लेकिन हमारे पास श्राप-पॉवर नहीं था सो कलमकार होकर अपना क्रोध कागजों पर उतारने लगे। कुछ संपादक दया के सागर होकर छाप देते हैं सो अपनी दुकान चल निकली है।

हम(प्रतिच्छाया)- यूं ही यत्र-तत्र छपते रहे या कोई किताब-शिताब भी लिखी?

हम- अब तुमने हमारी दुखती रग पर दोहत्थड़ मार दिया है, यार! कहने को तीन पुस्तकें हैं किन्तु कोई पढता नहीं उन्हें। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने सूपड़ा साफ कर दिया है। किताबें जो हैं, मरी मरी सी जी रही हैं सोचती होंगी कि यह जीना भी कोई जीना है लल्लू?

हम(प्रतिच्छाया)- जैसी भी हैं, उनके नाम तो बता दीजिए?

हम- ए..लो..तुमसे भी कोई बात छिपी है, ब्रदर! यूं भी हिन्दी लेखक के पास छिपाने को अपना कुछ होता नहीं है। कुछ अरसा पहले लेखकों की चाहने वालियां हुआ करती थीं। उनके खतो-खतूत की खुश्बू में लेखक महीनों डूबता-उतराता रहता था पर अब तो वह तरावट भी नहीं। अब, मामला खुली किताब सा है। फिर भी तुमने नाम पूछे हैं तो बताए देते हैं- ‘नाश्ता मंत्री का गरीब के घर’(1997), ‘काग के भाग बड़े’(2009), ‘बेहतरीन व्यंग्य’(2019)

हम(प्रतिच्छाया)- मान गए गुरू, तीसरे संकलन का टाइटल ही बेहतरीन व्यंग्य है। इसमें सब बेहतर ही बेहतर होगा?

हम- मां बदौलत, सिर्फ किताब का टाइटल ही बेहतर है, वह भी प्रकाशक की बदौलत बाकी सब खैर सल्ला…।

हम(प्रतिच्छाया)- तुम्हें व्यंग्य में तलवार भांजते हुए तीन दशक से ऊपर हो गए और महज तीन किताबें। तीसरी में भी अधिसंख्य पूर्व के दो संग्रहों से छांटे हुए हैं। बहुत बेइंसाफी है, यह। लोग तो एक साल में ही 25-25 निकाले दे रहे हैं। अब, तुम चुक गए हो उस्ताद!

हम- तुमने उस्ताद कहा है तो यह भी सुन लो कि उस्ताद चुक कर भी नहीं चुकता। वह इंटरव्यू देता है जैसे हम तुम्हें दे रहे हैं। उस्ताद पुरस्कार हथियाता है। उस्ताद मठ बनाता है।

हम(प्रतिच्छाया)- वाह! भाईजान! इंशाअल्ला, तुमने भी पुरस्कार हड़पे और मठ बनाए होंगे….बोलो हां।

हम- नो कमेंट।

हम(प्रतिच्छाया)- चलो, कोई चेले-वेले भी बनाए या कि यूं ही एकला चलो रे का राग अलापते रहे हो?

हम- दो चार जने हैं जो हमें एकांत में गुरू का दर्जा देते हैं किन्तु खुलकर सामने आने से कतराते हैं। अपनी रचनाओं में सुधार करवा ले जाते हैं लेकिन संकलनों में उस बात का उल्लेख नहीं करते। कुछ चेलों ने अपनी किताबों के लिए भूमिका और प्राक्कथन भी लिखवाए। हमने बड़ी मेहनत से उन्हें लिखा मगर वे भूमिकाएं उनकी किताबों में किसी और के नाम से छपीं। पूछा तो मासूमियत से बोले, यह प्रकाशक की बदमाशी है। उस मुए ने आपका नाम हटा कर दूसरे का डाल दिया। हमने भी नेकी कर और कुएं डाल वाली उक्ति का स्मरण करते हुए खुद को दिलासा दे लिया। दरअसल, चेले भी कुछ ही रोज में शक्कर हो जाते हैं।

हम(प्रतिच्छाया)- निराश न होओ गुरूवर क्योंकि तुमने गुरूदेव बनने का यत्न किया। गुरूघंटाल बन जाते तो ऐसा न होता। खैर, तुम्हारी एक रचना- ‘आह! दराज, वाह! दराज’ माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हुई और सीनियर सैकेंडरी के लाखों विद्यार्थियों तक ले गयी। तुमने गुरुदेव की भांति छात्रों को पाठ पढाया है, गुरु!

हम- हां, भाई! उस तुक्के को तीर बना देख अपन भी चकित हुए थे। दरअसल, कादम्बिनी में 2002 में प्रकाशित वह रचना पाठ्यक्रम समिति के एक सदस्य को इतनी भायी कि उसे उन्होंने कोर्स में घुसवा दिया। बाद में बोर्ड ने सहमति मांगी तो मैंने पूछा कि इसमें ऐसा कौन सुर्खाब का पर लगा है कि आपने इसे कोर्स में फिट कर दिया। तो उत्तर मिला कि यह भाषा विज्ञान पर अच्छा व्यंग्य है। सन् 2006 में एक मास्साब ने दूरभाष पर सूचित किया था कि म्यां! तुमने शिक्षा विभाग में भी अपनी घुसपैठ कर ली है। लाहौलविला कुव्वत!

हम(प्रतिच्छाया)- तुमने संस्मरणों पर आधारित एक किताब ‘यादों के दरीचे’ भी लिख मारी थी लेकिन बैंकवाला उपन्यास ‘कागज से कोर’ अभी तक कोरा क्यों है?

हम- दरअसल,  बढ़ती कलम नामक एक अखबार में साप्ताहिक स्तंभ लेखन के तहत संस्मरणों की एक लेखमाला अठारह महीनों तक लिखी थी। फिर, किताबगंज वाले डॉ. प्रमोद सागर मेहरबां हो गए तो ‘यादों के दरीचे’ डायरी के रूप में आ गयी। बैंकवाला उपन्यास ‘कागज से कोर’ सरकारी प्रोजेक्ट की भांति रेंग रहा है। त्रिवर्षी योजना थी जो कालांतर से पंचवर्षीय हुई। बीच बीच में अनेक स्टे आते रहे सो वर्क ऑर्डर पूरा न हो सका। अब, उम्मीद से हूं कि सप्तवर्षीय प्लानिंग के अंतर्गत काम पूरा हो जाएगा। आगे अल्लाह मालिक…।

हम(प्रतिच्छाया)- अब, एक अंतिम प्रश्न। आप व्यंग्य मूल्यों के लिए लिखते हैं कि मूल्यांकन के लिए?

हम- निश्चित तौर पर दोनों के लिए। जो मूल्य देता है, उसके लिए तो तुरंत। यूं भी आजकल पत्रम्-पुष्पम देनेवाली पत्र-पत्रिकाएं बेहद कम बची हैं।

हम(प्रतिच्छाया)- अरे…नहीं… हम जीवन-मूल्यों की बात कर रहे हैं।

हम- ओहो…जीवन मूल्य। जीवन बड़ा मूल्यवान है, भिया! वह बचेगा तो ही हम लिखेंगे ना…।

हम(प्रतिच्छाया)- इतने नादान और कमसिन ना बनो यार! तुम खेले खिलाड़ी हो। मैं नैतिक मूल्यों से संबंधित सवाल कर रहा हूं।

हम- कौन से मूल्य? कुछ सुनाई नहीं दे रहा। ऊंचा सुनने लगा हूं ना…।

हम(प्रतिच्छाया)- तो…हम तुम्हारे सिर पर खड़े होकर बोल देते हैं।

हम- लो..अब, तुम सिर पर भी चढने लगे।

हम(प्रतिच्छाया)- चलो, कान पास लाओ…उसमें बोल देते हैं।

हम- नहीं, तुम्हारा भरोसा नहीं, कान काट दोगे…फिर हम जमाने को मुंह कैसे दिखाएंगे।

हम(प्रतिच्छाया)- कमाल है, हम पर भी यकीन नहीं?

हम- विश्वास तो बाप का भी नहीं किया जाता आजकल और माई-बाप यानी सरकार से तो कतई उठ गया है, लोगों का।

हम(प्रतिच्छाया)- यही तो हम भी पूछ रहे हैं, नैतिक मूल्य इस कदर गिर गए हैं कि बाप और माई-बाप से भी विश्वास उठ गया।

हम- अच्छा तो तुम उन नैतिक मूल्यों की बात कर रहे हो जो सियासत, समाज और साहित्य से तेल लेने चले गए थे और अब तक लापता हैं। तुम्हारे मुताबिक हमें उनकी पुनर्स्थापना के लिए कुछ करना चाहिए। क्यों, पगलैट समझ रखा है, हमें? जब, सरकार ही विस्थापितों की पुनर्स्थापना के लिए कुछ नहीं करती तो हम व्यंग्यकारों ने ठेका लिया हुआ है कि लापता और उखड़े हुए मूल्यों को प्रस्थापित करने के लिए दुबले हुए जाएं। हमरा तो क्लियर-कट एक ही फंडा है, ढिंढोरा खूब पीटो और करो कुछ मत। यथा राजा तथा प्रजा। आमीन।

इतना सुनते ही हमारी प्रेतछाया विलीन होकर अपने ठौर पर जा टिकी।

 

आयोजन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई- अभिव्यक्ति (हिन्दी)  

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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