(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#3 – पराये धन की तृष्णा सब स्वाहा कर जाती है ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक नाई जंगल में होकर जा रहा था अचानक उसे आवाज सुनाई दी “सात घड़ा धन लोगे?” उसने चारों तरफ देखा किन्तु कुछ भी दिखाई नहीं दिया। उसे लालच हो गया और कहा “लूँगा”। तुरन्त आवाज आई “सातों घड़ा धन तुम्हारे घर पहुँच जायेगा जाकर सम्हाल लो”। नाई ने घर आकर देखा तो सात घड़े धन रखा था। उनमें 6 घड़े तो भरे थे किन्तु सातवाँ थोड़ा खाली था। लोभ, लालच बढ़ा। नाई ने सोचा सातवाँ घड़ा भरने पर मैं सात घड़ा धन का मालिक बन जाऊँगा। यह सोचकर उसने घर का सारा धन जेवर उसमें डाल दिया किन्तु वह भरा नहीं। वह दिन रात मेहनत मजदूरी करने लगा, घर का खर्चा कम करके धन बचाता और उसमें भरता किन्तु घड़ा नहीं भरा। वह राजा की नौकरी करता था तो राजा से कहा “महाराज मेरी तनख्वाह बढ़ाओ खर्च नहीं चलता।” तनख्वाह दूनी कर दी गई फिर भी नाई कंगाल की तरह रहता। भीख माँगकर घर का काम चलाने लगा और धन कमाकर उस घड़े में भरने लगा। एक दिन राजा ने उसे देखकर पूछा “क्यों भाई तू जब कम तनख्वाह पाता था तो मजे में रहता था अब तो तेरी तनख्वाह भी दूनी हो गई, और भी आमदनी होती है फिर भी इस तरह दरिद्री क्यों? क्या तुझे सात घड़ा धन तो नहीं मिला।” नाई ने आश्चर्य से राजा की बात सुनकर उनको सारा हाल कहा। तब राजा ने कहा “वह यक्ष का धन है। उसने एक रात मुझसे भी कहा था किन्तु मैंने इन्कार कर दिया। अब तू उसे लौटा दे।” नाई उसी स्थान पर गया और कहा “अपना सात घड़ा धन ले जाओ।” तो घर से सातों घड़ा धन गायब। नाई का जो कुछ कमाया हुआ था वह भी चला गया।
पराये धन के प्रति लोभ तृष्णा पैदा करना अपनी हानि करना है। पराया धन मिल तो जाता है किन्तु उसके साथ जो लोभ, तृष्णा रूपी सातवाँ घड़ा और आ जाता है तो वह जीवन के लक्ष्य, जीवन के आनन्द शान्ति प्रसन्नता सब को काफूर कर देता है। मनुष्य दरिद्री की तरह जीवन बिताने लगता है और अन्त में वह मुफ्त में आया धन घर के कमाये गए धन के साथ यक्ष के सातों घड़ों की तरह कुछ ही दिनों में नष्ट हो जाता है, चला जाता है। भूलकर भी पराये धन में तृष्णा, लोभ, पैदा नहीं करना चाहिए। अपने श्रम से जो रूखा−सूखा मिले उसे खाकर प्रसन्न रहते हुए भगवान का स्मरण करते रहना चाहिए।
(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गीजी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)
☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 10 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆
(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)
(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )
अंदमान के उस रमणीय सफर से मेरी नृत्य के क्षेत्र में और मेरे जिंदगी में भी मैंने बहुत बड़ी सफलता पाई थी| अंदमान से आने के बाद मुझे बहुत जगह से नृत्य के कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया गया| मैंने बहुत छोटे-बड़े जगह पर, गलियों में भी मेरे नृत्य के कार्यक्रम पेश किए और मेरी तरफ से सावरकर जी के विचार सब लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया| मेरा यह प्रयास बहुत छोटा था फिर भी मेरे और मेरे चाहने वाले दर्शकों के मन में आनंद पैदा करने वाला था| मेरा प्रयास, मेरी धैर्यता मिरज के लोगों ने देखी और २०११ दिसंबर माह में मिरज महोत्सव में ‘मिरज भूषण पुरस्कार’ देकर मुझे सम्मानित किया गया|
‘अपंग सेवा केंद्र’ संस्थाने मुझे ‘जीवन गौरव पुरस्कार’ देखकर सन्मानित किया| मैं जहा पढ रही थी उस कन्या महाविद्यालय ने ‘मातोश्री पुरस्कार’ देकर मेरा विशेष सन्मान किया|
मेरे नृत्य का यह सुनहरा पल शुरू था तब मेरी गुरु धनश्री दीदी के मन में कुछ अलग ही खयाल शुरू था| उनको मुझे सिर्फ इतने पर ही संतुष्ट नहीं रखना था| उनकी बात सुनकर मुझे केशवसुतजी की कविता की पंक्तियां याद आ गई,
“खादाड असे माझी भूक, चकोराने मला न सुख
कूपातील मी नच मंडूक, मनास माझ्या कुंपण पडणे अगदी न मला हे सहे .”
और दीदी ने मुझे भरतनाट्यम लेकर एम.ए. करने का खयाल मेरे सामने रखा, जिसको मैंने बड़ी आसानी से हा कह दिया| क्योंकि दीदी को प्राथमिक तौर पर और शौक के लिए नृत्य करने वाली लड़की नहीं चाहिए थी, बल्कि उनको मुझसे एक परिपक्व और विकसित हुई नर्तकी चाहिए थी जिसके माध्यम से भारतीय शास्त्रीय नृत्य ‘भरतनाट्यम’ इस प्रकार का प्रसार सही तरह से सब जगह किया जाए|
दीदी ने केवल दर्शकों की प्रतिक्रिया और खुद पर निर्भर न रहते हुए उन्होंने मेरा नृत्य उनकी गुरु सुचेता चाफेकर और नृत्य में उनके सहयोगियों के सामने पेश करके उनसे सकारात्मक प्रतिक्रिया हासिल की और मुझे एम.ए. के लिए हरी झंडी मिली|
!!!…अवसर है पुस्तक “तलवार की धार” के लेखक, अध्ययन और पर्यटन के शौक़ीन एवं स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त सहायक-महाप्रबंधक “सुरेश पटवा” जी से मिलने का…!!!
? किताब के बारे में ? ? तलवार की धार ?
संविधान सभा में विचार किया गया था कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यापक लोकहित सुनिश्चित करने हेतु संस्थाओं की स्वायत्तता सबसे महत्वपूर्ण कारक होगी ताकि संस्थाएँ सम्भावित तानाशाही पूर्ण राजनीतिक दबाव और मनमानेपन से बचकर जनहित कारी नीतियाँ बनाकर पेशेवराना तरीक़ों से लागू कर सकें। इसलिए भारतीय स्टेट बैंक का निर्माण करते समय सम्बंधित अधिनियम में संस्था को स्वायत्त बनाए रखने की व्यवस्था की गई थी। तलवार साहब ने भारतीय दर्शन के रहस्यवादी आध्यात्म की परम्परा को अपने जीवन में उतारकर सिद्धांत आधारित प्रबन्धन तरीक़ों से प्रशासकों की एक ऐसी समर्पित टीम बनाई जिसने स्टेट बैंक को कई मानकों पर विश्व स्तरीय संस्था बनाने में सबसे उत्तम योगदान दिया। आज भारत को हरमधारी साधु-संतो की ज़रूरत नहीं है अपितु आध्यात्मिक चेतना से आप्लावित तलवार साहब जैसे निष्काम कर्मयोगी नेतृत्व की आवश्यकता है जो भारतीय संस्थाओं को विश्व स्तरीय प्रतिस्पर्धा में खरी उतरने योग्य बनाने में सक्षम हों। यह पुस्तक ऐसे ही निष्काम कर्मयोगी के कार्य जीवन की कहानी है। जो आपको यह बताएगी कि मूल्यों से समझौता किए बग़ैर सफल, सुखद और शांत जीवन यात्रा कैसे तय की जा सकती है।
दिनाँक : 20 फरवरी 2021
समय : 4:00 pm – 5:00 pm
मिलने का स्थान : लैंडमार्क द बुक स्टोर, ई-5/21, अरेरा कॉलोनी, हबीबगंज पुलिस स्टेशन रोड, भोपाल
फोन : 0755-2465238/4277445
? नीचे दिये फेसबुक लिंक के माध्यम से आप इस कार्यक्रम में जुड़कर लेखक के साथ अपने विचार-विमर्श कर सकते हैं –
☆ जीवनरंग ☆ शारदारमण गिनीज बुकात☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर☆
गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रेकार्डकडून येणार्या पत्राची शारदारमण मोठ्या आतुरतेने वाट पहात होते. त्यांची इच्छा आहे की पुर्या विश्वात सगळ्यात जास्त कविता लिहिणारा कवी या केटॅगरीत त्यांचं नाव नोंदलं जावं. गेल्या वर्षापासून पार्सलद्वारा ते या संस्थेकडे सतत आपल्या कविता पाठवत आहेत. त्यांना पूर्ण विश्वास आहे की एक-न-एक दिवस त्या वर्ल्ड रेकार्डमध्ये त्यांचं नाव नोंदवलं जाईल.
साहित्य लेखनासाठी त्यांनी आपलं नाव `शारदारमण’ यासाठी घेतलेलं नाही कि त्यांच्या पत्नीचं नाव `शारदा’ आहे. ते म्हणतात, ‘कला, विद्या, प्रतिभा यांची देवी `शारदा’ त्यांच्यात रममाण झालीय, म्हणून ते ‘शारदारमण’ आहेत.
गांववाल्यांचं त्यांच्या कवितांच्या बाबतीतलं मत वेगळं आहे. ते म्हणतात, ‘त्यांची कविता म्हणजे, शब्दांचा ढीग फेकलेली कचराकुंडी.’ मत
शारदारमण उठता-बसता, जागेपाणी- झोपेतही कविता करतात. एक दिवस ते असे झोपले कि त्यांच्या तप:साधनेला यश मिळाले. `गिनीज बुक…’ च्या वतीने त्यांना एक पत्र मिळाले. त्यात लिहीलं होतं की त्यांचं नाव `गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रेकार्डमध्ये समाविष्ट केलं जाईल. ते हर्षविभोर होऊन उठले, परंतु ते जसजसे पत्र वाचत पुढे गेले, तसतसा त्यांचा आनंद, हर्ष, उल्हास फुग्याप्रमाणे खाली येत येत एकदम फुस्स… होऊन गेला.
त्यात लिहीलं होतं, `आपलं नाव विश्वविक्रमासाठी नोंदवलं जाणार आहे, पण एका वर्षात जास्तीत जास्त शब्द लिहिणारी व्यक्ती म्हणून ते समाविष्ट केलं जाईल. आम्हाला खेद आहे की अधिकाधिक कविता लिहिणारा कवी म्हणून आपल्या नावाची नोंद होऊ शकत नाही. आपण लिहीलेल्या शब्दांमध्ये कुठलंही काव्य, कविता जाणणार्या मर्मज्ञांना जाणवलं नाही. त्यामुळे अधिकाधिक शब्द लिहिणारी व्यक्ती म्हणून ते समाविष्ट करत आहोत.
पुढे लिहीलं होतं –
आमच्याकडे सगळ्यात मोठा कागदांचा जो संग्रह आहे, तो ब्रिटीश पार्लमेंटरी कागदांचा आहे. त्याचं वजन पावणे चार टन है। आपण पाठवलेल्या कागदांचं वजन सव्वा पाच टन आहे. आजपर्यन्त आमच्याकडे आलेली सगळ्यात मोठी कादंबरी २०,७०,००० शब्दांची आहे. त्याचे २७ व्हॉल्युम्स आहेत. ती लिहायला ४ वर्षे लागली. आपण एकाच वर्षात ४०, ४०, ००० शब्द लिहीले आहेत. तेव्हा एका वर्षात जास्तीत जास्त शब्द लिहिणारी व्यक्ति या विभागात आपलं नाव आम्ही नोंदवत आहोत. अधिकाधिक कविता लिहिणारी व्यक्ति या विभागात आपलं नाव आम्हाला नोंदवता येणार नाही. क्षमस्व.
`हरामखोर स्साले…’ शारदारमण उसळून म्हणाले आणि धम्मकान सोफ्यावर पडले.
“लाजू दंगा नको कलू… आनि त्या गुबूगुबू बालाला धक्का का देतोछ…पलेल ना तो” काही वर्षांपूर्वी आमच्या घरात या आणि अशा पूर्ण बोबड्या वाक्यांची तोफ झाडली जायची. वर्गातल्या बाई… एक ओढणी ची साडी नेसलेल्या…. म्हणजेच माझी चार वर्षाची चिमुरडी मैत्रीण शाळा शाळा खेळत असायची. हॉलच्या मध्यभागी वर्तमानपत्रा सोबत येणाऱ्या वीस-बावीस पुरवण्या उभ्या आडव्या रांगेत व्यवस्थित लावून वर्ग सजलेला असायचा. एकीकडे कोपर्यात देवघरातील घंटा आणि एक-दोन वह्या पण ठेवलेल्या असायच्या.ज्या पुरवणीवर जे चित्र असेल ते त्या मुलाचे किंवा मुलीचे नाव.मी सुद्धा त्या वर्गातील एक विद्यार्थिनी असायचे.पण माझे स्टेटस जरा वेगळे.. त्यामुळे मला सोफ्यावर बसणे अलाऊड असायचे आणि मधून मधून इकडे तिकडे जाणे पण!
घंटा वाजायची.. शाळा सुरू व्हायची. नंतर “छुनिता तू छगल्यांना प्लालथना छांग.” बाईंची ऑर्डर यायची. प्रार्थनेनंतर मग आमच्या बाई हजेरी घ्यायच्या
“व्यायाम कलनाला मुलगा.. झोपाल्यावल बछलेली मुलगी…. छोतं गुबुगुबू बाल… छोनाली.. लाजू…..” अन् सगळ्यात शेवटी “छुनीता गदले!”
सर्वांची मी हजर- हजर म्हणत प्रॉक्सी हजेरी लावायचे.
सकाळची ऑफिस, कॉलेज वाल्यांची गडबड संपलेली असायची आणि मी निर्धास्तपणे मोबाईल मध्ये गर्क व्हायचे. इकडे बाईंचा बोबड्या बोलात अभ्यास, बडबड गीते असं रुटीन चालू असायचं. पण मध्येच
“छुनीता, नो मोबाईल.. अभ्याछ कल अभ्याछ..! पलिच्छा तोंदावल आलीय.” असा ओरडा पण मला खावा लागायचा.
मग मधली सुट्टी व्हायची. डबा खात बसलेल्या मुलांच्या डब्यातील पदार्थ चेक करताना बाईंच्या तोंडाचा पट्टा चालू असायचा. “लोज छांगते ना, पोली भाजी आना.. छक्ती देनाले पदाल्थ आना म्हनून!… हे कुलकुले, मॅगी अछले जंकफूद आनू नका… उद्यापाछून मी तुमाला छिक्छाच कलनाले.”
कधी शाळा लवकर सुटायची. तर कधी दोन -तीन तास चालायची. बाईंची गुंजणारी अधिकारवाणी ऐकू न आल्यामुळे जरा हॉल मध्ये डोकावून पाहिलं तर बाई आपली साडी सोडून त्याचे पांघरूण करून सोफ्यावर आरामात झोपून गेलेल्या असायच्या. आता ती मैत्रिण मोठी झाली आणि आमच्या मैत्रीत अंतर पडले.
माझी एक दुसरी बाल मैत्रिण कायम स्वयंपाक घरातच घुटमळते. नेहमी आजी जवळ राहते. शनिवारी-रविवारी आई-बाबांकडे! तिचे खेळ वेगळेच असतात. ती कधी भाजीवाली… कधी हॉटेल वाली.. कधी इस्त्री वाली.. कधी धुणीभांडी करणारी मावशी… तर कधी आई -बाबां- बाळ खेळातलीआई ! तासन् तास ती या खेळात रमते. कधी माझ्या ऑर्डर प्रमाणे साउथ इंडियन.. चायनीज.. इटालियन.. पंजाबी जेवणाचे पार्सल मला पाठवून देते. मोजून पैसे घेते. कधी माझं संबोधन आजी, कधी काकू, तर कधी वहिनी, मॅम…. वगैरे वगैरे… ते तिच्या व्यवसायाप्रमाणे बदलत असते. अगदी बोबड-कांदा नाहीये, पण र, ट, ठ,ड वगैरे कठिण अक्षर जरा वर्जच!
“वयनी लादी पुसते.पण आज कपले नाही धुनाल.आज माझं अंग थनकतंय… घली जाऊन औषध घेऊन झोपनाल… काल माझ्या नवल्यानं मला माललं बघा…उगीचच… आमतीत मीथ कमी पललं तल मालतात काअशं?”… तिच्या चेहऱ्यावरचे भाव,शब्दातून प्रकट होणारं व्यथित मन, मला फार काही सांगून जात असतं. ती वठवणाऱ्या सगळ्याच भूमिकेतील तिचा अभिनय, कल्पनाशक्ती खरंच दाद देण्यासारखीच असते. मोठेपणी ती छान अभिनेत्री बनेल असा मला विश्वास वाटतो.
पण तिच्या आईला केवढं टेन्शन!”काकू हिला कधी कळणार हो. एक दिवशी तिनं आपलं रडगाणं सुरू केलं. “हिला कित्ती पोएम, बडबड गीतं मी शिकवलीत. नको तेव्हा म्हणते. पण आमच्या दोघांच्या ऑफिसातले सहकारी.. चार-पाच जण.. आले होते. हिला पोएम म्हणण्यासाठी किती आग्रह झाला. पण ही पठ्ठी त्यांच्यासमोर चक्क झाडू- फरशी करायला लागली. खेडवळ भाषेत बोलायला लागली.आम्हाला इतकं लाजल्यासारखं झालं. दोन्ही घरात ढिगानं खेळणी आहेत. पण ही त्यांना हात पण लावत नाही.
“मग तिनं काय करायला हवंअशी तुझी अपेक्षा आहे?
अगं या लॉक डाऊनमुळं तिनं अजून शाळेचे तोंड सुद्धा पाहिलेले नाही.तिला मित्र-मैत्रिणी नाहीएत. आजी कडं मजेने राहते.कधी हट्ट नाही कि रडणं नाही आणि सगळीच मुलं आपण गाणं म्हण म्हटलं की म्हणतातच असं नाही. नाही तिला निर्जीव खेळण्यात इंटरेस्ट. पण तू तिची स्मरण शक्ती, तिचा अभिनय पाहिला नाहीस का? समोर जी माणसे दिसतात,जसे वागतात,त्याला कल्पनाशक्तीची जोड देऊन.. त्या भूमिकेत शिरणं ही साधीसुधी गोष्ट नाही. तिचा हा गुण तुला कधी जाणवला नाही? हे असं कायम नाही राहणार. चिंता करू नको. मोठी झाली की ती आणखी वेगळ्या वेगळ्या भूमिकेत वावरु लागलेली दिसेल. तिच्या कलागुणांना प्रोत्साहन दे. आणि तिला सायकॉलॉजिस्टकडं घेऊन जाऊन कौन्सलिंग करुन घेण्याचा वेडा विचार सोडून दे. तू स्वतःचं बालपण आठव आणि आईच्या भूमिकेत शिरुन तिला समजून घे.”माझं