हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 57 ☆ लघुकथा – टीचर के नाम एक पत्र ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर लघुकथा ‘टीचर के नाम एक पत्र’।  कुछ शिक्षक कल्पना में ही हैं, इसलिए ऐसा संवाद कल्पना में ही संभव है। और यदि वास्तव में ऐसे शिक्षक अब भी हैं तो वे निश्चित रूप में वंदनीय हैं। मकर संक्रांति पर्व पर एक मीठा एहसास देती लघुकथा। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इसअतिसुन्दर लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 57 ☆

☆  लघुकथा – टीचर के नाम एक पत्र

यह पत्र मेरी इंग्लिश टीचर के नाम है। जानती हूँ कि पत्र उन तक नहीं पहुँचेगा पर क्या करूँ इस मन का, मानता ही नहीं, सो लिख रही हूँ।

टीचर! आप जानती हैं कि हम सब आपसे कितना डरते थे? बडा रोबदार चेहरा था आपका। सूती कलफ लगी साडी और आपके बालों में लगा गुलाब का फूल,बहुत अच्छी लगती थीं आप। पर हममें से किसी में साहस कहाँ कि आपके सामने कुछ बोल सकें। आपको देखते ही क्लास में सन्नाटा खिंच जाता था। आप थोडा मुस्कुरातीं तो हम लोगों को हँसने का मौका मिलता। वैसे हँसी तो ईद का चाँद थी आपके चेहरे पर। एक बार आपने मुझसे कहा कि मेरे लिए रोज मेज पर एक गिलास पानी लाकर रखा करो। मैं रोज पानी लाकर रखने लगी, यह देखकर आपने कहा – क्या मुझे रोज पानी पीना पडेगा? मैंने पानी का गिलास रखना बंद कर दिया, तो आपने थोडा डाँटते हुए कहा ‌‌- क्या रोज कहना पडेगा पानी लाने के लिए? मेरी हिम्मत ही कहाँ थी कुछ सफाई देने की? पर आपको अपनी बात याद आ गई थी शायद क्योंकि आप उस समय थोडा मुस्कुराई थीं।

आपके चेहरे की कठोरता तो जानी पहचानी थी लेकिन मन की उदारता का कोना सबसे अछूता था। मैं भी ना जानती अगर आपके घर ट्यूशन पढने ना आती। मेरे पास ट्यूशन फीस देने के पैसे नहीं थे, बडे संकोच से आप से पूछा था कि आप ट्यूशन  पढाएंगी क्या मुझे? आपने कहा – घर आ जाना। मुझे याद है कि आपने कई महीने मुझे ना सिर्फ पढाया बल्कि आने- जाने के रिक्शे के पैसे भी दिए थे। नाश्ता तो बढिया आप कराती ही थीं, आपको याद है ना? ट्यूशन का अंतिम दिन था आपने मुझसे सख्ती से कहा – स्कूल में जाकर गाना गाने की जरूरत नहीं है कि टीचर ने पैसे नहीं लिए, मैं पैसेवालों से फीस जरूर लेती हूँ और जरूरतमंद योग्य बच्चों से कभी पैसे नहीं  लेती। लेकिन इस बात का भी ढिंढोरा नहीं पीटना है। उस समय आपका चेहरा बडा कोमल लग रहा था, आप तब भी मुस्कुराई नहीं थीं पर मैं मुस्कुरा रही थी। टीचर! उस समय आप बिल्कुल मेरी माँ जैसी लग रही थीं।

आपकी एक छात्रा

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ हरित ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ मकर संक्रांति/ उत्तरायण/ भोगाली बिहू / माघी/ पोंगल/ खिचड़ी की अनंत शुभकामनाएँ ☆

सूर्यदेव अर्थात सृष्टि में अद्भुत, अनन्य का आँखों से दिखता प्रमाणित सत्य। सूर्यदेव का मकर राशि में प्रवेश अथवा मकर संक्रमण खगोलशास्त्र, भूगोल, अध्यात्म, दर्शन सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है।

इस दिव्य प्रकाश पुंज का उत्तरी गोलार्ध के निकट आना उत्तरायण है। उत्तरायण अंधकार के आकुंचन और प्रकाश के प्रसरण का कालखंड है। स्वाभाविक है कि इस कालखंड में दिन बड़े और रातें छोटी होंगी।

दिन बड़े होने का अर्थ है प्रकाश के अधिक अवसर, अधिक चैतन्य, अधिक कर्मशीलता।

अधिक कर्मशीलता के संकल्प का प्रतिनिधि है तिल और गुड़ से बने पदार्थों का सेवन।

निहितार्थ है कि तिल की ऊर्जा और गुड़ की मिठास हमारे मनन, वचन और आचरण तीनों में देदीप्यमान रहे।

तमसो मा ज्योतिर्गमय!

–  संजय भारद्वाज

☆ संजय दृष्टि  ☆ हरित ☆

काट दिये गए हैं

पेड़ों के मुंड

निकाल दी गई है

पूरी की पूरी छाल,

धरती को

पच्चीस-पचास मीटर तक

घनी छाँव से ढकनेवाले

अब स्वयं खड़े हैं

निर्वस्त्र और विवश,

इनकी असहाय देह पर

घातक रंगों से

पोती जा रही हैं

रंग- बिरंगी पत्तियाँ,

उकेरे जा रहे हैं

कई तरह के फूल,

एल.ई.डी.की रोशनी में

प्रदर्शन के लिए रखी

अनावृत लाज पर

चस्पां हो रहे हैं

कई स्लोगन

और इसके इर्द-गिर्द

फल-फूल रही है

बेखौफ ब्यूरोक्रेटिक घास,

सारा माज़रा

आशंका मिश्रित भय से

निहार रहे हैं

जवानी की दहलीज पर खड़े

आसपास के कच्चे पेड़,

मैं लिखता हूँ ख़त

आयोजकों को-

माफ कीजियेगा

हरित शहर अभियान के

उद्घाटन के लिए

नहीं आ पाऊँगा!

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #88 ☆ कविता – सब जानती हैं वे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक  विचारणीय कविता  ‘सब जानती हैं वे’ इस सार्थकअतिसुन्दर कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 88 ☆

☆ कविता – सब जानती हैं वे ☆

सब जानती हैं वे   !

क्योंकि बुहारती हैं वे घर का कोना कोना .

घर की हर खटक को पहचानती हैं वे .

सब जानती हैं वे   !

 

तुम्हें अच्छी तरह पहचानती हैं वे,

क्योंकि तुम्हें देखा है उन्होंने अनावृत.

उन्हें होती है तुम्हारी हर खबर,

 

घर, बाहर .

सुन सकती हैं तुम्हारी अनकही बातें .

सब जानती हैं वे   !

 

अपनी पीठ से भी वे

पढ़ सकती हैं सारी  आंखें .

होती हैं वे गर जरा भी  बेखबर .

तो हो जाता है उनका बलात्कार .

कितना घटिया समाज है यार .

इसीलिये शायद

सब जानती हैं वे   !

 

पैंट तो पहन लिया है तुमने,

पर उतारी नहीं है पैरों की पायल .

ओढ़ ली है

नारी प्रगति के नाम पर

पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर तुमने

बाहर की जबाबदारी

पर अब भी लदी हुई है पूर्ववत

तुम पर घर की जिम्मेदारी .

 

अच्छा लगता है जब तुम्हें देखता हूँ ,

पुरुष साथी को साथ बैठाये

स्कूटी या कार चलाते हुये

पर सोचता हूँ कि

तुम थक जाती होगी ,

क्योंकि

रोटियाँ तो तुमसे ही माँगते हैं बच्चे.

थके हारे क्लाँत पुरुष को

तुम्हारे ही अंक में मिलता है सुकून .

 

तुम्हें पंख लगाकर ,

कतर लिये हैं

फैशन की दुनिया ने

तुम्हारे कपड़े .

 

छद्म रावणों

दुःशासन और दुर्योधनों की

आँखों से घिरी हुई,

महसूस करती हो हर तरफ

मर्यादा का शील हरण .

पर तुम बेबस हो .

 

इस बेबसी का हल है

मेरे पास .

पहनो शिक्षा का गहना ,

मत घोंटने दो

कोख में ही गला

अपनी अजन्मी बेटी का ,

संसद में अक्षम नहीं होगा

स्त्री आरक्षण का बिल

जब सक्षम होगी स्त्री .

 

और जब सक्षम होगी स्त्री

तब तुम

बाहर की दुनियाँ सम्भालो या नहीं

घर , बाहर ससम्मान जी सकोगी .

पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर .

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 50 ☆ अक्ल से पैदल ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “अक्ल से पैदल”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 50 – अक्ल से पैदल ☆

क्या किया जाए जब सारे अल्पज्ञानी मिलकर अपने -अपने ज्ञान  के अंश को संयोजित कर कुछ नया करने की कोशिश कर रहे हों ?

कभी- कभी तो लगता है, कि इसमें बुराई ही क्या है  ?

ये सच है, कार्य किसी के लिए नहीं रुकता, चाहे वो कोई भी क्यों न हो । यही तो खूबी है मनुष्य की, वो जहाँ चाह वहाँ राह की उक्ति को चरितार्थ करते हुए चरैवेति – चरैवेति के पथ पर अग्रसर हो अपने कार्यों को निरन्तर अंजाम देता जा रहा है । इसी कड़ी में यदि मौके पर चौका लगाते हुए लोग भी, गंगा नहा लें तो क्या उन्हें कोई रोक सकता है ? अरे ,रोकें भी क्यों? आखिर जनतंत्र है । भीड़ का जमाना है । जितने हाथ उतने साथ; सभी मिलकर सभाओं की रौनक बनाते हैं । कोई भी सभा हो, वहाँ गाँवों से ट्रालियों में भरकर लोग लाए जाते हैं । उन्हें जिस दल का गमछा मिला उसे लपेटा और बैठ गए; पंडालों में बिछी दरी पर । समय पर चाय नाश्ता व भोजन, बस अब क्या चाहिए ? पूरा परिवार जन बच्चे से ऐसे ही सभी आंदोलनों में शामिल होता रहता है । मजे की बात तो ये की है कि पहले सड़क पर आना खराब समझा जाता था परंतु अब तो सत्याग्रह के नाम पर सड़कों को घेर कर ही आंदोलनकारी अपने आप को गांधी समर्थक मानते हैं ।

धीरे – धीरे ही सही लोग सड़कों पर उतरने को अपना गौरव मानने लगे हैं । चकाजाम तो पहले भी किया जाता रहा है किंतु इक्कीसवीं सदी के सोपान पर चढ़ते हुए हम सड़कों को ही जाम करने लगे हैं । ठीक भी है जब चंद्रमा और मंगलग्रह के वासी होने की इच्छा युवा दिलों में हो तो ऐसा होना लाजमी ही है ।  अब हम लोग हर चीज का उपयोग करते हैं, तो सड़कों का भी ऐसा ही उपयोग करेंगे । भले ही हमारा बसेरा आसमान में हो किन्तु हड़ताल धरती पर ही करेंगे क्योंकि वो तो हमारी माता है और माँ का साथ कोई कैसे छोड़ सकता है ? कभी- कभी तो लगता है ; ऐसा ही होना चाहिए क्योंकि सच्चा लोकतंत्र तो गाँवों में बसता है । राजनैतिक या धार्मिक कोई भी आयोजन हो सुनने वाले वही लोग होते हैं, जो एक कान से सुनकर दूसरे से निकालने की खूबी रखते हों । ये सब देखते हुए वास्तव में लगता है कि लोकतंत्र कैसे भीड़तंत्र में बदल जाता है और हम लोग असहाय होकर देखते रह जाते हैं ।  लोग बस इधर से उधर तफरी करते हुए घूमते रहते हैं , जहाँ कुछ नया दिखा वहीं की राह पकड़ कर चल देते हैं ।

अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम ।

दास मलूका कह गए, सबके दाता राम ।।

बस इसी दोहे को अपना गुरु मानकर घर से निकल पड़ो और जहाँ आंदोलन हो रहा हो वहाँ जमकर बैठ जाओ । याद रखो कि पहला  कार्य सभी लोग नोटिस करते हैं अतः उसे विशेष रूप से ध्यानपूर्वक करें । जब आपका नाम ऐसे आयोजनों में लिख जाए तो चैन की बंशी बजाते हुए अपनी धूनी रमा लीजिए । यदि उद्बोधनों से आपका नाम छूटने लगे तो समझ लीजिए की आपको अपने ऊपर कार्य करने की जरूरत है । तब पुनः जोर- शोर से कैमरे के सामने आकर हमारी माँगें पूरी करो… का नारा लगाने लगें, भले ही माँग क्या है इसकी जानकारी आपको न हो । क्योंकि प्रश्न पूछने वाले भी प्रायोजित ही होते हैं , ऐसे आयोजनों में उन्हें ही प्रवेश मिलता है जो अक्ल से पैदल होकर वैसे ही प्रश्नों को पूछें जैसे आयोजक चाहता हो ।

सड़क और ग्यारह नंबर की बस का रिश्ता बहुत गहरा होता है । इनके लिए विशेष रूप से फुटपाथ का निर्माण किया जाता है जहाँ ये आराम से अपना एकछत्र राज्य मानते हुए विचरण कर सकते हैं तो बस ; आंनद लीजिए और दूसरों को भी दीजिए । जो हो रहा है होने दीजिए ।

जबलपुर (म.प्र.)©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 57 ☆ बाल कविता – गठरी सिर पर धरे सवेरा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं   “बाल कविता – गठरी सिर पर धरे सवेरा.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 57 ☆

☆ बाल कविता – गठरी सिर पर धरे सवेरा ☆ 

सूरज दादा की किरणों की

गठरी सिर पर धरे सवेरा।

धूप सुहानी तन को भाती

उसका स्वागत करे सवेरा।।

 

पंछी सारे बड़े मगन हैं

मीठे-मीठे गीत सुनाएँ।

कौवे काले पढ़ें ककहरा

काँव- काँव की धुन में गाएँ।।

 

ठंडी हवा शीत ऋतु मोहक

कुहरा छंटा धूप का सेहरा।।

 

मस्त कबूतर करें ठिठोली

मगन – मगन दाना चुग खाएँ।

तोते खाएँ सेव गुलाबी

नई – नई वे धुन में गाएँ।।

 

गुलदावदी है खिलकर झूमे

गेंदा का मनभावन डेरा।।

 

जागो प्यारे तुम भी जागो

जाड़े की ऋतु ठंडक लाई।

पालक, धनियाँ , गेंहूँ लहके

सँग मूँगफली गजक सुहाई।।

 

खाएँ – पीएँ रखें ध्यान हम

ईश्वर मन में भरें उजेरा।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१९॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१९॥ ☆

स्थित्वा तस्मिन वनचरवधूभुक्तकुञ्जे मुहूर्तं

तोयोत्सर्गद्रुततरगतिस तत्परं वर्त्म तीर्णः

रेवां द्रक्ष्यस्य उपलविषमे विन्ध्यपादे विशीर्णां

भक्तिच्चेदैर इव विरचितां भूतिम अङ्गे गजस्य॥१.१९॥

  

जहां के लता कुंज हों आदिवासी

वधू वृंद के रम्य क्रीड़ा भवन हैं

वहां दान पर्जन्य का दे वनो को

विगत भार हो आशु उड़ते पवन में

तनिक बढ़ विषम विन्ध्य प्रांचल प्रवाही

नदी नर्मदा कल कलिल गायिनी को

गजवपु उपरि गूढ़ गड़रों सरीखी

लखोगे वहां सहसधा वाहिनी को

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ गुंफण ☆ श्रीशैल चौगुले

श्रीशैल चौगुले

☆ कवितेचा उत्सव ☆ गुंफण ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

हृदय माझे-तुझे

हृदय याचे-त्याचे

भावनां प्रेम भाषा

हृदयात फक्त साचे.

 

ऋणानुबंध जडे

मनाचे अंतरीत

व्यक्त-अव्यक्त श्वास

हृदयी क्षण वेचे.

 

जन्म-जन्मांचे धागे

स्पंदनात गुंफण

मृत्यूही हृदयविधी

जीवसृष्टीत नाचे.

 

© श्रीशैल चौगुले

९६७३०१२०९०

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ जैसी करणी वैसी भरणी – भाग-1 ☆ सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी

सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी

 ☆ जीवनरंग ☆ जैसी करणी वैसी भरणी – भाग-1 ☆ सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी ☆ 

शिवाजी  मंदिर मधून नाटक बघून बाहेर पडलो. मूड छान होता. नेहमीप्रमाणे नाटकातील पात्रे मनांत, डोळ्यासमोर नाचत होती. सगळ्या जुन्या आठवणी ताज्या झाल्या. बालपणीच्या, काका, काकी आत्या बरोबर घालवलेले लाडाचे दिवस. आजोळचे सुट्टीतले दिवसआठवले. तेवढ्यात बबडी, बबडी हाक ऐकू आली.मला वाटलं हा पण भासच आहे.पण तो भास नव्हता. एक साधारण साठ, पासष्ट मधला माणूस आमच्या समोर उभा. अग बबडे,लहानपणीच माहेरचं लाडाचं नाव, मी आता विसरलेच होते.कारण आता मला भरपूर उपाध्या मिळाल्या होत्या. आई, काकी, मामी, अहो आई, आजी सुध्दा. ‘अग, बबडे तुला केव्हा पासून गाठण्याचा प्रयत्न करतोय. मध्यांतरात दिसलीस आणि नंतर नाहीशी झालीस.” माझ्याबरोबर माझा चिरंजीव होता. तो प्रश्नार्थक नजरेनं माझ्याकडे आणि त्या गृहस्थाकडे पहात राहिला. मी पण गोंधळले. “अग, मी मन्या”आता माझी ट्यूब पेटली. “अरे, किती बदललास तू? तूच येऊन भेटलास म्हणून. नाहीतर मी ओळखलचं नसतं. चौदा पंधरा वर्षापूर्वी भेटलेलो. तुझं रुप साफ पालटलं”

मन्या म्हणजे माझ्या दादाचा बालमित्र. गिरगांवात आमच्या शेजारीच रहायचा.  माझे बाबा आणि त्याचे वडील, अण्णा म्हणत असू आम्ही त्यांना. दोघे मित्र. माधुरी ताई आणि मन्यादादा ही त्यांना दोन मुलें.  मन्यादादाच्या लहानपणीच त्यांची आई वारल्याने अण्णाच त्यांची आई आणि वडील.अण्णाना दुसरे जगच नव्हते. ऑफिस आणि घरं. मुलांचेजेवण खाणं, अभ्यास. रविवारी त्यांना बाहेर फिरवणे. त्याच्या आजारपणांत रात्री, रात्री जागरणे करणं. मन्यादादा आणि दादा एकाच वर्गात. मन्यादादा अख्खा दिवस आमच्याकडेच असायचा. माझी आई पण त्याचे दादाच्या बरोबरीनेच करीत असे. माधुरीताईला लहान वयांतच मागणी आली. मुलगा आणि घरदारं चांगले माहितीतले असल्यामुळे एफ्. वाय् ला असतानाच अण्णांनी तिचे लग्न करुन दिले. पुण्याला तिचे सासर. आमच्याशी तिचा पत्र व्यवहार होता. तेव्हा आता सारखे फोन फारच कमी. mobile तर नव्हतेच. अण्णांची नोकरी फिरतीची  त्यांच्या बदल्या नाशिकला, नंतर साता-याला अशा होत राहिल्या. सगळे आपापल्या उदयोगधंद्यात. आमचे संबंध हळूहळू कमी झाले.

“अरे मन्यादादा, किती खराब झालास, न ओळखण्या इतपत. अण्णा कसे आहेत वहिनी कश्या आहेत. मुलं काय करतात?” तेवढ्यात चिरंजीव म्हणाले, “आई, सगळ्या  गोष्टी रस्त्यावरच बोलणार का? आपण कुठेतरी चहा घेऊ या म्हणजे मनसोक्त गप्पा मारता येतील. “आम्हालाही घरी जायची घाई नव्हती. रात्रीचे जेवण बाहेरचं घ्यायचे होतं. हे ट्रीपला गेले होते. सूनबाई चार दिवस माहेरी गेली होती. मग आम्ही तृप्ती मध्ये गेलो.

क्रमशः…

© सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी

फोन  नं. 8425933533

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ बोध कथा – वस्तूचे मूल्य ☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी

☆ जीवनरंग ☆ बोध कथा – वस्तूचे मूल्य ☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी ☆ 

||कथासरिता||

(मूळ –‘कथाशतकम्’  संस्कृत कथासंग्रह)

? लघु बोध कथा?

कथा १५ . वस्तूचे मूल्य

कृष्णानदीच्या तीरावर सावरीच्या झाडावर एक बगळा रहात होता. एकदा त्याने त्या मार्गाने जाणाऱ्या एका हंसाला पाहून त्याला बोलावले व विचारले की, “ तुझे शरीर माझ्या शरीराप्रमाणे शुभ्र रंगाचे आहे. फक्त पाय व चोच लाल रंगाची आहे. तुझ्यासारखा पक्षी मी आजपर्यंत पहिला नाही. तू कोण आहेस? कुठून आलास?”

हंस म्हणाला, “मी ब्रम्हदेवाचा हंस आहे. मी मानससरोवरात राहतो. तिथूनच आलो आहे.” बगळ्याने पुन्हा विचारले, “तिथे कोणत्या वस्तू आहेत? तुझा आहार कोणता?” हंस उत्तरला, “तिथे असलेल्या सगळ्या वस्तू देवांनी निर्मिलेल्या आहेत. त्यामुळे त्यांचे सौंदर्य वर्णन करणे शक्य नाही. तरी त्यापैकी काही मुख्य वस्तूंचे वर्णन करतो ते ऐक. तिथे सर्वत्र सुवर्णभूमी आहे. अमृतासारखे जल, सोनेरी कमळे, मोत्याची वाळवंटे, इच्छित वस्तू देणारा कल्पवृक्ष आणि अशा अनेक वैविध्यपूर्ण वस्तू आहेत. मी सुवर्णकमळांचे देठ खातो.”

ते ऐकून “तेथे गोगलगायी आहेत की नाहीत?” असे बगळ्याने वारंवार विचारले. “नाही” असे हंसाने प्रत्युत्तर दिल्यावर बगळा मोठ्याने हसला आणि त्याने “अरे हंसा, मानससरोवर म्हणजे सुंदर प्रदेश अशी तू खूप प्रशंसा केलीस. परंतु गोगलगायीशिवाय प्रदेशाचे काय सौंदर्य? तू अजाणतेने तिथल्या वस्तू श्रेष्ठ असे बडबडतो आहेस” असे म्हणून त्याची निंदा केली.

तात्पर्य – लोक स्वतःची इच्छित वस्तू कमी दर्जाची असली तरी मौल्यवान समजतात व स्वतःला न मिळणारी, उपयुक्त नसणारी वस्तू मौल्यवान असली तरी क्षुद्र समजतात.

अनुवाद – © अरुंधती अजित कुळकर्णी

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ संक्रांत सण हा मोठा (भाग -1) ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ विविधा ☆ संक्रांत सण हा मोठा (भाग -1) ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ 

मला सगळेच सण आवडतात. केवळ हिंदू धर्मातलेच नव्हेत, तरणी धर्मातीलही. एकसूरी जीवनात सण वैविध्य घेऊन येतात. आनंद लहरी निर्माण करतात. जगण्यात एक प्रकारचं चैतन्य निर्माण करतात. नवा विचार देतात. नवा जोश निर्माण करतात. आता कुठला सण मला जास्त आवडतो, हे सांगणं मात्र अवघड आहे. कारण प्रत्येक सणाचा स्वत:च असा एक रुपडं आहे. एक व्यक्तिमत्व आहे.  प्रत्येकाचं रूप वेगळा. रंग वेगळा, गंध वेगळा आहे.  वैशिष्ट्यपूर्ण आहे. तरीही लहानपणी ‘तुमचा आवडता सण’ या विषयावर निबंध लिहायला सांगितला की मी हमखास संक्रांतीवर लिहायची. का सांगू?

संक्रांत सण हा मोठा । नाही तीळ-गुळा तोटा ।

लहानपणी तीळ-गुळ देण्या-घेण्याची, विशेषत: घेण्याची फार हौस. संध्याकाळी घरातून एक लहानसा अर्धा डबा हलवा घ्यायचा. ( तो बहुदा घरी केलेला असे. ) त्यात चार तीळ-गुळाच्या वड्या टाकायच्या. (खास मित्र-मैत्रिणींना देण्यासाठी.) हे घेऊन बाहेर पडायचं. ‘तीळ-गुळ घ्या. गोड बोला’ असं जवळ जवळ ओरडत, दुसर्‍याच्या हातावर चार दाणे टेकावायचे आणि त्यांच्याकडून चाळीस नाही तरी चोवीस, निदनचे चौदा दाणे हातात येताहेत ना, हे बघायचं. वडी मिळाली तर ती लगेच तोंडात आणि पाठोपाठ पोटात. तीळ-गुळ खात खात घरी आलं, तरी जाताना अर्धा नेलेला डबा येताना तुडुंब भरलेला असे.

वाढत्या वयाबरोबर हा हावरटपणा  कमी झाला, तरी हलवा आणि तिळाची वडी रसनेला देत असलेली खुमारी अजूनही काही कमी झाली नाही.

लहानपणी पाहिलेली गोष्ट म्हणजे सुवासिनी आस-पासच्या घरातून, शेजारणी- मैत्रिणींना मातीची सुगडं नेऊन देत. त्यात उसाचे कर्वे, हरभर्‍याचे घाटे, भुईमुगाच्या शेंगा, पावट्याच्या शेंगा, बोरं, तीळगूळ घातलेला असे. ही प्रथा कृषिसंस्कृतीतून आलेली. आपल्या शेतात, मळ्यात जे पिकतं, त्याचं स्वागत करणारी ही प्रथा. नुसतं स्वागतच नव्हे, तर त्याचा वानवळा शेजारी-पाजारी देऊन त्यांच्यासहित या नव्या पिकामुळे झालेला आनंद साजरा करायचा. पुढे प्रथेमागचा विचार लोप पावला. परंपरा मात्र मागे उरली. मराठीत एक म्हण आहे. ‘चापं गेली आणि भोकं मागे उरली.’ चापं म्हणजे कानात घालायचा दागिना. तो घालण्यासाठी कानाला छिद्र म्हणजे भोकं पाडावी लागतात. तसं कालौघात शेती- मळेच राहिले नाहीत. मग त्यातलं धान्य, भाज्या, शेंगा वगैरे कुठल्या? मग या गोष्टी विकत आणायच्या पण सुगडं वाटायचीच.

खरं तर मूळ शब्द सुघट  म्हणजे चांगला घट असा असणार. शब्द वापरता वापरता, उच्चार सुलभीकरणातून तो सुगड झाला असावा.

तीळगूळ, दसर्‍याला सोने यांची देवाण-घेवाण स्त्रिया-पुरुष सगळेच करतात. पण सुगडं वाटतात. सुवासिनीच. कधी कधी घरातल्या मुलीसुद्धा शेजारी-पाजारी सुगडं देऊन यतात. याला थोडे सामाजिक परिमाणही आहे.  पूर्वीच्या काळात, स्त्रीचं जगणं बरचसं उंबर्‍याच्या आतलं असायचं. सुगडं वाटाण्याच्या निमित्ताने त्यांना घराबाहेर पडायची संधी मिळायची. थोडा बाहेरचा वारा लागायचा. बरोबरीच्या सख्या, मैत्रिणी-गडणींशी गप्पा-टप्पा व्हायच्या. विचारांची, भावनांची देवाण-घेवाण व्हायची. मन मोकळं करायचं आणि पुन्हा घाण्याला जुंपायचं.

सुगड म्हणजे चांगला घट. तो मातीचा घ्यायचा. धातूचा नाही. मातीच्या घटालाच सुगड म्हणतात. धातूच्या घटाला कलश म्हणतात. मातीचा घट हे भूमातेचे प्रतीक आहे. ती धान्य , भाजीपाला, फळे पिकवते. भूमीचे प्रतीक असलेल्या घटात, तिने पिकवलेल्या गोष्टी घालून सुगडं एकमेकींना द्यायची. तिच्या सृजनाचा गौरव करायचा आणि तोही कुणी? तर  सृजनशील असलेल्या स्त्रीने.

भोगीच्या दिवशी, म्हणजे संक्रांतीच्या आदल्या दिवशी, घरोघरी मुगाच्या डाळीची खिचडी, बाजरीची तीळ लावून केलेली भाकरी, गाजर, पावटा, वांगी अशा त्या काळात येणार्‍या भाज्यांची चविष्ट, मसालेदार रसदार मिसळ भाजीचा बेत असतो. भाजी-भाकरीबरोबर दही, लोणी, खिचडीवर ताज्या काढवलेल्या साजूक तुपाची धार…. वाचता वाचता सुटलं ना तोंडाला पाणी?

संक्रांतीच्या दिवशी कुठे गुळाची पोळी, तर कुठे पुरणाची. हरभर्‍याची डाळ-गूळ घरात नुकताच आलेला. ताजा ताजा. मग त्याची पोळी। गुळाची किवा पुरणाची. त्यावर तुपाची धार किंवा अगदी वाटीतूनसुद्धा तूप. त्याचा घास म्हणजे अमृततूल्यच ना! अमृत कसं लागतं, हे कुठे कुणाला माहीत आहे? कदाचित देवच सांगू शकतील कारण त्यावर त्यांची मक्तेदारी. अमृत काय किंवा देव काय, कविकल्पनाच फक्त. गुळाची किवा पुरणाची पोळी ही स्वसंवेद्य. स्वत: अनुभव घ्यायचा आणि तृप्त व्हायचं.

क्रमशः …

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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