हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ व्यंग्य संग्रह – ‘लाकडाउन’’ – संपादक : श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ चर्चाकार – डा. साधना खरे

 ☆  व्यंग्य संग्रह – ‘लाकडाउन’’ – संपादक – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  चर्चाकार – डा. साधना खरे ☆ 

व्यंग्य संग्रह  – लाकडाउन

संपादन.. विवेक रंजन श्रीवास्तव  

पृष्ठ – १६४

मूल्य – ३५० रु

IASBN 9788194727217

प्रकाशक – रवीना प्रकाशन’ गंगा विहार’ दिल्ली

हिन्दी साहित्य में व्यंग्य की स्वीकार्यता लगातार बढ़ी है. पाठको को व्यंग्य में कही गई बातें पसंद आ रही हैं.   व्यंग्य लेखन घटनाओ पर त्वरित प्रतिक्रिया व आक्रोश की अभिव्यक्ति का सशक्त मअध्यम बना है. जहां कहीं विडम्बना परिलक्षित होती है’ वहां व्यंग्य का प्रस्फुटन स्वाभाविक है. ये और बात है कि तब व्यंग्य बड़ा असमर्थ नजर आता है जब उस विसंगति के संपोषक जिस पर व्यंग्यकार प्रहार करता है’ व्यंग्य से परिष्कार करने की अपेक्षा’ उसकी उपेक्षा करते हुये’ व्यंग्य को परिहास में उड़ा देते हैं. ऐसी स्थितियों में सतही व्यंग्यकार भी व्यंग्य को छपास का एक माध्यम मात्र समझकर रचना करते दिखते हैं.

विवेक रंजन श्रीवास्तव देश के एक सशक्त व्यंग्यकार के रूप में स्थापित हैं. उनकी कई किताबें छप चुकी हैं. उन्होने कुछ व्यंग्य संकलनो का संपादन भी किया है. उनकी पकड़ व संबंध वैश्विक हैं. दृष्टि गंभीर है. विषयो की उनकी सीमायें व्यापक है.

वर्ष २०२० के पहले त्रैमास में ही सदी में होने वाली महामारी कोरोना का आतंक दुनिया पर हावी होता चला गया. दुनिया घरो में लाकडाउन हो गई. इस पीढ़ी के लिये यह न भूतो न भविष्यति वाली विचित्र स्थिति थी. वैश्विक संपर्क के लिये इंटरनेट बड़ा सहारा बना. ऐसे समय में भी रचनात्मकता नही रुक सकती थी. कोरोना काल निश्चित ही साहित्य के एक मुखर रचनाकाल के रूप में जाना जायेगा. इस कालावधि में खूब लेखन हुआ. इंटरनेट के माध्यम से फेसबुक’ गूगल मीट’ जूम जैसे संसाधनो के प्रयोग करते हुये ढ़ेर सारे आयोजन हो रहे हैं. यू ट्यूब इन सबसे भरा हुआ है.  विवेक जी ने भी रवीना प्रकाशन के माध्यम से कोरोना तथा लाकडाउन विषयक विसंगतियो पर केंद्रित व्यंग्य तथा काव्य रचनाओ का अद्भुत संग्रह लाकडाउन शीर्षक से प्रस्तुत किया है. पुस्तक आकर्षक है. संकलन में वरिष्ठ’ स्थापित युवा सभी तरह के देश विदेश के रचनाकार शामिल किये गये हैं.

गंभीर वैचारिक संपादकीय के साथ ही रमेशबाबू की बैंकाक यात्रा और कोरोना तथा महादानी गुप्तदानी ये दो महत्वपूर्ण व्यंग्य लेख स्वयं विवेक रंजन श्रीवास्तव के हैं’ जिनमें कोरोना जनित विसंगति जिसमें परिवार से छिपा कर की गई बैंकाक यात्रा तथा शराब के माध्यम से सरकारी राजस्व पर गहरे कटाक्ष लेखक ने किये हैं’ गुदगुदाते हुये सोचने पर विवश कर दिया है.

जिन्होने भी कोरोना के आरंभिक दिनो में तबलीकी जमात की कोरोना के प्रति गैर गंभीर प्रवृत्ति और टीवी चैनल्स की स्वयं निर्णय देती रिपोर्टिग देखी है उन्हें जहीर ललितपुरी का व्यंग्य लाकडाउन में बदहजमी पढ़कर मजा आ जायेगा. डा अमरसिंह का लेख लाकडाउन में नाकडाउन में हास्य है, उन्होने पत्नी के कड़क कोरोना अनुशासन पर कटाक्ष किया है. लाकडाउन के समाज पर प्रभाव भावना सिंह ने मजबूर मजदूर’ रोजगार’ प्रकृति सारे बिन्दुओ का समावेश करते हुये  पूरा समाजशास्त्रीय अध्ययन कर डाला है.

कुछ जिन अति वरिष्ठ व्यंग्य कारो से संग्रह स्थाई महत्व का बन गया है उनमें इस संग्रह की सबसे बड़ी उपलब्धि ब्रजेश कानूनगो जी का व्यंग्य ” मंगल भवन अमंगल हारी ” है. उन्होंने संवाद शैली में गहरे कटाक्ष करते हुये लिखा है ” उन्हें अब बहुत पश्चाताप भी हो रहा था कि शास्त्रा गृह को समृद्ध करने के बजाय वे औषधि विज्ञान और चिकित्सालयों के विकास पर ध्यान क्यो नही दे पाये “. केनेडा से धर्मपाल महेंद्र जैन की व्यंग्य रचना वाह वाह समाज के तबलीगियों से पठनीय वैचारिक व्यंग्य रचना है. उनकी दूसरी रचना लाकडाउन में दरबार में उन्होंने धृतराष्ट्र के दरबार पर कोरोना जनित परिस्थितियों को आरोपित कर व्यंग्य उत्पन्न किया है. इसी तरह प्रभात गोस्वामी देश के विख्यात व्यंग्यकारो में से एक हैं’ कोरोना पाजिटिव होने ने पाजिटिव शब्द को निगेटिव कर दिया है’उनका व्यंग्य नेगेटिव बाबू का पाजिटिव होना बड़े गहरे अर्थ लिये हुये है’वे लिखते हैं  हम राम कहें तो वे मरा कहते हैं.  सुरेंद्र पवार परिपक्व संपादक व रचनाकार हैं’ उन्होंने अपने व्यंग्य के नायक बतोले के माध्यम से ” भैया की बातें में”  घर से इंटरनेट तक की स्थितियों का रोचक वर्णन कर पठनीय व्यंग्य प्रस्तुत किया है. डा प्रदीप उपाध्याय वरिष्ठ बहु प्रकाशित व्यंग्यकार हैं’ उनके दो व्यंग्य संकलन में शामिल हैं’ “कोरोनासुर का आतंक और भगवान से साक्षात्कार” तथा “एक दृष्टि उत्तर कोरोना काल पर”. दोनो ही व्यंग्य उनके आत्मसात अनुभव बयान करते बहुत रोचक हैं.  कोरोना काल में थू थू करने की परंपरा के माध्यम से युवा व्यंग्यकार अनिल अयान ने बड़े गंभीर कटाक्ष किये हैं’ थू थू करने का उनका शाब्दिक उपयोग समर्थ व्यंग्य है. अजीत श्रीवास्तव बेहद परिपक्व व्यंग्यकार हैं’ उनकी रचना ही  शायद संग्रह का सबसे बड़ा लेख है  जिसमें छोटी छोटी २५ स्वतंत्र कथायें कोरोना काल की घटनाओ पर उनके सूक्ष्म निरीक्षण से उपजी हुई’ पठनीय रचनायें हैं. राकेश सोहम व्यंग्य के क्षेत्र में जाना पहचाना चर्चित नाम है’ उनका छोटा सा लेख बंशी बजाने का हुनर बहुत कुछ कह जाताने में सफल रहा है. रणविजय राव ने कोरोना के हाल से बेहाल रामखेलावन में बहुत गहरी चोट की है’ उन जैसे परिपक्व व्यंग्यकार से ऐसी ही गंभीर रचना की अपेक्षा पाठक करते हैं.

महिला रचनाकारो की भागीदारी भी उल्लेखनीय है. सबसे उल्लेखनीय नाम अलका सिगतिया का है. लाकडाउन के बाद जब शराब की दूकानो पर से प्रतिबंध हटा तो जो हालात हुये उससे उपजी विसंगती उनकी लेखनी का रोचक विषय बनी ” तलब लगी जमात ” उनका पठनीय व्यंग्य है.  अनुराधा सिंह ने दो छोटे सार्थक व्यंग्य सांप ने दी कोरोना को चुनौती और वर्क फ्राम होम ऐसा भी लिखा है. छाया सक्सेना प्रभु समर्थ व्यंग्यकार हैं उन्होने अपने व्यंग्य जागते रहो में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये हैं वे लिखती हैं लाकडाउन में पति घरेलू प्राणी बन गये हैं’ कभी बच्चो को मोबाईल से दूर हटाते माता पिता ही उन्हें इंटरनेट से पढ़ने  प्रेरित कर रहे हैं’ कोरोना सब उल्टा पुल्टा कर रहा है. शेल्टर होम में डा सरला सिंह स्निग्धा की लेखनी करुणा उपजाती है .सुशीला जोशी विद्योत्तमा की दो लघु रचनायें लाकडाउन व व्यसन संवेदना उत्पन्न करती हैं. राखी सरोज के लेख गंभीर हैं.

गौतम जैन ने अपनी रचना दोस्त कौन दुश्मन कौन में संवेदना को उकेरा है. डा देवेश पाण्डेय ने लोक भाषा का उपयोग करते हुये पनाहगार लिखा है. डा पवित्र कुमार शर्मा ने एक शराबी का लाकडाउन में शराबियो की समस्या को रेखांकित किया है. कोरोना से पीड़ित हम थे ही और उन्ही दिनो में देश में भूकम्प के जटके भी आये थे’ मनीष शुक्ल ने इसे ही अपनी लेखनी का विषय बनाया है.डा अलखदेव प्रसाद ने स्वागतम कोरोना लिखकर उलटबांसी की हे. राजीव शर्मा ने कोरोना काल में मनोरंजक मीडीया लिखकर मीडीया के हास्यास्पद’ उत्तेजना भरे ‘त्वरित के चक्कर में असंपादित रिपोर्टर्स की खबर ली है. व्यग्र पाण्डे ने मछीकी और मास्क में प्रकृति पर लाकडाउन के प्रभाव पर मानवीय प्रदूषण को लेकर कटाक्ष किया है. एम मुबीन ने कम शब्दो की रचना में बड़ी बातें कह दी हैं. दीपक क्रांति की दो रचनायें संग्रह का हिस्सा हैं ’नया रावण तथा मजबूर या मजदूर’ कोरोना काल के आरंभिक दिनो की विभीषिका का स्मरण इन्हें पढ़कर हो आता है. महामारी शीर्षक से धर्मेंद्र कुमार का आलेख पठनीय है.

दीपक दीक्षित’ बिपिन कुमार चौधरी’ शिवमंगल सिंह’ प्रो सुशील राकेश’ उज्जवल मिश्रा और राहुल तिवारी की कवितायें भी हैं.

कुल मिलाकर  पुस्तक बहुत अच्छी बन पड़ी है ’यद्यपि प्रकाशन में सावधानी की जरूरत दिखती है’ कई रचनाओ के शीर्षक गलती से हाईलाईट नही हो पाये हैं’ रचनाओ के अंत में रचनाकारो के पते देने में असमानता खटकती है.कीमत भी मान्य परमंपरा जितने पृष्ठ उतने रुपये के फार्मूले पर किंचित अधिक लगती है’  पर फिर भी लाकडाउन में प्रकाशित साहित्य की जब भी शोध विवेचना होगी इस संकलन की उपेक्षा नही की जा सकेगी यह तय है. जिसके लिये संपादक श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव व प्रकाशक बधाई के पात्र हैं.

 

चर्चाकार.. डा साधना खरे’

भोपाल

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 73 – कविता –2021 का करें अभिनंदन …. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत नववर्ष के शुभागमन पर आपकी एक अतिसुन्दर कृति “2021 का करें अभिनंदन….। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 73 ☆

? 2021 का करें अभिनंदन …. ?

खोया हमने बहुत अपनों को

गम भी है उनका हमको

भाग्य लिखा टल न सका

दिए सांत्वना हैं सबको

 

मिलकर नमन करते हैं सब

गुरु गंगा गीता गौ गायत्री को

जिनके संस्कारों टिका हुआ

दुनिया में ऊंचा भारत को

 

ठिठुरन भरी ठंडक में भी

मनाते हैं संक्रांत यहां

गुड़ तिल जैसे मिले रहे

ऐसा मिलता प्यार कहां

 

मिला संस्कार बड़ों से यहां

नित्य पूजन की बजती घंटी

2020 के कोरोना में भी

काम आई हमारी तुलसी बट्टी

 

याद करें सुन्दर लम्हों को

सुखद बनाएं जो जीवन

भूलकर 2020 का गम

2021 का करें अभिनंदन

 

अलौकिक सुंदर जीवन

शुभ कर्मो से पाया हैं

नूतन वर्ष मंगलमय हो

हम सब ने आस लगाया हैं

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दिसंबर 2020 ☆ सुश्री सरिता त्रिपाठी

सुश्री सरिता त्रिपाठी

(युवा साहित्यकार सुश्री सरिता त्रिपाठी जी CSIR-CDRI  में एक शोधार्थी के रूप में कार्यरत हैं। विज्ञान में अब तक 23 शोधपत्र अंतरराष्ट्रीय जर्नल में सहलेखक के रूप में प्रकाशित हुए हैं। वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्षेत्र में कार्यरत होने के बावजूद आपकी हिंदी साहित्य में विशेष रूचि है । आज प्रस्तुत है  नववर्ष के शुभागमन पर आपकी  अतिसुन्दर कविता “दिसंबर। )

☆ दिसंबर 2020 ☆  

बूढ़ा हो चला दिसम्बर,

बीतने वाला दो हजार बीस,

जवानी छायी सदी तुझको,

आने वाला दो हजार इक्कीस।

 

खुशियाँ भर-भर लाये इक्कीस,

दिलों में छाये सबके इक्कीस,

दूर हो जाये कोरोना सभी से,

भूल जाये अब दो हजार बीस।

 

दौर इक्कीसवीं सदी का,

दिखलाये नये-नये व्यवधान,

लाने वाला क्या है बाकी,

नहीं जाने कोई इन्सान।

 

है इंतजार तेरा जनवरी,

बेसब्री से सभी को,

कितनी जल्दी बीत जाये,

ये दिसम्बर माह अंतिम।

 

© सरिता त्रिपाठी

जानकीपुरम,  लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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सूचनाएँ/Information ☆ पत्रकार नहीं, स्टार पत्रकार बनने या फिर उद्यमी पत्रकार बनने का अनूठा अनुभव ☆ – प्रस्तुति श्री विजय कुमार

सूचनाएँ/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

☆ पत्रकार नहीं, स्टार पत्रकार बनने या फिर उद्यमी पत्रकार बनने का अनूठा अनुभव ☆

पत्राचार द्वारा कहानी, लेख और पत्रकारिता के कोर्स कराने वाले भारतवर्ष के सर्वाधिक प्रतिष्ठित संस्थान “कहानी लेखन महाविद्यालय” द्वारा आयोजित ऑनलाइन पत्रकारिता वर्कशॉप में शामिल होकर प्रतिभागियों ने स्टार पत्रकार अथवा उद्यमी पत्रकार बनने का सपना पूरा करने के गुर सीखे।

यह अनूठी कार्यशाला 25, 26 और 27 दिसंबर को तीनों दिन, तीन-तीन घंटे सवेरे 10 बजे से दोपहर 1 बजे तक चली जिसमें प्रतिभागियों को पत्रकारिता से संबंधित सारी जानकारियां तो दी ही गईं, इसके अलावा अक्सर होने वाली गलतियों से बचने के तरीके, पत्रकार के रूप में सफल होने के कुछ अनजाने गुर, कुशल पत्रकार बन पाने के लिए साधनों एवं स्रोतों का खुलासा तथा वैधानिक एवं नैतिक ढंग से आय के वैकल्पिक स्रोतों की जानकारी भी दी गई। यही नहीं, कोरोना के इस दौर में भारतवर्ष में पहली बार पत्रकारिता के ज्ञान से * सफल उद्यमी बनने के तरीकों* का भी खुलासा किया गया।

अपने चुटीले अंदाज़ के साथ नामचीन लेखक, स्तंभकार, मोटिवेशनल स्पीकर और हैपीनेस गुरू श्री पी. के. खुराना, जो मीडिया उद्योग की सर्वाधिक प्रतिष्ठित वेबसाइट के प्रथम संपादक थे, ने इस कार्यशाला का सफल संचालन किया। श्री खुराना दैनिक भास्कर, पंजाब केसरी सहित कई मीडिया घरानों व भिन्न-भिन्न प्रेस क्लबों के लिए ऐसी वर्कशॉप आयोजित करते रहे हैं। उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि कार्यशाला एक आनंददायक अनुभव हो तथा उसमें व्यावहारिक गतिविधियां शामिल हों ताकि कार्यशाला के अंतिम दिन सभी प्रतिभागी अपने क्षेत्र में कार्य के लिए तैयार हो सकें।

कहानी लेखन महाविद्यालय की संचालिका श्रीमती उर्मि कृष्ण आशीर्वचन से कार्यशाला की शुरुआत और समापन संपन्न हुए। महाविद्यालय के व्यवस्थापक एवं शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार का प्रबंधन हमेशा की तरह प्रशंसनीय रहा।

सभी प्रतिभागियों ने ह्वाट्सऐप के माध्यम से जीवन भर जुड़कर पारस्परिक सहयोग की नई शुरुआत भी की।

प्रस्तुति – श्री विजय कुमार, सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

ई मेल- urmi.klm@gmail.com

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१४॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१४॥ ☆

 

प्रत्यासन्ने नभसि दयिताजीवितालम्बनार्थी

जीमूतेन स्वकुशलमयीं हारयिष्यन प्रवृत्तिम

स प्रत्यग्रैः कुटजकुसुमैः कल्पितार्घाय तस्मै

प्रीतः प्रीतिप्रमुखवचनं स्वागतं व्याजहार॥१.४॥

पर धैर्य धारे शुभेच्छुक प्रिया का

कुशल वार्ता भेजने मेघ द्वारा

गिरि मल्लिका के नये पुष्प से पूजकर,

मेघ प्रति बोल, सस्मित निहारा

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 78 ☆ पाचोळा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 78 ☆ पाचोळा ☆

मी मृत्यूच्या काठावरती बसून आहे

मृत्यू पुरता माझ्यावरती रुसून आहे

 

काठावरती ऐकू येते खळखळ त्याची

याच मृत्युने केली आहे माझी गोची

कळते त्याला मी तर गेलो खचून आहे

 

झाडावरती सडून जाणे नको नशिबी

दाणे भरले छाटा आता लवकर ओंबी

पडूदेत रे फळ जे गेले पिकून आहे

 

फळा फुलांना हिरवी पाने कवेत घेती

पानगळीचा ऋतू कसा हा खुडतो नाती

डोळ्यांमधले गेले पाणी सुकून आहे

 

आठवणींचा पाडा होता माझ्या सोबत

त्याच त्याच त्या जुनाट गप्पा असतो मारत

भूतकाळ तो रोज काढतो पिसून आहे

 

आत्मा गेला देहाचे ह्या हलके ओझे

तरी वाटते छानच आहे नशीब माझे

पाचोळा मी  तरी मातिला धरून आहे

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

ashokbhambure123@gmail.com

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ लपंडाव ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

☆ कवितेचा उत्सव ☆ लपंडाव ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

अशीच एक सायंकाळ

विरहाने व्यापलेली

दुःखाने ओथंबलेली

अस्वस्थतेच्या गाभार्यात

खोलवर दडलेली

 

अशीही एक सायंकाळ

हास्याने फुललेली

आनंदाने बहरलेली

उत्फुल्लतेच्या जाणिवेत

उत्साहाने ओसंडलेली

 

ही संध्या-ती संध्या

कोण ही?कुठली ती?

नव्हे ,हा तर खेळ असे

लपाछपीचा-सुखदुःखांच्या पाठशिवणीचा.

 

© सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

कोल्हापूर

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अजि म्या भूत पाहिले…. भाग-2 ☆ सौ ज्योती विलास जोशी

सौ ज्योती विलास जोशी

☆ जीवनरंग ☆ अजि म्या भूत पाहिले…. भाग-2 ☆ सौ ज्योती विलास जोशी

(करोनाचं हे दुसरं भूत….)

‘मनी वसे ते स्वप्नी दिसे’ असे म्हणतात ना, अगदी तसेच झाले. मी एका दगडावर बसून ‘अजि म्या ब्रह्म पाहिले’ हे गाणे गुणगुणत होतो तितक्यात माझ्या मानेवर एक भूत येऊन बसलं.

पाटणकरने आमचे मनोरंजन विक्रम आणि वेताळ यांच्या सुरस आणि चमत्कारिक कथेचा आधार घेऊन करायला सुरुवात केली.

“भुताने मला विचारले, कोणते गाणे म्हणत होतास? माझी अगोदरच भीतीने गाळण उडाली होती आणि त्यातच त्याने मला हा प्रश्न विचारला मी थरथर कापायला लागलो. त्याची माझ्या मानेवरील पकड आणखीनच घट्ट व्हायला लागली.

गाणं ना? ते, हे, आपलं, मी त, त, प, प करू लागलोआणि गडबडीने उत्तर दिले ‘अजि म्या भूत पाहिले’ झालं! त्यानं मला शब्दातच पकडलं!

तुझं भूत, इथंभूत सांग, नाहीतर तुझ्या शरीराची शंभर शकलं होऊन तुझ्याच पायात लोळण घेतील. भुताने मला दम दिला.”

“भूत तुलाच तुझा भूतकाळ विचारत होतं?”पेंडसेने पाटण्याला विचारले. “होय! पण मी घाबरून गाणेही विसरलो आणि भूतकाळही!”

“मग काय झालं?” आम्ही सरसावून बसलो.

पाटण्याची कल्पनाशक्ती, सांगण्याची लकब, प्रसंग हुबेहूब मांडण्याची धाटणी इतकी अप्रतिम आहे की त्याच्या वक्तव्यातील निम्मे खरे-निम्मे खोटे असे गृहीत धरले असले तरी पठ्ठ्य प्रसंग असा उभा करतो की ‘एैसा भी होता है?’ असा प्रश्न मनात आल्याशिवाय राहत नाही.

एव्हाना पाटण्याने त्याच्या स्वप्ननगरीत आम्हाला बरोबर खेचलं होतं अन् तो बोलू लागला.“माझ्या मानेवरची त्याची पकड आणखीनच घट्ट करीत ते माझ्याशी बोलू लागले,

भूतकाळ बदलता येत नाही पण तो आठवता येतो. म्हणून तर भूतकाळ या शब्दात भूत म्हणजे मी आहे. ते म्हणालं.”

पाटण्या अशी संकटाची वेळ कशी मारून नेतो ही उत्सुकता आम्हाला लागून राहिली होती. तल्लीन होऊन आम्हीऐकू लागलो…..

त्याच्या बोलण्याच्या दिशेने कान टवकारले. पाटणकरने आपल्या स्वप्ननगरी चे दार उघडले.

क्रमशः….

© सौ ज्योती विलास जोशी

इचलकरंजी

मो 9822553857

jvilasjoshi@yahoo.co.in

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ कवतिक ☆ श्री विनय माधव गोखले

 ☆  विविधा ☆ कवतिक ☆ श्री विनय माधव गोखले ☆ 

“स्तुति: कस्य न प्रिय:?” असे कुणीतरी थोर व्यक्तीने म्हणून ठेवले आहे. किती सार्थ आहे हे! आपण एखादे प्रशंसनीय, अभिमानास्पद काम करावे आणि त्याची दखल आपल्या आजूबाजूच्या कुणी तरी घ्यावी ह्याइतकी सुखद दुसरी जाणीव कोणतीच नसावी, नाही का? त्यातही कवतिकाचे बोल ऐकवणारी व्यक्ती जर आपल्या जवळची, प्रियजनांपैकी असेल तर काय मग “सोने पे सुहागा!”?

दुसर्‍या कोणीतरी आपले कवतिक करावे, स्तुती करावी, प्रशंसा करावी ही प्रत्येक मानवाची सुप्त आंतरिक इच्छा असतेच. उदा. प्रेक्षकांनी आपल्या अभिनयाची प्रशंसा करावी ही अभिनेत्यांची, श्रोत्यांनी-परीक्षकांनी तोंडभरून दाद द्यावी ही गायकाची, गुरुजींनी शाबासकी द्यावी अशी विद्यार्थ्याची, मालकाने ‘अर्थ’पूर्ण कवतिक करावे, ही नोकरदाराची इच्छा असते वगैरे वगैरे. अगदी अलीकडच्या काळातील उदाहरण द्यायचे झाल्यास, एखादा चांगला Whatsapp मेसेज/फोटो/व्हिडिओ पाठवला तर ग्रुपमधील इतरांनी त्याची ‘निदान दखल तरी घ्यावी’ अशी पाठवणार्‍याची अपेक्षा असते. पण ही मूलभूत अपेक्षा जर कुठल्या कारणाने पूर्ण नाही झाली तर आपला अपेक्षाभंग होणार हे निश्चित! आणि अपेक्षाभंगचे दु:ख हे मोठे असते. म्हणूनच “कुठल्याही फळाची अपेक्षा न धरता कार्य करीत रहा!” हा महत्वाचा संदेश भगवदगीतेमध्ये श्रीकृष्णाने दिलेला आहे. म्हणजेच ‘चांगल्या कामगिरीबद्दल दुसर्‍याचे मनापासून व निरपेक्षपणे कवतिक करणे’ हे देखील आपले कर्तव्यच बनते, नाही का?

कवतिकाचे महत्व फार मोठे आहे. कवतिक हे एखाद्या दुधारी तलवारीप्रमाणे काम करते. ‘निखळ प्रशंसा’ ही एखाद्याच्या शिडात वारा भरून त्या व्यक्तीस चांगले काम करीत राहण्यास सतत उद्युक्त करते. उभारी देणारा एखादा शब्दही माणसाचे आयुष्य बदलण्यास पुरेसा ठरतो! अशी उदाहरणे जगाच्या इतिहासात आपण पहिली आहेत. इतकीच नव्हे तर आपल्या गणगोतांमध्येही आढळतात. दुसर्‍याची स्तुती ही तुम्हाला कधीच कनिष्ठपणा देत नसते. दुसर्‍याला प्रोत्साहित करणार्‍या व्यक्ती इतरांशी खेळीमेळीचे नाते लगेच प्रस्थापित करू शकतात. ह्याउलट तटस्थ राहणार्‍या व्यक्तींबद्दल इतरांचे मत तितकेसे अनुकूल बनत नाही.

अर्थात, काही पथ्य पाळणे मात्र महत्वाचे आहे… प्रशंसा ही अगदी मनापासून वाटत असेल तरच आणि आणि दुसरे महत्वाचे म्हणजे योग्य प्रमाणातच करा! कारण ‘अती तिथे माती’ हा नियम इथेही लागू आहे. शिवाय अवाजवी, अवास्तव, निराधार, विनाकारण केलेलं कवतिक हे ‘चापलुसगिरी’च्या / ‘गूळ लावणे‘ च्या हद्दीत मोडते. तुमच्या शब्दांत जरादेखील खोटेपणा असेल, आपमतलबीपणा असेल, तर तुमचे पितळ आज न उद्या उघडे पडल्यावाचून राहणार नाही. इतकेच नव्हे, तर त्या व्यक्तीला तुमच्या हेतूबद्दल शंका येऊन तुमच्याशी असलेले संबंध कायमचे बिघडूही शकतात.

अजून एक गोष्ट लक्षात ठेवा की दुसर्‍यांच्या कवतिका सोबतच स्वत:चे रास्त कवतिक करणेही तितकेच महत्वाचे आहे. पुष्कळांना ‘स्वकवतिक’ / ‘स्वप्रशंसा’ करणे मुळातच पसंत नसते, एकदम दुसरे टोक, अगदी प्रसिद्धीपरायणच म्हणा ना! अशा व्यक्ती दुसर्‍याने केलेले त्यांचे कवतिक स्वीकारू शकत नाहीत. त्यात कमीपणा वाटतो म्हणा, आत्मविश्वास कमी पडतो म्हणा किंवा भिडस्त स्वभाव नडतो म्हणा. पण ही माणसे दुसर्‍याचे रास्त कवतिक करण्यातही मागे पडण्याचा धोका असतो. सरळ आहे, जी व्यक्ती स्वत:च्या पाठीवर सुध्दा “शाब्बास!” म्हणून थाप मारू शकत नाही, ती दुसर्‍याला काय थाप मारणार (म्हणजे चांगल्या अर्थाने बरं का…J)??

पुष्कळ जण असेही असतात की ज्यांना स्वत:च्या छोट्यामोठ्या सर्वच गोष्टीचा ढिंढोरा पिटण्याची सवय असते. “मी यंव आहे, मी त्यंव आहे, मी हे केले, मी ते केले” हे सांगण्यातच अशा “अहं, आवाम, वयं” वर्तुळात फिरणार्‍या व्यक्तींचे आयुष्य अकारण वाया जात असते. खरे म्हणजे ‘स्वत: बद्दल बढाया मारणे’ हे श्रेष्ठ गुरू समर्थ रामदासस्वामींनी ‘मूर्ख लक्षण’ म्हणून ‘दासबोधा’त अधोरेखीत केले आहे. परिणामत: अशा व्यक्ती समाजात अप्रिय ठरतात ह्यात नवल ते काय? अर्थातच ‘कवतिका’ बद्दल समर्थांनी कवतिकानेच लिहिले आहे.

थोडक्यात म्हणजे काय, तर ‘कवतिक’ हा विषय हलकाफुलका समजू नका, औप्शनला तर मुळीच टाकू नका. भरपूर अभ्यास करा, प्रॅक्टिकलचा सराव करा आणि त्यात कुठेही कमी पडू नका. चांगले गुण मिळवून पास व्हा, म्हणजे सर्व जण तुमचे ‘कवतिक’ केल्यावाचून राहणार नाहीत! ??

© श्री विनय माधव गोखले

भ्रमणध्वनी – 09890028667

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून☆ मावळण ☆ सौ. अमृता देशपांडे

सौ. अमृता देशपांडे

☆ मनमंजुषेतून ☆ मावळण ☆ सौ. अमृता देशपांडे ☆ 

1953-54 ची ऐकिवात आठवण.  वडील वयस्क आणि आई देवाघरी गेलेली. पाठोपाठची 11 भावंडे. सगळ्यात धाकटी 2 वर्षाची . बाकी सगळी 2-3 वर्षांनी मोठी, एकमेकांच्यात. जमीन जुमला फक्त नावावर. मोठ्ठे घर असले तरी या कुटुंबाला एक कोपरा. अशा परिस्थितीत खायचे वांधे, तिथे मुलांचे लाड ते कसले?

परिस्थितीनं मुलांना वयापेक्षा खूप मोठ्ठं केलं होतं. सगळीचजणं समंजस.  कसला हट्ट नाही,  कसलेही मागणे नाही.  जे असेल त्यात आनंद मानणे.

दिवस सरत होते.  सणवार येत आणि जात. ही सगळी भावंडे दिवाळी ला गोडधोड,  फराळ, फटाके याची इच्छा न धरता, आनंदाने दिवाळी साजरी करायचे. कशी? तर सुंदर सुंदर रांगोळ्या काढून..त्यातच इतके मग्न होत कि, दुस-या कशाचेच भान नसे. देवानं कलेचं वरदान दिलं होतं प्रत्येकाला.

काळ पुढे सरकला. परिस्थिती ही हळूहळू सुधारली. शिक्षणं चालू होती. 1955- 1960, त्या काळी मॅट्रीक पास हे शिक्षणाचं लिमिट होतं मुलींसाठी. ते झालं की लग्न.

कोल्हापूर सोडून सासरी जाणे..अशाप्रकारे चौघीजणी सासरी पुण्यात पोचल्या. सासरी गेलेली, दुधात साखर विरघळावी तशी सासरी माणसांत मिसळून जायची.  आणि तसंच झालं पाहिजे,  हा अलिखित नियम आणि हेच संस्कार.

ही पण अगदी लवकर संसारात रमली. घरी सासू सासरे, दीर असं एकत्र कुटुंब. नंतर तेही वाढत गेलं. जावा आल्या.  मुलं झाली. मिस्टर एकटेच कमावते. पण ही झाशीची राणी.  घर सांभाळून अंगी असलेल्या कलागुणांची मदत घेत कलावस्तु करून विकणे,  गरजूंना जेवणाचे डबे देणे, अशा मार्गांनी आर्थिक बाजू पण उचलून धरत होती. तेही अगदी आनंदाने. सास-यांना तिचं खूप कौतुक वाटत होतं.

संसारवेलीवर चार गुलाब एकापाठोपाठ एक फुलले.जणु रघुवंशाचे चार सुपुत्र.

आर्थिक परिस्थिती गडगंज नसली तरी समाधानकारक झाली. ती पण कष्ट घेत होती.  कष्ट करणा-याचे हलाखीचे दिवस जास्त टिकत नाहीत.  पण एका शब्दानं माहेरी चुगली केली नाही.

ती माझी आत्या.  आम्ही आते-मामे भावंडे कधी सुट्टीत एकत्र खेळायचो.  हळूहळू अभ्यासात मग्न झालो,  जाणं येणं कमी झालं. त्यावेळी मोबाइल सोडाच, साने फोनही घरोघरी नव्हते.त्यामुळे संपर्क नव्हता.

माझ्या लग्नाच्या दिवशी आली होती,  माझी तिची भेट झाली नाही. नंतर खूप दिवसांनी फोटो बघितल्यावर कळलं.

जवळजवळ 38-40 वर्षांनी तिला भेटायचा योग आला. तिला नुकतंच 90वं वर्ष लागलं होतं. मुलं छान शिकून मोठ्या पदावर काम करत होती. सुना आल्या. नातवंडे झाली.  मागच्या वर्षी नातवाचं लग्न झालं. काकांना जाऊनही बरीच वर्षे झाली.

मी येते असं फोनवर सांगितल्यावर बाल्कनीत वाट  बघत होती.  मी गेल्यावर   तिला नमस्कार केला.  तिनं मला घट्ट मिठीत घेतलं. खरंतर माझा जन्म झाला तेव्हा ती लग्न होऊन सासरी गेली होती.  नंतर तीनचार वेळाच भेटलो असू. आज तिच्या मिठीत खूपकाही हरवलेलं सापडलं होतं.  दोघींचंही बालपण आणि माहेरपण.

खूप गप्पा मारल्या.  नव्वदाव्या वर्षी स्वतः केलेल्या थालिपीठ आणि चहाचा आग्रह करत होती.  भेटून पोट भरलं होतं.  चहाचा घोटन् घोट तिच्या काळजातल्या प्रेमानं गोड गोड लागत होता.

बोलता बोलता मुलांच्या प्रगतीचा अभिमान तिच्या शब्दाशब्दांमधून  जाणवत होता. सुना कशा छान आहेत, नातवंडांचं कौतुक करताना मोहरून गेली होती.

माझी निघण्याची वेळ झाली.  थांब थांब म्हणत अर्धा तास गेला. पुढच्या वेळी रहायला येते असं सांगून    जड अंतःकरणाने निघाले. मनाशी ठरंवलं पुढच्या वेळी नक्की दोन दिवस तिच्या बरोबरच रहायचं. तीनच महिने झाले तिला भेटून.

एका दुपारी तिच्या मुलाचा फोन आला. ” आई गेली”.

मन सुन्न झालं.  तो दिवस चैत्र शुद्ध तृतीयेचा. 13 वर्षांपूर्वी माझे बाबा याच दिवशी गेले.त्यांच्या पाठची ही बहीण.  त्याच तिथीला गेली. योगायोग…….

रात्री मी आतेभावाला फोन केला.  इतक्या दुरून मी फक्त शब्दानीच धीर देऊ शकत होते.

बोलताना तो म्हणाला, ” आता कसं करायचं बघू, कारण आईनं तिची इच्छा सांगितली होती की मी गेल्यावर माझ्या अस्थी कोल्हापूर ला पंचगंगेत विसर्जित करा, म्हणून. “मला हुंदका आवरेना.

आमच्या कोल्हापूर भागात माहेरवाशिणीला ” मावळण” म्हणतात. लग्न होऊन सासरी नांदणा-या लेकी, बहिणी जेव्हा गौरीच्या सणाला, सुट्टीला माहेरी येतात तेव्हा”मावळण केव्हा आली? कशी हाईस पोरी? म्हणून प्रेमानं, आपुलकीने आणि मानानं विचारपूस करतात.

आत्यानं मनाशी ठरंवलंच होतं की काय , इथून आता निघायचं ते माहेरी जायचं.

 

अशी ही मावळण.

आयुष्य भर संसारासाठी

पुण्यभूमित राहिली..

चैत्र गौरीच्या तीजेला

परत निघाली…

जणु भेटण्या माहेरा

आतुर मावळण

पंचगंगी समर्पित झाली……

 

© सौ अमृता देशपांडे

पर्वरी- गोवा

9822176170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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