(श्री अशोक कुमार धमेंनियाँ ‘अशोक’जी साहित्य की सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। प्रकाशन – 4 पुस्तकें प्रकाशित 2 पुस्तकें प्रकाशनाधीन 3 सांझा प्रकाशन। विभिन्न मासिक साहित्यिक पत्रिकाओं में लघु कथाएं, कविता, कहानी, व्यंग्य, यात्रा वृतांत आदि प्रकाशित होते रहते हैं । कवि सम्मेलनों, चैनलों, नियमित गोष्ठियों में कविता आदि का पाठन तथा काव्य कृतियों पर समीक्षा लेखन। कई सामाजिक कार्यक्रमों में सहभागिता। भोपाल की प्राचीनतम साहित्यिक संस्था ‘कला मंदिर’ के उपाध्यक्ष। प्रादेशिक / राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय लघुकथा ‘बहू हो तो ऐसी‘। )
☆ लघुकथा – बहू हो तो ऐसी ☆
रामसेवक ने सुबह-सुबह नहाया – धोया और प्रतिदिन की भांति पूजा करने मंदिर चले गए। रास्ते में सोचते जा रहे थे :-
“कल रात की सब्जी अच्छी ना होने के कारण भोजन से पेट नहीं भरा । खाने में दाल अथवा रसीली सब्जी होने पर सुविधा हो जाती है । दांत कमजोर हो गए हैं । सूखी सब्जी में अब दाँत साथ नहीं देते । बहू से कहना उचित नहीं है।”
मंदिर से लौटकर घर आने पर रामसेवक सीधे भोजन पर बैठते थे । घर आने पर उन्हें थाली लगी मिली ।
थाली देखते ही सोचा – अरे, थाली में तो दाल, सब्जी वगैरह सब कुछ है। सब्जी भी करेले की, जो मुझे बहुत पसंद है। राम सेवक ने कहा :-
“अरे बहू, घर में करेले तो थे ही नहीं । तुमने करेले की सब्जी कैसे बना डाली ? ”
“पापा! आपको करेले पसंद है ना । मुझे मालूम है रात में आपने भरपेट खाना नहीं खाया । आप जब मंदिर गए थे तो मैंने बाहर जाकर ठेले से करेले खरीदे ताकि आपको सब्जी पसंद आए और आप भरपेट भोजन कर सकें । शाम को आप क्या खाएंगे , यह भी बता दीजिए ताकि आपको खाने में असुविधा ना हो । ”
रामसेवक भावुक हो गए । उनकी आँखें नम हो गईं। उन्हें उनकी फिक्र करने वाली बहू जो मिली थी।
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ प्रत्येक बुधवार को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “विभिन्नता में समरसता”)
☆ आलेख ☆ विभिन्नता में समरसता -1 ☆
विश्व में अनेक सभ्यतायें फली फूली किन्तु काल ने उनमें से अधिकांश का नामोनिशान मिटा दिया। मिस्र की सभ्यता और संस्कृति जो ईसा पूर्व दो- अढाई हज़ार साल पुरानी थी, उसका आज कोई अस्तित्व नहीं बचा है। अरब देशों का हाल तो और भी बुरा है वे आपस में ही लड़ रहे है। एशिया और यूरोप के अनेक देश परिवर्तन की आंधी के आगे ढह गए हैं।उर्दू के प्रसिद्ध शायर सर मुहम्मद इकबाल इसलिए लिख गए कि:
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा।
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसताँ हमारा।।
यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रूमा, सब मिट गए जहाँ से।
अब तक मगर है बाक़ी, नाम-ओ-निशाँ हमारा।। सारे…
कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़माँ हमारा।। सारे…
हमारी अजर अमर हस्ती को संक्षेप में बता पाना दुष्कर है। भारत के असंख्य गाँव, शहर, प्रांत के निवासी जिन भाषाओं में संवाद करते आये हैं जो भोजन वे ग्रहण करते रहे हैं, जिस कला संगीत, नृत्य और साहित्य ने उन्हें बांधे रखा है और सदियों पुराने रीतिरिवाज, त्यौहार, मनोरंजन के साधन, खेलकूद आदि जो आज भी अक्षुण हैं, गहन अध्यन का विषय हैं और इन पर लिखा भी बहुत गया हैं। इन्हे हम सदियों से मानते आए हैं, उनका परिपालन करते आए हैं। यही हमारी सामासिक संस्कृति के मूल स्तम्भ है, हमारी विस्तृत परम्परा का अभिन्न अंग है।
भारत में दो विभिन्न संस्कृतियों के मेलमिलाप का पहला उदाहरण आर्य व द्रविड़ सभ्यताओं के परस्पर मिलन के रूप में दिखाई देता है। आर्य उत्तर भारत के निवासी तो दक्षिण भारत में द्रविड़ सभ्यता फल फूल रही थी। ऋग्वेद के प्रसिद्ध ऋषि अगस्त्य ने सर्वप्रथम उत्तर और दक्षिण भारत में समन्वय स्थापित करते हुए विभिन्न जन समूहों में स्नेह संपर्क तथा भाषाओं में प्रभावपूर्ण विकास लाने का कार्य किया। उन्होंने आर्येतर जाति की कन्या लोपमुद्रा से विवाह कर समन्वय व उदारता की भावना को और आगे बढाया। महर्षि अगस्त्य के पश्चात रामायण व महाभारत जैसे महाकाव्यों ने भी उत्तर और दक्षिण के भेद को मिटाने में महती भूमिका निर्वाहित की। संस्कृत ने इन भारतीय प्रदेशों के निवासियों के बीच संपर्क भाषा का स्थान पाया किन्तु तमिल, तेलगु, मलयालम, कन्नड़ आदि क्षेत्रीय भाषाए भी फलती फूलती रही व अनेक उच्च स्तर के साहित्य का सृजन इन भाषाओं में होता रहा। शैव वैष्णव समुदाय के कवियों द्वारा रचे गए भक्ति काव्यों ने हमारी सामासिक संस्कृति और अधिक बल प्रदान किया। आर्य एवं द्रविड़ संस्कृति और कई प्रादेशिक व साम्प्रदायिक संस्कृतियों ( जैन बौध, शैव, वैष्णव आदि) के संगम से सामासिक संस्कृति बनी। भिन्न भिन्न पर्व, त्यौहार, वृत, उत्सव, आदि में आर्य संस्कृति आज भी सजीव है। शिल्प के क्षेत्र में, उत्तर व दक्षिण, दो अलग अलग शैलियाँ का प्रभाव हमारे प्राचीन मंदिरों भवनों आदि में दिखाई देता है। उत्तर भारत के हिन्दुस्तानी संगीत व दक्षिण के कार्नेटिक संगीत की जुगलबंदी भी राष्ट्रीय समरसता की प्रतीक है। इस अमिट अंतरधारा की विशेषता है विविधताओं और विभिन्नताओं के बीच अभिन्नता को बनाए रखने की संजीवनी सामंजस्य भावना। इस सार्वजनीन भावना पर समस्त भारतीयों आर्य, आर्येतर, द्रविड़ आदि सभी का समान अधिकार है। यही भावना हम सभी को एक बनाए रख सकने में सक्षम है।
( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें सफर रिश्तों का तथा मृग तृष्णा काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता देश के जांबाज सैनिकों की शहादत को समर्पित। )
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 24 ☆देश के जांबाज सैनिकों की शहादत को समर्पित ☆
उस माँ को नमन है जो सारे कष्ट पाकर पुत्र को जन्म देती है,
जान का खतरा जानते हुए भी उसे देश की सीमा पर भेजती है,
माँ ने उसके लिए जो सुनहरे सपने देखे वो कभी पूरे नहीं हो पायेंगे ||
उस माँ के आगे नतमस्तक हूँ जो उसे शहीद होते अपनी आँखों से देखती है,
नम आँखों से उसे विदा करती है जो फिर कभी वापिस नहीं आएंगे ||
उस स्त्री को नमन है जो सब जानते हुए भी उसकी अर्धागिनी बन जाती है,
और भरी जवानी में पति के शहीद होने पर विधवा हो जाती है,
उसने पति संग जो सुहावने सपने देखे वो अब कभी पुरे नहीं पायेंगे ||
उस पत्नी के आगे नतमस्तक हूँ जो पति की शहादत अपनी आँखों से देखती है,
नम आँखों से उसे विदा करती है जो फिर कभी वापिस नहीं आएंगे ||
उन बच्चों को नमन है जो नन्ही आँखों से पिता की अर्थी उठते देखते हैं,
और अपने नन्हे कोमल हाथों से अपने पिता की चिता को अग्नि देते हैं,
पिता ने बच्चों के लिए जो सपने देखे वो अब कभी पूरे नहीं पायेंगे ||
इन बच्चों के आगे नतमस्तक हूँ जो पिता की मृत देह अपनी आँखों से देखते हैं,
इस बात से अनजान हो विदा देते हैं की ये कभी वापिस नहीं आएंगे ||
☆ वरिष्ठ नागरिक और कोरोना – “मंगलकामना” – वानप्रस्थ (वरिष्ठ नागरिकों की संस्था) का आयोजन ☆
(‘यह भ्रम न पालें कि आपको कोरोना नहीं होगा’ – डॉ डांग)
कोरोना का सबसे ज़्यादा शिकार हो रहे हिसार के कुछ वरिष्ठ नागरिकों ने इस महामारी से बचने के लिए सामान्य सावधानियों के इलावा अनुभव आधारित जानकारी सांझा करने तथा मनोरंजन व शिक्षाप्रद कार्यक्रमों के जरिए मनोबल बढ़ाने का एक अनूठा प्रयोग शुरू किया है।
वरिष्ठ नागरिकों की संस्था “वानप्रस्थ” के तत्वाधान में वेब गोष्ठी में मंगल कामना कार्यक्रम की शुरुआत की गई है जिसमें कोरोना से लड़ कर स्वस्थ हुए सदस्यों के अनुभव सुने सुनाए जाते हैं और फिर सभी के स्वस्थ लाभ व मनोबल के लिए मंगल कामना की जाती है। आत्म विश्वास, प्यार व सहयोग बढ़ाने के गीत, ग़ज़ल, भजन व हंसी खुशी के कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं। सभी कुछ ऑनलाइन वेब गोष्ठी जैसा।
पहले मंगल कामना कार्यक्रम में संस्था के महासचिव प्रो जे के डांग ने बीमारी से निजात पाने के अपने अनुभव सुनाए और गोष्ठी में शामिल 35 सदस्यों ने सभी का मनोबल बढ़ाने के उद्देश्य से मनोरंजक कार्यक्रम प्रस्तुत किए।
प्रो डांग ने कहा कि कोरोना महामारी के लगातार प्रसार का मुख्य कारण यह है कि लोग इस भ्रम में रह कर लापरवाही बरत रहे हैं कि उन्हें कुछ नहीं होगा।
उन्होंने कहा कि यह समय बहुत मिलने जुलने का नहीं है और इस बीमारी से बचने का एकमात्र उपाय सावधानी ही है। डॉ डांग ने सभी को सलाह दी कि वे यह सूत्र हमेशा याद रखें कि – “जब तक दवाई नहीं, तब तक ढिलाई नहीं”।
उनका कहना था कि मास्क का उपयोग करने और छह फुट दूरी रखने व बार बार हाथ धोने के इलावा दिन में तीन बार भांप का इस्तेमाल अवश्य करें।
डॉ डांग ने बताया कि उनकी बीमारी की वजह भी लापरवाही ही थी। वे सामाजिकता के नाते एक बीमार मित्र का हाल पूछने गए और खुद बीमारी लेकर आ गए। उन्होंने कहा कि त्यौहारों के दौरान बाजारों में उमड़ी भीड़ के कारण ही कोरोना के केस एकदम बढ़ गए हैं।
डॉ डांग ने कहा कि बीमारी के दौरान सकारात्मक सोच बनाए रखना जल्दी ठीक होने में काफी मदद करता है।
कार्यक्रम सवा दो घंटे से ज़्यादा चला और इसमें महामारी काल के दौरान सर्वजन के कल्याण की कामना, मानव प्रेम, विश्वास और सहयोग को उल्लेखित करते विभिन्न विधाओं के कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए। कार्यक्रम का संचालन दूरदर्शन के पूर्व समाचार निदेशक अजीत सिंह ने किया। उन्होंने गबन फिल्म का गीत “अहसान मेरे दिल पे तुम्हारा है दोस्तो” भी पेश किया।
डॉ कमल भाटिया व डॉ राज गर्ग ने “सबका भला करो भगवान” मंगल गान प्रस्तुत किया। कुरुक्षेत्र से ऑनलाइन जुड़े प्रो दिनेश दधीचि ने अपनी शायरी से समा बांध दिया। उनका शेर था, “इन्हे दरकार होती है मुसलसल परवरिश की भी, बनाकर भूल जाने में रिश्ते टूट जाते हैं”। इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए दिल्ली से जुड़े प्रो जी आर सय्यद ने बैदबाजी की विधा का परिचय देते हुए अंताक्षरी की तरह एक से बढ़ कर एक उम्दा शेर पेश किए और फिर तरन्नुम से एक ग़ज़ल पेश की, “मरने की दुआएं क्यों मांगू जीने की तमन्ना कौन करे”।
गोष्ठी में पुरानी फिल्मों के गीतों का सिलसिला भी खूब चला। पुणे से जुड़ी के एल सहगल संगीत की विदुषी डॉ दीपशिखा पाठक ने “मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग” और “मौसम है आशिकाना” की प्रस्तुति से खूब सराहना बटोरी।
गुरुग्राम से जुड़े डॉ आर के सेठी ने “न ये चांद होगा न तारे रहेंगे, मगर हम हमेशा तुम्हारे रहेंगे” की प्रस्तुति दी। प्रो आर के सैनी ने गाया,“तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है“। प्रो योगेश सुनेजा ने “पल पल दिल के पास” और प्रो शाम सुंदर धवन ने “किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार” गीत पेश किए। प्रो मीनाक्षी महाजन ने शास्त्रीय संगीत का रंग बिखेरते हुए राग यमन पर आधारित गीत पेश किया, “जब दीप जले आना”।
डॉ शशि सरदाना ने कविता पेश की, “अतीत से मैंने सीखा वर्तमान से लड़ना”।
प्रो सुरेश चोपड़ा व डी पी ढुल ने हास्य रंग की प्रस्तुतियां दी। प्रो हरीश भाटिया ने गूगल मीट ऐप पर गोष्ठी का तकनीकी संचालन किया।
वरिष्ठ नागरिक अक्सर गाना गाने से कुछ झिझकते हैं पर यह भी सच है कि गाना गाने या कोई भी रचना पेश करने से मानसिक तनाव दूर होता है और गायक को एक आंतरिक खुशी मिलती है। यह कहावत भी सही है कि बुढ़ापे की सबसे बेहतरीन काट कोई रचनात्मक कार्य करना होता है।
लाखेच्या अळीची कोष्ठावरणात वाढ होतच असते. कोष्ठावरण म्हणजे लाखेच्या अळीने स्वत:चा स्त्राव स्त्रवून स्वत: भोवती तयार केलेलं आवरण. ती मोठी होईल तसतसे कोष्ठाचे आकारमान वाढत जाते. प्रौढ दशा येईपर्यंत अळी तीन वेळा कात टाकते. अळी अवस्थेतील या तीन अवस्थांचा काळ हा तापमान, आद्रता तसेच आश्रयी वनस्पती यांवर अवलंबून असतो. या काळात किड्याचे लिंगही ओळखता येते. हा लिंगभेद पहिली कात टाकल्यावर जास्त ठळकपणे दिसतो.
नर अळीचा लाक्षाकोष्ठ सपाता किंवा खडावा सारखा असतो. दुसर्यांदा कात टाकल्यावर लगेचच मागच्या टोकाला झाकणासारखी वाढ दिसू लागते. यामुळे मागील टोक चादरीसारख्या आच्छादनाने झाकले जाते. पहिली कात टाकण्यापूर्वीची अवस्था म्हणजे पूर्व कोशावस्था आणि दुसरी कात टाकण्यापूर्वीची अवस्था म्हणजे कोशावस्था.या अवस्थांमध्ये अळी काही खात नाही. कोशावस्था पूर्ण झाल्यावर पंखहीन अथवा सपंख नर बाहेर पडतात. मागील टोकाकडील चादरी सारखं आवरण बाजूला रेटून त्या बाहेर येतात. यात पंखहीन नर संख्येने जास्त असतात. नर लाख किड्याचे आयुष्य केवळ बासष्ट ते ब्याण्णव तासच असते.
मादी डिंभ फुगीर ; नासपतीच्या फळासारखा किंवा गोल पिशवी सारख्या आकाराचा असतो. तिसर्यांदा कात टाकल्यावर मादी लैंगिकदृष्ट्या प्रौढ बनते. अशा मागील टोकाकडील चादरी सारखं आवरण बाजूला सारून बाहेर पडलेल्या मादीचा नराशी संयोग होतो.यासाठी नर लाख किडा मादी लाख किड्याच्या कोष्ठात शिरतो आणि मादीच्या शरीरात शुक्राणू सोडतो. मात्र लाख स्त्रवण्याची क्रिया मादी अजूनही चालूच ठेवते. किड्याच्या आकारमानाबरोबरच लाक्षाकोष्ठही झपाट्यानं वाढत जातो. मादीचा लाक्षाकोष्ठ नराच्या लाक्षाकोष्ठापेक्षा अनेक पटींनी मोठा असतो. अंडी घालून होईपर्यंत मादी लाख स्त्रवत असते. अफलित मादीसुध्दा फलित मादी सारखीच लाख स्त्रवते तसेच जननक्षम प्रजा देखील निर्माण करु शकते.
अंडी अजून मादीच्या अंडाशयात असतानाच त्यांची वाढ होऊ लागते. ही अंडी मादी लाक्षाकोष्ठातील विशिष्ट कप्प्यांत घातली जातात. या कप्प्यांमध्येच अंडी ऊबवली जातात. अंडी ऊबवल्यानंतर अंड्यातून अळी बाहेर पडते. याच अळीला डिंभ म्हणूनही ओळखतात. डिंभ झाडाच्या कोवळ्या फांद्याकडं कूच करतात.तिथं आपली सोंड आत खुपसून स्थिरावतात आणि पुढील जीवनचक्र सुरु राहते.
☆ जीवन रंग ☆ कथा- निरागस भाग-३ ☆ सौ. सुनिता गद्रे ☆
नेहमीप्रमाणेच दोघी फिरायला बाहेर पडल्या. पुन्हा घरात पोहोचेपर्यंत त्यांची एक प्रदक्षिणा पूर्ण व्हायची. घरा जवळच्या कॉर्नर पर्यंत त्या दोघी येऊन पोहोचल्या होत्या. काही-बाही गप्पा चालूच होत्या. हर्षदा एकदम तेथे एका घरासमोर थांबली. फ्रंट यार्ड मध्ये एक युरोपियन गोरी म्हातारी काहीतरी बागकाम करत होती. शरयू ताईंना बस स्टॉप वर पाहिलेल्या वृद्ध महिलांची आठवण आली. तशीच ग्रेसफुल आणि आत्मविश्वासानं ताठपणे चालणारी! आणि…. आश्चर्य म्हणजे एरवी लोकांसमोर बोलताना इतके एटीट्यूड दाखवणारी हर्षदा चक्क हात हलवून तिला “हॅलो ग्रंडमा” म्हणत तिच्यासमोर जाऊन उभी राहिली.
वृद्धेनं चमकून वर पाहिलं. 1, 2 क्षण ती बोललीच नाही.मग प्रेमळ नजरेने तिनं
हर्षदा कडे पाहिलं. तिच्या सुरकुतलेल्या चेहर्यावर हास्य उमटलं. “हाय बेबी! गॉड ब्लेस यू” उत्तरादाखल तीअगदी मनापासून म्हणाली.
या गोष्टीला आठ दहा दिवस होऊन गेले. एके दिवशी संध्याकाळी डोअरबेल वाजली. ज्योती किचन मध्ये उभी होती. तिथल्या मॉनिटरवर तिला एक गोरी महिला दिसली. “ही कोण बाई इथे उपटली? चर्चसाठी काही चॅरिटी मागायची असेल” ज्योती पुटपुटली.
दरवाज्याजवळ जावून तिला वाटेला लावायचा तिचा विचार होता. पण तिच्या आधीच हर्षदा दरवाज्या जवळ पोहोचली होती आणि कुतूहलानं शरयू ताई पण ! ज्योतीनं दार उघडलं. तिच्या हाताखालून हर्षदा बाहेर पडली.
“गुड इव्हिनिंग ग्रॅन्डमा” ती उद्गारली.
ग्रँडमाला आता घेणे भागच होते. मोठ्या संकोचने तिने आपली अडचण सांगितली. तिच्या चेहऱ्यावरचा केविलवाणे पणा च शरयू ताईंना जाणवला. तिला वृद्धावस्था पेन्शन मिळायची. दर गुरुवारी तिच्या खात्यावर ती जमा व्हायची. आज बुधवार होता आणि तिला $5 उधार हवे होते. इंग्लिश बोलता येत नसलं तरी तिच्या बोलण्याचा साधारण अर्थ हर्षदा ला समजला होता . पळतच ती ड्रॉईंग हॉलकडं गेली.
“डॅडी ऽऽ डॅडी” हातवारे करून तीसांगू लागली, ” अं… तिकडे … समोर एक आजी राहते. तिला ना पाच डॉलर बॉरो करायचे आहेत. आपण देऊ शकतो?”
तिचं लडिवाळपणे आजी म्हणणं शरयू ताईंना खूपच भावलं.
डॅडी कडून पैसे घेऊन ते तिने जेव्हा ग्रँडमाच्या हातात दिले. तेव्हा त्या म्हातारीच्या डोळ्यात आनंदाश्रू चमकले.
“गॉड ब्लेस यु माय चाइल्ड!” कृतज्ञतेने थँक्स देऊन ती निघून गेली.
तिची पाठ वळताच हर्षदाच्या तोंडासमोर हात ओवाळत ज्योती आईला म्हणाली, ” पाहिलस नां किती ढालगज आहे ही, परस्पर काम उरकून मोकळी!… गोऱ्या लोकांच्या जास्त भानगडीत आम्ही नाही पडत. त्यांच्या जाती-धर्माचे लोक काय कमी आहेत का इथं !पण सरळ तोंड वर करून आपल्याकडे पैसे मागायला यायचे म्हणजे काय?… ‘दिज पीपल आर फ्रेंडली बट नॉट फ्रेंड्स… असुदे, असुदे आता..पाच डॉलर अक्कलखाती खर्च टाकायचे!” ज्योती चांगलीच वैतागली होती.
पण तशी वेळच आली नाही त्या आजी ने दिलेला शब्द पाळला दोन दिवसात आठवणींना ती पैसे परत देऊन गेली… मग काय संध्याकाळी फिरून येताना हर्षदा चा आणखी एक थांबा वाढला.
बहुतेक ती आजी बागेत दिसायची. ती दिसली रे दिसली की हर्षदा तिच्या लॉनवर जायची. हिची भाषा तिला कळायचे नाही आणि तिची भाषा हिला.. पण देहबोली नं दोघी एकमेकींना समजू लागल्या होत्या. ‘ विश’ करताना एकदा शरयू ताईंना आपादमस्तक न्याहाळत आजी म्हणाली होती,” व्हेरी नाईस स्कर्ट!”
आपल्या साडीला ती स्कर्ट म्हणते हे लक्षात आल्यावर आपल्या स्कर्टमध्ये रूप कसे दिसेल या कल्पनेनं त्यांना लाजल्यासारखं झालं. अलीकडे तर आजी लॉनवर खुर्ची टाकून त्यांची वाटच पाहत असायची. आजीला हॅलो म्हणणं, लॉनवर मनसोक्त धावणं, पळणं, फुलं न्याहाळणं, शेवटी बाय् करून घरी येणं. हा हर्षदा चा रोजचा नेमच झाला होता.
तिथल्या रिवाजाप्रमाणे गॅंडमाची जास्त चौकशी करणं ज्योतीला योग्य वाटत नव्हतं . पण कधीतरी इकडून-तिकडून समजलेल्या माहितीनुसार…. तिचं नाव मार्था आहे. तिला कोणीही नातेवाईक नाहीत. 85 वर्षांचे ती वृद्धा स्वतःच्या हाऊसमध्ये एकाकी आयुष्य जगतेय…. इतपत माहिती शरयू ताईंना मिळाली होती.
तीन चार महिन्याचा कालावधी असाच मस्त उलटून गेला. नंतर सलग पंधरा दिवस ती त्यांना बागेत दिसलीच नाही. हर्षदा पळत पळत तिच्या घरासमोर जायची आणि ती दिसली नाही ती चेहरा पाडून उभी राहायची.
आज ठरवलच आहे मी स्वतंत्र होणार! किती दिवस हे सगळे सहन करु? पण मी स्वतंत्र झाले तर माझे हे दोन बछडे राहतील माझ्याशिवाय? पण बाबा आहेच की त्यांची काळजी घ्यायला. त्यालाही कळू दे आपली जबाबदारी! इतके दिवस मीच सांभाळत आलीय सगळे. घर- दार- सासू- सासरे- पै पाहुणे मीच ओढत होते रामरगाडा! त्याची किंमत तर नाहीच, पण आपल्याला घरच्या कामवाल्या बाईपेक्षाही कमी किंमत दिली जातीय! व्यक्तिस्वातंत्र्य, विचारस्वातंत्र्य या सगळ्या बेगडी कल्पना आहेत. लग्नापूर्वी याच कल्पना किती पोटतिडकीने मांडत मी अनेक वक्तृत्व- वादविवाद स्पर्धा गाजवल्या. तीच मी आज माझ्याच स्वातंत्र्यासाठी झगडतेय.पण आज ठरवलंय मुक्त व्हायचे ! तुटतंय जरा पोटात पिल्लांचा विचार करुन! पण शिकतील तीही कधीतरी स्वतंत्रपणे जगायला! मी मात्र पक्क ठरवलंय आज स्वतंत्र, मुक्त व्हायचे या पाशातून …….
आशिष
जमणार आहे का मला तो NEET चा अभ्यास करणे? नाही आवडत मला तो biology विषय! समोर घेतलाच की झोप यायला लागते. पण तो सोडून मला नाही चालणार! आमचे पूर्ण घराणे डॉक्टरांचे! मग परंपरा कशी मोडायची? मला मेडिकललाच जावे लागणार असे पप्पांनी निक्षून सांगितले आहे. मम्मीचा पण तोच आग्रह आहे. ती बिचारी तर हॉस्पिटलमध्ये काम करुन दमून येते, पण माझ्यासाठी पुन्हा रात्री जागते.अरे यार! पण नाही मला हा अभ्यास करायला आवडत! त्यापेक्षा मला माझ्या आवडीचे व्हायोलिन का नाही शिकून देत? पण आता मात्र ठरवलंय मी की या सर्वांतून मुक्त होणार!मम्मी-पप्पांना वाईट वाटेल खूप! पण मला नाही पूर्ण करता येणार त्यांच्या अपेक्षा!म्हणूनच मी स्वतंत्र व्हायचे ठरवलंय! मी घरातूनच अशा ठिकाणी निघून जाईन की नाहीच शोधू शकणार कोणी मला! मी मुक्त होणार…. मी स्वतंत्र होणार …..
नाना- नानी
काय मिळवलं आम्ही मुलाला एवढे उच्च शिक्षण देऊन? परिस्थिती नसतानाही पै पै जमवून याला अमेरिकेला पाठवले. वाटले होते की म्हातारपणी तरी सुखात, आरामात आयुष्य जगता येईल. पण पोटच्या पोरालाच आम्ही जड झालो, तिथे दुसऱ्या घरातून आलेली ती मुलगी का आम्हाला प्रेम देईल? या वृद्धाश्रमाच्या चार भिंतीत फार कोंडल्यासारखं वाटते. आम्हाला स्वतंत्र व्हायचंय, स्वतःचे आयुष्य स्वतःच्या मनासारखं जगायला आवडेल आम्हाला! मिळवू शकू का आम्ही ते स्वातंत्र्य?
१५ ऑगस्ट स्वातंत्र्यदिन!
त्याच्या दुसऱ्या दिवशीच्या वृत्तपत्रात आतल्या कोपऱ्यात तीन बातम्या होत्या….
* शहरातील एका सुखवस्तू कुटुंबातील महिलेची गळफास लावून आत्महत्या!
* शहरातील एका प्रथितयश वैद्यकीय व्यावसायिक दाम्पत्याच्या १२वीत शिकणाऱ्या मुलाची राहत्या घरी हाताची नस कापून घेऊन आत्महत्या!
*शहरातील एका वृद्धाश्रमातील दाम्पत्याची विष खाऊन आत्महत्या !
मिताली, आशिष आणि नाना-नानी स्वातंत्र्यदिनादिवशीच स्वतंत्र झाले होते.त्यांना हवे होते ते स्वातंत्र्य त्यांनी मिळवले?