मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 9 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

☆ मनमंजुषेतून ☆ माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे – 9 ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ 

(पूर्ण अंध असूनही अतिशय उत्साही. साहित्य लेखन तिच्या सांगण्यावरून लिखीत स्वरूपात सौ.अंजली गोखले यांनी ई-अभिव्यक्ती साठी सादर केले आहे.)

अंदमानला जायला मिळण हा माझ्यासाठी सोनेरी क्षण होता. या सगळ्या स्मृती मी अजूनही जपून ठेवल्या आहेत.

अंदमान ला जायचं म्हणून मी जय्यत तयारी केली होती. माझ्या बाबांच्या मदतीनं सावरकरांच्या ‘जन्मठेप’ या पुस्तकाचं प्र. के अत्रे यांनी केलेलं संक्षिप्त रूप ऐकलं. त्यामुळे माझ्या मनाचे भूमिका तयार झाली. आपण नुसतं प्रवासाला जाणार नाही तर एका महान क्रांतिकारकांच्या स्पर्शानं पावन झालेल्या भूमीला मानवंदना देण्यासाठी जाणार आहोत हे पक्कं ठरवलं आणि तसा अनुभवही घेतला. आम्ही एकूण 128 सावरकर प्रेमी सावरकरांबद्दल आदर असणारे तिथे गेलो होतो. महाराष्ट्र,कर्नाटक,दिल्ली अशा विविध भागांमधून एकत्र जमलेलो होतो. जणूकाही अनेक आतून एकता निर्माण झाली होती. आम्ही सगळेजण हरिप्रिया ने पहिल्यांदा तिरुपतीला गेलो. बेळगाव स्टेशनवर सर्वांचे जंगी स्वागत झाले. सावरकरांच्या फोटोला हार घातला. छोटेसे भाषण हि झाले.घोषणांनी बेळगाव स्टेशन दुमदुमून गेले होते.. तो अनुभव सुद्धा रोमहर्षक होता.. आम्ही चेन्नई ला उतरलो. चेन्नई ते अंदमान आमचे, ‘किंग फिशर’विमान होते. माझ्याबरोबरकायम माझी बहीण होतीच. पण इतर सर्वांनी मला खूप सांभाळून घेतले. एअर होस्टेस ने पण छान मदत केली. त्या माझ्याशी हिंदीतून बोलत होत्या. विमानामध्ये पट्टा बांधला ही त्यांनी मदत केली. या प्रवासामुळे आयुष्यातली खरी मोठी उंची गाठली. विमानाचा प्रवास झाला आणि सावरकरांना त्यांच्या कैदेत असलेल्या खोलीमध्ये नमस्कार करण्याची संधी मिळाली.

अंदमानमध्ये आम्ही उतरल्यावर आम्हा सगळ्या सावरकर प्रेमींना पुन्हा एकदा सावरकर युगच अवतरले असे वाटले. आम्ही सगळ्यांनी तीन दिवस कार्यक्रम तयार केले होते. अंदमानमध्ये चिन्मय मिशन चा एक मोठा हॉल आहे. तिथे बाकी सगळ्यांचे कार्यक्रम झाले. पहिल्या दिवशी बेळगावच्या विवेक नावाचा मुलगा होता. त्याची उंची अगदी सावरकरां एवढी, तसाच बारीक. त्याच्या पायात फुलांच्या माळा, हातात माळा घालून जेल पर्यंत आम्ही मिरवणूक काढली. सावरकरांना जो ध्वज अपेक्षित होता तसा केशरी ध्वज आणि त्यावर कुंडली करून  नेला होता. तो ध्वज घेऊन सगळ्या लोकांनी मोठ्या आदराने प्रेमाने सावरकरांच्या त्या खोलीपर्यंत जाऊन त्यांना मानवंदना दिली. त्या जेलमधून फिरताना आतून हलायला होते. तो मोठा जेल, तो मोठा व्हरांडा, फाशीचा फंद, पटके देण्याची जागा, सगळे ऐकूनही मी थरारून गेले. सावरकरांना घालत असलेल्या  कोलूलामी हात लावून पाहिला तर माझ्या अंगावर काटा आला. आपल्या भारत मातेसाठी त्यांनी किती हाल सोसले, कष्ट केले, किती यातना भोगल्या, ते आठवलं तरी शहा रायला होतं. त्यांच्या त्यागाची आम्ही काय किंमत करतो असंच वाटतं.

आमच्याबरोबर दिल्लीचे श्रीवास्तव म्हणून होते. त्यांचे त्यावेळी 75 वय होते. आश्चर्य म्हणजे त्यांच्या वयाच्या बावन्न वर्षापर्यंत त्यांना सावरकर कोण हे माहिती नव्हते. त्यांचं कार्य काय हेसुद्धा ठाऊक नव्हते. पण पण एकदा त्यांच्या कार्याची व्याप्ती, खोली त्यांना समजली आणि ते इतके प्रभावित झाले की त्यांनी सावरकरांच्या कार्यावर पीएचडी मिळवली.

श्रीवास्तव आजोबांनी आम्हाला जेलच्या त्या  व्हरांड्यामध्ये सावरकरांच्या खूप आठवणी सांगितल्या. त्यातली एक सांगते. आपल्या एका तरुण क्रांतिकारकांना दुसऱ्या दिवशी फाशी द्यायची होती. बारीने त्याला विचारले, “तुझी शेवटची इच्छा काय आहे?” त्यांनी सांगितले, “मला उगवता सूर्य दाखवा.” दूर बारी छद्मीपणे हसून म्हणाला, “तुमच्या साम्राज्याचा सूर्य मीच आहे.” त्यात थेट क्रांतिकारकांनी ताठपणे सांगितले, “तुम्ही असताना चाललेला सूर्य आहात. मला उगवता सूर्य दाखवा. मला सावरकरांना पाहायचे आहे.” धन्य ते क्रांतिकारक..

तेथील हॉलमध्ये कोल्हापूरच्या पूजा जोशी ने, “सागरा प्राण तळमळला” हे गीत सादर केले. रत्नागिरीच्या लोकांनी सावरकर आणि येसूवहिनी यांच्या मधला संवाद सादर केला. म्हणून म्हटलं ना तिथं पुन्हा एकदा सावरकर युग अवतरलं होतं.

आपल्या मातृभूमीच्या पारतंत्र्याच्या बेड्या तोडून काढण्यासाठी स्वातंत्र्यवीर सावरकरांनी किती हालअपेष्टा सहन केल्या, ते आजच्या मुलांनाही समजायलाच हव्यात. त्याच साठी आपल्या सांगलीतल्या सावरकर प्रतिष्ठान चे लोक अजूनही नवीन नवीन उपक्रम राबवत आहेत.

सर्वांनी सावरकरांचे, “माझी जन्मठेप” जरूर जरूर वाचावे अशी मी कळकळीने विनंती करते.

…. क्रमशः

© सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 77 ☆ व्यंग्य – कायदे का काम ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है आपका एक  अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘कायदे का काम’।  वैसे काम सभी कायदे से ही होते हैं। अब यदि एहतियातन घोषणा कर दी जाये कि सभी काम कायदे से होंगे तो इतना कन्फ्यूज़न क्यों है ? भला कभी कायदे से काम हुआ भी है। इस विशिष्ट व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 77 ☆

☆ व्यंग्य – कायदे का काम

मंत्री जी ने अपने विभाग में अधाधुंध नियुक्तियाँ कीं। जब सरकार गिरी तो जाँच पड़ताल में बात सामने आयी कि लाखों का लेनदेन हुआ। पत्रकारों ने पूर्व मंत्री जी से पूछा तो उन्होंने हथेली पर तम्बाकू ठोकते हुए इत्मीनान से जवाब दिया, ‘सब बकवास है। हमने तो जनसेवा की है। हजारों लोगों को रोजगार दिया है। हवन करने में घी चुराने का आरोप लग रहा है। विरोधियों को शिकायत है तो जाँच करा लें।’

उधर पूर्व मंत्री जी के द्वारा नियुक्त नये कर्मचारियों का एक विशेष सम्मेलन हुआ जिसमें सभी ने शपथ ली कि किसी भी हालत में और किसी भी दबाव में यह स्वीकार नहीं करना है कि उन्होंने नौकरी के लिए कोई रिश्वत दी, अन्यथा लगी लगाई नौकरी छूट सकती है। सम्मेलन में पूर्व मंत्री जी को धन्यवाद दिया गया और यह कामना की गयी कि वे बार बार मंत्री बनें और बार बार इसी तरह बेरोज़गारी हटाने की मुहिम चलायें।

नये मंत्री ने शपथ लेते ही घोषणा की कि अब सब काम कायदे से और पारदर्शी तरीके से होगा और जो कर्मचारी कायदे के खिलाफ जाएगा उस पर सख्त अनुशासनात्मक कार्यवाही होगी।

घोषणा होते ही विभाग के हलकों में चर्चा शुरू हो गयी कि कायदे से काम का मतलब क्या है। अनेक टीकाकारों ने कायदे से काम के अनेक अर्थ प्रस्तुत किये। लोगों की शंका यह थी कि क्या अभी तक काम कायदे से नहीं होता था? जब फाइलें बाकायदा चली हैं और जब उनमें बाकायदा टीपें दी गयी हैं तो काम कायदे से कैसे नहीं हुआ?

तब विभाग के आला अफसर ने दोयम दर्जे के अफसरों को एक दिन बताने की कृपा की कि कायदे से काम का मतलब यह है कि नियुक्तियों और दूसरे कामों में कोई लेन-देन नहीं होगा, और जो अधिकारी या कर्मचारी मुद्रा या वस्तु के रूप में घूस लेगा उसे बिना रू-रियायत के पुलिस को सौंप दिया जाएगा, उसके बाद भले ही वह घूस देकर छूट जाए।

बात आला अफसर से चलकर नीचे तक आयी और पूरे विभाग में फैल गयी। फिर विभाग से चलकर पूरे प्रदेश में फैल गयी। चिन्तित चेहरे सड़कों पर घूमने लगे। यह कायदे का काम क्या होता है? क्या अब पुराने कायदे से काम बिलकुल नहीं होगा? विभाग के सभी दफ्तरों में लोग आ आकर पूछताछ करने लगे। जो

पढ़ने-लिखने में थोड़ा पिछड़े, लेकिन धन-संपत्ति के मामले में अगड़े हैं, उनकी नैया अब कैसे पार होगी? क्या सिर्फ योग्यता ही नौकरी का आधार बन कर रह जाएगी?
लोग विभाग के कर्मचारियों से हमदर्दी जताने लगे—‘हमें अपनी परवाह नहीं है। हमारा जो होगा सो होगा। इस विभाग में नौकरी नहीं लगी तो दूसरे में लगेगी। लेकिन आपका और आपके बाल-बच्चों का क्या होगा?’ सुनकर अधिकारियों-कर्मचारियों की आँखों से अश्रु प्रवाहित होने लगे। हमदर्द उनकी दुखती रग छू रहे थे। बहुत से काम रुके पड़े हैं। किसी को मकान की तीसरी मंजिल बनानी है तो किसी को पुत्री की शादी में दस लाख खर्च करना है। किसी ने साले के नाम से ट्रक खरीदने की योजना बनायी है। कायदे से काम हुआ तो सब काम रुक जाएंगे।

दुख का आवेग बढ़ा तो कर्मचारियों के आँसुओं से फाइलें गीली होने लगीं। विभाग ने तुरन्त आदेश जारी किया कि सभी फाइलों पर तत्काल प्लास्टिक के कवर चढ़ा दिये जाएं।

कायदे से काम वाला आदेश ज़ारी होने के एक महीने के भीतर तीन चार कर्मचारी फूलपत्र लेते हुए पकड़े गये और मुअत्तल कर दिये गये। वे ऐसे आसानी से पकड़ लिये गये जैसे कोई शिकारी घायल पक्षी की गर्दन पकड़कर ले जाता है। वजह यह थी कि उन्हें अभी कायदे से काम करना नहीं आया था। बहुत से ऐसे थे जो बुढ़ापे में राम-राम बोलना सीख ही नहीं सकते थे।

‘कायदे से काम’ लागू होने से जनता कुछ प्रसन्न हुई। चार छः जगह नये मंत्री जी का अभिनन्दन हुआ, तारीफ हुई। लेकिन विभाग की हालत चिन्ताजनक हो गयी। अफसरों-कर्मचारियों की जैसे जान निकल गयी थी। दफ्तरों में मनहूसी फैल गयी। काम करने के लिए किसी का हाथ ही नहीं उठता था। कर्मचारी उदास चेहरा लिये धीरे धीरे दफ्तर में आते और मेज़ पर सिर टिकाकर बैठ जाते। कुछ मुर्दों की तरह बाहर पेड़ों के नीचे पड़े रहते। आला अफसर परेशान थे। किस किस के खिलाफ कार्रवाई करें?कर्मचारियों से कुछ कहते तो वे आँखों में आँसू भरकर जवाब देते, ‘क्या करें सर!हाथ में जान ही नहीं रही। शरीर लुंज-पुंज हो गया है। जो सजा देनी हो दे दीजिए। जो भाग्य में होगा, भोगेंगे।

मंत्री जी के पास रिपोर्ट पहुँची कि ‘कायदे से काम’ वाला आदेश लागू होने से कर्मचारियों के मनोबल में भारी गिरावट हुई है। दफ्तरों में उत्पादकता पहले से आधी भी नहीं रह गयी है। पहले जो काम एक दिन में पूरा होता था वह अब दस दिन में भी नहीं होता। अफसरों कर्मचारियों में प्रेरणा का पूर्ण अभाव हो गया है।

मंत्री जी ने चिन्तित होकर दौरा किया तो पाया कि विभाग के ज़्यादातर कार्यालय श्मशान जैसे हो गये हैं। सब तरफ धूल अंटी पड़ी है। हवा चलती है तो सब तरफ धूल उड़ती है। फाइलों पर मकड़जाले बन गये हैं। चूहे धमाचौकड़ी मचाते घूमते हैं। कमरों में कुत्ते सोते हैं, उन्हें कोई नहीं भगाता। कोई काम न होते देख जनता ने आना बन्द कर दिया था।

मंत्री जी ने हर कार्यालय में मीटिंग की। कर्मचारी धीरे धीरे आकर सिर लटकाये बैठ गये। मंत्री जी ने ‘कायदे से काम’ के फायदे गिनाये तो वे ऐसे सिर हिलाते रहे जैसे मुर्दों में बैटरी लगी हो। मंत्री जी मुर्दों को संबोधित कर, परेशान होकर उठ गये। कर्मचारी फिर धीरे धीरे चलते हुए अपनी कुर्सियों पर सिर लटकाकर बैठ गये।

दफ्तरों की चिन्ताजनक हालत की खबर अखबारों में छपी। मुख्यमंत्री जी ने मंत्री जी को तलब किया। उनकी ‘कायदे से काम’ की योजना की बखिया उधेड़ी। जब कोई काम ही नहीं होता तो कायदे से काम का क्या मतलब?मंत्री जी को हिदायत दी गयी कि किसी भी कीमत पर विभाग की कार्यक्षमता बढ़ायी जाए, अन्यथा उनका पोर्टफोलियो बदल दिया जाएगा।

दूसरे दिन आला अफसर को गोपनीय सन्देश गया कि भविष्य में लकीर का फकीर होने के बजाय व्यवहारिक हुआ जाए और एक महीने के भीतर विभाग की कार्यक्षमता पुराने स्तर पर लायी जाए। अफसरों कर्मचारियों ने सन्देश के भीतर निहित सन्देश को पढ़ा और गुना, और फिर कुछ ही दिनों में दफ्तरों की धूल छँटने लगी। चूहों कुत्तों को अन्यत्र शरण लेने के लिए हँकाला जाने लगा। कर्मचारियों के शरीर में जान और मुख पर मुस्कान लौट आयी। जनता फिर दफ्तरों के काउंटरों पर दिखायी देने लगी।

विभाग के सभी दफ्तरों में कर्मचारियों ने मीटिंग करके मंत्री जी को अपनी नीति में व्यवहारिक परिवर्तन करने के लिए धन्यवाद दिया और उन्हें विश्वास दिलाया कि वे अब निश्चिंत होकर सब कुछ कर्मचारियों पर छोड़ दें और देखें कि कर्मचारी अब विभाग को कहाँ से कहाँ पहुँचा देते हैं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 33 ☆ आव्हान ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  कविता आव्हान। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 33☆ 

☆ कविता – आव्हान ☆ 

जीवन-पुस्तक बाँचकर,

चल कविता के गाँव.

गौरैया स्वागत करे,

बरगद देगा छाँव.

.

कोयल दे माधुर्य-लय,

देगी पीर जमीन.

काग घटाता मलिनता,

श्रमिक-कृषक क्यों दीन?

.

सोच बदल दे हवा, दे

अरुणचूर सी बाँग.

बीना बात मत तोड़ना,

रे! कूकुर ली टाँग.

.

सभ्य जानवर को करें,

मनुज जंगली तंग.

खून निबल का चूसते,

सबल महा मति मंद.

.

देख-परख कवि सत्य कह,

बन कबीर-रैदास.

मिटा न पाए, न्यून कर

पीडित का संत्रास.

.

श्वान भौंकता, जगाता,

बिना स्वार्थ लख चोर.

तू तो कवि है, मौन क्यों?

लिख-गा उषा अँजोर.

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 76 ☆ संघे शक्ति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 76 – संघे शक्ति ☆

कुछ घटनाएँ ऐसी घटती हैं जो नेत्रों को खारी बूँदों से भर देती हैं। उस सुबह भी कुछ ऐसा ही हुआ। कलेवर में छोटी पर प्रभाव में बड़ी घटना का साक्षी बना।

प्रात: भ्रमण से लौट रहा था। बस स्टॉप के पास वाले फुटपाथ पर एक पेड़ के नीचे दो-तीन वर्ष से एक फकीरनुमा भिक्षुक का बसेरा है। फुटपाथ के एक ओर पार्क की दीवार है, दूसरी ओर सड़क और सड़क के उस पार छोटी-सी टपरी। आते-जाते लोगों से फकीर की कभी चाय की मांग हो तो केवल पैसे देकर काम नहीं चलता। सड़क पार से एक प्याला चाय लाकर देना पड़ता है। शायद पैरों से लाचार से है यह वृद्ध क्योंकि उसे कभी चलते नहीं देखा।

सहसा दृष्टि पड़ी कि वृद्ध को घेरकर पास के उर्दू माध्यम के विद्यालय में पढ़नेवाली आठ-दस छात्राएँ खड़ी हैं। सिर पर स्कार्फ बाँधे, छठी-सातवीं में पढ़नेवाली बच्चियाँ। उत्सुकता के शमन के लिए अवलोकन किया तो नेत्र सजल हो उठे। भिक्षुक को पीने के लिए पानी चाहिए था और हर बच्ची अपने वॉटर बॉटल में से थोड़ा-थोड़ा पानी भिक्षुक के जलपात्र में डाल रही थी। अद्भुत, अलौकिक दृश्य! देखता ही रह गया मैं!

इच्छा हुई दौड़कर जाऊँ और इनके माथे पर हाथ रखकर कहूँ, “ वेल डन बेटियो! सबाब का काम किया।” फिर लगा इस कच्ची उम्र को पाप-पुण्य के जटिल समीकरण से मुक्त ही रहने दूँ, रहने दूँ इन्हें सहज। सहजता जो जानती है कि प्यास है तो पानी की व्यवस्था करनी चाहिए।

फकीर की पानी की ज़रूरत पूरी करने के लिए एक साथ बढ़े इन नन्हे हाथों ने एक बात और सिखाई कि प्रयास सामूहिक हों तो पानी का पात्र ही नहीं, सूखी नदियाँ और रूठी बावड़ियाँ भी भरी जा सकती हैं।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

writersanjay@gmail.com

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 32 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 32 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 32) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 32☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

शाम  ख़ामोश  है,

पेड़ों  पे  उजाला  कम  है ..

लौट  आए  हैं  सभी,

पर  एक  परिंदा  कम  है।

 

Evening is somberly silent,

Light is also less on trees

All have returned, but one

Bird  is  less  in  the  flock!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मुख़्तसर  सा  गुरूर  भी

ज़रूरी  है  जीने  के  लिए

ज़्यादा झुक के मिलो तो दुनिया

पीठ को पायदान बना लेती है

 

Little  bit  of  ego  is

also a must to survive…

If you bend too much,

World makes you a pedestal

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

जो बात…

पी गया था मैं,

वो बात ही…

खा गई मुझे…!

 

Whatever matter

I had digested,

That matter only

consumed  me…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

जब भी तुम मुझे ढूँढना

चाहो, तो  सुन  लो…

मेरी  पसंदीदा  जगहों में,

एक  तुम्हारा  दिल  है…

 

Listen, whenever you’re

desirous of finding me …

Among my most favorite

places, one is your heart..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ औरतें… ☆ श्री जयेश वर्मा

श्री जयेश कुमार वर्मा

(श्री जयेश कुमार वर्मा जी  बैंक ऑफ़ बरोडा (देना बैंक) से वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। हम अपने पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता औरतें…।)

☆ कविता  ☆ औरतें… ☆

छू रहीं,

अनन्त नभ, अंतरिक्ष,

दशों दिशाएँ,

 

बढ़ रहा विश्वास,

आत्मसम्मान, उनका,

हर क्षेत्र में,

स्थापित, उत्कृष्ट

आयाम, से,

 

पर

बहुत सी,

छीलती, रात दिन, घास,

लातीं पाताल से पानी,

अब भी, क्यों,

सींचती जाती

मन का रेगिस्तान

उम्र भर…

 

सब यह, जो, उन पर,

अब भी, बीत, रहा,

मेटती खुद, लगन से,

सहतीं, परस्पर,

युगों की नारी पीर,

समाज की हेय, प्रताड़ना,

हो, या,

पुरुष की कुत्सित, भावना…

 

लड़ रहीं,

समय से, समाज से,

वे सब औरतें,

अपनी अपनी, तरह से

कभी, जीतती,

कभी हारती,

अकेली, बन, दुर्गा…

बनें वे दुर्गा…

 

©  जयेश वर्मा

संपर्क :  94 इंद्रपुरी कॉलोनी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
वर्तमान में – खराड़ी,  पुणे (महाराष्ट्र)
मो 7746001236

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – ‌अन्नदाता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी  की एक भावप्रवण कविता  “अन्नदाता। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – अन्नदाता

मै‌ किसान ‌अन्नदाता हूँ, इस देश का भाग्य विधाता हूँ।

अपने कठिन परिश्रम से, मै सबकी भूख मिटाता हूँ।

 

वर्षा सर्दी‌ गर्मी सहकर, सब्जी फल फूल उगाता हूँ।

पर लूट‌खसोट के‌ चलते, भइया मै‌ भूखा‌ सो‌ जाता हूँ।

 

कभी आपदा के चलते, हम सब के सपने चूर  हुए।

कर्जे महंगाई के चलते, मरने पे‌ मजबूर हुए।

 

हम सबकी मेहनत  का फल, हर समय बिचौलिया खाता है।

सरकारी ‌राहत का सारा ‌धन, घपलेबाज की जेब में जाता है।

 

बेटी की‌ शादी पढ़ाई की चिंता, हम को खाये जाती‌ है।

रातें आंखों में कटती है, नींद न हमको आती है।

 

अपने छप्पर में मैं बैठा, खाली कोठारें तकता हूँ।

हाथों की लकीरें देख देख, अपनी क़िस्मत मैं पढता‌ हूँ।

 

अंधेरी काली रातों में  ,खाली बर्तन टटोलता हूँ मैं।

कर्जे खर्चे की डायरी के पन्ने, अब बार बार खोलता हूँ मैं।

 

अपने खेत में बैठा हूँ, पशुओं की रखवाली करता हूँ।

फसल चर रहे आवारा पशु, कुछ भी कहने से डरता हूँ।

 

आशा और निराशा ‌से, जब दिल मेरा घबराता है।

तब भूतकाल भविष्य बन‌कर, मुझको रोज डराता है।

 

फिर‌ भी उम्मीदों के दामन में, रंगीन नजारे दिखते हैं।

जीवन की अंधेरी रातों में, चांद सितारे दिखते हैं।

 

अब सूनी-सूनी आंखों से, उम्मीद की राहें तकता हूँ।

खेत की मेड़ पे बैठा हूँ, पगला दीवाना दिखता हूँ।

 

मैं नील‌कंठ बन बैठ गया, पीकर‌ के‌ विष का प्याला।

अपनी व्यथा‌ कहें किससे, है कौन उसे सुनने वाला।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री  हरी ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

 

☆ कवितेचा उत्सव ☆ श्री  हरी ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे 

शब्द मंजिर्या खुडीत होते,

रामप्रहरी मी तुळशीच्या!

तुळशीपत्रात मज दिसू लागला,

श्रीहरी प्रसन्न पहाटेचा !

 

शिरावरी मोरपीस खुललेले,

स्मीत तयाच्या गालावरी !

तुलसीच्या पावित्र्य बंधनी,

गुंतुनी गेला तो श्रीहरी!

 

बासरी त्याची अखंड वाजे,

अधरावरती स्थान तिचे!

सोबत राधेची ही असता,

‌  एकतानता मला दिसे !

 

सृष्टीच्या खेळास असे

साक्षीदार  तो मनहारी!

माणसाची खळबळ पहाता,

गुढ हास्य त्याच्या मुखावरी!

 

झाडावरती फळे-फुले अन्

आनंदे विहरती पशुपक्षी!

मुक्त स्वच्छंदी बागडताना,

पाहून खुलला तो सुख साक्षी!

 

अवघे जगत ही सारी किमया,

त्याचाच खेळ हा पृथ्वीवरी!

अवकाशातून न्याहाळीत तो,

दूर राहुनी नियंत्रित करी!

 

थांबव आता तुझा खेळ हा,

जाणीव  मानवा होई मनी!

तुझ्याशिवाय हे व्यर्थ असे,

वंदिते तुज मी क्षणोक्षणी!

 

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 57 – अभंग – अहंकार ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 57 – अभंग – अहंकार ☆

सोडी अहंकार

व्यर्थ बडीवार

मिरविशी फार

सदोदीत…./१/

 

प्रसिद्धीची हाव

वृथा धावाधाव

मनाचा घे ठाव

थांब थोडा……/२/

 

अहंभाव वारे

शिरताच कानी

बुद्धी मनमानी

करितसे…./३/

 

अपुऱ्या ज्ञानाचे

उगा प्रदर्शन

अज्ञान दर्शन

जगतास…./४/

 

योग्यतेची जाण

कुवतीचे भान

ज्ञानियांचा मान

चित्ती हवा …./५/

 

ज्ञानार्जन ध्यास

प्रयत्नांची कास

सचोटी विश्वास

अंगी बाण…./६/

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ लघुकथा – गोमाता (भावानुवाद) ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई

श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

☆ जीवनरंग : लघुकथा – गोमाता (भावानुवाद) ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

त्या म्हाताऱ्या गाईचे  गल्लीमध्ये जे हाल होत होते, ते सगळ्यांना दिसत होते.पण विरोधी बोलून संकट कोण ओढवून घेणार?

——–ही गाय म्हणजे तीच ,की जिला काही वर्षांपूर्वी ‘पटेल’नी खरेदी करून आणली होती. ते गाईचं  खूप खूप कौतुक करत होते अगदी न दमता.10लीटर दूध द्यायची, दूध, दही, तूप सर्वानी भरपूर  खाऊनसुध्दा, रतीब घातले नि एका वर्षांतच तिची किंमत पटेलानी वसूल केली.

हळूहळू सगळ्या गल्लीचीच ती लाडकी गोमाता झाली. सगळे तिला लाली किंवा कपिला या नांवाने बोलावू लागले. गल्लीतल्या प्रत्येक चौकात  पहिली चपाती लालीच्या नांवानें भाजली जाऊ लागली.पटेल लालीला सकाळ संध्याकाळ गल्लीत फिरवून आणायचे. लाली सगळ्यांची अतिशय लाडकी झाली होती.

पटेलांच्या गोठ्यात गाईला वासरंही खूप झाली. त्यातूनही पटेलाना बराच पैसा मिळाला. परंतु कुठपर्यंत? कालचक्र फिरत असतं.लाली म्हातारी झाली. ती दूध देईनाशी झाली. मग तिला पेंडच काय , हिरवा सुखा चाराही  मिळेनासा झाला. अशा तर्हेच्या म्हाताऱ्या जनावरांना भाकड म्हणतात. म्हैस भाकड होते तेव्हा तिला कसायाला विकून शेवटची कमाईही वसूल करून घेतात.पण लाली तर गाय होती. गो माता.

काही संस्कार, बरीचशी लोकलज्जा, त्यामुळे घरातून हाकलून देऊ शकत नव्हते.खुंटाला बांधूनही नाही ठेवल पटेलांनी. तिला कळलं ,तेव्हा ती गोठ्यात बसून रहायची, किंवा गल्लीत फिरत असायची. बिचारी गो माता, लाडकी गो माता. भुकेने आणि तहानेने व्याकुळ गो माता.नुसता हाडांचा सापळा राहिला तिचा. चालताना तिचे पाय लटपटत.थंडी़, ऊन्ह, पाऊसाचा मारा सहन करीत, चारापाण्याचा शोध घेत निराश होऊन ती दिवसातून एकदा तरी मालकांच्या घरी जाऊन येते. पण आता तिथे तिची गरज कोणालाच नाही. पटेल तर ती आली की हाड, हाड करून  हाकलून देतात. त्यांचं हाडहाड ऐकून गो माता तोंड फिरवते.—

 

मूळ हिंदी लघुकथा-‘गौ माता’ – लेखक – सुश्री नीता श्रीवास्तव, महू, म.प्र.

मो.9893409914

मराठी अनुवाद – श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई 

मो. – 8806955070

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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