ई-अभिव्यक्ति: संवाद ☆ ई-अभिव्यक्ति के 2रे जन्मदिवस – सफर तीन लाख का और विजयादशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनायें ☆

☆ ई-अभिव्यक्ति के 2रे जन्मदिवस – सफर तीन लाख का और विजयादशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनायें ☆

प्रिय मित्रो,

अक्टूबर माह और आज का दिन ई- अभिव्यक्ति परिवार के लिए कई अर्थों में महत्वपूर्ण है।  इसी माह 15 अक्टूबर 2018 को हमने अपनी यात्रा प्रारम्भ की थी। मुझे यह साझा करते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि 2 वर्ष 10 दिनों के इस छोटे से सफर में आपकी अपनी वेबसाइट पर 3 लाख से अधिक विजिटर्स विजिट कर चुके हैं।

आज मैं अपने नहीं आपके ही विचार आपसे साझा करने का प्रयास कर रहा हूँ।

जगत सिंह बिष्ट

प्रिय भाई हेमन्त जी,

सर्वप्रथम, ई-अभिव्यक्ति पर 3,00,000 विजिटर्स के कीर्तिमान हेतु हार्दिक बधाई। निश्चित रूप से, किसी भी पैमाने पर, 2 वर्ष के कम समय में यह एक मील का पत्थर है।

यह मेरा परम सौभाग्य है कि इस यात्रा की परिकल्पना के समय से ही मुझे इसका एक महत्वपूर्ण सहयात्री और क्षण-क्षण का प्रत्यक्षदर्शी बनने का अवसर प्राप्त हुआ है। सच कहूँ तो मुझे यह यात्रा अद्भुत, अविश्वसनीय और अप्रतिम लगी है।

परिकल्पना, परिश्रम, निरंतरता, विकास और चलायमान बने रहना अपने-आप में सफलता का द्योतक है। यह सौभाग्य हर किसी को नहीं मिलता, सिर्फ भगीरथ प्रयास करने वाले, आत्मविश्वासी और अडिग पुरुषों को ही मिलता है।

अंग्रेजी और मराठी भाषा को जोड़कर आपने अभिव्यक्ति को एक नया आयाम दिया है। आप इसी तरह निःस्वार्थ भाव से परिश्रम की पराकाष्ठा करते रहें, यही कामना है, यही प्रार्थना है। बहुत-बहुत साधुवाद और अनेकानेक शुभकामनाएं। – सदैव आपका

डॉ कुंदन सिंह परिहार

 

आपने बिना भेद -भाव के, बिना किसी निहित स्वार्थ के, समर्पित भाव से पत्रिका का संपादन किया है।आप अपने स्वभाव के अनुसार सबको आदर देते हैं।इसीलिए आपकी दर्शक संख्या इतनी बढ़ी है और इतने लोग आपसे जुड़े हैं।आपका काम दूसरों के लिए अनुकरणीय है।

डॉ.  मुक्ता

नमस्कार, मात्र दो वर्ष से कम कि अवधि में तो न लाख लोगों का वेबसाइट का विज़िट करना स्वयं में महान् उपलब्धि है।इसका पूर्ण श्रेय आपके परिश्रम, लग्न व निरंतर कर्त्तव्य-निष्ठता को जाता है।

अशेष शुभ कामनाएं।

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

एक शिक्षक को सबसे अधिक प्रसन्नता तब होती है , जब उसके विद्यार्थी उसे सम्मान देते हैं । उम्र के इस पड़ाव पर मेरे विद्यार्थी सारे विश्व मे फैले हुए हैं । इंटरनेट के जरिये ढेर से पुराने शिष्यों ने मेरे पुत्र चि विवेक के माध्यम से ढूंढ कर सम्पर्क रखा है । हेमंत जी मेरे प्रिय शिष्यों में से एक हैं । सबसे बड़ी बात है कि वे एक बेहद अच्छे इंसान हैं , तकनिकज्ञ हैं , साहित्य अनुरागी हैं । मेरी रचना साधिकार उनकी हैं , वे उन्हें क्रमिक रूप से पोर्टल पर स्वस्फूर्त प्रकाशित करते हैं ।
तीन लाख दुनियाभर में फैले पाठकों का विशाल परिवार हम लेखकों, व पोर्टल की थाथी है । मेरी समस्त मंगल कामना उनके संग हैं । शुभेस्तु

श्री अमरेन्द्र नारायण

ई अभिव्यक्ति एक ऐसा पटल है जिसमें स्तरीय रचनायें पढ़ने को मिलती हैं।उत्तम रचनाओं को पटल पर उपलब्ध कराने में श्री हेमन्त बावनकर जी के परिश्रम और साहित्य की उनकी परख का महत्वपूर्ण योगदान है।
अपने प्रयास को नेपथ्य में रख कर साहित्य की श्री वृद्धि हेतु निरंतर प्रयत्नशील रहना हेमंत जी की प्रतिभा और साहित्य साधना का परिचय देता है।
हर्ष की बात है कि सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी का मार्गदर्शन और सहयोग ई अभिव्यक्ति को मिल रहा है।
ई अभिव्यक्ति की इतने कम समय में प्रशंसनीय उपलब्धि के लिए हेमंत जी और उनके सहयोगियों को हार्दिक बधाई।श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी ई अभिव्यक्ति के माध्यम से आदरणीय बाबूजी की रचनायें हमें उपलब्ध करा रहे हैं,उन्हें हार्दिक धन्यवाद और पूज्य बाबू जी को सादर प्रणाम।
हमारी शुभेच्छा है कि ई- अभिव्यक्ति निरंतर प्रगति करता रहे।
उल्लेखनीय है कि ई अभिव्यक्ति ने एकता व शक्ति के आयोजन प्रसार को नियमित स्तम्भ के रूप में स्थान दिया , इसके लिए हेमंत जी का विशेष आभार व्यक्त करता हूँ
हम सब इस उत्कृष्ट पटल को अपना सहयोग दें,इस आग्रह और नवरात्रि की शुभकामना के साथ- अमरेन्द्र नारायण????

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ई अभिव्यक्ति के फाउंडर डिजाइनर हिंदी, अंग्रेजी, मराठी के साहित्य रसिक भाई हेमंत बावनकर जी से मेरा आत्मीयता का प्रगाढ़ रिश्ता है । याद आता है कि एक आयोजन में वे भी रानी दुर्गावती संग्रहालय के हाल जबलपुर में वे भी उपस्थित थे , और मैं भी पिताजी के साथ वहीं था । जैसे ही आयोजन पूर्ण हुआ वे हमारे पास आये और पिताजी को पहचान गए । दरअसल मेरे पिताश्री प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव जी केंद्रीय विद्यालय जबलपुर के संस्थापक प्राचार्य हैं , और हेमंत जी उनके विद्यार्थी थे । यह भावना भरी भेंट थी गुरु शिष्य की ।

फिर एक दिन हेमंत जी हमारे घर पधारे ई अभिव्यक्ति को लेकर विशद चर्चाएं हुई । पिताजी की भगवत गीता के श्लोक व अनुवाद को क्रमशः प्रतिदिन प्रस्तुत करने की योजना से हम इस शुद्ध साहित्यिक पोर्टल से जुड़े । फिर स्तम्भ के रूप में मेरी पुस्तक चर्चा, व्यंग्य भी पाठकों द्वारा पसन्द किया जाने लगा । धीरे धीरे हिट्स बढ़ते गए । हेमंत भाई को सबसे बड़े उम्र के सोलो पोर्टल डिजाइनर के रूप में बुक ऑफ रिकार्ड्स के द्वारा सम्मानित किया गया । हम प्रायः पोर्टल के विकास हेतु चर्चा करते रहते । प्रतिदिन प्रातः उठते साथ चुनिंदा पोस्ट का 2014 से चल रहे साहित्यम व्हाट्सएप ग्रुप में इंतजार रहता, मित्रो में ई अभिव्यक्ति चर्चा का केंद्र बनता गया ।

हेमंत जी ने मुझे संपादक मण्डल में शामिल कर लिया । एकता व शक्ति ग्रुप के आयोजनों में पोर्टल सहभागी बना । नए नए पाठक पोर्टल से जुड़ते जा रहे हैं । हेमंत भाई समर्पित सारस्वत साधना में लगे हुए हैं , मुझे प्रसन्नता है कि मैं इसका छोटा सा हिस्सा बन सका ।

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

हम सब के लिये यह एक आनंददायी वार्ता है/ हम आप से सिर्फ दो महीनोंसे जुडे हुए है/ लेकिन आप तो दो साल से यह अक्षरपालखी उठा रहे है/ इसलिए यह आपके योगदान का फलित है/यह हमारा सौभाग्य है की हम इस कार्य मे अल्प सा हाथ बटा सके/
हम इस अंक मे भिन्न भिन्न प्रकार मे साहित्य उपलब्ध कर रहे हैं/ हो सकता है कि इसी कारण लोकप्रियता बढ रही हैं/ क्योंकि विभिन्न वाचक वर्ग अपनी अपनी पसंद का पढ रहा है/अपनी नयी उपक्रमशीलता हमारा वाचकवर्ग और बढा देगी यह आशा और विश्वास है /

श्री आशीष कुमार

हेमंत सर के विषय में शब्दों में लिखना बहुत ही मुश्किल है उन्होंने e-अभिव्यक्ति के माध्यम से मेरे जैसे कितने ही मंच वहीन और हीन सामान्य व्यक्तियों को एक ऐसा माध्यम प्रदान किया है जो किसी संजीवनी से कम नही। मैंने अपनी पूरी जिंदगी में उनके जैसे सहज व्यक्तित्व को विरला ही पाया है। वो एक गुरु की तरह समय समय पर मुझे स्मरण कराते है की आप अपना कोई अन्य लेख प्रकाशित करने के लिए दे सकते है । उनकी सरलता तो देखिए एक बार उनके और मेरे बीच किसी एक विषय को लेकर वार्तलाप चल रहा था वो एक ऐसा विषय था जिसके संदर्भ में मेरा ज्ञान अल्प था किन्तु हेमंत सर को पूर्ण ज्ञान थ। फिर भी मैं उन्हे उस विषय में बता रहा था और वो बहुत आराम से सुन रहे थे। मुझे बाद में ज्ञात हुआ की हेमंत सर तो उस विषय में पूर्णता पाए हुए है।

उम्र के इस पड़ाव पर भी हर सुबह गर्मी, सर्दी , बरसात आदि मौसमो में बिना किसी रुकवाट के निरंतर हमारे शब्दों को जीवन देना वे सच में हमारा प्रेरणा स्रोत है। ईश्वर से आपके स्वास्थ्य की कामना करते हुए आपको बधाई देता हूँ ।

……….. और सतत शुभकामनाओं और बधाइयों का तांता लगा है।

मैं अभिभूत हूँ आपके अथाह प्रेम, स्नेह और ई-अभिव्यक्ति को इतना प्रतिसाद देने के लिए। ईश्वर की अनुकम्पा और आपका स्नेह ऐसा ही यथावत रहे।

इसी कामना के साथ।

पुनः विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं ? 

आपका अपना ही

हेमन्त बावनकर 

25 अक्टूबर 2020

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ जन्मदिवस विशेष ☆ सन्दर्भ – अभिव्यक्ति ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं।

? सर्वप्रथम गुरुवर डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी को आज उनके जन्मदिवस पर हार्दिक बधाई ?

 ✍ ☆ जन्मदिवस विशेष ☆ सन्दर्भ – अभिव्यक्ति  ✍

(आज से 2 वर्ष पूर्व आपके आशीष स्वरूप इस कविता से ई-अभिव्यक्ति का शुभारम्भ किया था। यह मेरे लिए गुरमन्त्र है एवं समय-समय पर मुझे मेरा दायित्व  बोध कराती रहती है। )

संकेतों के सेतु पर

साधे काम तुरंत |

दीर्घवयी हो जयी हो

कर्मठ प्रिय हेमंत

काम तुम्हारा कठिन है

बहुत कठिन अभिव्यक्ति

बंद तिजोरी सा यहां

दिखता है हर व्यक्ति

मनोवृति हो निर्मला

प्रकटें निर्मल भाव

यदि शब्दों का असंयम

हो विपरीत प्रभाव ||

सजग नागरिक की तरह

जाहिर हो अभिव्यक्ति

सर्वोपरि है देशहित

बड़ा न कोई व्यक्ति||

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈     

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 70 ☆ व्यंग्य – साहित्यिक किसिम के दोस्त ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है एक  अतिसुन्दर व्यंग्य रचना  ‘साहित्यिक किसिम के दोस्त’।  इस सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 70 ☆

☆ व्यंग्य – साहित्यिक किसिम के दोस्त

सबेरे सात बजे फोन घर्राता है। आधी नींद में उठाता हूँ।

‘हेलो।’

‘हेलो नमस्कार। पहचाना?’

‘नहीं पहचाना।’

‘हाँ भई, आप भला क्यों पहचानोगे! एक हमीं हैं जो सबेरे सबेरे भगवान की जगह आपका नाम रट रहे हैं।’

‘हें, हें, माफ करें। कृपया इस मधुर वाणी के धारक का नाम बताएं।’

‘मैं धूमकेतु, दिल्ली का छोटा सा कवि। अब याद आया? सन पाँच में लखनऊ के सम्मेलन में मिले थे।’

याद तो नहीं आया,लेकिन शिष्टतावश वाणी में उत्साह भरकर बोला,’अरे, आप हैं? खू़ब याद आया। वाह वाह। कहाँ से बोल रहे हैं?’

‘यहीं ठेठ आपकी नगरी से बोल रहा हूँ।’

‘कैसे पधारना हुआ?’

‘विश्वविद्यालय ने बुलाया था एक कार्यशाला में।’

‘वाह! मेरा फोन नंबर कहाँ से मिला?’

‘अब यह सब छोड़िए। जहाँ चाह वहाँ राह। हमें आपसे मुहब्बत है, इसीलिए हमने हाथ-पाँव मारकर प्राप्त कर लिया।’

‘वाह वाह! क्या बात है!तो फिर?’

‘तो फिर, भई, यहाँ तक आकर आपसे मिले बिना थोड़इ जाएंगे। आपके लिए पलकें बिछाये बैठे हैं।’

मुझे खाँसी आ गयी। गला साफ करके बोला,’कहाँ रुके हैं?’

‘यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में। कमरा नंबर 15 ।’

‘ठीक है। मैं आता हूँ।’

‘ऐसा करें। शाम को कहीं बैठ लेते हैं। शहर के चार छः साहित्यिक मित्रों को बुला लें। परिचय हो जाएगा और चर्चा भी हो जाएगी। एक दो पत्रकारों को भी बुला लें तो और बढ़िया। आकाशवाणी वाले आ जाएं तो सोने में सुहागा। इतनी व्यवस्था कर लें तो मेरा आपके नगर में आना सार्थक हो जाए। मैं शाम छः बजे के बाद आपका इंतजार करूँगा। जैसे ही आप आएंगे, मैं चल पड़ूँगा।’

मैं चिन्ता में पड़ गया। कहा,’ठीक है, मैं कोशिश करता हूँ।’

‘अजी, कोशिश क्या करना! आप फोन कर देंगे तो शहर के सारे साहित्यकार दौड़े आएंगे। आपकी कूवत को जैसे मैं जानता नहीं। आप के लिए क्या मुश्किल है? तो फिर मैं शाम को आपका इंतजार करूँगा।’

‘ठीक है।’

मैंने फोन रखकर पहले अपने संकोची स्वभाव को जी भरकर कोसा, फिर अपने दिमाग़ को दबा दबा कर उसमें से धूमकेतु जी को पैदा करने की कोशिश में लग गया। बड़ी जद्दोजहद के बाद एक झोलाधारी कवि की याद आयी जो लखनऊ सम्मेलन में सब तरफ घूमते और खास लोगों को अपना कविता-संग्रह बाँटते दिखते थे। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो भारी से भारी सम्मेलन में भी अपने तक ही कैद रहते हैं—अपनी चर्चा, अपनी प्रशंसा, अपनी कविता। धूमकेतु जी भी पूरी तरह आत्मप्रचार में लगे थे। तभी उनसे संक्षिप्त परिचय हुआ था। फिर दिल्ली के अखबारों में कभी कभी उनकी कविताएँ देखी थीं।

मैं फँस गया था। आयोजन-अभिनन्दन के मामले में मैं बिलकुल फिसड्डी हूँ और शायद इसीलिए अब तक लोगों ने मुझे अभिनन्दन के लायक नहीं समझा।

लेकिन साहित्य के क्षेत्र में संभावनाओं की कमी नहीं है। बहुत से साहित्यकर्मी चन्दन-अभिनन्दन को ही असली साहित्य समझते हैं। इसलिए मैंने एक स्थानीय स्तर के साहित्यकार ज्ञानेन्द्र को इन्तज़ाम का सारा भार सौंप दिया और उन्होंने सहर्ष कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार भी कर लिया। उन्होंने एक सांध्यकालीन अखबार के प्रतिनिधि को भी खानापूरी के लिए पकड़ लिया। मैं निश्चिंत हुआ।

शाम को धूमकेतु जी की सेवा में उपस्थित हुआ तो उन्होंने दोनों बाँहें फैलाकर मुझे भींच लिया। फिर अपना बाहुपाश ढीला करके बोले, ’हमारे प्यार की कशिश देखी? हमने आपको ढूँढ़ ही निकाला। वो जो चाहनेवाले हैं तेरे सनम, तुझे ढूँढ़ ही लेंगे कहीं न कहीं।’

हमने उनके मुहब्बत के जज़्बे की दाद दी, फिर उन्हें कार्यक्रम की तैयारी की रिपोर्ट दी। वे प्रसन्न हुए, बोले, ’स्थानीय लोगों से मेल-मुलाकात न हो तो कहीं जाने का क्या फायदा?’

मैं उन्हें स्कूटर पर लेकर रवाना हुआ। कार्यक्रम-स्थल पर आठ दस भले लोग आ गये थे। हर शहर में कुछ ऐसे लोग होते हैं जो हर साहित्यिक कार्यक्रम की शोभा होते हैं। कार्यक्रम के आयोजक उन्हें याद करना कभी नहीं भूलते। वे हर कार्यक्रम को संभालने वाले स्तंभ होते हैं। उड़ती हुई सूचना भी उनके लिए पर्याप्त होती है। ऐसे ही तीन चार रत्न इस कार्यक्रम में भी डट गये थे।

कार्यक्रम बढ़िया संपन्न हुआ। ज्ञानेन्द्र ने धूमकेतु जी को कोने में ले जाकर उनका बायोडाटा लिख लिया था। धूमकेतु जी ने मुहल्ला-स्तर से लेकर अपनी सारी उपलब्धियों का विस्तृत ब्यौरा लिखा दिया था। उनको गुलदस्ता भेंट करने के बाद उनका परिचय हुआ और फिर आज की कविता पर उनका वक्तव्य हुआ। फिर जनता की फरमाइश पर उन्होंने अपनी पाँच छः कविताएं सुनायीं जिन पर हमने शिष्टतावश भरपूर दाद दी। फिर कुछ श्रोताओं ने हस्बमामूल उनके कृतित्व के बारे में कुछ सवाल पूछे और इस तरह कार्यक्रम  सफलतापूर्वक मुकम्मल हो गया। धूमकेतु जी गदगद थे। विदा होते वक्त एक बार फिर मुझे भींचकर उन्होंने इज़हारे-मुहब्बत किया। जाते वक्त हाथ हिलाकर बोले, ’स्नेह-भाव बनाये रखिएगा।’

पाँच छः माह बाद दिल्ली जाने का सुयोग बना। पहुँचकर मैंने उमंग से धूमकेतु जी को फोन लगाया। उधर से उनकी आवाज़ आयी,’हेलो।’

मैंने कहा,’मैं सूर्यकान्त। जबलपुर वाला।’

वे स्वर में प्रसन्नता भर कर बोले,’अच्छा,अच्छा। कहाँ से बोल रहे हैं?’

मैंने कहा, ’दिल्ली से ही। काम से आया था।’

वे बोले, ’वाह! बहुत बढ़िया! तो कब मिल रहे हैं?’

मैंने कहा, ’जब आप कहें। मैंने तो पहुँचते ही आपको फोन लगाया।’

वे जैसे कुछ उधेड़बुन में लग गये। थोड़ा रुककर बोले,’अभी तो मैं थोड़ा काम से निकल रहा हूँ। आप शाम चार बजे फोन लगाएं। मैं आपको बता दूँगा।’

मेरा उत्साह कुछ फीका पड़ गया। चार बजे फिर फोन लगाया। उधर से धूमकेतु जी की आवाज़ आयी,’हेलो।’

मैंने कहा,’मैं सूर्यकान्त।’

आवाज़ बोली, ’मैं धूमकेतु जी का बेटा बोल रहा हूँ। पिताजी एक साहित्यिक कार्य से अचानक बाहर चले गये हैं।’

मैंने कहा,’लेकिन यह आवाज़ तो धूमकेतु जी की है।’

जवाब मिला,’धूमकेतु जी की नहीं, धूमकेतु जी जैसी है। हम पिता पुत्र की आवाज़ एक जैसी है। कई लोग धोखा खा जाते हैं।’

मैंने पूछा,’कब तक लौटेंगे?

आवाज़ ने पूछा,’आप कब तक रुकेंगे?’

मैंने कहा,’मैं परसों वापस जाऊँगा।’

आवाज़ ने कहा,’वे परसों के बाद ही आ पाएंगे। प्रणाम।’

उधर से फोन रख दिया गया। मैं खासा मायूस हुआ।

जबलपुर वापस पहुँचा कि दूसरे ही दिन धूमकेतु जी का फोन आ गया—‘क्यों भाई साहब! दिल्ली आये और बिना मिले लौट गये? ऐसी भी क्या बेरुखी।’

मैंने कहा,’आपसे मिलना भाग्य में नहीं था, इसीलिए तो आप बाहर चले गये थे।’

वे बोले,’चले गये थे तो आप एकाध दिन हमारी खातिर रुक नहीं सकते थे? कैसी मुहब्बत है आपकी?’

मैंने कहा,’हाँ, लगता है हमारी मुहब्बत में कुछ खोट है।’

वे दुखी स्वर में बोले,’हमने सोचा था कि आपके सम्मान में छोटी मोटी गोष्ठी कर लेते। कुछ आपकी सुनते, कुछ अपनी सुनाते।’

मैंने कहा,’क्या बताऊँ! मुझे खुद अफसोस है।’

वे बोले,’खैर छोड़िए। वादा कीजिए कि अगली बार दिल्ली आएंगे तो मिले बिना वापस नहीं जाएंगे।’

मैंने कहा,’पक्का वादा है,भाई साहब। आपसे मिले बिना नहीं लौटूँगा। आप दुखी न हों।

वे बोले,’चलिए ठीक है। स्नेह बनाये रखें।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 67 ☆ देहरी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – देहरी

पुनर्पाठ-

घर की देहरी पर खड़े होकर बात करना महिलाओं का प्रिय शगल है। कभी आपने ध्यान दिया कि इस दौरान अधिकांश मामलों में संबंधित महिला का एक पैर देहरी के भीतर होता है, दूसरा आधा देहरी पर, आधा बाहर। अपनी दुनिया के विस्तार की इच्छा को दर्शाता चौखट से बाहर का रुख करता पैर और घर पर अपने आधिपत्य की सतत पुष्टि करता चौखट के अंदर ठहरा पैर। मनोविज्ञान में रुचि रखनेवालों के लिए यह गहन अध्ययन का विषय हो सकता है।

अलबत्ता वे चौखट का सहारा लेकर या उस पर हाथ टिकाकर खड़ी होती हैं। फ्रायड कहता है कि जो मन में, उसीकी प्रतीति जीवन में। एक पक्ष हो सकता है कि घर की चौखट से बँधा होना उनकी रुचि या नियति है तो दूसरा पक्ष है कि चौखट का अस्तित्व उनसे ही है।

इस आँखों दिखती ऊहापोह को नश्वर और ईश्वर तक ले जाएँ। हम पार्थिव हैं पर अमरत्व की चाह भी रखते हैं। ‘पुनर्जन्म न भवेत्’ का उद्घोष कर मृत्यु के बाद भी मर्त्यलोक में दोबारा और प्रायः दोबारा कहते-कहते कम से कम चौरासी लाख बार लौटना चाहते हैं।

स्त्रियों ने तमाम विसंगत स्थितियों, विरोध और हिंसा के बीच अपनी जगह बनाते हुए मनुष्य जाति को नये मार्गों से परिचित कराया है। नश्वर और ईश्वर के द्वंद्व से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें पहल करनी चाहिए। इस पहल पर उनका अधिकार इसलिए भी बनता है क्योंकि वे जननी अर्थात स्रष्टा हैं। स्रष्टा होने के कारण स्थूल में सूक्ष्म के प्रकटन की अनुभूति और प्रक्रिया से भली भाँति परिचित हैं। नये मार्ग की तलाश में खड़ी मनुष्यता का सारथ्य महिलाओं को मिलेगा तो यकीन मानिए, मार्ग भी सधेगा।

 

© संजय भारद्वाज

(लेखन-10.10.2018)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – लघुकथा ☆ विजयादशमी पर्व विशेष ☆ रावण दहन ☆ श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास। आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  का विजयादशमी पर्व पर एक विशेष लघुकथा  ” रावण दहन “। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन । 

विजयादशमी पर्व विशेष ☆ रावण दहन ☆

दशहरे के दूसरे दिन सुबह चाय की चुस्कियों के साथ रामनाथ जी ने अखबार खोल कर पढना आरंभ किया। दूसरे ही पृष्ठ  पर एक बडे शहर में कुछ व्यक्तियों के द्वारा एक अवयस्क लडकी के  सामूहिक शीलहरण का समाचार बडे से शीर्षक  के साथ दिखाई दिया। पूरा पढने के बाद उनका मन जाने कैसा हो आया। दृष्टि  हटाकर आगे के पृष्ठ  पलटे तो एक  पृष्ठ पर समाचार छपा दिखा – नन्हीं नातिन के साथ नाना ने धर्म की शिक्षा देने के बहाने शारीरिक हमला किया, गुस्से के मारे वह पृष्ठ बदला ही था कि चौथे पन्ने पर बाॅक्स में समाचार छपा था – एक बडे नेता को लडकियों की तस्करी के आरोप में पुलिस ने दबोचा। वाह रे भारतवर्ष !! कहते हुये वे अगले पृष्ठ को पढ रहे थे कि रंगीन फोटो सहित समाचार सामने पड़ गया – मुंबई पुलिस ने छापा मार कर फिल्म जगत की बडी हस्तियों को गहरे नशे  की हालत में अशालीन अवस्था में गिरफ्तार किया- हे राम, हे राम कहकर आगे नजर दौडाई कि स्थानीय जिले का समाचार दिखाई दिया, नगर में एक बूढे दंपति को पैसों के लिये नौकर ने मार दिया और नगदी लेकर भाग गया। यह पढकर वे कुछ देर डरे रहे फिर लंबी सांस भर कर अखबार में नजर गड़ा दी। सातवें पृष्ठ का समाचार पढ कर उन्हें अपने युवा पोते का स्मरण हो आया, लिखा था- राजधानी में चंद पैसों और मौज-मस्ती के लिये युवा छात्र चेन झपटने, और मोटरसायकिल चोरी के आरोप में पुलिस द्वारा पकडे गये । इन युवाओं के आतंक की गतिविधियों में जुडे होने का संदेह भी व्यक्त किया गया था।

अंतिम पृष्ठ पर दशहरे पर रावण दहन की अनेक तस्वीरें छपी थीं जिन्हें देखकर रामनाथ सोचने लगे कि कल हमने किसे जलाया ????

©  सदानंद आंबेकर

शान्ति कुञ्ज, हरिद्वार (उत्तराखंड)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विजयादशमी पर्व विशेष ☆ त्यौहार दशहरा ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज  विजयादशमी पर्व पर प्रस्तुत है श्री विजय कुमार जी, सह-संपादक शुभ तारिका  का आलेख  “बुराई पर अच्छाई का प्रतीक दशहरा महोत्सव ”)

☆ विजयादशमी पर्व विशेष –  बुराई पर अच्छाई का प्रतीक दशहरा महोत्सव ☆ 

हरियाणा में जलता है सबसे ऊंचा रावण

विश्व के सबसे ऊंचे रावण के पुतले के निर्माण के लिए पूरे विश्व में हरियाणा के अम्बाला जिला का बराड़ा कस्बा चर्चित रहा है। विश्व के सबसे ऊंचे रावण का पुतला दहन का प्रसारण वैसे तो राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मीडिया द्वारा प्रत्येक वर्ष किया जाता है। इस अवसर पर कार्यक्रमों का सीधा प्रसारण करने हेतु कई टेलीविजन चैनल्स की ओ बी वैन भी आयोजन स्थल पर आती हैं।

श्री रामलीला क्लब, बराड़ा (जिला अम्बाला) के संस्थापक अध्यक्ष श्री राणा तेजिन्द्र सिंह चैहान द्वारा विश्व का सबसे ऊंचा रावण बनाने का निरंतर कीर्तिमान स्थापित किया जा रहा है। इस उपलब्धि का सम्मान करते हुए भारत की एकमात्र सर्वप्रतिष्ठित कीर्तिमान संकलन पुस्तक ‘लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्ड’ के (2011 से 2017 तक) छह वार्षिक संकलनों में बराड़ा (हरियाणा) में निर्मित होने वाले विश्व के सबसे ऊंचे रावण के पुतले को सम्मानपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। भारत के इतिहास में निर्मित होने वाला अब तक का यह सबसे पहला व अद्भुत रावण का पुतला है जिसने किसी प्रतिष्ठित राष्ट्रीय स्तर की कीर्तिमान पुस्तक में छह बार अपने नाम का उल्लेख कराया हो। बराड़ा के सबसे ऊंचे रावण के पुतले को छह बार लिम्का बुक आॅफ रिकार्ड में स्थान प्राप्त होना वास्तव हरियाणावासियों के लिए गर्व का विषय है। इस उपलब्धि का श्रेय क्लब के सभी सदस्यों को, खासतौर पर क्लब के संस्थापक अध्यक्ष श्री राणा तेजिंद्र सिंह चैहान एवं उनके निर्देशन में काम करने वाले लगभग सौ मेहनतकश सदस्यों को जाता है।

श्री चैहान ने बताया कि उनके सहयोगी और वे हर वर्ष अपै्रल-मई माह से ही रावण बनाने का कार्य आरंभ कर देते हैं। अथक परिश्रम के बाद इसे दशहरे से दो-तीन दिन पूर्व दशहरा ग्राउंड में दर्शकों के देखने के लिये खड़ा कर दिया जाता है।

राणा तेजिन्द्र सिंह चैहान के अनुसार विश्व कीर्तिमान स्थापित करने वाले इस रावण के निर्माण का मकसद समाज में फैली सभी बुराइयों को अहंकारी रावण रूपी पुतले में समाहित करना है। पुतले की 210 फुट की ऊंचाई सामाजिक बुराइयों एवं कुरीतियों जैसे अहंकार, आतंकवाद, कन्या भू्रण हत्या, साम्प्रदायिकता, भ्रष्टाचार, बढ़ती जनसंख्या, दहेजप्रथा तथा जातिवाद आदि का प्रतीक है। रावण दहन के समय आतिशबाजी का भी एक उच्चस्तरीय आयोजन किया जाता है।

विजयदशमी के दिन दशहरा ग्राउंड में प्रत्येक वर्ष लाखों लोगों की उपस्थिति में रिमोट कंट्रोल का बटन दबाकर विश्व कीर्तिमान स्थापित करने वाले इस विश्व के सबसे ऊंचे रावण के पुतले को अग्नि को समर्पित किया जाता रहा है।

श्रीरामलीला क्लब, बराड़ा विश्वस्तरीय ख्याति अर्जित कर चुका है। सामाजिक बुराइयों के प्रतीक विश्व के सबसे ऊंचे रावण के पुतले का निर्माण किए जाने का कीर्तिमान इस क्लब ने स्थापित किया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सहयोगियों व शुभचिंतकों के समर्थन व सहयोग के बिना किसी भी संस्था का शोहरत की बुलंदी पर पहुंचना संभव नहीं होता।

रावण को प्रकांड पंडित वरदानी राक्षस कहा जाता था। लेकिन कैसे वो, जिसके बल से त्रिलोक थर-थर कांपते थे, एक स्त्री के कारण समूल मारा गया? वो भी वानरों की सेना लिये एक मनुष्य से। इन बातों पर गौर करें तो ये मानना तर्क से परे होगा। लेकिन रावण के जीवन के कुछ ऐसे रहस्य हैं, जिनसे कम ही लोग परिचित होंगे। पुराणों के अनुसार  –

कैसे हुआ रावण का जन्म?

रावण एक ऐसा योग है जिसके बल से सारा ब्रह्माण्ड कांपता था। लेकिन क्या आप जानते हैं कि वो रावण जिसे राक्षसों का राजा कहा जाता था वो किस कुल की संतान था। रावण के जन्म के पीछे के क्या रहस्य हैं? इस तथ्य को शायद बहुत कम लोग जानते होंगे। रावण के पिता विश्वेश्रवा महान ज्ञानी ऋषि पुलस्त्य के पुत्र थे। विश्वेश्रवा भी महान ज्ञानी सन्त थे। ये उस समय की बात है जब देवासुर संग्राम में पराजित होने के बाद सुमाली माल्यवान जैसे राक्षस भगवान विष्णु के भय से रसातल में जा छुपे थे। वर्षों बीत गये लेकिन राक्षसों को देवताओं से जीतने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। एक दिन सुमाली अपनी पुत्री कैकसी के साथ रसातल से बाहर आया, तभी उसने विश्वेश्रवा के पुत्र कुबेर को अपने पिता के पास जाते देखा। सुमाली कुबेर के भय से वापस रसातल में चला आया, लेकिन अब उसे रसातल से बाहर आने का मार्ग मिल चुका था। सुमाली ने अपनी पुत्री कैकसी से कहा कि पुत्री वह उसके लिए सुयोग्य वर की तलाश नहीं कर सकता इसलिये उसे स्वयं ऋषि विश्वेश्रवा के पास जाना होगा और उनसे विवाह का प्रस्ताव रखना होगा। पिता की आज्ञा के अनुसार कैकसी ऋषि विश्वेश्रवा के आश्रम में पहुंच गई। ऋषि उस समय अपनी संध्या वंदन में लीन थे। आंखें खोलते ही दृष्टि ने अपने सामने उस सुंदर युवती को देखकर कहा कि वे जानते हैं कि उसके आने का क्या प्रयोजन है? लेकिन वो जिस समय उनके पास आई है वो बेहद दारुण वेला है जिसके कारण ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होने के बाद भी उनका पुत्र राक्षसी प्रवृत्ति का होगा। इसके अलावा वे कुछ नहीं कर सकते। कुछ समय पश्चात् कैकसी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसके दस सिर थे। ऋषि ने दस शीश होने के कारण इस पुत्र का नाम दसग्रीव रखा। इसके बाद कुंभकर्ण का जन्म हुआ जिसका शरीर इतना विशाल था कि संसार में कोई भी उसके समकक्ष नहीं था। कुंभकर्ण के बाद पुत्री सूर्पणखा और फिर विभीषण का जन्म हुआ। इस तरह दसग्रीव और उसके दोनों भाई और बहन का जन्म हुआ।

रावण ने क्यों की ब्रह्मा की तपस्या?

ऋषि विश्वेश्रवा ने रावण को धर्म और पांडित्य की शिक्षा दी। दसग्रीव इतना ज्ञानी बना कि उसके ज्ञान का पूरे ब्रह्माण्ड में कोई सानी नहीं था। लेकिन दसग्रीव और कुंभकर्ण जैसे जैसे बड़े हुए उनके अत्याचार बढ़ने लगे। एक दिन कुबेर अपने पिता ऋषि विश्वेश्रवा से मिलने आश्रम पहुंचे तब कैकसी ने कुबेर के वैभव को देखकर अपने पुत्रों से कहा कि तुम्हें भी अपने भाई के समान वैभवशाली बनना चाहिए। इसके लिए तुम भगवान ब्रह्मा की तपस्या करो। माता की आज्ञा मान तीनों पुत्र भगवान ब्रह्मा के तप के लिए निकल गए। विभीषण पहले से ही धर्मात्मा थे। उन्होंने पांच हजार वर्ष एक पैर पर खड़े होकर कठोर तप करके देवताओं से आशीर्वाद प्राप्त किया। इसके बाद पांच हजार वर्ष अपना मस्तक और हाथ ऊपर रखकर तप किया जिससे भगवान ब्रह्मा प्रसन्न हुए और विभीषण ने भगवान से असीम भक्ति का वर मांगा।

क्यों सोता रहा कुंभकर्ण?

कुंभकर्ण ने अपनी इंद्रियों को वश में रखकर दस हजार वर्षों तक कठोर तप किया। उसके कठोर तप से भयभीत होकर देवताओं ने देवी सरस्वती से प्रार्थना की। तब भगवान से वर मांगते समय देवी सरस्वती कुंभकर्ण की जिह्ना पर विराजमान हो गईं और कुंभकर्ण ने इंद्रासन की जगह निंद्रासन मांग लिया।

रावण ने किससे छीनी लंका?

दसग्रीव अपने भाइयों से भी अधिक कठोर तप में लीन था। वो प्रत्येक हजारवें वर्ष में अपना एक शीश भगवान के चरणों में समर्पित कर देता। इस तरह उसने भी दस हजार साल में अपने दसों शीश भगवान को समर्पित कर दिये। उसके तप से प्रसन्न हो भगवान ने उसे वर मांगने को कहा तब दसग्रीव ने कहा कि देव दानव गंधर्व किन्नर कोई भी उसका वध न कर सकें। वो मनुष्यों और जानवरों को कीड़ों की भांति तुच्छ समझता था। इसलिये वरदान में उसने इनको छोड़ दिया। यही कारण था कि भगवान विष्णु को उसके वध के लिए मनुष्य अवतार में आना पड़ा। दसग्रीव स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने लगा था। रसातल में छिपे राक्षस भी बाहर आ गये। राक्षसों का आतंक बढ़ गया। राक्षसों के कहने पर लंका के राजा कुबेर से लंका और पुष्पक विमान छीनकर स्वयं बन गया लंका का राजा।

कैसे हुआ रावण का वध?

मां दुर्गा के प्रथम रूप शैलपुत्री की पूजा के साथ नवरात्र के नौ दिनों में मां दुर्गा के साथ ही साथ भगवान राम का भी ध्यान पूजन किया जाता है। क्योंकि इन्हीं नौ दिनों में भगवान राम ने रावण के साथ युद्ध करके दशहरे के दिन रावण का वध किया था जिसे ‘अधर्म पर धर्म की विजय’ के रूप में जाना जाता है।

भगवान राम का जन्म लेना और रावण का वध करना यह कोई सामान्य घटना नहीं है। इसके पीछे कई कारण थे जिसकी वजह से विष्णु को राम अवतार लेना पड़ा।

अपनी मौत का कारण सीता को जानता हुआ भी रावण सीता का हरण कर लंका ले गया। असल में यह सब एक अभिशाप के कारण हुआ था।

यह अभिशाप रावण को भगवान राम के एक पूर्वज ने दिया था। इस संदर्भ में एक कथा है कि बल के अहंकार में रावण अनेक राजा-महाराजाओं को पराजित करता हुआ इक्ष्वाकु वंश के राजा अनरण्य के पास पहुंचा। राजा अनरण्य और रावण के बीच भीषण युद्ध हुआ। ब्रह्मा जी के वरदान के कारण अनरण्य रावण के हाथों पराजित हुआ। रावण राजा अनरण्य का अपमान करने लगा।

अपने अपमान से क्रोधित होकर राजा अनरण्य ने रावण को अभिशाप दिया कि तूने महात्मा इक्ष्वाकु के वंशजों का अपमान किया है इसलिए मेरा शाप है कि इक्ष्वाकु वंश के राजा दशरथ के पुत्र राम के हाथों तुम्हारा वध होगा।

ईश्वर विधान के अनुसार भगवान विष्णु ने राम रूप में अवतार लेकर इस अभिशाप को फलीभूत किया और रावण राम के हाथों मारा गया।

 

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

ई मेल- [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ विजयादशमी पर्व विशेष ☆ त्यौहार दशहरा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’विजयादशमी पर्व पर आज प्रस्तुत है आपकी एक कविता  “त्यौहार दशहरा.)

☆ विजयादशमी पर्व विशेष –  त्यौहार दशहरा ☆ 

राम चरित की शक्ति  है

त्योहार दशहरा

धर्म विजय की अमरबेल

त्योहार दशहरा।।

 

दुष्टों के संहार हेतु ही

शस्त्र उठाने पड़ते हैं

हर युग में ही राम

शत्रु से लड़ते हैं।।

 

पुण्य पावनी धरती पर

सत्य सदा ही जीतेगा

युगों-युगों से काल चक्र

इस तरह सदा ही बीतेगा।।

 

सन्देश सदा ये देता आया

शत्रु स्वयं के पहचानो

अहम, क्रोध,लोभ, घृणा को

जितना हो जल्दी जानो।।

 

सबको ही सत प्रेम बाँटकर

हर अच्छाई को ठानो

मन पापों से मुक्त रहेगा

राम-कृष्ण को ही मानो।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 26 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 26 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 26) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 26☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मेरी ना सही, तो ना सही

तो आपकी  होनी चाहिए,

तमन्ना किसी एक की तो

जरूर पूरी होनी चाहिए…

 

No problem, if not mine, then

Your wish should be met,

But  the  desire  of atleast

One of us  must  be fulfilled…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

किसी ने मुझसे पूछा कि

दर्द  की  कीमत क्या है?

मैंने कहा, मुझे नहीं पता…

मुझे तो मुफ्त में ही मिला

बस कुछ लोगों पर हद से

ज्यादा  यकीन  किया था!

 

Someone  asked  me…

what is the cost of pain

I  said, I  don’t  know

since I  got  it  for free

I only believed in  some

people to  the extreme!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

ये  भी कैसा अजब नशा है

किस  गजब ख़ुमार  में हूँ,

तू आ के जा भी चुका है

और मैं तेरे इंतज़ार में हूँ…

 

What type of strange

intoxication  is  this

What  an  amazing

hangover  I  am  in…

 

You have come

and  gone  also

And,  I  am  still      

waiting for you…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेरू का मकबरा भाग-2 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित कहानी  “शेरू का मकबरा भाग-1”. इस कृति को अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य प्रतियोगिता, पुष्पगंधा प्रकाशन,  कवर्धा छत्तीसगढ़ द्वारा जनवरी 2020मे स्व0 संतोष गुप्त स्मृति सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया है। इसके लिए श्री सूबेदार पाण्डेय जी को हार्दिक बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – शेरू का मकबरा भाग-2 – 

शेरू का प्यार—–
आपने पढ़ा कि शेरू मेरे परिवार में ही पल कर जवान हुआ घर के सदस्य ‌की तरह ही परिवार में घुल मिल गया था।अब पढ़ें——-

बच्चे जब उसका नाम लें बुलाते वह कहीं होता दौड़ लगाता चला आता और वहीं कहीं बैठ कर अगले पंजों के बीच सिर सटाये टुकुर टुकुर निहारा करता। बीतते समयांतराल के बाद शेरू नौजवान हो गया, उसके मांसल शरीर पर चिकने भूरे बालों वाली त्वचा, पतली कमर, चौड़ा सीना‌ ऐठी पूंछ लंबे पांव उसके ताकत तथा वफादारी की कहानीं बयां करते। उसका चाल-ढाल रूप-रंग देख लगता जैसे कोई फिल्मी पोस्टर फाड़ कोई बाहुबली हीरो निकल पड़ा हो। उसे दिन के समय जंजीर में बांध कर रखा जानें लगा था, क्यों कि वह अपरिचितों को देख आक्रामक‌ हो जाता और जब  मुझ से मिलने वाले कभी‌ हंसी मजाक में भी‌ मुझसे हाथापाई करते तो वह मरने मारने पर उतारू हो जाता तथा अपनी स्वामी भक्ति का अनोखा उदाहरण ‌प्रस्तुत करता। जब कभी ‌मैं शाम को नौकरी से छूट घर आता तो शेरू और मेरे पोते में होड़ लग जाती ‌पहले गोद में चढ़ने की।

वे दोनों ही मुझे कपड़े भी उतारने तक का अवसर देना नहीं चाहते थे। अगर कभी पहले पोते को गोद उठा लेता तो शेरू मेरी गोद में अगले पांव उठाते चढ़ने का असफल प्रयास करता। अगर पहले शेरू को गोद ले लेता तो पोता रूठ कर एड़ियां रगड़ता लेट कर रोने लगता। वे दोनों मेरे प्रेम पर अपना एकाधिकार ‌समझते। कोई भी सीमा का अतिक्रमण बर्दास्त करने के लिए तैयार नहीं।

इन परिस्थितियों में मैं कुर्सी‌ पर बैठ जाता। एक हाथ में पोता तथा दूसरा हाथ शेरू बाबा के सिर पर होता तभी शेरू मेरा पांव चाट अपना प्रेम प्रदर्शित करता। उन परिस्थितियों में मैं उन दोनों का प्यार पा निहाल हो जाता । मेरी खुशियां दुगुनी हो जाती, मेरा दिन भर का तनाव थकान सारी पीड़ा उन दोनों के प्यार में खो जाती। और मै उन मासूमों के साथ खेलता अपने बचपने की यादों में खो जाता,।

अब शेरू जवानी की दहलीज लांघ चुका था वह मुझसे इतना घुल मिल गया था कि मेरी परछाई बन मेरे साथ रहने लगा था। जब मैं पाही पर खेत में होता तो वह मेरे साथ खेतों की रखवाली करता,वह जब नीलगायों के झुण्ड, तथा नँदी परिवारों अथवा अन्य किसी‌ जानवर को देखता तो उसे दौड़ा लेता उन्हे भगा कर ही शांत होता। मुझे आज भी ‌याद है वो दिन जब मैं फिसल कर गिर गया था मेरे दांयें पांव की हड्डी टूट गई थी।  मैं हास्पीटल जा रहा था ईलाज करानें। उस समय शेरू भी चला था मेरे पीछे अपनी स्वामीभक्ति निभाने, लेकिन अपने गांव की सीमा से आगे बढ़ ही नहीं पाया। बल्कि गांव सीमा पर ही अपने बंधु-बांधवों द्वारा घेर लिया गया और अपने बांधवों के झांव झांव कांव कांव से अजिज हताश एवम् उदास मन से वापस हो गया था।

उसे देखनें वालों को ऐसा लगा जैसे उसे अपने कर्त्तव्य विमुख होने का बड़ा क्षोभ हुआ था और उसी व्यथा में उसने  खाना पीना भी छोड़ दिया था। वह उदास उदास घर के किसी कोने में अंधेरे में पड़ा रहता।  उसकी सारी खुशियां कपूर बन कर उड़ गई थी। उस दिन शेरू की उदासी घर वालों को काफी खल रही थी। उसकी स्वामिभक्ति पर मेरी पत्नी की आंखें नम हो आईं थीं।

मेरे घर में शेरू का मान और बढ़ गया था। महीनों बाद मैं शहर से लौटा था। मेरे पांवों पर सफेद प्लास्टर चढ़ा देख शेरू मेरे पास आया मेरे पांवों को सूंघा और मेरी विवशता का एहसास कर वापस उल्टे पांव लौट पड़ा और थोड़ी दूर जा बैठ गया तथा उदास मन से मुझे एक टक निहार रहा था।
उस घड़ी मुझे एहसास हुआ जैसे वह मेरे शीघ्र स्वस्थ्य होने की विधाता से मौन प्रार्थना कर रहा हो। उसकी सारी चंचलता कहीं खो गई थी। ऐसा मे जब मैं सो रहा होता तो वह मेरे सिरहाने बैठा होता। जब किसी चीज के लिए प्रयासरत होता  तो वह चिल्ला चिल्ला आसमान सर पे उठा लेता और लोगों को घर से बाहर आने पर मजबूर कर देता।

आज भी मुझे याद है वह दिन जिस दिन मेरा प्लास्टर कटा था,उस दिन शेरू बड़ा खुश था ऐसा। लगा जैसे सारे ज़माने की खुशियां शेरू को एक साथ मिली हो। वह आकर अपनी पूंछ हिलाता मेरे पैरों से लिपट गया था। जब मैं ने पर्याय से उसका सिर थपथपाया तो उसकी आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े थे और मैं एक जानवर का पर्याय पा उसकी संवेदनशीलता पर रो पड़ा था ।

—– क्रमशः भाग 3

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 26 ☆ नमन मीनाक्षी सुवाचा…. ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  आचार्य जी  की एक रचना  नमन मीनाक्षी सुवाचा….। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 26 ☆ 

नमन मीनाक्षी सुवाचा….☆ 

अरुण अर्णव लाल-नीला

अहम् तज मन रहे ढीला

स्वार्थ करता लाल-पीला

छंद लिखता नयन गीला

संतुलन चाबी, न ताला

बिना पेंदी का पतीला

 

नमन मीनाक्षी सुवाचा

गगन में अरविंद साँचा

मुकुल मन ने कथ्य बाँचा

कर रहा जग तीन-पाँचा

मंजरी सज्जित भुआला

 

पुनीता है शक्ति वर ले

विनीता मति भक्ति वर ले

युक्तिपूर्वक जिंदगी जी

मुक्ति कर कुछ कर्म वर ले

काल का सब जग निवाला

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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