(हम श्रीमती विशाखा मुलमुले जी के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने ई-अभिव्यक्ति के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना पूर्व/पश्चिम. अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 1 – विशाखा की नज़र से ☆
☆ पूर्व/पश्चिम ☆
कितना अंतर है हम दोनों के मध्य
मैं पूर्व तू पश्चिम ,जब मै उदित तू अस्त
पर कभी मेरे द्वारा अर्पित सूर्य को अर्ध्य
अब तेरे सागर में हिलोरे लेता है
तेरे मनचंद्र को प्रभावित करता है
जिस ओंकार स्मरण से
मेरी धरती का मन भर गया
तू उसका अनुसरण करने लगा
ध्यान, योग, वेदों में भ्रमण करने लगा ।
जिस पौरुष को तूने 200 वर्ष तक दमित किया ,
उसकी कई पीढ़ियों को संक्रमित किया ।
अब उसके मानसरोवर में संशय के बत्तखों को स्वतंत्र कर,
तू कैलाश आरोहण करने लगा, परमसत्य खोजने चला ।
अब तू ही कल आकर,
वही ज्ञान पूर्व को बताएगा,
संस्कृत का महत्व जतायेगा ।
फिर हम,
उसी पश्चिम सागर के जल से सूर्य अर्ध्य का दर्प करेंगे,
(प्रस्तुत है सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी प्रवास. सुश्री आरूशी जी के आलेख मानवीय रिश्तों को भावनात्मक रूप से जोड़ते हैं. सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं। यह सत्य है कि अक्सर हम जीवन में कई प्रवास करते हैं. कभी कभी हम थक जाते हैं . हम अर्थात हमारा शरीर या मन. उस थकान का अहसास कभी शरीर तो कभी मन दे देता है. किन्तु, हमारा जीवन भी तो आखिर एक प्रवास ही है न ? इस प्रवास पर सुश्री आरुशी जी का विमर्श अत्यंत सहज किन्तु गंभीर है. सुश्रीआरुशी जी के संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं। उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़ सकेंगे।)
साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #20
☆ प्रवास ☆
प्रवास करून करून थकले बाई, बास आता, कुठ्ठे कुठ्ठे जाणं नको आता…
असं बऱ्याच वेळा होतं, आणि थकलेलं मन किंवा शरीर हा डायलॉग बोलून जातं. कधी कधी हे मनातल्या मनात असतं तर कधी बोलून दाखवलं जातं… मन किंवा शरीर थकत आहे म्हणजे नक्कीच त्यांचा उपयोग केला जात आहे…
जन्म आणि मृत्यू ह्यातील प्रत्येक क्षणाचा प्रवास हा आपल्याला समृद्ध करणारा असतो… फक्त आपण समृद्ध होत आहोत ही जाणीव खूप महत्त्वाची असते… कुठलाही प्रवास काही तरी देऊन जातो आणि जेव्हा काही तरी घेऊन जातो तेव्हा आपलं आयुष्य नक्कीच बदलून जातो… प्रवासात येणारे अनुभव, घालवलेला वेळ, पैसा, बुद्धी, कष्ट ह्याला नक्कीच काही ना काही तरी अर्थ आहे, विनाकारण कोण कशाला ह्या गोष्टी खर्च करेल, हो ना ? ह्या प्रवासातून काही तरी साध्य होणार आहे म्हणून हा सगळा खटाटोप केला जातो… निरर्थक काहीच नाही…
खरंच हा प्रवास करताना किती ऍडजस्टमेंट करायला लागतात नाही, कधी ह्या अडजस्टमेंट्स मान्य असतात, तर कधी नाही. पर्याय नसतो कधी कधी. काही वेळा त्यामुळे चीड चीड होते, पण सकारात्मकता असेल तर हे ही दिवस जातील ह्या प्रमाणे हा प्रवासही सुखाचा होईल ह्यात शंका नाही. त्यात प्रवासातील साथीदार कोण आहेत, त्यांची गरज किंवा आवश्यकता काय आहे, त्यांचे त्या प्रवासातील महत्व काय आहे ह्या गोष्टी खूप घडवून आणतात…
किती ही काही झालं तरी, प्रवासाची दिशा जर ठरलेली नसेल तर सगळंच अवघड होऊन बसेल, हो ना? म्हणजे भरकटलेला प्रवास कदाचित निरर्थक ठरेल, त्याचे परिणामही चांगले नसतील, त्यामुळे सर्व जाणिवा जिवंत ठेवून प्रवासाचा आनंद घेणे कधी ही योग्यच ठरेल… असा प्रवास प्रगल्भतेकडे नेणारा असेल…
हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
षष्ठम अध्याय
( विस्तार से ध्यान योग का विषय )
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।।12।।
उस आसन पर बैठकर मन को कर एकाग्र
आत्म शुद्धि के भाव से ध्यान करे अनिवार्य।।12।।
भावार्थ : उस आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे ।।12।।
There, having made the mind one-pointed, with the actions of the mind and the senses controlled, let him, seated on the seat, practice Yoga for the purification of the self. ।।12।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
We present an English Version of this poem with the title ✍ Dreams ✍published today. We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का कविता संस्कृति का अवसान. डॉ . मुक्ता जी ने इस कविता के माध्यम से आज संस्कृति का अवसान किस तरह हो रहा है ,उस पर अपनी बेबाक राय रखी है. आप स्वयं पढ़ कर आत्म मंथन करें , इससे बेहतर क्या हो सकता है? आदरणीया डॉ मुक्त जी का आभार एवं उनकी कलम को इस पहल के लिए नमन।)
(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti. An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.
We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem ” स्वप्न ” published in today’s ✍ संजय दृष्टि – स्वप्न ✍. We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation. )
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनके स्थायी स्तम्भ “आशीष साहित्य”में उनकी पुस्तक पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है “अद्भुत पराक्रम”।)
देवी सीता ने कहा, “मेरी प्यारी बेटी, पत्नी को केवल अपने पति की नियति का पालन करना चाहिए । एक स्त्री के लिए उसके पिता, उसका बेटा, उसकी माँ, उसकी सखियों, बहन, भाई, एवं स्वयं से बढ़कर भी उसका पति ही है, जो इस संसार में और उसकी आने वाली आगामी जिंदगियों में मोक्ष का उसका एकमात्र साधन है । एक स्त्री के लिए सबसे बड़ी सजावट बाह्य आभूषण नहीं बल्कि उसके पति की खुशी है ।
अपनी बेटी को अपने पति और अपने सास- ससुर को प्यार, सम्मान और स्नेह देने के लिए प्रशिक्षित करना एक माता का परम कर्तव्य है ।
देवी सीता ने आगे कहा, “अब मैं आपको पत्नी के कुछ कर्तव्यों को बताऊँगी जिन्हें हर एक पत्नी को उसकी जाति, संस्कृति, पृष्ठभूमि, देश इत्यादि के बावजूद पालन करना चाहिए । वे निम्नलिखित हैं :
एक अच्छी पत्नी को अपने पति के घर में खुद को स्थायी रूप से स्थापित करना चाहिए ।
पत्नी को अपने पति की देख रेख में ही रहना चाहिए ।
पत्नी को अपने पति के प्रेमपूर्ण दृष्टिकोण की ओर आकर्षित रहना चाहिए और हमेशा अपने पति के प्रति ईमानदार रहना चाहिए ।
पत्नी को अपने पति के घर में इतना प्यार और स्नेह खोजना चाहिए कि उसे अपने माता-पिता के घर को याद ही ना आये ।
पत्नी को अपने पति के प्रति मधुर रूप से आचरण करना चाहिए ।
पत्नी के कुछ अन्य मुख्य गुण :
उसे केवल अपने पति की ओर कामुक होना चाहिए, उसे घर के कामो के प्रति मेहनती होना चाहिए, सर्वोत्तम व्यवहार करना चाहिए, घर को सर्वोत्तम तरीके से बनाए रखने, पति के धन- धान्य को संरक्षित करने और बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए, एवं ज़रूरत वाले लोगों पर पति की कमाई का भाग खर्च करना, घर को बहुत परिपक्व तरीके से बढ़ाने के लिए, पति की कमाई को सावधानी पूर्वक इस्तमाल करना चाहिए । उसे दुःख और क्रोध से प्रभावित नहीं होना चाहिए, हर किसी को अपने अच्छे व्यवहार से खुश रखना चाहिए, उसे हर रोज सूर्योदय से पहले जागना चाहिए एवं कभी भी अपने पति से अलग होने के विषय में नहीं सोचना चाहिए ।
त्रिजटा ने कहा, “माँ मुझे जो आपने अपने ज्ञान का आशीर्वाद दिया है वह अद्भुत है, अब कृपया मुझे पति के कर्तव्यों के विषय में बताएं”
देवी सीता ने कहा, “पुत्री अपने कर्तव्यों को पूर्णतय पालन करने का सबसे अच्छा उपाय यह है की हम दूसरों के कर्तव्यों से अपने कर्तव्यों की तुलना ना करे । मैं मर्यादापुरुषोत्तम भगवान की पत्नी हूँ और मैं केवल अपने पति और उनके परिवार के लिए अपने कर्तव्यों को पूरा करने के विषय में ही सोचती और जानती हूँ लेकिन पुत्री यदि तुम पूछ ही रही हो तो मैं तुमको बता दूँगी, एक बार मेरे पति ने मुझे पति के कर्तव्यों के विषय में समझाया था, वे ये हैं:
पति के प्यारे और प्यारे व्यवहार से पत्नी को उसके प्रति प्यार और स्नेह पैदा करना चाहिए ।
पति को पत्नी से कुछ छिपाना नहीं चाहिए ।
उसे एक अनुशासित, पवित्र जीवन जीना चाहिए ।
वह अपने विवाहित जीवन को बनाए रखने के लिए पैसे कमाने में सक्षम होना चाहिए।
पति को अपनी पत्नी का सम्मान करना चाहिए ।
मर्यादा पुरुषोत्तम मर्यादा का अर्थ है केवल वो ही कार्य करना जो एक व्यक्ति के उसकी जाति, राज्य, अवस्था आदि से निर्धारित उसके धर्म है । पुरुषोत्तम का अर्थ है पुरुषो में उत्तम या जो आदर्श पुरुष हो । पुरुषोत्तम भगवान विष्णु के नामों में से एक हैं और महाभारत के विष्णु सहस्रनाम में भगवान विष्णु के 24 वें नाम के रूप में प्रकट होता हैं । भागवत गीता के अनुसार, पुरुषोत्तम को क्षार और अक्षार के ऊपर और परे समझाया गया है या एक सर्वज्ञानी ब्रह्मांड के रूप में समझाया गया है । भगवान विष्णु के अवतार के रूप में भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है, जबकी भगवान विष्णु को भगवान कृष्णा के अवतार के रूप में लीला या पूर्ण पुरुषोत्तम के रूप में जाना जाता है ।
(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होतं आहे रे ” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है उनकी परिकल्पित कविता माझे स्वप्न. श्रीमती उर्मिला जी की वृक्ष होने की कल्पना अद्भुत है और सांकेतिक पर्यावरण का सन्देश भी देती है. श्रीमती उर्मिला जी को ऐसी सुन्दर कविता के लिए हार्दिक बधाई. )
(सौ. सुजाता काळे जी मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं । वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं। उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की एक भावप्रवण मराठी कविता ‘फिरूनी जन्म घ्यावा….’।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 7 ☆
☆ फिरूनी जन्म घ्यावा….☆
फिरूनी जन्म घ्यावा,
की जन्मभर फिरावे
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..
भरावे मनाचे गगन चांदण्याने,
की व्देषाच्या आगीत स्वतः जळावे,
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..
रहावे थांबून डोळ्यांच्या किनारी,
की वहावे पूरात स्वतः बुडवावे,
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..
जगावा प्रत्येक श्वास हृदयाचा,
की मोजक्याच श्वासात स्वतः संपवावे,
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..
छेडूनी अंतरी तार संगीताची,
की बेसुरी संगतीत स्वतः भिजवावे,
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..
कवटळून घ्यावे अथांग क्षितिजास,
की कोंडी करावी स्वतःच्या मनाची,
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..
जगाच्या पसा-सात, पसरूनी हरवावे,
की स्वतःच्या मनी जग निर्माण करावे,
रे मानवा ! तुची रे ठरवावे..