(श्री सुजित कदम जी की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ। पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है! निश्चित ही श्री सुजित जी इस सुंदर रचना के लिए भी बधाई के पात्र हैं। हमें भविष्य में उनकी ऐसी ही हृदयस्पर्शी कविताओं की अपेक्षा है। ऋण के बोझ तले दबे किसान को आत्महत्या करने से रोकने के लिए इससे बेहतर हृदयस्पर्शी कविता नहीं हो सकती । काश कोई उस किसान को उसके पुत्र/पुत्री की मनोव्यथा से अवगत करा सके। प्रस्तुत है श्री सुजित जी की अपनी ही शैली में हृदयस्पर्शी कविता “वासरू…! ”। )
भावार्थ : जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही पुरुष योगी है और वही सुखी है।।23।।
He who is able, while still here in this world to withstand, before the liberation from the body, the impulse born of desire and anger-he is a Yogi, he is a happy man. ।।23।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
☆ बचपना – सेल्फमेड ☆
बच्चों को उठाने के लिए माँ-बाप अलार्म लगाकर सोते हैं। जल्दी उठकर बच्चों को उठाते हैं। किसीको स्कूल जाना है, किसीको कॉलेज, किसीको नौकरी पर। किसी दिन दो-चार मिनट पहले उठा दिया तो बच्चे चिड़चिड़ाते हैं। माँ-बाप मुस्कराते हैं, बचपना है, धीरे-धीरे समझेंगे।…धीरे-धीरे बच्चे ऊँचे उठते जाते हैं और खुद को ‘सेल्फमेड’ घोषित कर देते हैं।
सोचता हूँ कि माँ-बाप और परमात्मा में कितना साम्य है! जीवन में हर चुनौती से दो-दो हाथ करने के लिए जागृत और प्रवृत्त करता है ईश्वर। माँ-बाप की तरह हर बार जगाता, चाय पिलाता, नाश्ता कराता, टिफिन देता, चुनौती फ़तह कर लौटने की राह देखता है। हम फ़तह करते हैं चुनौतियाँ और खुद को ‘सेल्फमेड’ घोषित कर देते हैं।
कब समझेंगे हम? अनादिकाल से चला आ रहा बचपना आख़िर कब समाप्त होगा?
(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ के सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)
आज हम डॉ इन्दु प्रकाश पाण्डेय जी के सम्मान में कैप्टन प्रवीणजी के मित्र श्री सुमीत आनंद जी द्वारा रचित अङ्ग्रेज़ी कविता “The gentleman down the street” का हिन्दी भावानुवाद “विजय अवतरित सज्जनता…” प्रस्तुत कर रहे हैं।
संक्षिप्त परिचय:
डॉ इन्दु प्रकाश पाण्डेय जी का जन्म 4 अगस्त, 1924 को हुआ था। आप हिन्दी के समकालीन वरिष्ठ साहित्यकार हैं। आप जर्मनी के फ्रैंकफुर्त शहर में स्थित जॉन वौल्फ़गॉग गोएटे विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग से 1989 में अवकाश प्राप्त प्राध्यापक हैं।
श्री सुमीत आनंद जी के ही शब्दों में –
4 अगस्त 2019 को फ्रैंकफोर्ट (जर्मनी) में आदरणीय डॉ इन्दु इंदु प्रकाश पाण्डेय जी के 95 वें जन्मोत्सव पर उनके स्वस्थ, सक्रिय और सार्थक जीवन के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए मैंने “The gentleman down the street” शीर्षक से पाण्डेय जी के व्यक्तित्व की प्रच्छन्न विशेषताओं को उजागर करते हुए एक कविता लिखी थी. मेरे अनन्य मित्र और हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत और उर्दू के मर्मज्ञ विद्वान् कैप्टन प्रवीण रघुवंशी ने मेरे अनुरोध करने पर इस कविता का हिंदी में अनुवाद किया है.
प्रसंगवश बताना चाहूँगा कि कैप्टन प्रवीण रघुवंशी ने हिंदी की कालजयी रचनाओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद करने का बीड़ा उठाया है.
मुझे विश्वास है कि पाण्डेय जी के असंख्य हिंदी पाठक, प्रशंसक, इष्ट-मित्र और विद्यार्थी इसे पढ़कर एक बार फिर से उनके लिए शुभकामनाएँ अर्पित करेंगे.
– सुमीत आनंद
☆ विजय अवतरित सज्जनता… ☆
बस जैसे ही मैंने सोचा
कि अब शिष्टता मर चुकी है
वाक्पटुता भी मृतप्राय है
मौलिक भद्रता मरणासन्न है
तभी जीवन में सज्जनता स्वरूप
आपका आगमन हुआ…
आपका अपनी
जीवन की अनूठी कहानियों का,
अपने दीर्घ अनुभवों के
खज़ाने का द्वार मेरे लिए खोलना
और मुझे सिखाना
जीवन के छोटे-बड़े आनंद
का नित्य लुत्फ उठाना…
आपका
एक ज्योतिपुंज होना
प्रेमभाव से परिपूरित होना
और हम सभी को
इन्हीं ईश्वरीय भावों से ओतप्रोत करना…
जीवन को सम्पूर्णता से प्रेम करना
फिर भी हमेशा निर्लिप्त भाव में रहना
एक श्वेत कपोत की भांति अल्हड़, मस्त और पवित्र…
प्रत्येक दिन एक अपरिमित
उन्मुक्तता के साथ जीना
जीवन के तूफानों का
एक मुस्कान के साथ
एक फ़क़ीराना अंदाज़ में,
शांत व साहसी भाव से
निरंतर सामना करना…
जबसे जीवन में सज्जनता स्वरूप
आपका प्रादुर्भाव हुआ…
हर गुज़रता पल
हर गुज़रता वर्ष
ये अहसास दिलाता रहा कि
आपका शाश्वत सामीप्य
हमे प्रेम-विभोर कर रहा है…
निरंतर आशीष दे रहा है…
हिंदी अनुवादः प्रवीण रघुवंशी
The Original poem – ☆ The gentleman down the street ☆
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है गीत – कविता “स्वयं से सदा लड़े हैं…..”। )
(अग्रज डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की फेसबुक से साभार)
(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “सवाल अभी बाकी हैं…”।
(श्रीमती छाया सक्सेना जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत है. आज प्रस्तुत है उनका व्यंग्य “यूज एंड थ्रो”. हम भविष्य में भी उनकी चुनिंदा रचनाएँ अपने पाठकों से साझा करते रहेंगे.)
☆ यूज़ एन्ड थ्रो ☆
आजकल हर चीजों की दो केटेगरी है- यूज़ या अनयूज़ । कीमती लाल के तो मापदंड ही निराले हैं वो अपने अनुसार किसी की भी उपयोगिता को निर्धारित कर देते हैं । यदि कोई आगे बढ़ता हुआ दिखता है तो झट से उसे घसीट कर बाहर कर देना और फिर उसकी जगह किसी की भी ताजपोशी कर देना उनका प्रिय शगल है, ये बात अलग है कि सामने वाले को रोने व अपनी बात कहने की खुली छूट होती है, यदि वो वापस आना चाहे तो उसका भी स्वागत धूम धाम से किया जाता है बस शर्त यही कि भविष्य में वो सच्चे सेवक का धर्म निभायेगा ।
इधर कई दिनों से निरंतर सेवकों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है और शीर्ष पर आज्ञाकारी लोगों को दो दिनों की चाँदनी का ताज दिखा कर धम से जमीन पर पटका जाता है। कोई भाग्यशाली हुआ तो आसमान से गिर कर खजूर में अटक जाता है और इतराते हुए सेल्फी लेकर फेसबुक में अपलोड कर देता है ।
चने के झाड़ पर चढ़े हुए लोग भी अपनी सेल्फी लेकर सबको टैग करते हुए लाइक की उम्मीद में पलके बिछाए बैठे हुए ऐसे प्रतीत होते हैं मानो यदि आपने पोस्ट पर ध्यान नहीं दिया तो आपको व्हाट्सएप में संदेश भेजकर कहेंगे जागो मोहन प्यारे मुझे लाइक करो या न करो पोस्ट अवश्य लाइक करो ।
सही भी है यदि फेसबुक पर ही दोस्ती नहीं निभ सकी तो ऐसे फेसबुक फ्रेंड्स का क्या फायदा , भेजो इनको कीमती लाल के पास जो एक झटके में पटका लगा कर सबक सिखा देने की क्षमता रखते हैं ।
आजकल तो उत्सवों में भी थर्माकोल , प्लास्टिक आदि की प्लेट, कटोरी, चम्मच , काँटे व गिलास उपयोग में आते हैं । जिन्हें इस्तेमाल किया और फेका । पानी भी बोतलों में मिलता है । जितनी भी जरूरत की चीजें हैं वो सब केवल एक ही बार उपयोग में आने हेतु बनायीं जातीं हैं । सिरिंज का एक प्रयोग तो जायज है सुरक्षा की दृष्टि से पर और वस्तुएँ कैसे और कब तक बर्दाश्त हों ।
वस्तुएँ रिसायकल हों ये जरूर आज के समय की माँग है । बेस्ट आउट ऑफ वेस्ट की दिशा में तो आजकल बहुत कार्य हो रहा है । नगर निगम द्वारा भी जगह- जगह सूखा कचरा व गीला कचरा एकत्र करने हेतु अलग- अलग डिब्बे रखे गए हैं । दुकानों में भी हरे रिसायकल निशान वाले कागज के बैग मिल रहे हैं । पर स्थिति जस की तस बनी हुयी है आखिर हमें आदत हो चुकी है इस्तेमाल के बाद फेंकने की ।
ये आदतें कोई आज की देन नहीं है पुरातन काल से यही सब चल रहा जब तक किसी से कार्य हो उसे पुरस्कार से नवाजो जैसे ही वो बेकार हुआ फेक दो । यही सब आज प्रायवेट कंपनी कर रहीं हैं असम्भव टारगेट देकर नवयुवकों का मनोबल तोड़ना, बात- बात पर धमकी देना और जब वो अपने को कमजोर मान लें तो अपने अनुसार काम लेना क्योंकि मन तो उनका टूट चुका जिससे वो भी किसी योग्य हैं इस बात को भूल कर स्वामिभक्ति का राग अलापते हैं ।
आखिर कब तक ये रीति चलेगी , कभी तो इस पर विचार होना चाहिए या फिर एक अवधि तय होनी चाहिए किसी भी चीज के उपयोग करने की जैसे खाद्य पदार्थों व दवाइयों की पैकिंग में लिखा रहता है एक्सपाइरी डेट । रिश्तों में तो ये चलन इस कदर बढ़ गया है कि पुत्र का विवाह होते ही माता पिता की उपस्थिति अनुपयोगी हो जाती है जिसकी वैधता समाप्ति की ओर अग्रसर होकर दम तोड़ती हुयी दिखायी देती है ।
रोजमर्रा की चीजें भी स्टेटस सिंबल बन कर रोज बदली जा रहीं हैं गर्ल फ्रेंड और बॉय फ्रेंड बदलना तो मामूली बात है । किन- किन चीजों में बदलाव देखना होगा ये अभी तक विवादित है पर यूज़ एन्ड थ्रो तो जीवन का अमिट हिस्सा बन शान से इतरा रहा है ।
(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ “कवितेच्या प्रदेशात” में उनकी ह्रदय स्पर्शी कविता मानकुँवर. सुश्री प्रभा जी जानती हैं कि समय गहरे से गहरे घाव भी भर देता है. किन्तु, एक नारी ह्रदय ही नारी की व्यथा को समझ सकती है. ऐसा नहीं कि सभी पुरुष संवेदनहीन होते हैं. महत्वपूर्ण यह है कि ऐसी कविता की रचना का होना उनके संवेदनशील ह्रदय में एक संवेदनशील साहित्यकार का जीवित होना है. ऐसी रचना के लिए उस पात्र को जीना होता है और इतिहास के पात्रों को वर्तमान के पात्र के मध्य सामंजस्य बनाना होता है.
सुश्री प्रभा जी का साहित्य जैसे -जैसे पढ़ने का अवसर मिल रहा है वैसे-वैसे मैं निःशब्द होता जा रहा हूँ। हृदय के उद्गार इतना सहज लिखने के लिए निश्चित ही सुश्री प्रभा जी के साहित्य की गूढ़ता को समझना आवश्यक है। यह गूढ़ता एक सहज पहेली सी प्रतीत होती है। आप प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते हैं।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 14 ☆
☆ मानकुँवर ☆
आज अचानक आठवलीस तू
मानकुँवर —-
पब्लिक मेमरी शॉर्ट असते म्हणतात, ते अगदी खरं आहे !
किती अस्वस्थ झाले होते मी,
वर्तमानपत्रातल्या तुझ्या हत्येच्या
बातमी नं !
नखशिखांत हादरलेच होते,
ज्यांनी केला तुझा खून ते तुझे बाप, भाऊच सख्ये !
आणि तुझा गुन्हा तरी काय ??
तू केलंस प्रेम–
जातिधर्मात किंचित फरक असलेल्या—
तुला आवडलेल्या तरूणावर !
मानकुँवर
तू होतीस उच्चशिक्षित–
डॉक्टर !!
तुझं नाव मानकुँवर ठेवणारांनी
तुला मानानं जगूच दिलं नाही,
आणि मरण ही किती अपमानास्पद !
मानकुँवर आज आठवलीस तू,
“भूले बिसरे गीत” मधल्या दर्दभ-या गाण्या सारखी!
मानकुँवर —
तू खानदान की ईज्जत,
तू शालीनता, तू मर्यादा,
तू नंदिनी तू बंदिनी ——-
युगानुयुगे भळभळणारी एक जखम —-
स्री जाती च्या प्रारब्धावरची !
तू चिरंजीवी ——
तुला मरण नाही !
पण तू मागत नाहीस तेल—-
द्रौपदी च्या पाच पुत्रांना मारणा-या पापी आश्वत्थाम्यासारखी,
भावार्थ : जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषों को सुखरूप भासते हैं, तो भी दुःख के ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात अनित्य हैं। इसलिए हे अर्जुन! बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।।22।।
The enjoyments that are born of contacts are generators of pain only, for they have a beginning and an end, O Arjuna! The wise do not rejoice in them. ।।22।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)