Why one should not speak a deliberate lie even in jest.
[1]
One day the Buddha came to Rahula, pointed to a bowl with a little bit of water in it, and asked: “Rahula, do you see this bit of water left in the bowl?”
Rahula answered: “Yes, sir.”
“So little, Rahula, is the spiritual achievement of one who is not afraid to speak a deliberate lie.”
[2]
Then the Buddha threw the water away, put the bowl down, and said: “Do you see, Rahula, how that water has been discarded?
“In the same way, one who tells a deliberate lie, discards whatever spiritual achievement he has made.”
[3]
Again, he asked: “Do you see how this bowl is now empty?
“In the same way, one who has no shame in speaking lies is empty of spiritual achievement.”
[4]
Then the Buddha turned the bowl upside down and said: “Do you see, Rahula, how this bowl has been turned upside down?
“In the same way, one who tells a deliberate lie turns his spiritual achievement upside down and becomes incapable of progress.”
[5]
Therefore, the Buddha concluded, one should not speak a deliberate lie even in jest.
आज सुश्री निशा नंदिनी जी की कविता नेत्रदान ने मुझे मेरी एक पुरानी कविता ये नेत्रदान नहीं – नेत्रार्पण हैं की याद दिला दी जो मैं आपसे साझा करना चाहूँगा:
(यह कविता दहेज के कारण आग से झुलसी युवती द्वारा मृत्युपूर्व नेत्रदान के एक समाचार से प्रेरित है )
या विषयावर विचार प्रकट करताना, आठवतात ओळी, ‘पाण्या तुझा रंग कसा? ‘ एखाद्या व्यक्तीवर जीव जडतो. त्याचं शारीरिक, मानसिक, वैचारिक सौंदर्य मनाला भुरळ घालत. अशा व्यक्तीच्या सहवासात मन रमत. आणि सुरू होतो प्रेमाचा प्रवास. प्रेम हे पाण्याइतकच जीवनावश्यक. जीवनदायी. प्रेमाचा अविष्कार नसेल तर, आयुष्य निरर्थक, निरस, कंटाळवाणे होईल.
प्रेम दिसत नसले तरी, त्याचे रंग अनुभुतीतून जाणवतात. कुणाच्या नजरेतून, कुणाच्या स्पर्शातून, कुणाच्या काळजीतून, कुणाच्या आचारातून , कुणाच्या विचारातून, कुणाच्या सेवेतून, कुणाच्या त्यागातून, कुणाच्या आधारातून प्रेमरंगाच्या विविध छटा अनुभवता येतात. असं हे रंगीबेरंगी प्रेम, ह्रदयात जाणवत. . . आणि व्यक्त होताना कुणाचं तरी ह्रदय हेलावून टाकत. हा प्रवास असतो. . सृजनाचा. माणूस माणसाशी जोडला जातो. परस्परात नातं निर्माण होत. अनेक विध नात्यातून व्यक्त होणारे प्रेम माणसाला पदोपदी एकच संदेश देत. . . तो म्हणजे. . . ”तू माणूस आहेस. . ”
एकदा का व्यक्तीला स्वत्वाची जाणिव झाली कि तो स्वतःवर, नात्यांवर, देशावर प्रेम करायला लागतो. प्रेम हे एक रेशमी कुंपण असते. आपणच आपल्या आत्मीयतेने हा परीघ स्वतःभोवती निर्माण करतो. नात्यांचे भावबंध गुंफत असताना, गुणदोषासकट आपण प्रेमाची बांधिलकी स्विकारतो. वेळ, काळ, पद, पत, पैसा प्रतिष्ठा, तन, मन, धन, सारं काही पणाला लावतो. या प्रेमाच्या रंगात आपण स्वतः तर रंगतोच पण इतरांनाही रंगीत करतो.
एकतर्फी प्रेम, आपुलकी, जिव्हाळा, आदर, यांच्या पलीकडे जाऊन दुसर्या वर हक्क प्रस्थापित करू पहात. . . तेव्हा ते घातक ठरत. कुंपण शेत खात या म्हणीनुसार, एकतर्फी प्रेम आधी व्यक्ती, मग कुटुंब, मग समाज, यांना गोत्यात आणत. प्रेमाचा उगम हा सरितेसारखा. प्रेम ह्ददयातून उत्पन्न होत असलं तरी त्याचं मूळ नी प्रिती च कूळ शोधायला जाऊ नये. ही सहज सुंदर तरल भावना, आपले जीवन उत्तरोत्तर अधिकाधिक रंगतदार करत असते.
प्रेमाच्या विविध छटा, त्याचे पैलू, नानाविध अविष्कार हे आपलेच जीवन रंग असतात. जीवना तू असा रे कसा, याचा शोध घेतला की आपोआपच या प्रेमरंगाच्या रंगान आपण निथळू लागतो. विविध ऋतूंप्रमाणे हे जीवन स्तर प्रत्येकाच्या आयुष्यात असतात. . फक्त ते अनुभवता आले पाहिजेत. अडीच अक्षरात सामावलेलं हे प्रेम, वळल तर सूत, नाही तर भूत. . या म्हणीचा प्रत्यय देते. प्रेमाचा रंगीत अविष्कार कुणाला मानव करतो. . तर कुणाला दानव. . . हे प्रेम रंग किती द्यायचे, किती घ्यायचे. . . अन् कसे किती उधळायचे, इतकेच फक्त कळले पाहिजे.
स्वतःचे मी पण हिरावून नेणारे हे प्रेम रंग जात्यातच असतात मनोहारी. . . ! आईचे काळीज म्हणजे प्रेमरंगाचा वात्सल्य भाव. आठवणींचा पसा पसरून संस्काराचा वसा वेचत माणूस घडविण्याचं कार्य हा प्रेमरंग करतो. बापाचं काळीज म्हणजे फणसाचा गरा. त्याची आठळी म्हणजे अमृताचा कोष. . पण ती आठळी सदैव बाजूला पडते. त्याच्या नजरेचा धाक वाटतो पण त्या धाकात त्याच्या लेकराचा घट घडत असतो. बाप लेकाचे प्रेम हे सुई दोरा सारखे. . फक्त जोडणीचा होरा चुकायला नको.
बहिण भावंडे यांच रेशमी कुंपण, प्रेमाच्या गुंफणीत माया ममतेचं अलवार नातं निर्माण करत. ही गुफण मग सुटता सुटत नाही. आज्जी, आजोबा काका, काकू, मामा, मामी, हे आधाराचे हात बनून जीवनात येतात. अनेक संकटांवर लिलया मात केली जाते. ती याच हातांकरवी. सारे आप्तेष्ट, मित्र परिवार यांच्या प्रेमरंगाच्या अंतराला जाणवणारा दंगा हा वर्णनातीत आहे. . . तो ज्यान त्यान अनुभवण्यात जास्त रंगत आहे.
गुरू शिष्य नाते स्नेहभावाचे. पैलू विना हिर्याला चमक नाही तसे ज्ञानार्जन माणसाला ज्ञानी करते. सारे जग प्रेमाच्या रंगात रंगत जाताना आपले अंतरंग फुलून येते. जाणिवा नेणिवा, साद, प्रतिसाद, राग, लोभ, मोह, द्वेष, मत्सर, सारे षड्विकार प्रेमरंगाला आपापल्या जाळ्यात ओढू पहातात. हे जीवनरंग अनुभवताना काळजाची भाषा उमजायला हवी.
प्रेमरंगात रंगताना त्यात होणारी देव घेव प्रेमाचं यशापयश ठरवते. फक्त प्रेमात व्यवहार नसावा. रोख ठोक हिशोब नसावा. . . शेवटच्या श्वासापर्यत स्वतःवर आणि प्रिय व्यक्तीवर विश्वास ठेवला की हे सारे प्रेमरंग अनुभवता येतात. हा जीवन रस, हे जीवन सौख्य अखेर पर्यंत आपल्या सोबत असत. त्याचा अविरत प्रवास
( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण)
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् । 35।।
महारथी जो समझते , तुझको वीर महान
तुझे हटे रणभूमि से देंगे क्या सम्मान ?।।35।।
भावार्थ : और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे।।35।।
The great car-warriors will think that thou hast withdrawn from the battle through fear; and thou wilt be lightly held by them who have thought much of thee. ।।35।।
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
I teach what everyone seeks but finds it difficult to achieve. It remains more and more elusive as one chases it. Everyone believes he knows everything about it but is, in fact, ignorant and often misguided. I am talking about happiness and well-being.
According to Sonja Lyubomirsky, Professor of Psychology at the University of California, Riverside, “One of the greatest obstacles to attaining happiness is that most of our beliefs about what will make us happy are in fact erroneous. Yet they have been drummed into us, socialized by peers and families and role models and reinforced by the stories and images ever present in our culture. Many of the presumed sources of happiness seem so intuitive and commonsensical that all of us – even happiness researchers! – are prone to fall under their spell.”
The happiness myths need to be understood and overcome. You can teach yourself to be happy. The art and science of happiness and well-being can be learned and taught.
At LifeSkills, we have gone deep to blend the best of the modern science of Positive Psychology with the ancient wisdom of Yoga and Meditation. We have added a dash of Laughter Yoga into the cask to make it sparkle. Our programmes show the pathway to authentic happiness, well-being and fulfillment. We help you to flourish!
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का विभिन्न लेखकों के द्वारा दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु तो अवश्य ही खोल देंगे। तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।
वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………
तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न और उसके अनेक उत्तर। प्रस्तुत है चौथा उत्तर दैनिक विजय दर्पण टाइम्स ,मेरठ से कार्यकारी संपादक श्री संतराम पाण्डेय जी की ओर से –
सवाल : आज के संदर्भ में, क्या लेखक समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?
मेरठ से श्री संतराम पाण्डेय जी ___4
(श्री संतराम पाण्डेय जी मेरठ से दैनिक विजय दर्पण टाइम्स के कार्यकारी संपादक हैं।)
सवाल-आज के संदर्भ में, क्या लेखक समाज के घोड़े की आंख है या लगाम?
-संतराम पाण्डेय-
मूल प्रश्न पर आने से पहले हम एक अन्य तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। लेखक है क्या? वह क्या कर सकता है? इसका जवाब यही है कि लेखक में बहुत शक्ति है। वह कुछ भी कर सकता है।
संत तुलसीदास का कार्यकाल (1511-1623 ई.) ऐसा समय था, जब भारतीय समाज भटका हुआ था। इतिहास की जानकारी रखने वाले जानते हैं कि उस वक्त देश में लोदी वंश, सूरी वंश, मुगल वंश (1526 से लेकर 1857 तक, जब मुगल वंश का शासन समाप्त हुआ) का शासन था। भारतीय समाज बिखरा हुआ था। उसमें एक डर बसा हुआ था। वह खुलकर अपनी बात भी नहीं कह सकता था। ऐसे वक्त में उसे कोई राह दिखाने वाला भी नहीं था। तब संत तुलसीदास का जन्म हुआ। संत बनने के बाद निश्चित रूप से उन्होंने समाज की दयनीय हालत को देखा होगा। लेकिन, एक संत क्या कर सकता था। वह किसी से न तो खुद लड़ सकता था और न ही किसी को लडने की सलाह दे सकता था। ऐसे में उन्हें यह समझ में आया होगा कि इस वक्त भारतीय समाज को एक सूत्र में बांधने और उसके मन से डर निकालने की जरूरत है और उसी वक्त उनके द्वारा राम चरित मानस की रचना की गई। भारतीय समाज उसमें रच बस गया। वह कहीं एकत्र होता तो अपनी गुलामी की बात न करके राम के प्रति भक्ति की बात करता। उन्होंने समाज को एक दिशा दी। समाज बदलने लगा था।
आते हैं लेखक के समाज के घोडे की आंख होने या लगाम होने की। एक लेखक निश्चित रूप से समाज के घोड़े की आंख है। शर्त यही है कि उसका लक्ष्य तय हो। समाज के घोड़े की आंख। यानी, घोड़े की आंख आजाद नहीं होती। इच्छा यही रहती है कि वह उतना ही देखे, जितना समाज चाहे। इसे इस तरह समझ सकते हैं कि समाज की जरूरत के हिसाब से ही घोड़ा देखे। घोड़े की आंख की प्रकृति यह है कि उसकी दृष्टि का दायरा लगभग 180 डिग्री तक है। इसलिए घोड़े की दृष्टि में आसपास का क्षेत्र और कुछ हद तक पीछे का भी रहता है। ऐसे में घोड़ा बहुत कुछ देखता है। इसलिए उसके भटकने की संभावना ज्यादा रहती है। बहुत कुछ देखकर घोड़ा बिदक जाता है और इससे नुकसान की गुंजाइश बन ही जाती है।
घोड़ा तो घोड़ा है। लेखक में घोड़े की प्रकृति तो है लेकिन वह आत्मनियन्ता है। उसमें स्वयं को नियंत्रित करने की क्षमता होती है, घोड़े में नहीं। जिस लेखक में स्वयं को नियंत्रित करने की क्षमता नहीं होती, उसके भटकने की प्रबल संभावना रहती है और समाज को नुकसान पहुंचाने का कारण बन जाता है। इसलिये यह कहना उपयुक्त है कि लेखक सशर्त समाज के घोड़े की आंख है।
अब लगाम की बात करते हैं। एक लेखक अपनी लेखनी से समाज की दिशा तय करने की सामथ्र्य रखता है। वह समाज को नियंत्रित भी करता है। समाज को भटकने से बचाता भी है। जैसे कि संत तुलसीदास ने अपने समय में समाज को भटकने से बचाया। क्या लेखक समाज के घोड़े की आंख है या लगाम? तो माकूल जवाब मेरी नजर में यही है कि एक आदर्श लेखक समाज के घोड़े की आंख भी है और लगाम भी।
आज के संदर्भ की बात करते है तो पाते है कि कुछ लेखक न तो समाज के घोड़े की आंख ही बन पा रहे है और न ही लगाम। वह न घर के हो रहे हैं और न ही घाट के। स्वार्थ ने ऐसे लेखकों को भटका दिया है। इसके बावजूद अधिकांश लेखक ऐसे हैं जिन्होंने अपनी लेखनी से समझौता नहीं किया और वह समाज के घोड़े की आंख भी बने और लगाम भी। घोड़े की आंख पर चश्मा बांधकर उसकी दृष्टि के दायरे को 30 डिग्री तक सीमित किया जा सकता है लेकिन एक लेखक की दृष्टि के साथ ऐसा नहीं किया जा सकता। उसकी आंख पर पट्टी नहीं बंधी जा सकती। वह सब कुछ देखता है और विषम परिस्थितियों में भी वह अपने भटकने की संभावना को स्वयं ही खारिज कर देता है। समाज हित में भी यही है कि एक लेखक समाज की आंख का घोड़ा भी बना रहे और लगाम भी।
बता दें कि इंसानी जीवन में घोड़े का इस्तेमाल इंसान अपने फायदे के लिए करता आया है और लेखक का भी इस्तेमाल समाज हित में ही हुआ है। वर्तमान संदर्भ में लेखक बहु उद्देशीय बन गया है। वह बहुत कुछ एक साथ करना चाहता है और देखना चाहता है। ऐसे में वह भटकाव का शिकार भी हुआ है। इससे बचने की जरूरत है। जरूरत यह भी है कि लेखक समाज के घोड़े की आंख भी बना रहे और लगाम भी।
(प्रस्तुत है श्रीमति सुजाता काले जी की एक भावप्रवण कविता जो उजागर करती है शायद आपके ही आसपास के पोस्टर्स की दुनिया की एक झलक।)
वर्षा ऋतू खत्म हुई,
पुनः स्वच्छता अभियान शुरू हुआ है,
पालिका द्वारा रास्ते, गलियों की
सफाई जोरों से हो रही है ।
शैवाल चढ़े झोपड़ों की
दीवारें पोंछी गई हैं …!
सुन्दर बंगलों की चारदीवारी
साफ़ की गई हैं … !
उन्हें रंगकर उनपर गुलाब, कमल
के चित्र बनाये गए हैं … !
दीवारों पर रंगीन घोष वाक्य लिखे गए हैं :
‘स्वस्थ रहो, स्वच्छ रहो।’
‘जल बचाओ, कल बचाओ।’
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ।’
जगह- जगह पोस्टर्स लगे हुए हैं;
सूखा और गीला कचरा अलग रखें !
पांच ━ छह वर्ष के बच्चें ,
कचड़े में अन्न ढूँढ रहे हैं… !
झोंपड़ी की बाहरी रंगीन दीवार देखकर,
दातुन वाले दाँत हँस रहे हैं !
अंदरूनी दीवारों की दरारें,
गले मिल रही हैं !
कहीं-कहीं दीवारों की परतें,
गिरने को बेताब हैं !
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ लिखी –
दीवार के पीछे सोलह वर्ष की
लड़की प्रसव वेदना झेल रही है !
बारिश में रोती हुई छत के निचे,
रखने के लिए बर्तन कम पड़ रहे हैं।
‘जल बचाओ’ लिखी हुई दिवार,
चित्रकार पर हँस रही है…..!
बस्ती के कोने में कचड़े का ढेर है ।
सूखे और गीले कचड़े के डिब्बे,
उलटे लेटे हुए हैं !
पालिका का सफाई कर्मचारी,
तम्बाकू मल रहा है !
‘जब पढ़ेगा इंडिया, तब आगे बढ़ेगा इंडिया’
का पोस्टर उदास खड़ा है …..!
यह कैसी विसंगति लिखने में है !!
इन झोपड़ियों के अंदर का विश्व,
पोस्टर्स छिपा हुआ है,
कोई कहीं से दो पोस्टर्स ला दे मुझे
जो गरीबी और बेकारी
ढूँढकर ……. हटा दे उन्हें !!!
(श्री सुजित कदम जी की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।)
काल खूप वर्षांनंतर एक ओळखीचे काका भेटले, मस्त गप्पा मारल्या…!
मला म्हटले ,”काय करतोस..?” मी म्हटलं…”.छोटसं दुकान आहे…”
मी काही बोलायच्या आधीच.. त्यांनी बोलायला सुरुवात केली..;
”ह्या सोसायटीत माझा मोठा फ्लॅट आहे..,
घरात धुणं भाड्यांला कामवाली आहे..,
फोर व्हिलर ही आहे..; पण ह्या वयात चालवायला भिती वाटते, आम्ही दोघंच असतो बघ इथे रहायला…!
पेन्शन मध्ये जेवढं भागवता येईल तेवढं भागवतो .
मोठा मुलगा अमेरिकेत असतो…
दुसरा मुलगा ईथे जवळजच राहतो …,
दोघांनाही त्यांच्या मनासारखं शिकवलं..
आता ते दोघेही *वेल सेटल* आहेत…”
काका मनसोक्त बोलत होते मी ऐकत होतो…,
”वर्षां दोन वर्षांनी मोठा अमेरिकेतून मुलगा येतो भेटायला.. काही दिवस राहतो.. त्याची इथली कामे झाली की विचारतो, ” किती पैसे देऊ? ”
”बेटा पैसाच आता आमच्यातला दुरावा बनत चाललाय बघ. आमच्या गरजा आता भावनिक आहेत. ”
”दुसरा मुलगा खूपच बिझी असतो त्याला तर अजिबात वेळ मिळत नाही… मीच दिवसभर एखादी चक्कर मारतो त्याच्याकडे..!”
“मुलं मोठी झाल्यावर… थोडं आपणच समजून घ्यायला हवं..आपणच..,मुलांना आभाळ मोकळं करून दिलंय किती उंच उडायचय हे त्यांच त्यांनी ठरवायचं….;फक्त उडताना त्यांनी घरचा रस्ता विसरू नये एवढंच…!”
“बरं माझ सोड …
तू सांग तूझ कस चाललय …?
मी म्हटलं..” छान चाललयं….”
“दोन मुलं आहेत… लहान आहेत अजून..”
यावर ते म्हणाले , “वाह… छान..
त्यांना ही आभाळ मोकळ करून दे…!
तुझ्या मुलांना ते म्हणतील ते सारं काही दे पण दुसर्या साठी वेळ द्यायचा असतो हे देखील शिकवता आलं तर जरूर शिकव या नव्या पिढीला. . . !
तुझ्या लेकरांना दैदीप्यमान भरारी घेण्यासाठी दशदिशा खुल्या करून दे पण त्यांना घरी परतण्यासाठी रस्ता मात्र एकच ठेव…;
पुस्तके वाचायला शाळेत शिकतीलच . . पण या दुनियेत जगण्यासाठी माणसं वाचायला शिकव. म्हातारपणी आधार हवा असतो बेटा. . डेबिट कार्ड नको असतं . . आपल माणूस आपल्या शिलकीत पाहिजे. . . यशोकीर्तीच्या घडणावणीत आपल लेकरू आपल रहात नाही आणि मग सुरु होतं वाट पहाणं.
तुझ्या मुलांना पैसा कमवायला आणि प्रेम वाटायला शिकव म्हणजे मग माझ्यासारखी तुला वाट पहावी लागणार नाही…! ”
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
Happiness and well-being is not a thing. The modern science of happiness and well-being describes it as a ‘construct’.
For example, ‘weather’ is a construct. Ask any meteorologist, and he will tell you: weather is not a thing, it is a construct – a construct of temperature, humidity, barometric pressure, wind speed and a host of other factors.
The elements of well-being include positive emotion, engagement or flow, positive relationships, meaning and accomplishment.
A couple of additional features from out of self-esteem, optimism, resilience, vitality and self-determination are required to really flourish.
This means you have to dig a bit deeper to understand fully what is happiness and well-being. It’s not as simplistic as saying: happiness is within us.
Happiness does not come to you on its own. You have to act in order to achieve it.
The good news is that we can learn to enhance our levels of happiness and well-being.
Everyone wants to be happy. Here are some simple happiness mantras:
Every morning, do yoga and meditation – or walk and exercise.
During the day, smile and be kind to all.
In the evening, look back at 3 things that went well in the day.
During the week-end, spend quality time with your family and friends.
Engage deeply in work, studies, play, love and parenting.
Devote yourself to a meaningful humanitarian or social cause.
Share an occasional ice-cream or chocolate with a child.