श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  दो भागों में एक लम्बी कहानी  “पथराई  आँखों के सपने ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“ आदरणीय पाठक गण अभी तक आप सभी ने मेरी लघु उपन्यासिका “पगली माई दमयन्ती” को पूरे मनोयोग से पढा़ और उत्साहवर्धन किया। आपकी मिलने वाली फोनकाल प्रतिक्रिया तथा वाट्सएप, फेसबुक के लाइक/कमेंट से  शेयरों की सकारात्मक प्रतिक्रिया ने लेखन के क्षेत्र में जो उर्जा प्रदान की है, उसके लिए हम आप सभी का कोटिश: अभिनंदन करते हुएआभार ब्यक्त करते हैं। इस प्रतिक्रिया ने ही मुझे लेखन के लिए बाध्य किया है।  उम्मीद है इसी प्रकार मेरी रचना को सम्मान देते हुए प्रतिक्रिया का क्रम बनाए रखेंगें।  प्रतिक्रिया सकारात्मक हो या आलोचनात्मक वह हमें लेखन के क्षेत्र में प्रेरणा तथा नये दृष्टिकोण का संबल प्रदान करती है।

इस बार पढ़े पढ़ायें एक नई कहानी “पथराई आंखों का सपना” और अपनी अनमोल राय से अवगत करायें। हम आपके आभारी रहेंगे। पथराई आंखों का सपना न्यायिक ब्यवस्था की लेट लतीफी पर एक व्यंग्य है जो किंचित आज की न्यायिक व्यवस्था में दिखाई देता है। अगर त्वरित निस्तारण होता तो वादी को न्याय की आस में प्रतिपल न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों का दंश न झेलना पड़ता। रचनाकार  न्यायिक व्यवस्था की इन्ही खामियों की तरफ अपनी रचना से ध्यान आकर्षित करना चाहता है।आशा है आपको पूर्व की भांति इस रचना को भी आपका प्यार समालोचना के रूप में प्राप्त होगा, जो मुझे एक नई ऊर्जा से ओतप्रोत कर सकेगा।

? धारावाहिक कहानी – पथराई आंखों का सपना  ? 

(जब लेखक किसी चरित्र का निर्माण करता है तो वास्तव में वह उस चरित्र को जीता है। उन चरित्रों को अपने आस पास से उठाकर कथानक के चरित्रों  की आवश्यकतानुसार उस सांचे में ढालता है।  रचना की कल्पना मस्तिष्क में आने से लेकर आजीवन वह चरित्र उसके साथ जीता है। श्री सूबेदार पाण्डेय जी ने अपने प्रत्येक चरित्र को पल पल जिया है। रचना इस बात का प्रमाण है। उन्हें इस कालजयी रचना के लिए हार्दिक बधाई। )  

पूर्वी भारत का एक ग्रामीण अंचल।  उस अंचल का एक गांव जो विकास की किरणों से अब भी कोसों दूर है। जहाँ आज भी न तो आवागमन के अच्छे साधन है न तो अच्छी सड़कें, और न तो विकसित समाज के जीवन यापन की मूलभूत सुविधाएं।  लेकिन फिर भी वहां के ग्रामीण आज भी प्राकृतिक पर्यावरण, अपनी लोक संस्कृति लोक परंपराओं को सहेजे एवम् संजोये हुए हैं। भौतिक संसाधनों का पूर्ण अभाव होते हुए भी उनकी आत्मसंतुष्टि से ओतप्रोत जीवन शैली, जीवन के सुखद होने का एहसास कराती है।

उस समाज में आज भी संयुक्त परिवार का पूरा महत्व है, जिसमें चाचा चाची दादा ताऊ बड़े भइया भाभी के रिश्ते एक दूसरे के प्रति प्रेम, दया, करूणा का भाव समेटे भारतीय संस्कृति के ताने बाने की रक्षा तो करती ही है, पारिवारिक सामाजिक ढ़ांचे को मजबूती भी प्रदान करती हुई, ग्रामीण पृष्ठभूमि की रक्षा का दायित्व भी निभाती है।

ऐसे ही एक संयुक्त परिवार में मंगली का जन्म हुआ था।  मंगलवार के दिन जन्म होने से बड़ी बहू ने प्यार से उसका नाम मंगरी  (मंगली)  रखा था। परिवार में कोई उसे गुड़िया, कोई लाडो कह के बुलाता था।

वह सचमुच गुड़िया जैसी ही प्यारी थी, उसका भी भरापूरा परिवार था जो उसके जन्म के साथ ही बिखरता चला गया। मां उसे जन्म देते ही असमय काल के  गाल में समा गई। पिता सामाजिक जीवन से बैराग ले संन्यासी बन गया।  उसकी माँ असमय मरते मरते तमाम हसरतें लिए ही इस नश्वर संसार से विदा हुई। जाते जाते उसने अपनी नवजात बच्ची को बडी़ बहू के हाथों में सौपते हुये कहा था – “आज से इसकी माँ बाप तुम्ही हो दीदी। इसे संभालना”।

उस नवजात गुड़िया को सौंपते हुये उसके हांथ और होंठ कांप रहे थे।  उसकी आंखें छलछला उठी थी।  उसके चेहरे की भाव भंगिमा देख उसके हृदय में उठते तूफानों का अंदाज़ा लगाया जा सकता था। उसके मुंह से बोल नहीं फूट रहे थे, फिर भी क्षीण आवाज कांपते ओठों एवम् अस्फुट स्वरों में उसने बडी़ बहू से अपनी इच्छा व्यक्त कर दी थी और हिचकियों के बीच उसकी आंखें मुदती चली गई थी। वह तो इस नश्वर संसार से चली गई लेकिन अपने पीछे छोड़ गई करूणक्रंदन करता परिवार जो बिछोह के गम तथा पीडा़ में डूबा हुआ था।

धार्मिक कर्मकाण्ड के बीच उसके मां की अर्थी को कंधा तथा चिता को मुखाग्नि मंगरी के पिता ने ही दे जीवन साथी होने का फर्ज पूरा किया था तथा उसे सुहागिन बिदा कर अपने पति होने का रस्म पूरा किया।

धीरे धीरे बीतते समय के साथ उसके पिता के हृदय की वेदनायें बढ़ती जा रही थी।  वह प्राय: गुमसुम रहने लगा था।  परिवार तथा रिश्ते वालों ने उसे दूसरी शादी का प्रस्ताव भी दिया था, लेकिन उसने मंगरी के जीवन का हवाला दे शादी से इंकार कर दिया था।  वह फिर से घर गृहस्थी के जंजाल में नहीं फंसना चाहता था।  वह पलायन वादी होगया था।

इन परिस्थितियों में बड़ी बहू ने धैर्य का परिचय देते हुए सचमुच ही मंगरी के माँ बाप दोनों के होने का फर्ज निभाया, और मंगरी को अपनी ममता के दामन में समेट लिया और पाल पोस बड़ा किया। यद्यपि उस जमाने में स्कूली शिक्षा पर बहुत जोर नहीं था, फिर भी उसे बडी़ बहू ने आठवीं कक्षा तक की शिक्षा दिलाई थी। बड़ी ही स्वाभिमानी तथा जहीन लड़की थी मंगरी। बड़ी बहू ने अपनी ममता के साये में पालते हुए अपनी गोद में सुला गीता रामायण तथा भारतीय संस्कृति एवं संस्कारों की घुट्टी घोंट घोंट पिलाई थी।

अब बीतते समय के साथ मंगरी बड़ी बहू को ताई जी के, संबोधन से संबोधित  करने लगी थी।  बड़ी बहू ने भी उसे कभी मां की कमी खलने नहीं दी थी। मंगरी सोते समय बड़ी बहू के हांथ पांव दबाती, सिर में तेल मालिश करती तो बड़ी बहू उसे दिल से दुआयें देती और वह बड़ी बहू के गले में गलबहियां डाले  लिपट कर सो  जाती।

इस प्रकार मंगरी बड़ी बहू के ममता एवम् प्यार के साये में पल बढ़ कर जवान हुई थी। बड़ी बहू ने अच्छा खासा संपन्न परिवार देख  उसकी शादी भी कर दी थी।  मंगरी के बिवाह में बड़ी बहू ने अपनी औकात से बढ़कर खर्चा किया था। अपने कलेजे के टुकड़े को खुद से अलग करते हुए बिदाई की बेला में फूट फूट कर रोई थी।

उसके कानों में बार बार  मंगरी के मां के कहे शब्द गूंज रहे थे और उसकी मां का चेहरा उसके स्मृति पटल पर उभर रहा था। लेकिन तब तक किसी को भी यह पता नही था कि मंगरी जिस परिवार में जा रही है, वो  साक्षात् नर पिशाच है। उम्मीद से ज्यादा पाने पर भी उनकी इच्छा अभी पूरी नहीं हुईं हैं। और ज्यादा पाने  कि चाह उन नरपिशाचों की आंख में उभरती चली गई।

मँगरी जब ससुराल पंहुची तो अपनी प्रकृति के विपरीत लोगों के साथ तालमेल नहीं बैठा पाई।  इस, कारण सालों साल तक उपेक्षित व्यवहार तथा तानों के बीच उसने अपनी सेवा तथा तथा मृदुल व्यवहार से उनका दिल जीतने का पूरा प्रयास किया था। लेकिन वह सफल न हो सकी अपने उद्देश्य में क्योंकि ससुराल वाले लोगों की मंशा तो कुछ और थी उनके इरादे नेक नहीं थे।

ससुराल में पारिवारिक कलह मनमुटाव कुछ इस तरह बढा कि ससुराली एक दिन गर्भावस्था में ही मायके की सीमा में उसे छोड़ चलते बनें। उस दिन उसके सारे सपने टूट कर बिखर गये।  विवश मंगरी न चाहते हुये भी रोती बिलखती मायके में अपने घर के दरवाजे पर पहुंची। उसे देखते ही बड़ी बहू नें दौड़ कर गले लगा  ममता के आंचल में  समेट लिया था और मंगरी जोर जोर से दहाड़े मार कर रो पड़ी थी।

इसके साथ ही बड़ी बहू की  अनुभवी निगाहों ने सब कुछ समझ लिया था। उन्हें इस  बात का बखूबी एहसास हो गया था कि आज एक बार फिर पुरुष प्रधान समाज नें किसी दूसरी सीता को जीवन की जलती  रेत पर अकेली तड़पनें के लिए छोड़ दिया हो। उसके बाद बड़ी बहू नें रिश्तेदारों परिवार तथा समाज के वरिष्ठ जनों को साथ ले सुलह समझौते का अंतिम प्रयास किया, लेकिन बात बनी नहीं बिगडती ही गई।  सारे प्रयास असफल साबित हुए दवा ज्यों ज्यों की मर्ज बढ़ता गया।  सुलह समझौते का कोई प्रयास काम नहीं आया तो थक हार कर बड़ी बहू नें  न्यायालय के दरवाजे पर दस्तक दी और इसी के साथ शुरू हो गया न्यायालय में दांव पेंच की लड़ाई के साथ तारीखों का अंतहीन सिलसिला जो बड़ी बहू के जीवन में खत्म नही हुआ और मंगरी के न्याय की आस मन में लिए ही एक दिन भगवान को प्यारी हो गई।

मंगरी अकेली रह गई जमाने से संघर्ष करने के लिए, उसके हौसलों में फिर भी कोई कमी नहीं आई।

बड़ी बहू की असामयिक मृत्यु ने बहुत कुछ बदल कर रख दिया था। बड़ी बहू नहीं रही। मंगरी अकेली हो गई।  ससुराल से मायके छोडे़ जाने के बाद उसे पुत्र की प्राप्ति हुई, सिर से ममता की छाया उठने के बाद उसने अपने तथा बच्चे के भविष्य के लिए बड़ी बहू द्वारा शुरू की गई न्यायिक लड़ाई को उसके आखिरी मुकाम तक पंहुचाने का निर्णय ले लिया था मंगरी ने और उन नर पिशाचों से अपना हक पाने पर आमादा हो गई थी।

न्याय पाने के लिए हर कुर्बानी देना स्वीकार किया था उसने।  वह तारीख़ दर तारीख बच्चे को गोद उठाये सड़कों की धूल फांकती रही। न्याय की आस में न्यायालय के चक्कर पे चक्कर लगाती गई लेकिन न्याय से भेंट होना उतना ही छलावा निकला जितना अपनी परछाई पकड़ना।

कभी हड़ताल, तो कभी न्यायाधीश का अवकाश लेना, कभी वादी प्रति वादी अधिवक्ताओं का तारीख लेना।  इन्ही दाव पेंचो के बीच फंसी मंगरी की जिन्दगी उस कटी फटी पतंग की तरह झूल रही थी, जो झुरमुटों में फंसी फड़फड़ा तो सकती थी, लेकिन उन्मुक्त हो नीलगगन में उड़ नहीं सकती।

कुछ भी करना बस में नहीं, हताशा और निराशा के क्षणों में डूबती उतराती मंगरी का उन बिपरीत परिस्थितियों से उबरने का संघर्ष जारी था। बड़ी बहू की मृत्यु के बाद एकाकी जीवन के पीड़ा दायक जीवन जीने को विवश थी।  आमदनी का कोई जरिया नहीं घर में गरीबी के डेरे के बीच मंगरी उतना ही कमाई कर पाती जितनें में माँ बेटों के दोनों जून की रोटी का जुगाड़ हो पाता।

वह पैतृक जमीन तथा बटाई की जमीन पर हाड़तोड़ मेहनत करती, लेकिन उसकी फसल कभी सूखा, तो कभी बाढ़ की भेंट चढ़ जाती।  उपर से रखवाली न होने से ऩंदी परिवार  तथा नील गायों का आतंक अलग।  इस प्रकार खेती किसानी मंगरी के लिए घाटे का सौदा साबित होती रही।  महाजनों का कर्जा मूल के साथ सूद समेत सुरसा के मुंह की तरह बढता जा रहा था। मंगरी की सारी पैतृक संपदा लील गया था और उसकी संपत्ति सूदखोरों के चंगुल मे फसती चली गई।

अब उसके पास सहारे के रुप में टूटा फूटा घर तथा सिर ढकने को मात्र आंचल का पल्लू ही बचा था, जिसमें वह कभी दुख के पलों में अपना मुंह छुपा रो लेती और अपना गम थोड़ा हल्का कर लेती।  उसका शिशु अब शैशवावस्था से निकल किशोरावस्था में कदम रखने वाला था।  उसकी आंखों में बच्चे को पालपोस पढा लिखा एक अच्छा वकील बनाने का सपना मचल रहा था।

वह रात दिन इसी उधेड़ बुन में रहती थी कि जिस अन्याय की आग में वह तिल तिल कर रोज जली है और लोग न जलने पाये उसका बेटा उन हजारों दीन दुखियों को न्याय दिला सके जो सताये हुए लोग है।

इसी बीच न्यायालय से मंगरी को चार हजार मासिक गुजारा भत्ता देने का आदेश पारित हुआ था, उस दिन मंगरी बड़ी खुश थी।  उसे लगा कि अब उसे न्याय मिल जायेगा उसका बेटे को पढाने लिखाने का सपना साकार हो जायेगा।  उसके जीवन की राहें आसान हो जायगी।

यह सोच उसका न्यायिक ब्यवस्था पर भरोसा दृढ हो गया था। पर हाय रे किस्मत! यथार्थ के धरातल पर उसका सपना सपना ही रहा।  न्यायिक आदेश भ्रष्ट पुलिसिया तंत्र की भेंट चढ़ फाईलों में दब महत्व हीन हो रह गया।  न्यायिक आदेश तो सिर्फ जायज हक पर मोहर ठोकता है और फिर उसे भूल जाता है, क्योंकि न्यायिक आदेश के अनुपालन कराने के लिए जिस पैसे और पैरवी की जरूरत होती है वे दोनों ही मंगरी के पास नहीं थे,  जिसके चलते आदेश की प्रति फाइलों के अंबार में दबी दम तोड़ गई और उसे न्याय न दिला सकी, गुजारे की राशि मंगरी न पा सकी।

मंगरी चकरघिन्नी बन कभी वकील की चौकी, कभी न्यायालय परिसर, कभी भ्रष्ट पुलिसिया तंत्र के आगे हाथ जोड़कर रोती गिड़गिड़ाती दिखाई देती।  कभी कोई उसके जवान जिस्म को खा जाने वाले अंदाज में घूरता नजर आता तो वह सहम नजरें झुका कर खुद में सिमटते नजर आती।  उसे समझ नहीं आता कि आखिर वह करे भी तो क्या करे,?

क्रमश: पथराई आंखों का सपना भाग-2

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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