सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  गुड समरीतान)

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – गुड समरीतान ?

(दो सत्य घटनाओं पर आधारित यह संस्मरण है। दोनों घटनाओं को पढ़ने पर ही संपूर्ण कथा स्पष्ट हो सकेगी।)

भाग एक

समीर मुखर्जी अपने शहर के एक प्रसिद्ध कंपनी में उच्च पदस्थ व्यक्ति थे। धन -दौलत, सामाजिक प्रतिष्ठा, बड़ा सा बंगला और सुखी परिवार ये सब कुछ जीवन में अर्जित था। तीन बेटियाँ थीं जिन्हें प्रोफेशनल एज्यूकेशन दिलाकर  समयानुसार विवाह भी करवा चुके थे और वे तीनों विदेश में रहती थीं।

अब हाल ही में समीर रिटायर हुए। अति प्रसन्न थे कि अब पति-पत्नी  फ्री हो गए और  खूब घूमेंगे। कोलकाता से निकले एक लंबा अंतराल बीत चुका था, कई ऐसे रिश्तेदार थे जो बंगाल के छोटे – छोटेे गाँवों में रहते थे  जिनसे मिले कई वर्ष बीत गए थे। वे फिर उन भूले-बिसरे और शिथिल पड़े तारों को जोड़ना चाहते थे।

समीर और सुमिता कोलकाता जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि उससे पहले कंप्लीट मेडिकल चेक अप करवा लेना चाहते थे। यह रेग्यूलर चेक अप था और प्रति वर्ष करवाते रहे तो खास चिंता की बात नहीं थी। पर भगवान की योजना कुछ और ही थी। सुमिता के स्कैन में आंत में कोई ग्रोथ दिखाई दिया और  प्रारंभ हुआ अनेक विभिन्न प्रकार के टेस्ट। बायप्सी हुई और पता चला कि उन्हें कैंसर था जो काफी फैल भी चुका था। दोनों पर मानो पहाड़ टूट पड़ा। अब शुरू हुआ एक नया युद्ध। अस्पतालों के चक्कर, सर्जरी, और फिर कीमो। जिस घर में सुख शांति और समृद्धि का वास था वहाँ श्मशान की – सी चुप्पी छा गई। सुख और खुशियाँ न जाने किस खिड़की से बाहर निकल गए और दुख- दर्द ने घर भर में पैर पसार लिए।

समीर के बचपन के एक मित्र थे गौतम चौधरी, वे अपने शहर के  मेडिकल कॉलेज के रिटायर्ड डीन थे। अब रिटायर होने पर कोलकाता के पास एक छोटे से गाँव में अपनी विधवा बड़ी बहन को साथ लेकर रहते थे। स्वयं विधुर तथा नि: संतान थे समाज सेवा में मन लगाते थे। गाँव वालों को फ्री ट्रीटमेंट देते, सरकारी अस्पतालों से संपर्क करवाते, भर्ती करवाते और व्यस्त रहते।

उन्हें जब से सुमिता की बिगड़ती हालत की जानकारी मिली वे अक्सर समीर के घर आने लगे और न केवल अपनी बातों से सुमिता को हँसाते रहते, उसे प्रसन्न रखने का प्रयास करते रहे  बल्कि समीर के लिए बहुत बड़े इमोशनल सपोर्ट भी थे।

तीन – चार माह के भीतर ही सब कुछ खत्म हो गया। कहाँ मुखर्जी दंपति फ्री होकर घूमने – फिरने की योजना बना रहे थे और कहाँ भीषण कष्ट सहती जीवन संगिनी का साथ ही छूट गया। समीर टूट से गए। ईश्वर में जो आस्था थी वह टूट गई। जिस दिन पत्नी की अस्थियाँ बहाने गए थे उस दिन अपना जनेऊ भी न जाने क्या सोचकर नदी में बहा आए।

कुछ दिन बाद घर के छोटे से मंदिर में जितनी देवी-देवताओं की मूर्तियाँ और पूजा की सामग्री थी सब एक कार्टन में डालकर किसी मंदिर में छोड़ आए। गौतम लगातार  चुपचाप समीर का साथ देते रहे। वे उसके मन की हालत को समझ रहे थे। शायद स्वयं इसी दौर से गुज़र चुके थे, भुग्तभोगी थे, इसलिए समीर के दर्द की गहराई को नापने की क्षमता भी रखते थे।

सुमिता ने अपनी आँखें दान की थी, समीर ने दो महीने के भीतर उसकी सभी वस्तुएँ बेटियों और ज़रूरत मंदों में बाँट दी बस उसका चश्मा अपने पास रख लिया। गौतम समीर की मानसिकता को भली-भांति समझ रहे थे। उसे घर से दूर ले जाना जरूरी था इसलिए अपने साथ कोलकाता ले गए।

शुरू-  शुरू में समीर चुप रहते थे, हँसना मानो छोड़ ही दिया था। पर गौतम एक सच्चे दोस्त की तरह निरंतर उसका साथ दे रहे थे। कभी गंगा के तट पर घुमाने ले जाते कभी नाव में सैर कराते, कभी गंगा तट पर बैठ खगदल को अपने वृक्षों पर लौटते हुए निहारते  कभी बँधी नावों से टकराती लहरों का गीत सुनते तो कभी रेत पर बैठकर केकड़ों  के क्रिया कलाप देखते। कभी गाँवों में रहते  रिश्तेदारों से मिलवा लाते तो कभी ताश या शतरंज खेलने के बहाने उसका मनोरंजन करते। समीर के भीतर भीषण खलबली – सी मची हुई थी, जिसे केवल गौतम समझ पा रहे थे। एक बचपन का मित्र ही शायद ऐसा कर सकता है।

भाग दो

देखते ही देखते छह महीने बीत गए। समीर अब फिर से हँसने लगे, बोलने लगे लोगों से मिलकर खुशी ज़ाहिर करने लगे। जिस तरह भारी वर्षा के बाद जब बादल छँट जाते हैं तब दसों दिशाएँ चमकने लगती हैं, एक ताज़ापन-  सा प्रसरित हो उठता है। बस कुछ इसी तरह समीर भी मानो काली घटाओं को पीछे धकेलकर बाहर निकल आए थे।

घर से दूर काफी लंबे समय तक रह लिए थे। यद्यपि सुमिता के बिना घर खाली था पर उसकी यादें उसे पुकार रही थी। अब वे घर लौटना चाहते थे। वे जानते थे सुमिता के बिना घर में रहना कठिन होगा पर कब तक सच्चाई से भागते भला!

गौतम के साथ एक दिन आखिर एयरपोर्ट आ ही गए। एयरपोर्ट के बाहर ही भारी भीड़ दिखाई दी तो दोनों मित्र उस भीड़ में शामिल हुए यह देखने के लिए कि शायद कोई दुर्घटना घटी हो तो सहायता दे सकें।

देखा एक अधेड़ उम्र की महिला रो रही थी और सिक्यूरिटी व पुलिस वाले उससे सवालात कर रहे थे। पास जाकर देखा तो वह महिला समीर के बहुत दूर के रिश्ते की बहन मीनू दीदी थीं। जिनसे वह कुछ माह पहले ही मिलकर आए थे। समीर से आँखें मिलते ही मीनू दीदी “भाई मुझे बचाओ ” कहकर रोने लगीं। उसे शांत किया, पानी पिलाया, भीड़  हटाई गई। एयर पोर्ट के विसिटर लाऊँज में ले जाया गया उसे। थोड़ा स्वस्थ होने पर मीनू दीदी ने जो कुछ कहा वह सुनकर उपस्थित लोग हतप्रभ हो गए।

एक माह पूर्व उनका बेटा अमेरिका से आया था। वह जादवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से निकला मेधावी छात्र था। नौकरी भी अच्छी मिली थी फिर विदेश जाने का मौका मिला। कुछ वर्ष वहीं अमेरिका में काम करता रहा। शादी हुई, बच्चा हुआ हर साल एक बार परिवार को लेकर आता रहा। इस बार वह अकेला आया और माँ को साथ लेकर जाने की ज़िद करने लगा। पास – पड़ोस के लोगों ने भी मीनू दीदी के भाग्य की सराहना की कि बेटा माँ का ध्यान रखने के लिए साथ रखना चाहता है। बेटे ने कई विभिन्न कागज़ातों पर माँ के अँगूठे लगवाए। पुश्तैनी हवेली थी जिसकी गिरती हालत थी पर ज़मीन की कीमत चढ़ी हुई थी। संपत्ति अच्छे दाम पर बेचकर सारा रुपया पैसा बैंक में जमा किया गया। माँ -बेटे का जॉइंट अकाउंट था। वह निरक्षर थी, जैसा बेटा कहता गया वह करती रही। एक सूटकेस में अपने थोड़े कपड़े और गहने लेकर वे उस दिन सुबह एयरपोर्ट आए। बेटे ने माँ को एयरपोर्ट के बाहर एक काग़ज़ हाथ में लेकर बिठाया और अभी आता हूँ कहकर अपना सामान लेकर जो गया तो अब तक नहीं लौटा।

पिछले पाँच घंटों से मीनू दीदी अपने सूटकेस के साथ बैठी रही। इतनी देर से वहीं होने के कारण सिक्यूरिटी ने सवाल -जवाब करना शुरू किया। उनके हाथ में जो कागज़ थमाकर उनका बेटा गया था वह था मेट्रोरेल का टिकट!! जब उनसे पासपोर्ट के बारे में पूछा गया तो वे बोलीं कि उनके पास कुछ भी नहीं हैं और पासपोर्ट क्या चीज़ होती है वे नहीं जानतीं। एक यात्री ने अपना पासपोर्ट दिखाया तो उन्होंने कहा कि उनके बेटे के हाथ में उन्होंने वैसी पुस्तक देखी थी। अमेरिका जानेवाली एवं उड़ान भर चुकी एयरलाइंस से मालूमात किए जाने पर ज्ञात हुआ कि मीनू दीदी का बेटा माँ को छोड़कर निकल चुका था।

समीर और गौतम  मीनू दीदी को गौतम के घर ले आए। बैंकों में जाकर पता किया तो पाया कि लाखों रुपये जो हवेली बेच कर मिले थे उसमें से पच्चीस हजार छोड़कर बाकी रकम मीनू दीदी के बेटे ने अपने अलग बैंक अकाउंट में ट्रांसफर कर लिया था। वेलप्लैन्ड प्लॉट !!!! उफ़ भयंकर योजना!!!!

मीनू दीदी को उनके गाँव वापस तो नहीं भेज सकते थे, निंदा होती सो अलग गाँववाले जीना कठिन कर देते तिस पर अब रहने का कोई ठौर था नहीं।

कुछ दिन बाद समीर मीनू दीदी को लेकर अपनघरशहर, अपने घर लौट आए। दोनों दुखी थे एक को धोखा दिए जाने का दर्द था और दूसरे के जीवन संगिनी के विरह का दुख। पर दोनों ने एक दूसरे को संभाल लिया। सहारा दिया विश्वास और भरोसा दिया।

अब मीनू दीदी ने घर संभाल लिया। समीर की बेटियाँ आती जाती रहतीं, उनके बच्चे आते और मीनू पीशी ( बुआ ) के स्नेह का आनंद उठाते।

इस घटना ने समीर मुखर्जी को एक नई दिशा दी। मीनू दीदी के बेटे जैसे हज़ारों होंगे जो माँ – बाप को ठगते हैं, घर से निकाल देते हैं, बेसहारा कर देते हैं। उनकी निरक्षरता का संतान लाभ भी उठाती हैं। इसलिए समीर ने अपने ही बंगले के एक हिस्से में ‘ क्रेश फॉर दी ओल्ड ‘ की व्यवस्था की। जिन लोगों को कभी बाहर जाने की ज़रूरत पड़ती पर बूढ़े माता-पिता को साथ लेजाना संभव न होता वे देख – रेख के लिए तथा कुछ समय के लिए अपने माता-पिता को समीर के क्रेश फॉर दी ओल्ड में छोड़ जाते। यह व्यवस्था पूरे वकालती कागज़ातों पर हस्ताक्षर लेकर पूरे  किए जाते ताकि छोड़कर भागने का मार्ग न मिले !

मीनू दीदी को घर परिवार मिला, इज्ज़त मिली, अपने मिले। वे  अपने कर्त्तव्यों को खूब अच्छे से निभाने लगीं और समीर मुखर्जी आज एक अच्छे समाज सेवक बन गए। उनका घर भर गया, अकेलापन दूर हुआ।

आज उनके इस क्रेश फॉर दी ओल्ड में दो बूढ़े पिता, एक दंपति और दो बूढ़ी माताएँ रहती हैं। मनुष्य कुछ करना चाहता है पर ईश्वर उससे कुछ और ही करवाते हैं।

आज हमारे समाज के द गुड समरीतान हैं समीर मुखर्जी!!!

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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