डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – सुरक्षित सम्मान की गारंटी। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 226 ☆

☆ व्यंग्य  – सुरक्षित सम्मान की गारंटी

नगर के जाने-माने लेखक छोटेलाल ‘नादान’ इस वक्त अपने सम्मान के लिए सम्मान- समारोह में बैठे हैं। सम्मान नगर की जानी मानी संस्था ‘अभिशोक’ के द्वारा हो रहा है। ‘अभिशोक’ लेखकों के लिए दो ही काम करती है –अभिनन्दन और शोकसभा। इसीलिए संस्था का नाम ‘अभिशोक’। फिलहाल अभिनन्दन और सम्मान का कार्यक्रम चल रहा है।

‘अभिशोक’ संस्था प्रतिवर्ष इक्कीस लेखकों का सम्मान करती है। इस बार के इक्कीस में ‘नादान’ जी भी शामिल हैं। साल में कई बार संस्था के पदाधिकारियों के घुटने और ठुड्डी छू कर उन्होंने इस साल के इक्कीस में अपनी जगह सुनिश्चित की। अब वे अपनी पुलक दबाये स्टेज पर प्रतीक्षारत बैठे हैं।

सम्मान कार्यक्रम शुरू हो गया है लेकिन ‘नादान’ जी का नंबर सत्रहवाँ है। एक-एक सम्मानित के सम्मान में समय लग रहा है क्योंकि कई सम्मानित अपने परिवार को साथ लाये हैं जो सम्मान बँटाने और फोटो खिंचाने के लिए स्टेज पर पहुँच जाते हैं। कई सम्मानित भावुक होकर परिवार के लोगों से लिपटकर रोने लगते हैं। इसीलिए कार्यक्रम मंथर गति से चल रहा है।

‘नादान’ जी अपनी जगह क्समसा रहे हैं। सम्मान में होते विलम्ब के साथ धीरज छूट रहा है। बार-बार माथे का पसीना पोंछते हैं। दिल की धड़कन असामान्य हो रही है।

अन्ततः ‘नादान’ जी का नंबर आया और वे हड़बड़ा कर उठे। आगे बढ़ने से पहले अचानक सीने में दर्द उठा और वे वापस कुर्सी में ढह गये। अचेत हो गये। लोग उन्हें उठाकर अस्पताल ले गये। दो घंटे की कोशिशों के बाद डाक्टरों ने उन्हें स्वर्गवासी घोषित कर दिया।

‘नादान’ जी की चेतना लौटी तो देखा सामने एक छोटे से सिंहासन पर एक सयाने सज्जन बैठे हैं और उनके आजू-बाजू चार छः लोग अदब से खड़े हैं। पता चला सिंहासन पर बैठे सज्जन चित्रगुप्त थे।

चित्रगुप्त जी थोड़ी देर तक अपने बही खाते के पन्ने पलट कर बोले, ‘आपके नाम का पन्ना मिल गया है। अभी आप एक-दो दिन विश्राम करेंगे। तब तक हम आपकी जिन्दगी का जमाखर्च देख लेंगे। उसी हिसाब से आपके भविष्य का फैसला होगा।’

‘नादान’ जी दुख और गुस्से से भरे बैठे थे। क्रोध में बोले, ‘वह सब ठीक है। हमें पता है कि एक दिन सबको यहाँ आना है, लेकिन यह क्या बात हुई कि आपने सम्मान से पहले यहाँ उठा लिया? क्या आपके दूत सम्मान का कार्यक्रम खत्म होने तक रुक नहीं सकते थे? आपको शायद पता नहीं कि पृथ्वी पर लेखक को सम्मान कितनी मुश्किल से मिलता है, कितने तार जोड़ने पड़ते हैं।’

चित्रगुप्त जी नरम स्वर में बोले, ‘वह सब माया है। यहाँ आने का समय सबके लिए नियत है। उसमें फेरबदल नहीं हो सकता।’

‘नादान’ जी ने तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया, ‘सब कहने की बातें हैं। आपके यहाँ रसूखदार लोगों के लिए सब एडजस्टमेंट हो जाते हैं। मनचाहा एक्सटेंशन भी मिल जाता है। सिर्फ हमीं जैसे लोगों के लिए ‘राई घटै, ना तिल बढ़ै’ की बात की जाती है।’

चित्रगुप्त जी ने अपनी पोथी से सिर उठाकर पूछा, ‘कौन सा पक्षपात किया हमने?’

‘नादान’ जी बोले, ‘एक हो तो बताऊँ। भीष्म पितामह को इच्छा-मृत्यु का वरदान कैसे मिला? उन्होंने अपने पिता का विवाह सत्यवती से कराने के लिए आजीवन अविवाहित रहने का प्रण लिया ताकि सत्यवती की सन्तान ही उनके पिता के बाद सिंहासन पर बैठे। इसी से प्रसन्न होकर राजा ने भीष्म को इच्छा-मृत्यु का वरदान दिया और भीष्म ने 58 दिन तक शर-शैया पर लेटे रहने के बाद शरीर छोड़ा। क्या यह आपकी सहमति के बिना हो सकता था?

‘दूसरा केस राजा ययाति का है। यमराज कई बार उनके प्राण लेने के लिए पहुँचे और उन्होंने कई बार उनकी खुशामद करके मृत्यु टाल दी। उन्होंने अपने पुत्र की जवानी माँग ली और फिर हजारों साल तक सांसारिक सुखों को भोगा। यह सब क्या आपकी सहमति के बिना संभव था?’

चित्रगुप्त असमंजस में अपना सिर खुजाने लगे। फिर बोले, ‘अब ये सब बातें मत उठाओ। तुम्हारा शरीर तो जल गया, इसलिए तुम्हें उस शरीर में वापस नहीं भेज सकते। अब क्या चाहते हो?’

‘नादान’ जी बोले, ‘अब यह नीति बनाइए कि किसी लेखक को सम्मान के बीच में नहीं उठाया जाएगा। आपके दूतों को हिदायत दी जाए कि जब सम्मानित अपने घर पहुँच कर परिवार और इष्ट-मित्रों को सम्मान-पत्र दिखाकर खुश और गर्वित कर दे उसके बाद ही आपकी कार्यवाही हो।’

चित्रगुप्त जी बोले, ‘ठीक है, मैं ऊपर बात करूँगा, लेकिन ये पुरानी बातें उठाना बन्द करो।’

दो दिन बाद मुनादी हो गयी कि मर्त्यलोक में किसी भी लेखक को सम्मान के कार्यक्रम के बीच में नहीं उठाया जाएगा।

यह सूचना पृथ्वी पर पहुँचने पर समस्त लेखक समुदाय हर्षित हुआ। यह इत्मीनान हुआ कि लेखक के सम्मान के दौरान दैवी शक्तियों के द्वारा कोई विघ्न-बाधा उपस्थित नहीं की जाएगी। किसी सम्मानित का ऊपर से बुलावा आएगा तो यमदूत सम्मान-कार्यक्रम खत्म होने तक कहीं बैठकर इन्तज़ार कर लेंगे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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