श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना जनु बरसा ऋतु प्रगट बुढ़ाई। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 163 ☆

☆ जनु बरसा ऋतु प्रगट बुढ़ाई… ☆

दोषारोपण करते हुए आगे बढ़ने की चाहत आपको बढ़ने नहीं दे रही है। पत्थरों को चीर कर नदियाँ राह बनाती हैं, यहाँ तक कि थोड़ी सी संधि में से बीज भी अंकुरित होकर कि वृक्ष का रूप धारण कर लेते हैं। जो लगातार कुछ सार्थक करेगा वो तो मंजिल तक पहुँचेगा। परन्तु क्या कारण है? कि कोई चलना चाहता है किंतु कागजों में, कल्पनाओं में या फिर मीडिया की पोस्ट में। जाहिर सी बात है जब कागज़ कोरा रहेगा तो परिणाम कोरे रहते हुए केवल हास्य प्रस्तुत करने के काम आएंगे। आश्चर्य की बात है कि आज के समय में जब हर व्यक्ति समय का सदुपयोग कर रहा है तो कुछ लोग कैसे हवाई घोड़े दौड़ा कर उसके पीछे – पीछे भागने की तस्वीरों को प्रायोजित ढंग से सजा रहे हैं।

खैर सावन के अंधे को हरियाली ही हरियाली दिखती है, कितनी बढ़िया कहावत है, इसका अर्थ तो अलग रूप में प्रयोग किया जाता है किन्तु इस दृश्य को देखकर मुझे यही अनायास याद आया कि ऐसा ही कुछ रहा होगा जब इस कहावत का पहली बार प्रयोग हुआ होगा।

क्या आप ने ऐसे प्राकृतिक स्थलों की सैर की है जो जन मानस की छेड़ – छाड़ से अभी अछूते हैं और हरियाली व सावन के सुखद मिलन को बयां करते हैं।

पोखर में भरा हुआ जल, आस – पास लगी हुई बड़ी- बड़ी घास, वृक्षों की झुकी हुई डालियाँ मानो जल को स्पर्श करने आतुर हो रहीं हैं।हरे रंग के कितने प्रकार हो सकतें हैं ये आपको ऐसे ही स्थानों में जाकर पता चलेगा, गहरा हरा, मूंगिया या काई हरा, तोता हरा, हल्का हरा व जो आपकी कल्पनाशक्ति महसूस कर सके वो सब दिखाई दे रहा है।यहाँ की ताज़गी, ठंडक व शुद्ध वायु तो आकर ही महसूस की जा सकती है।

मानसून के मौसम में ही खुद को ऊर्जा से भरपूर करें, आसपास की प्रकृति से जुड़ें, लोगों को जोड़ें व हरियाली बचाएँ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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