डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित एक विचारणीय व्यंग्य  ‘बुलडोज़र-क्रान्ति ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 173 ☆

☆ व्यंग्य ☆ बुलडोज़र-क्रान्ति

अरसे से शिकायत सुनते आये कि हमारे देश में न्याय व्यवस्था कच्छप गति से चलती है, कि न्याय के नाम पर तारीख पर तारीख मिलती है, कि दादा के लगाये मुकदमे का फैसला पोता ही सुन पाता है। न्यायालयों में ‘पेंडिंग’ लाखों मुकदमों की संख्या गाहे-बगाहे गिनायी जाती है।

लेकिन अब लगता है कि हमारे पुराने दर्द की दवा मिल गयी है। कुछ वैसा ही महसूस हो रहा है जैसा कभी जनता को पेनिसिलिन की खोज के समय हुआ होगा। अब न्याय की गाड़ी बुलेट ट्रेन की रफ्तार से चलेगी। ठीक भी है, जब देश में विकास छलाँगें ले रहा हो तो न्याय-व्यवस्था क्यों पीछे रहे? उसे भी वायु-वेग से दौड़ाने का नुस्खा प्राप्त हो गया है। इसीलिए उत्तर-प्रदेश के बाद कई राज्य-सरकारें इस तुरन्त फल देने वाली व्यवस्था को अपना रही हैं।

देश की न्याय व्यवस्था को रफ्तार देने वाले उपकरण का नाम बुलडोज़र है। अब बुलडोज़र देश के भारी-भरकम न्याय-तंत्र की जगह पर बैठेगा। मज़े की बात यह है कि बुलडोज़र हमारे समाज में कोई नयी चीज़ नहीं है। वह पचासों साल से मिट्टी या मकानों को खोदने या तोड़ने के छोटे-मोटे काम करता रहा है, लेकिन उसकी असली उपयोगिता हाल ही में ज़ाहिर हुई है। यानी ‘कँखरी लड़का, गाँव गुहार’ वाली बात हो गयी। न्याय-व्यवस्था का शर्तिया उपचार हमारे सामने था और हम उसे सुधारने के लिए सालों से मगजपच्ची करते रहे।

हम यह देखकर चमत्कृत हैं कि बुलडोज़र न्याय के मामले में सालों का काम कुछ घंटों में निपटाता है। आरोपी कहीं नारा लगाता है या पत्थर फेंकता है और उसकी गिरफ्तारी के  साथ बुलडोज़र उसके घर को ध्वस्त करने दौड़ पड़ता है। आरोपी को पहचानने, उसकी सफाई सुनने, उसकी सज़ा का निर्धारण— सब काम कुछ देर में एक ही कमरे में फटाफट हो जाता है, और फिर सज़ा मिलने में उतनी ही देर लगती है जितनी बुलडोज़र को गंतव्य तक पहुँचने में लगती है। इस तरह के न्याय को ‘कंगारू जस्टिस’ भी कहा जाता है क्योंकि इसमें न्याय सामान्य गति से चलने के बजाय कंगारू की तरह छलाँगें भरता है। मुग़लों, अंग्रेज़ों और रियासतों के ज़माने में ऐसी ही व्यवस्था लागू थी।

बुलडोज़र से टूटने वाले घर में आरोपी के अलावा और सदस्य भी रहते होंगे जिनमें बूढ़ों से लेकर महिलाएँ और बच्चे तक हो सकते हैं, लेकिन बुलडोज़र न्याय देने में कोई रू-रियायत नहीं बरतता। कुछ घंटों में सबके सर से छत ग़ायब हो जाती है और असीम, तारों-जड़ा आकाश नुमायाँ हो जाता है। ठंड या बारिश का मौसम हुआ तो स्थिति और भी दारुण हो सकती है। कोई एतराज़ करे तो मकान को अतिक्रमण बता दिया जाता है और एक-दो दिन पहले ज़ारी हुआ नोटिस भी प्रस्तुत कर दिया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि अधिकारियों को अतिक्रमण का पता अचानक तभी चलता है जब आरोपी पर उपद्रव का आरोप लगता है। बुलडोज़र की इस धमाचौकड़ी को देखकर मेरा दोस्त मन्नू बहुत भयभीत है। कहीं भी बुलडोज़र देखकर वह आँख मूँदकर उसे प्रणाम करता है, कहता है, ‘ ये हमारे नये देवता हैं। इन्हें खुश रखना ज़रूरी है। जिस दिन ये नाराज़ हो जाएँगे उस दिन दिन में तारे दिख जाएँगे।’

उत्तर प्रदेश में एक व्यापारी के घर पर बुलडोज़र इसलिए चल गया क्योंकि अधिकारी महोदय ने व्यापारी से कुछ सामान ख़रीदा था और व्यापारी भुगतान माँग रहा था।

घर टूटने के बाद आरोपी के लिए अपनी फरियाद लेकर अदालत जाने का रास्ता खुला रहता है, लेकिन इसका मतलब अदालत और वकीलों पर कई हज़ार का खर्च और कई साल तक अदालतों के चक्कर लगाना होता है। यानी घर टूटने से टूटा व्यक्ति न्याय की चक्की में फँस कर और टूट जाता है।

देश में बहुत से लोग इस नयी न्याय- व्यवस्था से बहुत खुश हैं क्योंकि बुलडोज़र ‘उन’ पर चल रहा है, हम पर नहीं। जिस दिन हम पर चलने की नौबत आएगी उस दिन देखेंगे। 

परसाई जी की रचना ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’ में मातादीन कहते हैं, ‘पुलिस को यह अधिकार होना चाहिए कि अपराधी को पकड़ा और वहीं सज़ा दे दी। अदालत में जाने का झंझट नहीं।’

इसमें शक नहीं कि नयी व्यवस्था के पूरी तरह लागू होने से अरबों रुपयों की बचत होगी। सारी अदालतें गायब हो जाएँगीं और वकीलों को काला कोट उतारकर कोई दूसरा कोट पहनना पड़ेगा। अदालतों में कार्यरत लाखों कर्मचारियों की छुट्टी हो जाएगी। ग़रज़ यह कि नयी व्यवस्था हमारे हुक्मरानों के लिए ‘कम कीमत, बालानशीं’ साबित होने वाली है। पहले कंप्यूटर और मोबाइल ने बहुतों की नौकरियाँ और धंधे खाये, अब वही काम बुलडोज़र करेगा।

एक पढ़ी-लिखी महिला ने हाल में फेसबुक पर लिखा कि अपनी प्रेमिका के 35 टुकड़े करने वाले आरोपी पर मुकदमा चलाने की बजाय उसका तत्काल एनकाउंटर कर दिया जाना चाहिए। यह नयी न्याय-व्यवस्था का एक और आयाम हो सकता है। वैसे भी हमारे देश में कई एनकाउंटर हो चुके हैं और कई पुलिस-अधिकारी ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट’ के रूप में विख्यात हो चुके हैं। बुलडोज़र के साथ एनकाउंटर का सहयोग ‘मणि-कांचन योग’ हो सकता है। कुछ साल पहले हैदराबाद की एक महिला डॉक्टर की हत्या के आरोपियों को पुलिस ने तत्काल एनकाउंटर में निपटा दिया था। तब जनता ने संबंधित अधिकारियों-सिपाहियों पर खूब प्यार बरसाया था। बाद में पता चला कि संबंधित सभी पुलिसवाले हत्या के जुर्म में नप गये।

हम विश्वगुरु हैं, दुनिया को ज्ञान देते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि बुलडोज़र के उपयोग का नया आयाम जो हमने खोजा है, उसकी जानकारी अन्य देशों को दें ताकि वे भी अपने यहाँ यह चमत्कारी, तुरत फल देने वाली न्याय-प्रणाली लागू कर सकें।

ताज़ा खबर यह है कि उत्तर प्रदेश के हमीरपुर में एक ससुर साहब ने दामाद को दहेज में कार की जगह बुलडोज़र दिया है ताकि आमदनी का पुख्ता ज़रिया बन सके। शायद उन्हें भरोसा होगा कि कोई और नहीं तो सरकार तो बुलडोज़र को किराये पर ले ही लेगी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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