डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य ‘मुश्किल में मास्साब’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 171 ☆

☆ व्यंग्य ☆ मुश्किल में मास्साब

भोपाल की खबर है कि एक स्कूल में शिक्षिका ने बारहवीं की छात्रा को थप्पड़ मार दिया और लड़की के घरवालों ने शिक्षिका के खिलाफ जुवेनाइल जस्टिस कानून के तहत शिकायत दर्ज़ करा दी। शिकायत का आधार यह कि थप्पड़ की मार से छात्रा की श्रवण-शक्ति प्रभावित हुई है। खबर के अनुसार जब शिक्षिका छात्राओं की डायरी चेक कर रही थीं तब लड़की च्यूइंग गम चबाती पायी गयी।

वह ज़माना गुज़र गया जब छात्र पिटाई को गुरु का प्रसाद मानते थे। चालीस पचास साल पहले पिटाई को लेकर शिक्षक के विरुद्ध शिकायत का भाव किसी अभिभावक के मन में नहीं आता था। अभिभावक यह मान कर चलता था कि शिक्षक हमेशा छात्र का हित सोचकर ही काम करेगा। छात्र भी हर सज़ा को सिर झुका कर स्वीकार कर लिया करता था। तब अंग्रेजी की कहावत ‘spare the rod, spoil the child’ पर भरोसा किया जाता था। अंग्रेजी के शब्दकोश में एक शब्द ‘whipping boy’ आता है जो उन लड़कों के लिए प्रयोग किया जाता था जो राजपुत्रों के साथ इसलिए स्कूल भेजे जाते थे कि राजपुत्रों के द्वारा कोई गलती किये जाने पर उनकी जगह इन लड़कों को पीटा जा सके। कारण यह कि राजपुत्रों को पढ़ाने वाले मास्टर जी उन पर हाथ नहीं उठा सकते थे।

छात्र-जीवन में पिटाई के नाना रूपों के दर्शन हुए। कुछ शिक्षक पीटने में आनन्द का अनुभव करते थे तो कुछ के चेहरे पर ऐसा कष्ट का भाव आता था जैसे सज़ा छात्र को नहीं, उन्हीं को मिल रही हो। हाई स्कूल में संस्कृत विषय वैकल्पिक था,जो कुछ ऊँची क्लास में लिया जा सकता था।  जब तक छात्र संस्कृत विषय नहीं ले लेता था तब तक हमारे संस्कृत के मास्टर साहब उस पर बड़ा प्यार बरसाते थे, लेकिन विषय ले लेने के बाद गलती होने पर तबियत से धुनाई करते थे। तब पिटाई छिपाकर नहीं होती थी। छात्र के द्वारा कोई गंभीर अपराध होने पर हेडमास्टर साहब प्रार्थना के बाद सबके सामने उसका अभिनंदन कर देते थे, ताकि अन्य छात्र सबक ले लें।

मेरे बचपन में ज़्यादातर लोगों के पास साइकिल भी नहीं होती थी। ज़्यादातर पैदल चलना ही होता था। कस्बा छोटा था, इसलिए छात्र कहीं भी अपने गुरु जी से टकरा जाता था। हमारे एक शिक्षक पांडे जी थे, जिनके बारे में मशहूर था कि सड़क पर मिल जाने पर वे वहीं छात्र से कठिन शब्दों के स्पेलिंग पूछने लगते थे। असंतुष्ट रहने पर तत्काल छात्र के कान भी ऐंठ दिये जाते थे। पांडे जी की कान ऐंठने की एक तकनीक मशहूर थी। कई बार वे कान में कंकर रखकर उसे मरोड़ते थे ताकि छात्र को आगे गलती करने की हिम्मत न हो। एक और अति वृद्ध मास्टर साहब थे जो क्रोधित होने पर छात्रों के साथ असंसदीय भाषा का प्रयोग करने लगते थे। उनके कुछ प्रिय जुमलों में एक ‘पाख़ाने का लोटा’ था। एक और था, लेकिन वह लिखने लायक नहीं है।

तब अभिभावकों को शिक्षकों पर भरोसा था। संतान को उनके भरोसे छोड़कर वे निश्चिंत रहते थे। शिक्षकों के दर्शन करने की ज़रूरत कम ही महसूस होती थी। अब सब कुछ व्यवसायिक हो गया है।  कई परिवारों में छात्रों को सिखाया जाता है कि पढ़ाना शिक्षक की ड्यूटी है, जिसके लिए उसे वेतन मिलता है। इसलिए उसे ज़्यादा तरजीह देने की ज़रूरत नहीं है। अभिभावक जो खर्च करता है उसका हिसाब माँगने का उसे अधिकार है। एक विज्ञापन में छात्रा को अपनी शिक्षिका से ‘गुड मॉर्निंग, टीचर’ कहते हुए देखा। यानी शिक्षिका को उसके पेशे के नाम से बुलाया जाता है, उसे ‘मैडम’ या ‘दीदी’ कहना ज़रूरी नहीं है। इस संबोधन से छात्र और शिक्षक के बीच फैली दूरी को समझा जा सकता है।

अब ऑनलाइन क्लासेज़,कोचिंग क्लासेज़ और विद्वानों के द्वारा लिखित हर विषय की कुंजियों की कृपा से स्कूलों और कॉलेजों में छात्रों की आवाजाही घट रही है। परिणामतः छात्र और शिक्षक एक दूसरे के लिए अजनबी हो रहे हैं।

शिक्षक बदनीयत से या अकारण मारपीट करे तो शिकायत करना वाजिब है, फिर भी आदमी के जीवन में ज्ञान की अहमियत को देखते हुए शिक्षक और छात्र के बीच भरोसे का रिश्ता ज़रूरी है। स्कूलों में जिस तरह छोटे बच्चों को  टेबिल्स और वर्णाक्षर सिखा दिये जाते हैं, वह घर में संभव नहीं है।

मेरे प्रायमरी स्कूल में जब बीच में ‘ब्रेक’ होता था तब छात्र आँगन में बैठे शिक्षकों के चरण छूने को उमड़ते थे। स्कूल छोड़ने के बाद पता चला कि मेरे हेडमास्टर साहब हमारी वर्ण-व्यवस्था के हिसाब से नीची जाति में आते थे, लेकिन किसी अभिभावक ने इस पर विचार नहीं किया। वे अब नहीं हैं, लेकिनआज भी उनको याद करके मन श्रद्धा से भर जाता है। अब स्कूलों में मध्याह्न भोजन के वितरण में जातिवाद के प्रवेश की बातें पढ़कर मन विषाद से भारी हो जाता है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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