डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  सर्दियों के फायदे। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 120 ☆

☆ व्यंग्य – सर्दियों के फायदे 

ज्ञानी लोग सर्दियों के बहुत से लाभ बताते हैं। मसलन, सर्दियाँ सेहत बनाने के लिए बढ़िया मौसम है। बादाम घोंटिए, मेवा खाइए और वर्जिश कीजिए। कहते हैं इस मौसम में हाज़मा बढ़िया काम करता है। जो खाइए सो भस्म।

लेकिन सवाल यह है कि जब मँहगाई के मारे आदमी खुद ही भस्म हो रहा हो तो वह क्या खाये और क्या भस्म करे? आज के ज़माने में दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो जाए तो खु़दा का शुक्र अदा कीजिए। बादाम-मेवा अब दूध-घी की तरह देवताओं के भोजन हो गये हैं। देवताओं से मेरा मतलब उन नर-रत्नों से है जिनके पास माल की कमी नहीं है और जिन्हें मँहगाई की गर्मी बिल्कुल नहीं व्यापती। ऐसे लोगों की हमारे देश में कमी नहीं है। लेकिन मेहनत और ईमानदारी की कमाई पर पलने वाले परिवार में मूँगफली तो आ सकती है, बादाम ख़्वाब की बात है।

बादाम और काजू-किशमिश बड़े लोगों की पार्टियों की शोभा बनते हैं जहाँ कलफदार वर्दी पहने सेवक चीज़ों को अदब से पेश करते हैं और अतिथिगण बिना सेवकों की ओर देखे, बातों में मशगूल, चीज़ों को उदासीनता से मुँह में डाल लेते हैं। इन पार्टियों में वे मंत्री, विधायक और अधिकारी भी होते हैं जो इस ग़रीब देश के प्रतिनिधि और सेवक कहलाते हैं।

वर्जिश करके भी क्या कीजिएगा? अब बलिष्ठ शरीर का उतना महत्व नहीं रहा जितना पहले था। अब छुरे, चाकू, तमंचे का ज़माना है। तगड़े पहलवान साहब किसी सींकिए का चाकू खाकर अस्पताल का सेवन करते हैं और सींकिया अपनी हड्डियाँ फुलाये घूमता है। फिर यह परमाणु-युद्ध और स्टार-वार्स का ज़माना है। कभी भी ज़िन्दगी की रील कट सकती है। इसलिए बादाम खाने और सेहत बनाने का कोई मतलब नहीं है। बीच में ही दुनिया ख़त्म हो गई तो बादाम पर ख़र्च किये सारे पैसे बेकार हो जाएँगे।

लेकिन बादाम वर्जिश को छोड़ दें तो सर्दियों के दूसरे फायदे हैं। अगर आपके पास फटी कमीज़ें हैं या कमीज़ों की कमी है तो सर्दियों का मौसम आपके लिए बड़ा ग़रीब परवर है। शर्त यह है कि आपके पास एक अदद कोट हो। मुझे ऐसे बहुत से सज्जन मिले जो फटी कमीज़ों का उपयोग जाड़े में कोट के नीचे कर लेते हैं। अगर आपका कोट खुले कॉलर वाला है तो कमीज़ का कॉलर साबित होना ज़रूरी है। अगर बन्द गले का कोट है तो चिथड़ा हुई कमीज़ भी चलेगी।

मेरे एक मित्र सर्दियों में बिना बाँह की कमीज़ पहनते थे। बाँहें फट जाने पर वे उन्हें काट कर अलग कर देते थे और इन बंडी कमीज़ों को सर्दियों के लिए सुरक्षित रख लेते थे।

कुछ ऐसा ही कमाल वे मोज़ों में दिखाते थे। एक बार उन्होंने जूतों को अपने चरणों से अलग किया तो देखा मोज़ों का पंजों वाला हिस्सा ग़ायब है। हमारे ज्ञानवर्धन के लिए उन्होंने बताया कि मोज़े पंजों पर फट गये थे, इसलिए उन्होंने पंजे वाला हिस्सा काट कर अलग कर दिया था। अब उनके मोज़ों की शक्ल उन ‘एनक्लेट्स’ जैसी हो गयी थी जिन्हें फुटबॉल के खिलाड़ी पहनते हैं। लेकिन जूते पहनने पर सब ठीक-ठाक दिखता था।

कुछ ऐसे महापुरुष भी मिले जो शेरवानी के नीचे सिर्फ बनियाइन पहनते थे। कमीज़ की खटखट ही नहीं। यह तो उनका बड़प्पन था जो बनियाइन पहन लेते थे। वह भी न पहनते तो उनका कोई क्या बिगाड़ लेता?

महिलाएँ भी इस मौसम में फटे ब्लाउज़ को शॉल के नीचे चला लेती हैं। शॉल सबसे बढ़िया पैबन्द का काम करता है। लेकिन शॉल के साथ यह दिक्कत होती है कि उसे बराबर सँभाले रखना ज़रूरी है। ज़रा सी असावधानी होने पर कलई खुल सकती है। कोट या शेरवानी के बटन बन्द कर लेने पर निश्चिंत हुआ जा सकता है, लेकिन शॉल में यह सुविधा नहीं है।

जिन लोगों को सफाई से परहेज़ है और जिन्हें गन्दे कपड़े पहनना सुहाता है, उनके लिए सर्दी का मौसम मददगार होता है। कोट के नीचे गन्दे कपड़े भी उसी तरह चलते हैं जैसे फटे। लेकिन इसके लिए बन्द कॉलर का कोट अनिवार्य है। कमीज़ से बदबू आने का ख़तरा हो तो कोट के ऊपर थोड़ा सेंट छिड़का जा सकता है। वैसे भी कई लोग नहाते कम और सेंट ज्यादा छिड़कते हैं।

इस सब में अटपटा कुछ भी नहीं है क्योंकि आज का ज़माना ऊपरी दिखावे का है। जितना दुनिया को दिखता है उतना ठीक रखो। मुलम्मा चमकदार होना चाहिए, भीतर सब चलता है। बहुत से कौवे सफेदी पोतकर हंस के रूप में पुज रहे हैं, इसलिए बाहरी टीम-टाम ठीक रखो, भीतर कितना गन्दा और जर्जर है इसकी चिन्ता छोड़ो।

लेकिन जैसा मैंने पहले अर्ज़ किया, सर्दियों का लाभ वही उठा सकते हैं जिनके पास एक अदद कोट या शेरवानी हो। जिनके पास सिर्फ फटी कमीज़ें हैं या जिन्हें सर्दियाँ नगर निगम के अलावों के बल पर काटनी हैं, उनके लिए इन बातों का कोई मतलब नहीं है। वहाँ समस्या कमीज़ जुटाने की है, उसे छिपाने की नहीं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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Mrs Sudershan khare

बहुत सही।पढ़कर अच्छा लगा