डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘इंकलाब और फर्नीचर की दूकान’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 119 ☆

☆ व्यंग्य – इंकलाब और फर्नीचर की दूकान 

रज्जू के घर कई दिन बाद गया था। ड्राइंग-रूम में दाख़िल हुआ तो देखा दीवान पर एक साहब छाती तक रज़ाई खींचे,लेटे, सिगरेट के कश लगा रहे हैं। सारे कमरे में सिगरेट की बू भरी हुई थी। सिरहाने सिगरेट के आठ दस टोंटे पड़े थे और अलमारी में ‘ब्लैक नाइट’ की एक ख़ाली बोतल रखी थी। एक तरफ एक अधखुला सूटकेस था जिसमें से कपड़े झाँक रहे थे। तीन चार कपड़े दीवान की पुश्त और किवाड़ पर टंगे थे। ख़ासा बेतरतीबी का आलम था।

अतिथि महोदय नौजवान ही थे। मुझे देखकर उन्होंने वैसे ही लेटे लेटे हाथ उठाकर सलाम किया। दस बज गये थे लेकिन ज़ाहिर था कि उनके लिए अभी बाकायदा सबेरा नहीं हुआ था।

रज्जू कहीं गया हुआ था। भीतर गया तो देखा भाभी का पारा ख़ासा गरम था। घर में हीटर की ज़रूरत नहीं थी। मैंने पूछा, ‘ये साहब कौन हैं?’

वे बोलीं, ‘इनके पुराने दोस्त हैं। आठ दिन से खून पी रहे हैं। हिलने का ना्म नहीं लेते। ये अभी उन्हीं के लिए अंडे लेने गये हैं। बिना आमलेट के उनका नाश्ता नहीं होता। इन्हें ऐसे ही निठल्ले दोस्त मिलते हैं।’

मैं भाभी के मिजाज़ पर दो चार ठंडे छींटे देकर वापस ड्राइंग रूम में आया तो अतिथि महोदय मेरे ऊपर इनायत करके अधलेटे हो गये। मेरी तरफ हाथ बढ़ाकर बोले, ‘मैं शम्मी, रज्जू का कॉलेज के ज़माने का दोस्त। यूँ ही अचानक याद आ गयी तो आ गया। वैसे भोपाल में रहता हूँ। आपकी तारीफ?’

मैंने कहा, ‘मैं जे.पी.शर्मा हूँ। रज्जू से बहुत पुराने ताल्लुक़ात हैं।’

वे बोले, ‘आपसे मिलकर ख़ुशी हुई।’

मैंने पूछा, ‘भोपाल में आप क्या करते हैं?’

वे थोड़ा हँसे, फिर छत पर आँखें टिकाकर बोले, ‘अजी जनाब, हमारी क्या पूछते हैं। बस यूँ समझिए कि—चला जाता हूँ हँसता खेलता मौजे हवादिस से, अगर आसानियाँ हों ज़िन्दगी दुश्वार हो जाए।’

मैं चमत्कृत हुआ। सोचा, यह तो कोई जीवट वाला, जुझारू आदमी है जो ज़िन्दगी से बहादुरी से दो दो हाथ कर रहा है। कहा, ‘लगता है आप बड़ी जद्दोजहद से गुज़र रहे हैं।’

वे सिगरेट के टोंटे को चाय के कप में बुझाते हुए लंबी साँस छोड़कर बोले, ‘अजी क्या पूछते हैं!बस यूँ समझिए कि आग के दरया में से डूब कर जा रहे हैं।’

मैं चुप हो गया तो वे बोले, ‘मेरे बारे में और कुछ नहीं जानना चाहेंगे?’

मैंने कहा, ‘क्यों नहीं!आपकी ज़िन्दगी तो ख़ासी दिलचस्प लगती है। फ़रमाइए।’

वे सिर को हथेली की टेक देकर, दुबारा छत पर नज़रें जमा कर धीरे धीरे बोले, ‘भोपाल में हमारे डैडी की फर्नीचर की बड़ी दूकान है। पाँच औलादों में मैं अकेला बेटा हूँ। मैं शुरू से शायर-तबियत और नफ़ासत-पसन्द इंसान रहा हूँ। डैडी का फर्नीचर का धंधा मुझे कभी पसन्द नहीं आया। कॉलेज के बाद मेरा बस यही शग़ल रहा—दोस्तों के साथ घूमना-घामना, खाना-पीना और मौज करना। एक दिन डैडी कहने लगे, बालिग़ हो गये हो, दूकान पर बैठो। मैंने कहा, मैं मुर्दा फर्नीचर के बीच बैठ कर क्या करूँगा, मैं तो ज़िन्दा चीज़ों का शैदाई हूँ। डैडी बेहद ख़फ़ा हो गये। कहने लगे,इसी फर्नीचर की रोटी खाता है और इसी की बुराई करता है?मैंने जवाब दिया, जनाब, रोटी तो ख़ुदा की दी हुई खाता हूँ। जिसने चोंच दी है वही चुग्गा देता है। आप खामखाँ क्रेडिट ले रहे हैं। बात बढ़ गयी। वे कहने लगे,दूकान पर बैठो, नहीं तो यहाँ से मुँह काला करो।

‘बात उसूलों की थी। मैंने फौरन घर छोड़ दिया। मम्मी ने मुझे चुपके से दस हज़ार रुपये पकड़ा दिये। वहाँ से लखनऊ अपने मामू के यहाँ चला गया। वहाँ दो महीने रहा। वहाँ भी कई दोस्त बन गये और ज़िन्दगी अच्छी ख़ासी गुज़रने लगी। लेकिन मुश्किल यह है कि दुनिया के कारोबारी लोगों को मेरे जैसे आदमी का सुकून बर्दाश्त नहीं होता। कुछ दिनों बाद मेरा सुख-चैन मेरे मामू को खटकने लगा। उनकी हार्डवेयर की दूकान है। कहने लगे दूकान पर बैठो। मैंने कहा, बात उसूलों की है। मैं नाज़ुक चीज़ों का प्रेमी हूँ, लोहा-लंगड़ के बीच बैठना मुझे गवारा नहीं। आख़िरकार लखनऊ भी छोड़ना पड़ा। चलते वक्त मामू से पाँच हज़ार रुपये ले लिये।

‘फिर रामपुर दूसरे मामू के यहाँ चला गया। वहाँ एक महीने ही रहा क्योंकि वे शुरू से ही पीछे पड़े रहे कि मैं डैडी के पास लौट जाऊँ। दुनिया भर की नसीहतों का दफ्तर खोले रहते थे। हर दूसरे दिन डैडी को फोन करते थे। लेकिन मेरे ऊपर उनकी बातों का असर भला क्यों होता?मैं तो सर पर कफ़न बाँध कर निकला था। मैंने कह दिया कि भीख माँग कर गुज़ारा कर लूँगा लेकिन फर्नीचर की दूकान पर बैठने भोपाल न जाऊँगा।

‘चुनांचे उन मामू से भी पाँच हज़ार रुपये लिये और वहाँ से अपने एक दोस्त के पास दिल्ली चला गया। वहाँ बीस दिन रहा। दोस्त तो भला आदमी है, लेकिन आप तो जानते ही हैं कि औरतें ज़रा तंगज़ेहन होती हैं। मैं दोस्त के साथ रात ग्यारह बारह बजे तक महफिल जमाये रहता था। दो चार और भले लोग शामिल हो जाते थे। बस उस नेकबख़्त औरत ने कहना शुरू कर दिया कि मैं उसके शौहर को बिगाड़ रहा हूँ। गोया कि उसका शौहर कोई दूध-पीता बच्चा है जो मैं बिगाड़ दूँगा। ख़ैर, मैंने दिल्ली भी छोड़ा और दोस्त से दो हज़ार रुपये लेकर इधर चला आया। जब हालात बेहतर होंगे, चुका दूँगा।’

मैंने कहा, ‘आपकी ज़िन्दगी तो जद्दोजहद की मुसलसल दास्तान है।’

वे सिगरेट का कश खींचकर गुल झाड़ते हुए बोले, ‘सच पूछिए तो हम तो इंकलाबी हैं और इंकलाब की मशाल लिये घूमते हैं। ये पुरानी सड़ी हुई पीढ़ी की तानाशाही हम क़तई बर्दाश्त नहीं करेंगे। दुश्वारियों की कोई फिक्र नहीं है। दुश्वारियों की तो आदत पड़ गयी है। आदत के बाद दर्द भी देने लगा मज़ा, हँस हँस के आह आह किए जा रहा हूँ मैं।’

मैंने एक मिनिट तक ‘वाह वाह’ करने के बाद पूछा, ‘अभी तो आप रुकेंगे?’

वे बोले, ‘देखिए, कब तक यहाँ आबोदाना रहता है। फिलहाल तो हूँ ही।’

अब तक रज्जू भी आ गया था। शम्मी साहब मुझसे बोले, ‘शाम को आइए। कुछ और दिल खोल कर बातें होंगी।’

मैं भाभी के तेवर देख चुका था। बोला, ‘आज शाम को तो मसरूफ़ हूँ। फिर कभी आऊँगा।’

थोड़ी देर में मैंने विदा ली। चलने लगा तो उन्होंने हाथ उठाकर दुहराया, ‘अगर आसानियाँ हों ज़िन्दगी दुश्वार हो जाए।’

रज्जू मुझे बाहर तक छोड़ने आया। मैंने उससे कहा, ‘इस बला से पीछा छुड़ा, नहीं तो भाभी किसी दिन हंगामा कर देगी।’

वह दुखी भाव से बोला, ‘क्या करूँ?मैं तो कई बार इशारा कर चुका, लेकिन उस पर कोई असर ही नहीं होता।’

दो दिन बाद रज्जू का फोन आया कि शम्मी मुझसे मिलना चाहते हैं। कई बार इसरार कर चुके हैं। मैं दोपहर को गया तो वे उसी तरह रज़ाई में घुसे मिले। हवा में वही सिगरेट की गमक थी और अलमारी में रात की खाली बोतल विराजमान थी।

मेरे बैठने के बाद वे बोले, ‘उस दिन की मुख़्तसर मुलाक़ात के बाद आपसे मिलने की ख़्वाहिश बनी रही। दरअसल अब एकाध रोज़ में यहाँ से चलने की सोच रहा हूँ।’ फिर तिरछी नज़र से भीतरी दरवाज़े की तरफ देखकर आवाज़ हल्की करके बोले, ‘मैंने पाया है कि दुनिया के ज़्यादातर लोग तंगज़ेहन हैं। एक इंकलाबी की ज़रूरतों को समझना और उसके काम में मदद करना लोगों को आता नहीं। ख़ास तौर से औरतों को मैंने इस मामले में बहुत ही नासमझ पाया। इसीलिए सोचता हूँ कि दोस्तों से मदद लेने के बजाय डैडी की फर्नीचर की दूकान पर ही लौट जाऊँ।’

मैंने कहा, ‘ख़याल नेक है। देर मत कीजिए।’

वे बोले, ‘वैसे मैं सोच रहा था दो चार दिन आपकी मेहमाननवाज़ी क़ुबूल की जाए। आप बड़े भले आदमी लगे।’

मेरा दिमाग़ तुरत रेस के घोड़े की तरह तेज़ भागा और मैंने निर्णय ले लिया। कहा, ‘तारीफ के लिए शुक्रिया, लेकिन मेरे घर में एक भारी समस्या है। मेरी बीवी को गुस्से के दौरे पड़ते हैं और दौरा पड़ने पर वह बिना सोचे समझे सामने वाले पर हाथ की चीज़ मार देती है। कई बार मुसीबत में पड़ चुका हूँ। ज़िन्दगी समझिए नर्क हो गयी है।’

शम्मी भाई घबराकर बोले, ‘तौबा तौबा!अच्छा हुआ आपने बता दिया। आप तो ख़ासी मुसीबत में हैं। मुझे आपसे हमदर्दी है।’

फिर बोले, ‘अब डैडी की फर्नीचर की दूकान पर लौट जाना ही बेहतर है। दुनिया की आबोहवा हम जैसे इंकलाबियों के लिए मौजूँ नहीं है। रज्जू से दो हज़ार कर्ज़ माँगा है, मिल जाए तो रवाना हो जाऊँगा।’

मैंने चलते वक्त उनसे हाथ मिलाया तो मेरा हाथ हिलाते हुए उन्होंने अपनी शहीदाना मुस्कान के साथ वही शेर पढ़ा—-चला जाता हूँ हँसता खेलता मौजे हवादिस से, अगर आसानियाँ हों ज़िन्दगी दुश्वार हो जाए।’

मैं दरवाज़े से निकलते निकलते मुड़ा तो उन्होंने इस तरह हाथ हिलाया जैसे बस हँसते हँसते फाँसी के तख़्ते पर चढ़ने ही वाले हों।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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