श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी का एक भावप्रवण आलेख “ एक आत्मकथा – वतन की मिटटी। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  एक आत्मकथा – वतन की मिटटी

मैं घर से परदेश चला था, रोजी-रोटी की तलाश में। रेलवे स्टेशन पर‌ पहुँच कर मैंने एक सुराही तथा एक मिटृटी का गिलास लिया, रास्ते में शीतल जल  पीने के लिए और सफ़र कटता गया। उस सुराही के जल से साथ चल रहे सहयात्रियों की प्यास बुझाई। मुझे अपने सत्कर्मो पर गर्वानुभूति हो चली थी।  मुझे भी जोर की प्यास लगी थी। जैसे ही मैंने पानी से भरे  मिट्टी के गिलास को हाथ में उठा होंठों लगाना चाहा तभी वह सिसकती हुई मिट्टी बोल पड़ी “मै भारत देश की महान धरती के एक अंश  से बनी हूं। मैं तुम्हारे वतन की मिट्टी हूँ। मेरे संपूर्ण अस्तित्व को अनेकों नामों से संबोधित किया जाता है। मुझे लोग धरती, धरणी, वसुंधरा, रत्नगर्भा, महि‌, भूमि आदि न जाने कितने नामों से पुकारते हैं। मैं बार बार  राजाओं महाराजाओं  की लोलुपता का शिकार हुई हूँ। मुझे प्राप्त करने की‌ इक्षा‌ रखने वाले राजाओ की गृहयुद्ध ‌की साक्षी भी मैं ही हूँ।

यह उस जमाने की बात है, जब प्लास्टिक का चलन शुरू ही  हुआ था लेकिन मिट्टी ने  भविष्य में आने वाले खतरे को भाँप लिया था।

वह मुझसे संवाद कर उठी –“उसने कहा ओ परदेशी  पहचाना मुझे, मैं तेरे वतन की मिट्टी हूँ। जब तू परदेश के लिए चला था, तभी से मैं तेरा साथ छूटने पर दुखी थी। मैं तुझे इसलिए बुला रही थी कि तुझे अपनी राम कहानी सुना सकूँ। लेकिन तूने मेरी सुनी कहाँ, तू मेरी वफ़ा को देख। मैंने फिर भी तेरा साथ नहीं छोड़ा और सुराही के रूप में चल पड़ी हूँ तेरे साथ तेरी प्यास बुझाने तथा तेरे साथ चल रहे इंसान की प्यास बुझाने के लिए। मुझे धरती खोद कर निकाल कर कुंभार अपने घर लाया। फिर मुझे रौंदा गया, मुझे रौंदे जाते देख मेरे एक पुत्र कबीर से मेरी दुर्दशा देखी न गई, उन्होंने मुझे माध्यम बना कुंभार को चेतावनी भी दे डाली और यथार्थ समझाते हुए कहा कि-

माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोहे ।
इक दिन ऐसा आयेगा, मैं रुन्दूगी तोहे।।

लेकिन कुम्हार ने जिद नहीं छोड़ी। उसने मुझे आग में तपा दिया और गढ़ दी अनेकों आकृतियां अपनी आवश्यकता के अनुरूप। मैने एक दिन उसे भी अपनी गोद में जगह दे दिया वह सदा के लिए मुझमें समा गया। लेकिन मेरी कहानी यहीं खत्म नहीं हुई और मैं दुकान से होती जीवन यात्रा तय करती तुमसे आ टकराई।  मैं आशंकित हूँ अपने भविष्य के प्रति। एक दिन तेरा स्वार्थ पूरा होते ही तू मुझे तोड़ कर फेंक देगा। काश मैं सुराही न होकर प्लास्टिक कुल में पैदा थर्मस होती तो यात्रा पूरी करने के बाद भी तेरे घर के कोने में शान से रहती।

याद रख मैं कृत्रिम नहीं हूँ।  मैं तेरी सभ्यता संस्कृति का वाहक तो हूँ ही, मुझसे ही तेरी पहचान भी है। मैं युगों-युगों से देवता और दानव कुल के बीच चल रहे संघर्षों की भी साक्षी रही हूँ। मैंने पारिवारिक पृष्ठभूमि के  युध्द देखे। आततायियों को धराशाई होते देखा। वीरों को वीरगति को प्राप्त होते देखा। मैं भी नारी कुल से पैदा हुई धरती माँ का अंश हूँ। मैंने सीता जैसी कन्या को अपनी कोख से पैदा किया तो उसकी व्यथा सुनकर अपने आँचल में समेटा भी। मैंने ही जीवन यापन करने के लिए लोगों को फल-फूल, लकड़ी-चारा, जडी़ बूटियां, खनिज दिया।

मैं न रही तो प्लास्टिक का ढेर तेरी पीढ़ियों को खा जायेगा। फिर तुझे किसी को पिंडदान करने के लिए भी नहीं छोड़ेगा। हर तरफ करूण क्रंदन ही क्रंदन होगा।

मुझे अपने भविष्य का तो कुछ भी पता नहीं है। लेकिन तेरा भविष्य मैं जानती हूँ। तू पैदा हुआ है, मेरे सीने पर खेला भी, मेरी गोद में तू मरेगा भी। मेरी आँचल की छांव में और  चिरनिंद्रा में  सोने पर तुझे अपनी गोद में  जगह  भी मैं ही दूंगी। क्योंकि, मैं तेरे वतन की पावन मिट्टी हूँ। तुम्हारे ही भाईयों ने अपनी लिप्सा पूरी करने के लिए विभाजन की अनेक सीमा रेखायें खींच दी। मुझे दुख और क्षोभ भी हुआ। लेकिन, दूसरे बेटे के कर्म पर गर्व भी है, जिसने मुझे अपने माथे से  लगा कर मेरी आन-बान-शान की रक्षा में अपनी जान देने की कसम खा रखी है। आज भी देश भक्त मेरी ‌मिट्टी से  अपने माथे का  तिलक लगाकर अपनी जान दे देते । उनका जीना भी मेरी खातिर और मरना भी मेरी खातिर। लेकिन, उनका क्या, जो मेरे नाम पर देश का भाग्य विधाता बन अपने अपने सत्ता सुख के लिए ‌मुद्दो की तलाश में हर बार विभाजन की एक और लकीर मेरे सीने पर और खींच देते हैं जातिवाद क्षेत्रवाद, भाषावाद, और अब तो संप्रदायवाद के दंश से‌ मै दुखी महसूस कर रही हूँ। उन भाग्यविधाताओं से मेरे वे सपूत अच्छे है जहां जाति, धर्म/का कोई भेद नहीं। सच्ची देशभक्ति, प्रजातंत्र के मंदिर में नहीं दिखती। वहाँ अब अपने अपने मतलब के लिए एक दूसरे पर कीचड़ उछालने का काम होता है। मैंने प्रजातंत्र के मंदिर में अवांछित शब्दों के प्रयोग से लेकर मार पीट भी‌ होते देखा है। काश कि वहां पर हितचिंतन की बातें करते जनहित के मुद्दों पर स्वार्थ रहित बहस करते। संसद चलने देते तो मेरी आत्मा निहाल हो जाती। काश, कोई सरहद पे जाता और देखता जहां बिना जाति, धर्म मजहब की परवाह किए  मेरा जवान लाल मेरे लिए ही जीता है मेरे लिए ही मरता है  तभी तो उनकी जहां चिता जलती है वहां की माटी भी आज पूजी जाती है। तभी तो किसी शायर ने कहा कि—–

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पे मरने वालों का यही बाकी निशां होंगा।।

तभी तो किसी रचना कार ने  फूल की इच्छा का चित्रण करते हुए लिखा जो यथार्थ के दर्शन ‌कराता है–

मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक,

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक

तभी कोई भोजपुरी रचना कार कह उठता है–

जवने माटी जनम लिहेस उ, उ ,माटी भी धन्य हो गइल।
जेहि जगह पे ओकर जरल चिता, काबा काशी उ जगह हो गईल।

भला मेरे सम्मान करने वालों का इससे‌ बढ़िया उदाहरण और कहाँ ?  … और तुम भी उनमें से ही एक हो। तुम्हारी यात्रा और ज़रूरतें पूरी हो जायेगी और तुम मुझे कहीं भी उपेक्षित फेंक दोगे। काश कि अपनी जरूरत पूरी कर किसी गरीब जरूरतमंद को दे देते तो मेरा जन्म सुफल हो जाता। इस तरह संवाद करते करते उसकी आँखें भर आईं थी और मेरा दिल भी भर आया था। मैं मिट्टी का गिलास ओंठो से लगाना भूल गया था। आज मुझे अपने वतन की माटी की पीड़ा कचोट रही थी और अपने वतन की माटी से प्यार हो आया था।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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