॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ आध्यात्म और विज्ञान के समन्वय की आवश्यकता ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

‘एको सदविप्रा: बहुधा वदन्ति’- सत्य एक है पण्डित (विद्वान) उसे कई प्रकार से बताते या कहते हैं। यह हमारे सनातन धर्म का ब्रह्मवावन्य है। मनुष्य को जीवन में उसी एक सत्य को जनना और समझना चाहिये इसके लिये सतत प्रयास करना चाहिये यही धार्मिकता है। इसी सत्य की खोज जब से इस सृष्टि का निर्माण हुआ है विद्वानों का खोजी मन कर रहा है और जिसने जो समझा उसी का प्रचार करता आया है। इसी चिन्तन धारा ने अनेकों नये-नये युग में नये-नये धर्मों को जन्म दिया है। हर धर्म ने अपनी परिस्थितियों और विचारों के अनुसार कर्मकाण्डों की स्थापना की है। इसी कर्मकाण्डों की भिन्नताओं ने विभिन्न धर्मों के कम समझने वालों को रूढि़वादी बनाया है और इसी बखेड़े के कारण विभिन्न धर्माविलियों में भेदभाव व लड़ाई आौर द्वेष है। इसी नासमझी के कारण युद्ध हुये हैं और आज आतंकवाद भी इसी का दुष्परिणाम है। इन्हीं भेदों और वर्तमान आतंकवाद ने सारे विश्व को अनावश्यक रूप से हलाकान कर रखा है। सामान्य जनजीवन कठिन हो गया है। विभिन्न देशों की सरकारों के सामने नित नई समस्यायें खड़ी कर दी हैं, जो मानव जाति के विकास में अड़ंगे हैं। जरा सोचिये इस समस्या से चाहे जब, जहां कहीं ये घटनायें घटती हैं, कितनी जन-धन की हानि हो जाती है। कितना श्रम व समय बर्बाद हो जाता है और जीवन की भावी योजनाओं को निर्मल कर आगे बढऩे का रास्ता भर नहीं रोक देता वरन जीवन की राह और दिशा ही बदल देता है। जिस सत्य की खोज मनुष्य करना चाहता है उस लक्ष्य से ही दूर हो दूसरी दिशा में बढऩे को मजबूर हो जाता है। परन्तु सब आकस्मिताओं और कठिनाइयों के बावजूद भी अध्यात्म के लक्ष्य उसी सत्य, परमात्मा की खोज जारी है।

जो खोज सदियों पहले से आत्मा या आध्यात्म के स्तर पर विद्वानों ने या धार्मिक व्यक्तियों ने शुरु की थी वही आज से करीब 400 वर्षों पहले विज्ञान ने जन्म ले शुरु की। विज्ञान का भी लक्ष्य सत्य की ही खोज है परन्तु रास्ता अलग है। आध्यात्म चेतना के स्तर पर चलकर खोज में लीन हैं और विज्ञान पदार्थ (वस्तु) के स्तर पर चलकर खोज करता है। दोनों का लक्ष्य एक होते हुये भी विधियां भिन्न है। अध्यात्म चेतना की अनुभूति और चिन्तन के द्वारा जो पाना चाहता है, विज्ञान उसे प्रत्यक्ष वास्तविक प्रयोग के द्वारा। या यों कहें कि दोनों की विधियों में अदृश्य और दृश्य का भेद है। दृश्य जगत सीमित है अदृश्य असीमित। मानव इन्द्रियों की क्षमतायें सीमित हैं किन्तु चेतना की व्याप्ति असीमित। इसलिये भी सामान्य मनुष्य दोनों क्रियाविधि, सरणी, परिणाम और उपलब्धियों को समझ नहीं पाता है और व्यवहारिक दृष्टि से आपस में विरोध करने लगता है। यही विरोध बड़ी-बड़ी लड़ाइयों और भारी क्षति का कारण बन जाता है। यदि विश्व में सभी लोग संकुचित कटुता को त्याग कर उदार भाव से प्रत्येक की अनुशासन में रहते हुये स्वतंत्रता को स्वीकार करने की वृत्ति को अपना लें तो न तो धर्मों के बीच में कट्टरता रहे और न भ्रम रहे। छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे, ऊँच-नीच के, सही-गलत होने के भाव तो केवल अज्ञान और असहिष्णुता के कारण ही उपजते हैं। सभी धर्म उसी एक परमशक्ति, जगन्नियता को पाने के ही रास्ते हैं फिर उनमें झगड़ा कैसे? एक ही स्थान पर पहुंचने के कई रास्ते हो सकते हैं, साधन भी भिन्न हो सकते हैं। मतलब तो उस स्थान तक पहुंचने से है। यह बात ऐसे भी सहजता से समझनी चाहिये जैसे यदि किसी को राजधानी दिल्ली पहुंचना है तो वहां तक जाने को सडक़ मार्ग, रेलमार्ग या वायु मार्ग कुछ भी अपनाया जा सकता है। जिसे जो सुविधाजनक हो उसका उपयोग कर ले। इसी प्रकार अध्यात्म और विज्ञान के बीच के भी भेद निरर्थक हैं। विज्ञान की खोजों का प्रत्यक्ष लाभ तो हम सब अनुभव कर रहे हैं। अनेकों नई खोजों ने विगत लगभग ढाई शताब्दियों के बीच मानवजाति को बेहिसाब सुख-सुविधायें हमें दी हैं। जिस अज्ञात अलख शक्तियों की खोज में दोनों (अध्यात्म और विज्ञान) लगे हैं उसकी खोज से दोनों को सहभागी होना अधिक उचित व उपयोगी होगा। अध्यात्म और विज्ञान दोनों ही एक दूसरे के पूरक होकर यदि किसी कठिन विचार को सामान्य आदमी को समझायें तो उसे अधिक मान्य व स्वीकार्य होंगे। आज के बहुरंगी विश्व में सभी धर्मों के तथा आध्यात्म के समन्वय की आवश्यकता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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